tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-90723700231641828652010-03-15T13:03:00.003+05:302010-03-15T13:03:55.920+05:30देश को संसद नहीं पूंजी चलायेगी<p class="MsoNormal">2004 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">में चंदौली में माओवादियो ने विस्फोट से एक ट्रक को उड़ा दिया था । उस वक्त उत्तर प्रदेश में चंदौली </span>,<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">मिर्जापुर और सोनभद्र ही तीन जिले थे, जो माओवाद प्रभावित थे । लेकिन बीते छह साल में माओवाद प्रभावित जिलों की तादाद बढ़कर </span>30 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">पार कर गयी । यह अलग बात है कि चंदौली जैसी घटना दोबारा उत्तर प्रदेश में नहीं हुई । लेकिन माओवाद पर नकेल कसने के लिये सरकार ने इस दौर में करीब पचास हजार करोड़ रुपये खर्च किये । </span>2005-06 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">में विदर्भ के किसानों की खुदकुशी रोकने के लिये सरकार ने करीब पचास हजार करोड़ का पैकज दिया । लेकिन पैकेज के ऐलान के बाद भी हर साल विदर्भ के किसानों की खुदकुशी ना सिर्फ जारी रही बल्कि बढ़ गयी । हर महीने </span>57 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">की जगह </span>62 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">किसान आत्महत्या करने लगे । जो </span>2009 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">में बढ़कर हर महीने </span>67 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">तक जा पहुंची। </span></p><p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI"><br />कमोवेश इसी तरह के आंकडे हर उस सामाजिक क्षेत्र के हैं, जिसको विकास की धारा से जोड़ने के लिये सरकार बैचैन है। और करोड़ों रुपये का बजट हर साल उसी तरह हर क्षेत्र के लिये सरकार देती है, जैसे </span>2010-11 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">के बजट के जरिए प्रणव मुखर्जी ने सामाजिक क्षेत्र के विकास के लिये </span>1,37,634 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">करोड़ दे दिये। बजट के जरिए इस बार भी माओवादियों को जड़ से खत्म करने और किसानों को राहत दिलाने से लेकर खेती योग्य जमीन को बचाने के लिये सरकार ने करोड़ों रुपये बांटे है। करोड़ों रुपया बांटने के बावजूद अगले एक साल में माओवाद और तेजी से फैलेगा। किसान की खुदकुशी में इजाफा ही होगा और खेती योग्य जमीन खत्म होगी</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">औघोगिक विकास के नाम पर खेती की जमीन हथियाई जायेगी । यह सब देश का हर वह नागरिक, जिसकी जड़ें जरा सी भी गांव से जुड़ी हैं और पंचायत स्तर पर राजनीति करने वाला भी इस सच को तुरंत मान लेगा।