tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-84967328736346976682009-08-05T09:10:00.000+05:302009-08-05T09:11:40.276+05:30रेड कॉरिडोर में लाल क्रांति का सपना (पार्ट 2)चार राज्यों का रेड कॉरीडोर मध्य प्रदेश से निकले छत्तीसगढ से होते हुये झारखंड, बिहार और बंगाल को भी अपने में समेट लिया । हालांकि इन राज्यों में रेड कॉरीडोर ने उस तरह पांव नही पसारे जैसे पुराने चार राज्यों में हुआ । लेकिन आर्थिक सुधार की असल आधुनिक मार के निशान योजनाओं के जरीये या फिर समाज में बढ़ती खाई के जरीये जमकर उभरे । कह सकते हैं कि राजनीतिक शून्यता ने योजनाओं के सामानांतर विरोध की एक ऐसी लकीर भी खींची, जिसे कोई राजनीतिक मंच नहीं मिला तो वह कानून व्यवस्था के दायरे में लाकर माओवादी सोच तले ढाल दिया गया । <br /><br />बिहार में यह मिजाज सामाजिक तौर पर उभरा, जहां जातीय राजनीति ने दो दशक में अपना चक्र पूरा किया तो उसके सामने राजनीतिक पहचान का संकट आया । वहीं बाजार में मुनाफे की थ्योरी ने वर्ग भाव इस तरह जगाया जो वर्ग संघर्ष से हटकर भारत और इंडिया में खो गया । लेकिन 2008-09 का सामाजिक सच रेडकॉरीडोर को लेकर महज इतना नहीं है, माओवाद ने पैर पसारे और सरकार ने उन्हें आतंकवादी करार दिया। असल में वह पीढी, जिसने 1991 के बाद सुनहरे भारत में खुद को सुविधाओ से लैस करने के लिये सरकार की नीतियों का खुला समर्थन किया था और बैंकों से कर्ज लेकर या जमीन गिरवी रखकर ऊंची डिग्रिया हासिल की...वहीं 2009 में अपने गांव लौटकर सरकार की नीतियों का विकल्प विकास के लिये तलाशने पर भिड़ा है। <br /><br />उड़ीसा, छत्तीसगढ, झारखंड और विदर्भ के रेडकॉरीडोर मे तीन दर्जन से ज्यादा स्वतंत्र एनजीओ सरीखे संगठन उन ग्रामिण आदिवासियों के बीच जाकर खेती से लेकर पानी संग्रहण और फसल को बाजार से जोडने की विधा पर भी काम कर रहे है । साथ ही जिन इलाको में एसईजेड लाने का प्रस्ताव है , वहां के जमीन मालिकों को एकजुट कर मुआवजे के बदले जमीन पर जोत के जरीये ज्यादा बेहतर मुनाफे की बात खड़ा कर रहा है। अपने बूते काम करने की यह हिम्मत अधिकतर उन लडको के जरिये तैयार की गयी हैं, जो मंदी की मार में बेरोजगार हो गये । इनमें कंम्प्यूटर साइंस , इंजीनियर से लेकर प्रबंधन की डिग्री पाये उन युवको की जमात है, जो देश विदेश में कई बरस तक नौकरी कर चुके हैं । अमेरिका से लौटे कंम्प्यूटर इंजीनियर मनीष देव के मुताबिक आर्थिक मंदी में नौकरी जाने के बाद उसने अमेरिका में जो देखा, उसे देखकर पहली समझ उसके भीतर यही आयी कि भारत में भी विकास की जो लकीर खिंची जी रही है, वह उसकी जमीन के प्रतिकूल है । इसलिये उडीसा के जिन इलाकों में खनन का काम तेजी से चल रहा है, वहां आदिवासियों के हक को जुबान देते हुये प्राकृतिक अवस्था कैसे बैलेंस रखी जा सकती है, इस पर मनीष कटक के अपने दोस्त माइनिंग इंजीनियर पुष्पेन्द्र