tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger8125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-53658619629252870092010-01-06T18:04:00.002+05:302010-01-06T18:05:33.360+05:30फिल्म और राजनीति में सरोकार का धंधा<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">चंदेरी के बुनकरों का सवाल आमिर खान जब </span><span lang="EN-US" style="mso-bidi-font-family:Mangal; mso-ansi-language:EN-US;mso-bidi-language:HI">‘</span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">थ्री इडियट्स</span><span style="mso-bidi-font-family: Mangal;mso-bidi-language:HI">’</span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI"> के प्रचार के दौरान उठा रहे रहे थे</span><span style="mso-bidi-font-family:Mangal;mso-bidi-language: HI">,</span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI"> उस वक्त लोकसभा में मंहगाई को लेकर सांसद हंसते-मुस्कुराते चर्चा करते हुये चर्चा से बचना चाह रहे थे । आमिर खान सामाजिक सरोकार को प्रचार का हथकंडा बनाकर अपने धंधे में मुनाफा बढ़ाने की तरकीब अपनाये हुये थे तो लोकसभा में सांसद सामाजिक सरोकार को ही हाशिये पर ढकेल कर अपने मुनाफे को अमली जामा पहनाने में जुटे रहे। संसद ने आखरी दिन सासंदों को मिलने वाली हवाई यात्रा में बढोत्तरी पर सहमति का ठप्पा बिना चर्चा के लगा दिया और कृषि मंत्री मंत्री शरद पवार ने जले पर नमक यह कह कर छिड़क दिया की महंगाई से निजात तुरंत मिलना मुश्किल है। </span></p><p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">वहीं थ्री इडियट्स में मुनाफे का आखिरी ठप्पा आमिर खान ने पांच हिन्दी राष्ट्रीय न्यूज चैनलों के संपादकों को इंटरव्यू के लिये चेन्नई आने का आमंत्रण दे कर लगाया और इडियट बाक्स भी थ्री इडियट्स के धंधे को आगे बढाने में जुट गया । एक तरफ सामाजिक सरोकार की संवेदनाओं को धंधे में बदलकर मुनाफा बनाने की पहल तो दूसरी तरफ सरोकार को हाशिये पर ढकेलकर एक नयी आर्थिक लीक खींचने की कोशिश। देश के जो सामाजिक-आर्थिक हालात हो चले हैं, उसमें पहली बार यह नया सवाल उभर रहा है कि सांसद सिल्वर स्क्रीन के नायक सरीखे हो चले हैं और सिल्वर स्क्रीन के नायक सांसदों की तर्ज पर मुद्दों को उठाकर जिस तरह मुनाफा बनाने में जुटे हैं, उसमें मिस्टर परफेक्शनिस्ट वही है, जो सलीके से समाज को धोखा देना जानता हो। क्योंकि सौ करोड़ से ज्यादा का मुनाफा थ्री इडियट्स के जरीये आमिर खान बना लेंगे और सांसदों की बढ़ी हवाई उडान से देश के खजाने पर सौ करोड़ से ज्यादा का भार पड़ेगा।<br /><br />असल में आम आदमी की जरुरत और उसकी त्रासदी को फिल्मी तर्ज पर रखने का अनूठा प्रयास ही इस दौर में शुरु हुआ है और राजनीति इसे मापदंड बनाकर लोकतंत्र का राग अलापने से नहीं कतरा रही। अगर बीते पांच साल में संसद</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">सिल्वर स्क्रीन और आम आदमी को एक तराजू में रखे तो एक साथ कई सवाल खड़े होते हैं। मसलन </span>2004<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI"> में लोकसभा के </span>156<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI"> सांसद करोड़पति थे और औसतन </span>545<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI"> सांसदों की संपत्ति ढाई करोड से ज्यादा की थी। वहीं </span>2004<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI"> में गरीबी की रेखा से नीचे वालों की तादाद </span>31<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI"> फीसदी थी। और साठ फिसदी से ज्यादा की आय बीस रुपये प्रतिदिन थी। वहीं </span>2009<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI"> में लोकसभा के </span>315<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin; mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language: HI"> सांसद करोड़पति हो गये और औसतन </span>545<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin; mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language: HI"> सांसदों की संपत्ति चार करोड़ अस्सी लाख हो गयी। जबकि </span>2009<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI"> में गरीबी की रेखा से नीचे वालों की तादाद बढ़कर </span>37<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI"> फीसदी हो गयी और बीस रुपये प्रतिदिन कमाने वाले बढ़कर </span>77<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI"> फीसदी तक जा पहुंचे। जबकि इसी दौर में सिल्वर स्क्रीन ने कमाल का उछाल मारा। </span>2004<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI"> में जहां बालीवुड सालाना नौ हजार करोड़ का धंधा कर रहा था, वह पांच साल में बढकर यानी </span>2009<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI"> में तीस हजार करोड़ पार कर गया। ऐसे में आमिर खान अगर यह कहें कि वह चंदेरी ना जाते तो बुनकरो की बदहाली सामने नहीं आती या फिर राहुल गांधी का यह कहना कि दलितों की त्रासदी का समूचा सच सामने नहीं आ पाता अगर वह किसी दलित के घर रात नहीं गुजारते। और सब कुछ दलित राजनीति के अंधेरे में खो जाता यानी मायावती के। यहीं से दूसरा सवाल खड़ा होता है कि दलित या ग्रामीणों की हालत से सरकार वाकिफ हैं। सारे आंकडे उसके पास हैं। जो नीतियां दिल्ली या राज्यों की राजधानियों में बनती है, वह गांव तक नहीं पहुंच पाती, इसे मंत्री और नौकरशाह दोनों जानते समझते हैं। लेकिन इसके बावजूद राहुल गांधी भारत भ्रमण आमिर खान की तर्ज पर करते हैं। वहीं, आमिर खान भी राहुल गांधी की तर्ज पर चंदेरी से लेकर बनारस की गलियो में और पंजाब से लेकर चेन्नई तक में अपनी इमेज बचाकर घूमते हैं। बनारस में आमिर खान नकली गंदे दांत और मुचराये कपड़ों के साथ कांख में किसी बाबू की तरह बैग दबाये दबे पांव ही पहुंचते हैं। लेकिन थ्री इडियट्स का धंधा उन्हें आमिर खान की इमेज को मीडिया में परोसकर ही आगे बढ़ता दिखता है।<br /><br />तो क्या यह माना जाये कि आमिर अपने रंग-ढंग से बनारस</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">कोलकाता से लेकर लुधियाना और चेन्नई तक में रंग भेद का खेल नहीं खेलते । और राहुल गांधी जिन्हें मनमोहन सिंह का खुला आफर है कि वह जब चाहे सरकार में शामिल हो जाये और राहुल खुद चाहे तो मनमोहन को हटाकर पीएम की कुर्सी पर भी बैठकर गरीब-दलितों के घरो में रोशनी दिला सकते है तो भी सिर्फ राजकुमार की छवि के साथ वह आमिर खान जैसे अपनी इमेज से बचते क्यों हैं। और आमिर के चंदेरी के बुनकर और राहुल के बुंदेलखंड में अंतर क्या रखना चाहिये इसे कौन बतायेगा । </span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">आमिर की नजरों से देखें तो फिल्मों का नायक यूं ही नहीं होता</span></p> <p class="MsoNormal">.....<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">और अगर सिल्वर स्क्रीन से देश का सवाल जोड़ दिया जाये तो प्रधानमंत्री किसी नायक सरीखा लग सकता है। वहीं दूसरी तरफ आमिर के प्रचार की पहल राज्य को भाती है क्योंकि इससे बाजारवाद का नारा भी बुलंद रहता है और सामाजिक सरोकार भी जागे रहते हैं। और मनमोहन सिंह की इकनामिक्स को भी एक आधार मिलता है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">जहा मुनाफा सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को टटोल कर चलती हैं। आमिर खान का मानना है कि फिल्मी कलाकार अगर देश के मुद्दों को उठाये तो सरकार और सत्ता की नजर कहीं तेजी से इस पर पडती है । सरकार मानती है कि लोकप्रिय संस्थान अगर आम जनता के मुद्दों के साथ खुद को जोड़े तो आम आदमी ज्यादा जानकारी हासिल करता है। असल में कुछ इसी तरह का सवाल दो बीघा जमीन के नायक बलराज साहनी से पूछा गया था कि उनकी फिल्म के बाद क्या सरकार छोटे किसानो की त्रासदी पर ध्यान देगी। तो बलराज साहनी जबाब था कि फिल्म उसी व्यवस्था के लिये गुदगुदी का काम करती है जो इस तरह की त्रासदी को पैदा करती है। इसलिये फिल्मों को समाधान ना माने। यह महज मनोरंजन है। और मुझे चरित्र के दर्द को उभारने पर सुकून मिलता है। क्योंकि हम जिन सुविधाओं में रहते हैं उसके तले किसी दर्द से कराहते चरित्र को उसी दर्द के साथ जी लेना अदाकारी के साथ मानवीयता भी है।<br /><br />सवाल है तब यह बात कलाकार भी समझते थे और अब मीडियाकर्मी भी नहीं समझ पाते। दरअसल</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">आमिर के प्रचार की जिस रणनीति को अंग्रेजी के बिजनेस अखबार बेहतरीन मार्केटिंग करार दे रहे हैं</span>,<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-font-family:Mangal;mso-bidi-theme-font:minor-bidi;mso-bidi-language: HI"> </span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">वो सीधे सीधे लोगों की भावनाओं के साथ खेलना है। फिल्म के प्रचार के लिए लोगों की भावनाओं की संवेदनीशीलता को धंधे में बदलकर मुनाफा कमाते हुए अलग राह पकड़ लेना नया शगल हो गया है। लेकिन</span>,<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-font-family:Mangal; mso-bidi-theme-font:minor-bidi;mso-bidi-language:HI"> </span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">यहीं एक सवाल फिर उठता है कि यहां एक लकीर से ऊपर पहुचते ही सब एक समान कैसे हो जाते हैं। चाहे वह फिल्म का नायक हो या किसी अखबार या न्यूज चैनल का संपादक या फिर प्रचार में आमिर के साथ खड़े सचिन तेंदुलकर। या फिर लोकसभा के हंसी ठठ्ठे में खोता मंहगाई का मुद्दा । </span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">बलराज साहनी से इतर अगर उत्पल दत्त की माने को मुबंई में वैसी ही फिल्म बनती हैं जैसे किसी जूते की फैक्ट्री में जूते । फिल्मकार और उसकी मार्केटिंग से जुडे लोग कहते रहते है लोग ऐसी ही फिल्म चाहते है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">जबकि हकीकत में लोगों को सांस्कृतिक पराभव के लिये परिचालित किया जाता है । कह सकते हैं कभी जो जगह साम्राज्यवादियों ने छोडी सत्ताधारियो ने उस जगह को भरने का ही काम किया और फिल्मों के जरीये भी मुनाफे के उस खाली पडे तंत्र का सहारा फिल्मकारों ने ले लिया, जिसे राज्य ने खाली छोड़ दिया । यानी सरोकार की परिभाषा झटके में बदल दी गयी। और धुआंधार प्रचारतंत्र ने जनता को सांसकृतिक दिवालियेपन तक पहुंचा दिया। आमिर खान के तौर तरीके इस मायने में अलग हो सकते हैं कि वह फिल्म के प्रचार में ही सरोकार को मुनाफे में बदलना चाहते हैं । असल में फिल्मों से जुडा हर कलाकार हो या फिल्मकार, बॉलीवुड शब्द की जगह फिल्म इंडस्ट्री शब्द का प्रयोग करना चाहता है.....