tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger10125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-1870298038978477712011-10-05T23:08:00.000+05:302011-10-05T23:09:48.779+05:30सत्ता-संगठन का बीजेपी पाठकिसी भी राजनीतिक दल को सत्ता संगठन के आसरे मिलती है या फिर संगठन ही सत्ता के आसरे खड़ा होता है। किसी भी राजनीतिक दल की सियासी जमीन उसके खडे मुद्दों से बनती है या फिर दूसरे राजनीतिक दलों के मुद्दों पर राजनीति कर सियासी जमीन बनायी जा सकती है। दरअसल, यह दो ऐसे सवाल हैं जो बीजेपी को अंदर से परेशान किये हुये हैं। क्योंकि बीजेपी का जो रास्ता 1980 से शुरु होता है और वह 1998 में सत्ता मिलने बाद एकदम पलट जाता है। और 1998 से जो रास्ता शुरु होता है, वह 2011 में 1980 और 1998 से इतर पार्टी को ही सत्ता मान कर एक नयी दिशा में चलने की बैचेनी दिखाने लगता है। तो बिना सत्ता बीजेपी में प्रधानमंत्री की रेस का मतलब है क्या। यह समझने के लिये बीजेपी के ही पन्नों को पलटना जरुरी है। 1998 तक बीजेपी को संभालने और संगठन को मुद्दों के आसरे बढ़ाने के लिये अटल बिहारी वजपेयी,लालकृष्ण आडवाणी,भैरों सिंह शेखावत और मुरली मनोहर जोशी लगे रहे। और इसी दौर में बीजेपी संगठन के तौर पर मजबूत हुई। लेकिन 1998 में सत्ता मिलते ही बीजेपी के हर चेहरे ने मान लिया की अब सत्ता संभालना ही सबकुछ है। और पार्टी संगठन में भी होड सत्ता संभालने की ही मची। <br /><br />इसलिये जो चेहरे सरकार से जुडे उन्हे पार्टी संगठन संभाले किसी भी पद वाले कार्यकर्ता से बड़ा बीजेपी नेता माना गया। यहां तक कि सत्ता संभाले मंत्रियों की ठसक के आगे बीजेपी के अधयक्ष की भी नहीं चली। इसलिये 1998 से 2004 तक ,जबतक सत्ता रही, इस दौर में जो भी बीजेपी अध्यक्ष बना उसकी हैसियत और उसका संघर्ष अध्यक्ष को लेकर पार्टी आफिस में पावर सेंटर बनने में ही गुजरा। <br /><br />अगर एक कुशाभाउ ठाकरे को छोड दे तो बंगारु लक्ष्मण,जेना कृष्णमूर्ती और वैंकया नायडू ने बीजेपी अध्यक्ष के तौर पर यही चाहा कि उन्हें भी कोई मंत्री की तरह तरजीह दे। कुशाभाउ का संकट यह रहा कि वह बीजेपी में आरएसएस के गुण डालने में संघर्ष करते रहे। जबकि बाकि तीन संघ की पढ़ाई करके अध्यक्ष बने लेकिन अध्यक्ष बनते ही इन्होंने संघ की समझ में राजनीतिक सत्ता का पाठ पढने और भोगने में वक्त गुजारा। तो पहला पाठ बीजेपी ने यही पढ़ा कि अगर सत्ता मिल जाये तो संगठन देखने-बनाने की जरुरत होती नहीं, वह खुद-ब-खुद बन जाता है। लेकिन 2004 में सत्ता जाते ही एक दूसरे पाठ की शुरुआत हुई। वाजपेयी को लगा कि पीएम बनने के बाद उनका कद पार्टी से बड़ा हो गया है तो उन्होने 2004 में मुंबई की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के दौरान यह कहकर हंगामा मचाया कि अब रिटायर होने का वक्त आ गया है। <br /><br />वहीं सत्ता का दूसरा चेहरा पार्टी का अध्यक्ष पद सत्ता गंवाने के बाद क्यों नहीं बनाया जा सकता है,यह सोच लालकृष्ण आडवाणी में पनपी। तो उन्होंने बिना देर किये 2004 में बीजेपी का अध्यक्ष पद हड़पा। यानी जिस आडवाणी के लिये 1998 से 2004 तक बीजेपी को विकसित करना मायने नही रखा। आरएसएस के उठाये मुद्दे तो दूर संघ के स्वंयसेवक भी बेमानी हो गये। (नार्थ इस्ट में 4 स्वयंसेवकों की हत्या पर संघ ने आडवाणी से कार्रवाई करने को कहा लेकिन आडवाणी बतौर गृहमंत्री सत्ता के गैर संघी मिजाज के लिये खमोश हो गये ।) उसी आडवाणी के लिये बीजेपी अध्यक्ष का पद अपने कद और अपनी साख के लिये जरुरी हो गया। तब बीजेपी ने दूसरा पाठ पढ़ा कि बीजेपी के अध्यक्ष का मतलब पार्टी का पावर सेंटर होता है। यानी संगठन तत्व वहा से भी गायब। <br /><br />इस पावर सेंटर का राज्यों के बीजेपी मुखियाओं से बढ़कर कैसे दिखाया हताया जा सकता है, इसकी मशक्कत राजनाथ सिंह ने अध्यक्ष बनने के साथ ही शुरु की। और उनका पहला प्रयोग झारखंड को लेकर बेहद सफल भी हुआ। जहां सत्ता का मतलब भ्रष्टाचार की लकीर को दिल्ली में बीजेपी दफ्तर में अध्यक्ष के कमरे तक कैसे खींची जा सकती है, इसे राजनाथ ने अर्जुन मुंडा के जरीये खींच कर बताया । तो बीजेपी ने तीसरा पाठ अध्यक्ष की सत्ता का पढा जिसकी पहल बीजेपी शासित राज्यो को दिल्ली के अनुकुल कर सकती है । और इस प्रक्रिया में पार्टी संगठन या मुद्दो को लेकर सत्ता में पहुंचने या सत्ता में दिखायी देने की ललक ने बीजेपी के उन चेहरो को राष्ट्रीय नेता बना दिया जो 1998 से 2004 के दौर में केन्द्र में मंत्री रहे । यानी बीजेपी में अध्यक्ष रहे नेताओ के बाद झटके में उन चेहरो ने पार्टी या संगठन के लिये मु्द्दो के आसरे काम करना ही बंद कर दिया जो मंत्री रहे थे । और इन्होने ही खुद को दूसरी कतार का नेता भी माना और राष्ट्रीय नेता की स्वयं-भू पहचान लिये देशभर में आज घूमते है। <br /><br />अरुण जेतली, रविशंकर प्रसाद, शहनवाज हुसैन, जसंवत सिंह, अंनत कुमार सरीखे बीजेपी के दर्जनो चेहरो के <br />नाम लिये जा सकते है ,जो देश भर में किस भी मुद्दे पर राष्ट्रीय नेता के तौर पर प्रतिक्रिया या भाषण देने के लिये जाने जाते हैं। तो चौथा पाठ बीजेपी ने राष्ट्रीय नेता होने और कहलाने के तरीके का पढ़ा। चूंकि राष्ट्रीय पहचान किसी की बची नहीं तो राष्ट्रीय पहचान को 1925 से ढोते आरएसएस ने अपनी पहचान का तमगा बिजेपी अध्यक्ष की छाती में ठोंका। और समूची बीजेपी में ऐसा भी कोई चू-चपड नहीं कर सका जो लगातार सत्ता के खातिर दिल्ली में संघ से बीजेपी को दूर कर बीजेपी के कांग्रेसीकरण की दिशा में जाते रहे। तो दिल्ली की छाती पर संघ ने नीतिन गडकरी को बैठा कर पांचवा पाठ साधा कि राष्ट्रीय पहचान सिर्फ आरएसएस की है। और राष्ट्रीय नेता का मुखौटा लगा कर घुमते किसी भी बीजेपी नेता की इतनी हैसियत नहीं कि वह संघ को हाशिये पर ढकेल सके। इन परिस्थितियों में चलती-गिरती बीजेपी के सामने जब सड़क से उठते आंदोलनों ने कांग्रेस के संकट या कहे मनमोहन सरकार मुश्किलो को बढ़ाया तो बीजेपी ने मिचमिचाते हुये आंखें खोली। बीजेपी कुछ समझती उससे पहले ही संघर्ष-सत्ता के अनुभवी आडवाणी सबसे पहले जागे और खुद को सबसे पहले ही सत्ता की लालसा में पीएम का उम्मीदवार बना बैठे। <br /><br />लेकिन इस पाठ को बीजेपी पढ़े उससे पहले ही नरेन्द्र मोदी ने एक नया पाठ बीजेपी को पढ़ाया। और छठा पाठ बीजेपी ने पढ़ा या नहीं लेकिन यह पाठ समूची बीजेपी को समझ में आ गया कि सत्ता तक पहुंचने के लिये जो रसद संघ और कारपोरेट से चाहिये, वह कांग्रेस का खांटी विकल्प बनकर ही जुगाड़ी जा सकती है। और नरेन्द्र मोदी ने मौलाना बनने से इंकार कर और 2002 के दंगों को जिन्दा रखने के जिन तरीको को अपने सियासी उपवास में दिखाया, उसने एक तरफ जहां यह संकेत दे दिये कि आरएसएस आडवाणी को चाहे खारिज कर दें लेकिन मोदी को खारिज नहीं कर सकता। वहीं मोदी ने वाईब्रेंट गुजरात के मंच पर मनमोहन सिंह की इक्नामिक्स के कारपोरेट कर्णधारो [ अंबानी बंधु,टाटा,जेवी एस रेड्डी,रुईया ] को जमाकर जब उन्हीं से यह बुलवा दिया कि मोदी में पीएम बनने का एलीमेंट है तो फिर आडवाणी समेत समूची बीजेपी को भी समझ में आया कि मोदी अब नेता नहीं मुद्दा हैं। लेकिन इन सात पाठ को पढ़ते पढ़ते बीजेपी कहां है और कहां चली गई, इस पर हर तरफ खामोशी ही बरती गई। <br /><br />क्योंकि तीन दशक पहले मुद्दों को खड़ा कर सत्ता तक पहुंची बीजेपी ने नया पाठ यह भी पढ़ा कि मुद्दों को लेकर उसके संघर्ष को सरोकार की मान्यता मिलती नहीं है और ऐसे में जमे जमाये मुद्दो पर अपनी सियासी बिसात बिछा कर शार्टकट की सत्ता का भभका पैदा किया जा सकता है। लेकिन 180 डिग्री में घुम चूकी इस राजनीति का कौन सा छोर सही है संयोग से यही बीजेपी की मुश्किल भी है और वर्तमान की ताकत भी । क्योकि बीजेपी अध्यक्ष गडकरी हो या लोकसभा-राज्यसभा में बीजेपी के प्रतिपक्ष के नेता सुषमा स्वराज या फिर अरुण जेटली या फिर एनडीए के नेता आडवाणी हो या गुजरात के सीएम मोदी और तो और आरएसएस को साधे हुये बीजेपी के आधे दर्जन नेता लग सभी को रहा है कि सत्ता मिलेगी तो पीएम वह क्यो बन सकता । और संयोग से पीएम पद का कोई हकदार चौबिसो घंटे सातो दिन राजनीति करता नहीं । सभी के अपने अपने बाजारानुकुल धंधे है जिसके आसरे हर कोई अपनी अपनी मार्केटिंग में व्यवस्त है । ऐसे में अगर सत्ता पाये बगैर हर कोई पीएम बनने का ख्वाब संजोय है तो दिल्ली से लेकर हर जिले में बीजेपी का छोटा-बडा कार्यकर्ता बिना एक राष्ट्रीय नेता के सत्ता पाने का ख्वाब संजोये हुये है । <br /><br />और संघ की मुश्किल है कि यह सबकुछ मदहोशी में नहीं बल्कि होशो-हवास में बीजेपी के भीतर एक सोच के तहत हो रहा है ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-28258869496337363322009-09-09T23:31:00.001+05:302009-09-09T23:32:28.086+05:30देश की असल जांच रिपोर्ट के लिए तो कई मजिस्ट्रेट चाहिएसत्तर और अस्सी के दशक को याद कीजिये । इस दौर में पहली बार सिनेमायी पर्दे पर एक ऐसा नायक गढ़ा गया, जो समाज की विसंगतियों से अकेले लड़ता है । नायक के तरीके किसी खलनायक की तरह ही होते थे। लेकिन विसंगतियों का पैमाना इतना बड़ा था कि अमिताभ बच्चन सिल्वर स्क्रीन की जगह देखने वालो के जेहन में नायक की तरह उतरता चला गया । <br /><br />कुछ ऐसी ही परिस्थितियां पिछले एक दशक के दौरान आतंकवाद के जरिए समाज के भीतर भी गढ़ा गया । चूंकि यह कूची सिल्वर स्क्रीन की तरह सलीम-जावेद की नहीं थी, जिसमें किसी अमिताभ बच्चन को महज अपनी अदाकारी दिखानी थी। बल्कि आतंकवाद को परिभाषित करने की कूची सरकारों की थी। लेकिन इस व्यवस्था में जो नायक गढ़ा जा रहा था, उसमें पटकथा लेखन संघ परिवार का था। और जिस नायक को लोगों के दिलो में उतारना था-वह नरेन्द्र मोदी थे। आतंकवाद से लड़ते इस नायक की नकल सिनेमायी पर्दे पर भी हुई । लेकिन इस दौर में नरेन्द्र मोदी को अमिताभ बच्चन की तरह महज एक्टिंग नहीं करनी थी बल्कि डर और भय का एक ऐसा वातावरण उसी समाज के भीतर बनाना था, जिसमें हर समुदाय-संप्रदाय के लोग दुख-दर्द बांटते हुये सहज तरीके से रह रहे हों। <br />हां, अदाकारी इतनी दिखानी थी कि राज्य व्यवस्था के हर तंत्र पर उन्हें पूरा भरोसा है और हर तंत्र अपने अपने घेरे में बिलकुल स्वतंत्र और निष्पक्ष होकर काम कर रहा है। इसलिये जब 15 जून 2004 को सुबह सुबह जब अहमदाबाद के रिपोर्टर ने टेलीफोन पर ब्रेकिंग न्यूज कहते हुये यह खबर दी कि आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तोएबा में लड़कियां भी जुड़ी है और गुजरात पुलिस ने पहली बार लश्कर की ही एक लड़की को एनकांउटर में मार गिराया है तो मेरे जेहन में तस्वीर यही उभरी कि कोई लड़की हथियारो से लैस किसी आतंकवादी की तर्ज पर किसी मिशन पर निकली होगी और रास्ते में पुलिस आ गयी होगी, जिसके बाद एनकाउंटर। लेकिन अहमदाबाद के उस रिपोर्टर ने तुरंत अगली लकीर खुद ही खिंच दी। बॉस, यह एक और फर्जी एनकाउंटर है। लेकिन लड़की। यही तो समझ नहीं आ रहा है कि लडकी को जिस तरह मारा गया है और उसके साथ तीन लड़को को मारा गया है, जबकि इस एनकाउंटर में कहीं नहीं लगता कि गोलिया दोनों तरफ से चली हैं। लेकिन शहर के ठीक बाहर खुली चौड़ी सडक पर चारों शव सड़क पर पड़े हैं। एक लड़के की छाती पर बंदूक है। कार का शीशा छलनी है। अंदर सीट पर कुछ कारतूस के खोखे और एक रिवॉल्वर पड़ी है। और पुलिस कमिश्नर खुद कह रहे हैं कि चारो के ताल्लुकात लश्कर-ए-तोएबा से हैं। <br /><br />घटना स्थल पर पुलिस कमिशनर कौशिक, क्राइम ब्रांच के ज्वाइंट पुलिस कमीशनर पांधे और डीआईजी वंजारा खुद मौजूद है, जो लश्कर का कोई बड़ा गेम प्लान बता रहे हैं। ऐसे में एनकाउंटर को लेकर सवाल खड़ा कौन करे । 