<br /><br />सवाल हो सकता है कि इसे मनमोहन सरकार क्यों नहीं समझ पा रही। असल में नया सवाल देश के सामने कहीं ज्यादा इसीलिये गंभीर है क्योकि हर समस्या का समाधान रुपये में देखा ही जा रहा है और सरकार ने आर्थिक सुधार के दायरे को ही कुछ इस तरह रचा है, जिसमें वही शख्स फिट बैठ सकता है, जिसके पास पूंजी हो। यानी पूंजीवादी चश्मा पहन कर सभी के लिये एक सरीखा वातावरण बनाने की समाजवादी सोच का राग सरकार अपनाये हुये है। मनमोहन सिंह के बाद प्रणव मुखर्जी भी इसी थ्योरी पर आ गये हैं कि पूंजी ना हो तो देश चल ही नहीं सकता। इसलिये पूंजी का जुगाड़ और फिर उसका बंदरबांट करके पिछड़े सामाजिक क्षेत्र में बांट कर विकसित होते इंडिया के साथ खड़ा करने की अद्भभुत सोच विकसित हो चुकी है।<br /><br />अभी तक यही माना जाता था कि चूंकि भ्रष्टाचार नौकरशाही का मूलमंत्र है और राजनीति की इमारत इसी जमीन पर खड़ी है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">इसलिये सामाजिक क्षेत्र में जितनी पूंजी आंवटित की जाती है उतनी ही पंचायत स्तर के नेता से लेकर सांसद तक और बीडीओ से लेकर आईएस अफसर तक की जेब भरती है। ऐसे में सुशासन के नारे का मतलब खर्च की जा रही पूंजी से ज्यादा पूंजी का जुगाड़ बाजार से करने का होता है। लेकिन आर्थिक विकास का नये ढांचे में भ्रष्टाचार जैसा कोई शब्द है ही नहीं। क्योंकि नीतियो को लागू कराने से लेकर उसके परिणाम भी जब पूंजी के मुनाफे पर जा टिके हैं तो पूंजी का घपला भ्रष्टाचार नहीं कमीशन या बिचौलियो का हक बन जा रहा है। और इसमें यह मायने नहीं रहता कि देश का मतलब बाजार नहीं बाजार के लिये उत्पादन करने वाला माल होता। जो देश को मजबूत करता है। लेकिन अपनी उत्पादन प्रणाली को विकसित करने से ज्यादा जब मौजूद प्रणाली को भी मुनाफे के लिये दांव पर लगाया जा रहा हो और बाजार में उत्पादन से जुड़ना मूर्खता मानी जा रही हो तब क्या रास्ता बचता है। सिवाय इसके की पूंजी से पूंजी बनाने की सोच नीति का रुप ले लें । औघोगिक विकास के नाम पर देश का खनिज बेच कर लोगों को सरकारी मुआवजे और पैकेज पर टिकाना है या देश के खनिज को बेचने से ज्यादा खनिज के इस्तेमाल से लोगो का विकास करना है । सरकार पहला रास्ता चुन चुकी है।<br /><br />नयी समझ में कौड़ियों के भाव पड़े खनिज की महत्ता तभी है जब वह अंतर्राष्ट्रीय बाजार से करोड़ों बना ले। उसका मुनाफा भी किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी को ही मिले। या फिर देश की ही कोई कंपनी खनिज संपदा बेच कर खुद को बहुराष्ट्रीय बना ले। देश में सरकार के पास सिर्फ कमीशन ही आये । विकास की समझ सिर्फ मुनाफा बनाने या कमाने भर की नहीं है बल्कि पूंजी के जरीये विकास की कोई भी लकीर खिंची जा सकती है </span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">संयोग से इसका एहसास भी भ्रष्टाचार से जा जुड़ा है। क्योंकि इसी दौर में विकास के अवरुद्ध होने की वजह पूंजी के बहाव में रुकावट को मान लिया गया। यानी जो बात कभी राजीव गांधी ने कही और अब राहुल गांधी गाहे-बगाहे कहते रहते हैं कि दिल्ली से चला रुपया गांव तक पहुंचते पहुंचते दस पैसे में तब्दील हो जाता है और इसे अगर ठीक कर दिया जाये तो देश के वारे-न्यारे हो सकते हैं।