tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger3125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-22240595354504026572011-12-07T12:30:00.000+05:302011-12-07T12:31:02.686+05:30कठघरे में पत्रकार क्यों?अंडरवर्ल्ड के कठघरे में एक पत्रकार मारा गया। और मारे गये पत्रकार को अंडरवर्ल्ड की बिसात पर प्यादा भी एक दूसरे पत्रकार ने बनाया। और सरकारी गवाह भी एक तीसरा पत्रकार ही बना। यानी अंडरवर्ल्ड से जुड़ी खबरों को नापते-जोखते पत्रकार कब अंडरवर्ल्ड के लिये काम करने लगे यह पत्रकारों को पता ही नहीं चला। या फिर पत्रकारीय होड़ ही कुछ ऐसी बन चुकी है, जिसमें पत्रकार अगर खबर बनते लोगों का हिस्सा नहीं बनता तो उसकी विश्नसनीयता नहीं होती। यह सवाल ऐसे मौके पर सामने आया है जब मीडिया की विश्वसनीयता को लेकर सवाल और कोई नहीं प्रेस काउंसिल उठा रहा है। और पत्रकार को पत्रकार होने या कहने से बचने के लिये मीडिया शब्द से ही हर कोई काम चला रहा है, जिसे संयोग से इस दौर में इंडस्ट्री मान लिया गया है और खुले तौर पर शब्द भी मीडिया इंडस्ट्री का ही प्रयोग कया जा रहा है। <br /><br />तो मीडिया इंडस्ट्री पर कुछ कहने से पहले जरा पत्रकारीय काम को समझ लें। जो मुंबई में मिड डे के पत्रकार जे डे की हत्या के बाद एशियन ऐज की पत्रकार जिगना वोरा की मकोका में गिरफ्तारी के बाद उठा है। पुलिस फाइलों में दर्ज नोटिंग्स बताती हैं कि मिड डे के पत्रकार जे डे की हत्या अंडरवर्ल्ड डॉन छोटा राजन ने इसलिये करवायी क्योंकि जे डे छोटा राजन के बारे में जानकारी अंडरवर्ल्ड के एक दूसरे डॉन दाउद इब्राहिम को दे रहा था। एशियन ऐज की पत्रकार जिगना वोरा ने छोटा राजन को जेडे के बारे में फोन पर जानकारी इसलिये बिना हिचक दी क्योंकि उसे अंडरवर्ल्ड की खबरों को बताने-दिखाने में अपना कद जेडे से भी बड़ा करना था। दरअसल, पत्रकारीय हुनर में विश्वसनीयता समेटे जो पत्रकार सबसे पहले खबर दे दे, उसका कद बड़ा माना ही जाता है। जब मलेशिया में छोटा राजन पर जानलेवा हमला हुआ और हमला दाउद इब्राहिम ने किया तो यह खबर जैसे ही अखबार के पन्नो पर जेडे ने छापी तो समूची मुंबई में करंट दौड़ पड़ा। क्योंकि अंडरवर्ल्ड की खबरों को लेकर जेडे की विश्वसनीयता मुंबई पुलिस और खुफिया एजेंसियों से ज्यादा थी। और उस खबर को देखकर ही मुंबई पुलिस से लेकर राजनेता भी सक्रिय हुये। क्योंकि सियासत के तार से लेकर हर धंधे के तार अंडरवर्ल्ड से कहीं ना कहीं मुबंई में जुड़े हैं। यानी अंडरवर्ल्ड से जुड़ी कोई भी खबर मुंबई के लिये क्या मायने रखती है और अंडरवर्ल्ड की खबरों को बताने वाले पत्रकार की हैसियत ऐसे में क्या हो सकती है, यह समझा जा सकता है। <br /><br />ऐसे में बड़ा सवाल यहीं से खड़ा होता है कि पत्रकार जिस क्षेत्र की खबरों को कवर करता है क्या उसकी विश्वसनीयता का मतलब सीधे उसी संस्थान या व्यक्तियों से सीधे संपर्क से आगे का रिश्ता बनाना हो जाता है। या फिर यह अब के दौर में पत्रकारीय मिशन की जरुरत है। अगर महीन तरीके से इस दौर के पत्रकारीय मिशन को समझें तो सत्ता से सबसे ज्यादा निकट पत्रकार की विश्वसनीयता सबसे ज्यादा बना दी गई है। यह सत्ता हर क्षेत्र की है। प्रधानमंत्री जिन पांच संपादकों को बुलाते है, अचानक उनका कद बढ़ जाता है। मुकेश अंबानी से लेकर सुनील मित्तल सरीखे कारपोरेट घरानो के नये वेंचर की जानकारी देने वाले बिजनेस पत्रकार की विश्वसनीयता बढ़ जाती है। मंत्रिमंडल विस्तार के बारे में पहले से जानकारी देने और कौन मंत्री बन सकता है, इसकी जानकारी देने वाले पत्रकार का कद तब और बढ़ जाता है, जब वह सही होता है। लेकिन क्या यह संभव है कि जो पत्रकार ऐसी खबरे देते हैं, वह उस सत्ता के हिस्से न बने हों, जहां की खबरों को जानना ही पत्रकारिता के नये मापदंड हों। और क्या यह भी संभव है जब कॉरपोरेट या राजनीतिक सत्ता जिस पत्रकार को खबर देती हो उसके जरीये वह अपना हित पत्रकार की इसी विश्सवनीयता का लाभ न उठा रही हो। और पत्रकार सत्ता के जरीये अपने हुनर को तराशने से लेकर खुद को ही सत्ता का प्रतीक ना बना रहा हो। <br /><br />यह सारे सवाल इसलिये मौजूं हैं क्योंकि राजनीतिक गलियारे में कॉरपोरेट दलालों के खेल में पत्रकार को कॉरपोरेट कैसे फांसता है, यह राडिया प्रकरण में खुल कर सामने आ चुका है। यहां यह सवाल खड़ा हो सकता है कि एशियन ऐज की पत्रकार जिगना वोरा पर तो मकोका लग जाता है क्योंकि अंडरवर्ल्ड उसी दायरे में आता है, लेकिन राजनीतिक सत्ता और कॉरपोरेट के खेल में कभी किसी पत्रकार के खिलाफ कोई एफआईआर भी दर्ज नहीं होती। क्या सत्ता को मिले विशेषाधिकार की तर्ज पर