के साथ मिल कर काम कर रहा है। <br /><br />जिला प्रशासन के अधिकारियों के साथ लगातार उसकी पहल ने अभी तक पुलिस को मौका नहीं दिया है कि वह उन्हें माओवादी करार दे । लेकिन पुलिस के भीतर भी माओवादी प्रभावित इलाकों में सामाजिक -आर्थिक स्थितियों को लेकर कैसी बैचेनी रहती है, यह छत्तीसगढ के एक पुलिस अधीक्षक के जरीये भी समझा जा सकता है । राजनांदगांव के एसपी वीके चौबे ने तीन महिने पहले मुलाकात में ऑफ-द-रिकॉर्ड यह बात कही थी कि जो हालात छत्तीसगढ के सीमावर्ती जिलों के हैं, उनमें आजादी के साठ साल बाद भी आजादी शब्द से नफरत हो सकती है। गांव में शिक्षा, स्वास्थय केन्द्र तो दूर हर दिन गांववाले खाना क्या खायेंगे, जब इस तकलीफ को आप देखेंगे तो कानून व्यवस्था के जरीये किसे पकडेंगे या किसे छोड़ेंगे। <br /><br />बातचीत में इस पुलिस अधिक्षक ने माना था कि माओवाद प्रभावित इलाकों में सफलता दिखाना जितना आसान है, उतना ही मुश्किल सफलता पाना है। क्योंकि सफलता कागज पर दिखायी जाती है, ऐसे में माओवादी किसी को भी ठहरा देना कोई मुश्किल काम इन इलाको में होता नहीं है। लेकिन सफलता-असफलता सीधे राजनीति से जुड़े होते हैं, इसलिये हर पुलिसवाला टारगेट सफलता से भी आगे बढ़कर सफल हो जाता है। क्योंकि इससे राजनीति खुश हो जाती है। लेकिन संयोग है कि 12 जुलाई को वीके चौबे माओवादियो के हमले में मारे गये। पुलिस कोई चेहरा लिये रेडकॉरीडोर में तैनात नहीं रहती है। चेहरा सिर्फ नेता या राजनीति का होता है । यह बात विदर्भ के गढचिरोली में तैनात एसपी राजवर्धन ने लेखक से उस वक्त कही थी, जब नक्सली गतिविधियां इस पूरे उलाके में चरम पर थीं। एसपी का तबादला अब मुबंई हो चुका है लेकिन उन्होंने खुले तौर पर माना था कि इन आदिवासी बहुल इलाकों को लेकर सामाजिक आर्थिक दायरे में लाना जरुरी है। सिर्फ कानून व्यवस्था के जरीये सफलता दिखायी तो जा सकती है लेकिन इलाज नहीं किया जा सकता। <br /><br />इस एसपी की जीप को माओवादियों ने बारुदी सुरंग से उड़ा दिया था । जीप बीस फिट तक उछली...लेकिन एसपी बच गये । और बचाने वाला भी एक आदिवासी हवलदार ही था । लेकिन एसपी के सामाजिक प्रयोग को कभी चेहरा नहीं मिला जबकि राजनीति और नेताओं के चेहरे ने माओवादियों पर नकेल कसने के लिये अपना चेहरा भी दिखाया और राजनीतिक कद भी बढाया। इसी जिले से सटे नक्सल प्रभावित चन्द्रपुर जिले में तैनात पुणे के एक सब-इस्पेक्टर ने बातचीत में बताया कि राजनीति ने नक्सलप्रभावित इलाकों में पुलिस तैनाती को यातनागृह में तब्दील कर रखा है। किसी भी उलाके में कोई भी राजनीतिज्ञ किसी भी पुलिस वाले को कभी भी धमकाता है कि अगर उसकी ना मानी गयी तो नक्सली इलाके में भेज देगे या भिजवा देंगे। उस सब इंस्पेक्टर के मुताबिक जब तक बीस पच्चीस पुलिस वाले किसी नक्सली हमले में मारे नहीं जाते, तब तक राजनेता भी घटनास्थल पर जाते नहीं और मारे