<br /><br />संभवत विकास की समूची थ्योरी भी इसी दिशा लग चुकी है। जिसमें सरकार मान बैठी है कि जो रुपया दिल्ली से चले अगर वह रुपये की शक्ल में ही गांव तक पहुंचे तो गरीबी छू मंतर हो जायेगी। कूपन के जरीये खाद-बीज अगर पहली पहल है तो दूसरी पहल यूनिक पहचान पत्र के बनते ही हो जायेगी। तब सरकार को बजट में एक मुश्त क्षेत्र विशेष के लिये धन आंवटित नहीं करना पड़ेगा। बल्कि बजट में यही ऐलान होगा कि हर किसान को सालाना बीस या पच्चीस हजार रुपये सरकार दे देगी। पहचान पत्र होगा तो उनके बैकं खाते भी ग्रामीण बैंको में बन जायेंगे। यूं भी बजट में सरकार ने ऐलान कर ही दिया है कि हर दो सौ लोगों के गांव में एक बैंक होगा। चाहे अभी भी पांच सौ गांववालों के बीच स्कूल ना हो। फिर बैंक में निजी कंपनियों को भी आने की हरी झंडी दे दी गयी है । मनमोहन सिंह की आंखों से विकास के इस चेहरे को देखे तो दिल्ली से रुपयों को बांटा जायेगा और बांटी गयी रकम भी सामाजिक क्षेत्र से जुडे हर व्यक्ति के पास सीधे पहुंच जायेगी । और उस रुपये से किसान मजदूर से लेकर पिछड़ा-गरीब सभी झटके में उपभोक्ता की श्रेणी में आ जायेंगे। और इस सीधी पहल से एक रुपये में से </span>80-85 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">पैसे बिचौलिये वाली राजनीति-नौकरशाही के खाने का सिलसिला भी खत्म हो जायेगा। और इसी एवज में निजीकरण से पूंजी का जुगाड़ सरकार करेगी । यानी कितना सरल होगा गरीबी और दर्द पर मरहम लगाना। पूंजी पर टिके इस समाजवादी तंत्र का दूसरा हिस्सा भी संयोग से इसी बजट के दौरान उभरा है जो पूंजी से पूंजी बनाने के खेल को सार्वभौम मान्यता दे रहा है। आवारा पूंजी के जरीये शेयर बाजार से पूंजी बनाने का सिलसिला हो या देश के पिछड़े राज्यों में बहुउद्देशीय परियोजनाएं लाने का तमगा दिखा कर खनिज संसाधनो की लूट हो</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">इसे सरकार की नीतियों ने सर्वमान्य बना दिया है। नयी पहल पूंजी के जरीये बाजार को ही पूंजी में तब्दील करने की हो चली है। मसलन स्पेक्ट्रम बेचने से सरकार के बजट का घाटा पूरा हो जायेगा और वह मुनाफे में जा जायेगी। यह थ्योरी किसी भी अर्थशास्त्री को ठीक लगती है। कहा भी जा सकता है कि हर वह ऐसा चीज जो खुले बाजार के लिये खोली जाये और उससे सरकार को कमाई हो रही है तो वह बुरी क्या है।<br /><br />लेकिन यही से सवाल देश का पैदा होता है। क्या इस देश में हर क्षेत्र से जुडा हर तबका इतना सक्षम है कि वह स्पेक्ट्रम से लेकर हिमालय तक की बोली लगने के दौरान अपनी उपस्थिति दर्ज करा सके । जाहिर है अंगुलियों पर गिने जा सकते है देश के महानतम पचास औघोगपति-व्यापारी जो कारपोरेट जगत के माहिर खिलाडी हैं और जिनके लिये देश की सीमा कोई मायने नहीं रखती। क्योंकि धंधा देश को नहीं बाजार और उससे जुडे मुनाफे को देखता है। और पूंजी से पूंजी बनाने के हर खेल में यही पचास खिलाड़ी सरकार से कांधा मिलाकर पूंजी को समाजवादी विकास से जोडने की नयी थ्योरी को परिभाषित कर रहे हैं। इसीलिये प्रणव मुखर्जी का बजट अगर सामाजिक क्षेत्र को विकास से जोड़ने के लिये करीब डेढ़ लाख करोड की पूंजी बांटता है तो इसी सामाजिक क्षेत्र से जुडी खेती और खनिज संपदा से लेकर औघोगिक विकास और कंक्रीट इन्फ्रास्ट्रक्चर का ऐसा ढांचा खड़ा करने का न्यौता भी दे रहा है, जहां लोगों से जुडे संसाधनों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बेचकर