tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger1125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-36314043051836521202009-04-28T14:01:00.001+05:302009-04-28T14:01:00.733+05:30देश को पीएम नहीं पीएम को देश चाहियेयह सवाल वाकई अबूझ होगा कि प्रधानमंत्री पद के किसी भी दावेदार को पीएम बना दिया जाये तो वह करेगा क्या ? यहां ये सवाल भी महत्वपूर्ण है कि जो मौजूदा पीएम हैं उन्होने ही ऐसा क्या किया, जिससे लगे की उन्हे हटाया न जाए ? मनमोहन सिंह के दौर में जिस न्यू इकनॉमी की पटरी बिछाई गयी, उसमें डिब्बे इतने कम थे कि अस्सी फीसदी लोग प्लेटफार्म पर ही छूट गये। और न्यू इकनॉमी की गाड़ी में सवार लोग इतने आगे निकल गये कि उनके लिये पीछे मुड़कर देखना असभंव हो गया। <br /><br />हालांकि, ये अहसास उस मध्यम तबके में समाया रहा कि मनमोहन की गाड़ी में डिब्बे कम थे, जिस पर उन्होंने सवारी तो की लेकिन उस समाज को ही पीछे छोड़ आये, जिसमें उनकी जड़ है। इसलिये पाप से ग्रसित मध्यम तबके में समाज सेवा का भाव जगा जो रिफॉर्म के जरिये लगातार सामने आता रहा। इसीलिये देश में पचास करोड़ से ज्यादा लोगों की न्यूनतम जरुरत भी चुनावी मेनिफ्स्टो में दिखायी दी। वर्ना कैसे संभव होता कि जिस घोड़े की सवारी मनमोहन सिंह करा रहे थे, उसमें कांग्रेस तीन रुपये चावल-गेंहू देने की बात करती। <br /><br />बतौर पीएम मनमोहन की पहचान पिछले पांच साल की यही न्यू इकनॉमी है, जो अमेरिकी चकाचौंध की लैंपपोस्ट के नीचे भारत की लंबी होती परछाई को ही भारत का सच मान कर देखना चाहती है। लेकिन पीएम इन वेटिंग के पास ऐसा कौन सा एजेंडा है, जिसमें कहा जाये कि जब आडवाणी देश के डिप्टी पीएम या गृह मंत्री रहे तब वे जो चाहते थे, वह काम नही कर पाये। पीएम इन वेटिंग की पहचान उस प्रशासनिक कामकाज के तरीके से रही, जिसमें समाज के भीतर लकीर खिंची गयी। <br /><br />समूचे देश को एक धागे में पिरोने के लिये देश में रहने वाले लोगो के बीच कांट-छांट के तौर तरीको ने एक नयी प्रशासनिक समझ पैदा की। आदर्शवाद की सोच को अपनी अंटी में आडवाणी ने जिस तरह बांधा, वह सिर्फ गुजरात दंगो के बाद ही नहीं उभरा बल्कि बाबरी मस्जिद के बाद पहली बार मुस्लिमों के कमोवेश हर संगठन को लेकर देश की आंखो में संदेह और सवालिया निशान पैदा हुआ। यह शक देश के भीतर ही आर्थिक-सामाजिक सच के तौर पर दिखाया गया, जिससे जान बचाने के लिये जान लेने की एक नयी थ्योरी भारतीय मानस पटल पर खुल कर उभरी। इस लकीर को गाढ़ा करने का काम खोखली नीतियों ने किया। यह एक तरफ कश्मीर के रिसते खून पर दर्द का बाम लगाने से लेकर पडोसी देश पाकिस्तान-बांग्लादेश के घुसपैठ को लेकर भी सामने आया । फिर न्यूनतम की लडाई में जूझते बहुसंख्यक तबके को शाइनिंग इंडिया का वही चेहरा दिखाने की कोशिश की, जिसे मनमोहन सिंह ने ही 1991 में खिंचा था । डिप्टी पीएम बनने के बाद आडवामी तो अपनी ही राजनीतिक जमीन को भुला बैठे। जिस स्वदेशी राजनीति की समझ आरएसएस ने आडवाणी को घुट्टी बनाकर पिलायी, उसे भी अपनी नीतियो तले ना सिर्फ पीस डाला बल्कि स्वदेशी जागरण मंच और किसान संघ से लेकर आरएसएस के चालिसों संगठनो को लगा कि सत्ता में कोई संघी नही बल्कि कांग्रेसी शासन कर रहा है। यहां वाजपेयी को याद कर कोई भी संघी इतना ही कह सकता है कि आडवाणी वाजपेयी से आगे निकल नहीं सकते।