tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-69620031303729222352009-08-13T11:46:00.000+05:302009-08-13T11:47:24.646+05:30लालू की खामोशी..नीतीश की सादगी और 77 की यादएयर इंडिया का आईसी 407 विमान जैसे ही पटना के जयप्रकाश नारायण हवाई अड्डे पर उतरा, मेरी नजर बिजनेस क्लास में उतरने के लिये सबसे आगे खड़े सासंद लालू प्रसाद यादव पर पडी । बिना किसी हंसी-ठहाके के खामोश लालू प्रसाद सीढ़ियों के लगते ही सबसे पहले जहाज से नीचे उतरे । नीचे उतरते ही एक प्राइवेट इनोवा गाड़ी जहाज के करीब आकर लगी । लालू प्रसाद यादव एयर इंडिया के अधिकारियो से चंद सेकेंड में औपचारिक सलाम-दुआ कर इनोवा में बैठे और गाड़ी हवाई अड्डे के एक किनारे बाहर निकलने के गेट से चंद मिनटो में ही ओझल हो गयी । <br /><br />यह सब जिस तेजी से हुआ, उसमें जहाज से उतरते दसवें यात्री को भी इसका एहसास नहीं हुआ होगा कि लालू प्रसाद यादव पटना उसी जहाज से पहुंचे होंगे, जिसमें वह खुद सफर कर रहा होगा। मेरी नजर इसलिये गयी क्योंकि मैं इकनॉमी क्लास की पहली कतार में बैठा यात्री था। लेकिन जिस खामोशी से लालू प्रसाद हवाई अड्डे से बाहर निकले. उसने मेरे जहन में तीन साल पहले के उस माहौल को आखों के सामने ला खड़ा कर दिया, जब बिहार में विधान सभा चुनाव से पहले लालू प्रसाद इसी जयप्रकाश नारायण हवाई अड्डे पर एयर इंडिया के ही जहाज से उतर रहे थे और लालू प्रसाद को लेकर जुनुन कुछ इस तरह का था कि हार पहनाने के लिये कुछ कार्यकर्त्ता जहाज में लगी सीढ़ियो तक पहुंच गये थे। गुलाल और फूल मालायें हवाई अड्डे के अंदर इस तरह बिखर चुकी थीं कि यात्रियों में खुसर-फुसर रेंगने लगी थी कि लालू इस बार भी बिहार में चुनाव जीत सकते हैं। <br /><br />वहीं शनिवाल 8 अगस्त को लालू जिस खामोशी से निकले उसपर एक बुजुर्ग यात्री की त्वरित टिप्पणी जरुर आयी कि लालू प्रसाद यादव की हालत 1977 वाली हो चुकी है। उन्हें राजनीति में ऊपरी पायदान तक पहुंचने के लिये 77 की तर्ज पर संघर्ष करना होगा । इस पर पटना के मशहूर डॉक्टर, जो हवाई जहाज में साथ ही यात्रा कर रहे थे , उन्होने रिटायर नौकरशाह की टिप्पणी पर अपना फुनगा बैठाते हुये कहा कि .....लेकिन 77 में जेपी का संघर्ष था । अब जेपी के नाम पर हवाई अड्डे का नाम है । फिर तीन साल पहले बनारस में लालू ने तो यहा तक कहा कि उन्होंने ही जेपी को जेपी बनाया। फिर जेपी आंदोलन से नीतीश कुमार भी निकले है । 77 में तो सभी एकसाथ थे । इसलिये अब 77 के नहीं 2009 के नये हालात हैं, जिसमें लालू को खामोशी से निकलना ही पड़ेगा। <br /><br />आप इस खामोशी में कोई आहट ना खोजिये । बात करते करते हम हवाई अड्डे से बाहर निकलने लगे तो हमें नारो की गूंज और गुलाल से नहाये लड़के और फूलों की मालाओं को लेकर खड़े लोगो के हुजुम ने बरबस रोक दिया। मुझे झटके में लगा कि कहीं लालू यादव इसी से बचने