6 बजे सुबह से लेकर 10 बजे तक यानी चार घंटो के भीतर ही जिस शोर -हंगामे में लश्कर का नया आंतक और निशाने पर मोदी के साथ हर न्यूज चैनल के स्क्रीन पर आतंकवाद की मनमाफिक परिभाषा गढ़नी शुरु हुई, उसमें रिपोर्टर की पहली टिप्पणी फर्जी एनकाउंटर को कहने या इस तथ्य को टटोलने की जहमत करें कौन, यह सवाल खुद मेरे सामने खड़ा था । क्योंकि लड़की के लश्कर के साथ जुड़े तार को न्यूज चैनलों में जिस तरह भी परोसा जा रहा था, उसमें पहली और आखिरी हकीकत यही थी कि एक सनसनाहट देखने वाले में हो और टीआरपी बढ़ती चली जाये। <br /><br />लेकिन एक खास व्यवस्था में किस तरह हर किसी की जरुरत कमोवेश एक सी होती चली जाती है, और राज्य की ही अगर उसमें भागीदारी हो जाये तो सच और झूठ के बीच की लकीर कितनी महीन हो जाती है, यह इशरत जहां के एनकाउंटर के बाद कई स्तरों पर बार बार साबित होती चली गयी। एनकाउटर के बाद मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब पुलिस प्रशासन की पीठ थपथपायी, तब मोदी राज्य व्सवस्था को आतंकवाद के खिलाफ मजबूती प्रदान करने वाले किसी नायक सरीखे दिखे। लड़की के लश्कर के संबंध को लेकर जब मोदी ने एक खास समुदाय को घेरा तो आंतकवाद के खिलाफ मोदी हिन्दुत्व के नायक सरीखे लगे। इस नायकत्व पर उस वक्त किसी भी राजनीतिक दल ने अंगुली उठाने की हिम्मत नहीं की। क्योंकि जो राजनीति उस वक्त उफान पर थी, उसमें पाकिस्तान या कहें सीमा पार आतंकवाद का नाम ऑक्सीजन का काम कर रहा था। वहीं, आंतकवाद के ब्लास्ट दर ब्लास्ट उसी पुलिस प्रशासन को कुछ भी करके आतंकवाद से जोड़ने का हथियार दे रहे थे, जो किसी भी आतंकवादी को पकड़ना तो दूर, कोई सुराग भी कभी नहीं दे पा रही थी। <br /><br />यह हथियार सत्ताधारियों के लिये हर मुद्दे को अपने अनुकूल बनाने का ऐसा मंत्र साबित हो रहा था जिस पर कोई अंगुली उठाता तो वह खुद आतंकवादी करार दिया जा सकता था। कई मानवाधिकार संगठनों को इस फेरहिस्त में एनडीए के दौर में खड़ा किया भी गया । इसका लाभ कौन कैसे उठाता है, इसकी भी होड़ मची । इसी दौर में नागपुर के संघ मुख्यालय को जिस तरह आतंकवादी हमले से बचाया गया, उसने देशभर में चाहे आतंकवाद के फैलते जाल पर बहस शुरु की, लेकिन नागपुर में संघ मुख्यालय जिस घनी बस्ती में मौजूद है, उसमें उसी बस्ती यानी महाल के लोगो को भी समझ नहीं आया कि कैसे मिसाइल सरीखे हथियार से लैस होकर कोई उनकी बस्ती में घुस गया और इसकी जानकारी उन्हें सुबह न्यूज चैनल चालू करने पर मिली। इस हमले को भी फर्जी कहने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ताओ का पुलिस ने जीना मुहाल कर दिया। सुरेश खैरनार नामक एक कार्यकर्ता तो दिल्ली में तमाम न्यूज चैनलो में हमले की जांच रिपोर्ट को दिखाने की मन्नत करते हुये घूमता रहा लेकिन किसी ने संघ हेडक्वार्टर की रिपोर्ट को फर्जी कहने की हिम्मत नहीं की क्योंकि शायद इसे दिखाने का मतलब एक अलग लकीर खिंचना होता । और उस लकीर पर चलने का मतलब सत्ताधारियो का साथ छोड़ एक ऐसी पत्रकारिता को शुरु करना होता, जहां संघर्ष का पैमाना व्यवसायिकता में अवरोध पैदा कर सकता है। <br /><br />अहमदाबाद में इशरत जहां को जब लश्कर से जोड़ने की बात गुजरात की पुलिस और उसे आधार बनाकर मुख्यमंत्री ने कही तो मेरे जेहन में लश्कर-ए-तोएबा के मुखिया का वह कथन घूमने लगा, जिसका जिक्र लश्कर के चीफ हाफिज सईद ने 2001 में मुझे इंटरव्यू देने से पहले किया था। हाफिज सईद ने इंटरव्यू से पहले मुझसे कहा थी कि मै पहला भारतीय हूं, जिसे वह इंटरव्यू दे रहे हैं। लेकिन भारत से कई और न्यूज चैनलो ने उनसे इंटरव्यू मांगा है । संयोग से कई नाम के बीच बरखा दत्त का नाम भी उसने लिया, लेकिन फिर सीधे कहा खवातिन को तो इंटरव्यू दिया नहीं जा सकता। यानी किसी महिला को लेकर लश्कर का चीफ जब इतना कट्टर है कि वह प्रोफेशनल पत्रकार को भी इंटरव्यू नहीं दे सकता है तो यह सवाल उठना ही था कि अहमदाबाद में पुलिस किस आधार पर कह रही है इशरत जहां के ताल्लुकात लश्कर से हैं । <br /><br />यह सवाल उस दौर में मैंने अपने वरिष्ठों के सामने उठाया भी लेकिन फिर एक नयी धारा की पत्रकारिता करने तक बात जा पहुंची, जिसके लिये या तो संघर्ष की क्षमता होनी चाहिये या फिर पत्रकारिता का एक ऐसा विजन, जिसके जरिए राज्य सत्ता को भी हकीकत बताने का माद्दा हो और उस पर चलते हुये उस वातावरण में भी सेंध लगाने की क्षमता हो जो कार्बनडाइऑक्साइड होते हुये भी राजनीतिक सत्ता के लिये ऑक्सीजन का काम करने लगती है। <br /><br />जाहिर है गुजरात हाईकोर्ट ने कुछ दिनो पहले ही तीन आईएएस अधिकारियो को इस एनकाउंटर का सच जानने की जांच में लगाया है। लेकिन किसी भी घटना के बाद शुरु होने वाली मजिस्ट्रेट जांच की रिपोर्ट ने ही जिस तरह इशरत जहां के एनकाउंटर को ‘पुलिस मेडल पाने के लिये की गयी हत्या’ करार दिया है, उसने एक साथ कई सवालों को खड़ा किया है । अगर मजिस्ट्रेट जांच सही है तो उस दौर में पत्रकारों और मीडिया की भूमिका को किस तरह देखा जाये। खासकर कई रिपोर्ट तो मुबंई के बाहरी क्षेत्र में, जहां इसरत रहती थी, उन इलाको को भी संदेह के घेरे में लाने वाली बनी। उस दौर में मीडिया रिपोर्ट ने ही इशरत की मां और बहन का घर से बाहर निकलता दुश्वार किया। उसको कौन सुधारेगा। फिर 2004 के लोकसभा चुनावों में आतंकवाद का जो डर राजनेताओ ने ऐसे ही मीडिया रिपोर्ट को बताकर दिखाया, अब उनकी भूमिका को किस रुप में देखा जाये । 2004 के लोकसभा चुनाव में हर दल ने जिस तरह गुजरात को आतंकवाद और हिन्दुत्व की प्रयोगशाला करार देकर मोदी के गुजरात की तर्ज पर वहां के पांच करोड़ लोगों को अलग थलग कर दिया, उसने यह भी सवाल खड़ा किया कि समाज का वह हिस्सा जो, इस तरह की प्रयोगशाला का हिस्सा बना दिया जाता है उसकी भूमिका देश के भीतर किस रुप में बचेगी। क्योंकि पांच साल पहले के आतंकवाद को लेकर विसंगतियां अब भी हैं, लेकिन 2009 में उससे लड़ने के तरीके इतने बदल गये हैं कि समाज की विसंगतियों की परिभाषा भी सिल्वर स्क्रीन से लेकर लोगो के जहन तक में बदल चुकी है। नयी परिस्थितियों में समाज से लड़ने के लिये राजनीति में न तो नरेन्द्र मोदी चाहिये, न ही सिल्वर स्क्रीन पर अमिताभ बच्चन। नयी परिस्थितियों में इशरत जहां के एनकाउटर का तरीका भी बदल गया है । अब सामूहिकता का बोध है। सिल्वर स्क्रीन पर कई कद वाले कलाकारो की सामूहिक हंसी-ठठ्टा का ऐसा जाल है, जहां सच को जानना या उसका सामना करना हंसी को ही ठसक के साथ जी लेना है । वहीं समाज में मुनाफा सबसे बडी सत्ता है जो सामूहिक कर्म से ही पायी जा सकती है । और एनकाउटंर के तरीके अब सच से भरोसा नहीं उठाते बल्कि विकास की अनूठी लकीर खींच कर विकसित भारत का सपना संजोते है। <br /><br />सवाल है इसकी मजिस्ट्रेट जांच कब होगी और इसकी रिपोर्ट कब आयेगी। जिसके घेरे में कौन कौन आएगा कहना मुश्किल है लेकिन इसका इंतजार कर फिलहाल इताना तो कह सकते हैं-इशरत हमें माफ कर दो ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-11687515812519301162009-09-08T13:18:00.002+05:302009-09-08T13:20:06.358+05:30क्यों नागपुर से दिल्ली चली संघ एक्सप्रेस6 दिसंबर 1992 को करीब साढे पांच बजे नागपुर में संघ मुख्यालय के बाहर उसी जगह पर सरसंघचालक देवरस की कुर्सी लगायी गयी, जहां अब सुरक्षाकर्मियो का टेंट लगा है। तीन स्वयंसेवकों के सहारे देवरस मुख्यालय से बाहर आये और उन्हे कुर्सी पर बैठाया गया । नागपुर के महाल इलाके में रिहायशी बस्ती के बीच संघ मुख्यालय की मौजूदगी 6 दिसबंर 1992 तक कुछ वैसी ही थी, जैसी रिहायशी इलाके में सामाजिक कार्यो में जुटा कोई संगठन किसी घर को ही अपना अड्डा बना ले। लेकिन 6 दिसंबर 1992 के दिन से अचानक छोटी-छोटी गलियों के बीच बना संघ मुख्यालय अचानक मील के पत्थर में तब्दील हो गया, जहां की पहचान पुलिस-जवानो के डेरे के तौर पर ही होने लगी। महाल के इस संघ मुख्यालय के बाहर का जो खाली प्लाट संघ का नहीं था, वह अचानक संघ से जुड़ गया और उस जमीन पर टेंट की रिहायश बनायी गयी, जिसमें छह जवानों की टोली उसी दिन से बैठा दी गयी, जो आज भी बैठी है। <br /><br />इन 17 सालो में फर्क यही आया कि जवानों के पास आधुनिकतम हथियार और दूरबीन आ गयी और महाल का मतलब संघ का असल मुख्यालय हो गया, जहा सारी शतरंज खेली जाती है। असल इसलिये क्योंकि हेडगेवार ने इसी घर से संघ कार्यालय की शुरुआत की थी। और 1948 के बाद प्रतिबंध का स्वाद 1993 में ही संघ के इस मुख्यालय ने भोगा। इमरजेन्सी के प्रतिबंध का एहसास यहां इसलिये नहीं हुआ, क्योकि तब पूरे देश में एक तरह का प्रतिबंध था। <br /><br />6 दिसबंर 1992 को जब समूचॆ देश में हंगामा मचा हुआ था तो बेहद खामोशी के साथ देवरस को इसी घर में नजरबंद करने के आदेश प्रशासन ने दे दिये । इस दिन से पहले महाल के इसी घर से करीब चार किलोमीटर दूर रेशमबाग के हेडगेवार भवन को ही हर कोई संघ मुख्यालय मानता और समझता था। चूंकि हेडगेवार भवन एकदम खुली सड़क और खुले मैदान से जुड़ा है और हर सुबह- शाम जितनी बड़ी तादाद में यहां शाखा लगती और खुला मैदान होने की वजह से खेल का शोर कुछ इस तरह रहता कि पुराने नागपुर की दिशा में जाने वाला हर किसी शख्स को दूर से ही दिखायी पड़ जाता है। <br /><br />लेकिन नागपुर के मिजाज में संघ की मौजूदगी कभी घुली नहीं । जनसंघ को कभी नागपुर में जीत मिली नहीं और इमरजेन्सी के बाद 1977 के चुनाव में जब समूचे देश में जनता लहर थी तो भी नागपुर समेत समूचे विदर्भ सभी 11 सीटो में से कोई भी जनता पार्टी का उम्मीदवार न जीत सका । उस वक्त देवरस को भी आश्चर्य हुआ था कि उनके राजनीति प्रयोग को जेपी के जरीये जब काग्रेस को मात दी गयी तो नागपुर में संघ समर्थित उम्मीदवार को कांग्रेस ने मात दे दी। यही हाल बाबरी मस्जिद के ढहाने के बाद भी हुआ, जब कांग्रेस जीत गयी । यानी नागपुर में संघ की पहचान कभी राजनीतिक तौर पर निकल कर नहीं आयी, जिससे लगे कि उसकी अपनी जमीन पर राजनीति तो खड़ी हो सकती है।