tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-35117618821331511862009-12-03T09:41:00.000+05:302009-12-03T09:41:00.577+05:30"20 साल पहले राजीव गांधी का अपहरण करना चाहते थे नक्सली और 20 साल बाद मनमोहन सिंह के अपहरण की जरुरत नहीं समझते माओवादी"<div>ठीक बीस साल पहले 1989 नक्सली संगठन पीपुल्स वार ग्रुप के महासचिव सीतारमैय्या से जब यह सवाल किया गया था कि अगर आपको मौका लगेगा तो क्या आप तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी का भी आपहरण कर लेंगे । जवाब मिला था कि जरुरत पड़ी और परिस्थितियां अनुकूल हुईं तो जरुर करना चाहेंगे। यह सवाल 1987 में आंध्रप्रदेश के सात विधायकों के अपहरण के बाद पूछा गया था । और बीस साल बाद जब बंगाल के एक पुलिसकर्मी का अपहरण कर उसपर पीओडब्ल्यू यानी प्रिजनर ऑफ वार लिखकर रिहा किया गया...तो अपहरण करने वाले सीपीआई माओवादी के पोलित ब्यूरो सदस्य किशनजी उर्फ कोटेश्वर राव से मैंने यही सवाल पूछा कि अगर आपको मौका लगेगा तो क्या आप प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का अपहरण कर लेंगे। जवाब मिला बिलकुल नहीं। इसकी जरुरत है नहीं और परिस्थितियां ऐसी हैं कि प्रधानमंत्री की नीतियों से ही हमारा सीधा टकराव देखा जाने लगा है तो जनता खुद तय करेगी, हमें पहल करने की जरुरत नही है। </div><div><br /></div><div>बीस साल के दौर में राजनीतिक तौर पर नक्सलियों में कितना बड़ा परिवर्तन आया है, यह जवाब उसका बिंब भर है। लेकिन इन बीस वर्षो में राजनीतिक तौर पर नक्सली कितना बदले है और उनकी राजनीति किस तरह अब सीधे संसदीय राजनीति को चेता रही है, यह गौरतलब है। बीस साल पहले मार्क्सवाद और माओवाद की धारा बंटी हुई थी। उस दौर में मजदूर-किसान के बीच भागेदारी को बढाने का सवाल ही सबसे बड़ा था। इसलिये इन दोनो धाराओं से जुड़ा अतिवाम आंध्रप्रदेश से लेकर बिहार तक में जो पहल कर रहा था, उसमें ग्रामीण क्षेत्रों से इतर का सवाल खासा गौण था। और जो सवाल नक्सली संगठन उठा रहे तो उससे राज्य सत्ता को कोई परेशानी नहीं थी। इसलिये बीस साल पहले नक्सल प्रभावित क्षेत्रो में विकास ना होना ही नक्सलियों के लिये भी मुद्दा था तो राज्य भी नक्सलियों पर विकास न करने देने का आरोप लगा कर समूचे इलाके को देश से अलग थलग दिखाने में कामयाब रहते। लेकिन बदलाव का दौर आर्थिक सुधार के साथ ही हुआ और राजनीतिक तौर पर एक नये तरीके से माओवादी और सरकार एक ही मुद्दे पर अपने अपने नजरिए से आमने सामने खड़े होते चले गये। इसलिये पहली बार सवाल सरकार की उन नीतियों को लेकर उठा, जिसपर बीस साल पहले राजनीतिक दल चुनाव लड़ सकते थे लेकिन अब वही सवाल संसदीय घेरे से होते हुये माओवादियों के दायरे में जा कर समाधान की बात कहने लगे और चुनावी राजनीति के भी आड़े अचानक माओवादी थ्योरी आ गयी। </div><div><br /></div><div>असल में 1991 से लेकर 2001 के दौर में नक्सली माओवादी और मार्क्सवादियो ने शहरों की तरफ ठीक उसी तरह कदम बढाना शुरु किया जिस तरह आर्थिक सुधार के नजरिये ने गांवों को शहरों में बदलना शुरु किया। इस दौर में राज्य ने बाजारवाद ने मुनाफे के आगे जब घुटने टेकने शुरु किये तो नक्सलियों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही आयी कि शहरों में वह अपनी स्थिति दर्ज कैसे करायें। खासकर वो शहर, जो पूरी तरह राज्य की नीतियों या धनवानों से जुड़े