tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-44422683575466571582009-02-21T14:16:00.000+05:302009-02-21T14:16:00.351+05:30मीडिया बंदूक से लड़ सकता है, पूंजी से नहींबंदूक का जवाब कलम से देंगे। ये कोई नारा नहीं, पाकिस्तान में मीडिया का सच है। पाकिस्तान में जियो न्यूज चैनल के पत्रकार मूसा खानखेल के शरीऱ में पैतीस गोलियां दागी गयीं। फिर सर कलम कर दिया गया।<br /><br />28 साल के पत्रकार मूसाखानखेल उस रैली को कवर करने स्वात गये थे, जो मुल्लाओं की जीत का जश्न था। या कहें पाकिस्तान सरकार के घुटने टेकने का जश्न था। जिस सरकार ने घुटने टेक दिये वहां का पत्रकार छाती तानकर खड़ा हो सकता है ....वह भी पाकिस्तान में, यह किसी भी भारतीय के लिये अचरच की बात है। क्योंकि भारत के चश्मे से पाकिस्तान को देखने का मतलब कट्टमुल्लाओं की फौज नज़र आती है। फिर मुंबई हमलों के बाद से तो पाकिस्तानी मीडिया को पाकिस्तान के ही रंग में रंगा माना जा रहा है।<br /><br />लेकिन पत्रकार मूसा खानखेल की हत्या के बाद स्वात इलाके में जा कर पाकिस्तान के पत्रकारों ने जिस हिम्मत से भविष्य के संघर्ष के संकेत दिये, उससे भारतीय मीडिया या भारत के पत्रकारों का दिल जरुर हिचकोले खा रहा होगा। खासकर जब बात पाकिस्तान और भारत के मीडिया की होती है तो सभी के दिमाग में पाकिस्तान की बंदिशें मीडिया को भी मुल्लाओं के रंग में रंग देती है। लेकिन जब मुल्लाओं के खिलाफ ही जम्हुरियत का सवाल पाकिस्तान का मीडिया उठा रहा है तो भारत में पत्रकारो को अपने भीतर झांकना होगा।<br /><br />मुंबई हमलों के बाद से किसी पत्रकार की इतनी हिम्मत नहीं रही कि वह कह सके कि पाकिस्तान से आये आंतकवादियो को कहीं ना कही स्थानीय मदद मिली होगी। यहां तक की आईबी की उस रिपोर्ट को भी तत्काल दफ़न किया गया जो बताती है कि किस तरह कोस्टल गार्ड से लेकर नौ सेना की खुफिया एजेंसी न सिर्फ फेल हुई बल्कि जो खुफिया रिपोर्ट इन्हे फैक्स की गयी ...कार्यवाही उस पर भी नहीं हुई । मीडिया में देशभक्ति का जज्बा कुछ इस तरह जागा और सरकार ने लगाम लगाने की तर्ज पर मीडिया को देशभक्ति का पाठ कुछ इस तरह पढ़ाया कि सरकार और मीडिया के सुर एक सरीखे हो गए।<br />वो तो भला हो चुनाव का वक्त है तो पीएम बनने का इंतजार करते आडवाणी ने संसद में ही दलील दे दी कि बिना स्थानीय मदद के मुंबई में आतंकवादी हमला कर ही नहीं सकते थे। लेकिन बात मीडिया की है। संयोग से भारत की खुशकिस्मत है कि मीडिया हाउसों के मालिक पत्रकार भी रहे हैं। खासकर न्यूज चैनलो के मालिकों की फेरहिस्त देखे तो सारे अग्रणी न्यूज चैनलो के मालिक पेशे से पत्रकार रहे हैं। इसलिये भारत में लोकतंत्र के चौथे पाये को लेकर आजादी का राग कुछ ज्यादा ही गाया जाता है। इमरजेन्सी में मीडिया की भूमिका ने इसे सही भी साबित किया । लेकिन छाती पर लगा यह तमगा बीते 34 साल में न सिर्फ जंग खा चुका है बल्कि इसपर पूंजी का लेप भी कुछ ऐसा चढ़ा है कि देशभक्ति का मतलब मुनाफे और सरकार की चाकरी पर आ टिका है।