<br /><br />यह नागपुर में हुआ नहीं और भाजपा के लिये संघ की समझनुसार वैसी जमीन बनी नहीं जैसा देश के सार्वजनिक जीवन में हिन्दुत्व का पाठ पढाते हुये संघ, भाजपा को राजनीतिक तौर पर इसका लाभ दिलाता । ऐसा भी नहीं है कि संघ के सामने मौके नहीं आये कि वह नागपुर में अपनी पहचान बना ले। गांधी को लेकर संघ के क्या विचार थे, यह कोई छुपा नहीं है। लेकिन दलितो को लेकर आंबेडकर के साथ भी संघ खड़ा नहीं हुआ क्योकि तब भी संघ हिन्दु राष्ट्र का एक अनोखा सपना पाले हुआ था । नागपुर में दलितो के संघर्ष से लेकर बुनकरो का संघर्ष आजादी के बाद ही शुरु हुआ । लेकिन संघ साथ खड़ा नहीं हुआ । नागपुर में बुनकरो के संघर्ष का प्रतीक गोलीबार चौक भी है, जहां पुलिस की गोली से बुनकर मारे गये थे। वहीं नागपुर में ही अंग्रेजो के दौर में ही सबसे बडी काटन मिल स्थापित हुई। और बड़ी बात यह है कि संघ की ट्रेड यूनियन भारतीय मजदूर संघ यानी बीएमएस ने सबसे पहले इसी काटन मिल में अपनी यूनियन बनायी। <br /><br />लेकिन जब नब्बे दे दशक में जब यह मिल बंद होने का आयी तो बीएमएस ने मजदूरो के हक की लड़ाई में अपना कंधा अलग कर लिया । असल में नागपुर में संघ मुख्यालय होने के बावजूद आरएसएस से ज्यादा हिन्दू महासभा की यादें लोगों के जहन में है । हालांकि संघ का विस्तार हिन्दू महासभा से ज्यादा होता गया, लेकिन सच यह भी है कि पहली बार सावरकर जब नागपुर पहुंचे तो उन्होने काटन मार्केट की एक सभा में संघ के तौर तरीको को किसी मंदिर के पूजा पाठ सरीखा ही माना और राजनीतिक समझ से कोसो दूर बताते हुये खारिज भी किया । उस वक्त हेडगेवार चाहते थे कि सावरकर संघ मुख्यालय आये । लेकिन सावरकर राजनीतिक तौर पर हिन्दुओ को जिस तरह संगठित कर रहे थे, उसमें संघ उनके तरीको को कमजोर कर देता इसलिये संघ मुख्यालय तक नहीं गये। <br /><br />वहीं मुस्लिमो को लेकर संघ की समझ नागपुर में ही 7 दिसबंर 1992 को उभरी थी । 6 दिसबंर को देवरस के नजरबंद होने के बाद बाबरी मस्जिद ढहाने के विरोध में अपने गुस्से का इजहार मुस्लिम बहुल इलाके मोमिनपुरा में हुआ । मोमिनपुरा के लोग रैली की शक्ल में जैसे ही मोमिनपुरा के बाहर सड़क पर निकले, वहां खड़ी पुलिस ने ताबडतोब गोलियां दागनी शुरु कर दी । 9 युवा समेत 13 लोग मारे गये। उसके बाद नागपुर में यह बहस शुरु हुई कि एक तरफ 6 दिसबंर को संघ से जुडे संगठन खुले तौर पर प्रदर्शन करते है, दुर्गा वाहिनी हथियारो का प्रदर्शन करती है और उन्हें कोई रोकता नहीं और सरसंघचालक को नजरबंद कर मामले को वहीं का वहीं खत्म किया जाता है। वहीं, मुस्लिमो के प्रदर्शन मात्र को कानून व्यवस्था के लिये खतरा बता दिया जाता है। हालांकि इस घटना के बाद नागपुर के पुलिस कमीशनर इनामदार का तबादला हुआ लेकिन तीन साल बाद शिवसेना-भाजपा के सत्ता में आने पर इनामदार को पदोन्नति भी मिली । मगर बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद देश में तुरंत कहीं लोग मरे तो वह नागपुर रहा, जहां 13 लोगो की मौत हुई । और इस घटना को भी नागपुर में संघ ने अपनी उस नयी पहचान से जोडने की पहल की जो इससे पहले उसे मिली नहीं थी । यानी अयोध्या पर संघ की इस प्रयोगशाला में हिन्दुत्व के लिये जगह है, बाकियो की अभिव्यक्ति भी बर्दाश्त नहीं है । लेकिन नागपुर ने संघ की इस पहचान को भी नहीं स्वीकारा । ना सामाजिक तौर पर ना राजनीतिक तौर पर । इसका मलाल देवरस को हमेशा रहा । इसलिय 1993 में जब कल्याण सिंह नागपुर पहुचे और संघ मुख्यालय में देवरस से मिलने के लिये बेताब हुये तो उन्हें टाला गया और मिलने का वक्त भी मिनटो में सिमटाया गया । <br /><br />नागपुर की इस नब्ज को टटोलने के लिये जब कल्याण सिंह नागपुर के तिलक पत्रकार भवन पहुंचे । तो उन्हे वहीं समझ में आ गया कि संघ की पकड़ नागपुर में कितनी कम है और जिनके भीतर संघ समाया हुआ है, वह कल्याण सिंह को संघ के सोशल इंजिनियरिंग का एक औजार भर मानते हैं। नागपुर की इन्हीं परिस्थितियो को जानते समझते हुये मोहनराव भागवत सरसंघचालक बने हैं। इसलिये दिल्ली पहुंच कर भागवत का भाजपा को पाठ पढ़ाने के अंदाज को समझना जरुरी है । क्योंकि राजनीतिक तौर पर भागवत हेडगेवार की उसी थ्योरी को समझते है कि जब राजनीति दिशाहीन हो जाये तो सामाजिक तौर पर हिन्दुत्व ही एकमात्र रास्ता बचता है। बदलाव सत्ता के जरीये नहीं बल्कि समाज के जरीये आता है। और सत्ता जोड़तोड़ की माथापच्ची के अलावा और कुछ नहीं है जबकि संघ सामाजिक सांस्कृतिक संगठन, जो समाज में राजनीति से ज्यादा घुसपैठ करता है । कई मौको पर हिन्दु महासभा से टकराव के दौर पर हेडगेवार ने कई जगहो पर इस समझ को रखा । <br /><br />लेकिन सवाल है जो संगठन अपने जड़ में यानी नागपुर में ही बेअसर है, उसका असर दिल्ली में क्यों नजर आता है । जाहिर है दिल्ली में समाज नहीं सिर्फ राजनीति है और राजनीति को पटरी पर लाने के लिये समाज का भय दिखा कर संघ अपना औरा खड़ा कर सकता है । सवाल है क्या मोहन राव भागवत इस भय के सहारे भाजपा को संघ से बांध रहे है या फिर भाजपा संघ के बनाये गये इस भय से अपना राजनीतिक हित साधना चाहती है। अगर संघ की मौजूदगी को राजनीतिक तौर पर देखा परखा जाये तो आजादी के बाद से किसी भी संकट के वक्त संघ का कार्य किसी एनजीओ और सामाजिक संगठन के मिले जुले रुप के तौर पर उभर कर आता है । लेकिन अयोध्या कांड के वक्त पहली बार संघ की भूमिका उसी सावरकर की राजनीतिक समझ के करीब लगी, जिससे संघ हमेशा कतराता रहा । जिस तेजी से भाजपा ने 1992 के बाद राजनीति सत्ता की सीढियों को चढ़ना शुरु किया और संघ की नयी पहचान में वह समाज में घुलने मिलने की जगह कहीं ज्यादा अलग साफ दिखायी पड़ने लगा, उसने वैचारिक तौर पर समूचे संघ परिवार को ट्रासंफार्म के दौर में ला खड़ा किया । क्योंकि जिस संघ में चेहरे से ज्यादा संगठन को महत्वपूर्ण माना गया, वहां अयोध्या के बाद संघ को पहले संघ के ही संगठन और फिर संगठनों के चेहरो में केन्द्रित करने की राजनीति भी शुरु हुई । भागवत इसी चेहरे से कतरा रहे हैं। क्योकि उनकी पूरी ट्रेनिग नागपुर में हुई है, जहां के समाज में संघ का कोई चेहरा मान्य नहीं है। यानी हेडगेवार के बाद से गुरुगोलवरकर हो या देवरस या फिर रज्जू भैया किसी की पहचान इस रुप में नहीं बनी कि जिससे संघ भी चेहरा केन्द्रित लगे । इसका राजनीतिक खामियाजा नागपुर के हर चुनाव में हर बार उभरा । भाजपा का उम्मीदवार अगर खाकी नेकर में नजर आया तो वह संघ का माना गया। जो खाकी नेकर में कभी नजर नहीं आया उसे बाहरी माना गया । संघ का भी जोर भी उसी बात पर रहा कि भाजपा उम्मीदवारो को लेकर समाज के भीतर बहस संघ के काम को लेकर हो और उम्मीदवार उसी सच से जुडे । यह अलग बात है कि संघ का काम नागपुर में ऐसा उभरा नहीं, जिससे भाजपा के उम्मीदवार को राजनीतिक लाभ मिले । लेकिन भागवत इसी सोच के आसरे भाजपा को दिल्ली में ढालना चाहते है। क्योकि इससे संघ पहचाना जाता है और इस पहचान के जरीये अगर राजनीतिक संगठन सत्ता पाता है तो संघ को लगता है कि हिन्दु राष्ट्र के नारे को इससे बल मिला। <br /><br />इसलिये भागवत का जोर एक महत्वपूर्ण चेहेरे की जगह सौ स्वयसेवको को काम पर लगाने की थ्योरी है । संघ की सोच और भागवत की निजी पहल इसीलिये दोहरे स्तर पर काम कर रही है । संघ उस चूक से निकलना चाहता है जिस चूक से धीरे धीरे भाजपा का मतलब लालकृष्ण आडवाणी होता चला गया । वहीं भागवत निजी तौर पर इस संदेश को साफ करना चाहते है कि वह आडवाणी के पीछे नहीं खड़े है जैसा की भागवत के सरसंघचालक बनने के बाद प्रचारित किया गया । भागवत का मानना है कि 2007 से लेकर 2009 तक आडवाणी के विरोध के बावजूद संघ ने स्वयसेवकों को को ना सिर्फ पूरी तरह शांत किया बल्कि चुनाव पूरे होने तक विरोध का हर स्वर भी दबा दिया । लेकिन आडवाणी ने संघ को भाजपा केन्द्रित बनाने की पहल चुनाव में हार के बाद भी जारी रखी। इसीलिये उन्हे दिल्ली में ना सिर्फ तीन दिन तक डेरा डालना पडा बल्कि हर निर्णय में अपने साथ उस पूरी टीम को साथ रखना पडा जो संघ का केन्द्र है। यानी सरकार्यवाह भैयाजी जोशी से लेकर दत्तात्रेय होसबले और मदनदास देवी से लेकर मनमोहन वैघ तक की मौजूदगी दिल्ली के हर बैठक में रही और हर बैठक में एक ही बात स्वयंसेवकों के लिये खुलकर कही गयी कि आडवाणी को जाना होगा । लेकिन खास बात यह भी है कि भागवत को छोडकर हर वरिष्ठ स्वयंसेवक खामोश ही रहा । कैमरे के सामने भी और बातचीत के दौर में भी । संघ के अपने इतिहास में भी यह पहली बार हुआ जब संघ के छह महत्वपूर्ण पदाधिकारी सारे काम छोड कर अपने ही किसी संगठन के झगड़ों को निपटाने के लिये नागपुर से बाहर जुटे। इस जुटान का मतलब भाजपा का बढ़ा कद भी है और संघ का सिकुड़ना भी । इसका मतलब भाजपा के खिलाफ पहल करने के लिये संघ का सबसे कमजोर वक्त का इंतजार करना भी था और भाजपा के भीतर भी स्वयंसेवक और गैर स्वयंसेवकों के युद्द छिड़ने का इंतजार करना भी था । असल में नागपुर में बिना पहचान के 84 साल गुजारने वाले आरएसएस की मान्यता बनाने या पाने की रणनीति का अक्स भाजपा आपरेशन से भी समझा जा सकता है । <br /><br />संघ की पहल भाजपा के खिलाफ तब हुई जब भाजपा के भीतर से ही नहीं बल्कि गैर स्वयंसेवक अरुण शौरी से लेकर भाजपा के समर्थन में खड़े बाहरी लोगों ने भी जब यह कहना शुरु कर दिया संघ को अब भाजपा का टेकओवर कर लेना चाहिये । यानी संघ की मान्यता जैसे ही भाजपा से बड़ी हुई भागवत ने हलाल तरीके से झटका दिया जो गुरु गोलवरकर की जनसंघ को लेकर उस टिप्पणी पर भी भारी पडी कि जनसंघ हमारे लिये गाजर की पूंगी है, बजी तो ठीक है नहीं तो खा जाएंगे । असल में संघ अब भाजपा को जनसंघ ही बनाना चाहता है, जिसमें आडवाणी की विदायी के साथ मई से दिल्ली में बैठे संजय जोशी सरीखे सौ स्वयंसेवक सक्रिय हो जाये और स्वदेशी आंदोलन को ठेगडी के बाद दिशा देने में लगे मुरलीधर राव सरीखे स्वयंसेवक भाजपा नेतृत्व संभाल लें। लेकिन संघ की इस पहल से सिर्फ भाजपा बदलेगी ऐसा भी नहीं है। असर संघ के भीतर बाहर भी है । इसका अक्स अयोध्या कांड के बाद नागपुर में संघ मुख्यालय से सटे खाली प्लाट को लेकर भी समझा जा सकता है । उस वक्त संघ मुख्यालय की सुरक्षा के लिये प्रशासन ने खाली प्लाट को संघ से जोड़ दिया, वही 17 साल बाद संघ को लग रहा है कि भाजपा को संघ में ढालकर वह उस राजनीतिक प्लाट को अपने घेरे में ले आयेगी जहां से टूटते-बिखरते संघ को एक नया जीवन मिलेगा ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-39707404239366539532009-08-25T00:02:00.001+05:302009-08-25T00:03:51.946+05:30रिंग में आडवाणी-भागवत आमने सामनेसंघ के इतिहास में यह पहला मौका है, जब आरएसएस को अपने ही किसी संगठन से सीधा संघर्ष करना पड़ रहा है। इस संघर्ष का महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि यह सीधा संघर्ष विचारधारा से इतर शीर्ष पर बने रहने की लड़ाई है । जिसमें एक तरफ अगर सरसंघचालक खड़े हैं तो दूसरी तरफ संघ की छांव में बड़े हुये लेकिन सत्ता की जोड़-तोड़ में तपे भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी।<br /><br />सरसंघचालक मोहनराव भागवत अगर संघ परिवार के भीतर कुछ परिवर्तन करना चाहें और वह हो न पाये, ऐसा आरएसएस में कोई सोच नहीं सकता । लेकिन आरएसएस के बाहर अगर अब यब माना जाने लगा है कि आरएसएस का मतलब संघ परिवार नहीं बल्कि भाजपा हो चली है तो यह पहली बार हो रहा है। 1948 में जब तब के सरसंघचालक गुरु गोलवरकर ने देश के गृहमंत्री सरदार पटेल को लिख कर दिया था कि आरएसएस सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन है, उस दौर में संघ ने चाहे सोच लिया होगा कि एक दिन ऐसा जरुर आयेगा जब देश को संघ के स्वयंसेवक ही चलाएंगे। लेकिन संघ ने कभी यह नहीं सोचा होगा कि वहीं स्वयसेवक सत्ता में आने के बाद संघ को ही हाशिये पर ढकेलने लगेगा। वहीं स्वयंसेवक संघ के दर्द पर और नमक छिड़केगा। <br /><br />वाजपेयी के दौर में सत्ता में बैठे स्वयंसेवकों से सबसे बडा झटका आरएसएस को तब लगा जब उत्तर-पूर्वी राज्य में चार स्वसंवकों की हत्या हो गयी और देश के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने नार्थ ब्लाक से सिर्फ पांच किलोमीटर दूर झडेवालान के संघ मुख्यालय जाकर मारे गये स्वयंसेवकों की तस्वीर पर फूल चढ़ा कर श्रद्धांजलि देना तक उचित नहीं समझा। बाकि कोई कार्रवाई की बात तो बेमानी है, चाहे उस वक्त सरसंघचालक सुदर्शन से लेकर भाजपा-संघ के बीच पुल का काम रहे मदनदास देवी ने गृहमंत्री आडवाणी से गुहार लगायी कि उन्हें जांच करानी चाहिये कि हत्या के पीछे कौन है। <br /><br />माना जाता है आरएसएस ने इसका बदला कंघमाल के जरिये भाजपा से लिया । भाजपा उड़ीसा में संघ के नेता की हत्या के बाद नवीन पटनायक को सहलाती-पुचकारती, उससे पहले ही संघ ने कंधमाल को अंजाम दे दिया । जिससे भाजपा को गठबंधन की राजनीति का सबसे बड़ा झटका ऐन चुनाव से पहले लगा । यह संघर्ष बढ़ते-बढ़ते एक -दूसरे के आस्त्वि पर ही सवालिया निशान लगाने तक आ पहुंचा। यह किसी ने सोचा नहीं था , लेकिन अब खुलकर नजर आने लगा है । <br /><br />सवाल यह नहीं है कि भाजपा के चिंतन बैठक से 24 घंटे पहले सरसंघचालक भागवत ने कैमरे पर इटरव्यू दे कर चिंतन बैठक को एक ऐसी दिशा देने की कोशिश की जिसपर निर्णय का मतलब झटके में भाजपा को बीच मझधार में लाकर न सिर्फ खड़ा करना होता बल्कि भाजपा में भी नताओ के सामने संकट आ जाता कि वह राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर खुद की हैसियत को कैसे बरकरार रखते हैं । यह संकट ठीक वैसा ही है, जैसा मोहनराव भागवत के सामने सरसंघचालक बनने के बाद आया है । संयोग से सरसंघचालक भागवत की जितनी उम्र है, उससे ज्यादा उम्र लालकृष्ण आडवाणी ने आरएसएस और पार्टी को दिया है। यह समझा जा सकता है कि जब आडवाणी राजनीति में आये तब भागवत चन्द्रपुर में बच्चो के खेल में भविष्य के तार संजो रहे होंगे। लेकिन ज्यादा दूर न भी जायें तो लालकृष्ण आडवाणी जब देश के सूचना-प्रसारण मंत्री बने तब भागवत बतौर प्रचारक डंडा भांज रहे थे। यह संकट इससे पहले कभी सिर्फ सुदर्शन के सामने आया। क्योकि उम्र और स्वयंसेवक के तौर पर वाजपेयी-आडवाणी से सुदर्शन पांच साल छोटे थे। <br /><br />लेकिन संघ के साथ जुड़ने का सिलसिला इनमें दो साल के फर्क के साथ था। लेकिन वाजपेयी की राजनीतिक समझ के साथ साथ सामाजिक-सांसकृतिक समझ के दायरे में सुदर्शन खासे पीछे थे । इसलिये कई मौके आये जब बतौर सरसंघचालक सुदर्शन ने वाजपेयी को आरएसएस का पाठ पढ़ाने की कोशिश की लेकिन हर पाठ का महापाठ, जो वाजपेयी के पास था, उसका असर यही हुआ कि सुदर्शन को हर सार्वजनिक मौके पर वाजपेयी को खुद से बड़ा मानना पड़ा । और हमेशा लगा कि संघ भाजपा के पीछे खड़ी है । इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि वाजपेयी के पास आडवाणी थे। जिसके जरिये वाजपेयी कभी संघ के लगे नहीं और आडवाणी कभी संघ से अलग दिखे नहीं। बदली परिस्थितियो में सुदर्शन और वाजपेयी मंच से उतर चुके हैं और आमने सामने और कोई नहीं वही भागवत और आडवाणी आ गये है, जो कभी सुदर्शन के सुर से परेशान रहते थे तो कभी वाजपेयी के सेक्यूलरवाद से। <br /><br />लेकिन दोनो के सामने अपने अपने घेरे में ऐसी चुनौतियां है, जो संयोग से एक-दूसरे से टकरा भी रही हैं और दोनो ही अपनी अपनी जगह व्यक्ति से बड़े संगठन के तौर पर जगह बनाये हुये हैं। वाजपेयी के दौर में भाजपा के पीछे खड़ा संघ आज भी वैचारिक तौर पर इतना पीछे खड़ा है कि उसे खुद को स्थापित करने के लिये सबसे पहले भाजपा को ही खारिज करना होगा। इसके लिये सामने आडवाणी खड़े हैं जो खुद को संघ से ज्यादा करीब भाजपा के भीतर हर दौर में बताते भी आये और डिप्टी प्रधानमंत्री बनने का जो खेल खेला, उसमें दिखा भी दिया। ऐसे में भागवत अगर आडवाणी को संघ के नियम-कायदे बताकर बाहर का रास्ता दिखाना चाहते हैं, तो उन्हे हर बार मुंह की इसलिये खानी पड़ेगी क्योकि भागवत का तरीका राजनीति की वही चौसर है, जिसमें आडवाणी माहिर हैं। हिन्दु राष्ट्र की खुली वकालत करते भागवत एक अग्रेजी न्यूज चैनल और अंग्रेजी अखबार को इटरव्यू इसलिये देते हैं, क्योंकि एक तरफ वह देश के प्रभावी अंग्रेजी मिजाज में अपनी हैसियत दिखा सके और दूसरी तरफ दक्षिण में सक्रिय संघ के कार्यकर्ताओ में भाजपा से खुद को बड़ा दिखा सके या संघ की हैसियत का अंदाजा येदुरप्पा की कर्नाटक की सत्ता की मदहोशी में संघ को भुलाते स्वयंसेवकों में जतला सके। <br /><br />वहीं भागवत को भागवत के ही जाल में बिना बोले उलझाना किसी भी राजनेता के लिये मुश्किल नहीं है और आडवाणी इसमें माहिर है, यह कोई भी उनके पचास साल की ससंदीय राजनीति की जोड-तोड से समझ सकता है । खासकर वाजपेयी की शागिर्दगी जिसने की हो, उसके लिये संघ का उग्र चेहरा क्यों मायने रखता है। जब देश की सामाजिक-सांसकृतिक लकीर ही संघ से इतर रास्ता पकड़ रही हो । इसलिये सवाल यह भी नहीं है कि आडवाणी की चाल में संघ फंसकर जसवंत पर सफायी देने में लगा या फिर चिंतन के बाद उन्हीं राजनाथ सिंह को आडवाणी के विपक्ष के नेता पर बने रहने का ऐलान करना पड़ा, जो खुद को संघ के सबसे करीबी मानते हैं, और अध्यक्ष की कुर्सी पाने के पीछे भी संघ का ही आशिर्वाद मानते हैं । बल्कि समझना यह भी होगा कि आडवाणी का भाषण भी उन्हीं सुषमा स्वराज ने पढ़ा, जिसे संघ आडवाणी की जगह लाना चाहता था। यानी जसंवत हटे तो लगे कि संघ नहीं चाहता। सुधीन्द्र कुलकर्णी हटे तो लगे संघ पसंद नहीं करता । तो फिर आडवाणी बने रहे यह कैसे बिना संघ की इजाजत के हो सकता है । असल में आडवाणी धीरे धीरे संघ को उस घेरे में ले आये हैं, जहा संघ की हर पहल उसी तरीके से कट्टर लगे, जैसे वाजपेयी का हर बुरा निर्णय संघ के दबाब वाला लगता था। यानी नरेन्द्र मोदी को लेकर निर्णय ना लेने के पिछे संघ का दबाब था । तो सवाल है जसंवत को हटाने के पीछे भी संघ का ही दबाब था। यानी राजनीतिक तौर पर भाजपा जिस मुहाने पर खड़ी है और संघ खुद को जिस जगह खड़ा पा रहा है, उसमें कोई अंतर बचा नहीं है । क्योकि संघ नियम-कायदे के तहत आडवाणी के हटने का मतलब है कंधमाल से ज्यादा बड़ी राजनीतिक त्रासदी के लिये तैयार रहना। <br /><br />वहीं आडवाणी के ना हटने का मतलब है सरसंघचालक भागवत का अलोकप्रिय होना या कहे संघ का कमजोर दिखना। संघ का संकट यह है कि दोनों स्वयंसेवक संघ परिवार के रिंग में ही आमने सामने खड़े हो गये हैं। इसलिये नागपुर में संघ के मुखपत्र तरुण भारत में अगर एमजी वैघ सीधे आडवाणी को पद छोडने की हिदायत भी देते हैं और दिल्ली में मुखपत्र पांचजन्य में संपादकीय के जरीये पहले जसवंत सिंह के जिन्ना प्रेम पर निशाना साधता है और तीन पन्नो बाद देवेन्द्र स्वरुप के लेख के मार्फत कंधार अपहरण कांड का जिक्र कर जसवंत पर अंगुली उठाते हुये आडवाणी की घेराबंदी करता है। तो इसका मतलब यह भी है कि संघ अपने आस्तित्व के लिये अब भाजपा को खतरा मान रहा है क्योकि नागपुर से लेकर दिल्ली तक में हर पहल संघ को ही कमजोर कर रही है और राजनीति में हारे आडवाणी को कमजोर भाजपा से ज्यादा मजबूत मान रही है । माना जा रहा है सरसंघचालक भागवत संघ परिवार के इस रिंग में आखरी राउंड दिल्ली में ही खेलेंगे । 28-29 अगस्त को दिल्ली में वह कौन से तरकश के तीर निकालेंगे, नजर सभी की इसी पर हैं, और शायद आडवाणी भी इसी राउंड का इंतजार कर रहे हैं क्येकि इसके बाद भागवत अपने सरकार्यवाह भैयाजी जोशी के साथ संघ की जमीन टटोलना चाहते है और आडवाणी अपने उत्तराधिकारी के लिये रास्ता बनाना चाहते हैं।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-4177597201850054282009-08-18T11:56:00.001+05:302009-08-18T11:58:02.591+05:30संघ के लिये तमाशा है बीजेपी की बैठकजब हेडगेवार और गुरु गोलवरकर के बगैर संघ अपना विस्तार कर सकता है तो वाजपेयी और आडवाणी के बगैर बीजेपी का विस्तार क्यो नहीं हो सकता ? यह सवाल 2005 में आरएसएस की बैठक में एक वरिष्ट्र स्वयंसेवक ने उठाया था । लेकिन चार साल बाद उसी बीजेपी के लिये उसी संघ परिवार का कोई प्रचारक कुछ कहने के लिये खड़ा नहीं हुआ। जब यह सवाल उठा कि बीजेपी को लेकर आरएसएस की दिशा क्या होनी चाहिये । तो क्या नागपुर से डेढ हजार किलोमीटर दूर शिमला में जब बीजेपी अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर चिंतन मनन करेगी तो आरएसएस खामोश ही रहेगी। <br /><br />असल में आरएसएस के भीतर बीजेपी को लेकर जख्म कितने गहरे हो चले हैं, इसका अंदाज इस बात से लग सकता है कि बीजेपी के चिंतन बैठक को लेकर संघ के भीतर एक सहमति बन चुकी है कि यह एक तमाशा है । और अब तमाशे पर आरएसएस अपनी ऊर्जा नहीं खपायेगी । लेकिन तमाशे तक स्थिति पहुंची कैसे और आगे का रास्ता किधर जाता है, इसे लेकर संघ ने पहली बार बीजेपी को लेकर कोई लकीर खिंचने से साफ इंकार कर दिया है। इसलिये यह सवाल जब आरएसएस में कोई मायने नहीं रखता कि लालकृष्ण आडवाणी को सरसंघचालक मोहनराव भागवत ने क्या कहा । तो मोहनराव भागवत के लिये यह कितना महत्वपूर्ण होगा कि वह आडवाणी को कुछ कहें। या कोई निर्देश दें। असल में सरसंघचालक मोहनराव भागवत की पहली जरुरत संघ परिवार का ऐसा विस्तार करना है, जिसमें हर तबके के लोग आरएसएस में अपनी जगह देखें। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि यह रास्ता हिन्दुत्व की जमीन पर रेंगेगा । लेकिन हिन्दुत्व को लेकर मोहनराव भागवत जिस जमीन को बनाना चाहते हैं, उसमें बीजेपी फिट नहीं बैठती। <br /><br />संघ मान रहा है कि हिन्दुत्व की राजनीतिक परिभाषा जिस तरह बीजेपी ने अपने राजनीतिक फायदे के लिये गढ़ी, उससे सबसे ज्यादा नुकसान संघ परिवार का ही हुआ है । बीजेपी ने हिन्दुत्व को एक ऐसा राजनीतिक मुद्दा बना दिया, जिसमें हर तबके के सामने हिन्दुत्व का मतलब बीजेपी के साथ खड़ा होना या ना होना हो गया । यानी जिस हिन्दुत्व को संघ ने सामाजिक जीवन के तौर पर सत्तर साल में बनाया और खुद को स्थापित किया, वहीं हिन्दुत्व अयोध्या आंदोलन के बाद से सत्ता का एक ऐसा केन्द्र बनता चला गया, जिसके आयने में बीजेपी ने संघ को ही उतारने की कोशिश की। बीजेपी की इस राजनीतिक पहल को विश्व हिन्दू परिषद ने भी जमकर हवा दी । विहिप ने झटके में बीजेपी के खिलाफ खड़े होकर संघ परिवार को दोहरा झटका दिया । क्योंकि अयोध्या आंदोलन को लेकर आरएसएस ने ही विहिप को आगे किया लेकिन विहिप के कर्ताधर्ता मोरोपंत ठेंगडी ने पहले आंदोलन को हड़पा फिर राजनीतिक तौर पर बीजेपी और विहिप कुछ उस तरह आमने सामने खड़े हुये, जिससे देश भर में संकेत यही गया कि विहिप की लाइन संघ की लाइन है और बीजेपी संघ के खिलाफ सेक्यूलरइज्म का राग अटल बिहारी वाजपेयी के जरीये गा रही है। <br /><br />उस दौर में सरसंघचालक सुदर्शन थे । जो बीजेपी-विहिप के बीच पुल बनना भी चाहते थे और बीजेपी को राजनीतिक पाठ पढाना भी चाहते थे । इसी पाठ के पहले अध्याय में ही वह वाजपेयी - आडवाणी को रिटायर होने की सलाह दे बैठे । यह तरीका आरएसएस का कभी रहा नहीं है, इसलिये सुदर्शन संघ के इतिहास में सबसे अलोकप्रिय सरसंघचालक साबित हुये । वहीं उस दौर में इन सारी स्थितियों को बारीकी से देख समझ रहे सरकार्यवाह मोहनराव भागवत की हर पहल नागपुर से दिल्ली पहुंचते पहुंचते बीजेपी की गोद में बैठने वाली होती रही, क्योंकि यही वह दौर था जब संघ के स्वयंसेवक देश चला रहे थे। और सरकार चलाते चलाते महसूस करने लगे कि देश आरएसएस से नही बीजेपी से चलेगी। संघ का एक तबका बीजेपी के इस गुरुर के आगे नतमस्तक भी हुआ और संघ-बीजेपी के बीच पुल का काम करने वाले स्वयसेवको को विचारधारा से ज्यादा राजनीतिक सत्ता भाने लगी। ऐसे में हिन्दुत्व का नया पाठ संघ की जगह बीजेपी-विहिप में बंट गया। इसीलिये सरसंघचालक बनने के बाद मोहनराव भागवत ने अपने पहले-दूसरे-तीसरे या कहे अभी तक के एक दर्जन से ज्यादा सार्वजनिक भाषणो में पहली और आखिरी लाईन हिन्दु राष्ट्र को लेकर ही कही। <br /><br />भागवत इस हकीकत को समझ रहे है कि सुदर्शन के दौर में संघ को बीजेपी केन्द्रीयकृत बना दिया गया । इसलिये मोहन भागवत की पहली लड़ाई बीजेपी के राजनीतिक हिन्दुत्व से है, जिसके आइने में पहली बार वह बीजेपी को उतरता हुआ देखना नहीं चाहते है । भागवत हिन्दुत्व का जो पाठ पढाना चाहते हैं उसमें देवरस की समझ भी है और गुरु गोलवरकर का कैनवास भी । हिन्दुत्व के बैनर तले ही देवरस ने वनवासी कल्याण आश्रम की शुरुआत की थी । सही मायने में कांग्रेस के पारंपरिक वोट बैक आदिवासियो में पहली सेंध देवरस की इसी पहल से लगी थी । लेकिन सत्ता में आने के बाद बीजेपी ने कभी जरुरत नहीं समझी कि वह आदिवासियो तो दूर वनवासी कल्याण आश्रम की सुध भी ले। इसी तरीके से हिन्दुत्व के बैनर तले ही 1972 में गुरु गोलवरकर ने ठाणे चितंक बैठक में अन्य पिछडे तबके यानी ओबीसी को संघ के साथ जोड़ने की पहल की। जिसका परिणाम हुआ कि गोपीनाथ मुंडे से लेकर शेवाणकर तक महाराष्ट्र में संघ परिवार से जुडे । और बाद में बीजेपी में । केरल के रंगाहरि को संघपरिवार में कौन नहीं जानता जो केरल से आने वाले ओबीसी ही है । जिन्होने बौघिक प्रमुख की भूमिका को बाखूबी लंबे समय तक निभाया। लेकिन बीजेपी ने राजनीतिक तौर पर ऐसी किसी सोशल इंजिनियरिंग की आहट कभी नहीं दी जिससे यह महसूस हो कि बीजेपी का कैनवास बढ रहा है । <br /><br />दत्तोपंत ठेंगडी ने किसान मंच और स्वदेशी को जिस आंदोलन के साथ खड़ा करने की सोच संघ परिवार के भीतर रखी , संयोग से जब उसमें धार देने का वक्त आया तो बीजेपी की अगुवाई में एनडीए की सरकार सत्ता में आ गयी, जिसने ठेंगडी की समझ को आगे बढाने के बदले आर्थिक सुधार का ट्रैक -2 पकड़ लिया । यशंवत सिन्हा के खिलाफ जब दत्तोपंत खुल कर सामने आए तो सुदर्शन ने ही उन्हे शांत कर दिया। इसी दौर में ट्रेड यूनियन बीएमएस के आर्थिक सुधार के खिलाफ खड़े होने के फैसले को भी संघ ने ही हाशिये पर ढकेल दिया । और सबकुछ पटरी पर लाने की बात कहने वाली बीजेपी ने गठबंधन की मजबूरी दिखा कर खुद को संघ से अलग कर लिया । इसलिये मोहनराव भागवत एक साथ दोहरी चाल चलने से भी नहीं कतरा रहे है । <br /><br />यह पहला मौका है कि सरसंघचालक और सरकार्यवाह दोनो नागपुर से निकले हुये है । दोनो को नागपुर में ही बैठना है । और दोनो की कोई राजनीतिक जरुरत नहीं है । मोहनराव भागवत और भैयाजी जोशी ने संघ परिवार के भीतर अपनी नयी पहल से इसके संकेत दे दिया है कि उनके लिये हिन्दुत्व मायने रखता है लेकिन हिन्दुत्व के आसरे कद बढाने वाली बीजेपी और विहिप मायने नहीं रखती । इसकी पहली पहल नये संगठन हिन्दु धर्म जागरण के जरीये मोहन भागवत ने शुरु की है । असल में धर्म जागरण को खड़ा कर विहिप को ठिकाने लगाने या कहे हाशिये पर ढकेलने का काम आरएसएस ने शुरु किया है । देश के हर हिस्से में संघ के प्रचारको को ही धर्म जागरण का काम आगे बढाने के लिये लगाया गया है । खास बात है कि पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन को भी जो नया काम सौपा गया है उसे भी धर्म जागरण के ही इर्द - गिर्द मथा गया है । मसलन भोपाल में सुदर्शन की नयी जगह निर्धारित की गयी है, जहां से वह देश भर का भ्रमण कर धर्माचार्यो और धर्मावलंबियो से मिलकर आरएसएस के हिन्दुत्व की दिशा में मजबूती देगै और धर्म जागरण के कार्यो में सीधा योगदान देकर इस नये संगठन को सामाजिक मान्यता दिलायेगे । <br /><br />खास बात यह भी है कि संघ धर्म जागरण के जरीये अयोध्या आंदोलन को नये तरीके से परिभाषित करना चाहता है । जिसका पहला निशाना अगर विहिप बनेगा तो दूसरा निशाना बीजेपी की हिन्दुत्व राजनीति पर होगा । क्यो कि संघ का मानना है कि अयोध्या के जरीये विहिप ने उसी उग्र सोच को आगे बढा दिया जिस लकीर पर कभी हिन्दु महासभा चला थी । जबकि बीजेपी ने अयोध्या के जरीये वोट बैंक की ऐसी राजनीति को आगे बढाया जिसमें अयोध्या हिन्दुत्व से ज्यादा सत्ता का प्रतीक बन गया । असल में मोहन भागवत की रणनीति हिन्दुत्व को लेकर एक ऐसी बड़ी लकीर खींचने वाली है, जिसे राजनीतिक तौर पर बीजेपी कभी हथियार ना बना सके । क्योंकि चुनाव से ऐन पहले भी अयोध्या जिस तरह बीजेपी के चुनावी मैनिफेस्टो का हिस्सा बन गया उसके बाद कोई ठोस समझ पूरे चुनाव में आडवाणी के जरीये नहीं उभरी उससे संघ के भीतर इस बात को लेकर ज्यादा कसमसाहट है कि सत्ता का प्यादा बने अयोध्या ने बीजेपी के भीतर संघ के स्वयसेवको को भी सत्ता का केन्द्र बना दिया है । यानी आडवाणी इसीलिये मान्य है क्योकि वह सबसे बुजुर्ग स्वयसेवक है । राजनाथ सिंह इसीलिये अध्यक्ष के तौर पर मान्य है क्योकि वह आडवाणी के खिलाफ संघ के प्यादे के तौर पर खडे है । यानी संघ भी बीजेपी के भीतर सत्ता का केन्द्र बना दिया गया है । <br /><br />ऐसी स्थिति में बीजेपी को लेकर कोई भी सवाल अगर आरएसएस करती है तो उसका लाभ - घाटा भी उन्ही नेताओ के इर्द-गिर्द सिमट जायेगा जो प्रभावी है , लेकिन संघ का नाम जपने के अलावे यह प्रभावी स्वयसेवक कुछ करते नहीं है । बीजेपी को लेकर संघ के भीतर किस तरह की खटास है इसका एहसास इससे भी किया जा सकता है कि नागपुर में स्वयसेवक गुरु गोलवरकर की जनसंघ को लेकर की गयी टिप्पणी को दोहराने लगे है । जनसंघ बनने के बाद जब गोलवरकर के सामने यह सवाल उभारा गया था कि राजनीतिक तौर पर मजबूत जनसंघ के स्वयसेवक के सामने आरएसएस के मुखिया का प्रभाव कितना मायने रखेगा तो गोलवरकर ने सीधा जबाब दिया था कि जनसंघ हमारे लिये गाजर की पूंगी है, बज गयी तो बज गयी..नहीं तो इसे खा जायेगे । नयी परिस्थितियों में यह आवाज संघ के भीतर बीजेपी को लेकर हो सकती है लेकिन सरसंघचालक और सरकार्यवाह यानी मोहन भागवत और भैयाजी का रुख बीजेपी को लेकर बिलकुल अलग है । दोनों के ही करीबी स्वयसेवकों की मानें तो जिन परिस्थितयों में पिछले दस साल के दौर में संघ कमजोर हुआ, वहीं स्थितियां बीजेपी के साथ भी रहीं । पार्टी और संगठन की मजबूती का आधार उसी कमजोर होते संघ को बनाया गया जिसे राजनीतिक सत्ता के लिये स्वयसेवकों ने ही दफन करने की कोशिश की। <br /><br />ऐसे में अगर आरएसएस यह सोच भी ले कि वह पद ना छोडने वाले लालकृष्ण आडवाणी को हटाने में भिड जाये तो आडवाणी के हटने के बाद भी बीजेपी को कौन ढोएगा । तब संघ की समूची ऊर्जा तो बीजेपी को संभालने में ही लग जायेगी । क्योंकि वहा सत्ता महत्वपूर्ण हो गयी है । विचारधारा या संगठन का विस्तार नहीं । इसका असर किस रुप में बीजेपी के भीतर पड़ रहा है, यह बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के जरीये समझा जा सकता है । स्वयसेवकों का मानना है कि संघ के आशिर्वाद से ही राजनाथ सिंह अध्यक्ष बने , यह सच है। लेकिन बतौर अध्यक्ष अगर उनकी मौजूदगी पार्टी में रही ही नहीं , या कहे वे बे-असर हो गये, तो इसमें संघ क्या कर सकता है । लेकिन यही परिस्थितयां बताती हैं कि बीजेपी की अंदरुनी हालत क्या है, इसलिये बीजेपी का चितंन शिविर बीजेपी के लिये नही बल्कि नेताओ को स्थापित करने के लिये है, जो पटरी से फिसल रहे है । <br /><br />चूंकि आलम यह है कि सभी अपनी अपनी राह पकडे हुये है । बीजेपी अध्यक्ष को जो चुनौती दे देता है वह मजबूत लगने लगता है । जो प्रभावी और नीतिगत फैसले लेने वाले है वह अपनी भूमिका पार्टी से हटकर, पार्टी को सत्ता में लाने की जोड-तोड में अगुवा नेता के तौर पर देखते है । यानी एक तरफ जोड-तोड़ की राजनीतिक सत्ता के लिये विचारधारा और पार्टी संगठन को भी सौदेबाजी में लगाते हैं, और दूसरी तरफ परिणाम अनुकूल नहीं होता तो हर जिम्मदारी से बच निकलना भी चाहते है । ऐसे में संघ ने अब बीजेपी को पार्किग जोन में खड़ा कर खुद को मथने का रास्ता अपनी शर्तो पर चुना है, इसलिये शिमला से बीजेपी चाहे कोई भी नारा लेकर निकले लेकिन पहली बार आरएसएस के लिये बीजेपी का चिंतन बैठक तमाशे से ज्यादा कुछ नहीं है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-81037915015762994632009-06-12T07:18:00.000+05:302009-06-12T07:18:00.430+05:30बीजेपी के ग्राउंड जीरो पर मोदी-आडवाणीजिस युवा राजनीति का सवाल कांग्रेस के भीतर उफान पर है, वह उफान ‘हिन्दुत्व की प्रयोगशाला’ के राज्य गुजरात में बीजेपी के गढ़ राजकोट में अर्से से है। राजकोट में कम्प्यूटर साइंस से लेकर बिजनेस मैनेजमेंट और मेडिकल से लेकर बीपीओ से जुडा युवा तबका बीजेपी का झंडा उठाने से नही चूकता लेकिन लहराते झंडे में संघ की वैचारिक समझ देखना चाहता है। आरएसएस की इस राजनीतिक ट्रेनिंग का असर कमोवेश समूचे सौराष्ट्र में है। इसका केन्द्र राजकोट है और वजह भी यही है कि बीजेपी ने कभी राजकोट सीट नहीं गंवायी। <br /><br />लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी राजकोट में कांग्रेस से हार गयी। बीजेपी के युवा कार्यकर्त्ताओ की माने तो बीजेपी कांग्रस से नहीं बीजेपी के कांग्रेसीकरण से हार गयी। और सौराष्ट्र में बीजेपी का मतलब है नरेन्द्र मोदी। तो पहली बार गुजरात में संघ और बीजेपी के भीतर यह सवाल जोर-शोर से कुलबुला रहा है कि नरेन्द्र मोदी का भी कांग्रेसीकरण तो नहीं हो रहा है?