रोजगार पर ही टिके थे । यानी गांव में खेती से जो स्वालंबन पैदा होता और ग्रामीण अपनी जमीन पर खड़े होकर नक्सली संघर्ष में साथ खड़ा होता, उस तरह के स्वाबलंबन का स्थिति शहरों में थी नहीं। इसलिये अखिल भारतीय कामगार संगठन बनाकर औधोगिक मजदूरो को जोड़ने का काम नक्सलियों ने महाराष्ट्र से शुरु किया जो कई ट्रेड-यूनियन सरीखे संगठनो के मार्फत उन सवालों को उठाना शुरु किया जो बाजारवाद के सामानांतर समाजवाद की थ्योरी को रखते। इस दायरे में न्यूनतम मजदूरी के मुद्दे को क्षेत्र की जरुरत के हिसाब से नक्सलियों ने उठाना शुरु किया। यानी अपने संघर्ष को राजनीतिक दलों से हटकर बताने और दिखाने की राजनीति शहरो में कदम रखने के साथ ही की जिससे यह भ्रम ना रहे कि नक्सली संगठनों की जरुरत क्या है या फिर आज नहीं तो कल यह संगठन भी सत्ता के लिये चुनाव लड़ने लगेंगे। अपने इस प्रयोग में नक्सलियो का प्रभाव बहुत ज्यादा या पिर ज्यादा भी रहा ऐसा सोचना बचपना होगा। क्योंकि नक्सलियो की शहरों में पहले से कोई राजनीतिक चुनौती पैदा होती ऐसी स्थिति उस पूरे रेड कारीडोर में नहीं उभरी जो आज सरकार के लिये चुनौती बन रही है । लेकिन उस दौर में बाजारवाद ने जिस तरह पंख फैलाये और डंक मारना शुरु किया उसका असर यह जरुर हुआ कि विकल्प का सवाल कामगारों की जरुरत बनने लगा। यानी शहरो में कामगारो से जुड़े मुद्दों को लेकर नक्सलियो का नजरिया अचानक कामगारों को प्रभावित करने लगा। खासकर खनन और पावर प्रोजेक्ट के इलाको में टेक्नालाजी और विदेशी कंपनियो ने पैर रखे तो अचानक मजदूरों का रोजगार हायर-फायर वाली स्थिति में आया। तब सवाल न्यूनतम मजदूरी से भी आगे निकलने लगा । क्योंकि कामगारो के समुद्र के आगे राज्य द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी मिलने का सवाल ही नहीं था। ऐसे में अलग अलग क्षेत्रों में नक्सली संगठनो ने परिस्तितियो को समझते हुये मजदूरी का सवाल उठाया। मसलन महाराष्ट्र में 85 रुपये न्यूनतम मजदूरी हो लेकिन मजदूरों को 20-22 से ज्यादा मिलती नहीं थी। तो अपनी मौजूदगी जताने ले लिये नक्सलियों ने इस मजदूरी को 25 रुपये कराने का निर्णय लिया। लंबी लड़ाई के बाद सफलता मिली तो अगली लडाई 28 रुपये को लेकर सफल हुई। और आज की तारिख में यह लड़ाई 50 रुपये को लेकर हो रही है। वही बंगाल में अभी भी यह लड़ाई 22 से 25 रुपये कराने को लेकर हो रही है और बीते तीन सालो में माओवादी बुद्ददेव सरकार से 25 रुपये मजदूरी नहीं करा पाये है जबकि राज्य द्रारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी 85 रुपये है। इसी तरह तैंदू पत्ता के सवाल पर पहली लडाई 25 पैसे को लेकर लड़ी गयी । जो अब पचास पैसे बढाने को लेकर हो रही है। एक हजार तेदूपत्ता पर फिलहाल एक रुपये 75 पैसे मिलते है, जिसे सवा दो रुपये कराने की लडाई तेदूपत्ता ठेकेदारे से की जा रही है। बीस साल पहले एक हजार तेदूपत्ता पर 35 पैसे मिलते थे । </div><div><br /></div><div>जाहिर है यहां दो सवाल खड़े होते हैं कि एक तरफ बीस साल में लड़ाई एक रुपये को लेकर ही हुई और दूसरा सवाल की देश में विकास का ऐसा कौन सा अर्थशास्त्र अपनाया गया, जिससे शहरों में जो सिक्के मिलने बंद हो गये.....