<br /><br />यहीं से पाकिस्तान के मीडिया का संघर्ष और भारतीय मीडिया की त्रासदी का अंतर समझा जा सकता है । पाकिस्तान में जनरल यानी मुशर्रफ ने ही न्यूज चैनलों को पहली हरी झंडी दिखायी थी। जियो न्यूज चैनल का जन्म उसी के बाद हुआ । जब 2001 में वाजपेयी से मिलने मुशर्रफ आगरा पहुंचे थे, तब उन्हे मीडिया की ताकत का असल एहसास हुआ था । मुझे याद है किस तरह सुबह के नाश्ते के लिये मुशर्रफ ने भारतीय पत्रकारों को आमंत्रित किया था और एनडीटीवी को उसके लाइव प्रसारण की इजाजत देकर भारतीय कूटनीति की हवा निकाल दी थी। जो बात वाजपेयी खुले तौर पर कह नही रहे थे और पाकिस्तान जो बात खुले तौर पर कहना चाहता था, उसे मुशर्रफ ने भारतीय मीडिया के जरीये ही कह दिया। उस दिन देश में वाजपेयी की बात कम और मुशर्रफ के जरीये एनडीटीवी की बात ज्यादा हो रही थी।<br /><br />आगरा से इस्लामाबाद लौटने के बाद ही प्राइवेट न्यूज चैनलों को इजाजत पाकिस्तान में मुशर्रफ ने दी । जियो न्यूज चैनल को चलाने की पूरी ट्रेनिग उन्ही विदेशियों ने दी, जो “आजतक” न्यूज चैनल को लांच करने से पहले उसमें काम करने वाले पत्रकारो को ट्रेनिग दे रहे थे। चूंकि आजतक लांच करने के दौरान की दो महिने चली ट्रेनिग में मै खुद एक सदस्य था और उन्हीं विदेशी गुरुओं ने मुझसे एंकरिंग करवायी तो उनसे संवाद का सिलसिला न सिर्फ लंबा रहा बल्कि आजतक लांच होने के बाद वही टीम जब पाकिस्तान में जियो न्यूज चैनल लांच करने की ट्रेनिग दे रही थी तो आजतक के रिपोर्टिग-एंकरिग के टेप ले जाकर उन्हें दिखाती भी थी। किस तरह आजतक भारत में छाया है और ट्रेनिग के बाद कैसे आजतक के पत्रकार काम करते है। मुझे याद है मुशर्रफ की आगरा यात्रा से ठीक पहले मै पाकिस्तान गया था तो हामिद मीर से मिला था। उस वक्त वह एक आखबार निकाला करते थे । वो उसके संपादक भी थे । उस दौर की पहचान ने (आगरा ने) मुझे पाकिस्तान खेमे से खबरे निकालने में मदद की और हामीद मीर को आजतक पर इंटरव्यू के लिये तीन दिनों तक बार बार लाया । उस वक्त हामिद मीर ने कहा था कि भारतीय मीडिया की पावर अगर पाकिस्तान में भी आ जाये तो हुकुमते मनमाफिक तो नहीं कर पायेंगी।<br /><br />स्वात घाटी में पत्रकारों के बीच जब पत्रकार मूसा खानखेल की हत्या के बाद हामिद मीर कलम से बंदूक का सफाया करने का ऐलान कर रहे थे तो मुझे 2001 का वह दौर भी याद गया, जब मै पहली बार आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैय्यबा के मुखिया मोहम्मद हाफिज सईद का इंटरव्यू ले कर लौटा था। उस वक्त आजतक के मालिक अरुण पुरी ने मेरी पीठ ठोंकी थी। खुद इंटरव्यू देखा था। और उस दौर में वाजपेयी सरकार के भीतर से यह संकेत दिये जा रहे थे कि इस इंटरव्यू को न दिखाया जाए । इससे कश्मीर के आतंकवाद को और हवा मिलेगी। लेकिन अरुण पुरी ने न सिर्फ इंटरव्यू दिखाने का निर्णय लिया बल्कि अखबारो में विज्ञापन निकाला –“आजतक कैचेज लश्कर चीफ” ।