tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger4125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-41411483326799362492012-02-03T13:41:00.000+05:302012-02-03T13:42:18.953+05:30लाइसेंस रद्द हो सकता है सिस्टम नहींसाढ़े चार बरस पहले ट्राई के जिन नियमों की अनदेखी मनमोहन सरकार ने थी, साढे चार साल बाद वही मनमोहन सरकार ट्राई से उन्हीं नियमों को बनवाने की बात कह रही है। अंतर सिर्फ इतना है कि तब ए राजा मंत्री थे और आज कपिल सिब्बल हैं। तब ए राजा ने बतौर संचार मंत्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर यह जानकारी दी थी कि वह ट्राई के नियमों को नहीं मान रहे और आज कपिल सिब्बल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलकर मीडिया के सामने आये तो ट्राई के जरीये अगले 10 दिनो में उन्हीं नियमों को बनवाने की बात कह गये जो पहले से ही संचार मंत्रालय के दफ्तर में पड़े पड़े धूल खा रही है। <br /><br />असल में 28 अगस्त 2007 में ही भारतीय दूरसंचार नियमन प्राधिकरण यानी ट्राई ने स्पेक्ट्रम लाइसेंस की कीमतों का निर्धारण करने के लिये प्रतिस्पर्धात्मक प्रक्रिया को अपनाने का आग्रह संचार मंत्रालय से किया था। और इस बारे में 32 पेज की एक व्याख्या करती हुई रिपोर्ट भी तब के संचार मंत्री ए राजा को सौपी थी। लेकिन संचार मंत्रालय ने बिना देर किये छह घंटों के भीतर ही 28 अगस्त 2007 को ही ट्राई के आग्रह को खारिज करते हुये 2001 की बनाई नीति पहले आओ-पहले पाओ पर चल पड़े। दरअसल ऐसा भी नही है कि उस वक्त संचार मंत्रालय में बैठे किसी भी अधिकारी ने ए राजा के इस कदम का विरोध नहीं किया और ऐसा भी नहीं है कि पीएमओ इन सारी बातों से एकदम दूर था। बकायदा दूरसंचार विभाग के सचिव और वित्तीय मामलों के सदस्य के विरोध करने पर दोनो की फाइल पीएमओ भी गई और एक को सेवानिवृत होना पड़ा तो दूसरे को इस्तीफा ही देना पड़ा। यह सब दिसंबर 2007 में हुआ और इसकी आंच कहीं संचार मंत्रालय में ना सिमटी रहे, इसके लिये राजा ने प्रधानमंत्री को नयी टेलीकॉम नीति के मद्देनजर पत्र भी लिखा और दिल्ली के विज्ञान भवन में एक भव्य कार्यक्रम भी किया। <br /><br />ऐसा भी नहीं है कि जो हो रहा था वह सिर्फ संचार मंत्रालय और पीएमओ की जानकारी में था। बकायदा उस वक्त के कानून मंत्री हंसराज भारद्राज के मंत्रालय से भी यह नोट पहुंचा था कि जिन्हें लाइसेंस दिया जा रहा है उनके गुण-दोष को परखना जरुरी है साथ ही राजस्व का घाटा तो नहीं हो रहा इसे भी देखना जरुरी है। लेकिन राजस्व के सवाल को उस वक्त के वित्त मंत्री पी चिदबरंम की उस टिप्पणी तले दबा दिया गया कि जिन्होंने राजस्व की फिक्र के बदले 2001 के खुले नियम पहले आओ-पहले पाओ को ही आधार बनाने पर ए राजा का साथ लिया। यानी कानून मंत्रालय, वित्त मंत्रालय और पीएमओ की नजरों तले संचार मंत्रालय काम कर रहा था। इसलिये सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अब सवाल यह नहीं है कि सिर्फ 9 हजार करोड़ में वैसी कंपनियों को लाइसेंस बांट दिये गये जो टेलिकाम के क्षेत्र में सिर्फ स्पेक्ट्रम लाइसेंस ले कर मुनाफा बनाने के लिये ही आये। असल में सवाल यह है कि विकास के जिन नियमों को पीएमओ ने बनाया और यूपीए-1 के दौरान हर मंत्रालय ने उसे अपनाया वह सिर्फ मुनाफा बनाने की विस्तारवादी नीति का ही चेहरा है। क्योंकि 15 नंवबर 2008 को जब सीवीसी ने संचार मंत्री को नोटिस भेजा और पीएमओ को इससे अवगत कराया तो पीएमओ के एक डायरेक्टर ने सीवीसी को यह कहकर चेताया कि वह सिर्फ वॉच-डाग की भूमिका निभाये। और दिसबंर 2008 में जब मंत्रालयों के कामकाज को लेकर प्रधानमंत्री ग्रेड दे रहे थे तो उसमें दो ही काम का खासतौर से जिक्र उपलब्धियों के साथ किया गया जिसमें एक टेलीकॉम था तो दूसरा खनन। तीसरे नंबर पर पावर यानी ऊर्जा को रखा गया। और संयोग देखिये टेलीकॉम का लाइसेंस पाने वालो में रियल इस्टेट से लेकर ग्लैमर की दुनिया से जुडे धंधेबाज जुडे तो खनन का लाइसेंस पाने वालो में गीत-संगीत का कैसट बेचने वालो से लेकर गंजी-जांगिया और कार बनाने वाली कंपनियां जुड़ गयीं। इतना ही नहीं न्यूनतम जरुरतो पर काम कर रहे मंत्रालयों ने भी जिन निजी हाथों में शिक्षा, स्वास्थ्य, पीने का पानी से लेकर किसानी के लिये बीज और खाद दिये, संयोग से उस फेरहिस्त में भी लाइसेंस वैसे हाथो में सिमटा जिनका इन तमाम क्षेत्रो से कभी कोई जुड़ाव नहीं रहा। लेकिन पीएमओ की निगाह में उस वक्त वही मंत्री महान था जो अपने मंत्रालयों के जरीये निजी क्षेत्र