इसकी वजह सिर्फ यह नही है कि बालीवुड को उद्योग का दर्जा मिल जाये। बल्कि उस क्रिएटिविटी का चोला बाजार के सामने उतार फेंकना भी है जो सामाजिक सरोकार के जरीये सेंसर का ट्रिगर थामे रहता है। असल में तकनीक ने फिल्मों को सहारा सिर्फ फटाफट धंधा कर खुद को उघोग में बदलने भर का नहीं दिया है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">बल्कि न्यूज चैनलो से लेकर रेडियो जॉकी और इंटरनेट का एक ऐसा साम्राज्य भी दे दिया है, जिसके आसरे धंधा चोखा भी हो जाये और मुनाफे का बंदरबांट कर हर कोई एक दूसरे की उपयोगिता से लेकर उसे जायज ठहराने में भी लगा रहे। यह आमिर खान के इंटरव्यू के आमंत्रण से आगे का रास्ता है। यह रास्ता आपको रामगोपाल वर्मा की फिल्म रण में नजर आ सकता है। फिल्म का नायक अमिताभ बच्चन न्यूज चैनलों के धंधे को समझता-समझाता दोनो है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">लेकिन इस दौर में खुद भी धंधा कर निकल जाता है। मुश्किल यह है कि आमिर खान जिन सवालों को उठाते हुये अपनी फिल्म थ्री इडियट का प्रचार करते हैं। रामगोपाल वर्मा उन्हीं सवालो को उठाते हुये अमिताभ बच्चन के जरीये फिल्म ही बनाकर सीधे धंधा करने से नहीं चूकते। सरकार कह सकती है कि खुले बाजार की थ्योरी तो यही कहती है कि जिसे चाह अपना माल बेच लें...तरीका कोई भी अपना लें ।<br /><br />लेकिन इसे महीन तरीके से समझने के लिये फिल्मों के बदलते रंग को समझना होगा जो वाकई सत्ताधारियों का अक्स है। नाचगानो और फंतासियों के बीच नायक जब विलेन की जमकर मरम्मत करता है तो यह सिर्फ अच्छाई पर बुराई या पोयटिक जस्टिस भर का मसला नहीं होता बल्कि जीवन के लिये रोजमर्रा की समस्या पर पर्दा डालने तथा जनता को उसी परिलोक में झोंक देने की चाल भी होती है, जिसमें सारे अन्याय का इलाज है हीरो का मुक्का । जिसके लगते ही खलनायक का ह्रदय परिवर्तन होता है और वह गरीब-गुरबा की मदद करने लगता है । यहीं सवाल उठता है कि न्यूज चैनलों के धंधे को भी फिल्म रण बताती है और थ्री इडियट का आमिर का प्रचार भी बुनकरों के सवाल को उठाता है। जबकि बुनकर का हुनर नायिका की गोरी चमड़ी पर भी ठहर नहीं पाता। सामधान क्या है, यह रास्ता तुरंत बताना मुश्किल जरुर है</span>,<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">लेकिन मामला माध्यम को चुनना भी है । इसलिये रास्ता यही है कि जनता को जीत कर वापस लाना जरुरी है। व्यवसायिक रुप से भ्रष्ट उन लोगों के विरुद्ध मानव मस्तिष्क के लिये अनवरत संघर्ष जरुरी है, जो पूरे मीडिया को नियत्रित करते हैं और अखबारों</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">रेडियो तथा टीवी के माध्यम से लगातार झूठ और धोखे की बमबारी करते रहते हैं। इन सबके उपर है सरकार </span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">जिसके सदस्य खुलेआम मध्ययुगीन अंधविश्वासों का प्रसार करते हैं और आम जनता के बीच विकास की अनूठी लीक बनाने के लिये सबकुछ पने ही हाथ में रखने में जुटे रहते हैं। जिसे लोकतंत्र का नाम भी दिया जाता है। इसे तोड़ने में संघर्ष तीखा और लगातार का है। जिसके लिये जरुरी है फिल्मों को फैशनेबुल समझ कर देखने वाले दिवालिया मध्यमवर्गीय बुद्दिजिवियों के कोटरो में निवृत होने के बजाय वास्तविक जनता के पास जाया जाये। लेकिन तरीका थ्री इडियट या रण का ना हो। और शायद ना ही करोड़पतियो की लोकसभा का।</span></p>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-89782013239669297352009-12-27T15:55:00.000+05:302009-12-27T15:57:41.102+05:30“थ्री ईडियट्स” में आमिर खान है कहाँ?जीनियस जीनियस होता है... उसके जरिये या उसमें अदाकारी का पुट खोजना बेवकूफी होती है। शायद इसीलिये थ्री ईडियट्स आमिर खान के होते हुये भी आमिर खान की फिल्म नहीं है। थ्री ईडियट्स पूरी तरह राजू हिराणी की फिल्म है। वही राजू जिन्होने मुन्नाभाई एमबीबीएम के जरीये पारंपरिक मेडिकल शिक्षा के अमानवीयपन पर बेहद सरलता से अंगुली उठायी। यही सरलता वह थ्री ईडियट्स में इंजीनियरिंग की शिक्षा के मशीनीकरण को लेकर बताते हुये प्रयोग-दर-प्रयोग समझाते जाते हैं। राजू हिराणी नागपुर के हैं और नागपुर शहर में नागपुर के दर्शको के बीच बैठ कर फिल्म देखते वक्त इसका एहसास भी होता है कि थ्री ईडियट्स में चाहे रेंचो की भूमिका में आमिर खान जिनियस हैं, लेकिन सिल्वर स्क्रिन के पर्दे के पीछे किसी कैनवस पर अपने ब्रश से पेंटिंग की तरह हर चरित्र को उकेरते राजू हिराणी ही असल जिनियस हैं। यह नजरिया दिल्ली या मुबंई में नहीं आ सकता। नागपुर के वर्डी क्षेत्र में सिनेमा हाल सिनेमैक्स में फिल्म रिलिज के दूसरे दिन रात के आखरी शो में पहली कतार में बैठकर थ्री इडियट्स देखने के दौरान पहली बार महसूस किया कि आमिर खान का जादू या उनका प्रचार चाहे दर्शकों को थ्री इडियट्स देखने के लिये सिनेमाघरो में ले आया और पहले ही दिन फिल्म ने 29 करोड़ का बिजनेस कर लिया, लेकिन पर्दे के पीछे जिस जादूगरी को राजू हिराणी अंजाम दे रहे थे उसे कहीं ज्यादा शिद्दत से नागपुर के दर्शक महसूस कर रहे थे।<br /><br />जुमलों में शिक्षा के बाजारीकरण और रैगिंग के दौरान कोमल मन की क्रिएटिविटी ही कैसे समूची शिक्षा पर भारी पड़ जाती है, इसका एहसास कलाकार से नहीं फिल्मकार से जोड़ना चाहिये और यह सिनेमैक्स के अंधेरे में गूंजते हंगामे में समझ में जाता है, जब एक दर्शक आमिर खान की रैगिंग के दौरान किये गये प्रयोग पर चिल्ला कर कहता है... वाह भाऊ राजू! हिसलप कालेज का फंडा चुरा लिया। तो किसी प्रयोग पर हाल में आवाज गूंजती है... भाउ... यह तो अपना राजू ही कर सकता है। कमाल है फिल्म परत-दर-परत आगे बढ़ती है तो राजू हिरानी की तराशी पेंटिंग के रंगो में दर्शक भी अपना रंग खोजता चलता है और इंटरवल के दौरान लू में एक दर्शक मुझे इसका एहसास करा देता है कि राजू के सभी प्रयोग मशीनी नहीं होंगे, वह मानवीय पक्षों को भी टटोलेंगे। बात कुछ यूँ निकली... लू करते वक्त...<br /><br />“आपको कैसी लग रही है फिल्म?”<br />“अच्छी है... मजा आ रहा है।”<br />“भाउ राजू की फिल्म में मजा तो होना ही है। राजू कौन? अपना राजू हिराणी।”<br />“अरे! लेकिन मुझे तो आमिर खान की फिल्म लग रही है।”<br />“का बोलता... आमिर खान। भाऊ, आमिर खान तो एक्टिंग कर रहा है।”<br />“तो क्या हुआ... एक्टिंग ना करें तो फिल्म कैसे चलेगी?”<br />“भाऊ, एक बात बताओ... रेंचो जीनियस है न?”<br />“हाँ है... तो?”<br />“तो क्या, जीनियस तो जीनियस है... वह कुछ भी करेगा तो वह हटकर ही होगा ना।”<br />“अरे, लेकिन इसके लिये एक्टिंग तो करनी ही पड़ेगी।”<br />“लेकिन भाऊ... इंटरवल तक आपको एक बार भी लगा कि एक्टिंग से रैंचो यानी आमिर खान जीनियस है? फिल्म में हर प्रयोग को टेक्नालाजी से प्रूफ किया जा रहा है ना... तो फिर आमिर रहे या शाहरुख... क्या अंतर पड़ता है!”<br />“लेकिन गुरू, राजू हिरानी का हर प्रयोग भी टेक्नोलॉजी से जुड़ा है और टेक्नोलॉजी की पढ़ाई के तरीके को लेकर ही वह सवाल भी खड़ा कर रहा है।”<br />“सही कहा भाऊ आपने... लेकिन इंतजार करो, राजू कुछ तो ऐसा करेगा जिससे जिन्दगी जुड़ जाये। जैसे मुन्नाभाई में 12 साल से बीमार लाइलाज मरीज के शरीर में भी हरकत आ जाती है, तो सारी मेडिकल पढ़ाई धरी-की-धरी रह जाती है... कुछ ऐसा तो राजू भाई करेंगे।”<br /><br />हम लू के बाहर आ चुके थे और बात-बात में उसने बताया कि राजू हिरानी के ताल्लुक नागपुर के हिसलप कॉलेज से भी रहे हैं। कैसे कब... यह पूछने से पहले ही इंटरवल के बाद फिल्म शुरु होने की आवाज सुनायी दी। हम हाल के अंदर दौड़े। लेकिन मेरे दिमाग में वह आवाज फिर कौंधी... वाह राजू भाई! यह तो हिसलप का फंडा चुरा लिया। खैर, फिल्म के आखिर में जिस तरह गर्भ से बच्चे को निकालने को लेकर देसी तकनीक का सहारा लिया गया, उसे देखते वक्त मैंने भी महसूस किया कि आमिर खान अचानक महत्वहीन हो गया है और देसी प्रयोग हावी होते जा रहे हैं, जिनके आसरे दुनिया की सबसे खूबसूरत इनामत - बच्चे का जन्म - जुड़ गयी। यानी आमिर सिर्फ एक चेहरा भर है। फिल्म खत्म हुई तो कालेज का जीनियस रैंचो साइन्टिस्ट बन चुका था। लेकिन यह साइंटिस्ट रैंचो को देखते वक्त एक बार भी महसूस नहीं हुआ कि इसमें आमिर की अदाकारी का कोई अंश है, बल्कि बार-बार यही लगा कि इस भूमिका को निभाते हुये कोई भी कलाकार जीनियस से साइंटिस्ट बन सकता है। और दिमाग में आमिर खान की जगह रैंचो का करेक्टर ही घुमड़ रहा था। यह वाकई राजू हिरानी की फिल्म है, लेकिन अदाकारी को लेकर कोई कलाकार इसमें पहचान बनाता है तो वह वही बोमेन ईरानी हैं जिसने मुन्नाभाई में मेडिकल कालेज के प्रिंसिपल की तानाशाही को जिया और थ्री ईटियट्स में इंजिनियरिंग कालेज के डायरेक्टर रहते हुये खुद को किसी मशीन में तब्दील कर लिया। लेकिन दोनों ही चरित्र जब मानवीय पक्ष से टकराते हैं, तो राजू हिरानी द्वारा रचा गया बोमन का चरित्र कुछ इस तरह चकनाचूर होता है जिससे झटके में उबरना भी मुश्किल होता है और डूबना भी बर्दाश्त नहीं हो पाता। यानी बोमन ईरानी की अदाकारी से दर्शकों को प्रेम हो ही जाता है और उसी की खुमारी में फिल्म खत्म होती है।<br /><br />ऐसे में दिमाग में सवाल उठता ही है कि आखिर आमिर खान इस फिल्म में हैं कहाँ? अगर फिल्म में होते तो वह अपने प्रचार के दौरान देश भ्रमण में शिक्षा संस्थाओं से जुड़े मुद्दे उठाते। क्योंकि चंदेरी या बनारस की गलियों में आज भी प्राथमिक स्कूल तक नहीं हैं और जिनकी लागत मारुति 800 से ज्यादा की नहीं है। और देश में आर्थिक सुधार के बाद से मारुति 800 जितनी बिकी है उसका दस फीसदी भी प्राथमिक स्कूल नहीं खुल पाये हैं। लेकिन आमिर खान फिल्म के धंधे से जुड़े हैं, इसलिये वह सरल भाषा में समझते हैं कि मुनाफा ना हो तो फिल्म फिल्म नहीं होती। इसलिये आमिर खान फिल्म में काम करने के पैसे नहीं लेते, बल्कि रेवेन्यू शेयरिंग में उनकी हिस्सेदारी होती है और उनका टारगेट थ्री ईडियट्स को लेकर सौ करोड़ रुपये बनाना है। यह मिस्टर परफैक्शनिस्ट है। मुझे लगा यही जादू मनमोहन सिंह का है... तभी तो वह राजनीति के मिस्टर परफैक्शनिस्ट हो चले हैं। नागपुर में थ्री ईडियट्स देखते वक्त सोचा... काश राजू हिरानी... मिस्टर परफैक्शनिस्ट पर फिल्म बनाये और सरलता से धंधे के गणित को सरोकार से समझा दे। फिर देखेंगे प्रचार के तरीके क्या होंगे और कितने शहरों के सिनेमैक्स में कोई दर्शक अंधेरे में चिल्ला कर कैसे कहता है... भाउ, यह तो अपने दिल्ली-मुबंई के फंडे हैं।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-9300666467471901522009-11-17T11:49:00.005+05:302009-11-17T12:12:41.972+05:30अमिताभ बच्चन से साक्षात्कारकुछ दिनों पहले <a href="http://prasunbajpai.itzmyblog.com/2009/10/blog-post_28.html">अमिताभ बच्चन से इंटरव्यू का वीडियो</a> यहाँ ब्लॉग पर पोस्ट किया था। कुछ पाठकों ने उसका टेक्स्ट वर्जन पढ़ने की इच्छा जतायी थी। उस इच्छा को पूरा करने के लिए पेश है यह लिखित संस्करण -<br /><br /><b>सत्तर के दशक का विद्रोही, अस्सी के दशक का बगावती, और नब्बे में शहँशाह और इक्क्सवीं सदी में पा, जी पापा... लेकिन सवाल है ये सारे चरित्र जिस समाज के भीतर सिनेमाई सिलवर स्क्रीन पर जो शख्स जीता है, वो जिन्न होना चाहता है। वो शख्स साथ ही है हमारे। अमिताभ जी, तमाम चरित्रों को जीने के बाद जिन्न का खयाल आपके जहन में आया या लगा कि समाज वैसा हो गया है?</b><br />यह ख़्याल आया दरअसल निर्देशक के दिमाग़ में, हमारे दिमाग़ में तो हमको काम करने का एक अवसर मिल गया... और इस उम्र में काम मिलना बड़ा कठिन होता है, तो जब उन्होंने हमारे सामने ये प्रस्ताव रखा जिन्न का, तो हमने स्वीकार कर लिया। बचपन में कहानी सुनी थी अलादीन की और जिस तरह से सुजॉय ने इस कहानी को... इसकी पठकथा को बनाया, उससे लगा कि ये उस तरह की कहानी नहीं है, उसके गुण वही हैं। लेकिन उसको थोड़ा सा कन्टेम्प्रराइज़ कर दिया है आजकल के ज़माने के लिए।<br /><br /><b>यह जवाब एक कलाकार दे तो ठीक है लेकिन अमिताभ बच्चन दे, ये पचता नहीं है।