tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger1125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-63199875385278060502009-07-30T11:05:00.001+05:302009-07-30T11:05:52.117+05:30अंधेरे दौर में, अंधेरे के गीतआर्थिक तौर पर कमजोर और राजनीतिक तौर पर मजबूत बजट को देश में संकट की परिस्थितियों से जोड़ कर कैसे दिखाया जाए, न्यूज चैनलों के सामने यह एक मुश्किल सवाल है। यह ठीक उसी तरह की मुश्किल है, जैसे देश में बीस फीसदी लोग समझ ही नहीं सकते कि प्रतिदिन 20 रुपये की कमाई से भी जिन्दगी चलती है और उनकी अपनी जेब में बीस रुपये का नोट कोई मायने नहीं रखता है। कह सकते हैं कि न्यूज चैनलों ने यह मान लिया है कि अगर वह बाजार से हटे तो उनकी अपनी इक्नॉमी ठीक वैसे ही गड़बड़ा सकती है, जैसे कोई राजनीतिक दल सत्ता में आने के बाद देश की समस्याओं को सुलझाने में लग जाये। और आखिर में सवाल उसी संसदीय राजनीति पर उठ जाये, जिसके भरोसे वह सत्ता तक पहुंचा है। <br /><br />जाहिर है, ऐसे में न्यूज चैनल कई पैंतरे अपनाएंगे ही । जो खबर और मनोरंजन से लेकर मानसिक दिवालियेपन वाले तक को सुकुन देने का माध्यम बनता चले। सरकार का नजरिया भी इससे कुछ हटकर नहीं है। जनादेश मिलने के बाद पहला बजट इसका उदाहरण है। आम बजट में पहली बार उस मध्यम वर्ग को दरकिनार किया गया, जिसे आम आदमी मान कर आर्थिक सुधार के बाद से बजट बनाया जाता रहा । ऐसे में पहला सवाल यही उठा कि क्या वाकई आर्थिक सुधार का नया चेहरा गांव-किसान पर केंन्द्रित हो रहा है। क्योंकि बजट में ग्रामीण समाज को ज्यादा से ज्यादा धन देने की व्यवस्था की गयी। <br /><br />जब बहस आर्थिक सुधार के नये नजरिये से बजट के जरिये शुरु होगी तो अखबार में आंकड़ों के जरिये ग्रामीण जीवन की जरुरत और बजट की खोखली स्थिति पर लिखा जा सकता है। लेकिन हिन्दी न्यूज चैनलो का संकट यह है, उसे देखने वालो की बड़ी तादाद अक्षर ज्ञान से भी वंचित है। यानी टीवी पढ़ने के लिये नहीं, देखने-सुनने के लिये होता है। बजट में किसान, मजदूर, पिछडा तबका, अल्पसंख्यक समुदाय के हालात को लेकर जिस तरह की चिंता व्यक्त की गयी, उसमें उनके विकास को उसी पूंजी पर टिका दिया गया, जिसके आसरे बाजार किसी भी तबके को समाधान का रास्ता नहीं मिलने नहीं दे रहा है। यानी उच्च या मध्यम वर्ग की कमाई या मुनाफा बढ़ भी जाये तो भी उसकी जरुरते पूरी हो जायेगी, यह सोचना रोमानीपन है। इतना ही नहीं सरकार मुश्किल हालात उसी आर्थिक सुधार के जरीय खड़ा कर रही है, जिस सुधार के आसरे ज्यादा मुनाफा देने की बात कर वह बाजारवाद को बढ़ाती है। यानी ज्यादा से ज्यादा पूंजी किसी भी तबके को इस व्यवस्था में थोडी राहत दे सकती है...बड़ा उपभोक्ता बना सकती है। लेकिन देश का विकास नहीं कर सकती क्योंकि उसका अपना इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है । और सरकार इस इन्फ्रास्ट्रक्चर को बनाने की दिशा में जा नहीं रही है। <br /><br />न्यूज चैनलों का सबसे बडा संकट यही है कि वह सरकार की सोच और ग्रामीण भारत के माहौल को एक साथ पकड़ नहीं पा रहे हैं । साथ ही ग्रामीण जमीन के सच को बजट के सच से जोड़कर सरकार की मंशा को समझा भी नहीं पा रहे हैं। जबकि टीवी पर इस