<br /><br />लेकिन वक्त बदल चुका है। सरकार अपनी कमजोरी छुपाकर मीडिया को सीख दे रही है कि उसे क्या करना चाहिये.......और मीडिया भी पत्रकारिता का ककहरा सरकार से सीखने को बेताब है। दरअसल, यह बेताबी सत्ता से मिलने वाले मुनाफे में हिस्सेदारी की चाह में पत्रकारिता न करने की एवज का ही नतीजा है। पत्रकारिता ताक पर रखकर अगर मुनाफे में हिस्सेदारी हो सकती है तो पत्रकारिता की जरुरत ही क्या है। जियो न्यूज उस कसाब को पाकिस्तानी साबित कर देता है जिसे पाकिस्तान की सरकार पाकिस्तानी मानने से इंकार कर देती है । जियो कराची के उस घर को दिखा देता है, जहां मुंबई हमले की साजिश रची गयी...जबकि पाकिस्तानी सरकार साजिश में पाकिस्तान को महज एक हिस्सा भर बताती है।<br /><br />दूसरी तरफ भारत में किसी न्यूज चैनल की हिम्मत नहीं होती कि वह मंत्री या नौकरशाहों की राष्ट्रभक्ति भरी चेतावनी को खारिज कर आतंकी हमले के पीछे के आतंक और उसके सच को सामने रख सके । मुंबई की लोकल में हुये सीरियल ब्लास्ट से लेकर दिल्ली में हुये सीरियल ब्लास्ट और उसके बाद बटला हाउस इन्काउटर को लेकर जिनकी गिरफ्तार हुई और पुलिस के पकडे गये आरोपियों को लेकर जो जो कहानियां गढ़ी गईं, अगर उसकी तह में तो जाना दूर उसे ऊपर से ही परख ले तो सुरक्षा के नाम पर पुलिस की कार्रवाई देश को कैसे असुरक्षित कर रही है...खुद -ब-खुद सामने आ जायेगा। लेकिन किसी भी न्यूज चैनल के भीतर पाकिस्तान की तरह अपने ही बाजुओं को खोखला बताने की हिम्मत है कहां ?<br /><br />भारत में न्यूज चैनलों की हालत किस स्थिति तक जा पहुंची है, इसका खूबसूरत नजारा फिल्म “दिल्ली-6” में देखा जा सकता है । जहां फिल्म की स्क्रिप्ट ही न्यूज चैनलों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा करती है । और फिल्म में बकायदा एक न्यूज चैनल न सिर्फ अपने चैनल चिन्ह बल्कि रिपोर्टर - एंकर के जरिये भी छाती ठोंक कर उस फिल्मी कहानी को आगे बढ़ाता है, जो फिल्म खत्म होने का बाद उस सोच को समाज का कलंक करार देती है। फिल्म के आखिर में डायरेक्टर ने बेहद हेशियारी से पर्दे पर उस आईने को टांग दिया है जो फिल्म सभी चरित्रों को दिखाते हुये कहता है कि इसमें अपनी तस्वीर देख कर इसका एहसास करो की असल चोर तुम्हारे ही अंदर है। अंत में हर चरित्र इस आईने में खुद देखता है लेकिन चैनल का पत्रकार यहां भी आइने में अपनी तस्वीर देखने नहीं आता। संयोग से असल में यह चैनल भी पत्रकार का ही है और इसमें काम करने वाले भी पत्रकार ही है।<br /><br />लेकिन भारतीय परिवेश में यह पत्रकार भी छाती ठोंक कर चल सकते हैं और पाकिस्तान के मीडिया को ताजी हवा का झोंका मान सकते है । लेकिन दोनों देशों के मीडिया का वर्तमान सच यही है कि पाकिस्तान में उसे बंदूक से दो दो हाथ करने है..