सत्ता से सटे पत्रकारों के लिये भी यह विशेषाधिकार है। <br /><br />दरअसल, पत्रकारीय हुनर की विश्वसनीयता का ही यह कमाल है कि सत्ता से खबर निकालते निकालते खबरची भी अपने आप में सत्ता हो जाते हैं। और धीरे धीरे खबर कहने-बताने का तरीका सरकारी नीतियों और योजनाओं को बांटने में भागेदारी से जा जुड़ता है। यह हुनर जैसे ही किसी रिपोर्टर में आता है, उसे आगे बढ़ाने में राजनेताओं से लेकर कॉरपोरेट या अपने अपने क्षेत्र के सत्ताधारी लग जाते हैं। और यहीं से पत्रकार का संपादकीकरण होता है जो मीडिया इंडस्ट्री का सबसे चमकता हीरा माना जाता है । और यहां हीरे की परख खबरों से नहीं मीडिया इंडस्ट्री में खड़े अपने मीडिया हाउस को आर्थिक लाभ दिलाने से होता है। यह मुनाफा मीडिया हाउस को दूसरे धंधों से लाभ कमाने की तरफ भी ले जाता है और दूसरे धंधे करने वालों को मीडिया हाउस के धंधे में ला कर काली समझ को विश्वसनीय होने का न्यौता भी देता है। <br /><br />हाल के दौर में न्यूज चैनलों का लाइसेंस जिस तरह चिट-फंड करने वाली कंपनियो से लेकर रियल-इस्टेट के धुरंधरों को मिला, उसकी नब्ज कैसे सत्ता अपने हाथ में रखती है या फिर इन मालिकान के न्यूज चैनल में पत्रकारिता का पहला पाठ भी कैसे पढ़ा जा सकता है, जब लाइसेंस पाने की कवायद में समूची सरकारी मशीनरी ही फ्रॉड तरीके से चलती है। मसलन लाइसेंस पाने वालो की फेरहिस्त में वैसे भी हैं, जिनके खिलाफ टैक्स चोरी से लेकर आपराधिक मामले तक दर्ज हैं। लेकिन पैसे की कोई कमी नहीं है और सरकार के जो नियम पैसे को लेकर लाइसेंस पाने के लिये चाहिये उसमें वह फिट बैठते है, तो लोकतांत्रिक देश में किसी भी नागरिक को यह अधिकार है कि वह कोई भी धंधा कर सकता है। लेकिन यह परिस्थितियां कई सवाल खड़ा करती हैं, मसलन पत्रकारिता भी धंधा है। धंधे की तर्ज पर यह भी मुनाफा बनाने की अर्थव्यवस्था पर ही टिका है। या फिर सरकार का कोई फर्ज भी है कि वह लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को बनाये-टिकाये रखने के लिये पत्रकारीय मिशन के अनुकुल कोई व्यवस्था भी करे।<br /><br />दरअसल इस दौर में सिर्फ तकनीक ही नहीं बदली या तकनीक पर ही पत्रकार को नहीं टिकाया गया बल्कि खबरों के माध्यम में विश्वसनीयता का सवाल उस पत्रकार के साथ जोड़ा भी गया और वैसे पत्रकारो का कद महत्वपूर्ण भी बनाया गया जो सत्तानुकुल या राजनेता के लाभ को खबर बना दें। अखबार की दुनिया में तो पत्रकारीय हुनर काम कर सकता है। लेकिन न्यूज चैनलों में कैसे पत्रकारीय हुनर काम करेगा, जब समूचा वातावरण ही नेता-मंत्री को स्टूडियो में लाने में लगा हो। अगर अंग्रेजी के राष्ट्रीय न्यूज चैनलों की होड को देखे तो प्राइम टाइम में वही चैनल या संपादक बड़ा माना जाता है, जिसके स्क्रीन पर सबसे महत्वपूर्ण नेताओ की फौज हो। यानी मीडिया की आपसी लड़ाई एक दूसरे को दिखाने बताने के सामानांतर विज्ञापन के बाजार में अपनी ताकत का एहसास कराने का ही है। यानी इस पूरी प्रक्रिया में आम दर्शक या वह आम आदमी है कहां, जिसके लिये पत्रकार ने सरोकार की रिपोर्टिंग का पाठ पढ़ा था। पत्रकारिता को सरकार पर निगरानी करने का काम माना गया। लोकतांत्रिक राज्य में चौथा स्तंभ मीडिया को माना गया । अगर खुली बाजार व्यवस्था में पत्रकारिता को भी बाजार में खुला छोड कर सरकार यह कहे कि अब पैसा है तो लाइसेंस लो। पैसा है तो काम करने का अपना इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाओ । और अपने प्रतिद्दन्दी चैनलों से अपनी तुलना मुनाफा बनाने या घाटे को कम करने के मद्देनजर करो। ध्यान दीजिये तो मीडिया का यही चेहरा अब बचा है। ऐसे में किसी कारपोरेट या निजी कंपनी से इतर किसी मीडिया हाउस की पहल कैसे हो सकती है। और अगर नहीं हो सकती है तो फिर चौथे खंभे का मतलब है क्या। सरकार की नजर में मीडिया हाउस और कारपोरेट में क्या फर्क होगा। कॉरपोरेट अपने धंधे को मीडिया की तर्ज पर क्यो नहीं बढ़ाना-फैलाना चाहेगा। मसलन सरकार कौन सी नीति ला रही है। कैबिनेट में किस क्षेत्र को लेकर चर्चा होनी है। पावर सेक्टर हो या इन्फ्रास्ट्रक्चर या फिर कम्यूनिकेशन हो या खनन से सरकारी दस्तावेज अगर वह पत्रकारीय हुनर तले चैनल की स्क्रीन या अखबार के पन्नों पर यह ना बता पायें कि सरकार किस कारपोरेट या कंपनी को लाभ पहुंचा रही है, तो फिर पत्रकार क्या करेगा। <br /><br />जाहिर है सरकारी दस्तावेजों की भी बोली लगेगी और पत्रकार सरकार से लाभ पाने वाली कंपनी या लाभ पाने के लिये बैचेन किसी कॉरपोरेट हाउस के लिये काम करने लगेगा। और राजनेताओं के बीच भी उसकी आवाजाही इसी आधार पर होने लगेगी। संयोग से दिल्ली