दस लाख करोड़ से ज्यादा बनाये भी जा सकते हैं। और करीब दो करोड़ लोगों को जमीन से उजाड़कर मजदूर में तब्दील किया जा सकता है। और यही मजदूर चंद वर्षों बाद गरीब और फिर बीपीएल यानी गरीबी की रेखा से नीचे के परिवारो में शामिल हो जायेंगे । फिर यह सामाजिक मुद्दो के दायरे में आयेंगे और इनके विकास के लिये कभी बजट में पूंजी आंवटित किया जायेगा तो कभी पैकेज के जरीये राहत देकर सामाजवादी होने का राग अलापा जायेगा।<br /><br />आर्थिक सुधार का यह दायरा यही नहीं रुक रहा। यह थ्योरी आज अगर आंतर्राष्ट्रीय बाजार से मुनाफा कमा रही है तो कल उसी अंतर्राष्ट्रीय बाजार के मुताबिक न्यूनतम जरुरत की वस्तुओं का मूल्य भी निर्धारित करेंगी। महंगाई को लेकर सरकार चीनी</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">दाल और चावल को लेकर अगर आज यह कह रही है कि अंतर्ऱाष्ट्रीय बाजर में इनकी कीमतें बढ़ी इसीलिये उनके पास कोई रास्ता नहीं है। तो समझना यह भी होगा कि कल नमक</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">गेहूं से लेकर आलू और हरी मिर्च तक की कीमत पर भी यही तर्क आ सकते है कि अंतर्रष्ट्रीय बाजार में उनकी कीमतें बढ़ी हैं इसलिये मंहगाई को वह रोक नहीं सकते। हो सकता है उस दौर में भी सरकार की यही थ्योरी चले कि बजट में पूंजी बढ़ा दो। डेढ़ लाख करोड़ की जगह दस लाख करोड़ सामाजिक क्षेत्र में दे दो या फिर किसानों को पचास लाख करोड़ की जगह एक अरब करोड़ का पैकेज दे दिया जाये। आज तो संसद में मंहगाई को लेकर हंगामा बी मच रहा है। लेकिन उस दौर में संसद की बहस भी करोड़ों में बिना बहस बिक जायेगी। जो राजनीतिक दल जितना मजबूत होगा यानी जिसकी संख्या जितनी ज्यादा होगी वह पूंजी को लेकर उतनी ज्यादा सौदेबाजी करेगा। विकसित होते भारत में आर्थिक सुधार की यह धारा पानी के सामान हो चली है जो जगह मिलते ही हर सूखी जमीन को गीली कर देती है और इस जमीन की हद में आये हर भारतीय को या तो मजदूर बनाती है या फिर बीपीएल। क्योंकि आर्थिक सुधार ने खुल्लम-खुल्ला यह ऐलान तो कर ही दिया है कि देश की हर वस्तु की एक कीमत है, जिसे बेचा-खरीदा जा सकता है। जिसके पास पूंजी है वह खरीद लें और मुनाफे के लिये ज्यादा में बेच दे। सरकार का काम निगरानी का है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">जिसमें वह सिर्फ यह देखेगी कि खरीद-फरोख्त के लिये बने नियमो को कोई बिना कमीशन तोड़े नहीं। और इस प्रक्रिया में सासंदों के फंड से लेकर विकास को लेकर बनने वाली नीतियों को अमली जामा पहनाने के लिये कारपोरेट जगत की सीधी पहल होगी क्योकि तब पूंजी के आसरे पूंजी बनाना ही राष्ट्रीय नीति हो जायेगी। क्योंकि आखिरकार देश को पूंजी ही चलायेगी, संसद नहीं ।