हकीकत को दिखाकर मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था के सतहीपन को उभारा जा सकता है। मसलन बजट को ही लें । बजट में ग्रामीण विकास के लिये अलग अलग क्षेत्र में इस बार खासा धन दिया गया। लेकिन पहला सवाल खडा होगा है कि जो धन बजट के जरीये निकला, वह गांव में आखिरी आदमी तो दूर की बात है, पहले व्यक्ति तक भी पहुंचेगा या नहीं और अगर पहुंचेगा तो कितना पहुंचेगा। यह सवाल इसलिये जरुरी है, क्योंकि कांग्रेस के नेता राजीव गांधी मानते थे और राहुल गांधी यह बात खुलकर मानते है कि केन्द्र से चला एक रुपया योजना तक पहुंचते पहुंचते दस से पन्द्रह पैसा ही बचता है। असल में बजट में अलग अलग योजना के मद में ही साठ फीसदी पूंजी इस बार बांटी गयी है। यानी राहुल गांधी के नजरिये को अगर सही माने तो साठ लाख करोड रुपया, जिसे विकास के लिये ग्रामीण जीवन को बेहतर बनाने के लिये प्रणव मुखर्जी ने दिया है, वह छह से नौ लाख करोड़ तक ही पहुंचेगा । बाकि पचास लाख करोड से ज्यादा की पूंजी दिल्ली से चलते हुये गांवों तक के रास्ते में बिचौलिये और दलालो द्वारा हडप ली जायेगी । इसमें नौकरशाह से लेकर राजनेता और राज्यो के तंत्र से लेकर पंचायत स्तर के बाबूओ का खेल ही रहेगा। सवाल यह है कि अगर सरकार भी इस पैसा हड़प तंत्र से वाकिफ है तो वह वैकल्पिक व्सवस्था क्यों नहीं करती है। और दूसरा सवाल है कि पूंजी के आसरे जब समाधान हो ही नहीं सकता है तो इन्फ्रास्ट्रक्चर पर ही सारा धन लगाने की बात सरकार क्यो नहीं करती है। <br /><br />पहले सवाल का जबाब बेहद साफ है । पैसा हडपने वाले तंत्र में उसी व्यवस्था के लोग है, जिसके आसरे देश की सत्ता या राजनीति चलती है। क्योंकि महानगर से लेकर जिला और गांव स्तर पर राजनीति खुद को इसी आसरे टिकाये रखती है कि अगर उनके समर्थन वाली पार्टी सत्ता में आ जायेगी तो उन्हें सीधा लाभ मिल जायेगा । असल में पैसा हड़पने वाले तंत्र और राज्य के बीच का समझौता ही एक नयी व्यवस्था खडा करता है जो नीतियों के आसरे बिना रोजगार के भी बेरोजगारों को पार्टियो के जरीये रोजगार दे देती है। इसको सरलता से समझने के लिये बंगाल में वामपंथियो की राज्य चलाने की व्यवस्था देखी जा सकती है। वहा कैडर ही सबसे प्रभावशाली होता है। और कोलकत्ता से नीतियो के सहारे जो धन गांव और पंचायत स्तर तक जाते है वह पूरी तरह कैडर के दिशा निर्देश पर ही खर्च होते हैं। यानी कैडर विकास से जुडी पूंजी को भी व्यक्तिगत लाभ और पार्टी के संगठन से जोडकर पार्टी की तानाशाही को इस तरीके से परोसता है, जिससे विकास का मतलब ही पार्टी के कैडर पर आ टिके। लेकिन दिल्ली की राजनीति खुद को इतना पारदर्शी नहीं दिखलाती। क्योंकि उसके लिये कैडर तंत्र के तौर पर विकसित होता है। जो अलग अलग मुद्दों के आसरे अलग अलग संस्थाओ को भी लाभ पहुंचाता है, और संस्थाओं के जरीये अपने राजनीतिक हित भी साधता है। राजनीतिक हित भी अलग अलग राज्यो में या अलग अलग इलाको में अलग अलग तरीके से चलते हैं। जैसे नरेगा का ज्यादा लाभ उन्हीं राज्यो में होगा, जहां केन्द्र और राज्य की सरकार एक ही पार्टी की हो। हो सकता है जवाहर रोजगार योजना से लेकर इन्दिरा अवास योजना के तहत घर बनाने का काम या उसका लाभ भी उन्ही क्षेत्रों