में ज्यादा से ज्यादा दुकान खुलवा पाने में सक्षम हुआ। और इसकी एवज में ज्यदा से ज्याद पैसा बाजार में आया। यानी विकास की थ्योरी को बाजारवाद के जरीये फैलाने में मंत्रालयों की भूमिका ही बिचौलिये वाली होती चली गई। <br /><br />दरअसल, बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस नजरीये की मार्केटिंग को करना अगर देश के मंत्रियो को उनके कामकाज के पैमाने को नापने के डर से सिखाया या कहें अपनाने की दिशा में बढ़ाया तो समझना यह भी होगा कि खुद प्रधानमंत्री ने भी अपनी सफलता का रास्ता इसी लीक पर चल कर पकड़ा। यूपीए-1 के दौर में 12 बार अमेरिकी यात्रा पर गये मनमोहन सिंह की काबिलियत को अमेरिका में बताने के लिये कोई भारतीय प्रतिनिधिमंडल या भारत की चकाचौंध काम नहीं कर रही थी बल्कि अमेरिकी लाबिंग कंपनी बार्बर ग्रिफ्रिथ एंड रोजर्स { बीजीआर } काम कर रही थी। 2005 में इस कंपनी को करीब साढ़े तीन करोड़ सालाना दिये जाते थे। और देश के भीतर प्रधानमंत्री की हर अमेरिकी यात्रा के बाद जो उपलब्धि गिनायी हतायी जाती रही, उसके पीछे बीजीआर की लांबिग ही काम करती रही। यहां तक की 26/11 मुद्दे पर प्रस्ताव के लिये सीनेट और प्रतिनिधि सभा से संपर्क भी इसी बीजीआऱ कंपनी ने किया जिसके बाद अमेरिकी संसद से प्रस्ताव आया और जब ओबामा राष्ट्रपति बने तो भी उस वक्त भारत के राजदूत रोनेन सेन की ओबामा से मुलाकात कराने के लिये सारी मशक्कत लाबिंग कंपनी बार्बर ग्रिफिथ एंड रोजर्स ने ही किया। <br /><br />जाहिर है इसी तरीके को भारत में भी मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद मंत्रालयों में अपनाया गया। और हकीकत यह है कि हर मंत्री के पास उसके मंत्रालय में कॉरपोरेट या बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिये लाबिंग करने के लिये बकायदा लॉबिंग कंपनियों की सूची रहती है। फिलहाल इस फेहरिस्त में 124 लाबिंग कंपनियां काम कर रहीं हैं। जिसमें 38 लॉबिंग कंपनियो को तब ब्लैक-लिस्ट किया गया जब राडिया टेप और दस्तावेजो ने 2009 में यूपीए-2 के दौर में ए राजा को दुबारा टेलीकॉम मंत्री बनाने के पीछे के कॉरपोरेट का खेल को देश के सामने आया। इसलिये सवाल 11 निजी कंपनियों के 122 लाइसेंस रद्द करने के बाद का है। जहां प्रतिस्पर्धा के जरीये भी आपसी खेल से देश के राजस्व को चूना लगेगा और विकास की बाजारवादी दौड़ में कोई ऐसा खिलाड़ी सामने आ नहीं पायेगा। और यही लाइसेंस ज्यादा बोली के साथ या तो इन्हीं कंपनियों के पास चले जाएंगे या फिर 3 जी और 4 जी की विकसित टेक्नालाजी का आईना दिखाकर 2जी की बोली पहले से भी कम में लगेगी। उस वक्त कोई कैसे कहेगा कि घोटाला हुआ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-76688189158512197492011-03-14T10:48:00.000+05:302011-03-14T10:49:07.048+05:30अंधेर नगरी के राजा<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="'font-size:10.0pt;line-height:115%;">पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने माफी मांगी। पहली बार लोकसभा में विपक्ष के किसी नेता ने माफ भी कर दिया। पहली बार भ्रष्टाचार</span><span style="font-size:10.0pt; line-height:115%">,</span><span lang="HI" style="'font-size:10.0pt;line-height:">महंगाई और कालेधन पर सरकार कटघरे में खड़ी दिखी। पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री से लेकर जांच एंजेसियों को समाजवादी सोच का पाठ यह कर पढ़ाया कि अपराध अपराध होता है। उसमें कोई रईस नहीं होता। पहली बार प्रधानमंत्री के चहेते कारपोरेट घरानों को भी अपराधी की तरह सीबीआई हेडक्वाटर में दस्तक देनी पड़ी। पहली बार चंद महीने पहले तक सरकार के लिये देश के विकास से जुडी डीबी रियल्टी कार्पो सरीखी कंपनी के निदेशक जेल में रहकर पद छोड़ना पड़ा। पहली बार पौने सात साल के दौर में यूपीए में संकट भ्रष्टाचार के खिलाफ हो रही कार्रवाई को लेकर मंडराया। और पहली बार सरकार को बचाने भी वही दल खुल कर आ गया जिसकी राजनीति गैर कांग्रेसी समझ से शुरु हुई। यानी पहली बार देश में यह खुल कर उभरा कि मनमोहन सिंह सिर्फ सोनिया गांधी के रहमो करम पर प्रधानमंत्री बनकर नहीं टिके है बल्कि देश का राजनीतिक और सामाजिक मिजाज भी मनमोहन सिंह के अनुकूल है।