</b><br />नहीं, सही कह रहा हूँ मैं। इसके अलावा मेरे मन के अन्दर कुछ और बात ही नहीं है।<br /><br /><b>हरिवंशराय बच्चन के बेटे हैं, नेहरू परिवार के क़रीबी, उस दशक को देखा, उस दौर को देखा जिस दौर में इमरजेंसी, उस दौर को देखा जब राजनीति हाशिए पर, जनता के बीच एक कुलबुलाहट... तमाम चरित्रों को जीने के बाद अब लगता है कि समाज में एक जिन्न की जरूरत आन पड़ी है?</b><br />काश कि ऐसा हो सकता, तो मैं अवश्य जिन्न बनता और बहुत सारे सुधार लाने का प्रयत्न करता। लेकिन हूँ नहीं ऐसा।<br /><br /><b>इस फ़िल्म के जरिए लगता नहीं है कि वो तमाम मिथ टूटेंगे, जो नॉस्टालजिआ है आपको लेकर?</b><br />नहीं, ऐसा तो नहीं है। मैं नहीं मानता हूँ कि... ये जीवन है, ये संसार है, इसमें मुलाक़ातें होती रहती हैं, लोग बिछड़ जाते हैं, नए मित्र मिलते हैं, सब जीवन है, इसके साथ हम...<br /><br /><b>ये नॉस्टेलजिआ हमने देखा कि हाल में जब छोटे पर्दे पर आप दुबारा आए बिग बी के जरिए, तो शुरुआत में उन तमाम चरित्रों के उन बेहतरीन डायलॉग्स को दुबारा दिखाया गया, जिसके जरिए आपकी पहचान है और लोगों की कहें तो आप शिराओं में दौड़ते थे। उसको उभारने की जरूरत क्यों पड़ी? क्योंकि मेरे ख्याल से आपकी छवि उसी में दिखाई देती है।</b><br />ये जो प्रोड्यूसर हैं टेलिविज़न चैनल के, उनकी ऐसी धारणा थी कि इस तरह का कुछ एक प्रज़ेंटेशन करना चाहिए, ये उनका क्रियेटिव डिसीज़न था। मैं उसमें मानता नहीं हूँ। ये केवल एक किरदार है और यदि लोग उन किरदारों से मेरा संबंध बनना चाहते हैं, तो मैं उन्हें धन्यवाद देता हूँ।<br /><br /><b>अमिताभ बच्चन महज एक किरदार हैं?</b><br />सिनेमा के लिए... और व्यक्तिगत जीवन में एक अलग किरदार है।<br /><br /><b>निजी जीवन का निर्णय था या सिनेमाई जीवन की तर्ज पर निर्णय था कि कभी राजनीति में आ गए थे आप?</b><br />हाँ, उसमें व्यक्तिगत निर्णय था ये। हमारे मित्र थे राजीवजी और लगा कि उस समय जो दुर्घटना हुई देश में, उस समय एक नौजवान देश की बागडोर को सम्हालने के लिए खड़ा हो रहा है। तो ऐसा मन हुआ कि हमें उसके साथ रहना चाहिए, उसके पीछे रहना चाहिए, उसका हाथ बँटाना चाहिए, तो हमने अपने आप को समर्पित किया और उन्होंने हमसे कहा कि आप चुनाव लड़िए, तो हम इलाहबाद से चुनाव लड़ गए और भाग्यवश उसे जीत गए बहुत ही दिग्गज हेमवती नन्दन बहुगणा जी के सामने। और फिर जब पार्लियामेंट में आए और धीरे-धीरे जब राजनीति को बहुत निकट से देखने का अवसर मिला, तो लगा कि हम इस लायक नहीं है कि हम राजनीति कर सकें, हमें राजनीति आती नहीं थी और हमने अपने आप को असमर्थ समझा राजनीति में रहने के क़ाबिल और इसलिए हमने वहाँ से त्यागपत्र दे दिया।<br /><br /><b>आपकी हम एक किताब देख रहे थे, सुदीप बंधोपाध्याय ने लिखी है, उस पीरियड में आपने कहा है कि पिताजी कहते थे कि जिन्दगी में मन का हो तो अच्छा और न हो तो बहुत अच्छा...</b><br />ज़्यादा अच्छा।<br /><br /><b>...तो ज्यादा अच्छा, तो आपको क्या लगता है कि ज्यादा अच्छा हुआ कि कम अच्छा हुआ?</b><br />ज़्यादा अच्छा हुआ।<br /><br /><b>और व्यक्तिगत तौर पर आपके जीवन में सब कुछ ज्यादा ही अच्छा होता रहा है?</b><br />जब कभी ऐसा लगा कि मन का नहीं हो रहा है या मन के अन्दर ऐसी भावना पैदा हुई कि अरे! यदि ये ऐसा क्यों नहीं हुआ, ये तो ग़लत हो गया... लेकिन फिर थोड़ी-सी सांत्वना हम लेते हैं जो बाबूजी की सिखाई बातें हैं, कि अगर हमारे मन का नहीं हो रहा है तो फिर ईश्वर के मन का हो रहा है। और फिर वो तो हमारे लिए अच्छा ही चाहेगा।<br /><br /><b>कुछ पीड़ा नहीं होती है कि एक दौर में अमिताभ बच्चन सिल्वर स्क्रीन के जरिए लोगों के अन्दर समाया हुआ था... वो कह सकते हैं कि वो टीम-वर्क था, सलीम-जावेद की अपनी जोड़ी थी, किशोर कुमार का गीत था, लेकिन धीरे-धीरे जो सारी चीजें खत्म होती गयीं, तो अमिताभ भी खत्म होता गया।</b><br />कलाकार के जीवन में होगा ऐसा। एक बार शुरुआत में अगर आप चरम सीमा छू लेंगे तो वहाँ से फिर आपको नीचे ही उतरना है। ये जीवन है।<br /><br /><b>नहीं-नहीं, चरम पर तो अब भी आप ही हैं...</b><br />नहीं-नहीं, ऐसा कहना ग़लत है। न...<br /><br /><b>कोई और लगता है?</b><br />और क्या, बहुत सारे। जितनी नौजवान पीढ़ी है, वो सब है।<br /><br /><b>नहीं, नौजवान पीढ़ी उम्र के लिहाज से है। हम एक्टिंग के लिहाज से कह रहे हैं।</b><br />नहीं-नहीं, वो तो जनता बताएगी न।<br /><br /><b>जनता तो बताती है। तभी तो आपको एक्सेप्ट करती है।</b><br />तो ये मेरा भाग्य है कि कुछ फ़िल्में जो हैं देख लेती है, कुछ नहीं देखती है, कुछ उसकी आलोचना करती है। पर ये उम्र के साथ होगा... अब धीरे-धीरे हमारा जो है शान्ति हो जाएगी, हमारी जो लौ है वो धीमी पड़ जाएगी और एक दिन बुझ जाएगी।<br /><br /><b>अक्सर कहते थे... कि उस दौर में आपसे पूछा जाता था कि ये आक्रोश आपके भीतर कहाँ से आता है? आप कहते मैंने वो पीड़ा देखी है, पीड़ा भोगी है, पिता के संघर्ष को देखा है।</b><br />नहीं, मैंने ये कहा था कि मैं मानता हूँ कि प्रत्येक इंसान के अन्दर कहीं-न-कहीं क्रोध होता है, और वो सबके अन्दर होता है और यदि उसके साथ अन्याय होगा तो वो क्रोध निकलता है। मेरे अन्दर से इस प्रकार से निकला जिस प्रकार लेखकों ने जो पटकथा थी, उसे लिखा और जिस प्रकार जनता ने जो देखा, उसे पसंद आया, तो वो एक व्यवसाय बन गया। लेकिन मैं ऐसा मानता हूँ कि आपके अन्दर भी उतना ही क्रोध है जितना मेरे अन्दर है और यदि आपके साथ भी वही अन्याय होगा जो आम आदमी के साथ होता है, तो आपके अन्दर से भी वही क्रोध निकलेगा। उसमें कोई ऐसी बड़ी बात नहीं है।<br /><br /><b>अब नहीं आता है किसी बात पर क्रोध?</b><br />नहीं, अब आता है और उसे हम व्यक्त भी करते हैं।<br /><br /><b>मसलन?</b><br />कई ऐसी बातें होती हैं, निजी बातें होती हैं, व्यक्तिगत बातें होती हैं।<br /><br /><b>कोई पीड़ा नहीं होती है कि जिस मित्र की वजह से आप उस चीज को छोड़ के आ गए जो आपके जीवन का एक बड़ा हिस्सा था, एक सपना था? आप राजनीति में आ गए और उसी परिवार की वजह से आपको कहना पड़ता है “वो राजा हैं, हम रंक हैं”। ये सब भाव कहीं आता है?</b><br />मैंने उस बात से कभी अपने आप को दूर नहीं किया है। मैं तब भी मानता था और अब भी मानता हूँ।<br /><br /><b>आप छवि देखते हैं अपने मित्र की राहुल के भीतर?</b><br />हो सकता है...<br /><br /><b>नहीं, आप देखते हैं?</b><br />वो हमारे सामने पैदा हुए हैं और वो होनहार हैं, शिक्षित हैं और उनके हृदय में, मैं ऐदा मानता हूँ, दिल है।<br /><br /><b>नहीं, अकस्मात राजीव गांधी को देश सम्हालना पड़ा था। अकस्मात आपका आगमन हो गया था। शायद कहा गया बाद में कि आपने भावावेश में एक निर्णय ले लिया था?</b><br />हो सकता है। मैंने स्वयं माना है इस बात को कि ये एक भावनात्मक निर्णय था और मैं ऐसा मानता हूँ कि राजनीति में भावना जो है, उसका कोई दर्जा नहीं होता है।<br /><br /><b>भावनाएँ मायने नहीं रखती हैं?</b><br />नहीं।<br /><br /><b>ईमानदारी?</b><br />हो सकता है। मैं ऐसा मानाता हूँ कि बहुत से लोग हैं जो ईमानदारी से राजनीति करते हैं। वो चलती है, नहीं चलती – इसका मैं विवरण नहीं कर सकता।<br /><br /><b>वो लायक हैं, समझदार हैं, पढ़े-लिखे हैं...</b><br />जी, सभी हैं।<br /><br /><b>उनमें एक छवि भी देखते हैं कि वो देश को भी सम्हाल सकते हैं वो शख्स... राहुल गांधी?</b><br />क्यों नहीं, क्यों नहीं सम्हाल सकते। अगर जिस तरह से... और ये तो जनता बताएगी जब वो...<br /><br /><b>नहीं, हमें लगता है कि पता नहीं खाली बात कहते हैं, निकल जाते हैं दाएँ-बाएँ से, देश कोई और सम्हाल रहा है, आपके पास पावर है आप कुछ भी कह दीजिए... हमें ऐसा लगता है।</b><br />इतनी अगर मुझमें जिज्ञासा होती तो मैं राजनीति में होता, लेकिन मैं हूँ नहीं। इतनी जिज्ञासा मुझमें है नहीं कि किसी को परख सकूँ।<br /><br /><b>आपके मित्र राजनीति में हैं, पत्नी राजनीति में हैं।</b><br />जी।<br /><br /><b>फिर कैसे माना जाए आप नहीं हैं?</b><br />ये उनका अपना निर्णय है। मैं अमर सिंह जी से न कभी राजनीति की बात करता हूँ और न ही जया से। और न ही अमर सिंह जी मेरे से फ़िल्मों की बातें करते हैं कि आपने ऐसा किरदार क्यों किया, या ऐसी एक्टिंग क्यों की।<br /><br /><b>नहीं, वो तमाम प्रेस कॉन्फ़्रेन्स में आपकी बड़ी तारीफ़ करते हैं आपकी - देखिए कमाल की एक्टिंग की है।</b><br />ठीक है, हम भी उनकी तारीफ़ करते हैं। और मैं उनको मित्र थोड़े न मानता हूँ, उनको परिवार का एक सदस्य मानता हूँ।<br /><br /><b>क्या आपको कहीं महसूस कभी होता है कि अब जो बॉलीवुड जिस रंग में रंग चुका है...</b><br />भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री, “बॉलीवुड” शब्द से हमको...<br /><br /><b>अच्छा ठीक है, भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री... इंडस्ट्री ही हो गयी है सिर्फ़, फ़िल्म गायब हो गया है?</b><br />नहीं, ऐसा नहीं है। फ़िल्म की वजह से ही है। इंडस्ट्री एक नाम कहते हैं, क्योंकि यहाँ पर व्यवसाय होता है। लोग काम करते हैं।<br /><br /><b>हम प्रोमो देख रहे हैं अलादीन का। आप नाक पकड़ते हैं, वो कुछ गुब्बारे की तरह फूल... क्या है ये? मतलब ये तो कमाल है न? ऐसा होता नहीं है जबकि।</b><br />जादू है, जिन्न का जादू। सिनेमा भी तो एक तरह से जादू है। सिंगल डाइमेंशन है, कहाँ थ्री डाइमेंशन है। कहाँ बैकग्राउण्ड म्यूज़िक बजता है, जब आप अपने निजी जीवन में किसी को मारते हैं या किसी के साथ प्रेम करते हैं। कभी सुना है आपने? यह एक मीडियम है।<br /><br /><b>ये भटकाव नहीं है?</b><br />नहीं।<br /><br /><b>वजह क्या है इसकी कि इस तरह की फ़िल्में होने लगीं?</b><br />हर क्रियेटिव इंसान को ये छूट मिलनी चाहिए कि वो अपनी क्रिएटिविटी को व्यक्त करे और फ़्रीडम मिले उसे। अगर हम एक प्रजातन्त्र में रह रहे हैं, तो हमें फ़्रीडम मिलना चाहिए एक्स्प्रेशन का, वो हमारे कॉन्स्टिट्यूशन में लिखा हुआ है।<br /><br /><b>कुछ भी किया जाए? कैसे भी पैसा कमाया जाए?</b><br />नहीं-नहीं, पैसा तो आप सभी कमा रहे हैं। आप भी कमा रहे हैं, हम भी कमा रहे हैं।<br /><br /><b>तरीका कुछ भी हो?</b><br />हाँ।<br /><br /><b>कोई भी तरीका आजमाया जा सकता है?</b><br />नहीं, हम यह नहीं कह रहे हैं। कानून के अनुसार, माध्यम के जो... जो माध्यम हमको दिया हुआ है कॉन्स्टीट्यूशन के अनुसार, उसके माध्यम से हम अगर पैसा कमा रहे हैं तो सही है।<br /><br /><b>कई बार पता नहीं क्यों ये फ़ीलिंग होती है कि अमिताभ बच्चन अपनी जो मौलिक चीज़ें थीं, उसे छोड़ रहा है। मसलन हमने बिग बॉस में बड़ा लम्बा-चौड़ा आप पर आर्टिकल लिखा भी है। आपका चश्मा जो है, आपकी आई कॉण्टेक्ट में रुकावट डालता है जो दर्शकों के साथ होता था। और उसमें वो नजर आ रहा था बहुत क्लीयर। तो हमें बड़ा अजीबो-गरीब लग रहा था, हम बोले ये यार क्या मतलब है इससे ये आई कॉण्टेक्ट...</b><br />अब क्या करें अगर वृद्धावस्था है, नज़र धुंधली हो गयी है।<br /><br /><b>अच्छा, राजनीति में जिस समय आपमें अरुचि पैदा हो रही थी, उस समय एक मीटिंग करायी गयी थी केतन देसाई के द्वारा आपकी और अनिल अम्बानी की। उस समय उन्होंने एक पत्र दिया था आपको, जो फ़ेयरफ़ेक्स के जरिए जांच का था, वो भी हमने आपकी बायोग्राफ़ी में चूँकि देखा है, तो हमें लगता है कि वो हिस्सा होगा आपके...</b><br />मुझे इसका कोई ज्ञान नहीं है।