</span></p>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-3964085313012238222009-10-31T13:08:00.001+05:302009-10-31T13:10:26.219+05:30पूंजी, पॉलिटिक्स और पत्रकारितावैकल्पिक धारा की लीक तलवार की नोंक पर चलने समान है। क्योंकि विकल्प किसी भी तरह का हो उसमें सवाल सिर्फ श्रम और विजन का नहीं होता बल्कि इसके साथ ही चली आ रही लीक से एक ऐसे संघर्ष का होता है जो विकल्प साधने वाले को भी खारिज करने की परिस्थितियां पैदा कर देती हैं । राजनीतिक तौर पर शायद इसीलिये अक्सर यही सवाल उठता है कि विकल्प सोचना नहीं है और मौजूदा परिस्थितियो में जो संसदीय राजनीति का बंदरबांट करे वही विकल्प है। चाहे यह रास्ते उसी सत्ता की तरफ जाते हैं, जहां से गड़बड़ी पैदा हो रही है। मीडिया या कहें न्यूज चैनलों को लेकर यह सवाल बार बार उठता है कि जो कुछ खबरों के नाम पर परोसा जा रहा है, उससे इतर पत्रकारिता की कोई सोचता क्यों नहीं है। <br /><br />सवाल यह नहीं है कि राजनीति अगर आम-जन से कटी है तो पत्रकारिता भी कमरे में सिमटी है। बड़ा सवाल यह है कि एक ऐसी व्यवस्था न्यूज चैनलों को खड़ा करने के लिये बना दी गयी है, जिसमें पत्रकारिता शब्द बेमानी हो चला है और धंधा समूची पत्रकारिता के कंधे पर सवार होकर बाजार और मुनाफे के घालमेल में मीडिया को ही कटघरे में खड़ा कर मौज कर रहा है। और इसका दूसरा पहलू कहीं ज्यादा खतरनाक है कि हर रास्ता राजनीति के मुहाने पर जाकर खत्म हो रहा है, जहां से राजनीति उसे अपने गोद में लेती है। नया पक्ष यह भी है कि राजनीति ने अब पत्रकारिता को अपने कोख में ही बड़ा करना शुरु कर दिया है। <br /><br />कोख की बात बाद में पहले गोद की बात। न्यूज चैनलों में राजनीति की गोद का मतलब संपादक के साथ साथ मालिक बनने की दिशा में कॉरपोरेट स्टाइल में कदम बढ़ाना है। यानी उस बाजार की मुश्किलात से न्यूज चैनल संपादक को रुबरु होना है जो राजनीतिक सत्ता के इशारे पर चलती है । यानी मीडिया हाउस का मुनाफा अपरोक्ष तौर पर उसी राजनीति से जुड़ता है, जिस राजनीतिक सत्ता पर मीडिया को बतौर चौथे खम्बे नज़र रखनी है । कोई संपादक कितनी क्रियेटिव है, उससे ज्यादा उस संपादक का महत्व है कि वह कितना मुनाफा बाजार से बटोर सकता है। और मुनाफा बटोरने में राजनीतिक सत्ता की कितनी चलती है या सत्ता जिसके करीब होती है उसके अनुरुप मुनाफा कैसे हो जाता है यह किसी भी राज्य या केन्द्र में सरकारो के आने जाने से ठीक पहले बाजार के रुख से समझा जा सकता है। बाजार कितना भी खुला हो और अंबानी से लेकर टाटा-बिरला तक आर्थिक सुधार के बाद जितना भी खुली अर्थव्यवनस्था में व्यवसाय अनुकूल व्यवस्था की बात कहे , लेकिन बड़ा सच अभी भी यही है कि जिसके साथ सत्ता खड़ी है वह सबसे ज्यादा मुनाफा बना सकता है और अपने पैर फैला सकता है। कमोवेश यही हालत मीडिया की भी की गयी है। लेकिन न्यूज चैनलों की लकीर दूसरे धंधों से कुछ अलग है। यहां प्रोडक्ट उसी आम-जन को तय करना होता है जो राजनीतिक सत्ता के उलट-फेर का माद्दा भी रखती है। इसलिये राजनीति सत्ता ने मीडिया हाउसों को अगर मुनाफे से लुभाया है तो संपादकों को पत्रकारिता से आगे राजनीति का पाठ बताने में भी गुरेज नहीं किया और उस सच को भी सामने रखा कि मीडिया हाउसों से झटके में बडा होने का एकमात्र मंत्र यही है कि राजनीति से दोस्ती करने हुये सत्ताधारियों की फेरहिस्त में शामिल हो जाइये। यह बेहद छोटी परिस्थिति है कि न्यूज चैनल राजनेताओं के साथ चुनाव में पैकेज डील कर के खबरों को छापते -दिखाते हों या राजनेता खुद ही प्रचार तत्व को खबरों में तब्दील करा कर न्यूज चैनलों को मुनाफा दिला दें। उससे आगे की फेरहिस्त में संपादक किसी राजनीतिक दल से चुनाव लड़ने के लिये टिकट अपने या अपनों के लिये मांगता है और बात आगे बढती हा तो राज्य सभा में जाने के लिेये पत्रकारिता को सौदेबाजी की भेंट चढा देता है। <br /><br />असल में सत्ता के पास न्यूज चैनलों को कटघरे में खडा करने के इतने औजार होते हैं कि संपादक तभी संपादक रह सकता है जब पत्रकारिता को सत्ता से बडी सत्ता बना ले। लेकिन न्यूज चैनलों के मद्देनजर गोद से ज्यादा बडा सवाल कोख का हो गया है । क्योंकि यहां यह सवाल छोटा है कि ममता बनर्जी को सीपीएम प्रभावित न्यूज चैनल बर्दाश्त नहीं है और सीपीएम का मानना है कि न्यूज चैनलों ने नंदीग्राम से लेकर लालगढ तक को जिस तरह उठाया, वह उनकी पार्टी के खिलाफ इसलिये गया क्योकि दिल्ली में कांग्रेस की सत्ता है और राष्ट्रीय न्यूज चैनल कांग्रेस से प्रभावित होते हैं। बड़ा सवाल सरकार ही खड़ा कर रही है । मनमोहन सरकार अब यह कहने से नहीं चूकती कि न्यूज चैनल अब कोई ऐरा-गैरा नत्थु खैरा नहीं निकाल पायेंगे । लाइसेंस बांटने पर नकेल कसी जायेगी। यानी न्यूज चैनलों में राजनीति की दखल का यह एहसास पहली बार कुछ इस तरह सामने आ रहा है मसलन पत्रकारों के होने या ना होने का कोई मतलब नहीं है। और राजनीति की सुविधा-असुविधा से लेकर सही पत्रकारिता का समूचा ज्ञान भी राजनीति को ही है। और राजनीतिक सत्ता के आगे पत्रकार या पत्रकारिता पसंगा भर भी नहीं है। <br /><br />असल में इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि तकनीकी विस्तार ने मीडिया को जो विस्तार दिया है उतना विस्तार पत्रकारों का नहीं हुआ है । और मीडिया का यही तकनीकी विस्तार ही असल में पत्रकारिता भी है और राजनीति को प्रभावित करने वाला चौथा खम्भा भी है । कह सकते है कि चौथे खम्भे की परिभाषा में पत्रकार या पत्रकारिता के मायने ही कोई मायने नहीं रखते है। लेकिन बिगड़े न्यूज चैनलों को सुधारने की जो भी बात राजनीति करती है, उसमें राजनीतिक धंधे के तहत न्यूज चैनल कैसे चलते है और चलकर सफल होने वाले न्यूज चैनल इस धंधे को बरकरार रखने में ही जुटे रहते है, समझना यह ज्यादा जरुरी है। <br /><br /><br />किसी भी राष्ट्रीय न्यूज चैनल को शुरु करने के लिये चालीस से पचास करोड़ से ज्यादा नहीं चाहिये। और फैलते बाजारवाद में विज्ञापन से कोई भी न्यूज चैनल साल में औसतन 20-25 करोड आसानी से कमा सकता है। जो न्यूज चैनल टॉप पर होगा उसकी सालाना कमाई सौ करोड पार होती है। मंदी में भी यह कमाइ सौ करोड से कम नही हुई। जाहिर है न्यूज चैनल चलाने के लिये कागज पर हर न्यूज चैनल वाले के लिय न्यूज चैनल का धंधा मुनाफे वाला है। क्योंकि एक साथ छह करोड घरों में कोई अखबार पहुंच नही सकता। किसी राजनेता की सार्वजनिक सभा में लोग जुट नही सकते लेकिन कोई बड़ी खबर अगर ब्रेक हो तो इतनी बडी तादाद में एक साथ लोग खबरो को देख सुन सकते हैं। जाहिर है बीते एक दशक के दौर में न्यूज चैनलों ने जो उडान भरी उसने उस राजनीतिक सत्ता की जड़े भी हिलायी जो बिना सरोकार देश को चलाने में गर्व महसूस करते। लेकिन राजनीतिक सत्ता के सामने