<br /><br />पहली बार संसद ने भी माना कि विकास को लेकर आर्थिक सुधार की जो जमीन मनमोहन-इकनॉमिक्स ने बनायी है, उसकी बिसात ही भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रही है । और इन सब के बीच देश के सामने वैकल्पिक राजनीति ही नही बल्कि आर्थिक नीतियों का भी कोई खाका नहीं है जो सामाजिक तौर पर कारपोरेट जगत के टर्न ओवर को तीन सौ से तीन हजार फीसदी बढाने के साथ साथ के साथ साथ देश के किसान-मजदूरो की क्रय शक्ति में दस फिसदी का ही इजाफा कर दें। संसदीय राजनीति के पास भी ऐसे तौर-तरीके नहीं है, जो पूंजी पर टिकती जा रही चुनावी व्यवस्था के सामानांतर बिना पूंजी भी संसदीय लोकतंत्र का जाप जनता से करवा सके। यानी हाशिये पर खड़े देश के </span><span style="font-size:10.0pt; line-height:115%">80 </span><span lang="HI" style="'font-size:10.0pt;line-height:">करोड़ लोगों के सवाल उनके अपने नुमाइनंदों के जरीये पूरे हो और देस में बनती विकास की नीतियों को न्यूनतम से बी जोड़ सके। इसका कोई चेहरा देश के सामने नहीं है। वहीं इसके उलट सत्ता का विकेन्द्रीकरण पूंजी और मुनाफे के बंटवारे के आसरे कुछ इस तरह फैला है, जिससे सत्ता की नयी परिभाषा में हर वह संस्था सत्ता में तब्दील हो चुकी है, जिसके आसरे विकल्प के सवालो को जन्म लेना था। यानी राजनीति अगर सत्ता लोभ में पटरी से उतरने लगे तो संस्थाओं के आसरे उसपर नकेल कसने की जो प्रक्रिया अपनायी जानी चाहिये</span><span style="font-size:10.0pt;line-height:115%">, </span><span lang="HI" style="'font-size:10.0pt;line-height:115%;font-family:">वह भी पटरी ही बन जाये तो क्या होगा। सीधे कहें तो भ्रष्टा चार</span><span style="font-size:10.0pt;line-height:115%">, </span><span lang="HI" style="'font-size:10.0pt;line-height:115%;font-family:">महंगाई या कालेधन के सवाल पर लोकतंत्र के पहरुओं के तौर पर जिन संवौधानिक संस्थाओं को अपनी भूमिका निभानी चाहिये अगर उन्ही संस्थाओं की विश्वनीयता खत्म होने लगे तो क्या होगा।<br /><br />असल में पहली बार देश के आमजन के सामने संवैधानिक संस्थाओं के जरीये भी रास्ता ना निकल पाने का संकट है। यानी संस्थाएं अगर ढहती नजर आ रही है तो विकल्प के सवाल किस आसरे देश के मानस पटल पर छा सकते हैं</span><span style="font-size:10.0pt; line-height:115%">, </span><span lang="HI" style="'font-size:10.0pt;line-height:">यह सवाल संसदीय राजनीति में सत्ता के लिये मशगूल राजनीतिक दलों के सामने भी है और आंदोलनों के जरीये सरकार पर दबाव बनाने वाले संगठनो को सामने भी। लेकिन वह किस चेहरे को लिये सामने आये</span><span style="font-size:10.0pt;line-height:115%">, </span><span lang="HI" style="'font-size:10.0pt;line-height:115%;font-family:">यह जवाब किसी के पास नहीं है। इसलिये सवाल यही है कि जो आर्थिक परिस्थितियां देश की राजनीति को भी अपने हिसाब से चला रही है और जिन माध्यमों के जरीये विकास का खांचा खींच कर देश के भीतर कई देश बना रही है</span><span style="font-size:10.0pt;line-height:115%">, </span><span lang="HI" style="'font-size:10.0pt;line-height:115%;font-family:">क्या उसे बदला जा सकता है। क्या संसदीय व्यवस्था के भीतर राजनीति करनी की इतनी जगह बची हुई है, जहां चुनाव के नये मापदंड तय किये जा सके। क्या सत्ता से टकराने में इतना लोकतंत्र देश के भीतर बचा हुआ है जहां पुलिस-प्रशासन विकल्प की सोच को राजद्रोह या गैरकानूनी करार देकर जेल में ना ठूंस दें। क्या लोकतंत्र के तीन स्तम्भों पर निगरानी रखने वाला मीडिया में इतनी मानवीयता अब भी बची है कि वह जनमानस की हवा को मुद्दों के आसरे आंधी बनाने में बिना मुनाफा काम करें। क्या यह संभव है कि देश के खनिज संस्धानों से लेकर देश की न्यूनतम जरुरत पानी</span><span style="font-size:10.0pt;line-height:115%">, </span><span lang="HI" style="'font-size:10.0pt;line-height:115%;font-family:">शिक्षा</span><span style="font-size: 10.0pt;line-height:115%">, </span><span lang="HI" style="'font-size:10.0pt;">स्वास्थ्य के मद्देनजर पहले समूचे देश को सरकारी व्यवस्था नापे और संस्थायें काम में जुट जाएं। क्या यह संभव है कि विकास की जो नीति शहरीकरण और बाजारीकरण के जरिए कॉरपोरेट के आसरे मुनाफा पंसद नीति बनायी जा रही है, उसे कानून के जरीये बदला जाये। यानी बैकों को लेकर कानून बन जाये कि जनता का पैसा बहुसंख्यक जन के हित की योजनाओ को अमली जामा पहनाने के लिये एक नियत वक्त में सरकारी संस्थाओ के जरीये जन नुमाइंदों की निगरानी में पूरा किया जायेगा। गड़बड़ी होने पर आपराधिक कानून काम करेगा।