<br /><br />कांग्रेसीकरण का सवाल चुनाव को लेकर बनायी गयी रणनीति और चुनाव के बाद देश की राजनीति में मोदी की अपनी भूमिका के तौर तरीको को अपनाने से है। सौराष्ट्र में बीजेपी और आरएसएस ही नहीं किसी भी तबके के बीच बैठते-घूमते हुये कोई भी नरेन्द्र मोदी की गैर मौजूदगी में भी मोदी का एहसास कर सकता है। द्वारका में द्वारकादीश मंदिर के बाहर मनीष की पान की दुकान हो या पोरबंदर में गांधी के जन्मस्थल वाले मोहल्ले में दिनेश सर्राफा की दुकान या फिर सोमनाथ में सोमेश का एसटीडी बूथ...हर जगह नरेन्द्र मोदी के साथ अपनी तस्वीर को दुकान में चस्पा कर दुकानदार गर्व भी महसूस करता है और सामाजिक अकड़ भी दिखाता है।<br /><br />युवा तबका मोदी के साथ तस्वीर खिंचा कर अपने घेरे में अपनी अकड दिखाने से नही चूकता तो बच्चे और महिलाएं मोदी के हस्ताक्षर लेकर मोदी की नायक छवि को बरकरार रखते हैं। नायक की यह छवि मोदी की किस्सागोई से भी जुड़ चुकी है। मसलन सड़क से गुजरता मोदी का काफिला आम लोगो की आवाजाही नहीं रोकता। सडक पर कोई दुर्घटना हो तो लोगो की आवाजाही चाहे जारी रहे लेकिन मोदी का काफिला रुक जाता है और घायलों का कुशलक्षेम पूछ कर ही आगे बढ़ता है। मोदी की लोकप्रियता का यह अंदाज मोदी को आरएसएस की उस राजनीतिक ट्रेनिंग से अलग खड़ा करता है, जिसमें वैचारिक शुद्दता के साथ आदर्श समाज की परिकल्पना हो। जिसमें संगठन और हिन्दुत्व समाज का भाव हो। ऐसा नहीं है कि अपनी लोकप्रियता को इस तर्ज पर देखने के लिये मोदी ने कोई खास रणनीति अपनायी। असल में आरएसएस की राजनीतिक ट्रेनिंग और बीजेपी की राजनीति ने जहां दम तोडा, वहां नयी पीढी और आर्थिक सुधार के बाद बनते नये सामाज की जरुरतों को मोदी ने थामा । इसलिये मोदी का संकट दोहरा हो गया। एक तरफ मोदी की प्रयोगशाला में संघ ने भी खुद को झोंका और रास्ता न पाकर बीजेपी भी नतमस्तक हुई। वहीं, दूसरी तरफ इस प्रयोगशाला की हर कैमिकल थ्योरी मोदी ही रहे तो मोदी को देखने का नजरिया भी हर तबके ने अपने अपने तरीके से अपनाया। किसी के लिये मोदी हिन्दुत्व का झंडाबरदार रहे तो किसी के लिये विकास का प्रतीक तो किसी के लिये बालीवुड के नायक सरीखे हो गये। <br /><br />इस अंदाज ने मोदी को भी बरगलाया। जिन्हें टिकट दिया गया, उनका वास्ता संघ से रहा नहीं और सामाजिक पहचान बीजेपी के बीच की है नहीं। हां, बाजार और पूंजी से पहचान बनाने वाले बीजेपी के उन समर्थको को मोदी ने न सिर्फ टिकट दिया बल्कि गुजरात बीजेपी में उनकी राजनीतिक हैसियत भी बढ़ायी। राजकोट के उम्मीदवार किरण पाटिल इस सोच के प्रतीक हैं, जो पैसे के बूते बीजेपी का टिकट तो पा गये लेकिन बीजेपी के भीतर ही वोट ना मिलने से हार गये । असल में आरएसएस ने गुजरात में जो राजनीतिक ट्रेनिंग दी, उसमें हर जिले में ऐसे पैसे वालों की भरमार है, जो संघ या बीजेपी की कार्यशाला या बैठकों को सफल बनाने के लिये हर तरीके से भौतिक इंतजाम करते रहे हैं। <br /><br />मोदी ने पूंजी और राजनीति को मिलाकर उन्हें ही राजनीतिज्ञ बना दिया, जो कल तक पार्टी के इंतजाम का खर्चा उठाते-देखते थे । बीजेपी के इन नये कर्ताधर्ता के राजकरण के तौर तरीके कांग्रेसी सरीखे हैं। जिसमें आरएसएस की सामाजिक सोच नहीं बल्कि सत्ता बनाये रखने के तौर तरीके चलते हैं। यह तरीके बीजेपी के नेता और कार्यकर्ता के बीच खायी लगातार चौड़ी भी करते जा रहे हैं। कार्यकर्ता की समझ या उसके सुझाव या उसकी जरुरत लोकप्रिय मोदी स्टाइल के आगे कोई मायने नहीं रखते क्योकि कार्यकर्ता जहां के सवाल खड़ा करता है, वहां से या तो मोदी सीधा संपर्क बनाने की दिशा में हीरो की तरह जाते हैं.या अपने नये राजनीतिक करिन्दो के जरीये राजनीति टटोलते हैं। यह स्टाइल मोदी को घेरे समूह में भी है। यानी मोदी जैसा ही उसे घेरे लोग भी बनना-दिखना चाहते हैं। तो हर का वास्ता स्टाइल से होता है ना कि मोदी से। <br /><br />कल तक जो घन्नसेठ फक्कड और मुफलिस संघी स्वसंसेवक या बीजेपी नेता को अपने घर में ठहरा कर भोजन करा कर घन्य समझता था, वही सेठ नेता बनने के लिये अब जोड-तोड़ भी कर रहा है और वैचारिक तौर पर खुद को ज्यादा समझदार नेता भी मान रहा है और फक्कड-मुफलिस संघी को बाहर से ही बाहर का रास्ता दिखाने से नहीं चूक रहा। चूंकि मोदी ही सर्वसर्वा हैं और उन तक सीधी पहुंच उस तबके की है तो वह भी कार्यकर्ता-नेता को कुछ नहीं समझता। चूंकि दंगों से उपजी हिन्दुत्व प्रयोगशाला का पाठ बीजेपी की राजनीति के लिये ज्यादा देर तक फायदेमंद हो नही सकता है, इसलिये बीजेपी से पहले मोदी ने ही नये राजधर्म के नये-नये तौर तरीके अपनाये । जिससे 2002 की पहचान का तमगा ही छाती पर न टंगा रहे । इसलिये 2009 तक आते आते मोदी ने विकास का खांचा उस नयी अर्थव्यवस्था के ही इर्द-गिर्द ही रचा, जिसके खिलाफ स्वदेशी जागरण मंच काम करता रहा है। जिसमें वैकल्पिक आर्थिक खांचा खड़ा कर स्वावलंबन का सवाल है। खेती और उघोगों के सामानांतर समाज के हर तबके को भी एक साथ खड़ा करने का सवाल है । वहीं, मोदी के अंदाज ने सौराष्ट्र के एनआरआई समेत उस क्रीम तबके को पकड़ा, जिसकी जरुरत विकास का इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने की थी । जिसके लिये वह फंडिंग के लिये भी तैयार है। <br /><br />मोदी ने उघोगोपतियो को रिझाने के लिये सौराष्ट्र की जमीन का एनओसी खुद ही बांटे। उघोगों के लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करने का जिम्मा भी खुद उठाया। उघोगों तक बेहतरीन सड़क बनाने की रफ्तार भी अपने हाथ में रखी। भ्रष्टाचार या कमीशनखोरी के बंदरबांट को सीधे सत्ता से जोडा। और सत्ता को भी इस तबके ने हिस्सेदारी दे दी। इसका बेहतरीन उदाहरण पोरबंदर में देखा जा सकता है, जहां सबसे ज्यादा एनआरआई हैं। तो पोरबंदर जिला भी है और औघोगिक विकास की नगरी भी। बडे किसान भी है और किसान-व्यापारी मोदी स्टाइल के प्रतीक भी हैं। असल में नरेन्द्र मोदी राजनीति एक स्टाइल है, जो गुजरात में पांच करोड़ गुजरातियों का नाम तो लेता है लेकिन सामाजिक तौर पर महज पचास लाख गुजरातियों के जरीये बाकियों को इस स्टाइल को अपनाने पर ही टिका देता है। ऐसे में सत्ता की कार्यप्रणाली भी संगठन से इतर इसी स्टाइल पर आ टिकी है जो व्यक्ति विशेष को देखती है न कि किसी विचारधारा या सांगठनिक तौर-तरीको को। <br /><br />मोदी स्टाइल सत्ता बरकरार रखने का एक ऐसा तरीका है, जो पार्टी या विचारधारा से हटकर एक तबके को मुनाफे की थ्योरी समझाता है तो दूसरे तबके को मुनाफे में हिस्सेदारी के लिये लालायित करता है। जो बच जाते हैं, उन्हे संभावना और आशंका के बीच तब तक झूलाता है ज बतक उसपर कोई और राजनीति अपना मुलम्मा ना चढ़ा ले। राजनीतिक तौर पर बीजेपी के लिये यह शार्टकट का रास्ता हो सकता है लेकिन पांच करोड गुजरातियों और सवा सौ करोड़ भारतीयों के अंतर को समझना होगा, जो ना तो बीजेपी समझ पायी न ही लाल कृष्ण आडवाणी समझ पा रहे है। <br /><br />सत्ता का रास्ता बीजेपी के लिये तभी तक मान्य है, जबतक वह कांग्रेस की बनायी लीक का विकल्प दे सके। असल में बीजेपी सत्ता के लिये अपनी उस लकीर को ही मिटाना चाह रही है, जो कांग्रेस की राजनीति से अलग बन रही थी। कांग्रेस के एनजीओ स्टाइल के सामानांतर संघ के करीब चालीस संगठन और को-ओपरेटिव व्यवस्था का जो खांचा बीजेपी को राजनीतिक लाभ पहुचा सकता था, उसे बीजेपी ने खुद ही तोडा । हिन्दुत्व की प्रयोगशाला या मंदिर निर्माण कांग्रेस की राजनीति का विकल्प नहीं हो सकते बल्कि सामाजिक तौर पर भावनात्मक उभान जरुर पैदा कर सकते हैं। लेकिन इस उभान का राजनीतिक लाभ तभी मिल सकता है, जब सामाजिक तौर पर वैकल्पिक राजनीति की जमीन हो। असल में भगवा कांग्रेसीकरण ने इसी जमीन को हड़पा है। जिसमें गुजरात में मोदी हो या दिल्ली में आडवाणी दोनो ने विकल्प का सारा ताना-बाना खुद के ही हर्द-गिर्द बुनने की जबरन कोशिश की है। <br /><br />इस हकीकत को कोई समझ नही पा रहा है कि आरएसएस अगर खुद को सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन कहता है तो उसका राजनीतिक पाठ समाजिक शुद्दीकरण और सांगठनिक विचार को ही राजनीतिक सत्ता मानता है। जो कांग्रेस की संसदीय राजनीति की थ्योरी से हटकर है । इसलिये संघ का वोट बैंक भगवा कांग्रेसीकरण यानी बीजेपी का वोटबैंक नही हो सकता। इसलिये सवाल यह नहीं है कि आडवाणी हार गये है और मोदी भी उसी राह पर हैं। बड़ा सवाल यह है कि एक तरफ कांग्रेस है तो दूसरी तरफ संघ । वाजपेयी ने संघ की समझ को सूंड से पकड कर सत्ता भोगी और आडवाणी ने संघ की समझ को पूंछ मान कर खुद को ही मजबूत नेता माना । राजकोट की हार बताती है कि मोदी भी इसी राह पर है। लेकिन बीजेपी के ग्राउंड जीरो पर खडे होकर महसूस किया जा सकता है कि भविष्य का सवाल बीजेपी की राजनीति या मोदी की राह की नहीं बल्कि आरएसएस के आस्तित्व का है । जिसका नया पाठ मुद्दा के आसरे राजनीति को खडा करना है ना कि राजनीति के आसरे मुद्दो को ताड़ना । <br /><br />(गुजरात से लौटकर)Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-36565957101653932062009-05-09T10:01:00.000+05:302009-05-09T10:01:00.723+05:30मोदी पर एसिड़ टेस्ट का वक्त आ गया हैगुजरात दंगों की सुनवायी गुजरात में ही कराने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से किसी की आंखो में सबसे ज्यादा चमक आयी होगी तो वह नरेन्द्र मोदी ही होंगे । दंगों के बाद मोदी ने जिस तरह समाज में खिंची लकीर का राजनीतिकरण किया, उसमें चुनावी जीत बीजेपी को नहीं मोदी को मिली। सात साल में मोदी ने जिस गुजरात की अस्मिता को हवा दी, उसमें मोदी की पहचान राष्ट्रीय नेता की जगह एक ऐसे कद्दावर क्षेत्रिय नेता के तौर पर उभरी, जिसके बगैर बीजेपी अधूरी है। बीजेपी के इसी अधूरेपन का लाभ मोदी को मिला और अपनी बनायी राजनीतिक जमीन पर ही मोदी ने सारे प्रयोग किये । इसलिये मोदी का कोई प्रयोग गुजरात की सीमा के बाहर नहीं निकला। <br /><br />राष्ट्रीय राजनीति में मोदी का प्रयोग उस एनडीए के भीतर भी स्वीकार नहीं हुआ, जिसकी अगुवाई बीजेपी कर रही है। यानी मोदी सफल और चपल नेता अगर दिखे तो गुजरात के भीतर ही। मोदी के इसी मोदीत्व ने कांग्रेस के लिये ऑक्सीजन की तरह काम किया। मोदी का ऑक्सीजन सिलेन्डर कांग्रेस को 28 फरवरी 2002 को मिला। इससे पहले के दस साल में कांग्रेस के लिये लालकृष्ण आडवाणी का राम मंदिर प्रेम ऑक्सीजन की तरह काम कर रहा था। 