और मुबंई में तो पत्रकारों की एक बडी फौज मीडिया छोड़ कारपोरेट का काम सीधे देखने से लेकर उसके लिये दस्तावेज जुगाड़ने तक में लगी है। यह परिस्थितियां बताती हैं कि मीडिया हाउस की रप्तार निजि कंपनी से होते हुये कारपोरेट बनने की ही दिशा पकड़ रही है और पत्रकार होने की जरुरत किसी कॉरपोरेट की तर्ज पर मीडिया हाउस को लाभ पहुंचाने वाले कर्मचारी की तरह होता जा रहा है। और ऐसे में प्रेस काउंसिल मीडिया को लेकर सवाल खड़ा करता है तो झटके में चौथा खम्भा और लोकतंत्र की परिभाषा हर किसी को याद आती है। लेकिन नयी परिस्थितियों में तो संकट दोहरा है। सुप्रीम कोर्ट से रिटायर होते ही जस्टिस काटजू प्रेस काउंसिल के चैयरमैन बन जाते है और अदालत की तरह फैसले सुनाने की दिशा में बढ़ना चाहते हैं। वहीं उनके सामने अपने अपने मीडिया हाउसों को मुनाफा पहुंचाने या घाटे से बचाने की ही मशक्कत में जुटे संपादकों की फौज खुद ही का संगठन बनाकर मीडिया की नुमाइन्दी का ऐलान कर सरकार पर नकेल कसने के लिये प्रेस काउसिंल के तौर तरीको पर बहस शुरु कर देती है। और सरकार मजे में दोनो का साख पर सवालिया निशान लगाकर अपनी सत्ता को अपनी साख बताने से कतराती। ऐसे में क्या यह संभव है कि पत्रकारीय समझ के दायरे में मीडिया पर बहस हो। अगर नही तो फिर आज एशियन एज की जिगना वोरा अंडरवर्ल्ड के कटघरे में है, कल कई होंगे। आज राडिया प्रकरण में कई पत्रकार सरकारी घोटाले के खेल की बिसात पर है तो कल इस बिसात पर पत्रकार ही राडिया में बदलते दिखेंगे।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-47687403563840807042010-12-09T16:21:00.001+05:302010-12-09T16:23:29.477+05:30साल भर पहले यही भ्रष्ट्राचार ताकत थी<p>गृहमंत्री चिदबंरम ने पिछले दिनों दिल्ली में शीपिंग कारपोरेशन ऑफ इंडिया के एक कार्यक्रम में पत्रकारों से कहा आप राडिया मीडिया के हैं। फिर कहा अगर आप राडिया के टेप नहीं है तो फिर मीडिया में कैसे हैं। जाहिर है पी.चिदंबरम ने यह बात मजाक में कही थी।</p><p>..लेकिन क्या चिदबरंम इस हकीकत से इंकार कर सकते हैं कि जिस 2जी स्पेक्ट्रम और ए. राजा को लेकर राडिया टेप बना, उस पर बतौर वित्त मंत्री पी.चिदबंरम ने 2008 में ही चार पन्नों की टिपप्णी लिखी थी। अपनी टिप्पणी में उन्होंने टेलीकॉम् मंत्री ए.राजा के 2जी स्पेक्ट्रम के खेल पर सीधे अंगुली उठाते हुये देश को लगते चूने की बात कही थी। और गृह सचिव मधुकर गुप्ता ने 24 सिंतबर 2008 में उस फाइल पर से आंख मूंद लीं जिसमें पद्मभूषण से सम्मानित पत्रकार के राडिया से बातचीत का जिक्र भी था। असल में इन दो सवालों के जरिये समझना जरुरी है कि जो घपला-घोटाला या भ्रष्ट्राचार आज नजर आ रहा है वह एक-दो साल पहले क्यों अलग नजरिये से देखा जा रहा था। या फिर उस वक्त भ्रष्ट्राचार की परिभाषा में यह सब "पावर" का प्रतीक था।</p><p>तो पहले बात गृह मंत्री की। 15 नवबंर 2008 में पहली बार मुख्य सतर्कता आयुक्त ने संचार मंत्री ए.राजा को स्पेक्ट्रम घपले पर कारण बताओ नोटिस दिया और उसके तुरंत बाद अपनी जांच के आधार पर प्रधानमंत्री को विस्तृत रिपोर्ट भेजकर अभियोजन प्रक्रिया शुरू करने की मांग की। उस रिपोर्ट में वित्त मंत्री चिदबरंम की वह चार पेजी टिप्पणी भी नत्थी थी, जिसे वित्त मंत्री ने 2जी स्पेक्ट्रम में पहले आओ, पहले पाओ की पॉलिसी अपनाकर देश के राजस्व को चूना लगाना शुरु किया था। और वित्त मंत्रालय देश के बजट में जहां-जहां से देश के खजाने में कमाई आने का अंदेशा लगाये हुये था इसका भी बंटाधार होते हुये चिदबंरम देख भी रहे थे और गठबंधन के धर्म तले टिपण्णी से आगे जाने की हिम्मत भी नहीं दिखा पा रहे थे। क्योकि अगर याद कीजिये तो जब 3जी स्पेक्ट्रम से देश को कमाई हुई तो वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने पहली टिपण्णी यही की थी कि इस कमाई से मनरेगा से लेकर तमाम सामाजिक कार्यक्रमो को पूरा करने में सरकार का धाटा पूरा हो जायेगा। </p><p>लेकिन उस वक्त वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने 2जी स्पेक्ट्रम की कम कमाई पर कोई टिपण्णी नहीं की। यानी इस साल 27 फरवरी को बजट वाले दिन भी सरकार को यह नहीं लगा कि 2जी स्पेक्ट्रम को कौडि़यों के मोल बेचकर भारी घपला किया गया है। जबकि वित्त मंत्रालय ने ही 2008 में इस मामले में पहली टिप्पणी भेजी थी। यानी चिदंबरम 2008 में सिर्फ टिप्पणी कर सकते थे और 2010 में प्रणव मुखर्जी सिर्फ खामोशी बरत सकते हैं। लेकिन अब जब सीबीआई को 2जी स्पेक्ट्रम घपले पर ए.