में उन्हीं लोगों को हो, जिसके जरीये राजनीति अपना हित साध सकने में सक्षम हो। <br /><br />ऐसा नहीं है कि इस तंत्र को बनाने और अपने उपर निर्भर रखने में सिर्फ कांग्रेस ही सक्षम है । यह स्थिति भाजपा के साथ भी रही है । भाजपा की अगुवायी में एनडीए की सरकार के वक्त वित्त मंत्री यशंवत सिन्हा ने इस काम को बीजेपी के लिये बाखूबी इस्तेमाल किया । खासकर व्यापारियों को लाभ पहुंचाने की जो रणनीति नीतियो के आसरे भाजपा के दौर में अपनायी गयीं, उससे बिचौलिये और दलालो की भूमिका कई स्तर पर बढ़ी। वहीं, कांग्रेस ने उस मध्य वर्ग को अपने उपर आश्रित किया जो उच्च वर्ग में जाने के लिये लालायित रहता है। यह राजनीति का ऐसा चैक एंड बैलेंस का खेल है, जिसमें देश हमेशा संकट में रहेगा और और पार्टी का यह तंत्र इस बात का एहसास अपने अपने घेरे में हर जगह कराता है कि अगर उनके समर्थन वाली पार्टी सत्ता में रहती तो ज्यादा लाभ मिलता या फिर उनकी पार्टी सत्ता में आयी है तो लाभ मिलेगा ही। <br /><br />यहीं से दूसरा सवाल खडा होता है कि आखिर इन्फ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने की दिशा में सरकार की नीतियां क्यों नहीं जा रही है । जबकि इस बार कांग्रेस को जनादेश भी ऐसा मिला है, जिसमें पांच साल सरकार चलाने के बीच में कोई समर्थन खींच कर सरकार पर संकट भी पैदा नहीं कर सकता है । किसानों के स्थायी समाधान की दिशा के बदले सरकार उन्हे तत्काल राहत देकर अगले संकट से निजात दिलाने के लिये अपनी मौजूदगी का एहसास हर चुनाव के मद्देनजर करती है । इस बार किसानों को लेकर बजट में सबसे ज्यादा पांच लाख करोड तक की सीधी व्सयस्था की गयी है। लेकिन सवाल है अगर मानसून नहीं आता है, तो किसान को सरकार के पैकेज पर ही निर्भर रहना पडेगा । जो विदर्भ से लेकर बुदेलखंड तक के किसानो की फितरत बन चुकी है। <br /><br />सवाल है सरकार फसल बीमा की दिशा में आजतक नहीं सोच पायी है, लेकिन मुश्किल कहीं ज्यादा बड़ी यह है कि देश में खेती योग्य जमीन में से सिर्फ दस फीसदी जमीन ही ऐसी है, जिसके लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर की व्यवस्था है । यानी नब्बे फीसदी खेती के लिये सिंचाई तक की व्यवस्था भी देश में नहीं हो पायी है । यही स्थिति बीज और खाद को लेकर भी है। और सबसे खतरनाक स्थिति तो यही है कि अगर अपना पसीना बहाकर किसान अच्छी फसल पैदा कर भी लेता है तो भी फसल की कीमत का तीस से चालीस फीसदी ही उसके हिस्से में आता है, यानी बाकी साठ से सत्तर फिसदी बिचौलिये और दलालों के पास पहुंचता है। यानी बाजार से किसानों को जोड़ने तक की कोई सीधी व्यवस्था सरकार ने आज तक नहीं की है। जबकि खेती योग्य जमीन पर जो ढाई सौ से ज्यादा स्पेशल इकनामी जोन बनाने की तैयारी निजी क्षेत्र के जरीये सरकार कर रही है, और उसके लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर का पूरा ढांचा खिंचने के लिये तमाम राज्य सरकारे तैयार हैं। बैंक बिना दस्तावेज देखे लोन देने को तैयार है और बिचौलिये और दलालो का बडा तबका इसके शेयरो में पैसा लगाकर सीधे मुनाफा बनाने को तैयार है। <br /><br />यह स्थिति हर उस क्षेत्र में है जो सामाजिक तौर पर तो मजबूत है लेकिन आर्थिक तौर पर सरकार