गये पुलिसकर्मियो के परिवार तक कोई राहत पहुंचती नहीं। अब पुलिस की इस भावना को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है कि रेडकॉरीडोर की समस्या को राजनीति तौर पर नजरअंदाज करने से ज्यादा राजनीतिक तौर पर बढ़ाया और विकसित किया गया है। क्योकि कानून व्यवस्था के दायरे में पुलिस और माओवादियों की स्थिति कमोवेश देश की सीमा सरीखी ही मान ली गयी है। यानि पहले जिसने जिसको मार दिया उसी का वर्चस्व। <br /><br />वहीं, ग्रामिण आदिवासियो की सामाजिक-आर्थिक समस्या राजनीति की जरुरत है । क्योंकि इसके बगैर विकास की मोटी लकीर पतली हो जा सकती है । लेकिन 2009 में इस पूरी समझ को बंगाल से एक नयी दिशा मिली है, इसे नकारा भी नहीं जा सकता । पहली बार शहर और गांव की दूरी वामपंथी राज्य में ना सिर्फ दूर हुई बल्कि राजनीतिक तौर पर जो मुद्दे पहवे नक्सली और फिर माओवादियों का प्रभाव कह कर दबा दिये जाते थे। उन्हें राजनीतिक जुबान उसी संसदीय राजनीतिक चुनाव में मिली जिसे रेडकॉरीडोर में बहिष्कार के तौर पर देखा समझा जाता रहा । बंगाल के जिन इलाकों में जमीन और जंगल का मुद्दा उछला वहा वामपंथी राजनीति चालीस साल से हैं। जबकि पहली बार मुद्दा 1995-96 में उछला । और यहां माओवादी 2005 में पहुंचे। कह सकते है कि अगर यह इलाका भी लेफ्ट नहीं राइट की राजनीतिक सत्ता का होता तो डेढ दशक पहले ही इस पूरे इलाके को रेड कॉरीडोर से जोड़ते हुये कानून व्यवस्था के दायरे में ले जाने से सत्ता नहीं चूकती और यह सवाल अनसुलझा रहता कि जमीन और जंगल से बहुतायत को बेदखल करके चंद हाथो में मुनाफा और सुविधा जुटाने का मतलब विकास कैसे हो सकता है। <br /><br />संयोग यह भी है कि वामपंथी राजनीति जिन वजहो से सिमटी, उसकी बड़ी वजह वही आर्थिक नीतियां हैं, जिसे राइट ने उभारा और सत्ता की खातिर लेफ्ट भी हामी भरता चला गया। माओवादियों ने अगर नंदीग्राम और लालगढ़ को लेकर वाम राजनीति की परिस्थितियों पर जिस तरह से सवाल उठाये उससे गांव के सवाल को शहर से जोड़ने का एक रास्ता भी निकला। क्योंकि रेडकॉरीडोर के दूसरे राज्यो में शहर और जंगल-गांव को बिलकुल दो अलग ध्रुव पर रखा गया है। लालगढ में माओवादियों ने समूचे बंगाल से जोड़कर जमीन का सवाल आदिवासियो से आगे बढ़ते हुये किसान और मजदूरो से जोड़ा। बंगाल को लेकर सवाल उठा कि जिन हालातो में सीपीएम बनी और जनता ने कांग्रेस को खारिज कर सीपीएम को सत्ता सौपी। चालीस साल बाद ना सिर्फ उसी जनता के सपने टूटे है बल्कि सीपीएम भी भटक चुकी है। क्योंकि जिस जमीन-किसान के मुद्दे के आसरे वाममोर्चा तीस साल से सत्ता में काबिज है और जमीन पर खड़ा किसान लहुलुहान हो रहा है तो उसका आक्रेष कहां निकलेगा। क्योकि इन तीस सालो में भूमिहीन खेत मजदूरो की तादाद 35 लाख से बढकर 74 लाख 18 हजार हो चुकी है । राज्य में 73 लाख 51 हजार भूमिहीन किसान है । इस दौर में चार लाख एकड़ जमीन भूमिहीनो में बांटने के लिये अधिग्रहित भी की गयी । लेकिन अधिग्रहित जमीन का 75 फिसदी कौन डकार गया, इसका लेखा-जोखा आजतक सीपीएम ने जनता के सामने नहीं रखा । छोटी जोत के कारण 90 फीसदी पट्टेदार और 83 फीसदी बटाईदार काम के लिये दूसरी जगहो पर जाने के लिये मजबूर हुये । इसमें आधे पट्टेदार और बटाईदारो की हालत नरेगा के तहत काम मिलने वालो से भी बदतर है । इन्हें रोजाना के तीस रुपये तक नहीं मिल पाते । लेकिन नया सवाल कहीं ज्यादा गहरा है, क्योकि एक तरफ राज्य में 11 लाख 75 हजार ऐसी वन भूमि है, जिस पर खेती हो नहीं सकती। और कंगाल होकर बंद हो चुके उगोगो की 40 हजार एकड़ जमीन फालतू पड़ी है। वहीं किसानी ही जब एकमात्र रोजगार और जीने का आधार है तो इनका निवाला छिनकर सरकार खेती योग्य जमीन में ही अपने आर्थिक विकास को क्यों देख रही हैं। <br /><br />अगर इस परिस्थिति को देश के दूसरे इलाको से जोड़कर देखा जाये तो हर राज्य में इस तरह के सवाल खड़े हो सकते हैं। आधुनिक स्थिति में सबसे विकसित शहरों में एक पुणे के किसानो ने सरकार के एसईजेड के विकल्प के तौर पर अपना एसईजेड रखा। जो कागज पर कही ज्यादा समझदारी वाला और भारतीय परिस्थियों में को-ओपरेटिव को आगे बढ़ाने वाला लगता है। लेकिन राजनीतिक तंत्र बाजार के मुनाफे के आधार को ही खारिज नही कर सकते, यह हर जनादेश के बाद सत्ता 1991 के बाद से खुलकर कहने से कतरा भी नही रही है । इसीलिये रेडकारीडोर पहली बार देश की राजनीति में बहस की गुंजाइश पैदा कर रहा है । क्योंकि जंगल में नया सवाल ग्रामीण आदिवासियों से आगे बढ़ते हुये उस नब्ज को पकड़ना चाह रहा है, जो देश में गांव-शहर की लकीर को ठीक उसी तरह मिटा रही है, जिस तरह विकास की लकीर शहर-गांव को बंट रही है। <br /><br />इस दौर में नये अक्स वही चुनावी राजनीत भी उभार रही है, जिसे माओवादी समाधान नहीं मानते। खासकर संसदीय राजनीति को लेकर आम वोटर जब सवाल कर रहा है और राजनेताओ को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है तब माओवादियो की पहल किस तरह होनी चाहिये। क्योंकि बढ़ते आंतकवादी हिंसा के दौरान हर तरह की हिंसा को जब एक ही दायरे में रखा जा रहा है, तब कौन से तरीके होने चाहिये जो विकल्प का सवाल भी उठाये और विचारधारा के साथ राजनीति को भी जोड़े । माओवादियो के सामने वैचारिक तौर पर आर्थिक नीतियो को भी लेकर संकट उभरा है । पिछले डेढ दशक के दौरान आर्थिक सुधार को लेकर सरकार पर हमला करने की रणनीति लगातार माओवादियों ने अपनायी । वामपंथी जब यूपीए सरकार में शामिल हुये तो बंगाल में ही माओवादियों ने अपनी जमीन मजबूत की । निशाना आर्थिक नीतियों को लेकर ही रहा । लेकिन आर्थिक नीतियो को लेकर जो फुग्गा या कहे जो सपना दिखाया गया, बाजार व्यवस्था के ढहने से वह तो फूटा लेकिन माओवादियों के सामने बडा सवाल यही है कि आर्थिक नीतियों ने उन्हे आम जनता के बीच पहुंचने