राजा की कार्रवाईयो को लेकर चार्जशीट दाखिल करनी है तो सीबीआई को ज्यादा मेहनत की जरुरत इसलिये नहीं है क्योकि तत्कालिन वित्तमंत्री की चार पेजी टिपण्णी ही सीबीआई के लिये काफी है। तो क्या इसीलिये चिदंबरम या प्रणव मुखर्जी अब स्पेक्ट्रम घोटाले पर जेपीसी की मांग आते ही तुरंत खारिज करते है क्योंकि जेपीसी में इसकी जानकारी भी सभी के सामने आ जा जायेगी कि कैसे वित्त मंत्री को तो हर घपले की जानकारी थी। क्योंकि अक्टूबर 2009 में सीबीआई के केस दर्ज करने के अगले ही दिन 22 अक्टूबर 2009 को टेलीकॉम मंत्रालय में छापे मारने के बाद जब ए. राजा के खिलाफ सीबीआई ने कानूनी कार्रवाई करने की सोची तो वह सारे दस्तावेज सीबीआई के प्रोसीक्यूशन विंग को भेजे और उसमें वित्त मंत्रालय यानी तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम की चार पेजी टिप्पणी भी नत्थी थी। लेकिन प्रसीक्यूशन विंग चूंकि कानून मंत्रालय के अधीन आता है तो फिर सारी फाइलें भी सीबीआई के प्रसिक्यूशन विंग से कानून मंत्रालय और वहा से पीएमओ चली गयी।</p><p>इस पूरे दौर में वित्त मंत्रालय की तरफ आज तक इसका जिक्र नहीं जा रहा है कि 2008 में वित्त मंत्री चिदंबरम ने जो सवाल खडे किये थे उनका जवाब ना कानून मंत्रालय ने दिया ना ही पीएमओ ने। लेकिन महत्वपूर्ण है कि राडिया का टेलीफोन टैप करने के लिये सबसे पहले आयकर निदेशालय ने ही गृह सचिव से इजाजत मांगी थी। और तब सवाल टीडीएस का था। यानी टैक्स चोरी का। और राडिया फोन टैप की जानकारी तब भी वित्त मंत्रालय को थी। क्योंकि इन्कम टैक्स की फाइल तो वित्त मंत्रालय के जरिये ही गृहमंत्रालय पहुंची और उसी के बाद राडिया के फोन टेप हुये। चिदंबरम अब देश के गृहमंत्री हैं। अब दूसरा सवाल। पिछले साल जिस वक्त सरकार देश के महान विभूतियों को छांट कर उन्हे पद्मभूषण, पद्म विभूषण या पद्मश्री सरीखे सम्मान से सम्मानित करने का सोच रही थी उनके नाम किसी भ्रष्ट्राचार या अपराध में नहीं है इसके लिये समूची लिस्ट अलग-अलग जांच एंजेसियों को भी भेजी गयी। और सीबीआई ने अपनी रिपोर्ट में तब भी नीरा राडिया के साथ जिनकी बात फोन पर हो रही थी उनके नाम को सम्मानित किये जाने वाले नामो का मिलान किया था। और उस वक्त भी उन पत्रकारो के नाम सीबीआई ने गृहमंत्रालय को भेजकर यह टिप्पणी की थी कि सीबीआई 2जी स्पेक्ट्रम मामले में जो जांच कर रही है और नीरा राडिया के फोन टेप से जो नाम निकल कर आ रहे है उनमे से कुछ नाम सरकार की सम्मानित सूची में भी हैं। इस मोस्ट अरजेंट फाइल पर गृह सचिव की नजर नहीं गई होगी ऐसा हो नही सकता है। क्योंकि राडिया का फोन टैप करने की इजाजत तत्तकालिन गृह सचिव मधुकर गुप्ता ने दी थी और पहले छह महीने के फोन टैप करने के बाद जब उसकी समय सीमा बढाने की बात आयी तो फिर से गृह मंत्रालय का दरवाजा खटखटाया गया। क्योंकि पोस्ट एंड टेलीग्राफ एक्ट के तहत हर छह महीने में इजाजत दोबारा लेनी जरुरी होती है। ऐसे में गृह मंत्रालय को यह जानकारी थी कि भ्रष्ट्राचार के मामले में ही नीरा राडिया का फोन टैप हो रहा है। बावजूद इसके मधुकर गुप्ता ने उस फाइल की अनदेखी की जिसमें नीरा राडिया से जुडे उघोगपतियो, नेताओ, नौकरशाह और पत्रकारों के नाम टेप में सामने आये थे। फिलहाल पत्रकारों में जो नाम खुलकर सामने आया है और जिन्हे पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया वह बरखा दत्त का है। जबकि सीबीआई ने इस फाइल में कई नाम का जिक्र किया है। कहा जा सकता है कि बाकियों के नाम अभी सामने नहीं आये हैं। </p><p>लेकिन बडा सवाल तो यह भी है कि गृह सचिव ने तब भ्रष्ट्राचार की नीरा राडिया फाइल पर आंख मूंदी थी या उस दौर में यह सोचना भी गुनाह था कि पद्मश्री, पद्मभूषण या पद्मविभूषण से सम्मानित लोगो की सरकारी सूची में किसी नाम को ब्लैक लिस्टेट करना अपराध माना जायेगा। या सरकार को आईना दिखाने वाले नौकरशाह अब बचे नहीं हैं। इसलिये राडिया टेप सामने आने के बाद या कहें देश में भ्रष्ट्राचार के खिलाफ माहौल बनने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी जिस तरह प्रधानमंत्री से लेकर सीवीसी तक को कटघरे में खडा करने में देर नहीं लगायी उसके अक्स में अगर 2008-09 के दौर को देखें तो मंदी से निपटते मनमोहन सिंह, चिदंबरम और प्रणव मुखर्जी की तिगड़ी खासी महत्वपूर्ण लगती थी। विकास दर के आंकडे दुनिया के सामने मनमोहन इक्नामिक्स को ही श्रेष्ठ माने हुये थे। लेकिन, अर्से बाद जब मनमोहन इक्नामिक्स तले भ्रष्टाचार की परते उघाड़ी जा रही हैं तो कौन इसके दायरे में है और कौन दायरे में आयेगा, यही सवाल जेपीसी तक जाने से हिचक रहा है। कयोंकि तब हर दल के नुमाइन्दे के पास कारपोरेट, राजनीति, मीडिया और बिचौलियों के सत्ताधारियों का कच्चा-चिट्टा होगा और बोफोर्स में तो एक कागज ने सत्ता पलट दी थी यहां तो पूरी फाइल होगी। </p>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-30735288354901635922009-07-26T11:15:00.002+05:302009-07-27T21:05:07.794+05:30मीडिया, राजनीति और नौकरशाही का कॉकटेलमीडिया को अपने होने पर संदेह है । उसकी मौजूदगी डराती है । उसका कहा-लिखा किसी भी कहे लिखे से आगे जाता नहीं। कोई भी मीडिया से उसी तरह डर जाता है जैसे नेता....