जहां मूसा खानखेल सरीखे पत्रकार की जान जायेगी और भारत में पूंजी बनाने के लिये पहले सरकार से यारी फिर खबरों को दरकिनार कर फिल्मी कहानी का हिस्सा बनकर पत्रकारिता को प्रोफेशनल बनाने का राग गुनगुनाना है। दिलचस्प है कि मंदी के दौर में जहां लाखों लोगों की नौकरियां जा रही है,वहां मीडिया की जिम्मेदारी ज्यादा बनती है,लेकिन सिनेमाई दर्शन में खुद से अभिभूत और पूंजी से संचालित मीडिया का ध्यान सिर्फ लाखों रुपए पीटने में लगा है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com17tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-38674084895628214072009-01-09T10:30:00.004+05:302009-01-09T10:37:35.158+05:30किससे लड़ें - पाकिस्तानी आतंकवाद से या देशी राजनीतिक आतंकवाद से<p>इंदिरा गांधी होतीं तो पाकिस्तान के आतंकवादी कैपों पर 28 नवबंर को ही हमला बोल देतीं। मुंबई हमलों में आतंवादियों को मार गिराये जाने की खबर के साथ ही दुनिया तब पाकिस्तान के खिलाफ भारत की सैनिक कार्रवाई की खबर सुनता। लेकिन देश में लीडरशीप है नहीं तो घुडकी का अंदाज भारत की कूटनीति का हिस्सा बना हुआ है। समूची कूटनीति का आधार देश के भीतर बार बार यही संकेत दे रहा है कि चुनाव होने है...उससे पहले सरकार बांह चढाकर आम वोटरों की भावनाओं में राष्ट्रप्रेम का चुनावी संगीत भरना चाहती है...समूची कवायद इसी को लेकर हो रही है। </p><p><br />करगिल के जरिए जो काम एनडीए सरकार कर सत्ता में बनी रही, वैसा ही कुछ यूपीए सरकार भी करके सत्ता में बने रहने के उपाय ही करना चाह रही है। दरअसल, यह सारी सोच आम जनता के बीच चर्चाओं में जमकर घुमड़ रही है। पहली बार देशहित या राष्ट्रप्रेम को भी चुनावी रणनीति में लपेट कर कूटनीति का जो खेल खेला जा रहा है, उससे यह तो साफ लगने लगा है कि राजनीति अपने सत्ता प्रेम को पारदर्शी बनाने से भी नही कतराती। और जनता हाथों में हाथ थाम कर या मोमबत्ती जलाकर ही अपने आक्रोष को शांत करना चाहती है। टेलीविजन स्क्रीन पर वाकई रंग-रोगन कर तीखी बहस के जरिए देश पर हमले का जबाब देने को उतारु है।</p><p><br />जाहिर है इन सभी के पेट भरे हुये है और सुरक्षित समाज में सत्ता के करीब रहने का सुकून हर किसी ने पाला है तो युद्दोन्माद की स्थिति बरकरार रख जीने का सुकून सभी चाहने लगे हैं। सरकार से इतर बाकि राजनीतिक दल क्या कर रहे हैं, यह कहीं ज्यादा त्रासदी का वक्त है। जो आरएसएस<br />1961 में चीन युद्द के दौरान जनता और सेना का मनोबल बढाने के लिये समाज के भीतर और सीमा पर सैनिकों के साथ खड़ा हो गया था, वह अब इस मौके पर आडवाणी की ताजपोशी की रणनीति बनाने में जुटा है। चीन युद्द के दौर में भारतीय सैनिकों के पास गर्म जुराबे तक नहीं थीं। हाथ में डंडे और दुनाली से आगे कोई हथियार नहीं था। उस वक्त आरएसएस गर्म कपड़े सैनिको में बांटा करता था। समाजवादी और लोहियावादी नेता नेहरु-मेनन की नीतियो के खिलाफ खुले रुप में खड़े हो गये थे। मेनन को तभी नेहरु ने हटाया भी। चीन को लेकर उस दौर में समाजवादी-लोहियावादी नेहरु की वैदेशिक नीति के खिलाफ थे। उसी विरोध के बाद लाल बहादुर शास्त्री ने वैदेशिक नीति में अंतर लाया। वहीं अब खुद को समाजवादी-लोहियावादी कहने वाले सरकार से राजनीतिक सौदेबाजी का हथियार भी राष्ट्रहित को बनाने से नही चूक रहे।