के रहमो-करम पर टिका है । मसलन जो न्यूनतम जरुरत के सवाल किसी भी आम व्यक्ति से जुडते हैं, उन्हें भी पूरा ना कर सरकार की नीतियों के आसरे उस पूंजी पर टिका दिया गया है, जो सरकारो के बदलने से उनकी मानवीय-अमानवीय होने का तमगा पाती हैं। या कहे आर्थिक सुधार में बाजारवाद का नारा लगा कर खुद को विकसित बनाने का प्रोपोगेंडा करती हैं। शिक्षा के मद्देनजर सभी को मुफ्त शिक्षा देने की बात पर दिल्ली में सरकार मुहर लगा सकती है। लेकिन हर गांव में जब प्राथमिक स्कूल तक नहीं है, तो शिक्षा देगा कौन और लेगा कौन । फिर मुफ्त शिक्षा के नाम पर अगर आंकडे दिखाये जाये और उसके बदले ग्रांट मिल जाये तो एक ही बच्चे की नाम बदल कर छह स्कूलो में दिखाया भी जा सकता है और कोई फ्राड नाम बना कर भी रजिस्ट्र में डाला जा सकता है। इसकी फेहरिस्त कुछ भी हो सकती है। यानी कितने भी बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने का ढिढोरा पिटा जा सकता है । साथ ही चुनावी वायदे के तहत सरकारी टारगेट को पाया जा सकता है। यहां सवाल मोनिटरिंग का खड़ा हो सकता है । लेकिन राजनीतिक तौर पर जो तंत्र खड़ा किया गाया है, उसमें मोनिटरिंग करने वाला शख्स सबसे ज्यादा कमाई करने वाला बन जायेगा। और मोनेटिंग तंत्र एक रुपये में बचे दस पैसे को भी कम कर पांच पैसे ही आखिरी आदमी तक पहुंचने देगा । यह स्थिति शिक्षा के साथ स्वास्थय और पीने के पानी को लेकर भी है । देश का साठ फिसदी क्षेत्र अभी भी जब न्यूनतम की लड़ाई ही लड रहा है तो विकासशील और विकसित होने का कौन सा बजट देश को जहन में रखेगा। <br /><br />जाहिर है देश का संघर्ष यहीं दम तोडता हुआ सा दिखता है । लेकिन यहीं से संसदीय राजनीति का ताना बाना शुरु होता है। संघर्ष का मतलब है हक की बात । अधिकार का सवाल। संसदीय राजनीति इस बात की इजाजत देती नहीं है, सत्ता में आने के लिये पचास फीसदी वोट चाहिये। बल्कि इजाजत इसकी भी नहीं है कि जो पचास फीसदी वोट डलते है, उसके भी पचास फीसदी वोट होने चाहिये तभी सत्ता मिलेगी। यानी देश के कुल वोटरों का पच्चीस फीसदी तो दूर पन्द्रह फीसदी तक भी वोट अपने बूते किसी एक राजनीतिक दल को नहीं मिलता। कांग्रेस जो सबसे पुरानी और राष्ट्रीय पार्टी है, अकेली पार्टी है जिसे देश में दस करोड़ से ज्यादा वोट मिले है। फिर सत्तर करोड़ वोटरों के देश में 35 करोड़ वोटर वोट ही नहीं डालते। फिर भी लोकतंत्र का तमगा उन्हीं राजनीतिक दलों के साथ जुड़ जाता है, जो सत्ता में होती है। लोकतंत्र का मतलब यहां दूसरों के अलोकतांत्रिक कहने का अधिकार है। यानी प्रणव मुखर्जी का बजट अगर देश के चालीस करोड आदिवासियों-किसान-मजदूरों के खाली पेट और न्यूनतम अधिकार की भी पूर्ति नहीं कर सकता है तो भी प्रणव मुखर्जी विशेषाधिकार प्राप्त सांसद मंत्री ही रहेंगे। और उनका बजट राष्ट्रीय बजट ही कहलायोगा। और जिन्हें बतौर नागरिक देश में स्वामिमान से जीने का हक है, अगर वह अपने अधिकारों के लिये संघर्ष का रास्ता अख्तियार करते है तो वह कानून व्यवस्था को तोड़ने वाले अलोकतांत्रिक लोग करार दिये जाते है। 