tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-43810692064529465262008-09-18T09:58:00.002+05:302008-09-18T10:03:08.102+05:30बंगाल के मरते किसानों को नहीं ढो पायेगी नैनोबंगाल का नया संकट बहुसंख्य तबके की राजनीति है,जो एक वर्ग के मुनाफे के बीच पिसने वाली हो चली है। जिस औघोगिकरण को लेकर बुद्ददेव को विकास का खांचा दिख रहा है, उसी वामपंथ ने एक वक्त औघोगिक विकास की खिंची लकीर को मिटाने में समूची ऊर्जा लगा दी थी। लेकिन बीते तीस साल में राजनीति का पहिया कैसे घूम गया, इसका अंदाज अब लगाया जा सकता है। वाम राजनीति की अर्थव्यवस्था की वजह से जूट उघोग ठप हो चुका है। जो उघोग लगे उनमें ज्यादातर बंद हो गए हैं। इसी वजह से 40 हजार एकड़ जमीन इन ठप पड़े उघोगों की चारदीवारी में अभी भी है। यह जमीन दुबारा उघोगों को देने के बदले व्यवसायिक बाजार औऱ रिहायशी इलाको में तब्दील हो रही है। चूंकि बीते दो दशकों में बंगाल के शहर भी फैले हैं तो भू-माफिया और बिल्डरो की नजर इस जमीन पर है।<br /><br />वाम सरकार का सबसे बड़ा संकट यही है कि उसके पास आज की तारिख में कोइ उघोग नही है, जहां उत्पादन हो। हिन्दुस्तान मोटर का उत्पादन एक वक्त पूरी तरह ठप हो गया था। हाल में उसे शुरु किया गया लेकिन वहां मैनुफेक्चरिग का काम खानापूर्ति जैसा ही है। डाबर की सबसे बडी इंडस्ट्री हुबली में थी। वहां ताला लग चुका है। एक वक्त था हैवी इलेक्ट्रिकल की इंडिस्ट्री बंगाल में थी । फिलिप्स का कारखाना बंगाल में था। वह भी बंद हो गए । कोलकत्ता शहर में ऊषा का कारखाना था । जहां लाकआउट हुआ और अब उस जमीन पर देश का सबसे बडा मॉल खुल चुका है । जो मध्यम तबके के आकर्षण का नया केन्द्र बन चुका है । लेकिन नयी परिस्थितयों में मॉल आकर्षण का केन्द्र है तो मैनुफेक्तरिग युनिट रोजगार की जरुरत है। बंगाल की राजनीति नैनो को लेकर इसलिये भी हिचकोले खा रही है और किसान की राजनीति को हाशिये पर ले जाने को तैयार है क्योंकि उदारवादी अर्थव्यवस्था के दौर में सर्विस सेक्टर में तो खूब पैसा लगा है। हर राज्य में आईटी सेक्टर सरीखे यूनिट जोर पकड़े हुये हैं लेकिन मैनुफेक्चरिंग यूनिट नैनो के जरिए टाटा पहली बार लेकर आया है जो बंगाल की राजनीति को नयी दिशा भी दे रहा है। नये मिजाज ने ही चार दशक पुरानी वाम राजनीति की दिशा भी बदल दी है। <br /><br />नयी जमीन जो उघोगों को दी जा रही है, उसके लिये वह इन्फ्रास्ट्रक्चर भी खड़ा किया जा रहा है, जो लोगो के रहते और खेती करते वक्त कभी नही किया गया है। बिजली के खम्बे और पानी की सप्लायी लाइन तक ग्रामीण इलाकों में गायब है लेकिन विकास की लकीर यानी उघोगों के आते ही खिंचने लग रही है। यहां सवाल उन आर्थिक नीतियो का भी है,जो वाम सरकार उठा रही है । बंगाल में 90 फीसद खेती योग्य जमीन इतनी उपजाऊ है कि उसे राज्य से कोई मदद की दरकार नहीं है । यानी निर्धारित एक से तीन फसल को जो जमीन दे सकती है, उसमें कोई अतिरिक्त इन्पफ्रास्ट्रक्चर नही चाहिये । खेत की उपज बडे बाजार तक कैसे पहुंचे या दुसरे राज्यो में अन्न कैसे व्यवस्थित तरीके से व्यापार का हिस्सा बनाया जाये, जिससे किसानों को उचित मूल्य मिल सके इसका भी कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है। जाहिर है किसान उपजाता है और बिचौलिए अपने बूते बांग्लादेश में व्यापार के नाम पर अन्न की स्मगलिंग करते है,जो सबसे ज्यादा मुनाफे वाला व्यापार हो चला है।