<br /><br /><b>नहीं याद है?</b><br />न।<br /><br /><b>तब से आपकी दोस्ती हो चली अनिल अम्बानी से और अम्बानी परिवार से। तभी से वो चली आ रही है?</b><br />जी हाँ, जी हाँ। बहुत पुरानी दोस्ती है।<br /><br /><b>एक तरफ़ अमर सिंह हैं, एक तरफ़ अनिल अम्बानी, बीच में अमिताभ – ये शख्सियत तो देश को भी हिला सकते हैं अगर तय कर लें कि राजनीति...</b><br />ये आप लोगों की नज़र से ऐसा होगा, हम तो कभी इसे ऐसा देखते नहीं और न ही कभी हम मानते हैं। हमें जो चीज़ें एक मित्र की हैसियत से अच्छी लगती हैं, उसे हम करते हैं। हमने कभी इसको इस नज़र से नहीं देखा कि ये बहुत बड़े उद्योगपति हैं या अमर सिंह जी बहुत बड़े राजनीतिज्ञ हैं। हमें उनकी दोस्ती, उनका प्यार, उनका स्नेह मिलता है और उसी के अनुसार हम अपना जीवन व्यतीत करते हैं।<br /><br /><b>फ़िल्म इंडस्ट्री में माना जाता है एक तरफ़ ख़ान बन्धु, हम उसका जिक्र नहीं करेंगे, लेकिन दूसरी तरफ़ ठाकरे बंधु – ये जीवन को प्रभावित करता है आपके?</b><br />किस नज़रिए से आप कहना चाह रहे हैं प्रभावित करता है?<br /><br /><b>एक ऐसा शख्स जो आपका फ़ैन भी है, वही शख्स कहता है कि अमिताभ बच्चन तो यूपी चले जाएँ।</b><br />जी, जी।<br /><br /><b>दर्द नहीं होता है कि क्या है ये?</b><br />ये प्रजातन्त्र है। हर एक को अपनी भावनाओं को व्यक्त करने की छूट है। ये भारत देश जो है, यहाँ सबको उतनी ही आज़ादी है, वो किसी भी जगह पर जा कर रहें। मैंने ऐसे चुना है कि मैं मुम्बई में आ कर के रहूँ और वहाँ पर रहूँ, जियूँ, सब-कुछ मुझे उसी शहर से मिला है। अब मैं उसे छोड़कर कहाँ जाऊँगा? अब उनके कहने से और करने से इसपर मैं आलोचना करूँ या उसको स्वीकार करूँ, इससे कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है। उनको जो कहना था, सो उन्होंने कह दिया है। लेकिन मैं तो मुम्बई में ही रहूँगा। क़ानूनन मुझे बताइए अगर मैं कोई ग़लत काम कर रहा हूँ?<br /><br /><b>नहीं-नहीं, आप गलत नहीं कह रहे हैं। हम कह रहे हैं कि आपकी अपनी शख्सियत, अपनी जो पहचान है...</b><br />ये होना चाहिए, ये होता है कई बार। कई लोग ऐसे होते हैं जो जब पब्लिक लाइफ़ में होते हैं या जो सिलेब्रिटी होते हैं, उनके ख़िलाफ़ बहुत-सी बातें कही जाती हैं। उनके ऊपर अन्याय होता है, क़ानूनन बहुत-सी चीज़ें हो जाती हैं, आरोप लगाए जाते हैं। ये होता है, ये जीवन है। हमारे साथ बहुत हुआ है। शायद ज़रूरत से ज़्यादा हुआ है। लेकिन मैं ऐसे मानता हूँ कि शुरु-शुरू में जब ये इसकी शुरुआत हुई थी, तो मुझे लगा कि ये क्यों हो रहा है और ये ग़लत चीज़ हो रही है और उससे बहुत कष्ट हुआ है, दुःख हुआ है। लेकिन अब मैंने मान लिया है कि हमारा जीवन ऐसा है, जहाँ पर हमारे ऊपर इस तरह के आरोप लगाए जाएंगे। यदि वो आरोप सही हैं, तो उसका हमें दण्ड दीजिए। लेकिन अगर सही नहीं हैं, तो हमें उसे सहना पड़ेगा।<br /><br /><b>कई दशकों से आपका एक दौर देखा गया है...</b><br />अरे, तो क्या... उसमें कौन-सी बड़ी बात हो गयी?<br /><br /><b>नहीं देखा गया?</b><br />नहीं।<br /><br /><b>चलिए आगे बढ़ते हैं। जो बालीवुड में अभी फ़िल्में बन रही हैं, आपको अच्छी लगती हैं। गुरुदत्त भी अच्छे लगते हैं, दिलीप कुमार साहब की आपको एक्टिंग भी अच्छी लगती थी और माना जाता था कुछ छवि भी वो दिखाई देती थी। अब के दौर में जब शाहरुख खान खड़े होते हैं, सलमान खान खड़े होते हैं। लगता क्या है कि अमिताभ बच्चन एक ऐसी जगह खड़ा है, जो एक तरफ़ यह परिस्थितियाँ थीं और दूसरी तरफ़ ये परिस्थितियाँ हैं।</b><br />नहीं, जो आपने कहा “ये परिस्थितियाँ हैं”, इस पर मुझे ऐसा लगा कि आप कह रहे हैं थोड़ी-सी कमज़ोरी है उनमें। मैं ऐसा नहीं मानता हूँ कि उनमें कोई कमज़ोरी है। सब अपनी-अपनी जगह सक्षम हैं और सब अपनी-अपनी जगह पर हैं। मैं ऐसा मानता हूँ कि हर युग में नई पीढ़ी को सामने आना चाहिए। नए कलाकार आएँ। कहाँ तक हम लोग उसको खीचेंगे या हम लोग ऐसा सोचेंगे कि सारी ज़िन्दगी जो है, जनता हमें ही प्रेम करती रहे, ऐसा होगा नहीं। और इस बात को हमने पहले ही मान लिया था।<br /><br /><b>बड़े लिब्रल डेमोक्रेटिक आन्सर होते हैं आपके।</b><br />नहीं-नहीं, बिल्कुल सही बात है। ये बिल्कुल सही बात है। प्रत्येक युग में आप देखेंगे या प्रत्येक दशक में नये कलाकार आए... और ये नयी पीढ़ी है। आपके हर व्यवसाय में ऐसा ही होगा। पिता जो है अपनी ज़िम्मेदारी पुत्र पर छोड़ देता है, चाहे वो बड़ा बिज़नेस हो, या वो मीडिया हो, चाहे वो फ़िल्म कलाकार हो, राजनीति हो। सब जगह ऐसा ही होता है।<br /><br /><b>एक सवाल बताइएगा। आखिरी सवाल आपसे जानना चाहेंगे कि ये आपका कमाल है या आपको लगता है कि हर चीज़ सिनेमाई हो गयी है। क्योंकि जब सिलसिला आयी थी तब ये कहा गया था कि अमिताभ बच्चन ही वह शख्स है जो पत्नी को भी ले आया और रेखा जी को भी ले आया...</b><br />वो दो कलाकार की हैसियत से लाए हम...<br /><br /><b>हम उसको आगे बढ़ा रहे हैं, उसको आगे बढ़ा रहे हैं... और एक वो दौर आता है जहाँ बेटा भी है, बहू भी है। सभी करेक्टर्स एक साथ स्क्रीन पर हैं।</b><br />अगर निर्देशक की नज़रों में कोई ऐसा कलाकार है, जो उनको लगता है कि ये सही है, ये जो सक्षम है इस रोल को निभाने के लिए, तो उसमें हम कभी भी रुकाव नहीं डालेंगे। मैंने आजतक कभी भी किसी निर्देशक से ये नहीं कहा, किभी निर्माता से नहीं कहा कि फ़लाँ को लो या फ़लाँ को न लो। ये उनके ऊपर निर्भर है। हाँ, वो मुझसे पूछते हैं कि हम फ़लाँ को ले रहे हैं, ये करेक्टर सूट करता है? मैं कहता हूँ ठीक है भैया। ये तुम्हारी ज़िम्मेदारी है। मेरी ज़िम्मेदारी थोड़े ही न है। जो मेरी ज़िम्मेदारी है...<br /><br /><b>निजीपन स्क्रीन पर आ गया है?</b><br />कहाँ आया निजीपन?<br /><br /><b>नहीं आया?</b><br />नहीं, कैसे आ सकता है?<br /><br /><b>नहीं, वो केरेक्टर्स में तब्दील हो गए और वो परिवार के हिस्से भी हैं। जिन्दगी के हिस्से भी हैं।</b><br />नहीं, वो तो केवल एक इत्तेफ़ाक था। लेकिन वो केरेक्टर जो था, वो उसके अनुसार उन्होंने उन किरदारों को लिया। अब चाहे वो हमारी बहू हो, चाहे बेटा हो, चाहे पत्नी हो।<br /><br /><b>अलादीन की तीन इच्छाएँ हैं जिसे जिन्न पूरी करेगा, जो जीनियस है। आपकी भी कोई इच्छा है?</b><br />इक्यावनवाँ प्रश्न है जिसका अभी तक मैं उत्तर नहीं दे पाया। (हँसते हैं)<br /><br /><b>चलिए सर, बहुत-बहुत शुक्रिया। तो ये हैं अमिताभ बच्चन। इक्कसवीं सदी में पा की भूमिका के बाद जीनियस यानी अब जिन्न। और वो दौर भूल जाइए... भूल जाएँ न हम लोग... आक्रोश, विद्रोह, बगावत, शहंशाह...?</b><br />क्या पता कल फिर से जीवित हो जाए! कोई भरोसा नहीं है। (फिर हँसते हैं)<br /><br /><b>ये है मन का हो तो ठीक, न हो तो और ठीक। बहुत-बहुत शुक्रिया अमिताभ जी, बहुत-बहुत शुक्रिया।</b><br />धन्यवाद सर, धन्यवाद।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-14702142211652200882009-07-06T10:01:00.002+05:302009-07-06T10:02:41.763+05:30फिल्म "न्यूयॉर्क" से रेड-कॉरिडोर तकअमेरिका में 9/11 के बाद करीब तीन हजार लोगों को संदेह के आधार पर एफबीआई ने पकड़ा। जिसमें अस्सी फीसदी से ज्यादा मुस्लिम थे। इनमें से किसी के भी खिलाफ आंतकवादी होने का कोई सबूत एफबीआई को नहीं मिला। लेकिन जिन्हें भी पकड़ कर पूछताछ की गयी, रिहायी के बाद अधिकतर मानसिक तौर पर विक्षप्त सरीखे हो गये। ओबामा ने सत्ता में आने के बाद पहला काम यही किया कि यातना गृह ग्वातामालो को बंद करा दिया। फिल्म न्यूयार्क के आखरी सीन में जब स्क्रीन पर यह बयान छपे हुये उभरते हैं तो लगता है फिल्मकार जार्ज बुश के दौर की काली यादों को ओबामा के जनादेश से भुलाना चाह रहा है।<br /><br />ओबामा जिस तरह मुस्लिम समाज के घावों पर मरहम लगा रहे हैं और दोस्ती का हाथ बढ़ा रहे हैं, उससे यह सवाल फिल्म न्यूयार्क के अंत को देखकर लगता है कि 9/11 के बाद आंतकवाद के खिलाफ जार्ज बुश की हर पहल आंतकवाद पर नकेल कसने की जगह आंतकवादियो की एक नयी खेप तैयार कर रही थी। जिनके जहन में अमेरिका की दादागिरी का आक्रोष इस हद तक बढ़ा कि बदले की भावना में वह आंतकवाद के हाथ में खिलौना होना ज्यादा पंसद करने लगे। यातना गृह से निकलने के बाद इनकी जिन्दगी का मकसद सिर्फ अपने खिलाफ हुये अत्याचार को याद रखना भर नहीं था बल्कि परेशानी का सबब यही था कि जिस राज्य के भरोसे उन्हें अपने होने का गुमान था उसी राज्य के आंतक के सामने वो अपाहिज हो गये।<br /><br />जाहिर है ऐसे में जीने का कौन सा रास्ता चुना जाये, यह सवाल अगर 9/11 के बाद कोई मुस्लिम अमेरिकी नागरिक भी महसूस कर रहा था, तो यही सवाल भारत में माओवादी प्रभावित इलाकों में ग्रामीण-आदिवासियों के सामने हैं। सौ से ज्यादा जिलों के एक करोड से ज्यादा ग्रामीण आदिवासियों के सामने सबसे बडा संकट यही है कि उनकी भाषा, सस्कृति और जरुरतो को सरकार समझती नहीं है। जबकि उनकी जमीन पर पूंजी के माध्यम से कब्जा करने वालो के साथ सरकार की नीतिया खड़ी है। यह ग्रामीण अपने हक के लिये और जीने के लिये भी विरोध करते हैं तो इन्हे माओवादी मान लिया जाता है । वहीं माओवादी अपनी विचारधारा को जिस रुप में इन ग्रामीणों के सामने रखते है, उसमें ग्रामीणो के हक की बात होती है। शुरुआती दौर में माओवादी या तो बाहर से आते हैं या फिर ग्रामीणो के विरोध की क्षमता उन्हें बनी बनायी जमीन दे देती है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन धीरे धीरे यह ग्रामीण और फिर इलाके ही माओवादी करार देने में सरकार भी देर नही लगाती। क्योंकि यहीं से नीतियों के आंतक को ढक कर राज्य मानवीय चेहरा देना शुरु करते है। नीतियों का आंतक माओवादियों के आंतक तले ना सिर्फ दब सकता है बल्कि सभ्य समाज में बंदूक की थ्योरी के सामने हर नीति विकासपरख लगेगी, इससे कोई इंकार भी नहीं कर सकता है। लेकिन माओवादी प्रभावित इलाको में ग्रामीण आदिवासियो के नजरिये से अगर सामाजिक-आर्थिक हालात पर गौर पर करे तो राहुल गांधी के दो देश का नजरिया सामने आ सकता है। आंध्रप्रदेश के तेलागंना से लेकर बंगाल के मिदनापुर,बांकुडा,पुरुलिया तक के बीच महाराष्ट्र का विदर्भ,छत्तीसगढ का बस्तर,मध्यप्रदेश और उडिसा के बारह सीमायी जिलो में प्रतिव्यक्ति आय तीन हजार रुपये सालाना भी नहीं है जबकि देश के प्रतिव्यक्ति आय का आंकडा सरकारी तौर पर करीब तीन हजार रुपये महिने का है।<br /><br />माओवादी प्रभावित इलाको में न्यूनतम जरुरत की लड़ाई कितनी पैनी है, इसका अंदाजा विकास की लकीर तो दूर जीने की पहली जरुरत की उपलब्धता से समझा जा सकता है। इन इलाकों में पीने का साफ पानी महज चार फीसदी उपलब्ध हैं। जबकि सरकारी तौर पर देश में यह आंकडा 35 फीसदी का है। शिक्षा के मद्देनजर प्राथमिक शिक्षा की स्थिति उन इलाकों में 17 फीसदी है, जो राष्ट्रीय तौर पर 58 फीसदी है । वहीं उच्च शिक्षा इन इलाको में सिर्फ 2 फीसदी है, जबकि पूरे देश का सरकारी आंकडा 41 फीसदी का है। हालात स्वास्थय सेवा को लेकर क्या है यह इस बात से समझा जा सकता है कि माओवादी प्रभावित इलाको में अगर एनजीओ का कामकाज को हटा दिया जाये तो सरकारी स्वास्थ्य सेवा दशमलव में आ जायेगी यानी एक फिसदी से भी कम।