गुंडे या बलवा करने वाले से कोई डरता हो। लेकिन राजनीति और मीडिया आमने-सामने हो तो मुश्किल हो जाता है कि किसे मान्यता दें या किसे खारिज करें। रोना-हंसना, दुत्काराना-पुचकारना, सहलाना-चिकोटी काटना ही मीडिया-राजनीति का नया सच है। मीडिया के भीतर राजनीति के चश्मे से या राजनीति के भीतर मीडिया के चश्मे से झांक कर देखने पर कोई अलग राग दोनो में नजर नहीं आयेगा। लेकिन दोनों प्रोडेक्ट का मिजाज अलग है, इसलिये बाजार में दोनों एक दूसरे की जरुरत बनाये रखने के लिये एक दूसरे को बेहतरीन प्रोडक्ट बताने से भी नहीं चूकते। यह यारी लोकतंत्र की धज्जिया उड़ाकर लोकतंत्र के कसीदे भी गढ़ती है और भष्ट्राचार में गोते लगाकर भष्ट्राचार को संस्थान में बदलने से भी नही हिचकती।<br /><br />मौजूद राजनेताओं की फेरहिस्त में मीडिया से निकले लोगो की मौजूदगी कमोवेश हर राजनीतिक दलो में है । अस्सी के दशक तक नेता अपनी इमेज साफ करने के लिये एक बार पत्रकार होने की चादर को ओढ़ ही लेता था, जिससे नैतिक तौर पर उसे भी समाज का पहरुआ मान लिया जाये। जागरुक नेता के तौर पर ...बुद्दिजीवी होने का तमगा पाने के तौर पर, पढ़े-लिखों के बीच मान्यता मिलने के तौर पर नेता का पत्रकार होना उसके कैरियर का स्वर्णिम हथियार होता, जिसे बतौर नेता मीडिया के घेरे में फंसने पर बिना हिचक वह उसे भांजता हुआ निकल जाता।<br /><br />नेहरु से लेकर वाजपेयी तक के दौर में कई प्रधानमंत्रियो और वरिष्ठ नेताओं ने खुलकर कहा कि वह पत्रकार भी रह चुके हैं। आई के गुजराल और वीपी सिंह भी कई मौकों पर कहते थे कि एक वक्त पत्रकार तो वह भी रहे हैं । लेकिन नया सवाल एकदम उलट है। एक पत्रकार की पुण्यतिथि पर कबिना मंत्री मंच से खुलकर कहता है कि उन्हें मीडिया की फ्रिक्र नहीं है कि वह क्या लिखते हैं क्योकि पत्रकार और पत्रकारिता अब मुनाफा बनाने के लिये किसी भी स्तर तक जा पहुंची है। अखबार के एक ही पन्ने पर एक ही व्यक्ति से जुड़ी दो खबरें छपती हैं, जो एक दूसरे को काटती हैं। राजनेता की यह सोच ख्याली कह कर टाली नहीं जा सकती है । हकीकत है कि इस तरह की पत्रकारिता हो रही है ।<br /><br />लेकिन यहां सवाल उस राजनीति का है, जो खुद कटघरे में है। सत्ता तक पहुंचने के जिसके रास्ते में कई स्तर की पत्रकारिता की बलि भी वह खुद चढ़ाता है और जो खुद मुनाफे की अर्थव्यवस्था को ही लोकहित का बतलाती है। लेकिन लोकहित किस तरह राज्य ने हाशिये पर ढकेला है यह कोई दूर की गोटी नहीं है लेकिन यहां सवाल मीडिया का है। यानी उस पत्रकारिता का सवाल है, जिस पत्रकारिता को पहरुआ होना है, पर वह पहरुआ होने का कमीशन मांगने लगी है और जिस राजनीति को कल्य़ाणकारी होना है, वह मुनाफा कमा कर सत्ता पर बरकरार रहने की जोड़तोड़ को राष्ट्रीय नीति बनाने और बतलाने से नही चूक रही है। तो पत्रकार को याद करने के लिये मंच पर नेता चाहिये, यह सोच भी पत्रकारो की ही है और नेता अगर पत्रकारो के मंच से ही पत्रकारिता को जमीन दिखा दे तो यह भी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है।<br /><br />लेकिन पत्रकारिता के घालमेल का असल खेल यहीं से शुरु होता है । मीडिया को लेकर पिछले एक दशक में जितनी बहस मीडिया में ही हुई उतनी आजादी के बाद से नहीं हुई है। पहली बार मीडिया को देखने, समझने या उसे परोसने को लेकर सही रास्ता बताने की होड मीडियाकर्मियों में ही जिस तेजी से बढ़ी है, उसका एक मतलब तो साफ है कि पत्रकारो में वर्तमान स्थिति को लेकर बैचैनी है। लेकिन बैचैनी किस तरह हर रास्ते को एक नये चौराहे पर ले जाकर ना सिर्फ छोड़ती है, बल्कि मीडिया का मूल कर्म ही बहस से गायब हो चला है, इसका एहसास उसी सभा में हुआ, जिसमें संपादक स्तर के पत्रकार जुटे थे।