<br /> <br />जाहिर है नयी परिस्थितयों में यह सवाल अपने आप में एक बड़ा सवाल हो चला है कि किसान चेतना क्या साठ के दशक की तर्ज पर बंगाल में दोबारा खड़ी हो सकती है। हालांकि तब और अब की परिस्थितयां बिलकुल उलट हैं । कांग्रेस की जगह आज वामपंथी है। नक्सलवादियों की लकीर को ममता सरीखे प्रतिक्रियावादी पकड़ना चाह रहे हैं। वामपंथियो को उन नीतियो से परहेज नहीं, जिसमें यह अवधारणा बने कि खेती अब लाभदायक नहीं रही।<br /><br />तो क्या अब यह माना जा सकता है कि 1964 से 1977 तक सीपीएम ने बंगाल की राजनीति में किसानों के आसरे जिस आंदोलन के माहौल को जन्म दिया और सत्ता में आने के बाद ज्योति बसु ने जिस तरह कैडर को ही सामाजिक सरोकार से जोड़ दिया,अब वह स्थितियां मायने नहीं रखती। क्योंकि ज्योति बसु ने 77 में भूमि सुधार की जो पहल की उसी का परिणाम भी रहा कि कैडर और समाज के बीच की दूरिया मिटीं। कैडर और किसान के बीच की लकीर मिटी। यानी उस दौर में जो नीतियां बनतीं, उसे लागू कराने में कैडर की हिस्सेदारी होती। हिस्सेदारी के दायरे में कैडर अपनी हैसियत के मुताबिक आता गया। जिसका जितना बडा घेरा होता उसकी हैसियत उतनी बड़ी होती जाती । कह सकते है ज्योति बसु ने सामुहिक जिम्मेदारी का एहसास पार्टी कैडर और सत्ता में पैदा किया। वजह भी यही है कि वाम राजनीति को तीस साल में कोई भेद ना सका । <br /><br />लेकिन क्या अब यह सवाल उठाया जा सकता है कि सीपीएम ने अगर चार दशक पहले भूमि सुधार की पहल की तो वह किसान चेतना का दबाव था । उस वक्त नक्सली नेता चारु मजूमदार ने नक्सलबाडी का जो खाका तैयार किया और जो संघर्ष सामने आया उसने सत्ता पर कब्जा करनेवाली शक्ति के तौर पर किसान चेतना को परखा । चूंकि उस दौर में किसान संघर्ष जमीन और फसल के लिये नहीं था, बल्कि राजसत्ता के लिये था । सीपीआई के टूटने के बाद इस नब्ज को सीपीएम ने पकड़ा और संसदीय राजनीति को किसान सरोकार में ढाल कर सत्ता तक पहुंचा। और तब से लेकर अभी भी गाहे-बगाहे सीपीएम यह कहने से नही चूकती कि संसदीय राजनीति तो उसके लिये क्रांति का वातावरण बनाने के लिये महज औजार है । लेकिन नयी परिस्थितयों में वाम राजनीति इस औजार के लिये जिस तरह अपने आधार को ही खारिज कर पूंजीवादी नारे को लगाने से नहीं चुक रही है, उसमें क्या यह माना जा सकता है कि किसान के संघर्ष का पैमाना भी मध्यम तबके की जरुरतों के ही दायरे में सिमट रहा है। और जो राजनीति 40 साल पहले किसान चेतना से शुरु हुई थी, वह 180 डिग्री में धुम कर मध्यम वर्ग की बाजार चेतना में बदल चुकी है। और बाजार की नैनो छोटा परिवार सुखी परिवार को तो गाड़ी का सुख दे देगी लेकिन नैनो इतना छोटी है कि वह बंगाल के मरते किसान को श्मशान घाट तक भी नहीं पहुंचा पायेगी। सवाल यही है जब किसान जागेगा तो बुद्ददेव उसे नैनो की सवारी सिखला चुके होगे या एक दूसरा नक्सलबाडी सामने आयेगा । <br /> <br />दिल्ली ब्लास्ट पर ग्राउड जीरो से बात करेगे शनिवार को.......Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-9794735452480819632008-09-15T15:15:00.003+05:302008-09-15T15:22:38.156+05:30नैनो ने बदल दी बंगाल की राजनीतिक जमीन" हमनें ज़मीन से जुड़ी ज़िन्दगी बचाने के लिये विरोध किया।" सिंगुर के कुछ किसानों से की गई बातचीत का यही लब्बोलुआब निकला, जो ममता के साथ हैं और पुलिस उन्हें गैरकानूनी तरीके से सिंगुर की घेराबंदी करने के आरोप में गिरफ्तार कर ले गयी । इस तेवर ने चार दशक पहले के नक्सलबाडी की याद दिला दी। उस वक्त विद्रोही किसानों ने गिरफ्तारी के बाद कहा था "हमने ताजा हवा में सांस लेने के लिये विद्रोह किया।" <br /><br />उदारवादी अर्थव्यवस्था को अपनाये जाने के बाद से यह पहला मौका आया है. जब विकास की लकीर को वही राजनीति खारिज कर रही है, जिसने अपनी राजनीति में इसे आगे बढ़ाने की वकालत की। बंगाल का राजनीति में पहला मौका है जब किसान-मजदूर उसी राजनीति में खारिज हो रहा है, जिसके आसरे राजनीति ने वाम को संसदीय दायरे में भी विकल्प की आस को बरकरार रखा। सिंगूर में टाटा के कार प्लांट और नंदीग्राम में इंडोनेशिया के सलीम ग्रुप के कैमिकल हब के खिलाफ किसान-मजदूर के साथ खडे होकर भी ना सिर्फ राजनीति की जा सकती है , बल्कि सत्ताधारी को भी पुरानी राजनीति पर लौटने को मजबूर किया जा सकता है, यह 1991 के बाद से पहली बार खुल कर नजर आया है। दरअसल, उदारवादी अर्थव्यवस्था के आसरे देश में जो विकास का ढांचा खडा किया जा रहा है, उसमें वर्ग विशेष का हित साधते हुये बहुसंख्यक तबके को भी लगातार तोड़ने का प्रयास हुआ है, जिससे समाज के भीतर यह संवाद लगातार बना रहे कि विकास सभी का हो रहा है। यानी बहुसंख्य तबके के भीतर भी कई खांचो को बनाने का प्रयास हुआ है। <br /><br />सिंगुर में चार हजार लोगो को नौकरी मिली । इनमें एक हजार उन किसान परिवार के सदस्य हैं, जिन्होंने अपनी जमीन मुआवजा लेकर कार प्लांट के लिये दी । जाहिर है नंदीग्राम को लेकर भी सीपीएम ने शुरुआती दौर में यही सवाल खड़ा किया था कि करीब दस हजार लोगो को कैमिकल हब बनने से रोजगार मिल जायेगा । लेकिन सिंगुर में जमीन पर टिकी जिन्दगियों की तादाद दस हजार से ज्यादा है तो नंदीग्राम में पच्चीस हजार से ज्यादा। लेकिन तीस साल के वाम शासन ने संसदीय राजनीति को जिस तरह आत्मसात किया है, उसमें संघर्ष की ट्रेनिग में ही जंग लग चुका है । <br /><br />लेकिन सिंगुर के बाद बंगाल में राजनीति को लेकर यह कयास लगाये जा रहे हैं कि चुनावी राजनीति में मध्य वर्गीय विकास मायने रखेगा या चार दशक पुरानी किसान की राजनीति सत्ता उलट-पलट सकती है। हालांकि, बंगाल में आंदोलन की राजनीति पहली बार संसदीय राजनीति से टकराने के लिए जिस तरह तैयार हो रही है, उसमें यह सवाल भी उठने लगा है कि खेतिहर जमीन पर उघोगों को लगाने का जो सिलसिला शुरु हुआ है और अलग अलग राज्यों में किसान-मजदूर-आदिवासियों का विरोध जिस तरह हो रहा है क्या वह विकास के बनते खांचे को तोड़ देगा या संसदीय राजनीति में यह वैकल्पिक राजनीति के साथ खड़ा होगा।<br /><br />बंगाल में राजनीति के संकेत शुरु से ही सरोकार वाले रहे है। वजह भी यही है कि वामपंथी तीन दशको से सत्ता में है। लेकिन पिछले चार वर्षो में बुद्धदेव भट्टाचार्य ने नीतिगत फैसलो के तहत औघोगिक विकास को राज्य के लिये जरुरी बनाया और खेतीहर संकट पर खामोशी बरती। इसने कई सवाल खडे किये । सवाल उठा कि जिस जमीन-किसान के मुद्दे के सहारे वाममोर्चा 30 साल से सत्ता पर काबिज है,वही जमीन पर पडा किसान लहुलुहान हो रहा है तो उसके संघर्ष का रास्ता कहां से निकलेगा । क्योंकि तीस साल के शासन में वामपंथियों ने ही किसानों को संघर्ष का पाठ पढ़ाया औऱ इन तीस सालों में भूमिहीन खेत मजदूरो की तादाद 35 लाख से बढकर 74 लाख 18 हजार हो चुकी है। फिलहाल राज्य में सवा करोड से ज्यादा किसान है । इसमें सीमांत किसान शामिल नहीं है। इसमे महज 56 लाख 13 हजार किसान ही ऐसे है जिनके पास अपनी जमीन है यानी वह जमीन के मालिक है या कहे बटाईदार हैं। जबकि करीब 75 लाख किसान भूमिहीन है। वहीं किसानो के संकट को उदारवादी अर्थव्यवस्था ने और ज्यादा हवा दे दी है। बड़ी तादाद में खेती योग्य जमीन दूसरे धंधो में दी जा रही है । जो धंधे हैं, उनमें मुनाफा और रोजगार दोनो सीमित हैं । यानी चंद हाथो में ही धंधे का लाभ पहुंच रहा है। जबकि जो जमीन छीनी जा रही है उस पर औसतन पचास से सौ गुना का अंतर है । यानी सौ किसानो का काम छिनने पर एक व्यक्ति को लाभ होता है । पं. बंगाल के भूमिसुधार मंत्री अब्दुल रज्जाक खुद मानते है कि हर साल 20 हजार एकड़ खेती योग्य भूमि दूसरे उपयोग में हस्तांतरित की जा रही है ।<br /><br />खेती के विकास को लेकर राज्य सरकार का जो नजरिया है, उसकी वजह से अनुसूचित जाति -जनजाति और पिछडी जातियों के किसान-मजदूर सामाजिक-आर्थिक तौर पर और ज्यादा मुश्किलो से जुझ रहे हैं। छोटी जोत के कारण नब्बे फिसदी पट्टेदार, 83 फिसदी बटाईदार काम के लिये दूसरी जगहो पर जाने के लिये मजबूर हैं । इनमें 36 फिसदी पट्टेदार और 26 फिसदी बटाईदारो की कमाई पूरे महीने हजार रुपये भी नहीं है। रोजाना तीस रुपये की मजदूरी भी इन्हे नहीं मिलती । सवाल इसलिये भी गहराए हैं क्योंकि जो जमीन औघोगिकरण के नाम पर चंद हाथों में रेवडी के भाव दी जा रही है, वह खेती की है। जबकि राज्य के पास 11 लाख 75 हजार एकड़ वन भूमि है, जो ऐसे ही पडी है । 40 हजार एकड़ जमीन खाली पडी है, जिसपर कल तक उघोग चलते थे लेकिन बंद उघोगो की जमीन को लेकर भी कोई सकारात्मक नीति सरकार की नहीं है । राज्य सरकार के तर्क है कि इन जमीनों को लेकर वह कोई निर्णय सीधे नहीं ले सकती। कहीं वन कानून है तो कहीं प्राधिकरण बीच में आयेगा । जबकि यह वही सीपीएम है, जिसने साठ के दशक में कांग्रेस की खेतीहर जमीन को लेकर अपनायी जा रही नीतियो पर सीधे उंगली उठायी थी । 1964-67 के दौर में सीपीएम ने जो कहा वह गौरतलब है। तब कहा गया, अंग्रेजों के जमाने में 1894 में बना भूमि अधिग्रहण कानून आज भी ढोया जा रहा है । इसमें जनहित के कोई स्पष्ट कानूनी मानदंड नहीं है ना ही साफ व्याख्या है । निजी मालिको को उपजाऊ जमीन उघोगो के लिये देना जनहित मान लिया जा रहा है । इतना ही नही उस दौर में औघोगिकरण को लेकर वामपंथियो ने साफ कहा था कि जो जमीन उपजाऊ नहीं है जो क्षेत्र विकसित नहीं है, उन्ही इलाको में उघोग लगाने चाहिये तभी औघोगिक विकास का कोई मतलब है अन्यथा जमीन हडपो की संस्कृति ज्यादा है।<br /><br />लेकिन बीते तीस साल में राजनीति का पहिया कैसे घूम गया, इसका अंदाज इस बात से अब लगाया जा सकता है कि नैनो का कारखाना सिंगुर में जिस नेशनल हाईवे के किनारे बना है, उस सड़क की दूसरी तरफ की जमीन भू-माफिया अपने कब्जे में ले चुके है। और यही भू-माफिया सीपीएम-टीएमसी के कैडर भी हैं और समझौता हो जाये इसके लिये जोर भी डाल रहे है । बुद्ददेव समझ रहे है कि नैनो का सच भी पूंजीवादी मुनाफे का रुप है , इसलिये वह पूंजीवाद की वकालत से घबराते नहीं हैं।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com7