<br /><br />लेकिन मुश्किल यह नहीं है कि न्यूनतम भी मुहैया अभी तक सरकार इन इलाकों में नहीं कर पायी है । मुश्किल सरकार का अपना नागरिकों को लेकर जीने देने के नजरिये का है । सरकार विकास की जो लकीर इन इलाको में खींचने को तैयार हो उससे न तो वह उसी जंगल-जमीन को खत्म कर देने पर आमादा है, जिसके भरोसे ग्रामीण-आदिवासी न्यूनतम न मिलने के बावजूद जीये जा रहे है । लेकिन माओवादी प्रभावित रेड-कारिडोर को लेकर पिछले दो दशको में यानी 1991 में आर्थिक सुधार की लकीर देश में खिंचने के बाद से नब्बे लाख करोड डॉलर से ज्यादा की पूंजी कई योजनाओ के जरीये लगाने के लिये बेताब है। जिसमें से सत्तर लाख करोड डॉलर का मामला निजी क्षेत्र का है । लेकिन इन योजनाओ का मतलब प्रकृतिक संपदा की ऐसी लूट है जिससे जंगल खत्म होगे । प्रकृतिक पानी के स्रोत सूख जायेगे । खेती से लेकर हर वह आधार खत्म हो जायेगे जो रोजगार ना मिलने के बाबजूद करोडों ग्रामिण-आदिवासियो को पीढियों से जिलाये हुये है । लेकिन सरकार की योजनाओं को अर्थव्यवस्था के जरीये राष्ट्हीत के नजरिये से भी परखे तो वह राष्ट्रविरोधी ही लगता है । क्योंकि एक आंकलन के मुताबिक नब्बे लाख करोड डॉलर की योजनाये जो पावर प्लांट से लेकर स्टील,सिमेंट, माइनिंग लेकर एसइजेड का खाका तैयार करेगी उसमें इन इलाको में मौजूद जो प्रकृतिक संसाधन लगेगे या नष्ट्र होगे , अंतर्राष्ट्रीय बाजार में उसकी कीमत कम से कम नब्बे लाख करोड डालर से दुगुनी होगी । वही यह माल योजनाओ के लिये कौडियो के मोल यानी 40 से 50 लाख डालर ही आंकी जा रही है । चूंकि रेड-कारिडोर को लेकर सरकारे पार्टियो से लेकर मंत्रालयो तक में बंटी हुई है इसलिये नीजि कंपनियो को सरकार को चूना लगाने में कोई दिक्कत भी नहीं आती । छत्तिसगढ,मध्यप्रदेश,बिहार,बंगाल में जिन पार्टियो की सरकारे हैं, वह केन्द्र सरकार से मेल नही खाती हैं। फिर केन्द्र के ही छह मंत्रालय जो रेड कारिडोर में विकास का खंचा खिंचने के लिये किसी को भी लाइसेंस देगे उनमें तालमेल नहीं है। पर्यावरण, खनन, उघोग, वाणिज्य, आदिवासी कल्याण मंत्रालय की समझ ही जब रेड-कारीडोर को लेकर अलग-अलग है नीतियों के लागू ना हो पाने का अंत कानून-व्यवस्था के दायरे में ही होगा । और आखिरी में गृह मंत्रालय की नीतिया यही से योजनाओ को मानवीय जामा पहनाने की पहल शुरु करती है । जिसमें रेड-कारीडोर में रहने वाला कोइ भी शख्स अगर अपने हक का सवाल खड़ा करता है तो वह पहले माओवादी करार दिया जाता था और अब आंतकवादी करार दिया जायेगा।<br /><br />चूंकि गृह मंत्रालय की समझ रेड-कारीडोर को लेकर माओवाद और सत्ता बंदूक की नली से निकलती है कि थ्योरी को ही समझते हुये शुरु होती है तो इन इलाको में किसी भी योजना को अमली जामा पहनाने की पहली और आखरी पहल अर्धसैनिक बल से लेकर सेना के फ्लैग मार्च तक पर ही जा कर टिकती है । इसलिये सरकार योजनाओ के पूरा ना होने को ही रेड-कारीडोर के पिछडेपन से जोडती है । जबकि गौर करने वाली बात यह भी है कि बारह राज्यो से लेकर केन्द्र सरकार ने 1991 के बाद से लेकर अभी तक माओवादियो पर नकेल कसने के लिये सत्रह लाख करोड से ज्यादा का सीधा खर्च कर चुकी है । जो सुरक्षाबलो के आधुनिकी करण से जुडी है । लेकिन इसी दौर में गृहमंत्रालय की ही रिपोर्ट कहती है कि माओवादियों के प्रभावित उलाके में पचास फीसदी तक की बढोतरी हुई और तीस फीसदी ग्रमीण आदिवासियों ने हथियार उठाये। आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ की सीमा से सटे महाराष्ट्र के माओवादी प्रभावित चन्द्रपुर,गढचिरोली जिले को लेकर सरकार का नजरिया देखने लायक है। नक्सलियों पर नकेल कसने के लिये 80 और नब्बे के दशक में यहां के पांच सौ से ज्यादा आदिवासियो पर आंतकवादी कानून टाडा लगा दिया गया। इन्हें नक्सलियों का हिमायती बताया गया। जिनपर टाडा लगाया गया उसमें 7 साल की बच्ची से लेकर 80 साल तक के बुजुर्ग आदिवासी तक भी शामिल थे । 1995 में टाडा कानून निरस्त होने का बाद जब इन आदिवासियों के केस अदालतो में पहुंचे तो किसी में कोई सबूत पुलिस विशेष अदालतो में नहीं रख पायी।<br /><br />हालांकि 69 आदिवासियो पर अब भी टाडा के 80 केस चल रहे हैं, लेकिन पांच से पन्द्रह साल तक जेल में गुजारने के बाद जब यह आदिवासी जेल से निकले तो माओवादी प्रभाव पूरे इलाके में इस कदर बढ चुका था कि नक्सल निरोधी अभियान के तहत कोई भी पुलिसवाला इस इलाके में आया तो उसने सबसे पहले नक्सलियो की मुखबिरी करने के लिये उन्ही आदिवासियो को फुसलाया जो पुलिस की ही गलत पहल की वजह से सालो साल जेल में रह चुके थे । नक्सलियो की मुखबरी ना करने पर दोबारा माओवादी करार देकर ठीक उसी तरह जेल में बंद करने की घमकी जी जाती है जैसे फिल्म न्यूयार्क में नील मुकेश को आंतकवादी जान अब्राहम के बारे में जानकारी हासिल करने के लिये यह कहते हुये धमकाया जाता है कि ना करने पर उसे आंतकवादी करार दिया जायेगा । और सारी जिन्दगी उसे जेल के अंधेरे बंद कमरे में यातना सहते हुये काटनी होगी ।<br /><br />छत्तीसगढ में सलवा-जुडुम आंतक के खिलाफ आंतक की एक नयी परिभाषा भी है । लेकिन वहा भी संकट उसी ग्रामीण आदिवासी का है कि अगर वह सलवा-जुडुम का हिस्सा बनने से इंकार कर दे तो वह माओवादी करार दिया जायोगा और उसे एनकाउंटर में मरना ही होगा । अपनी कमजोरियों की वजह से सरकार आदिवासियों की जिन्दगी से किस तरह खिलवाड़ कर रही है, यह आदिवासी इलाकों में माओवादियों से निपटने के नाम पर आदिवासियो की पूरा जिन्दगी चक्र बदलना भी है । यूं ग्रामीण आदिवासियों को माओवादियों की मुखबरी अब सरकारी तौर पर आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ में सुविधा की पोटली दे कर भी उकसाया जाता है तो छत्तीसगढ,महाराष्ट्र,मध्यप्रदेश,उडिसा और झारखंड में आदिवासियो को बंदूक की नोंक पर रखकर माओवादियों के बारे में जानकारी लेने जबरदस्ती की जाती है। अगर बहुत पहले की स्थिति को छोड़ भी दे, तो नंदीग्राम और लालगढ़ का प्रयोग सामने है। शुरुआती दौर में नंदीग्राम को पुलिस और सुरक्षाबलों ने जिस तरह यातना गृह में तब्दील किया उसका असर लालगढ़ में आदिवासियों के हथियार उठाने से तो दिखा ही । वहीं नंदीग्राम में बलात्कार की शिकार महिलाओं ने लालगढ़ में जाकर महिलाओं को नंदीग्राम में जो हुआ जब उसे बताना शुरु किया तो वहां की महिलाओं के सामने संघर्ष के अलावे कोई दुसरा रास्ता नहीं बचा।<br /><br />14 से 16 जून को लालगढ की कई सार्वजनिक सभाओ में नंदीग्राम की सकीना और नसीफा {नाम बदला हुआ } 6-7 नबंबर 2008 को उनके साथ जो हुआ उसे मंच से खुलकर कहा । नसीफा के ने जो कहा,वह इस तरह था , ''मै उन लोगो को अच्छा तरह पहचान सकती हूं,..वो लोग सीपीआईएम के हौरमण वाहिणी के लोग थे । और इसी गांव के लड़के है । मैं नाम भी बता सकती हूं...उनके नाम बच्चू, कानू है । मुझे रेप किया बच्चू ने और मेरी मझली बेटी को रेप किया कानू ने...और दूसरी बेटी को रेप किया कोनाबारी ने ..अब्दुल भी साथ था । '' कुछ इसी तरह से अपने साथ हुये हादसे को सकीना ने भी बताया । लेकिन हर सभा में यही सवाल उठा कि बलात्कार और लूटपाट की अधिकतर घटना पुलिस की मौजूदगी में हुई और सात महिने बाद भी सजा किसी को नहीं हुई है तो न्याय कैसे मिलेगा । वहीं नंदीग्राम के सीपीएम समर्थक ग्रामीणो को पुलिस कैडर और पुलिस दोनो ने उकसाया कि लह लालगढ जाकर वहा की मुखबरी करे । असल सवाल राज्य को लेकर यही से खडा होता है । माओवाद के नाम पर करोडो लोगो के अपने तरीके से जीने के हक को कैसे छिना जा सकता है । और राज्य की भूमिका ही जब माओवादियो के खिलाफ ग्रामिण-आदिवासियो को अपना प्यादा बनाकर आंशाका पैदा करने वाली हो तब आम ग्रामिण-आदिवासी क्या करें । सबसे बडी मुश्किल यही हो चली है कि रेड कारीडोर में रहने वालो को ढकेलते ढकेलते उस दीवार से सटा दिया गया है, जहां से और पीछे जाया नहीं जा सकता है और आगे बढने पर पहले उसे माओवादी कहा जाता अब आंतकवादी माना जायेगा । ऐसे में किस रास्ते इस ग्रामिण आदिवासी को जाना चाहिये जहां वह सम्मान के साथ जिन्दा रह सके । इसका रास्ता ना तो सरकार बता रही है ना ही माओवादियो का संघर्ष रास्ता बना पा रहा है ।<br /><br />फिल्म न्यूयार्क के आखिरी डायलाग जब नील मुकेश एफबीआई अधिकारी को जब यह कहता है कि जान अब्राहम गलत नहीं था । तो एफबीआई अधिकारी कहता है , सभी सही थे...शायद वक्त गलत था । जिसमें मुल्क ने भी गलत रास्ता चुना । लेकिन अब हालात बदल चुके है । वहां बदले हालात से मतलब ओबामा के सत्ता में आने का था । तो क्या भारतीय परिस्थितयो में भी रेड-कारिडोर फिल्म तभी बन पायेगी, जब यहां भी कोई ओबामा सत्ता में आ जायेगा। और फिल्म में नायक यह कहने की हिम्मत जुटा पायेगा कि शायद वह वक्त गलत था, जिसमें मुल्क भी गलत रास्ते पर था।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-85478851247864083722009-05-21T10:30:00.000+05:302009-05-21T10:30:02.631+05:30मनमोहन, सोनिया और राहुल की "दीवार"1975 की प्रसिद्द फिल्म ‘दीवार’ का वह दृश्य याद कीजिये, जिसमें मंदिर में मां की पूजा के बाद अमिताभ और शशिकपूर दो अलग अलग रास्तों पर नौकरी के लिये निकल जाते हैं। अमिताभ एक ऐसे रास्ते चल पड़ता है, जहां पैसा है, सुविधा है। वहीं पैसा बनाने के इस धंधे में अपराध करते अमिताभ को रोकने के लिये उसी का भाई शशि कपूर सामने आता है। न्याय और अपराध के खिलाफ शशिकपूर की पहल को मां की हिम्मत मिलती है। अमिताभ मारा जाता है लेकिन उसका दम उसी मां की गोद में निकलता है, जिसकी हिम्मत से शशिकपूर अमिताभ पर गोली दागता है।<br /><br />कांग्रेस को लेकर जनादेश के डायलॉग भी कुछ इसी तरह की एक नयी राजनीति गढ़ रहे हैं। जिसमें मनमोहन और राहुल गांधी के कामकाज के रास्ते अलग अलग हैं। मनमोहन उस अर्थव्यवस्था से समाज को विकसित बनाने निकले हैं, जिसमें देश के भीतर दो देश बनने ही हैं। वहीं, राहुल देश के भीतर चौड़ी होती इस खाई को पाटना चाहते हैं। वह न्याय और सुशासन का ऐसा मेल राजनीति में चाहते हैं, जहां चकाचौंध से पहले सबका पेट भरा हुआ हो। और सोनिया राहुल को हिम्मत दे रही हैं।