गांवों में उसी सिक्के की लड़ाई में पीढ़ी-दर-पीढ़ी गांव अब भी जी रहे हैं और संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन यहीं से नक्सलियों की उस राजनीति को भी समझना होगा जो तेंदूपत्ता की कीमत बढ़वाने के लिये ठेकेदारों की हत्या कर सकती है। या उन्हे चेता कर झटके में एक हजार तैंदूपत्ता की नयी कीमत पांच रुपये तय करवा सकता है। लेकिन राजनीति का मतलब लोगों की गोलबंदी और हक के साथ साथ संघर्ष करते हुये आगे बढाने की पूरी प्रक्रिया कैसे होती है असल में इसी का नायाब प्रयोग लगातार नक्सली राजनीति कर रही हैं। क्योंकि 2001 के बाद नक्सलियों के सामने बड़ी चुनौती उस राजनीति शून्यता के वक्त अपनी मौजूदगी का एहसास कराना था, जिसे माओवादी और मार्क्सवादी लगातार उठा रहे थे। </div><div><br /></div><div>2001 में अतिवामपंथियो के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में यह सवाल खुल कर उठा था बाजारवाद को जिस तरह संसदीय राजनीति हवा दे रही है, उससे समाज के भीतर विकल्प का सवाल राजनीतिक तौर पर जरुर उठेगा । साथ ही संसदीय राजनीति को लेकर निराशा भी आयेगी। इन्हीं परिस्थितियों के बीच माओवादियों और मार्क्सवादियों यानी एमसीसी और पीपुल्स वार ग्रुप के बीच गठबंधन की प्रक्रिया शुरु हुई और 2004 में यानी तीन साल की लंबी प्रक्रिया के बाद दोनो एकसाथ आये और सीपीआई माओवादी का गठन हुआ। राजनीतिक तौर पर माओवादियो ने अगर पहला प्रयोग बंगाल में 2005 में यह सोच कर शुरु किया कि वामपंथी सरकार से जनता का मोहभंग एक धक्के के साथ हो जायेगा तो यह गलत नहीं होगा। क्योंकि पीपुल्स वार ने इससे पहले कभी बंगाल का रुख नहीं किया था लेकिन बंगाल में माओवादियों की कमान को पीपुल्स वार ग्रुप के कोटेश्वर राव यानी किशनजी ने संभाला । 2004 में एनडीए के शाइनिग इंडिया के नारे तले एनडीए की हार और यूपीए की जीत के बाद वामपंथियो के समर्थन ने माओवादियो की सेन्ट्रल कमेटी में यह सवाल उठा था कि वामपंथी सरकार पर लगाम लगा पायेगे या जनता से उनकी लगाम भी ढीली पड़ जायेगी। इसीलिये सिंगूर और नंदीग्राम से लालगढ़ का रास्ता वामपंथी सरकार के लिये अगर भारी पड़ रहा है तो इसका संसदीय घेरे में लाभ चाहे ममता बनर्जी को मिले लेकिन जिस पूरे इलाके में जो गोलबंदी ग्रामीण-आदिवासियों को लेकर की गयी, उसे माओवादी कितनी बडी सफलता मान रहे है उसका अंदाज इसी से लग सकता है कि झारखंड,उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में इसी तरह से एसईजेड और खनन समेत एक दर्जन से ज्यादा लगने वाली कंपनियो को दी जाने वाली जमीन पर जिन्दगी चलाने वाले गांव के गांव में उन्हीं मुद्दों पर बहस की शुरुआत की गयी है, जो अगले तीन-चार साल में नंदीग्राम-लालगढ में तब्दील होंगे। हो सकता है इन क्षेत्रो में भी कोई ना कोई क्षेत्रीय राजनितिक शक्ति कांग्रेस या भाजपा को इसी दौर में चुनावी चैलेंज देने लगे और उन मुद्दों की वकालत करने लगे, जिसे माओवादी आज उठा रहे हैं।</div><div><br /></div><div>लेकिन पहली बार यही माओवादी राजनीतिक तौर पर एक नया सवाल खड़ा कर रहे है, कि संसदीय राजनीति सत्ता के लिये आर्थिक सुधार की हिमायती नहीं है बल्कि आर्थिक सुधार को बरकरार रखने के लिये संसदीय राजनीति चलनी चाहिये। और इसके अंतर्विरोध को माओवादी प्रक्रिया में संसदीय दल ही चुनावी संघर्ष में सामने उसी तरह लाये जैसे ममता उभार रही हैं। जो कांग्रेस को केन्द्र में समर्थन देते हुये मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल में अहम पोर्टफोलियो भी ले ले और माओवादियो को देश का सबसे बड़ा खतरा बताने वाले मनमोहन सिंह की नीतियो का विरोध माओवादियों के हक की लड़ाई से जोडेते हुये अपनी राजनीति भी साधे। जाहिर है बीस साल पहले और अब के दौर में इतना फर्क वाकई आ गया है कि प्रधानमंत्री के अपहऱण की जरुरत माओवादियों को नहीं लगती ।