<br /><br />क्या यह संभव है कि कानून बनाकर बैंकिंग सेक्टर को किसान-खेती से जोड़ा जाये । मसलन बैंकों को हर हाल में किसानों को खेती के लिये तीन फिसदी पर कर्ज देना है</span><span style="font-size:10.0pt;line-height:115%">, </span><span lang="HI" style="'font-size:10.0pt;line-height:115%;font-family:">नहीं दिया तो पैनल्टी में बैंक से उस क्षेत्र के किसानो की संख्या के मुताबिक वसूली होगी। क्या खेती की जमीन पर कानूनन पूरी तरह रोक लगाकर खरीदने-बेचने वालों के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज नहीं किया जा सकता है। और खेती के लिये सिंचाई से लेकर कटाई</span><span lang="HI" style="'font-size:10.0pt;line-height:115%;font-family:"> </span><span lang="HI" style="font-size:10.0pt; line-height:115%"><span style="mso-spacerun:yes"> </span></span><span lang="HI" style="'font-size:10.0pt;line-height:115%;font-family:">और गोदाम से लेकर बाजार तक फसल पहुंचाने के लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर को उघोग का दर्जा देकर नयी नीति नहीं बनायी जा सकती है। क्या औघोगिकीरण के लिये देश की करोड़ों एकड बंजर जमीन को विकास से जोड़ने की योजना बनाने की दिशा में योजना आयोग को नहीं लगाया जा सकता है। क्या बुंदेलखंड सरीखे देश के पिछडे इलाको में देश के सबसे बेहतरीन शिक्षा और स्वास्थय केन्द्र खोलकर एक नया आर्थिक मॉडल नहीं बनाया जा सकता है। जो अपने इर्द-गिर्द रोजगार का एक पूरा खाका खडा कर सकता हो । क्या गांव को शहरो में तब्दील करने की जगह गांवो के माहौल-जरुरत के मुताबिक विकास का वैकल्पिक ढांचा खड़ा नहीं किया जा सकता है। क्या पब्लिक सेक्टर के जरीये विकास की उन योजनाओ को अमल में नहीं लाया जा सकता है जो कारपोरेट या निजी हाथो में लाइसेंस थमाकर देश के इन्फ्रास्ट्रक्चर को भी सस्ते में लुटाया जाता है और बैंकों के जरीये सस्ते में पूंजी जुगाड़ने का रास्ता भी साफ कर दिया जाता है। क्या देश का एक आर्थिक इंडेक्स नहीं बनाया जा सकता । जिसके मातहत रोटी से लेकर जमीन और शिक्षा से लेकर मकान तक की कीमत देश में एक निर्धारित खांचे से बाहर ना निकले। यानी जमीन की कीमतें अगर बढ़ती है तो गेहूं-चावल और भाजी की कीमते भी उसी रुप में बढगी। फ्लैट अगर दस लाख की जगह एक करोड़ हो सकते हैं तो दाल-चावल की कीमतें एक हजार रुपये प्रति किलोग्राम क्यो नहीं हो सकती। अगर यह नहीं हो सकता तो फिर जमीन-फ्लैट या वैसे हर प्रोडक्ट की कीमते भी एक सीमित दायरे में ही रहेगी जिससे कालाधन बनाने या कालाधन को इन्वेस्ट करने के रास्ते रुके। यानी कीमत बाजार नहीं देश की जरुरत के मुताबिक सरकार तय करें जो पंतायत स्तर से लेकर संसद तक में काम कर रही हो। शायद यह सकुछ हो सकता है लेकिन इसके लिये संसदीय ढांचे की चुनावी प्रक्रिया को भी सस्ता करने की जरुरत पड़ेगी। जरुरी है कि देश में चुनाव लडने के लिये </span><span style="font-size:10.0pt;line-height:115%">10 </span><span lang="HI" style="'font-size:10.0pt;line-height:115%;font-family:">रुपये का फार्म मिले। यानी </span><span style="font-size:10.0pt;line-height:115%">25 </span><span lang="HI" style="'font-size:10.0pt;line-height:115%;font-family:">हजार रुपये ना देने पड़े।<br /><br />जरुरी है कि पंचायती राज व्यवस्था से लेकर लोकसभा तक की प्रक्रिया आपस में इस तरह जुड़े, जिससे हर पचास हजार लोगो को अपना नुमाइंदा सीधे नजर आये । यानी चार स्तर या चौखम्भा राज की व्यवस्था जमीनी तौर पर हो। चूंकि यह सब नहीं है इसलिये चुनावी व्यवस्था में नीतिया-विचारधारा हाशिये पर है और उसी का प्रतिफल है कि ममता बनर्जी बंगाल में भूमि-सुधार से लेकर भूमि अधिग्रहण और किसान-मजदूर आदिवासियो के सवाल पर कांग्रेस की सोच से ठीक उलट है लेकिन बंगाल में दोनो एकसाथ है। दिल्ली में पूर्व कैबिनेट मंत्री ए राजा को भ्रष्टाचार के आरोप में जेल भिजवाने पर प्रधानमंत्री खुशी जाहिर करते है</span><span style="font-size:10.0pt;line-height:115%">, </span><span lang="HI" style="'font-size:10.0pt;line-height:115%;font-family:">उसी ए राजा को चेन्नई में वही डीएमके क्लीन चीट दे देती है। और दोनो एकसाथ मिलकर चुनाव भी लड़ते है और केन्द्र की सरकार भी सभी साथ मिलकर चलाते है । यानी विकास के हर मुद्दे पर देश के खिलाफ लिये जा रहे निर्णयों पर एक वक्त के बाद अगर प्रधानमंत्री माफी मांग लें और विपक्ष माफ कर दें और इस संसदीय व्यवस्था को बरकरार रखने के लिये कोई ना कोई राजनीतिक दल आंकड़ों के लिहाज से संसद के भीतर खानापूर्ती करते रहें</span><span lang="HI" style="font-size:10.0pt;line-height:115%"> </span><span lang="HI" style="'font-size:10.0pt;line-height:115%;font-family:">तो सवाल यही है कि व्यवस्था का राजद्रोह और राजनीति की जनविरोधी सोच और क्या होती है।