<br /><br />मनमोहन, राहुल और सोनिया गांधी की इस राजनीति को पांच साल के कामकाज के बाद ही ऐसी सफलता मिलेगी, यह उन राजनीतिक दलो ने सोचा भी न था जो मंडल-कमंडल के फार्मूले तले सत्ता की मलाई पिछले बीस साल से चखते रहे। असल में राहुल न्याय और सुशासन के जरिये जिस अलोकतांत्रिक व्यवस्था का सवाल उठा रहे हैं, वह मनमोहन की राजनीति का ही किया-धरा है। कह सकते है- पैसे से पैसा बनाने के मनमोहनोमिक्स के सामानांतर राहुल की रोजी रोटी की इमानदारी को कुछ इस तरीके से खड़ा किया गया है, जो बीस साल के फार्मूले को तोड़ सकती है। <br /><br />सवाल यह नही है कि इस बार चुनाव में जनादेश के जरिये वोटर ने ही राजनीतिक दलों की उस मुश्किल को आसान कर दिया जो गठबंधन के दौर में सौदेबाजी दर सौदेबाजी में उलझती जा रही थी। और हर राजनीतिक दल मुश्किल के दौर में हाथ खड़ा कर संसदीय राजनीति की त्रासदी भरी वर्तमान स्थिति का आईना सभी को दिखाता रहा। दरअसल, इस दौर में पहली बार कांग्रेस के भीतर ही उस राजनीति को आगे बढ़ाने का प्रयास शुरु हुआ, जिसमें कांग्रेस के महज बड़ी पार्टी होने भर का मिथ टूटे और एकला चलो की रणनीति का राजनीतिक प्रयोग सफल हो। लेकिन सत्ता तक पहुंचने और सत्ता चलाने की चुनौती अब उसी दो राहे पर कांग्रेस को खड़ा करेगी, जैसे अमिताभ को अंडरवर्ल्ड की कुर्सी ऐसे वक्त मिलती है, जब शशिकपूर को पुलिस की नौकरी इधर उधर भटकने और दर दर नौकरी के लिये ठोंकरे खाने के बाद मिलती है । मनमोहन सिंह की जीत उस अनिश्चय भरे माहौल से निजात पाने वालों को सुकून दे रही है, जो आर्थिक मंदी के दौर में लगातार सबकुछ गंवाते हुये समझ ही नहीं पा रहे थे कि राजनीति का उलटफेर उन्हें खुदकुशी की तरफ न ले जाये । उसपर वामपंथियो की हार ने उन्हे उल्लास से भर दिया। वजह भी यही है कि जनादेश के बाद सोमवार को जब शेयर बाजार खुला तो एक मिनट में तीन हजार करोड के वारे-न्यारे का लाभ छह लाख करोड रुपये तक जा पहुंचा। <br /><br />जाहिर है यह सलामी मनमोहनोमिक्स को है, लेकिन यह चकाचौंध राहुल की राजनीति के लिये टीस भी है। राजनीतिक तौर पर जो प्राथमिकता मनमोहन सिंह की है, उसी पर तिरछी रेखा की तरह राहुल की प्राथमिकता उभरती है। मनमोहन सिंह को मंदी का डर लोगों के जहन से निकालना है। सरकारी पूंजी के जरीये बेल-आउट की व्यवस्था पहले करनी है फिर इन्फ्रास्ट्रक्चर की मजबूती का सवाल उठाकर उन सेक्टरों को मजबूती देनी है, जो मंदी की मार से निढाल हैं। अंतराष्ट्रीय बाजार से आहत निर्यात करने वालो के मुनाफे को देश के भीतर की अर्थव्यवस्था से भी जोड़ना है और बीपोओ से लेकर रोजगार की उसी लकीर को मजबूत करते हुये दिखाना-बताना है, जिससे राहुल के चकाचौंध युवा तबके का सपना बरकरार रहे। इन सवालो में आंतरिक सुरक्षा से लेकर शेयर बाजार की गारंटी सुरक्षा का ढांचा भी खड़े करना है, जिससे लचीली अर्थव्यवस्था की मजबूती नजर आने लगे। <br /><br />वहीं, राहुल गांधी का राजनीतिक संवाद ठीक उसके उलट है। सरकार का पैसा आम आदमी तक बिना रोक-टोक के पहुंच जाये, इसकी व्यवस्था उन्हें पहले करनी है। इस व्यवस्था का मतलब है नौकशाही पर लगाम और सामूहिक जिम्मदारी का खांचा खड़ा करना। दूसरा सवाल दलित-पिछड़ों की रोजी रोटी के जुगाड़ से लेकर रोजगार की व्यवस्था का एक ऐसा खांका खड़ा करना है, जो नरेगा से आगे ले जाये और सामाजिक विकास में एक तबके को दूसरे तबके से जोड़ सके। यह ग्रामीण परिवेश में स्वालंबन देने सरीखा भी है। किसान को बाबुओ की फाइल से होते हुये मुख्यधारा से जोड़ना कितना मुश्किल काम है, इसका एहसास राहुल गांधी को विदर्भ में किसानों से मुलाकात में भी मिला होगा। जहां मनमोहन सरकार का राहत पैकेज किसानों को आहत ज्यादा कर गया। खुदकुशी करने वाले किसानो की संख्या में पैकेज के ऐलान के बाद इजाफा हो गया। असल में राहत के नाम पर बडे उघोगों को ही राहत मिल सकती है, जो बेल-आउट को कम होते अपने मुनाफे से जोडते हैं, जबकि किसान के लिये राहत न्यूनतम जरुरत से जुड़ा होता है, जिसके बदले राजनीति अपना लाभ साधती है। राहुल की राजनीति को इसमें सेंध लगानी है। मनमोहन की प्राथमिकता औघोगिक विकास को बढाना होगा । जिसके लिये कृर्षि अर्थव्यवस्था पर चोट होगी। खेती योग्य जमीन भी उघोगो और इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिये खत्म की जायेगी। जबकि राहुल की सोच को अमली जामा पहनाने के लिये खेती से औघोगिक विकास को जोड़ना होगा। कृषि उत्पादन में वृद्दि किये बगैर औघोगिक विकास संभव तो है, लेकिन इसे भारत जैसे देश में बरकरार नही रखा जा सकता है। पारंपरिक अर्थव्यवस्था अपनानी होगी। कपास की पैदावार बढती है, तो कपडा उघोग बढ़ता है। जूट की पैदावार बढेगी तो जूट उघोग बढेगा। चीनी,खाने के तेल का उत्पादन,घी, बीडी, सरीखे सैकडो ऐसे उघोग है जो कृषि पर टिके है । <br /><br />राहुल की जिस थ्योरी को जनादेश मिला है उसमें देश की वर्तमान स्थिति पर सवालिया निशान लगाना भी है। क्योकि मनमोहनोमिक्स तले जो बेकारी, असमानता , गैरबराबरी बढ़ती गयी है, उससे समाज के भीतर आर्थिक कुंठा की स्थिति भी पैदा हुई है। इससे विकास भी रुका है और गतिरोध की स्थिति में कई ऐसे बुरे नतीजे भी निकले हैं, जो राहुल की राजनीति में भी दुबारा सेंध लगा सकते हैं। समाज के अंदर विभिन्न वर्ग है, आर्थिक विभाग है,धार्मिक अल्पसंख्यक गुट है और खास कर के प्रादेशिक और भाषिक गुट है, इनमें तनाव बहुत तेजी से बढ़ा है। <br /><br />सवाल यह नहीं है कि मनमोहन की अर्थव्यवस्था सिर्फ आर्थिक खुशहाली के जरीये समाधान देखती है। सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी की थ्योरी भी आर्थिक समृद्दि के जरीये सामाजिक, भाषिक, धार्मिक, राष्ट्रीय जैसे सारे सवालो का हल देख रही है । असल में राहुल की थ्योरी लागू हो जाये तो इन सवालो को सुलझाना आसान हो जायेगा। अन्यथा आर्थिक तनाव इतने ज्यादा हैं कि आंदोलन की राह पर हर तबका चल पड़ेगा और जिस जनादेश ने कांग्रेस को राजनीतिक राहत दी है, पांच साल बाद फिर बंदर बांट की राजनीति शुरु हो जायेगी । सवाल है कि अगर वाकई न्याय और सुशासन की हिमम्त राहुल को मिली है तो उसी कांग्रेस को उस भूमि सुधार के मुद्दे को छूना होगा, जिससे नेहरु से लेकर इंदिरा गांधी तक ने परहेज किया। राहुल को भूमि-धारण सीमा के कानून को, वितरण के कानून को लागू करने की इच्छा शक्ति दिखानी होगी। जमींदारो का प्रभाव अभी भी अदालतो पर है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। राजनीति के सामानातंर अदालते भी पहल करें तो संपत्ति के प्रति मोह और पूंजीपरस्त वातावरण का वह मिथ टूट सकता है, जिसमें सत्ता और सरकार चलाने या डिगाने के पीछे पूंजी की सोच रेंगती रहती है। राजनीति ने तो हिम्मत नहीं दिखायी लेकिन जनादेश ने अर्से बाद यह महसूस कराया कि कारपोरेट सेक्टर की पूंजी नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री का दावेदार कह तो सकती है, लेकिन बनाना उसी जनता के हाथ में है, जो सरकार की कारपोरेट नीतियो की मार तले दबा जा रहा है। <br /><br />सवाल है फिल्म दीवार में तो न्याय की बात करने वाले शशिकपूर को मेडल दे कर पोयेटिक जस्टिस किया गया लेकिन वहां अमिताभ की मौत में मां की हार भी छुपी रही। वहीं, कांग्रेस में सोनिया का संकट यही है कि जबतक मनमोहन की नीतियां हैं तभी तक राहुल गांधी के पोयटिक जस्टिस के सवाल हैं। ऐसे में राहुल जिस दिन कमान थामेंगे, उस दिन सोनिया जीत कर हारेंगी या हार कर जीतेंगी यह राहुल के अब के कामकाज पर टिका है, जिस पर जनता की बडी पैनी निगाह है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-44422683575466571582009-02-21T14:16:00.000+05:302009-02-21T14:16:00.351+05:30मीडिया बंदूक से लड़ सकता है, पूंजी से नहींबंदूक का जवाब कलम से देंगे। ये कोई नारा नहीं, पाकिस्तान में मीडिया का सच है। पाकिस्तान में जियो न्यूज चैनल के पत्रकार मूसा खानखेल के शरीऱ में पैतीस गोलियां दागी गयीं। फिर सर कलम कर दिया गया।<br /><br />28 साल के पत्रकार मूसाखानखेल उस रैली को कवर करने स्वात गये थे, जो मुल्लाओं की जीत का जश्न था। या कहें पाकिस्तान सरकार के घुटने टेकने का जश्न था। जिस सरकार ने घुटने टेक दिये वहां का पत्रकार छाती तानकर खड़ा हो सकता है ....वह भी पाकिस्तान में, यह किसी भी भारतीय के लिये अचरच की बात है। क्योंकि भारत के चश्मे से पाकिस्तान को देखने का मतलब कट्टमुल्लाओं की फौज नज़र आती है। फिर मुंबई हमलों के बाद से तो पाकिस्तानी मीडिया को पाकिस्तान के ही रंग में रंगा माना जा रहा है।<br /><br />लेकिन पत्रकार मूसा खानखेल की हत्या के बाद स्वात इलाके में जा कर पाकिस्तान के पत्रकारों ने जिस हिम्मत से भविष्य के संघर्ष के संकेत दिये, उससे भारतीय मीडिया या भारत के पत्रकारों का दिल जरुर हिचकोले खा रहा होगा। खासकर जब बात पाकिस्तान और भारत के मीडिया की होती है तो सभी के दिमाग में पाकिस्तान की बंदिशें मीडिया को भी मुल्लाओं के रंग में रंग देती है। लेकिन जब मुल्लाओं के खिलाफ ही जम्हुरियत का सवाल पाकिस्तान का मीडिया उठा रहा है तो भारत में पत्रकारो को अपने भीतर झांकना होगा।<br /><br />मुंबई हमलों के बाद से किसी पत्रकार की इतनी हिम्मत नहीं रही कि वह कह सके कि पाकिस्तान से आये आंतकवादियो को कहीं ना कही स्थानीय मदद मिली होगी। यहां तक की आईबी की उस रिपोर्ट को भी तत्काल दफ़न किया गया जो बताती है कि किस तरह कोस्टल गार्ड से लेकर नौ सेना की खुफिया एजेंसी न सिर्फ फेल हुई बल्कि जो खुफिया रिपोर्ट इन्हे फैक्स की गयी ...कार्यवाही उस पर भी नहीं हुई । मीडिया में देशभक्ति का जज्बा कुछ इस तरह जागा और सरकार ने लगाम लगाने की तर्ज पर मीडिया को देशभक्ति का पाठ कुछ इस तरह पढ़ाया कि सरकार और मीडिया के सुर एक सरीखे हो गए।<br />वो तो भला हो चुनाव का वक्त है तो पीएम बनने का इंतजार करते आडवाणी ने संसद में ही दलील दे दी कि बिना स्थानीय मदद के मुंबई में आतंकवादी हमला कर ही नहीं सकते थे। लेकिन बात मीडिया की है। संयोग से भारत की खुशकिस्मत है कि मीडिया हाउसों के मालिक पत्रकार भी रहे हैं। खासकर न्यूज चैनलो के मालिकों की फेरहिस्त देखे तो सारे अग्रणी न्यूज चैनलो के मालिक पेशे से पत्रकार रहे हैं। इसलिये भारत में लोकतंत्र के चौथे पाये को लेकर आजादी का राग कुछ ज्यादा ही गाया जाता है। इमरजेन्सी में मीडिया की भूमिका ने इसे सही भी साबित किया । लेकिन छाती पर लगा यह तमगा बीते 34 साल में न सिर्फ जंग खा चुका है बल्कि इसपर पूंजी का लेप भी कुछ ऐसा चढ़ा है कि देशभक्ति का मतलब मुनाफे और सरकार की चाकरी पर आ टिका है।<br /><br />यहीं से पाकिस्तान के मीडिया का संघर्ष और भारतीय मीडिया की त्रासदी का अंतर समझा जा सकता है । पाकिस्तान में जनरल यानी मुशर्रफ ने ही न्यूज चैनलों को पहली हरी झंडी दिखायी थी। जियो न्यूज चैनल का जन्म उसी के बाद हुआ । जब 2001 में वाजपेयी से मिलने मुशर्रफ आगरा पहुंचे थे, तब उन्हे मीडिया की ताकत का असल एहसास हुआ था । मुझे याद है किस तरह सुबह के नाश्ते के लिये मुशर्रफ ने भारतीय पत्रकारों को आमंत्रित किया था और एनडीटीवी को उसके लाइव प्रसारण की इजाजत देकर भारतीय कूटनीति की हवा निकाल दी थी। जो बात वाजपेयी खुले तौर पर कह नही रहे थे और पाकिस्तान जो बात खुले तौर पर कहना चाहता था, उसे मुशर्रफ ने भारतीय मीडिया के जरीये ही कह दिया। उस दिन देश में वाजपेयी की बात कम और मुशर्रफ के जरीये एनडीटीवी की बात ज्यादा हो रही थी।<br /><br />आगरा से इस्लामाबाद लौटने के बाद ही प्राइवेट न्यूज चैनलों को इजाजत पाकिस्तान में मुशर्रफ ने दी । जियो न्यूज चैनल को चलाने की पूरी ट्रेनिग उन्ही विदेशियों ने दी, जो “आजतक” न्यूज चैनल को लांच करने से पहले उसमें काम करने वाले पत्रकारो को ट्रेनिग दे रहे थे। चूंकि आजतक लांच करने के दौरान की दो महिने चली ट्रेनिग में मै खुद एक सदस्य था और उन्हीं विदेशी गुरुओं ने मुझसे एंकरिंग करवायी तो उनसे संवाद का सिलसिला न सिर्फ लंबा रहा बल्कि आजतक लांच होने के बाद वही टीम जब पाकिस्तान में जियो न्यूज चैनल लांच करने की ट्रेनिग दे रही थी तो आजतक के रिपोर्टिग-एंकरिग के टेप ले जाकर उन्हें दिखाती भी थी। किस तरह आजतक भारत में छाया है और ट्रेनिग के बाद कैसे आजतक के पत्रकार काम करते है। मुझे याद है मुशर्रफ की आगरा यात्रा से ठीक पहले मै पाकिस्तान गया था तो हामिद मीर से मिला था। उस वक्त वह एक आखबार निकाला करते थे । वो उसके संपादक भी थे । उस दौर की पहचान ने (आगरा ने) मुझे पाकिस्तान खेमे से खबरे निकालने में मदद की और हामीद मीर को आजतक पर इंटरव्यू के लिये तीन दिनों तक बार बार लाया । उस वक्त हामिद मीर ने कहा था कि भारतीय मीडिया की पावर अगर पाकिस्तान में भी आ जाये तो हुकुमते मनमाफिक तो नहीं कर पायेंगी।