</p><p><br />हां, अभी के वामपंथियो को लेकर अच्छा लग सकता है कि वह किसी भूमिका में नहीं है । क्योंकि चीन युद्द के दौरान वामपंथी सीमा पर रहने वाले लोगो को राहत देने के लिये पार्टी सदस्य बनाकर कार्ड होल्डर बना रहे थे और कह रहे थे जब चीनी सैनिक आयें तो उन्हे यह लाल कार्ड दिखा दें, जिससे वामपंथी होने के तमगे पर उन्हे कोई कुछ नही कहेगा। असल में पाकिस्तान को लेकर कौन सी कूटनीति अब अपनायी जा रही है, जिसमें अमेरिका के बगैर भारत कुछ कर नही सकता और जबतक चीन पाकिस्तान के साथ खडा है अमेरिका कुछ कह नहीं सकता । </p><p><br />26 नबंबर 2008 यानी मुबंई हमलो के बाद के सवा महिनों में अमेरिका और चीन की सक्रियता भी गौर करने वाली है । हमलों के तुरंत बाद अमेरिकी विदेश मंत्री कोडलिजा राइस ने दिल्ली होते हुये इस्लामाबाद की यात्रा की । बचते-बचाते जिस तरह के बयान राइस ने दिये, उसमें दिल्ली यात्रा के दौरान भारत खुश हो सकता है और इस्लामाबाद यात्रा के दौरान पाकिस्तान को थर्ड पार्टी के होने की गांरटी मिल सकती है। यानी अमेरिकी हरी झंडी के बगैर भारत कुछ नहीं करेगा उसके संकेत राइस ने इस्लामाबाद यात्रा के दौरान ही दे दिया । लेकिन अमेरिकी कूटनीति की जरुरत पाकिस्तान है, इसलिये राइस के बाद अमेरिकी मंत्रियो और अधिकारियो की यात्राओं का सिलसिला थमा नहीं। जान मैकेन भी इस्लामाबाद पहुचे और सुरक्षा अधिकारियो के लाव-लश्कर के अलावा अमेरिकी रक्षा टीम ने पाकिस्तान का दौरा किया। हर यात्रा के बाद यही रिपोर्ट अमेरिकी मिडिया में निकल कर आयी कि भारत और पाकिस्तान के बीच सैनिक कार्रवाई की छोटी सी भी शुरुआत अमेरिका के 9-11 के बाद की पहल को खत्म कर देगी । जो अफगानिस्तान के भीतर और बाहर पाकिस्तान के सहयोग से नाटो फौजें कर रही हैं । पाकिस्तान के लिये भी कूटनीतिक सौदेबाजी में अमेरिका की कमजोरी से लाभ उठाना है। और उसने उठाया भी। भारत किसी तरह की सैनिक कार्रवाई नहीं करेगा । सिर्फ घुडकी देते रहेगा...तभी अल-कायदा और कट्टरपंथी कबिलायियों के खिलाफ पाकिस्तान की फौज नाटो को मदद जारी रख सकती है। लेकिन पाकिस्तान की रमनीति यहीं नहीं रुकी । जिन कबिलायी गुटों ने पिछले तीन महिनों से सीजफायर किया हुआ था, उन्होंने दुबारा युद्द का ऐलान कर दिया। पाकिस्तान के दौरे पर पहुंचे अमेरिकी सेक्रेटरी आफ स्टेट रिचर्ड बाउचर के सामने पाकिस्तान ने इससे पैदा होने वाली परेशानी को रखा।