न्यूज चैनलों की क्या औकात। इसलिये न्यूज चैनलों को कोख में ही राजनीति ने बांधने का फार्मूला अपनाया। चैनलों को दिखाने के लिये को केबल नेटवर्क है, उसपर राजनीति ने खुद को काबिज कर एक नया पिंजरा बनाया, जिसमें न्यूज चैनलों को कैद कर दिया । किसी भी राष्ट्रीय न्यूज चैनल को केबल से देश भर में जोडने के लिये सालाना 35 से 40 करोड रुपये लुटाने की ताकत चैनल के पास होनी चाहिये तभी कोई नया चैनल आ सकता है। क्योंकि हर राज्य में केबल नेटवर्क से तभी कोई चैनल जुड़ सकता है, जब वह फीस चुकता कर दे । यह रकम सफेद हो नहीं सकती क्योंकि इसका बंटवारा जिस राजनीति को प्रभावित करता है, वह राजनीतिक दल नही सत्ता देखती है और वह किसी की भी हो सकती है । सबसे ज्यादा फीस महाराष्ट्र में 8 करोड़ की है, फिर गुजरात के लिये 5 करोड़ तक देने ही होगे। बिहार-उत्तरप्रदेश-झरखंड-उत्तराखंड में मिलाकर 3 से 4 करोड में सालाना केबल नेटवर्क दिखाता है। मजेदार तथ्य यह है कि केबल नेटवर्क को ही चैनलों की टीआरपी से जोड़ा जाता है और टीआरपी के आधार पर ही चैनलों को विज्ञापन मिलता है । यहीं से ब्रांड और धंधे का खेल शुरु होता है । टीआरपी और विज्ञापन को इस तरह जोड़ा गया है कि जो केबल नेटवर्क में करोडो लुटा सकता है वही विज्ञापन के जरीये करोड़ों कमा सकता है। करोड़ों के वारे न्यारे का यह खेल ही उपभोक्ताओं के लिये एक ऐसा ब्रांड बनाता है, जिसमें किसी भी प्रोडक्ट की कोई भी कीमत देने के लिये एक तबका एक क्लास के तौर पर खड़ा हो जाता है। <br /><br />आप कह सकते है कि इस क्लास में राजनेता और सत्ता से सटे पत्रकारो की भागेदारी बराबर की होती है क्योकि यह गठजोड़ संसदीय राजनीति तले लोकतंत्र का गीत गाता भी है और लोकतंत्र को बाजार के आइने में देखने-दिखाने को मजबूर करता भी है । लेकिन पत्रकारिता को कोख में रखने की राजनीति भी यहीं से शुरु होती है । कोई पत्रकार न्यूज चैनल ला तो सकता है लेकिन उसे केबल नेटवर्क के जरीये दिखाने के लिये फिर उसी राजनीति के सामने नतमस्तक होना पड़ता है, जिसपर नजर रखने के ख्याल से न्यूज चैनल का जन्म होता है। कमोवेश हर राज्य में सत्ताधारी राजनीतिक दल के बडे नेताओं ने ही केबल पर कब्जा कर लिया है । यानी जो राजनीति पहले न्यूज चैनलों के मालिक या संपादको से गुहार लगाती ती कि उनके खिलाफ की खबरों को ना दिखाया जाये अब वही राजनीति सीधे कहने से नहीं चूकती- आपको जो खबरे दिखानी हो दिखाइये लेकिन वह हमारे राज्य में नहीं दिखेंगी क्येकि केबल पर आपका चैनल हम आने ही नहीं देंगे। यानी केबल नेटवर्क पर सत्ता का कब्जा राजनीति का नया मंत्र है। इसका शुरुआती प्रयोग अगर छत्तीसगढ में अजित जोगी ने किया तो ताजा प्रयोग वाय एस आर रेड्डी के बेटे जगन ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने के लिये किया । आंध्र में केबल नेटवर्क पर जगन का ही कब्जा है। छत्तीसगढ में अब रमन सिंह का कब्जा है । पंजाब में बादल परिवार का कब्जा है। महाराष्ट् में एनसीपी-काग्रेस और शिवसेना के केबल नेटवर्क युद्द में राज ठाकरे ने सेंघ लगाना शुर कर दिया है । तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार की ही न्यूज