<br /><br />स्वात घाटी में पत्रकारों के बीच जब पत्रकार मूसा खानखेल की हत्या के बाद हामिद मीर कलम से बंदूक का सफाया करने का ऐलान कर रहे थे तो मुझे 2001 का वह दौर भी याद गया, जब मै पहली बार आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैय्यबा के मुखिया मोहम्मद हाफिज सईद का इंटरव्यू ले कर लौटा था। उस वक्त आजतक के मालिक अरुण पुरी ने मेरी पीठ ठोंकी थी। खुद इंटरव्यू देखा था। और उस दौर में वाजपेयी सरकार के भीतर से यह संकेत दिये जा रहे थे कि इस इंटरव्यू को न दिखाया जाए । इससे कश्मीर के आतंकवाद को और हवा मिलेगी। लेकिन अरुण पुरी ने न सिर्फ इंटरव्यू दिखाने का निर्णय लिया बल्कि अखबारो में विज्ञापन निकाला –“आजतक कैचेज लश्कर चीफ” ।<br /><br />लेकिन वक्त बदल चुका है। सरकार अपनी कमजोरी छुपाकर मीडिया को सीख दे रही है कि उसे क्या करना चाहिये.......और मीडिया भी पत्रकारिता का ककहरा सरकार से सीखने को बेताब है। दरअसल, यह बेताबी सत्ता से मिलने वाले मुनाफे में हिस्सेदारी की चाह में पत्रकारिता न करने की एवज का ही नतीजा है। पत्रकारिता ताक पर रखकर अगर मुनाफे में हिस्सेदारी हो सकती है तो पत्रकारिता की जरुरत ही क्या है। जियो न्यूज उस कसाब को पाकिस्तानी साबित कर देता है जिसे पाकिस्तान की सरकार पाकिस्तानी मानने से इंकार कर देती है । जियो कराची के उस घर को दिखा देता है, जहां मुंबई हमले की साजिश रची गयी...जबकि पाकिस्तानी सरकार साजिश में पाकिस्तान को महज एक हिस्सा भर बताती है।<br /><br />दूसरी तरफ भारत में किसी न्यूज चैनल की हिम्मत नहीं होती कि वह मंत्री या नौकरशाहों की राष्ट्रभक्ति भरी चेतावनी को खारिज कर आतंकी हमले के पीछे के आतंक और उसके सच को सामने रख सके । मुंबई की लोकल में हुये सीरियल ब्लास्ट से लेकर दिल्ली में हुये सीरियल ब्लास्ट और उसके बाद बटला हाउस इन्काउटर को लेकर जिनकी गिरफ्तार हुई और पुलिस के पकडे गये आरोपियों को लेकर जो जो कहानियां गढ़ी गईं, अगर उसकी तह में तो जाना दूर उसे ऊपर से ही परख ले तो सुरक्षा के नाम पर पुलिस की कार्रवाई देश को कैसे असुरक्षित कर रही है...खुद -ब-खुद सामने आ जायेगा। लेकिन किसी भी न्यूज चैनल के भीतर पाकिस्तान की तरह अपने ही बाजुओं को खोखला बताने की हिम्मत है कहां ?<br /><br />भारत में न्यूज चैनलों की हालत किस स्थिति तक जा पहुंची है, इसका खूबसूरत नजारा फिल्म “दिल्ली-6” में देखा जा सकता है । जहां फिल्म की स्क्रिप्ट ही न्यूज चैनलों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा करती है । और फिल्म में बकायदा एक न्यूज चैनल न सिर्फ अपने चैनल चिन्ह बल्कि रिपोर्टर - एंकर के जरिये भी छाती ठोंक कर उस फिल्मी कहानी को आगे बढ़ाता है, जो फिल्म खत्म होने का बाद उस सोच को समाज का कलंक करार देती है। फिल्म के आखिर में डायरेक्टर ने बेहद हेशियारी से पर्दे पर उस आईने को टांग दिया है जो फिल्म सभी चरित्रों को दिखाते हुये कहता है कि इसमें अपनी तस्वीर देख कर इसका एहसास करो की असल चोर तुम्हारे ही अंदर है। अंत में हर चरित्र इस आईने में खुद देखता है लेकिन चैनल का पत्रकार यहां भी आइने में अपनी तस्वीर देखने नहीं आता। संयोग से असल में यह चैनल भी पत्रकार का ही है और इसमें काम करने वाले भी पत्रकार ही है।<br /><br />लेकिन भारतीय परिवेश में यह पत्रकार भी छाती ठोंक कर चल सकते हैं और पाकिस्तान के मीडिया को ताजी हवा का झोंका मान सकते है । लेकिन दोनों देशों के मीडिया का वर्तमान सच यही है कि पाकिस्तान में उसे बंदूक से दो दो हाथ करने है..जहां मूसा खानखेल सरीखे पत्रकार की जान जायेगी और भारत में पूंजी बनाने के लिये पहले सरकार से यारी फिर खबरों को दरकिनार कर फिल्मी कहानी का हिस्सा बनकर पत्रकारिता को प्रोफेशनल बनाने का राग गुनगुनाना है। दिलचस्प है कि मंदी के दौर में जहां लाखों लोगों की नौकरियां जा रही है,वहां मीडिया की जिम्मेदारी ज्यादा बनती है,लेकिन सिनेमाई दर्शन में खुद से अभिभूत और पूंजी से संचालित मीडिया का ध्यान सिर्फ लाखों रुपए पीटने में लगा है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com17tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-28998791855531764862009-01-24T08:30:00.000+05:302009-01-24T08:30:00.147+05:30स्लमडॉग मिलेनियर : ऑस्कर,अमिताभ,असलियतमिलेनियर के रास्ते स्लमडॉग का चलना कभी संभ्रात समाज को बर्दाश्त नहीं होता । जंजीर से लेकर अग्निपथ यानी करीब डेढ़ दशक तक समाज के भीतर के इसी टकराव की रोटी अमिताभ बच्चन ने चबायी है। जिसका ताना-बाना सलीम-जावेद की जोड़ी ने कागज पर उकेरा और शब्दों को अपनी अदाकारी में लपेट कर अमिताभ ने सिल्वर स्क्रीन पर जीया। अमिताभ के महानायक बनने की गाथा का सच यही है कि सैकडों दर्शकों के सामने भी अमिताभ हर दर्शक को इतना अलग कर संघर्ष के लिये तैयार करते कि हर किसी को यही लगता कि वह समाज के सबसे निचले पायदान से सबसे ऊपरी पायदान पर अपनी लड़ाई के बूते पहुंचेगा।<br /><br />पहले समाज की ठोकर फिर समाज को ठोकर मारने की जो रचना दीवार-लावारिस-मुकद्दर का सिकंदर सरीखे किरदार दो से तीन दर्जन से ज्यादा फिल्मों में अमिताभ बच्चन ने जीये कमोवेश उसका आधुनिक तरीका स्लमडॉग का सच है। समाज के भीतर के असमान लिचलिचेपन से जब कोई फिल्म टकराती है तो वह फिल्म महज कलाकारों की या डायरेक्टर की नहीं होती. बल्कि फिल्म आम लोगो की हो जाती हैं।<br /><br />स्लमडॉग का सच भी कुछ ऐसा ही है। पहले दिन का पहला शो। हाउस फुल सिनेमाघर । उसमें कौन बनेगा करोड़पति के खेल से लेकर स्लम की जिन्दगी जीने का जुनून। और सबकुछ खोते हुये सब कुछ पाने का ख्वाब। यह समझ बॉलीवुड की एक ऐसी हकीकत है, जिसे तीन घंटे की पोयटिक जस्टिस का नाम दिया जाता है और जिसे बच्चन के जरीये सलीम-जावेद ने खूब जीया है और खूब नाम कमाया है। इसी नब्ज को स्लमडॉग के डायरेक्टर डैनी बॉयल ने बेहद बारीकी से पकड़ा। डायलॉग की बारीकी देखने लायक हो। फिल्मी डायलॉग का पहला शब्द मादरचो.... का गूंजता है। इस एक शब्द से देखने वाले स्लमडॉग का सच समझ लें और दर्शकों में से आवाज आती है...यह तो अपनी ही फिल्म है गुरु...संवाद यही नहीं रुकता ....स्लमडॉग पुलिस के कब्जे में है, जिसके ज्ञान को पुलिस फ्राड-चीटर मान रही है।<br /><br />दूसरा संवाद उभरता है....जब डाक्टर-इंजीनियर-प्रोफेसर और पढ़े-लिखे लाख की रकम से आगे नही जा पाये तो यह स्लमडॉग करोड़ रुपये तक कैसे पहुंच गया और उस पर पुलिसिया थर्ड डिग्री के दर्द को झेलता स्लमडॉग का छोटा सा जबाब... मै हर जबाब जानता हूं......एक ऐसी हुक दर्शको में भरती है, जहां त्वरित कामेंट आता है....अबे किताब पढ़ने से सबकुछ नहीं आता। कौन बनेगा करोड़पति में अनिल कपूर के सवाल दर सवाल और जबाब देने से पहले हर सवाल को जिन्दगी में झेलने वाला स्लमडॉग । इससे ज्यादा खुरदुरी जमीन किसी फिल्म की कैसे हो हो सकती है जो एक तरफ करोड़पति बनने का रोमांच पैदा करे तो दूसरी तरफ मिलेनियर समाज का अंदर के मवाद को रिस रिस कर जख्म दर जख्म दिये जाए। इस तरह का सामंजस्य धारावी और सलाम बाम्बे में भी नही उभर पाया और बच्चन की फिल्मो में सलीम जावेद यहीं चूक जाते थे क्योंकि उन्हें अपने समाज को बेचना था और उसकी कमजोरियो में भी एक रोमाटिज्म पैदा करना भी था। इसलिये अमिताभ की फिल्म खत्म होने के बाद जीत का नशा तो पैदा करती, लेकिन देखने वाले को अकेला छोड़ देती, जहां वह समाज की विसंगतियों में रोमांच पैदा करके जी ले यही बहुत है।<br /><br />लेकिन स्लमडॉग जिस रास्ते को पकडती है, उसमें वह राज्य व्यवस्था के हर खांचे पर इतनी खामोशी से उंगली उठाती है कि देखने वाले के भीतर आक्रोष लाचारी के मुलम्मे में चढ़ा हुआ आता है । दंगो में जिन्दा जलते आदमी को देखने के बजाय पुलिस का ताश खेलना। चंद सेकेन्ड का दृश्य है मगर वह दिमाग में आखिर तक रेंगता है। स्लम से निकले जमाल और सलीम वैसे ही दो भाई हैं, जैसे अमिताभ की फिल्म दीवार में विजय और रवि फुटपाथ पर बड़े होते हैं। यहां विजय जिस रास्ते पर चलता है स्लमडॉग में काफी हद तक वही रास्ता सलीम पकड़ता है। दीवार में विजय यानी अमिताभ की मौत की वजह उसका अपना ही भाई रवि बनता है तो स्लमडॉग में सलीम की मौत की वजह भी उसका भाई जमाल बनता है। फिल्म दीवार में उस व्यवस्था के कवच को बचाया जाता है जिसके टूटने का मतलब नायक के हाथों राज्य व्यवस्था का हाशिये पर चले जाना है। इसलिये आदर्श की जीत होती है लेकिन स्लमडॉग किसी कवच को फिल्म में बनने ही नहीं देता उसलिये उसे बचाने का जिम्मा भी उसके कंधे पर नहीं है।<br /><br />लेकिन अपनों के लिये जीने और मरने का जो जज्बा स्लम में मिलता है, उसे ही फिल्म का पोयटिक जस्टिस बनाया गया। इसलिये सलीम की मौत जमाल के लिये कुर्बानी सरीखे या शहीद होने सरीखे हैं। जबकि विजय की मौत नायक को आदर्शवाद का पाठ पढ़ाने की है। जो जिसे समाज और सत्ता चबाकर आंखों के सामने अपनी सुविधानुसार परिभाषा गढने से नहीं चूक रहे। वहीं स्लमडॉग में झोपड़पट्टी के जीवन के सच के आगे संभ्रात समाज का जीवन इतना खोखला लगता है कि उससे घृणा भी नहीं हो पाती।<br /><br />अमिताभ बच्चन का दर्द यही है। क्योंकि स्लमडॉग की शुरुआत में जमाल का जुनून अमिताभ की ही तरह अमिताभ को लेकर कैसा है, इसे महज एक दृश्य में जिस तरह फिल्म के निर्देशक डैनी बॉयल ने दिखाया है वह सलीम-जावेद की जोड़ी पटकथा लिखते वक्त कभी सोच भी नहीं सकती थी। और अमिताभ इस दृश्य को सिनेमायी पर्दे पर जी भी नहीं सकते थे। फिल्म में जमाल की अमिताभ को देखने की चाहत पखाने के ढेर में नहला कर भी खुशी दे जाती है। भारतीय सिनेमा में यह दृश्य जुनून और सच की पराकाष्ठा है। संभवत यह दृश्य कोई दलित लेखक ही अपनी पटकथा में लिख सकता है। हांलाकि नामदेख ढसाल सरीखे दलित साहित्यकार भी ऐसे बिम्बो से चुके हैं। इसकी वजह हर आंदोलन के बाद दलित-पिछडे समाज के भीतर भी उसी संभ्रात समाज की तरह विकल्प बनाने की समझ है, जिसके खिलाफ आंदोलन शुरु होता है । यानी संघर्ष या आंदोलन के बाद खुरदुरी जमीन पर भी चकाचौंध दिखाने और जीने का खेल आधुनिक समाजिक आंदोलनों से जुड़ा रहा है। इसलिये दलित पिछडे ही नही बल्कि धारावी सरीके झोपडपट्टी के नेताओं का जीवन तो स्लम से शुरु होता है लेकिन धीरे धीर उसी स्लम को बनाये ऱखकर उसी पायदान को छूने की चाहत में आगे बढता है, जिसके खिलाफ बचपन से लड़ाई लड़ी।<br /><br />अमिताभ बच्चन का संकट यही है । जिन फिल्मो की कहानियों ने उन्हें महानायक बनाया संयोग से उसी सूत्र को पकडकर स्लमडॉग मिलेनियर ऑस्कर की दौड़ में आ गयी लेकिन इस दौर में अमिताभ का जीवन उस संभ्रात समाज का अक्स हो चुका है जहां संघर्ष या हक की लड़ाई के नायक पर सफल महानायक राज कर रहा है। जो सुविधा-चकाचौंध की हट में सब को डराना चाहता है । डराकर जीतने की चाहत बॉलीवुड का भी सच है। इसलिये बॉलीवुड की फिल्में कहानियों के साथ न्याय नहीं कर पाती। उन बिम्बो को साध नहीं पातीं जो क्रूर हकीकत हैं।<br /><br />स्लमडॉग में बच्चो से भीख मंगवाने के लिये पहले दर्शन दो घनश्याम.....गीत याद कराना और फिर गर्म चम्मच से आंखे निकाल लेना का दृश्य़ जब कौन बनेगा करोड़पति के सवाल से जुड़ता है और अनिलकपूर जमाल से सवाल करते है कि दर्शन दो घनश्याम...किसका गीत है...तुलसीदास-सूरदास-मीराबाई....और जबाब देने से पहले जमाल की आंखों के सामने उसकी अपनी हकीकत रेंगती है कि..वह बच गया....वरना आज वह भी सूरदास होता ...तो करोड़पति के खेल से भी देखने वाले को घृणा होती है। लेकिन इसे कहने के लिये फिल्म के नायक को अमिताभ की फिल्म की तरह अपनी छाती तान कर कुछ डायलॉग नही बोलने थे बल्कि स्लमडॉग पर मुंबई का चायवाला उपहास सुनते हुये महज सूरदास कहना था। यह बेचारगी ही दर्शको में हिम्मत भरती है। क्योंकि जो मौजूद है उसे बदलने का जज्बा तभी पैदा हो सकता है जब सच बताने और दिखाने पर अलग-अलग तबके और माध्यमों की तो सहमति हो जाये। लेकिन बॉलीवुड की फिल्में सिर्फ नायक में हिम्मत भरती है और देखने वालों को अकेला कर कमजोर करती है क्योकि वह असल जमीन से हटकर सिनेमायी संघर्ष का आगाज होता है।