1992 से 2002 तक बाबरी मस्जिद-अयोध्या की राजनीति ने कांग्रेस-बीजेपी के जरिए समाज के भीतर जो लकीर खींची. उसमें सत्ता किसी को भी मिली लेकिन नुकसान दोश को ही उठाना पड़ा। मगर 2002 को गुजरात में जो हुआ उस लकीर को गुजरात से उठाकर देश के भीतर खींचने का राजनीतिक प्रयास चौतरफा हुआ। <br /><br />दंगो का सकारात्मक-नकारात्मक लाभ राजनीति ने जी भर के उठाया लेकिन नायक -खलनायक की तस्वीर नरेन्द्र मोदी के ही साथ जुड़ी। कह सकते हैं मोदी चाहते भी यही होंगे । लेकिन जिस तरह आडवाणी ने जिन्ना प्रकरण के जरिए संघ परिवार को झटका देकर खुद को उस राष्ट्रीय राजनीति में मान्य कराने की पहल शुरु की, वो वाजपेयी की जगह भरने की जद्दोजहद थी, जो वाजपेयी के दौर में आडवाणी को असल चेहरा माने हुये थी। ऐसे में सवाल उठा कि क्या सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी मोदी को गुजरात की सीमा से बाहर स्थापित होने का जरीया तो नहीं बनेगा। देश की कमान संभालने के लिये जो राष्ट्रीय राजनीति देश में चल निकली है, उसमें कांग्रेस को बीजेपी के भीतर कट्टर हिन्दुत्व का एक ऐसा चेहरा चाहिये ही, जिसके मुंह में खून लगा हुआ हो। वहीं बीजेपी को अपने भीतर ऐसा कोई नेता चाहिये ही, जो संगठन को जयश्रीराम के नारे तले जोड़े लेकिन गठबंधन के सामने उसका चेहरा श्रीमान वाला ही हो। <br /><br />जिस वक्त लोहिया गैर कांग्रेसवाद का नारा लगा रहे थे, उस वक्त जनसंघ में दीनदयाल उपाध्याय ऐसा ही चेहरा थे। इसलिये 1963 के उपचुनाव में लोहिया ने जनसंघ के दीनदयाल जी को जौनपुर से लड़वाया । उस दौर में बलराज मधोक कट्टर चेहरा थे। लेकिन जब मधोक सॉफ्ट हुये तो उस समय वाजपेयी का चेहरा कट्टर हो चुका था । लेकिन जेपी के दौर में वाजपेयी ने राष्ट्रीय राजनीति की लकीर को पकड़ा और सॉफ्ट होते गये तो आडवाणी कट्टर चेहरे के तौर पर उभरे। लेकिन वाजपेयी काल खत्म होते ही आडवाणी को मोदी सरीखा चेहरा मिल गया तो श्रीमान का मुखौटा खुद-ब-खुद आडवाणी के चेहरे पर लग गया। <br /><br />लेकिन गुजरात दंगों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने एक साथ कई अंतर्विरोध को उभार दिया है। मोदी का सबसे बडा संकट यही रहा है कि गुजरात के विकास मॉडल से लेकर आंतकवाद के खिलाफ उनकी आवाज में दंगों की गूंज कुछ इस तरह समायी रही कि गुजरात में वह तानाशाह लगे तो गुजरात से बाहर अलोकतांत्रिक नेता। यानी हर प्रयोग के पीछे दंगों के दर्द पर सत्ता का आंतक ही उभरा। जिस लोकतांत्रिक मूल्यों की बात संसदीय राजनीति करती है, उसमें मोदीत्व ने कील ठोंक कर एहसास कराया कि मूल्यो को पालने का मतलब अपना राजनीतिक जनाजा उठाना है। लेकिन अब गुजरात में दंगों की सुनवायी फास्ट ट्रैक अदालतों में शुरु होते ही अगर यह राजनीतिक संकेत मिलने लगें कि मुक्तभोगियों को न्याय मिल रहा है। तो क्या नरेन्द्र मोदी का चेहरा बदलने लगेगा। पांच करोड़ गुजरातियों में अल्पसंख्यकों के लिये भी न्याय मौजूद है, अगर संवाद दिल्ली तक होता है तो कांग्रेस को ऑक्सीजन कहां से मिलेगा। कांग्रेस के लिये मोदी सरीखा ऑक्सीजन कितना जरुरी है, यह गुलबर्गा सोसायटी में कांग्रेसी सांसद एहसान जाफरी समेत 70 लोगो के मामले तले देखा जा सकता है। जिस पर पुलिस ने कभी मुकदमा दर्ज नहीं किया और कांग्रेस ने कभी मुकदमा दर्ज कराने की पहल नहीं की। <br /><br />सोनिया गांधी इस दौर में तीन बार अहमदाबाद के इस इलाके में गयीं, लेकिन कांग्रेसी सांसद एहसान जाफरी की विधवा जाकिया जाफरी से उसके घर पर जाकर मिलने की जरुरत नहीं समझी। कांग्रेस का सॉफ्ट हिन्दुत्व इससे डगमगा सकता था। इसे कांग्रेस के सलाहकारो ने समझा। लेकिन एसआईटी की रिपोर्ट ने ही जब गुजरात में न्याय न मिल पाने के तर्क को खारिज किया तो सवाल फिर उसी राजनीतिक ऑक्सीजन का उठा, जो मोदी के जरिए कांग्रेस को मिलता। ऐसे में सिटिजन फॉर जस्टिस ऐंड पीस ने जाकिया जाफरी के जरीये गुलबर्गा सोसायटी की याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की, जिससे मोदी एक बार फिर संदेह के घेरे में आ गये। यानी गुलबर्गा को लेकर संदेह और गुजरात में न्याय मिलने को लेकर लाभ की गोधारी लकीर मोदी को लेकर चार दिनो के बीतर उभर गयी। असल में राजनीति का यही अंतर्विरोध कांग्रेस को भी चाहिये और बीजेपी को भी । क्योकि मोदी की पहल दंगों के बाद गुजरात में जो रही, उसमें कांग्रेस-बीजेपी दोनो ने निर्णय कभी नहीं दिया। दोनों ने मोदीत्व का खेल ही खेला। <br /><br />सवाल है कि जिस तर्ज पर सैकडों मंदिरो को अपने काल में ही गिरा कर सड़क चौड़ी और शहर खूबसूरत बनाने की प्रक्रिया मोदी ने शुरु की, क्या उसी अंदाज में दंगाइयों को सजा दिलाने की दिशा में मोदी बढ़ पाएंगे । जब सडक़ों के किनारे के मंदिर गिराये जा रहे थे तो विश्व हिन्दु परिषद समेत तमाम हिन्दुवादी संगठनो में खासा आक्रोष था। इसकी शिकायत आरएसएस से भी हुई । मोदी को इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा। लेकिन उस दौर में संघ के भीतर भी खटपट कहीं ज्यादा थी और मोदी का कद गुजरात में बीजेपी से कही बड़ा हो चुका था, इसलिये उन्हे कोई छू न सका लेकिन उस दौर में कांग्रेस खामोश रही। मोदी की वजह से बीजेपी छोड़ कांग्रेस में आये शंकर सिंह बधेला भी चौंके थे कि मंदिर कैसे गिर रहे हैं। उन्हें कहना पड़ा कि मोदी बिल्डरों और कोरपोरेट की सुविधा-असुविधा देख रहे हैं। <br /><br />सवाल है क्या दंगो पर न्याय की तलवार अगर मोदी चलवाने में मदद करते है तो कांग्रेस फिर खामोश रहेगी या वह कट्टर हिन्दुत्व को उकसायेगी । जिससे उसे राजनीतिक ऑक्सीजन मिलती रहे । मोदी यह कर नहीं सकते है, इसे कोई भी कांग्रेसी खुल कर कह सकता है। लेकिन मोदी की खुद पर की गयी पहल पर गौर करे तो कई सवालो के जबाब खुद-ब-खुद मिलेंगे। मसलन 2001 में पहली बार मुख्यमंत्री की शपद लेने के बाद अपने कंधो का सहारा देकर मोदी केशुभाई पटेल को लेकर मंच पर पहुंचे थे। आज केशुभाई का नाम लेना भी मोदी के सामने किसी भी बीजेपी नेता को खुद को मुशकिल में डालने वाला साबित होगा। दंगों के बाद जिन अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें राजधर्म का पाठ पढ़ने का वक्तव्य दिया, वही वाजपेयी 2002 में चुनाव में जीत के बाद मोदी के साथ मंच पर खडे होकर मोदी की पीठ थपथपा रहे थे । साथ में आडवाणी भी मंच पर मंद मंद मुस्कुरा रहे थे। वही मोदी जब 2007 में तीसरी बार चुनाव जीत कर मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे थे तो मंच पर सिर्फ वही थे। निरे अकेले । बाद में आडवाणी-राजनाथ के साथ स्टेडियम का चक्कर जरुर गाड़ी पर सवार होकर लगाया। यानी मोदी इस हकीकत को असलियत का जामा पहनाते गये कि कद तभी बढ़ सकता है, जब कदवालो को दरकिनार कर अपनी जमीन पर अपना कद मापने की व्यवस्था हो। इसलिये राजनीतिक तौर पर जो प्रयोग केन्द्र में होने थे, मोदी ने उसे गुजरात में किया। <br /><br />हर उस मुद्दे को गुजरात की जमीन पर आजमाया, जो देश के सामने बड़ा होता जा रहा । मनमोहन की न्यू-इकनॉमी में वाइब्रेंट गुजरात । वामपंथियो की जनवादी कार नैनो का अपहरण । आंतकवाद के दर्द का खांटी इलाज । बिहारी और मराठी मानुस में क्षेत्रिय राजनीतिक दलों के सन आफ सॉयल की लड़ाई के बीच गुजराती अस्मिता का वैभव। यानी मोदी ने राजनीतिक काट हर तबके को दी, लेकिन सीमा गुजरात में ही बांधी रही। लेकिन इस बार सवाल कही बड़ा है । नरेन्द्र मोदी का नाम कारपोरेट जगत से लेकर उनकी अपनी पार्टी के भीतर से पीएम बनने की काबिलियत रखने वाले नेता के तौर पर उठा है। वह भी उस दौर में जब आडवाणी पीएम बनने को बेताब खड़े हैं। कांग्रेस पूंजी का नशा पैदा कर मध्यम वर्ग को डरा रही है कि मनमोहन के पीएम न बनने का मतलब है, मंदी के गर्त में डूबते चले जाना। और कम से कम आधे दर्जन दूसरे नेताओ को लगने लगा है कि राजनीतिक सौदेबाजी में चुनाव परिणाम उन्हे पीएम की कुर्सी तक पहुंचा सकते हैं। <br /><br />ऐसे में नरेन्द्र मोदी को लेकर अगर सुप्रीम कोर्ट का फैसला बीजेपी के चश्मे से ही देखा जाये कि मोदी की प्रशासनिक काबिलियत में सुप्रीम कोर्ट का भरोसा जगा है, इसलिये दंगो पर न्याय करवाने का जिम्मा सौपा गया । तो सवाल उस मोदी का ही उठेगा, जिसने भरोसा डिगाकर मोदीत्व पैदा किया और कांग्रेस के लिये ऑक्सीजन का काम किया। अगर मोदी ऑक्सीजन नहीं है और बीजेपी के चश्मे के पीछे की आंख नहीं है, तो फिर मोदी की जरुरत बीजेपी या कांग्रेस को कितनी होगी। और जो चमक अभी मोदी की आंखो में दिखायी दे रही है, वह कब तक कायम रह पायेगी । <br /><br />बड़ा सवाल यही है कि इस सवाल का जबाब बीजेपी और कांग्रेस को एक सरीखा चाहिये जो पहली बार मोदीत्व तले नहीं मिल रहा । इसलिये नयी लडाई बीजेपी को कांग्रेस से भी लड़नी है और आरएसएस से भी । यह नयी लड़ाई क्या गुल खिलायेगी....कुछ इंतजार करना होगा ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-45507768290920025432009-04-01T09:45:00.000+05:302009-04-01T09:45:00.191+05:30क्या वरुण गांधी एक नयी राजनीति के संकेत हैं?राहुल गांधी से दस साल कम उम्र के वरुण गांधी हैं। लेकिन दोनों ने कमोवेश राजनीति में एक ही वक्त कदम रखा। राहुल चुनाव लड़कर संसद पहुंच गये लेकिन वरुण गांधी उस दौर में सरसंघचालक सुदर्शन के साथ एक मंच पर बैठकर अपने राजनीतिक इरादों को हवा देते रहे। राहुल को सोनिया ने अमेठी लोकसभा विरासत में दी तो वरुण को पीलीभीत सीट मेनका गांधी ने। राहुल जिस दौर से राजनीतिक उड़ान की शुरुआत करते हैं और दलितों-पिछडों के घर रात बिताने से लेकर कलावती में विकास का अनूठा सच टटोलना चाहते हैं, उस दौर में वरुण कागज पर अपने दर्द को कविता की शक्ल देकर प्रिंस आफ वाड्स यानी जख्मों का राजकुमार रचते हैं। <br /><br />वह लिखते हैं- मैं मानता हूं /मै अपने पाप के साथ थोड़ी सी मुहब्बत में हूं/ क्योंकि मैं भटका हुआ हूं / इसलिये मुझे बताया गया है / सोचो मत सिर्फ देखो / चलना ही रास्ता दिखायेगा / इसलिये वहां कोई जवाबदेही नहीं है / एक अजनबी सिर्फ पीड़ित है / जिससे तुम कभी मिले नहीं..... तो क्या पीलीभीत में चली उन्मादी हवा ने पहली बार वरुण और राहुल को आमने सामने ला खड़ा किया है। बेटे की रक्षा के इरादे से पीलीभीत पहुंच कर मेनका गांधी कभी गांधी परिवार की दुहायी नहीं देती। वह खुद को सिख परिवार का बता कर हिन्दुओं की रक्षा का सवाल खड़ा करती हैं । ताल ठोंक कर वरुण के बयान को हिन्दुओं की रक्षा से जोड़कर छुपे संकेत भी देती हैं कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद चाहे बरगद गिरा हो लेकिन मेनका हिन्दुत्व की जमीन पर इंदिरा की हत्या के बाद सिखों के खिलाफ भड़के दंगो पर मलहम लगाने को भी तैयार हैं। <br /><br />तो क्या राहुल-वरुण से पहले सोनिया-मेनका आमने सामने खड़ी हैं? सोनिया गांधी जब कांग्रेस में ही नहीं बल्कि सहयोगियों को खारिज कर राहुल के लिये एक नयी राजनीतिक बिसात बिछाने की तैयारी में है तो क्या मेनका गांधी वरुण के जरीये देश को यह एहसास कराना चाहती है कि इंदिरा-नेहरु की असल विरासत उनके परिवार से जुड़ी है। पीलीभीत के राजनीतिक समीकरण साफ बताते है कि वरुण वहां ना भी जाये तो भी उन्हें चुनाव में जीत हासिल करने में कोई बड़ी मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी। तो