के लिये एक हथियार तो दिया... लेकिन अब विकल्प की नीतियों को सामने लाना सबसे बडी चुनौती है। और इसका कोई मजमून माओवादियों के पास नहीं है। खासकर जिन इलाको में माओवादियों ने अपना प्रभाव बनाया भी है, वहां किसी तरह का कोई आर्थिक प्रयोग ऐसा नहीं उभरा है, जिससे बाजार अर्थव्यवस्था के सामानांतर देसी अर्थव्यवस्था अपनाने का सवाल उठा हो। यानी खुद पर निर्भर होकर किसी एक क्षेत्र को कैसे चलाया जा सकता है, इसका कोई प्रयोग सामने नहीं आया है। <br /><br />नया संकट यह भी है कि अंतर्राष्ट्रीय तौर पर माओवादी आंदोलनों की कोई रुपरेखा ऐसी बची नही है जो कोई नया कॉरिडोर बनाये । नेपाल में माओवादियों के राजनीतिक प्रयोग को लेकर असहमति की एक बडी रेखा भी माओवादियों के बीच उभरी है। लेकिन सामाजिक तौर पर माओवादियों के सामने बड़ा संकट उन परिस्थितियों में अपनी पैठ बरकरार है, जहां राजनीतिक तौर उन्हें खारिज किया जा रहा है। संसदीय राजनीति से इतर किस तरह की व्यवस्था बहुसंख्यक तबके के लिये अनुकुल होगी माओवादियों के सामने यह भी अनसुलझा सवाल ही बना हुआ है। इसीलिये जो चुनौती सामने है, उसमें बड़ा सवाल यह भी उभर रहा है कि दो दशक पहले जिस आर्थिक सुधार ने देश को सपना दिखाया 2009 में अगर वह टूटता दिख रहा है तो शहरो को भी गांव से कैसे जोड़ा जाये । इसलिये पहली बार इस असफलता को भी माना जा रहा है , कि राजनीतिक क्षेत्र में ट्रेड यूनियन के खत्म होने ने बाजार व्यवस्था के ढहने के बाद शून्यता पैदा हो गयी है। <br /><br />मजदूरो को लेकर एक समूची व्यवस्था जो वामपंथी मिजाज के साथ बरकरार रहती और राज्य व्यवस्था को चुनौती देकर बहुसंख्य्क जनता को साथ जोड़ती इस बार उसी की अभाव है । पहली बार ग्रामीण और शहरी दोनो स्तर पर राज्य को लेकर आक्रोष है । पहली बार अशिक्षित समाज और उच्च शिक्षित वर्ग भी विकल्प खोज रहा है । खास कर अपनी परिस्थितियों में उसके अनुकूल नौकरी से लेकर आर्थिक सहूलियत का कोई माहौल नहीं बच पा रहा तो भी वामपंथी और माओवादियों दोनो इसका लाभ उठाने में चूक रहे हैं। माओवादियों के भीतर पहली बार इस बात को लेकर कसमसाहट कहीं ज्यादा है कि देश का बहुसंख्यक तबका विकल्प तलाश रहा है और दशकों से विकल्प का सवाल उठाने वालो के पास ही मौका पड़ने पर कोई विकल्प देने के लिये नहीं है । सिवाय इसके की शहर जंगल से ज्यादा बदतर हो चले हैं और मरने के लिये जंगल अब भी शहरो से ज्यादा हसीन है ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-37750464699567457232008-10-13T09:23:00.002+05:302008-10-13T09:34:40.438+05:30बाटला हाउस के इर्द-गिर्दआतंकवाद से बड़ा है बटला इनकाउंटर और बटला से बड़े हैं अमर सिंह और अमर सिंह से छोटी है राष्ट्रीय एकात्मकता परिषद और इस परिषद से छोटा है बटला और बटला से छोटा है आंतकवाद। अब इंडियन मुजाहिद्दीन के आंतक तले सबसे शक्तिशाली कौन है? यह