<br /><br />असल में फिल्म में मुंबई को जिस परछायी की तरह दिखाया गया वह स्लम के सामानांतर पांच सितारा अट्टालिकाओं पर भी उपहास करती है। लेकिन लाचारी और बेचारगी के बीच स्लम की जमीन पर बनी-बसी मुबंई की हकीकत का एहसास सलीम के जरीये कराने से नहीं चूकती, जहां वह मुंबई को दुनिया के बीच का शहर और खुद को मुंबई के बीच का केन्द्र मानता है । लेकिन सलीम का तरीका दीवार के विजय सरीखा लाखों की इमारत खरीद कर कराने का नहीं है। असल में अमिताभ बच्चन की सामाजिक ट्रेनिग उनकी फिल्मी सफलता का ग्राफ है जो चमकते-दमकते भारत में घुसने के लिये जोड़-तोड़ को संघर्ष का जामा पहनाता है। इसलिये महानायक बनते बनते उसकी फिल्मे नायक की धार खोकर शिक्षा और आदर्श का मुलम्मा चढाकर प्रगति गीत गाने से नहीं कतराती। सुविधा पर आंच आने या खुलेपन की कीमती चादर ओढकर कुछ भी करने में जरा भी ठेस लगती है तो अमिताभ का आक्रोष फिल्मी तर्ज पर उभरना चाहता है। इसलिये स्लमडॉग का मर्म अमिताभ के नायकत्व को हाशिये पर ले जाने का मर्म है इसलिये पश्चिम का दर्द इस तरह साल रहा है । जो इनका निजी दर्द है। ऑस्कर के दस नॉमिनेशन में से तीन में ए आर रहमान भी ऑस्कर की दौड़ में हैं। फिल्म का गीत ओ रे रिंगा....कमाल का है । हालाकि ऑस्कर की दौड में जय हो.. और ओ साया... है । लेकिन इस फिल्म को देखते वक्त कभी महसूस नहीं होता कि गीत-संगीत कहीं फिल्म को आगे बढा रहा है...बल्कि फिल्म खत्म होने के बाद गीत दिखायी देता है, जिसका ट्रीटमेंट बतलाता है कि स्लमडॉग मिलेनियर महज कहानी है....सच से इतर। लेकिन यही फिल्म की सबसे बडी सफलता है, जहां दर्शक गीत सुनने के लिये सिनमाहाल में यह सोच कर नहीं रुकता कि जिस स्लम के सच को उसने देखा है उसे रोमाटिंक वह कैसे बना ले। असलियत यही है । इसीलिये यह ऑस्कर की दौड़ में है और अमिताभ का रोमाटिज्म यही मात खाता है ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-4278720353742224532008-12-23T10:19:00.001+05:302008-12-23T19:06:42.129+05:30विमान अपहरण करें या होटल में लोगों को बंधक बनाएं,आतंकवादियों के आगे घुटने न टेके जाएं : आमिर“आतंकवाद का मतलब सिर्फ बारुद नही है। ये समाज को छिन्न-भिन्न करके भी लाया जा सकता है। खासकर जब सुरक्षा के लिये संबंध टूटने लगें या लोग संबंध तोडंने लगें। सुरक्षा का मतलब पैसा हो जाये..बिजनेस बन जाये। यह सब हमारे चारों तरफ जमकर हो रहा है। मेरी फिल्म देखने वाले मुझे मि.परफेक्शनिस्ट कहते हैं। लेकिन मैं क्या करुं...सिर्फ अदाकारी कर खामोश हो जाऊं। इंतजार करुं की कोई फिल्मकार मुझे किसी फिल्म में किसी चरित्र को जीने का मौका दें। और न दे तो क्या करुंगा...खामोश बैठा इंतजार करता रहूं। मै फिल्म बनाता हूं। उसे बेचने के गुर अपने तरीके से विकसित करता हूं, जिससे अगली फिल्म बना सकूं। आतंकवाद के खिलाफ खुद को कैसे तैयार करना है, इसे हमें आपको भी समझना होगा। सिर्फ सरकार या नेताओं के आसरे सबकुछ कैसे छोड़ा जा सकता है। आतंकवाद समाज को बांट रहा है तो एकजूट समाज को होना होगा...महज राजनीतिक एकजुटता दिखायी देने लगी है तो उससे काम नहीं चलेगा ।" फिल्म गजनी के प्रमोशन के लिये दिल्ली पहुंचे आमिर खान का नजरिया किसी भी फिल्मकार या कलाकार से कैसे बिलकुल अलग है, इसका एहसास इस बात से हुआ कि अपनी ही रिलीज होने वाली फिल्म गजनी से हटकर बात करने पर उन्हें कोई एतराज नहीं था।<br /><br />ताज-ओबेराय पर हमले के बाद रईसों के चोचले जाग उठे..जो फुटपाथ-बाजार-रेलवे स्टेशन पर आंतकवादी धमको के बाद नही जागते। इस सवाल के पूरा होने से पहले ही आमिर ने बिना शिकन कहा..जी, ऐसा सोचा जा सकता है। मै तो कहता हूं ऐसा सोचा जा रहा है, तभी आप ऐसा सवाल कर रहे हैं। लेकिन यह तो हम सभी को मिलकर सोचना होगा आखिर किसी न किसी की जान तो दोनो जगहों पर जा रही है । संयोग से दोनो को अलग-अलग कर दिया गया है। यह नजरिया कहां से आया। इसे तो कोई आंतकवादी ले कर नही आया। मैं खुद जब घर के ड्राइंग रुम में टेलीविजन पर धधकते ताज होटल की तस्वीरें देख रहा था, उस वक्त मेरे बेटे ने मुझसे कहा, फिल्म सरफरोश आपको फिर से दिखलाने की व्यवस्था करनी चाहिये और अब आप फिल्म में आंतकवादियो से मार नहीं खाना....। अब आप सोचिये कितना असर मुबंई हमलो का बच्चों पर हुआ है। लेकिन उनके अंदर का गुस्सा निकल किस रुप में रहा है।<br /><br />यह एक रोमांटिग सोच है कि लोग फिल्मों के जरीये समाधान देख रहे है। मैं अभिताभ बच्चन की अदाकारी का मुरीद हूं । लेकिन आप ही मुझे बताये कि जिस आक्रोष की छवि को आपने अमिताभ में देखा...उसमें अपने आप को उनका हर फैन देखता था। लेकिन उससे समाज या व्यवस्था की जटिलता कम नही हो गयी। वह भी बिजनेस था लेकिन तब किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि ऐसे किरदार का सिनेमायी स्क्रीन पर उतारना बिजनेस है। अब वक्त बदल गया है । अब सिर्फ चरित्रों के आसरे बिजनेस नही किया जा सकता। मैंने कई तरह की फिल्में की। फिल्म "दिल चाहता है " की थीम को देखें । उस चरित्र को समाज के भीतर हकीकत में देखा जा सकता है। लेकिन अब के दौर में यह भी समझना होगा कि कोई चरित्र इतना आइडियल नही है कि वह आपको बिजनेस दे दे । उस फिल्म के प्रमोशन के लिये हमने कई अलग अलग प्रयोग किये । वक्त सिर्फ बीतते हुये नही बदला है बल्कि जीने के अंदाज में भी वक्त बदल गया है। जिसे हमारी सरकार या कहे देस चलाने वाले समझ नही पा रहे हैं । और अगर समझ रहे है तो उस दिशा में कोई पॉजेटिव कदम नही उठा रहे है ।<br /><br />तो क्या यह माना जाये जो धंधा करना नहीं जानता है वह आज के दौर में फेल है और आमिर खान उसी लिये मि. परपेक्शनिस्ट है, क्योकि वह धंधा समझते हैं। आप कह सकते है , बिलकुल । लेकिन धंधे का मतलब सिर्फ पैसा कमाना नही है । अब आप इसे ऑफ-द-रिकार्ड मानें या मान ही लें.....पैसे पर सरकार से ज्यादा लोगों का भरोसा हो गया है। यह किसी बिजनेसमैन ने तो देश को नही सिखाया। मैं मुंबई में देखता हूं, या कहे देश के जिस भी हिस्से में फिल्म निर्माण को लेकर जाना होता है, या कहूं मेरा ताल्लुक जिन लोगों से पड़ता है। मै देखता हूं कि पैसा बनाने-कमाने की होड़ सबसे ज्यादा है । और जिसे नुकसान हो रहा होता है वह अपने आप को सबसे ज्यादा असुरक्षित मानता है। बॉलीवुड ही नही किसी भी क्षेत्र में मैंने देखा है कि जिसके पास मनी है वह खुद को सबसे सुरक्षित समझता है । पहले तो ऐसा नहीं था । पहले देश और सरकार भी सुरक्षा का एहसास कराते थे । अब आप ही बताइये यह स्थिति पैदा किसने की । हमने आपने तो नहीं की। लेकिन इन स्थितियों में भी मै फिल्मों को लेकर नये प्रयोग करता हूं । फिल्म "लगान" तो ग्रामीण परिवेश की फिल्म थी । जिसमें भाषा भी हिन्दी नही थी । अवधी सरीखी भाषा थी । उस फिल्म पर महिनों काम करना और बनान रिस्क था या कि शुरुआती दौर में फिल्मकार की या मेरे जैसे कलाकार को देखें तो मूर्खता लगेगी । लेकिन फिल्म बनी और कमाल दिखाया उसने । मै खुद धोती-कमीज पहन कर जगह -जगह गया क्रिकेट खेली । मेरी पूरी टीम ने देश के अलग अलग हिस्सों में बकायदा सिनेमायी परिवेश को सड़क पर उतारा।<br /><br />जाहिर है यह नया सवाल यहीं से खड़ा होता है कि आमिर खान गजनी के प्रमोशन में दिल्ली आये तो बंगाली मार्केट पहुंच कर अपने फैन के बाल काटने लगे...जबकि पहले दिलीप कुमार हो , राजकपूर हो या देव आन्नद या फिर अभिताभ बच्चन भी, वह आम लोगो के बीच कभी नही जाते थे । आमिर तो मेघा पाटकर से मिलने उनके आंदोलन को समर्थन देने जंतर-मंतर पर भी चले जाते है। सही कहा आपने। लेकिन मैं न्यूज पेपर पढ़ता हूं तो मुझे लगता है कि नेता भी आम लोगों से नहीं मिलते । अब आप क्यों कहोगे । अगर बिजनेस ने लोगों से मिलने की मजबूरी सिखला दी तब तो यह बिजनेस नेताओं को सीखना चाहिये । इससे कम से कम आम लोग क्या सोचते है यह तो पता चल जायेगा। मुझे गुरुदत्त की "प्यासा" शानदार फिल्म लगती है । लेकिन प्यासा का निर्माण क्या बिना आम लोगो के सच को समझे बनाया जा सकता है। हकीकत में इसी तरह की फिल्म करना चाहता हूं । महबूब खान की मदर इंडिया हो या के. आसिफ की मुगले आजम और विमल राय हो या गुरुदत्त साहेब सभी ने अपने अपने तरीके से प्रयोग किये । मै भी कुछ नये की तलाश में हमेशा रहता हूं । मै इस कड़ी को आगे बढ़ाना चाहता हूं।<br /><br />लेकिन नर्मदा बांध का विरोध करने वालो के साथ खड़े होने पर आपकी फिल्म<br />"फना "को गुजरात के थियेटर में लगने नहीं दिया गया,इससे बिजनेस नही डगमगाता । मै एक बात कहूं...अगर किसी फिल्म में भी इस दृश्य को दिखलाना होता तो भी कोई स्टोरी राइटर या स्क्रिप्ट राइटर भी इस तरीके को ना अपनाता। क्योंकि इससे मेरी ज्वेनअननेस ही सामने आती है । फिर आप जिस दौर में जी रहे है उसमें तो हर चीज नफे-नुकसान में देखी-समझी जाती है। आप पता कीजिये उससे राजनीतिक घाटा गुजरात में नेताओं को ही हुआ होगा। क्योंकि लोग बेवकूफ नही रहे। तमाम सूचना माध्यम हर तरह की जानकारी लोगों को दे देते है। और मेरी क्रेडिबेलिटी यही है कि लोग मेरी फिल्मो के साथ जुड़ते हैं...जब मै उनके साथ खड़ा होता हूं। मेरी पूरी यूनिट "तारे जमी पर " फिल्म को लेकर शंका में थी । उन्हे लगता था कि यह फिल्म तो चल ही नही सकती। लेकिन मुझे भरोसा था । मैं बच्चो की स्थिति स्कूल में, टूटते संयुक्त परिवार में, जहा सिर्फ नौकरी पेशा वाले मां-बाप होते है, को समझता हूं । क्योंकि लोगो से लगातार मिलता रहता हूं, इसलिये इस फिल्म की कहानी सुनते ही मैंने तुरंत हामी भर दी। और मै आज यकीन से कहता हूं कि मेरे बीस साल के कैरियर की चौंतीस फिल्मो में यह श्रेष्ट फिल्म है।<br /><br />जब इतना भरोसा आपको अपने उपर है तो शाहरुख से दिल्लगी करके आप क्या जतलाते है। सही कहा आपने यह दिल्लगी ही है। हम दोनों हमउम्र है । वह पर्दे पर रोमांटिक है। मैं जिन्दगी में । लेकिन यकीन कीजिये यह दिल्लगी बिजनेस नहीं है ।<br />लेकिन आमिर जब तमाम संस्थान कमजोर हो रहे हो..तब बॉलीवुड कैसे बचेगा । आप खुद आंतकवाद के खिलाफ सड़क पर नहीं आये बल्कि ब्लॉग के जरीये अपना विरोध जतला दिया। ना..ना यह कोइ जरुरी नहीं है कि हर बात के लिये सड़क पर आया जाये । मैंने आतंकवाद के खिलाफ अपनी बात कही । हां ...यह सही है कि जब कुछ ना बचेगा तो बॉलीवुड कहा बचेगा। लेकिन आतंकवाद जैसे संकटों से बॉलीवुड या फिल्में निजात नही दिला सकती । इसके लिये देश को कड़े निर्णय लेने होंगे। आतंकवादियो के सामने झुकना नही होगा। आतंकवादियो को यह मैसेज देना जरुरी है कि वो विमान अपहरण करें या पांच सितारा होटल में गोलाबारी करके लोगों को होस्टेज बना लें, लेकिन उनकी मांगो को नही माना जायेगा। किसी भी तरह समझौते का रास्ता धीरे धीरे सौदेबाजी की तरफ ले जाता है। इससे बचना होगा । इसके लिये सबकुछ सरकार पर नही छोड़ा जा सकता । सभी को एकजुट होना ही होगा । नहीं तो बंट-बंट कर हम आतंकवाद को मजबूत कर देंगे। आखिर में यह कह दूं कि हर कोई अगर मि. या मिसेज परफेक्शनिस्ट हो जाये तो न्याय के लिये इंडिया गेट पर मोमबत्ती जलाने या गेट-वे-आफ-इंडिया पर ह्यूमन चेन बनाने की जरुरत नही पड़ेगी।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com6