के लिये तो पिछले दरवाजे से नहीं निकल गये । लेकिन हवा में गूंजते नारो को सुना तो किसी रामजीवन सिंह का नाम सुनायी दिया । बाहर लगे बैनर को देखा तो पता चला जदयू के किन्हीं राम जीवन सिंह को नीतीश कुमार ने कोई पद दे दिया है। यह पद स्वास्थ्य मंत्रालय से जुड़ा है। साथ चल रहे मशहूर डाक्टर ने बताया कि राम जीवन महाशय नाराज चल रहे थे तो नीतीश ने उन्हें पद देकर मना लिया होगा। उसी का हंगामा है । लेकिन निकलते निकलते यह टिप्पणी भी कर गये कि लालू यादव हंगामे की जो राजनीति खड़ी कर गये हैं, उसके अंश आपको इसी तरह छुटभैये नेताओं में नजर जरुर आयेंगे। <br /><br />लेकिन, यही से नीतीश खुद को लेकर एक अलग लकीर खींच रहे है । वह ताहते हैं कि लालू की तर्ज पर उनके नेता पहल करें, जिससे वह खुद को अलग खड़ा कर सके । फिर 77 में नीतीश कुमार जमीन बेच कर चुनाव लड़े थे । अब वह सत्ता में हैं । इसलिये लालू का मामला 77 वाला हो नहीं सकता । चूंकि एक सार्वजिक समारोह में मुझे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मिलना ही था। मैंने डाक्टर साहब से यह कहते हुये विदाई ली कि मुख्यमंत्री से जरुर इन सवालो को पूछूंगा । समारोह में जब मैंने 77 का जिक्र कर नीतीश कुमार को लेकर यह कहा कि पहला चुनाव घर की जमीन बेच कर वह लड़े थे तो मैने देखा नीतीश कुमार कुछ इस तरह झेंपे जैसे यह उनकी निजी सोच थी, जिसे वह जीते है इसे सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिये। <br /><br />77 के आंदोलन से जुड़े एक प्रोफेसर रामाश्रय प्रसाद भी सभा में मिले। जब मैंने उनसे 77 के दौर और अब के राजनीतिक हालात को लेकर लालू यादव की खामोशी का जिक्र किया । तो प्रोफेसर साहब ने बिना रुके ही कहा, नीतीश की जगह लालू होते और अगर उन्होंने जमीन बेचकर चुनाव लड़ा होता तो आपके सवाल को ही लालू यादव इस सभा में अपनी राजनीति का केन्द्र बना लेते। लेकिन नीतीश इस पर झेंप रहे हैं। लालू तत्काल को ही जीते है और नीतीश जेपी दौर से बाहर निकल नहीं सकते क्योंकि उनकी राजनीतिक ट्रेनिग जेपी और कहीं ज्यादा कर्पूरी ठाकुर के इर्द-गिर्द हुई है। इसलिये मामला 77 सरीखी स्थिति का नहीं है। सवाल है अभी के राजनीतिक हालात में पहली बार कोई नेता ऐसा नहीं उभरा है जो 77 को चैलेज कर सके। यानी स्थितियां बदल चुकी है मगर नेताओ की व्यूह रचना 77 वाली ही है। इसकी बड़ी वजह 77 से लेकर 2009 तक के दौर में सामाजिक संबंधो में कोई बडा अंतर बिहार में नहीं आया है। इसलिये लालू कल की जरुरत थे और नीतीश आज की जरुरत हैं । लेकिन बिहार में राजनीतिक जमीन के लिये जब कांग्रेस भी दरवाजा खटखटा रही है तो इसका मतलब दिल्ली में लालू विरोध और बिहार में नीतीश की विकास योजनायें कांग्रेस को रोक सकती हैं।