सवाल देश के किसी भी हिस्से में अनसुलझा हो लेकिन दिल्ली के जामियानगर में यह कोई पहेली नहीं है। बटला एनकाउंटर के बाद जामियानगर में जिस जिस के पग पड़े, उसने अल्पसंख्यक समुदाय को उसकी ताकत का भी अहसास कराया और कमजोरी का भी। लेकिन ताकत और कमजोरी दोनों के सामने जामियानगर हार गया। यह बटला एनकाउंटर के इलाके का नया सच है। <br /><br />बटला एनकाउंटर को लेकर जामियानगर में अगर सवाल दर सवाल ईद से लेकर दशहरा तक घुमड़ते रहे तो इसी दौर में आजमगढ़ में पुलिसिया खौफ भी कम नही हुआ। लेकिन राजनीति के मिजाज ने जिस तरीके से एनकाउटंर को लेकर समूचे तबके को वोटर में तब्दील करने की शुरुआत की और इस मिजाज ने सरकार बचाने और गिराने तक की चाल शुरु की, उसमे जामियानगर को पहली बार समझ में आने लगा है कि इस बार बिसात भी वही है और प्यादा भी वही। ढाई चाल चलते हुये भी वही नजर आयेगा और मंत्री से कटते हुये भी वही दिखायी देगा। यह सभी रंग जामियानगर के भीतर ही मौजूद है...नजर खोलिये...लोगो से मिलिये- सब दिखायी देगा । <br /><br />जामियानगर के बटला हाउस यानी एल-18 के दरवाजे पर जाने की हिम्मत किसमें है। यह शर्त जामियानगर के स्कूली बच्चों का खेल है। पुलिस की मौजूदगी वहीं हमेशा रहती है। यूं समूचे जामियानगर पर पुलिस की पैनी नजर लगातार टिकी है लेकिन बटला हाउस के नीचे पुलिसकर्मियो की मौजूदगी है। तो जो शर्त जीत गया उसे बर्फ के गोले से लेकर जुम्मे के दिन किसी नयी फिल्म का टिकट मिल सकता है । इस खेल के कुछ नियम भी हैं, जिसमें बटला हाउस में पुलिस के सवाल जबाव का सामना किये बगैर अंदर जाने से लेकर तीसरी मंजिल तक जा कर लौट आना हिम्मत और शर्त का रुतबा बढ़ा देती है। हसन मिया के मुताबिक, उन्होंने यह खेल ईद के दिन बच्चो को खेलते देखा था। उस दिन तो फटकार कर भगा दिया लेकिन क्या पता था वक्त के साथ साथ यह खेल बढता जायेगा और इसका तरीका-नियम सबकुछ बदलते हुये खेल में बच्चो की रोचकता बढ़ा देगा। पुलिस की मौजूदगी सबसे ज्यादा जामिया यूनिवर्सिटी की तरफ से रिहायशी इलाके में धुसते वक्त है। ऐसे में खास कर यूनिवर्सिटी के दाये तरफ की दीवार के साथ मुड़ते रास्ते को पकड़ कर जो बच्चा बटला हाउस तक पुलिस के सवाल जबाब दिये पहुच सकता है, वह अपने दोस्तों के बीच नया हीरो है। नये हीरो की तालाश जामियानगर के युवा तबके में भी है। बटला हाउस एनकाउंटर में जो मारे गये, उनको लेकर चलने वाली बहस में अचानक राजनीति का ऐसा घोल घुल गया है कि युवा तबके में राजनीति की ओट सबसे कारगर लगने लगी है। जामियानगर में मस्जिद के सामने बनाये गये अस्थायी मंच पर इरफान ने पांव छू कर अमर सिंह को सलाम किया था। जिसे युवा तबका पचा नही पा रहा है। असलम और सादिक जामिया के ही छात्र है और वही हॉस्टल में रहते है । उन्हे अपनों के बीच एक ऐसे हीरो की तलाश है, जो उनके बीच से निकल कर देश के किसी भी हिस्से में संजीदगी