चैनलों को दिखाने ना दिखवाने की तूती बोलती है। गुजरात में मोदी की हरी झंडी के बगैर मुश्किल है कि कोई चैनल स्मूथली दिखायी दे। बंगाल में वामपंथियों को अभी तक अपने कैडर पर भरोसा था लेकिन ममता के तेवरों ने सीपीएम को जिस तरह चुनौती दी है, उसमें केबल पर कब्जे की जगह कैबल अब ममता और सीपीएम को लेकर कैडर की तर्ज पर बंट जरुर गया है। <br /><br />इन हालात में न्यूज चैनल के सामने गाना-बजाना दिखाना या कहे खबरों से हटकर कुछ भी दिखाना ढाल भी है और मुनाफा बनाना भी। यह ठीक उसी तरह है जैसे सिनेमा देखने के लिये अब सौ रुपये जेब में होने चाहिये। यह बहुसंख्यक तबके के पास होते नहीं है, इसलिये पाइरेटेड का धंधा फलता फूलता है। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में सिनेमा की हत्या भी हुई। सिनेमा अब उसी तबके के लिये बनने लगा, जो दो घंटे में मनोरंजन की नयी व्याख्या करता करता है। ऐसे में सिनेमा भी सरोकार पैदा नहीं करता। उसी तरह खबरें भी सरोकार की भाषा नहीं समझती क्योंकि उसका मुनाफा जनता से नही सत्ता से जोड़ दिया गया है और इस दौड में डीटीएच कोई मायने नहीं रखता। क्योंकि डीटीएच से न्यूज चैनल घरों में दिखायी जरुर देता है मगर विज्ञापन की वह पूंजी नही जुगाड़ी जा सकती जो केबल के जरिए टीआरपी से होती हुई न्यूज चैनलों तक पहुंचती है। <br /><br />किसी भी नये चैनल की मुश्किल यही होती है कि वह खुद को केबल और टीआरपी के बीच फिट कैसे करें । किस राज्य की किस सत्ता और किस राजनेता के जरीये न्यूज चैनल के मुनाफे की अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी करे । जबकि पुराने चैनलो की कैबल कनेक्टिविटी और टीआरपी में कभी बड़ा उलटफेर या परिवर्तन चार हफ्तों तक भी नहीं टिकता है, चाहे कोई न्यूज चैनल कुछ भी दिखाये । यह यथावत स्थिति हर किसी को बाजारवाद में बंदरबांट के लिये कथित स्पर्धा से जोड़े रखते हुये सभी की महत्ता बरकरार रखती है। भाजपा ने एनडीए की सरकार के दौर में इस गोरखधंधे को तोड़ने के लिये कैस लाने की सोची थी। लेकिन उसी दौर में जब यह पंडारा बाक्स खुला कि करोड़ों के वारे न्यारे से लेकर राजनीति के अनुकुल न्यूज चैनलो पर इसी माध्यम से नकेल कसी जा सकती है तो धीरे धीरे सबकुछ ठंडे बस्ते में डाला गया । लेकिन मुनाफे के धंधे को बरकरार रखने के बाजारवाद में पत्रकार किसी खूंटे से बांधा जाये यह सवाल सबसे बड़ा हो गया है । पत्रकार न्यूज चैनल के लिये मुनाफा जुगाड़ने से सीधे जुड़ जाये, पत्रकार राजनीतिक सत्ता के इशारे पर काम करने लगे , पत्रकार लोकसभा के टिकट लेने-दिलवाने से लेकर राज्यसभा तक पहुंचने के जुगाड़ को पत्रकारिता का आखिरी मिशन मान लें या फिर पत्रकार सत्ता की उस व्यवस्था के आगे घुटने टेक दें, जहां सत्ता परिवर्तन भी एक तानाशाह से दूसरे तानाशाह की ओर जाते दिखे और पत्रकारिता का मतलब इस सत्ता परिवर्तन में ही क्राति की लहर दिखला दें। इस दौर में विकल्प की पत्रकारिता करने की सोचना सबसे बड़ा अपराध तो माना ही जायेगा जैसे आज अधिकतर न्यूज चैनलो में यह कह कर ठहाका लगाया जाता है कि अरे यह तो पत्रकार है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com9