<br /><br />तो क्या ये मान लिया जाये कि आडवाणी की अगुवाई देश को अभी के हालात से आगे नही ले जा सकती । लेकिन पीएम बनने की चाहत तो शरद पवार की भी है । उनके पास ऐसा क्या है जो उन्होने अपने दौर में कर ना दिखाया हो । पवार को महाराष्ट्र का सबसे पावरफुल नेता माना जाता है । 6 दिसंबर 1992 के बाद जिस तरह मुंबई और महाराष्ट्र में सांप्रायिक तनाव बढा, इस पर लगाम लगाने के लिये पवार को ही नरसिंह राव ने दिल्ली से मुंबई भेजा था। लेकिन पद संभालने के हफ्ते भर बाद ही देश ने मुंबई में एक ऐसा आंतकवादी हमला देखा, जिसे करने वालो को आजतक पकड़ा नहीं जा सका । 1993 ब्लास्ट के उन्हीं दोषियो को 13 साल बाद सजा मिली, जिन्होने सीरीयल ब्लास्ट की साजिश में हिस्सेदारी की थी । संयोग देखिये ब्लास्ट के आका आज भी पाकिस्तान में है। और दाउद सरीखे आका से पवार के संबंध है, यह आरोप आरएसएस खुल कर लगाता है।<br /><br />पिछले दिनो जब पवार ने मालेगांव ब्लास्ट के पीछे हिन्दुवादी संगठन और आरएसएस का नाम लिया तो आरएसएस ने बिना व्क्त गवाये कहा, पवार के रिश्ते तो दाउद से हैं । लेकिन पवार की पहचान देश के कृषि मंत्री की है । जो पांच साल में सिर्फ तीन बार अपने गृह राज्य के उस विदर्भ में गये, जहां दर दिन औसतन दो से तीन किसान आत्महत्या इन्ही पांच साल में करते रहे । संयोग से 20-20 के विश्वकप में जीत का जश्न जिस दिन मुंबई में मनाया जा रहा था और युवराज को 6 बॉल में 6 छक्के मारने के लिये एक करोड का चेक बतौर बीसीसीआई के तौर पर पवार दे रहे थे, उस दिन यवतमाल,अकोला और अमरावती के छह किसानो ने भी आत्महत्या की । पवार की समूची पहचान हर काम को धंधे में बदल कर पैसे बनाने की ही रही है इसलिये उनका मैनेजमेंट कांग्रेस को भी मात देता है । ऐसे में पवार का पीएम प्रेम एनसीपी को तो राष्ट्रीय दल बना सकता है । कांग्रेस को तोड़ सकता है । लेकिन देश में क्या सुधार सकता है यह सवाल पद्म सम्मान न लेने वाले धोनी और हरभजन पर खामोशी बरतने से समझा जा सकता है। वहीं पीएम की चाहत मायावती में भी है।<br /> <br />लेकिन मायावती ने ऐसा कुछ नहीं छोड़ा है, जिसे वह करना चाहती हो और उत्तर प्रदेश में सत्ता पाने के बाद ना किया हो । अपराध पर नकेल कसने के लिये अपराधियों को पार्टी में जोड़ना। भ्रष्टाचार को फैलने से रोकने के लिये खुद ही हर वसूली से जुडना और मुलायम से इतर भ्रष्ट्राचार की कई खिडकी खोलने की जगह सिर्फ एक खिडकी खोलना। और नाजायज काम को भी जायज तरीके से कर के दिखाना । जिस तबके की नुमाइन्दगी करती है उसकी भावनाओ को कभी देश की मुख्यधारा में शामिल नहीं होने देना। जिससे उसके भीतर यह एहसास जागे कि सत्ता में भागेदारी का मतलब अपनी पहचान को विस्तार देना भी होता है । मायावती की राजनीतिक समझ उनके अपने गांव उत्तर प्रदेश के बादलपुर में भी देखी जा सकती है । जहां विकास की कोई लकीर खिंचना तो दूर उस