से उनकी मुशकिलात को रखने का माद्दा रखता हो । उन्हे यह बर्दास्त नहीं है कि जामियानगर में आकर तो राजनेता उनके घाव को उभार कर मलहम लगाने का सवाल उठाये और जामियानगर की सीमा पार करते ही मलहम को राजनीति का घोल बना लें। इसलिये इरफान को लेकर उनके भीतर आक्रोष है, लेकिन उन्हे लगने लगा है कि तबको में बांटकर राजनीति की जा सकती है, अपने तहके के दर्द को जगाकर राजनीति की जा सकती है लेकिन कोई मुसलमान ऐसा क्यो नहीं है जो देश के तमाम संकटों को लेकर सभी की बात कहने की हिम्मत रखता है।<br /><br />जाहिर है अपने दर्द को समझने का मिजाज मुशरुल हसन के जरिये उन्होंने समझा है लेकिन उन्हे एक हीरो की तालाश है। उनके बीच अंजुमन एक नायिका जरुर है जो जामियानगर थाने में जा कर पुलिस को यह तमीज सिखा आयी कि बिना महिला पुलिसकर्मियो की मौजूदगी के महिलाओं से पूछताछ नहीं होनी चाहिये। घरों में पूछताछ नहीं होनी चाहिये। उसके बाद से महिलापुलिसकर्मियो की मौजूदगी हर समूह में दिखायी देने लगी है। नायक की तलाश जामियानगर के बडे बुजुर्गो को भी है । असगर के मुताबिक साड़ी का धंधा करने वाले शेख साहेब राजनीति और साड़ी में गजब का तालमेल बिठा कर अपनी अदा पर सबको फिदा करना जानते है , लेकिन नहीं जानते तो मौजूदा हालात के तनाव को । कांग्रेस के इ अहमद साहेब जामिया में आये तो शेख साहेब ने उनके सामने कह दिया कि अब न तो नौ मीटर की साड़ी होती है और नाही असल जननेता । किसी ने सोनिया का नाम लिया तो शेख साहेब बोल पडे जनाब जन नेता का मतलब उस कढाई से है,जो दिखाती है हुनर और होती है बेशकिमती। उसकी बोली नहीं लगती। यहां तो जो आता है सियासत की बोलिया लगाने लगता है । <br /><br />संयोग से हमारी मुलाकात भी शेख साहेब से हुई। जब हमने शेख साहेब के बारे में कहे गये जुमलो का जिक्र किया तो शेख साहेब ने सीधे हमीं से यह सवाल कर दिया कि जनाब, आप ही बताइये सोमवार को एनआईसी की बैठक है, इसमें शामिल होगा कौन और बात का मजमून क्या होगा । मेरे मुंह से निकल पडा कि बटला के एनकाउंटर का भी जिक्र हो सकता है और अमर सिंह साहेब तो खुद यहा आ चुके है, और वह एमआईसी के सदस्य भी है। इसलिये इन हालातो में जामियानगर से लेकर आजमगढ़ की बात तो होगी ही। शेख साहेब ने मुस्कुराते हुये कहा, जनाब यही तो आप भी मात खा रहे है। आप भी एनआईसी को अमर सिंह की तराजू में देखने लगे । जो पार्टी के भीतर राजपूत और देस के सामने मौलाना होकर राजनीति की धार पर चलना चाहते है। यह वोट की बाजीगरी है ...और बाजीगरी तभी तक चलती है जबतक बाजी लगती रही । शेख साहेब बोले, जनाब एनआईसी उन्नीस सौ इकसठ में नेहरु की पहल पर बनाया गया था । जिसका मकसद समाज के भीतर धर्म या जाति की खटास को ना फैलने देना था । लेकिन बैठकों के दौर चलते रहे और खटास बढ़ती रही । इन बैठको का सबेस ज्यादा मुनाफा किसी को हुआ तो वह राजनीति है । शेख साहेब के मुताबिक आखरी बडी बैठक 1992 में हुई थी। निशाने पर मंदिर-मस्जिद था । सहमति बनी नही। जानते हो क्यो,उन्होने बेहद रहस्यमयी तरीके से मुझसे पूछा....