1991 के आर्थिक सुधार के बाद से पिछले 18 साल में करीब पांच लाख से ज्यादा वैसे लोगो के खिलाफ समूचे देश के थानों में मामले दर्ज है, जिन्होंने रोजगार,घर, जमीन और न्यूनतम जरुरतो को लेकर संघर्ष किया। असल में आर्थिक सुधार की जो लकीर 1991 में खिंची, उसके 18 साल बाद यही लकीर इतनी मोटी हो गयी की देश के 20 करोड़ लोगों को विस्थापित उन्हीं योजनाओं से होना पड़ा, जिसे बजट और विकासपरख योजना का नाम देकर हर सत्ता ने हरी झंडी दिखायी। <br /><br />खास बात तो यह है कि विकास की जो लकीर ग्रामीण-आदिवासियों के लिये बनायी जाती है, वही लकीर सबसे पहले ग्रामीण आदिवासी को ही खत्म करती है । यह ठीक उसी तरह है जैसे ग्लोबल वार्मिग या कहे पर्यावरण की मार से बचने के लिये जो एसी..फ्रिज इस्तेमाल किया जाता है, वही सबसे ज्यादा मौसम बिगाड़ते है । गांवो को खत्म कर सुविधाओं के लिये जिन नये शहरो को बनाया- बसाया जा रहा है, वहां वही न्यूनतम असुविधा खड़ी हो रही हैं, जो गांवो में थी । यानी सीमेंट की अट्टालिकायें गांव से शहर तो किसी भी ग्रामीण को ले आयेंगी, लेकिन जमीन के नीचे के पानी के सूखने से लेकर हर न्यूनतम जरुरत के लिये उसी बाजार के लिये उपभोक्ता बनना ही पड़ेगा, जो सरकार या प्रणव मुखर्जी का बजट बनाना चाहता है। जिसमें आर्थिक सुधार का मतलब धन को अलग अलग मदो में बांटना होता है । लेकिन सरकार की आर्थिक नीतिया कभी किसी को आतंकित नही करतीं। अगर आंतकवाद और नक्सलवाद के सामानातंर आर्थिक आंतक के आंकडो को ही रखें, तो भी बीते 18 वर्षो की स्थिति समझी जा सकती है। बीते इन 18 सालो में अगर आतंकवाद की स्थिति देखें तो करीब 950 घटनाओ में 15 हजार से ज्यादा लोग मारे गये। पांच लाख से ज्यादा लोग उससे प्रभावित हुये और करीब एक हजार करोड़ का सीधा नुकसान आतंकवादी हिंसा से हुआ। वहीं, नक्सलवाद और सांप्रदायिक हिंसा की 1500 से ज्यादा घटनाये हुईं। जिसमें 18 हजार से ज्यादा लोग मारे गये । जबकि प्रभावित लोगों की संख्या बीस करोड तक की है। वही सीधा आर्थिक नुकसान एक लाख करोड़ से ज्यादा का हुआ। वहीं, जिस आर्थिक नीतियों को ट्रेक वन - टू कह कर एनडीए और यूपीए ने चलाया । उसके अंतर्गत दो हजार से ज्यादा घपले-घोटाले देश में हुये । आर्थिक नीतियों की वजह से 65 हजार किसानों ने आत्महत्या कर ली । कुपोषण से सिर्फ विदर्भ में बीस हजार से ज्यादा बच्चे मर गये। जिनकी जमीन , रोजगार, घर छिन गया, उनकी संख्या चालीस करोड़ से ज्यादा की है । आर्थिक तौर पर 50 लाख करोड़ से ज्यादा का नुकसान उन करोडों लोगों को हुआ, जिनकी जीती जागती जिन्दगी खत्म हो गयी । <br /><br />जाहिर है, जितने लोग सरकार की नीतियो की हिंसा की मार से प्रभावित हुये या फिर आतंकवाद से लेकर सांप्रदायिक हिंसा में जिनका सबकुछ स्वाहा हो गया, उनसे ज्यादा वोट 15 वी लोकसभा के लिये भी नहीं पड़े । जो दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र को परतंत्र का आईना भी दिखाता है। लेकिन दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र होने का तमगा और सबसे बड़ा बाजार कहलाने का सुकून ही संसदीय राजनीति का असल सच है, इसलिये जनादेश के बाद बजट का चेहरा पूरी दुनिया को मानवीय लगेगा ही । लेकिन बडा सवाल हैं, घुप्प अंधेरे के दौर में अंधेंरे का ही गीत सरकार-मीडिया क्यों गाते हैं।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com9