</span></p>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-18311859869892855682009-11-11T12:14:00.000+05:302009-11-11T12:15:35.421+05:30विकल्प देते देते प्रधानमंत्री विकल्प क्यों तालाश रहे हैंनक्सलियों के हिमायतियों ने भी ग्रामीण-आदिवासियों के विकास का कोई वैकल्पिक समाधान नहीं दिया है। यह बात और किसी ने नहीं बल्कि देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कही है। दिल्ली में आदिवासियों के मसले पर जुटे राज्यों के मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों को विकास और कल्याण का पाठ पढ़ाते हुये पहली बार प्रधानमंत्री फिसले और माओवादियों के खिलाफ आखिरी लड़ाई का फरमान सुनाने वाले वित्त मंत्री की बनायी लीक छोड़ते हुये उन्होंने आदिवासियों के सवाल पर सरकार को घेरने वाले और माओवादियो के खिलाफ सरकार की कार्रवाई का विरोध करने वालों पर निशाना साधते हुये कहा कि आदिवासियों के लिये वैकल्पिक अर्थव्यवस्था या सामाजिक लीक किस तरह की होनी चाहिये इसे भी तो कोई सुझाये। <br /><br />जाहिर है, इस वक्तव्य को आसानी से पचाना मुश्किल है क्योंकि आदिवासियो के लेकर बीते साठ वर्षों में हर सरकार दावा करती रही है कि उसकी समझ आदिवासियो को लेकर ना सिर्फ संवेदनशील है बल्कि जो नीतियां वह बना रही है, उससे आदिवासी मुख्यधारा से जुड़ जायेंगे । नेहरु का पहला प्रयास और मनमोहन का अभी का प्रयास आदिवासियों को आधुनिक ड्राईंग रुम में टेबल पर रखकर चिंतन वाला ही रहा है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। 1991 से पहले तक आदिवासियों को लेकर बनायी जाने वाली हर योजना में आदिवासियों को जंगल से जोड़कर ऱखा गया । जंगल गांव की परिभाषा भी तभी तक जीवित रही। <br /><br />लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री के दौर में जब आर्थिक सुधार की बयार बही तो पहली बार 1991 में ही जंगल गांव की मौजूदगी पर सवाल उठे। टाइगर परियोजना से लेकर एसईजेड तक के दो दशक के सफर में जमीन से आदिवासियो को बेदखल करने की योजना और कहीं नहीं बनी बल्कि उसी नार्थ-साउथ ब्लॉक में पेपर तैयार हुआ, जहां आदिवासियों के कल्याण के लिये प्रधानमंत्री के भाषण का पर्चा 4 नवबंर 2009 के लिये तैयार किया गया। यानी बीते 18 सालों में करीब पांच करोड़ आदिवासियों के पलायन या कहे अपनी जमीन छोड़ बेदखल होने के दर्द को प्रधानमंत्री कार्यालय ने कितना समझा, इस पर सवाल उठाना वाजिब नही होगा बनिस्पत प्रधानमंत्री की पीठ थपथपाना कि 4 नवबंर 2009 को उन्हें पहली बार लगा कि विकल्प भी कोई सोच होती है। <br /><br />यह अलग मसला है कि इस दौर में परियोजनाओं पर सत्तर हजार करोड़ खर्च हो गये और आदिवासी कल्याण के लिये महज सत्तर करोड़ ही सरकार को पोटली से निकले। जिस रौ में मनमोहन सरकार आर्थिक सुधार की हवा बहाने को लेकर लगातार बैचेन रही है उसमें विकल्प शब्द भी बेमानी सा लगने लगा। क्योंकि विकास की जो लकीर आर्थिक सुधार तले खिंची गयी उसी का परिणाम है कि गरीब और दलित के घर रात बिताकर राहुल गांधी बार बार देश के सच से कांग्रेस को जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं। राहुल गांधी का कोई भी बयान जो ग्रामीण-आदिवासियों से लेकर गरीब-दलितों को लेकर दिया गया हो, अगर उसके आईने में आर्थिक सुधार की नीतियों को रख लें तो समझा जा सकता है कि अचानक प्रधानमंत्री के जेहन में विकल्प शब्द क्यों आ गया। <br /><br />अभी तक चिदंबरम-मोटेक सिंह अहलूवालिया और मनमोहन सिंह की तिकड़ी ने उन्हीं आर्थिक नीतियों को विकल्प माना, जिसके विकल्प देने का चैलेंज वह नक्सलियों के हिमायतियो से कर रहे हैं। इसका एक मतलब तो साफ है कि जो नीतियां परोसी जा रही हैं, वह बहुसंख्यक समाज के लिये विकल्प नहीं है बल्कि त्रासदी ज्यादा हैं। और इसका दूसरा मतलब यही है कि सरकार के पास विकल्प की अर्थव्यस्था का कोई खाका नहीं है। जो अचानक नक्सली समस्या के साथ जरुरत बनती जा रही है। लेकिन आर्थिक सुधार के दौर में योजना आयोग से लेकर पीएमओ तक में बैठे अर्थशास्त्री कैसे आंखों पर सेंसेक्स और औघोगिक विकास की पट्टी बांध कर काम करते रहे, यह उस किसी से नहीं छुपा है जो बजट से पहले या फिर