<br /><br />उदयन शर्मा की पुण्यतिथि के मौके पर जो सवाल उस सभा में मंच या मंच के नीचे से उठे, वह गौर करने वाले इसलिये हैं, क्योंकि इससे हटकर व्यवसायिक मीडिया में कुछ होता नही और राजनीति भी कमोवेश अपने आत्ममंथन में इसी तरह के सवाल अपने घेरे में उठाती है और सत्ता मिलने के बाद उसी तरह खामोश हो जाती है, जैसे कोई पत्रकार संपादक का पद मिलने के बाद खुद को कॉरपोरेट का हिस्सा मान लेता है। मीडिया अगर प्रोडक्ट है तो पाठक उपभोक्ता हैं। और उपभोक्ता के भी कुछ अधिकार होते हैं। अगर वह माल खरीद रहा है तो उसे जो माल दिया जा रहा है उसकी क्वालिटी और माप में गड़बड़ी होने पर उपभोक्ता शिकायत कर भरपायी कर सकता है। लेकिन मीडिया अगर खबरों की जगहो पर मनोरंजन या सनसनाहट पैदा करने वाले तंत्र-मंत्र को दिखाये या छापे तो उपभोक्ता कहां शिकायत करें। यह मामला चारसौबीसी का बनता है । इस तरह के मापदंड मीडिया को पटरी पर लाने के लिये अपनाये जाने चाहिये। प्रिंट के पत्रकार की यह टिप्पणी खासी क्रांतिकारी लगती है।<br /><br />लेकिन मीडिया को लेकर पत्रकारों के बीच की बहस बार बार इसका एहसास कराने से नहीं चूकती कि पत्रकारिता और प्रोडक्ट में अंतर कुछ भी नही है । असल में खबरों को किसी प्रोडक्ट की तरह परखें तो इसमें न्यूज चैनल के पत्रकार की टिप्पणी भी जोड़ी जा सकती है, जिनके मुताबिक देश की नब्ज न पकड़ पाने की वजह कमरे में बैठकर रिपोर्टिग करना है। और आर्थिक मंदी ने न्यूज चैनलों के पत्रकारो को कमरे में बंद कर दिया है, ऐसे में स्पॉट पर जाकर नब्ज पकडने के बदले जब रिपोर्टर दिल्ली में बैठकर समूचे देश के चुनावी तापमान को मांपना चाहेगा तो गलती तो होगी ही।<br /><br />जाहिर है यह दो अलग अलग तथ्य मीडिया के उस सरोकार की तरफ अंगुली उठाते हैं जो प्रोडक्ट से हटकर पत्रकारिता को पैरों पर खड़ा करने की जद्दोजहद से निकली है । इसमें दो मत नहीं कि समाज की नब्ज पकड़ने के लिये समाज के बीच पत्रकार को रहना होगा लेकिन मीडिया में यह अपने तरह की अलग बहस है कि पत्रकारिता समाज से भी सरोकार तभी रखेगी, जब कोई घटना होगी या चुनाव होंगे या नब्ज पकडने की वास्तव में कोई जरुरत होगी। यानी मीडिया कोई प्रोडक्ट न होकर उसमें काम करने वाले पत्रकार प्रोडक्ट हो चुके हैं, जो किसी घटना को लेकर रिपोर्टिंग तभी कर पायेंगे जब मीडिया हाउस उसे भेजेगा।<br /><br />अब सवाल पहले पत्रकार का जो उपभोक्ताओ को खबरें न परोस कर चारसौबीसी कर रहा है। तो पत्रकार के सामने तर्क है कि वह बताये कि आखिर शहर में दंगे के दिन वह किसी फिल्म का प्रीमियर देख रहा था तो खबर तो फिल्म की ही कवर करेगा । या फिर फिल्म करोड़ों लोगों तक पहुंचेगी और दंगे तो सिर्फ एक लाख लोगो को ही प्रभावित कर रहे हैं, तो वह अपना प्रोडक्ट ज्यादा बड़े बाजार के लिये बनायेगा। यानी देश में सांप्रदायिक दंगो को राजनीति हवा दे रही है और उसी दौर में फिल्म अवॉर्ड समारोह या कोई मनोरंजक बालीवुड का प्रोग्राम हो रहा है और कोई चैनल उसे ही दिखाये। य़ा फिर अवार्ड समारोह की ही खबर किसी अखबार के पन्ने पर चटकारे लेकर छपी रहे तो कोई उपभोक्ता क्या कर सकता है। जैसे ही पत्रकारिता प्रोडक्ट में तब्दील की जायेगी, उसे समाज की नहीं बाजार की जरुरत पड़ेगी। पत्रकारिता का संकट यह नहीं है कि वह खबरों से इतर चमकदमक को खबर बना कर परोसने लगी है।<br /><br />मुश्किल है पत्रकारिता के बदलते परिवेश में मीडिया ने अपना पहला बाजार राजनीति को ही माना। संपादक से आगे क्या। यह सवाल पदों के आसरे पहचान बनाने वाले पत्रकारों से लेकर खांटी जमीन की पत्रकारिता करने वालो को भी राजनीति के उसी दायरे में ले गया, जिस पर पत्रकारिता को ही निगरानी रखते हुये जमीनी मुद्दों को उठाये रखना है। संयोग से उदयन की इस सभा में एनसीपी के नेता डीपी त्रिपाठी ने कहा कि राजनीति का यह सबसे मुश्किल भरा वक्त इसलिये है क्योकि वाम राजनीति इस लोकसभा चुनाव में चूक गयी। वाम राजनीति रहती तो सत्ता मनमानी नहीं कर सकती थी। वहीं कपिल सिब्बल ने कहा कि उदयन सरीखे पत्रकार होते तो पत्रकारिता चूकती नही, जो लगातार चूक रही है । लेकिन मंच के नीचे से यह सवाल भी उठा कि उदयन को भी आखिर राजनीति क्यों रास आयी । क्यो पत्रकारिता में इतना स्पेस नहीं है कि पत्रकार की जिजिविशा को जिलाये रख सके। उदयन जिस दौर में कांग्रेस में गये या कहें कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़े, उस दौर में देश में सांप्रदायिकता तेजी से सर उठा रही थी । और उदयन की पहचान सांप्रदायिकता के खिलाफ पत्रकारिता को धार देने वाली रिपोर्ट करने में ही थी। सवाल सिर्फ उदयन का ही नहीं है। अरुण शौरी जिस संस्थान से निकले, उसे चलाने वाले गोयनका राजनीति में अरुण शौरी से मीलो आगे रहे। लेकिन गोयनका ने कभी पिछले दरवाजे से संसद पहुचने की मंशा नहीं जतायी। चाहते तो कोई रुकावट उनके रास्ते में आती नहीं । गोयनका को पॉलिटिकल एक्टिविस्ट के तौर पर देखा समझा जा सकता है। लेकिन उसी इंडियन एक्सप्रेस में जब कुलदीप नैयर का सवाल आता है और इंदिरा गांधी के दबाब में कुलदीप नैयर से और कोई नहीं गोयनका ही इस्तीफा लेते है तो पत्रकारिता के उस घेरे को अब के संपादक समझ सकते है कि मीडिया की ताकत क्या हो सकती है, अगर उसे बनाया जाये तो।