</p><p><br />बलूचिस्तान में सक्रिय विद्रोही कबिलाइयों को लेकर 2 दिंसबर को पहली बार पाकिस्तान के सेना प्रमुख असफाक कियानी ने यही कहा था कि कबिलाईयो के साथ तो बातचीत कर उन्हे समझाया जा सकता है लेकिन भारत ने किसी तरह की सैनिक पहल की तो पाकिस्तान की एक लाख फौज तत्काल एलओसी पर तैनात कर दी जायेगी । बाउचर ने पाकिस्तान की पीठ सहलायी और राष्ट्रपति जरदारी ने यह कहने में कोई देर नहीं लगायी कि रिचर्ड बाउचर की वजह से अमेरिका के साथ पाकिस्तान के द्दिपक्षीय संबंध खासे मजबूत और विकसित हुये है, इसलिये हिलाल-ए-कायदे-आजम सम्मान बाउचर को दिया जायेगा । महत्वपूर्ण है कि यह वही वाउचर हैं, जिन्हे अमेरिका के साथ भारत के परमाणु डील होने के बाद पाकिस्तान में ही यह कहते हुये लताडा गया था कि वह पाकिस्तान के हित को अनदेखा कर भारत के पक्ष में ही रिपोर्ट तैयार करते हैं। वहीं इस दौर में भारत और अमेरिका किस रुप में नजर आये इसका नजारा अबतक की सबसे बडी हथियारो की डील के जरीये सामने आया । नौसेना के लिये भारत ने अमेरिकी प्राइवेट कंपनी के साथ आठ मेरीटाइम एयरक्राफ्रट खरीदेने पर हस्ताक्षर किये । 600 नाउटीकल मील तक मार करने वाले इस एयरक्राफ्रट की पहली डिलीवरी चार साल बाद होगी और सभी एयरक्राफ्रट 2015-16 तक मिलेगे । लेकिन महत्वपूर्ण यह नही है , ज्यादा बड़ा मामला आर्थिक मंदी के दौर में इस सौदे की रकम है जो 2.1 बिलियन डालर की है । यानी दस हजार करोड़ की रकम का मामला है। ये रकम चार किस्तों में भारत देगा। अमेरिका के लिये कूटनीति का यही पैमाना भारत और पाकिस्तान को अलग करता है। पाकिस्तान दुनिया के पहले तीन देशो में आता है, जिनका सैनिक बजट सबसे ज्यादा है । जीडीपी का करीब साढे सात फिसदी । लेकिन पाकिस्तान के हथियारों की पूंजी उसके अपने विकास से नहीं जुड़ती बल्कि अमेरिका-चीन और अरब देशो के साथ कभी रणनीति तो कभी कूटनीतिक आधार पर पूंजी समेटने के आधार पर जुड़ती है। वहीं भारत का हथियारो पर खर्च उसके अपने विकसित होते पूंजीवादी परिवेश से निकलता है।</p><p><br />सरल शब्दो में अपनी कमाई का हिस्सा भारत को हथियार पर लगाना है और पाकिस्तान को कमाई के लिये हथियार खरीदने की स्थिति बनानी है। अमेरिका के साथ चीन की सक्रियता भी मुबंई हमलो के बाद समझनी होगी । चीन के उप विदेश मंत्री हे याफी दिल्ली पहुंचने से पहले इस्लामाबाद में थे । दिल्ली में उन्होंने पाकिस्तान को सौंपे गये सबूतो को लेकर या आतंकवादी हिंसा को लेकर कुछ भी कहने से साफ इंकार कर दिया । सिर्फ आर्थिक सुधार के मद्देनजर दोनो देशो के संबंधो पर चर्चा की । लेकिन इस्लामाबाद पहुंचते ही याफी ने साफ कहा कि पाकिस्तान खुद दोहरे आतंकवाद से जुझ रहा है,अल-कायदा और कट्टरपंथियो की हिंसा से। इसलिये दुनिया को पहले पाकिस्तान को आतंकवाद से मुक्ति दिलाने का प्रयास करना चाहिये। जाहिर है चीन की कूटनीति भारत को उस दिशा में ले जाना चाहती है जहां पाकिस्तान अमेरिका के करीब आये और अमेरिक की कूटनीति भारत को चीन से दूर ले जाती है। इन परिस्थितयों में भारत आतंकवाद के घाव से कैसे बचेगा और आतंकवाद से सही ज्यादा खतरनाक जब देश की संसदीय व्यवस्था में सत्ता का जुगाड़ हो जाये तो पहले किस आतंकवाद से कैसे लड़ा जाये पाकिस्तानी आतंकवाद या देशी राजनीतिक आतंकवाद से ।<br /><br /></p>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com14