गाहे-बगाहे सुझावो के साथ नार्थ-साउथ ब्लाक में आमंत्रित किये जाते रहे हैं। <br />"जो सुझाव आप दे रहे है वह तो ठीक है लेकिन इसे लागू कैसे किया जाये यह तो आप बताईये। " हर वैकल्पिक सुझाव के बाद पीएमओ में बैठे अर्थशास्त्रियों या नौकरशाहों की यही आवाज गूंजती है । किसानों की त्रासदी से लेकर बुंदेलखंड की बदहाली और औघोगिक विकास को जन भागीदारी के साथ जोड़ने से लेकर पंचायत स्तर पर स्वरोजगार का सवाल कमोवेश हर बजट से पहले और बाद में लाल पत्थरों के नार्थ-साउथ ब्लाक में हर साल अलग अलग खेमो और अलग अलग विचारधारा के तहत काम करने वाले लोगो ने उठाये। लेकिन इस दौर में हर सवाल का स्वागत कर जब बड़ा सवाल सामने रखा गया कि आपके विचार तो जायज है और सुझाव का भी स्वागत लेकिन इसे लागू कैसे किया जाये तब हर विकल्प छोड़ा पड जाता है कि सरकार का संकट जब लागू तक ना करा पाने का है तो विकल्प शब्द का मतलब क्या है। वाकई बाजार और मुनाफे की थ्योरी में विकल्प शब्द ना सिर्फ गौण हुआ बल्कि धीरे धीरे विकल्प का सुझाव देने वालो की तादाद भी सरकार के दरबार में घटती चली गयी। इसलिये जो सवाल राहुल गांधी उठाने लगे अचानक देश को वही विकल्प भी लगने लगे। दो देश में बंटता देश। ग्रामीण आदिवासियों और गरीब दलितों को मौका ना मिलना। यह बयान राहुल गांधी के हैं, जो इंगित करते हैं कि आर्थिक सुधार की नीतियों से देश का बंटाधार हुआ है।<br /><br />लेकिन इसका विकल्प क्या है यह सवाल प्रधानमंत्री को राहुल गांधी से भी पूछना चाहिये कि आपने भी तो कोई विकल्प बताया नहीं फिर देश के बदतर हालात पर अंगुली उठा कर प्रधाननमंत्री पद की गरिमा को क्यों मिटा रहे हैं। पीएमओ की दीवारों में इतनी ताकत है नहीं कि राहुल से विकल्प का सवाल उठा लें ऐसे में खुद लोग कैसे कैसे विकल्प पैदा कर रहे हैं, जिसपर नजर पीएमओ की भी नहीं होगी वह गौरतलब है । संयोग से जिस वक्त प्रधानमंत्री ग्रामीण-आदिवासियों के समाधान के लिये विकल्प का सवाल उठाकर नक्सलियो के हिमायितियों पर उंगली उटा रहे थे, उसी वक्त विदर्भ में छह किसान आत्महत्या की तैयारी कर रहे थे। और किसानों की खुदकुशी के बाद अब किसानों की विधवाओ ने मदद के लिये अपना विकल्प खुद तैयार किया है कि वह 11 नवबंर से अनिश्चितकालिन भूख-हडताल करेंगी जिससे कोई राहत उनतक पहुंच सके। यानी जिस भूख ने उन्हें विधवा बना दिया उसी भूख को वे जीने का विकल्प बना रही हैं। क्योकि सरकार को यही परिभाषा समझ में आती है । तो विकल्प का मतलब ही जिस व्यवस्था में जान जाना या जान बचाना भर हो, वहां पहले विकल्प की बात होगी या जान बचाने की इसे प्रधानमंत्री समझेंगे यह आस तो लगायी ही जा सकती है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-22146514047190619032009-10-23T14:36:00.001+05:302009-10-23T14:38:16.864+05:30आतंरिक सुरक्षा को खतरे का मतलब ?माओवाद के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई की बात गृह मंत्रालय की रिपोर्ट कर रही है और प्रधानमंत्री माओवाद को देश के आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा बता रहे हैं। सरकार के लिये आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़े खतरे का मतलब देश के बीस से तीस करोड़ लोगों के लिये खींची जाने वाली विकास की लकीर के रास्ते में रुकावट का आना है। जाहिर है ऐसे में सत्तर करोड़ लोगों की न्यूनतम जरुरत तो दूर सत्तर करोड लोग भी सरकार के लिये कोई मायने नहीं रखते इसका अंदाज देश के उन्ही राज्यों के भीतर की तस्वीर को देख समझा जा सकता है, जहां ग्रामीण-आदिवासियों की बहुतायत है। अभी भी गांव विकास के घेरे में आकर शहर नहीं बने है। जहां अभी भी समाज बसता है , उपभोक्ता और बाजार नहीं पहुचा है । इसलिये साफ पानी, प्राथमिक स्कूल, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र से ज्यादा जरुरी गांव को शहर बनाना, शहर में बाजार लाना और ग्रामीण समाज को खत्म कर बाजार के लिये उपभोक्ताओ की कतार खडी कर देना।<br /><br />हकीकत में रायपुर,रांची और भुवनेश्वर से आगे छत्तीसगढ, झारखंड और उड़ीसा की अंदरुनी तस्वीर कितनी भयावह है इसका अंदाज इसी बात से लग सकता है कि जिस आर्थिक विकास की स्वर्णिम समझ को बतौर वित्त मंत्री मनमोहन सिंह से लेकर पी चिंदबरम 1991 से 2009 में खींच रहे हैं, उसमें यह तीनो राज्य अव्वल दर्जे के पिछड़े हैं। यहां बाजार पर टिका समाज महज नौ फीसदी है। और सरकार पर टिका है 15 से 20 बीस फीसदी समाज बाकि ना तो बाजार पर टिका है ना ही सरकार पर । यानी सरकार की नीतियां भी ऐसी नहीं है कि वह सत्तर फीसदी लोगों को इसका एहसास कराये की सरकार है जो आपका हित-अहित देखती है ।