<br /><br />लेकिन कमजोर पड़ते मीडिया में अच्छे पत्रकारो के सामने क्या सिर्फ राजनीति इसीलिये रास्ता हो सकती है क्योकि उनका पहला बाजार राजनीति ही रहा और खुद को बेचने वह दूसरी जगह कैसे जा सकते हैं। स्वप्न दास हो या पायोनियर के संपादक चंदन मित्रा या फिर एम जे अकबर । इनकी पत्रकारिता पर उस तरह सवाल उठ ही नहीं सकते हैं, जैसे अब के संपादक या पत्रकारो के राजनीति से रिश्ते को लेकर उठते हैं। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि राजनीति में गये इन पत्रकारों की हैसियत राजनीतिक मंच पर क्या हो सकती है या क्या है, जरा इस स्थिति को भी समझना चाहिये।<br /><br />राजनीतिक गलियारे में माना जाता है कि उड़ीसा में नवीन पटनायक से बातचीत करने के लिये अगर चंदन मित्रा की जगह किसी भी नेता को भेजा जाता तो बीजू जनता दल और भाजपा में टूट नहीं होती। इसी तरह चुनाव के वक्त वरुण गांधी के समाज बांटने वाले तेवर को लेकर बलबीर पूंज ही भाजपा के लिये खेतवार बने। बलवीर पुंज भी एक वक्त पत्रकार ही थे । और वह गर्व भी करते है कि पत्रकारिता के बेहतरीन दौर में बतौर पत्रकार उन्होने काम किया है। लेकिन राजनीति के घेरे में इन पत्रकारो की हैसियत खुद को वाजपेयी-आडवाणी का हनुमान कहने वाले विनय कटियार से ज्यादा नहीं हो सकती है। तो क्या माना जा सकता है कि पत्रकारिय दौर में भी यह पत्रकार पत्रकारिता ना करके राजनीतिक मंशा को ही अंजाम देते रहे। और जैसे ही राजनीति में जाने की सौदेबाजी का मौका मिला यह तुरंत राजनीति के मैदान में कूद गये।<br /><br />पत्रकार का नेता बनने का यह पिछले दरवाजे से घुसना कहा जा सकता है,क्योकि राजनीति जिस तरह का सार्वजनिक जीवन मांगती है, पत्रकार उसे चाहकर भी नहीं जी पाता। पॉलिटिक्स और मीडिया को लेकर यहां से एक समान लकीर भी खिंची जा सकती है। दोनों पेशे में समाज के बीच जीवन गुजरता है। यह अलग बात है कि पत्रकारों को राजनीतिज्ञो के बीच भी वक्त गुजारना पड़ता है और नेता भी मीडिया के जरीये समाज की नब्ज टटोलने की कोशिश करता रहता है। लेकिन संयोग से दोनो जिस संकट पर पहुचे है, उसका जबाब भी इन्ही दोनों पेशे की तरफ से उदयन को याद करने वाली सभा में उभरा।<br /><br />राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक के एक ब्यूरो चीफ ने सभा में साफ कहा कि पत्रकारिता का सबसे बडा संकट तत्काल को जीना है। इसमें भी बडा संकट गहरा रहा है क्योकि आने वाली पीढ़ी तो उस गलती को भी नहीं समझ पा रही है, जिसे अभी के संपादक किये जा रहे हैं। यानी जो मीडिया में सत्तासीन हैं, उन्हे तमाम गलतियों के बावजूद पद छोडना नहीं है या उन्हे हटाने की बात करना सही नहीं है क्योकि उनके हटने के बाद जो पीढी आयेगी, वह तो और दिवालिया है।<br /><br />जाहिर है यह समझ खुद को बचाने वाली भी हो सकती है और आने वाली पीढ़ी की हरकतो को देखकर वाकई का डर भी। लेकिन पत्रकारिता में संकट के दौर में यह एक अनूठी समझ भी है, जिसमें उस दौर को मान्यता दी जा रही है जो बाजार के जरीये मीडिया को पूरी तरह मुनाफापरस्त बना चुकी है। लेकिन इस मुनाफापरस्त वक्त की पीढी की पत्रकारिता को कोई बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है य़ा फिर उसके मिजाज को पत्रकारिय चिंतन से इतर देख रहा है। यह घालमेल राजनीति में किस हद तक समा चुका है, इसे सीपीएम नेता सीताराम येचुरी के ही वक्तव्य से समझा जा सकता है। संयोग से उदयन की सभा के दिन सीपीएम सेन्ट्रल कमेटी की बैठक भी दिल्ली में हो रही थी, जिसमें चुनाव में मिली हार की समीक्षा की जा रही थी। और सीताराम येचुरी दिये गये वादे के मुताबिक बैठक के बीच में उदयन की सभा में पहुंचे, जिसमें उन्होंने माना कि वामपंथियों की हार की बड़ी वजह उन आम वोटरों को अपनी भावनाओं से वाकिफ न करा पाना था, जिससे उन्हें वोट मिलते। यानी सीपीएम के दिमाग में जो राजनीति तमाम मुद्दों को लेकर चल रही थी, उसके उलट लोग सोच रहे होगे, इसलिये सीपीएम हार गयी। लेकिन क्या सिर्फ यही वजह रही होगी। हालाकि सीपीएम के मुखपत्र में कैडर में फैलते भष्ट्राचार से लेकर कैडर और आम वोटरो के बीच बढ़ती दूरियो का भी बच बचाकर जिक्र किया गया। लेकिन सीताराम येचुरी के कथन ने उस दिशा को हवा दी, जहा राजनीति अपने हिसाब से जोड़-तोड़ कर सत्ता में आने की रणनीति अपनाती है लेकिन जनता के दिमाग में कुछ और होता है।