<br /><br />इस सवाल के जबाब के लिये नीतीश कुमार से मैंने निजी तौर पर जब यह सवाल किया कि बुंदेलखंड को लेकर कांग्रेस जिस तरह दो राज्यों की नीतियों से इतर प्राधिकरण बनाकर विकास की बात कर रही है तो सवाल के बीच में ही नीतीश कुमार ने सीधे टोका देश में फेडरल सिस्टम है कहां । कांग्रेस सिर्फ परसेप्शन की लड़ाई लड़ती है। परसेप्शन से विकास हो नहीं सकता और राज्यों से टकराव के जरीये केन्द्र -राज्य संबंध कभी विकसित हो नहीं सकते। बिहार को ही ले तो राहत राशि तो दूर गरीबी की रेखा से नीचे कितने लोग हैं, इसकी संख्या भी केन्द्र खुद तय करना चाहता है। हम कहते है बीपीएल परिवार सवा करोड हैं तो केन्द्र अपनी गिनती बताकर साठ लाख बताता है। फिर बीपीएल के लिये जो अन्न आना होता है, वह उसकी निर्धरित तारीख तक आता नहीं । यानी तारीख बीत जाने पर खाद्यान्न आता है तो केन्द्र कहता है आपने तो माल तक नहीं उठाया। किस तरह जमीनी हकीकत से दूर कांग्रेस या कहे केन्द्र परसेप्शन की लड़ाई में ही मशगूल रहता है, इसका अंदाज इस बात से समझ सकते है कि सूखे पर बातचीत के लिये प्रधानमंत्री राज्यों के मुख्य सचिवो का सम्मेलन बुलाते हैं। अब सूखे से कैसे लड़ना है, इसपर मुख्य सचिवों को बुलाकर राज्यों को किसी नीतिगत निर्णय लेने पर कैसे अमल में लाया जा सकता है । <br /><br />पांच दिन बाद मुख्यमंत्रियो की बैठक दिल्ली में प्रधानमंत्री ने बुलायी ही है तो उसी में सूखे पर भी बात होनी चाहिये। निर्णय तो किसी भी राज्य में मुख्यमंत्री ही लेगा । अब मुख्य सचिव महज केन्द्र की बात को ड्राफ्ट कर सीएम को दिखा ही सकता है। <br />[संयोग से मुख्य सचिवो का सम्मेलन 8 अगस्त को ही दिल्ली में था, जिस दिन मै नीतीश कुमार से यह सवाल कर रहा था।] कांग्रेस जिस परसेप्शन को बनाना चाहती है उससे विकास नहीं हो सकता । हां, लोगो के बीच यह धारणा बन सकती है कि कांग्रेस भिड़ी हुई है । लेकिन बिहार में यह सब संभव नहीं है क्योकि जो हालात बिहार में बने हुये हैं, उसके लिये कांग्रेस भी दोषी है। <br /><br />लेकिन कांग्रेस बिहार में पार्टी का अलख जगाने के लिये मशक्कत कर रही है । इसका अंदाज मुझे शहर में घुसने के साथ ही जगह जगह जगदीश टाइटलर के स्वागत मे लगे बैनरो से लग गया । क्या कांग्रेस वाकई बिहार में अपनी जमीन नही बना पायेगी, यह सवाल जब मैंने प्रेफेसर साहब से किया तो वह तपाक से बोले ....आप यह तो देखो कि कांग्रेस ने जगदीश टाइटलर को क्यों भेजा । जबाब सीधा है किसी और को भेजते तो जातीय लड़ाई में ही बिहार कांग्रेस के भीतर दुकान चलती । टाइटलर के साथ यह सब है नहीं तो कांग्रेस खुश है, लेकिन उसका बिंब आपको कांग्रेसियो के चेहरे पर दिखायी नहीं देगा। <br /><br />नीतीश कुमार इसीलिये निश्चिंत हैं । लेकिन इसी दौर में मुलाकात बिहार इंडिस्ट्रयल एसोशियशन के अध्यक्ष केपी झुनझनवाला से हो गयी । उनके दुख में मुझे बिहार में रोशनी दिखायी दी । क्योकि झुनझुनवाला साहब ने माना कि ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना 2007-2012 के दौरान अनुमानित विकास दर 8.5 से 2 फीसदी ज्यादा पाने के लिये राज्य सार्वजनिक क्षेत्र में 58,318 करोड निवेश करने की दिशा में तो बढ़ रही है लेकिन निजी क्षेत्र में 1.08 लाख करोड रुपये निवेश करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठा रही है। झुनझनवाला के साथ मौजूद एक बडे बिल्डर ने बात बात में यह जानकारी दी कि पिछले दिनो सीतामढ़ी के एक किसान ने 85 लाख डाउन पेमेंट कर उससे एक फ्लैट खरीद लिया । वह किसान तंबाकू की खेती करता है। उस शख्स ने माना बिहार को किसी बाहरी निवेशक का इंतजार नहीं है बल्कि बिहार की पूंजी बिहार में लग जाये तो साठ फीसदी स्थिति उसी से सुधर जायेगी। <br /><br />सवाल है नीतिश सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश कर उसी स्थिति को सुधार रहे हैं, जहां पंजाब से महज किसान-मजदूर ही बिहार न लौटे बल्कि पूंजी लगाने वाले भी गंगा किनारे बिहार की परिस्थितियो के अनुकूल पूंजी लगा सके । मुझे पटना से लौटना उसी दिन था तो लौटते वक्त हवाई अड्डे के बाहर बड़े अक्षरो में लिखे जयप्रकाश नारायण हवाई अड्डा को देखते ही सुबह शुरु हुई 77 की बात और लालू यादव याद आ गये। मुझे लगा अगर लालू की जगह नीतिश होते तो क्या वह इनोवा में बैठ कर अलग दरवाजे से जाने की जगह मेन गेट से ही पैदल निकलते, जहां चाहे किसी भी नेता की जयजयकार हो रही होती क्योकि जेपी इसी जय-जयकार को दरकिनार कर संघर्ष करने निकले थे ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-37223814414270615512008-09-07T10:28:00.001+05:302008-09-07T10:30:31.479+05:30कश्मीर के बहाने एक नया सवालबंधु...<br /><br />आपके कई जवाबों ने मेरे दिमाग में एक नया सवाल पैदा कर दिया है कि अगर देश को कश्मीर चाहिए और कश्मीरी नहीं तो क्या वाकई उदारवादी अर्थव्यवस्था ने जो चाहा उसे मिल गया है ? क्योंकि, न्यू इकॉनमी के दौर में ही यह बात दुनिया भर में उठती रही है कि कैसे आदमी एक प्रोडक्ट में तब्दील हो जायेगा । उसकी जरुरत उसके इर्द-गिर्द के वातावरण के हिसाब से तय होगी। उसके इर्द-गिर्द का वातावरण राज्य के एक तबके के बिजनेस के हिसाब से बनेगा । इस वर्ग या छोटे से तबके के बिजनेस का मूलमंत्र मुनाफा है तो बहुसंख्य तबके की जरुरत भी उसके व्यकितगत मुनाफे के हिसाब से ही तय होगी।<br /><br /> अगर इस प्रभावी छोटे से तबके को लगता है कि देश में अब बच्चो के लिये पार्क-मैदान नहीं होने चाहिये तो नहीं होगे । सिर्फ रिहायशी क्षेत्र होंगे । बच्चों के लिये जिम होंगे,कंप्यूटर होंगे । ऐसी तकनीक होगी, जिस पर बच्चो की उंगलिया रेंगे और बैठे बैठे बच्चे को महसूस हो कि दुनिया उसके सामने है। दुनिया की समूची समझ उसके अंदर है। उसे पता है कि कहां पर कौन किस रुप में मौजूद है। कौन कैसे काम करता है। कैसे जीता है । अच्छा कौन है -बुरा कौन है। उसे सब पता