<br /><br />यह बात वित्त मंत्री से गृह मंत्री बने चिदबंरम तो कह नहीं सकते लेकिन राहुल गांधी समझ रहे है कि उन्हें असल राजनीतिक पारी शुरु करने से पहले उस लकीर पर सवालिया निशान उठाना ही होगा जो आंतरिक सुरक्षा को लेकर सरकार के माथे पर खींची जा रही है । राहुल बेखौफ हो कर कह सकते हैं कि माओवाद प्रभावित इलाको में सरकार बहुसख्यक आम ग्रामीण तक पहुंचती ही नहीं है । राज्यों की राजधानी में ही या फिर शहरों में ही सरकारी नीतिया भ्रष्ट्राचार तले दम तोड़ देती है या फिर जमीनी सच से दूर नीतियों की ऐसी लकीर खींची जाती है जो गांव में पहुंचते पहुंचते एक नये अर्थ में दिखायी देती है। मसलन झारखंड के खूंटी में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र नहीं है लेकिन वहां दवाई फैक्टरी को जगह दे दी गयी। बस्तर में पीने का पानी नहीं है लेकिन वहा बोतल बंद पानी की फैक्ट्री खोली जा सकती है। और बालासोर में बारुद और कैमिकल से लोग मर रहे है लेकिन वहां विशेष आर्थिक क्षेत्र की बात कही जा सकती है।<br /><br />हालांकि राहुल गांधी राजनीति के मर्म को समझते हैं इसलिये वह केन्द्र सरकार को नहीं राज्यों की सरकारों को इसके लिये घेरते है । लेकिन फिर सवाल शुरु होता है कि जो आंखें राहुल गांधी के पास है वह मनमोहन सिंह के पास क्यों नहीं है । यह कैसे संभव है कि राहुल की राजनीतिक जमीन उस उपभोक्ता समाज से हटकर होगी, जिसे अथक मेहनत के साथ मनमोहन सिंह ने बनाया है, या फिर राहुल कोई ऐसी राजनीतिक लकीर खिंचना चाहते है, जिसके बाद केन्द्र और हर राज्य में सिर्फ कांग्रेस की ही सरकार हो । और उस स्थिति में राहुल राज हो तो कोई दूसरा राहुल देशाटन कर देश की उथली और पोपली जमीन को बता कर लोगो की भावनाओं से जुड़ कर उस दौर में राहुल को ही मनमोहन सरीखा ना बना दें।<br /><br />असल में माओवादी प्रभावित रेड कारीडोर का बड़ा सच यही है कि वहा सेना या देश तो छोड़िये राज्यो की पुलिस की तुलना में भी माओवादियो की संख्या एक फीसदी से भी कम है । अगर छत्तीसगढ, झारखंड और उड़ीसा की पुलिस संख्या दो से ढाई लाख है तो इन क्षेत्रों में हथियारबंद माओवादी ढाई से तीन हजार है। इसलिये सवाल माओवाद को नेस्तानाबूद करने के लिये किसी ठोस रणनीति का नहीं है । रणनीति का सवाल यहां के लोगों से जुड़ा है, जिनकी तादाद के आगे ढाई लाख सुरक्षाकर्मी पंसगा भर है। इन क्षेत्रों में उन ग्रामीण-आदिवासियो की तादाद तीन से चार करोड की है जिनके लिये कोई नीतिया सरकार के पास नहीं है और जो नीतिया सरकार के होने का एहसास कराती है, वह सुरक्षाकर्मियो की बंदूक या डंडा है । उनसे कौन कैसे लड़ सकता है, खासकर जब सवाल विकास की अंधी लकीर खिंचने का हो। इन इलाको में ना तो जवाहर रोजगार योजना पहुंचा। ना इंदिरा आवास योजना ओर ना ही नरेगा। जंगल जीवन है और जीवन जंगल है। ऐसे में अगर जंगल और प्रकृतिक संसधानों पर किसी की नजर हो तो करोड़ों लोगो का क्या होगा यह सवाल आंतरिक सुरक्षा का है।<br /><br />लेकिन आंतरिक सुरक्षा को लेकर देखने का नजरिया कैसे बदलता है, यह गृह मंत्रालय की ही उस रिपोर्ट से समझा जा सकता है जिसमें विकास को माओवादी रोक रहे है । इसमें दो मत नही कि सरकारी संपत्ति को सबसे ज्यादा सीधा नुकसान माओवादी ने सीदे तौर पर किया है । झारखंड में चतरा से लेकर डालटेनगंज जाने के दो रास्ते है । एक लातेहार हो कर और दूसरा पांकी होकर । अगर पांकी होकर डालटेनगंज जाया जाये तो रास्ते में हर सरकारी इमारत डायनामाइट से उडायी हुई मिलेगी । और वहां किसी भी ग्रामीण आदिवासी से पूछने पर सीधा जबाब भी मिलता है कि यह इमारते माओवादियों ने उड़ायी हैं ।<br /><br />लेकिन इस इलाके का दूसरा सच भी है । इस रास्ते में प्रकृति पूरी छटा के साथ रहती है। प्राकृतिक संसाधनो की भरमार आपको रास्ते भर मिलेंगे। जंगल गांव रास्ते में मिलेंगे । पलामू को बांटती कोयलकारो नदी आपको यहीं मिलेगी। रास्ते में करीब तीस-चालीस गांव के डेढ-दो लाख ग्रामीणों का जीवन पूरी तरह जंगल पर ही कैसे निर्भर है, इस हकीकत को कोई भी नंगी आंखों से देख सकता है । सरकार की कोई नीति अगर यहा पहुंचती है तो सारे गांव वाले सहम जाते हैं क्योकि हर नीति का मतलब उनकी जिन्दगी के खत्म होने के साथ जुड़ा होता है । सरकार चाहते है नदी पर पुल बन जाये। सरकार चाहती है पलामू के जंगल क्षेत्र को पर्यटन के लिये विकसित किया जाये। सरकार चाहती है यहा के अभ्रख-बाक्साइट को यही के यही सफाय़ी कर दुनिया भर के बाजार में धाक जमा ली जाये क्योकि यहा का अभ्रख दुनिया का सबसे बेहतरीन अभ्रख है । इसके लिये खनन करना चाहती है । छह फैक्ट्रियां लगाना चाहती है। करीब 80 किलोमीटर की इस पट्टी पर एक भी स्कूल, अस्पताल या जंगल गांवों में जिन्दगी चलाने में मदद के लिये सरकार की कोई योजना नहीं पहुंची है ।