<br /><br />यहां सवाल है कि राजनीति को जनता की जरुरतो को समझना है या फिर राजनीति अपने मुताबिक जनता को समझा कर जीत हासिल कर सकती है। भाजपा ने भी लोकसभा चुनाव में वहीं गलती कि जहां उसे लगा कि उसकी राजनीति को जनता समझ जायेगी और जो मुद्दे जनता से जुड़े हैं अगर उसमें आंतकवाद और सांप्रदायिकता का लेप चढ़ा दिया जाये तो भावनात्मक तौर पर उसके अनुकुल चुनावी परिणाम आ जायेगे। हालांकि भाजपा एक कदम और आगे बढ़ी और उसने हिन्दुत्व को भी मुद्दे सरीखा ही आडवाणी के चश्मे से देखना शुरु किया। हिन्दुत्व कांग्रेस के लिये मुद्दा हो सकता है लेकिन भाजपा की जो अपनी पूरी ट्रेनिंग है, उसमें हिन्दुत्व जीवनशैली होगी। चूंकि आरएसएस की यह पूरी समझ ही भाजपा के लिये एक वोट बैक बनाती है, इसलिये अपने आधार को खारिज कर भाजपा को कैसे चुनाव में जीत मिल सकती है, यह भाजपा को समझना है।<br /><br />यही समझ वामपंथियो में भी आयी, जहां वह वाम राजनीति से इतर सामाजिक-आर्थिक इंजिनियरिंग का ऐसा लेप तैयार करने में जुट गयी जिसमें वह काग्रेस का विकल्प बनने को भी तैयार हो गयी और जातीय राजनीति से निकले क्षेत्रिय दलों की अगुवाई करते हुये भी खुद को वाम राजनीति करने वाला मानने लगी। इस बैकल्पिक राजनीति की उसकी समझ को उसी की ट्रेनिग वाले वाम प्रदेश में ही उसे सबसे घातक झटका लगा क्योकि उसने अपने उन्हीं आधारो को छोड़ा, जिसके जरीये उसे राजनीतिक मान्यता मिली थी।<br /><br />जाहिर है यहां सवाल मीडिया का भी उभरा कि क्या उसने भी अपने उन आधारो को छोड़ दिया है, जिसके आसरे पत्रकारिता की बात होती थी । या फिर वाकई वक्त इतना आगे निकल चुका है कि पत्रकारिता के पुराने मापदंडों से अब के मीडिया को आंकना भारी भूल होगी । लेकिन इसके सामानांतर बड़ा सवाल भी इसी सभा में उठा कि मीडिया का तकनीकि विस्तार तो खासा हुआ है लेकिन पत्रकारो का विस्तार उतना नहीं हो पाया है, जितना एक दशक पहले तक पत्रकारो का होता था और उसमें उदयन-एसपी सिंह या फिर राजेन्द्र माथुर या सर्वेश्वरदयाल सक्सेना सरीखो का हुआ। मीडिया को लेकर नौकरशाह चुनाव आयुक्त एस एम कुरैशी ने भी अपनी लताड़ जानते समझते हुये लगा दी कि चुनाव को लेकर जीत-हार का सिलसिला रोक कर चुनाव आयोग ने कितने कमाल का काम किया है। एक तरफ कुरैशी साहब यह बोलने से नहीं चूके की मीडिया सर्वे के जरीये राजनीतिक दलों को लाभ पहुंचा देती है क्योंकि सर्वे का कोई बड़ा आधार नहीं होता। दूसरी तरफ राजनीति के प्रति लोगो में अविश्वास न जागे, इसके लिये मीडिया को भी मदद करने की अपील भी यह कहते हुये कि राजनेता लोकतंत्र की सबसे बड़ी पहचान है । कुरैशी साहब के मुताबिक चुनाव आयोग जिस तरह चुनावों को इतने बडे पैमाने पर सफल बनाता है, असल लोकतंत्र का रंग यही है । हालांकि मंच के नीचे से यह सवाल भी उठा कि सत्तर करोड़ मतदाताओं में से जब पैंतिस करोड़ वोट डालते ही नही तो लोकतंत्र का मतलब क्या होगा। 15 वीं लोकसभा चुनाव में भी तीस करोड से ज्यादा वोटरो ने वोट डालने में रुचि दिखायी ही नही । और वोट ना डालने वालो की यह तादाद राष्ट्रीय पार्टियो को मिले कुल वोट से भी ज्यादा है या कहे कांग्रेस की अगुवाई में जो सरकार बनी है, उससे दुगुना वोट पड़ा ही नहीं।<br /><br />लेकिन मीडिया का संकट इतना भर नहीं है कि पत्रकार शब्द समाज में किसी को भी डरा दे। राजनीति या नौकरशाही इसके सामने ताल ठोंककर उसे खारिज कर निकल भी सकती है । उस सभा के अध्यक्ष जनता दल यूनाइटेड के अध्यक्ष शरद यादव ने आखिर में जब अभी के सभी पत्रकारो को खारिज कर पुराने पत्रकारो को याद किया तो भी पत्रकारो की इस सभा में खामोशी ही रही। शरद यादव ने बडे प्यार से प्रभाष जोशी को भी खारिज करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उन्होंने कहा कि अभी के पत्रकारो में एकमात्र प्रभाष जोशी हैं, जो सबसे ज्यादा लिखते है लेकिन वह भी रौ में बह जाते हैं। जबकि शरद यादव जी के तीस मिनट के भाषण के बाद मंच के नीचे बैठे हास्य कवि सुरेन्द्र शर्मा ने टिप्पणी की- कोई समझा दे कि शरद जी ने कहा क्या तो उसे एक करोड़ का इनाम मिलेगा। असल में मीडिया की गत पत्रकारों ने क्या बना दी है यह 11 जुलायी को उदयन की पुण्यतिथि पर रखी इस सभा में मंच पर बैठे एक मंत्री,चार नेता और एक नौकरशाह और मंच के नीचे बैठे पत्रकारो की फेरहिस्त में कुलदीप नैयर से लेकर एक दर्जन संपादको से भी समझी जा सकती है। दरअसल, इस सभा में जो भी बहस हुई, इससे इतर मंच और मंच के बैठे नीचे लोगें से भी अंदाज लगाया जा सकता है कि एतक पत्रकारों को याद करने के लिए पत्रकारों द्वारा आयोजित सभी में ही किसे ज्यादा तरजीह मिलेग।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com10