</div><div><br /></div>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-43810692064529465262008-09-18T09:58:00.002+05:302008-09-18T10:03:08.102+05:30बंगाल के मरते किसानों को नहीं ढो पायेगी नैनोबंगाल का नया संकट बहुसंख्य तबके की राजनीति है,जो एक वर्ग के मुनाफे के बीच पिसने वाली हो चली है। जिस औघोगिकरण को लेकर बुद्ददेव को विकास का खांचा दिख रहा है, उसी वामपंथ ने एक वक्त औघोगिक विकास की खिंची लकीर को मिटाने में समूची ऊर्जा लगा दी थी। लेकिन बीते तीस साल में राजनीति का पहिया कैसे घूम गया, इसका अंदाज अब लगाया जा सकता है। वाम राजनीति की अर्थव्यवस्था की वजह से जूट उघोग ठप हो चुका है। जो उघोग लगे उनमें ज्यादातर बंद हो गए हैं। इसी वजह से 40 हजार एकड़ जमीन इन ठप पड़े उघोगों की चारदीवारी में अभी भी है। यह जमीन दुबारा उघोगों को देने के बदले व्यवसायिक बाजार औऱ रिहायशी इलाको में तब्दील हो रही है। चूंकि बीते दो दशकों में बंगाल के शहर भी फैले हैं तो भू-माफिया और बिल्डरो की नजर इस जमीन पर है।<br /><br />वाम सरकार का सबसे बड़ा संकट यही है कि उसके पास आज की तारिख में कोइ उघोग नही है, जहां उत्पादन हो। हिन्दुस्तान मोटर का उत्पादन एक वक्त पूरी तरह ठप हो गया था। हाल में उसे शुरु किया गया लेकिन वहां मैनुफेक्चरिग का काम खानापूर्ति जैसा ही है। डाबर की सबसे बडी इंडस्ट्री हुबली में थी। वहां ताला लग चुका है। एक वक्त था हैवी इलेक्ट्रिकल की इंडिस्ट्री बंगाल में थी । फिलिप्स का कारखाना बंगाल में था। वह भी बंद हो गए । कोलकत्ता शहर में ऊषा का कारखाना था । जहां लाकआउट हुआ और अब उस जमीन पर देश का सबसे बडा मॉल खुल चुका है । जो मध्यम तबके के आकर्षण का नया केन्द्र बन चुका है । लेकिन नयी परिस्थितयों में मॉल आकर्षण का केन्द्र है तो मैनुफेक्तरिग युनिट रोजगार की जरुरत है। बंगाल की राजनीति नैनो को लेकर इसलिये भी हिचकोले खा रही है और किसान की राजनीति को हाशिये पर ले जाने को तैयार है क्योंकि उदारवादी अर्थव्यवस्था के दौर में सर्विस सेक्टर में तो खूब पैसा लगा है। हर राज्य में आईटी सेक्टर सरीखे यूनिट जोर पकड़े हुये हैं लेकिन मैनुफेक्चरिंग यूनिट नैनो के जरिए टाटा पहली बार लेकर आया है जो बंगाल की राजनीति को नयी दिशा भी दे रहा है। नये मिजाज ने ही चार दशक पुरानी वाम राजनीति की दिशा भी बदल दी है। <br /><br />नयी जमीन जो उघोगों को दी जा रही है, उसके लिये वह इन्फ्रास्ट्रक्चर भी खड़ा किया जा रहा है, जो लोगो के रहते और खेती करते वक्त कभी नही किया गया है। बिजली के खम्बे और पानी की सप्लायी लाइन तक ग्रामीण इलाकों में गायब है लेकिन विकास की लकीर यानी उघोगों के आते ही खिंचने लग रही है। यहां सवाल उन आर्थिक नीतियो का भी है,जो वाम सरकार उठा रही है । बंगाल में 90 फीसद खेती योग्य जमीन इतनी उपजाऊ है कि उसे राज्य से कोई मदद की दरकार नहीं है । यानी निर्धारित एक से तीन फसल को जो जमीन दे सकती है, उसमें कोई अतिरिक्त इन्पफ्रास्ट्रक्चर नही चाहिये । खेत की उपज बडे बाजार तक कैसे पहुंचे या दुसरे राज्यो में अन्न कैसे व्यवस्थित तरीके से व्यापार का हिस्सा बनाया जाये, जिससे किसानों को उचित मूल्य मिल सके इसका भी कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है। जाहिर है किसान उपजाता है और बिचौलिए अपने बूते बांग्लादेश में व्यापार के नाम पर अन्न की स्मगलिंग करते है,जो सबसे ज्यादा मुनाफे वाला व्यापार हो चला है।