है । इतना ही नहीं उसके अपने स्कूल के बारे में दूसरों की कैसी राय है, वैसी ही राय उसकी भी हो । यानी हर दिन स्कूल में जाने के बावजूद--हर दिन पढ़ने के बावजूद , जो हो सकता है उसे अच्छा न लगता हो या कहें अच्छा लगता हो , लेकिन सूचना तकनीक का प्रचार-प्रसार अगर बच्चे की समझ के उलट बताता है, तो क्या होगा? यानी बच्चे को अच्छा न लगने वाला स्कूल अगर एक ब्रांड है। उसमें पढना सामाजिक हैसियत को बढाता है, तो बच्चा तो वहीं पढेगा ।<br /><br /> मुझे लगता है, हम सूचना तकनीक पर ठीक उसी तरह आश्रित हो गये हैं जैसे बाजार का कोई उत्पाद बेचने के लिये उसके प्रचार प्रसार में लगी कंपनी । सवाल है जो कंधमाल में हो रहा है । जो गुजरात में हुआ । जो कश्मीर में जारी है । जो उत्तर-पूर्वी राज्यो में हो रहा है । जिस हालात से बिहार का कोसी प्रभावित क्षेत्र दो -चार हो रहा है, इन सभी के बारे में सिर्फ पहला शब्द गूगल में लिखे तो समूची सूचना आपके पास आ जायेगी । अब आप इसे सूचना मानते है या जानकारी , हमें तय यही करना है। अगर यह सूचना है तो हमारा काम यही से शुरु होता है..जिसमे इस सूचना की भी एक रिपोर्ट तैयार करना है । यानी सूचना को समूची जानकारी नहीं माना जा सकता । सूचना एक इन्टरपेटेशन है । क्योकि जहां के बारे में सूचना कंप्यूटर देता है, वह उसकी पहुंच के दायरे में सिमटा है । मसलन अगर इंडिया के बारे में गूगल की मदद ली जाये तो आपको परेशानी हो सकती है कि आप किस देश में है । यह अब भी सांप-सपेरे-जादूगर-पंडितों का देश दिखायी देगा। तो तकनीक एक माध्यम है कोई ज्ञान नही है। <br /><br /> ज्ञानी मनुष्य है, जिसे अपने नजरिए से लोगों से सरोकार करते हुये समझ बांटनी है । और किसी भी नजरिए को स्पेस देना है । जिससे एक स्वस्थ वातावरण बन सके । जाहिर यह वातावरण बाजार को नही चाहिए । उस छोटे से तबके को नहीं चाहिये जो बाजार के नजरिए से राज्य को चलाना चाह रहा है और चलाने भी लगा है । उस तबके को अपने मुनाफे के आसरे एक ऐसा वातावरण चाहिये, जहां सूचना को ही अंतिम सत्य माना जाये और नया विश्व उसी के अनुसार चले । ब्लॉग भी एक माध्यम है । यह कोई ज्ञान का संसार नहीं है । सच तो कमरे से बाहर निकल कर आपस में मिलने और लोगो के साथ वक्त गुजारने पर ही पता चलेगा । सिर्फ तर्कों के आसरे जिन्दगी नहीं चलती है, यह आप भी जानते हैं मै भी समझता हूं......। लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि बिना किसी आंतक के इस देश में बहस की गुजाइश बच रही है या वह खत्म हो गयी है । क्योंकि प्रतिक्रिया अगर इस तरीके की हो जो सामने वाले को चेताए कि या तो मेरी सुनो नहीं तो मारे जाओगे-यह खतरनाक है।<br /><br />खैर अगली चर्चा बंगाल पर।चार दशक पहले किसान चेतना को जगाने वाली वामपंथी राजनीति को अब पूंजीवाद क्यों भा रहा है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com8