एहसास में ही मजबूती आयी है कि दलित की बेटी सत्ता में रहेगी तो उंची जाति वाला कोई नजर उठा कर नहीं देख पायेगा। लेकिन बहुजन से सर्वजन की सोशल इंजिनियरिंग ने मायावती की फटी चादर में एक ऐसा मखमली पैबंद लगाया है, जहा हर पैसे वाले और बाहुबल वाले को लगता है राजनीति का विशेषाधिकार उसके साथ जुड़ सकता है अगर वह मायावती के साथ जुड़ गया । तो पीएम बनने की स्थिति में देश की दिशा आर्थिक-वैदेशिक और सुरक्षा के मद्देनजर किस रुप में हो सकती है यह समझ मायावी होगी । <br /><br />लेकिन देश जिस मुहाने पर आ खडा हुआ है । जिसमें अर्थव्यवस्था और बाजारवाद हावी है उसमें देश के सामने वैक्लपिक समझ विकसित कौन कर सकता है । खासकर तब, जब बाजार व्यवस्था ढह चुकी है। पूंजी से पूंजी बनाने के संस्थानों का दिवालिया निकल रहा है। आतंकवाद का नया चेहरा देश की कमजोर नसों को पकड़ कर अपने विस्तार को अंजाम दे रहा है। गरीबी-मुफलिसी और सांप्रदायिक आधार पर हाशिये पर ढकेले जा रहे लोग खुद जीने के लिये किसी की भी जान लेने को तैयार हैं। आतंक का तरीका राजनीतिक और सामाजिक तौर पर खुद की पहचान और मान्यता पाने की दिशा में बढ़ चुका है। सीमाओं की सुरक्षा और दूसरे देशो से दोस्ती का आधार भी आतंक के खिलाफ आंतक का नया चेहरा लेकर सामने खड़ा है। ऐसे में पीएम बनने के लिये मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, जयललिता से लेकर बुद्ददेव तक में क्या बचा है, जो देश को पटरी पर लाने की दिशा में कदम उठेगा । पीएम बनने के लिये राहुल गांधी की बैचैनी समझी जा सकती है। क्योकि यह परिवारवाद तले कांग्रेसी संगठन की ट्रेनिंग है। और पीएम बनने के लिये संगठन में सहमति होनी चाहिये । <br /><br />लेकिन राहुल के आसरे देश की मौजूदा परिस्थितियो से निपटने की कला ना तो कांग्रेस के पास है ना ही राहुल खुद गांधी परिवार के ‘ऑरा’ से बाहर निकल पा रहे हैं । देश चलाने की जो भी छविया अतीत के आसरे देखी जा रही हैं, उसमें नरेन्द्र मोदी और प्रियका गांधी का नाम उभर सकता है।<br /><br />लेकिन देश की स्थितियां न तो सरदार पटेल के दौर की हैं, न ही इंदिरा गांधी के वक्त की। देश का विस्तार पहली बार जरुरत और बाजार ने किया है जबकि नेहरु,सरदार पटेल से लेकर इंदिरा तक देश का विस्तार नेताओं के आसरे होता रहा । यानी नेताओं का विजन ही देश को चलाता था, लेकिन नयी परिथितियो में देश के विस्तार के अनुकूल नेताओं का विस्तार न तो हो पाया और ना ही कोई नेता इस विस्तार का हिस्सा बने बगैर देश की नब्ज को पकड़ पाया। उल्टे समूची राजनीति ही देश के विस्तार में छोटी पड़ती गयी क्योंकि लोगो की जरुरत से न नेता जुड़ा न राजनीति बल्कि अपनी जरुरत के लिये लोगो को जोडने की पहल शुरु हुई। इसलिये इसबार पीएम हर कोई बनना चाहता है क्योंकि पीएम बनकर देश चलाना नहीं है बल्कि अपने अंतर्विरोधो से चलते हुये देश में पीएम बनकर निज सुकुन के आतंक तले मरे हुये देश का सबसे बडा टुकड़ा पाना है ।<br /><br />संसदीय लोकतंत्र इससे आगे जाता नही और नेता इससे आगे देश की सोच नहीं सकते।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com9