<br /><br />हां, सरकारी बाबू है उनके लिये वहीं इमारते थीं, जहा से दफ्तर या बाबूओं के रहने के लिये खड़ी की गयी थी। जिन्हे माओवादियो ने उडा दिया और क्षेत्र के आदिवासी सरकार के आतंकवाद निरोधक कानून के दायरे में आने से बिना डरे बताते है कि उन्होंने इस इमारत की इंटे अपनी झोपडियो में लगा ली है। यहां एक हजार स्कावयर फुट की जमीन पर पक्का घर बनाने की कीमत महज बारह से पन्द्रह हजार है। वहीं इतनी ही जमीन में जो आदिवासी अपना घर बांस और जंगली साजो समान से बनाते है उसमें कुल खर्चा 700-800 रुपये का आता है । क्योंकि जंगल से बांस लेने पर क्षेत्र का बाबू तीन सौ- चार सौ रुपये वसूलता लेता है। बाकी खपरैल में खर्च होता है । तो इस क्षेत्र में अब बाबू की नही माओवादियो की चलती है तो घर का खर्च घट कर आधा हो गया है। वहीं बाबू के लिये पक्का मकान बनाने में जो मजदूरी यहां के ग्रामीण आदिवासियों ने नब्बे के दशक में की, उस वक्त उन्हें दिनभर काम करने के 12 से 15 रुपये मिलते थे, जो अब किसी सरकारी काम को करने में 18 से 20 रुपये तक पहुंचे हैं।<br /><br />लेकिन आंतरिक सुरक्षा का खतरा इससे आगे का है । क्योंकि छत्तीसगढ,झारखंड और उड़ीसा में जो खनिज मौजूद है अगर उसकी कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजर से जोड़ी जाये तो तीनों राज्यों का वर्तमान बजट और पंचवर्षिय योजना के धन से औसतन दस गुना ज्यादा का है । तो क्या यह माना जाये कि असल में आंतरिक सुरक्षा की चुनौती देशी जमीन की पूंजी की बोली अंतर्रष्ट्रीय बाजार में लगवाने की है । यहा की अर्थव्यवस्था का गणित कितना घालमेल वाला है इसका अंदाज कई स्तरों पर लग सकता है । जैसे माओवादियों से निपटने के लिये सुरक्षा बंदोबस्त पर यहा कश्मीर के बाद सबसे ज्या खर्च किया जा रहा है। हर दिन का सरकारी खर्चा जो सुरक्षा के आधुनिकीकरण से लेकर खाने पीने तक पर होता है वह तीनों राज्यों के माओवाद प्रभावित पैंतालिस जिलों के महिने के बजट पर भारी पडता है। पुलिस, सडक,इमारत,हथियार और सूचनातंत्र पर पांच हजार करोड खर्च सितंबर से दिसंबर तक हो जायेंगे।<br /><br />इतने धन में चार करोड़ ग्रामीण आदिवासियो का जीवन कई पुश्तो तक ना सिर्फ संभल सकता है बल्कि माओवाद को यही आदिवासी भगा देगे अगर यह माना जाये कि माओवादी यहा कब्जा किये बैठे हैं तो। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि चार महिनो के दौरान माओवादियो के खिलाफ जिस निर्णायक लड़ाई का अंदेशा सरकार दे रही है, उस पर कुल खर्चा अगर बीस से पच्चीस हजार करोड़ तक सीधे होगा तो अपरोक्ष तौर पर इस क्षेत्र में सरकार खनन के जरीये पचास लाख करोड़ से ज्यादा की खनिज को अपने हाथ में भी ले सकती है। जिसका मूल्य अंतरराष्ट्रीय बाजार में कितना होगा यह फिलहाल सोचा जा सकता है क्योकि मंदी की गिरफ्त में आये अमेरिकी अर्थशाश्त्रियो की माने तो भारत ही तीसरी दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण देश है जो अपने खनिज संसाधनों से एक बार फिर उस बाजार को जगा सकता है जो फिलहाल सोया हुआ है।<br /><br />चूंकि भारत और अंतरराष्ष्ट्रीय बाजार के बीच खनिज संसाधनो को लेकर करीब बीस गुने का अंतर है । यानी भारत में मजदूरी और खनिज दोनो की कीमत विश्व बाजार की तुलना में बीस गुना कम है । वहीं छत्तीसगढ , झारखंड और उड़ीसा ऐसे राज्य है जहां मजदूरी और खनिज भारत के भीतर ही ना सिरफ सबसे सस्ता है बल्कि महानगरों की तुलना में करीब बीस गुना से ज्यादा यह सस्ता है । ऐसे में विश्व बाजार अगर भारत के जरीये जागता है तो यह देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की सबसे बडी वित्तीय जीत हो सकती है जिन्हे आर्थिक सुधार पर गर्व है और बीते दो दशको में देश के भीतर सबसे बडी क्रांति नई अर्थव्यवस्था का आगमन ही है, जिससे मंदी के दौर में भी भारतीय विकास दर समूची दुनिया में श्रेष्ठ है। तो सवाल है इस अर्थव्यवस्था से छत्तीसगढ,झारखंड और उड़ीसा कैसे वंचित रह सकता है, जो इसे रोकेगा वह आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा तो होगा ही।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com5