फिर खुद ही जबाब दिया क्योकि कोई जनता की बात नहीं कर रहा था । चर्चा में आम शख्स की मौजूदगी गायब थी । फिर बोले सोमवार की बैठक में भी जामियानगर से लेकर आजमगढ़ तक पर बात तो होगी और कधंमाल से लेकर कर्नाटक की हिंसा का भी सवाल उठेगा और अभी लिख लो इन बैठको में राजनीतिक हिसाब-किताब देखे जायेंगे। यहां इतने मरे , वहा इतने मरे । दोनो में फर्क कितना है अगर बराबर तो बैठक शांतिपूर्ण रही और अगर यहां ज्यादा मरे और वहा कम मरे तो राजनीतिक गणित में कोई एक बैठक से बाहर निकल कर घमकी भरे अंदाज में शांति की बात करेगा। जामियानगर में मकानों की खरीद फरोखत का सुझाव देने वाले और बिल्डर के नाम से दुकान चलाने वाले अफरोज और राजेन्द्र साझीदार है । दोनो ऑफ-द-रिकॉर्ड बात करते है लेकिन हर मुद्दे पर खुल कर बोलते है । यह ऑफ-द-रिकॉर्ड है , लेकिन सुन लिजिये....बटला एनकाउंटर के बाद से जामियानगर की पहचान बढ़ी है । पहले दिल्ली में जो मकान या दुकान के लिये जामियानगर पहुंचते उन्हे बहुत कुछ यहां के बारे में बताना पड़ता था लेकिन बटला कांड ने जामियानगर की हैसियत बढा दी है । मैने सीधे पूछा, हैसियत कैसे बढा दी..अब तो लोग यहा कम आते होगे....अफरोज ने कहा आफ-द-रिकार्ड है लेकिन यह जान लिजिये, जो हालात है देश में उसमें जामियानगर सरीखे जगह एक तरह का आशियाना है। उन लोगो का जो अच्छा कमाते - खाते है लेकिन हमेशा इस डर में जीते है कि कभी कोई उन्हें किसी मामाले में फंसा कर बंद ना कर दे। इस पर अफरोज के साझीदार राजेन्द्र ने आफ-द-रिकार्ड की बात कहते हुये एक तमगा यह कहते हुये जोड़ दिया कि दिल्ली मुसलमानों का पंसददीदा शहर है क्योकि यहा किसी को भी छेडने पर बवाल मच जाता है। फिर बोला सच बोलूं भाई साहब...मीडिया और राजनीति ने हमारा धंधा बढ़ा दिया है । राजनीति बांट देती है और मीडिया उसे उछाल देती है। अमर सिंह जी आये थे ना ....आप ही लोग तो टीवी में बता रहे थे कि बटला एनकाउंटर की न्यायिक जांच की मांग की उन्होंने। और मजा देखिये हमारी तरह वह भी सौदेबाजी करने लगे । मेरे मुंह से निकला अमर सिंह जी ने तो कोई सौदेबाजी नही कि उन्होने तो हालात बताये । इस पर अफरोज आफ-द-रिकार्ड बोल पडा....लेकिन उन्होने ही जांच नहीं तो समर्थन वापस लेने की धमकी तो दी थी...अब यही तो सौदेबाजी है । लेकिन जो कहिये जामियानगर का मामला जितना उछला, उसका असर अब दिखने लगा है....श्रीनगर के हामिद अंसारी साहेब आये थे एक इमारत का सौदा पटाने और सौदा पटा तो बोले दिल्ली में ही डेमोक्रेसी है। यहीं घर लेना ठीक है, कोई छेडेगा तो नहीं । फिर जामियानगर में तो कोई पुलिसवाला छेडेगा नहीं.... । खुली हवा तो यहीं मिलेगी ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com22