<br /> <br />जाहिर है नयी परिस्थितयों में यह सवाल अपने आप में एक बड़ा सवाल हो चला है कि किसान चेतना क्या साठ के दशक की तर्ज पर बंगाल में दोबारा खड़ी हो सकती है। हालांकि तब और अब की परिस्थितयां बिलकुल उलट हैं । कांग्रेस की जगह आज वामपंथी है। नक्सलवादियों की लकीर को ममता सरीखे प्रतिक्रियावादी पकड़ना चाह रहे हैं। वामपंथियो को उन नीतियो से परहेज नहीं, जिसमें यह अवधारणा बने कि खेती अब लाभदायक नहीं रही।<br /><br />तो क्या अब यह माना जा सकता है कि 1964 से 1977 तक सीपीएम ने बंगाल की राजनीति में किसानों के आसरे जिस आंदोलन के माहौल को जन्म दिया और सत्ता में आने के बाद ज्योति बसु ने जिस तरह कैडर को ही सामाजिक सरोकार से जोड़ दिया,अब वह स्थितियां मायने नहीं रखती। क्योंकि ज्योति बसु ने 77 में भूमि सुधार की जो पहल की उसी का परिणाम भी रहा कि कैडर और समाज के बीच की दूरिया मिटीं। कैडर और किसान के बीच की लकीर मिटी। यानी उस दौर में जो नीतियां बनतीं, उसे लागू कराने में कैडर की हिस्सेदारी होती। हिस्सेदारी के दायरे में कैडर अपनी हैसियत के मुताबिक आता गया। जिसका जितना बडा घेरा होता उसकी हैसियत उतनी बड़ी होती जाती । कह सकते है ज्योति बसु ने सामुहिक जिम्मेदारी का एहसास पार्टी कैडर और सत्ता में पैदा किया। वजह भी यही है कि वाम राजनीति को तीस साल में कोई भेद ना सका । <br /><br />लेकिन क्या अब यह सवाल उठाया जा सकता है कि सीपीएम ने अगर चार दशक पहले भूमि सुधार की पहल की तो वह किसान चेतना का दबाव था । उस वक्त नक्सली नेता चारु मजूमदार ने नक्सलबाडी का जो खाका तैयार किया और जो संघर्ष सामने आया उसने सत्ता पर कब्जा करनेवाली शक्ति के तौर पर किसान चेतना को परखा । चूंकि उस दौर में किसान संघर्ष जमीन और फसल के लिये नहीं था, बल्कि राजसत्ता के लिये था । सीपीआई के टूटने के बाद इस नब्ज को सीपीएम ने पकड़ा और संसदीय राजनीति को किसान सरोकार में ढाल कर सत्ता तक पहुंचा। और तब से लेकर अभी भी गाहे-बगाहे सीपीएम यह कहने से नही चूकती कि संसदीय राजनीति तो उसके लिये क्रांति का वातावरण बनाने के लिये महज औजार है । लेकिन नयी परिस्थितयों में वाम राजनीति इस औजार के लिये जिस तरह अपने आधार को ही खारिज कर पूंजीवादी नारे को लगाने से नहीं चुक रही है, उसमें क्या यह माना जा सकता है कि किसान के संघर्ष का पैमाना भी मध्यम तबके की जरुरतों के ही दायरे में सिमट रहा है। और जो राजनीति 40 साल पहले किसान चेतना से शुरु हुई थी, वह 180 डिग्री में धुम कर मध्यम वर्ग की बाजार चेतना में बदल चुकी है। और बाजार की नैनो छोटा परिवार सुखी परिवार को तो गाड़ी का सुख दे देगी लेकिन नैनो इतना छोटी है कि वह बंगाल के मरते किसान को श्मशान घाट तक भी नहीं पहुंचा पायेगी। सवाल यही है जब किसान जागेगा तो बुद्ददेव उसे नैनो की सवारी सिखला चुके होगे या एक दूसरा नक्सलबाडी सामने आयेगा । <br /> <br />दिल्ली ब्लास्ट पर ग्राउड जीरो से बात करेगे शनिवार को.......Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com10