क्या वरुण की पीलीभीत स्क्रिप्ट महज साप्रदायिकता को उभारने के लिये नहीं लिखी गयी बल्कि उसके पिछे वरुण के उस तेवर-तल्खी को भी उभारना है जो कभी संजय गांधी में देखी गयी थी। <br /><br />इंदिरा गांधी पर जितना हक राहुल का है उतना ही वरुण गांधी का है । राहुल में अगर राजीव गांधी का बिंब दिखाने में सोनिया जुटी है तो वरुण में संजय गांधी का बिंब दिखाने से मेनका चूकना नहीं चाहती हैं। और कांग्रेस के भीतर कद्द्दावर या ठसक वाले नेता को लेकर जो कसमसाहट लगातार महसूस की जा रही है तो क्या उसमें संजय गांधी के हारमोन्स की खोज हो रही है, जो युवा तुर्क पीढ़ी को दिशा दे सके । मेनका ने पहला राजनीतिक पाठ चन्द्रशेखर से पढ़ा था । माना जाता है इंदिरा गांधी के घर से बहु मेनका की विदाई को राजनीतिक तौर पर साधने की बात भी मेनका अक्सर चन्द्रशेखर से ही करती थी । सोनिया ने जब राजनीति का कहकरा नही पढ़ा था, उस वक्त मेनका राजनीतिक व्याकरण समझने लगी थीं। लेकिन मेनका जिस राजनीतिक जमीन पर खड़ी थीं, उसमें व्याकरण की नहीं फ्रंट रनर बनने के लिये अगुवायी करने की भाषा समझनी थी। यह भाषा इसलिये जरुरी थी क्योकि सोनिया के सामानातंर बगैर इसके, मेनका हो ही नहीं सकती थी। <br /><br />लेकिन,यह दांव मेनका के हाथ कभी नहीं लगा। राहुल के खड़े होने के बाद भी सिमटती कांग्रेस में सबसे बड़ा सवाल सभी के सामने यही उभरा कि लोकप्रियता वोट बैक में तब्दील नहीं हो पा रही है। राहुल गांधी परिवार के चिराग हैं, इसे देखने तो लोग जुट जाते है लेकिन वोट नहीं डालते। यह तथ्य राहुल से भी जुड़ा और सोनिया गांधी के साथ भी। यह कमजोरी मेनका के साथ भी रही । लेकिन वरुण की उन्मादी स्क्रिप्ट ने गांधी परिवार के भीतर पहली बार ठीक इसके उलट स्थिति बनायी है। यानी मुद्दे को राजनीतिक तौर पर मान्यता देने के लिये ना सिर्फ समूची बीजेपी जुट गयी बल्कि जो हालात मुलायम-लालू -पासवान के हाथ मिलाने से मंडल के दौर की जातीय गोलबंदी होने के कयास लगाये जा रहे थे, उसे भी वरुण की राजनीतिक तिकडम के आगे नये सिरे से सोचना पड़ रहा है। <br /><br />इतना ही नहीं मायावती की सोशल इंजीनियरिंग की बिसात भी इसमें उलझी । धार्मिक उन्माद दलित और ब्राहमण को नये सीरे से साधेगा। मायावती इमसे इस तरह उलझी भी कि पीलीभीत की कानून व्यवस्था भी मुद्दा बना और रासुका लगाना भी। यानी दोनों स्थिति में बीजेपी के खेल में वरुण के पतीले को लगातार सुलगाने की सोच मायावती के दामन से जुड़ गयी । असल में वरुण गांधी ने सिर्फ वोट जुगाड़ने या बिगाड़ने का खेल नहीं खेला बल्कि इंदिरा गांधी के बाद पहली बार गांधी परिवार के किसी शख्स ने राजनीतिक जमीन को हर पार्टी के लिये उर्वर बनाकर खुद को महज प्यादे के तौर पर रखा है। असल में सोनिया गांधी इस हकीकत को समझ रही हैं कि काग्रेस के भीतर भी साफ्ट हिन्दुत्व का रोग है, जो आज से नहीं नेहरु युग से चला आ रहा है। सोमनाथ मंदिर के पुननिर्माण के पीछे सरदार पटेल की ही सोच थी। अयोध्या को लेकर नेहरु से लेकर राजीव गांधी तक के खेल ने ही कभी जनसंघ तो अब बीजेपी को मुद्दा थमाया। लेकिन इसके पिछे कहीं ना कही मुस्लिम समुदाय को साथ खड़ा करने की चाहत कांग्रेस के भीतर हमेशा रही। <br /><br />वरुण गांधी का हिन्दु रक्षा के उन्मादी भाषण सरीखा ही भाषण 15 मार्च को कांग्रेस के इमरान किदवई ने दिया। चूंकि वह अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के चेयरमैन हैं तो उन्होने साफ कहा कि, अगर मै मुफ्ती होता तो फतवा जारी कर देता कि भाजपा को वोट देना क्रुफ है। यानी इस्लाम विरोधी है। असल में वरुण ने गांधी परिवार को लेकर वही दुविधा खड़ी कर दी है, जिसे आजादी से पहले तक कांग्रेस भोग रही थी। कांग्रेस जन्म के साथ ही मुस्लिमो को कभी साथ नहीं ला पायी। मुस्लिम समाज कांग्रेस के अधिवेशनों में शामिल होता नहीं था। उस दौर के तीन बड़े मुस्लिम नेता , सर सैयद अहमद खान, जस्टिस अमिर अली और लतीफ खान कांग्रेस को बंगाली हिन्दुओं की संस्था मानते थे। 1937 के चुनाव में 482 मुस्लिम सीटों में से कांग्रेस को सिर्फ 25 सीटों पर जीत मिली। कांग्रेस ने मुस्लिमों को आकर्षित करने के लिये कुरान के अधिकारी व्ख्याकार मौलाना अब्दुल कलाम आजाद को अध्यक्ष बनाया लेकिन सफलता तब भी नहीं मिली। 1945 के नेशनल असेंबली के चुनाव हों या 1946 के प्रांतीय असेम्बली के चुनाव, कांग्रेस का मुस्लिम सीटों पर जहां सूपडा साफ था, वहीं हिन्दु बहुल सीटो पर नब्बे फिसदी से ज्यादा सफलता मिली थी। <br /><br />तो क्या नया सवाल बीजेपी को लेकर कांग्रेस के भीतर कसमसा रहा है कि हिन्दु वोट बैक अगर बीजेपी के साथ है और मुस्लिम समुदाय अलग अलग क्षेत्रिय दलों में अपनी रहनुमायी देख रहा है तो कांग्रेस की जमीन बढ़ेगी कैसे। कहीं वरुण गांधी के जरीये तो भविष्य में काग्रेस अपना उत्थान नहीं देखने लगेगी। सोनिया काग्रेस के अतीत की हकीकत और भविष्य के दांव के बीच वर्तमान का संकट नहीं समझ पा रही हो, ऐसा हो नहीं सकता । राहुल गांधी की राजनीति जिस आम आदमी के हाथ का सवाल खड़ा करती है, उसमें विकास की बात अव्वल है। लेकिन आम आदमी की न्यूनतम की लड़ाई जितनी पैनी है, उसमें राहुल का नारा कांग्रेस को लोकप्रिय बना सकता है लेकिन वोट नहीं दिला सकता। जबकि आईडेंटिटी यानी पहचान की राजनीति ही कांग्रेस के साथ हमेशा जुड़ी रही। जातीय गोलबंदी से लेकर आदिवासी ,पिछडों और मुस्लिम को लेकर आईडेंटिटी की कांग्रेसी राजनीति ही चली और इसी के सामानातंर सॉफ्ट हिन्दुत्व की लकीर भी खिंची जाती रही। राहुल इस राजनीति की थाह को पकड नहीं पाये क्योंकि सोनिया गांधी ने पार्टी चलाने का समूचा खांचा इंदिरा गांधी सरीखा कर तो लिया लेकिन इंदिरा सरीखे सलाहकार नहीं रखे जो समाज की नब्ज पर उंगली रख कांग्रेस के भीतर गांधी परिवार की पैठ समाज तक ले जाते। <br /><br />संयोग से सोनिया के सलाहकार भी अपने घेरे में सोनिया से कही ज्यादा अलोकतांत्रिक हैं। इसलिये वरुण गांधी को साधने का तरीका भी सतही है । जिस मुद्दे को लेकर वरुण को कांग्रेस साधना चाह रही है , उसके पीछे गांधी की समझ और सेक्यूलर भाव से मुस्लिमों को साथ खड़ा करने की चाहत है । लेकिन उम्मीद महज इतनी है कि हिन्दु-मुस्लिम की लकीर सीधे वोट बैक बांट दे। यानी जिस राजनीति ने कांग्रेस और बीजेपी सरीखे राष्ट्रीय दलों को भी क्षेत्रीय दलो के सामने झुकने के लिये मजबूर कर दिया अगर वरुण गांधी के जरीये उस राजनीतिक वोट बैक में सेंध लगायी जा सकती है <br />लेकिन गांधी परिवार की लड़ाई यही से शुरु होती है क्योकि वरुण से उन्मादी बोली से कही तीखे शब्द विनय कटियार कहते रहते हैं। <br /><br />कल तक कल्याण सिंह भी कहते थे। नरेन्द्र मोदी ने भी उन्मादी शब्दों से परहेज अभी भी नहीं किया है। लेकिन वरुण का मतलब इन सबसे अलग है । चुनावी पटल पर मुद्दों के ही आसरे गांधी परिवार अगर दोनो तरफ खड़ा है तो बीजेपी की यह सबसे बडी हार है, उसे बीजेपी के रणनीतिकार समझ रहे है। क्योंकि मुद्दा हिन्दुत्व या सांप्रदायिकता नहीं है बल्कि गांधी परिवार है। और सोनिया के रणनीतिकारों ने अगर वरुण के जरीये ही कांग्रेस को बढ़ाने की व्यूहरचना की तो ना सिर्फ झटके में मंडल-कमंडल की राजनीति पर पनपी क्षेत्रीय राजनीति का बंटाधार होगा। बल्कि गांधी परिवार भी आधुनिक चेहरे के साथ उभरेगा, जिसमें मुखौटा नहीं होगा।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-58853169172269090242009-03-13T09:15:00.000+05:302009-03-13T09:15:01.110+05:30तीसरा मोर्चा का गठन बनाम कांग्रेस-बीजेपी एक साथतीसरे मोर्चे की दस्तक, बीजू जनता दल की पहल और शरद पवार के प्रधानमंत्री बनने की इच्छा ने पहली बार लोकसभा चुनाव से पहले इसके संकेत दे दिये हैं कि सत्ता के लिये जीत से पहले और सत्ता भोगने के लिये जीत के बाद के गठबंधन में खासा बदलाव तय है। तीसरे मोर्चे की कवायद में वाममोर्चा एकजुट है। लेकिन, वाम मोर्चे को लेकर उसका वोट बैंक पहली बार एकजुट नहीं है। सिर्फ पश्चिम बंगाल ही नही केरल में भी सेंध लगनी तय है। बंगाल में नंदीग्राम-सिंगूर-लालगढ तो केरल में भष्ट्राचार का मुद्दा वाममोर्चा की कम से कम 10 सीटों पर झटका देगा। <br /><br />वहीं, तीसरे मोर्चे को जमा करने वाले देवगौड़ा का संकट अपनी चार सीटों को बरकरार रखने का है। यही संकट टीआरएस का है। तेलागंना का मुद्दा केन्द्र की पहल के बगैर अंजाम तक पहुंच नहीं सकता है इसलिये चन्दशेखर राव की मजबूरी चुनाव के बाद दिल्ली में बनती सरकार की तरफ झुकना तय है। उनके पांच सांसद अभी हैं, जिसमें एक सीट का इजाफा हो सकता है। लेकिन राज्य में विधानसभा चुनाव भी हैं, इसलिये इसका खामियाजा टीआरएस को उठाना पड़ सकता है। तीन सीटें कम भी हो सकती हैं। चूंकि चन्द्रबाबू नायडू वामपंथियों के साथ तीसरे मोर्चे में खड़े हैं तो टीआरएस के लिये और मुश्किल होगी कि वह भी तीसरे मोर्चे में आ जाये। <br /><br />उधर, जयललिता का हाथ खाली है । इसलिये जयललिता के जरिये सर तो गिनाये जा सकते हैं लेकिन सौदेबाजी को कोई अमली जामा नहीं पहनाया जा सकता । बड़ा सवाल नवीन पटनायक या कहें उनकी पार्टी बीजू जनतादल का है । दस साल से बीजेपी की गोद में बैठकर राजनीति करने वाले नवीन पटनायक के लिये नये हालात में अपनी 11 सीटों को बरकरार रखना ही सबसे बड़ी चुनौती होगी। चूंकि विधानसभा चुनाव राज्य में साथ ही हैं तो नवीन पटनायक सत्ता बरकरार रखने की राजनीति को ज्यादा तवज्जो देंगे इसलिये दिल्ली की सरकार में उनका योगदान आंकडों को बनाने और समर्थन दलों के सर की तादाद बढाने में ही होगा । इसलिये तीसरे मोर्चे में सीधी पहल से बचकर राज्य की राजनीति में कोई सेंध लगे इसके लिये फूंक-फूंक कर कदम रखेंगे। <br /><br />हरियाणा से विश्नोई की मौजूदगी भी सरों की तादाद को बढाने वाली ही है । जाहिर है ऐसे में तीसरे मोर्चे की इस नयी दस्तक का आंकडा सौ को भी नही छू पायेगा , यह हकीकत है। लेफ्ट की पहल हर हाल में मायावती को साथ लाने की होगी। लेकिन मायावती का सोशल इंजीनियरिंग यहा फिट नही बैठता है। मायावती अपने पत्ते चुनाव परिणाम से पहले खोलना नहीं चाहती हैं। लेकिन वह किसी को निराश भी करना नहीं चाहती हैं। इसलिये तीसरे मोर्चे की पहल में सतीश मिश्रा के जरीये एक ऐसी नुमाइन्दगी कर रही हैं, जिसे झटके में झटका भी जा सके। वहीं तीसरे मोर्चे की अकसर खुली वकालत करने वाले मुलायम-मायावती-अजित सिंह-चौटाला जैसे दिग्गज खामोश होकर सत्ता समीकरण को अपने अनुकूल होते हुये अब भी देखना चाह रहे हैं। यानी तीसरा समीकरण कोई सकारात्मक रुप लेगा, इसकी संभावना बेहद कम है लेकिन बनते हर समीकरण में पहली बार इसका खांचा जरुर उभर रहा है कि यूपीए और एनडीए अपने बूते सत्ता बना नहीं पायेंगे और आंकडों की सौदेबाजी सबसे बड़ी हकीकत बनेगी। <br /><br />ये सौदेबाजी भारतीय राजनीति में कोई बड़ा बदलाव कर सकती है, यह सबसे बड़ा सवाल है। अगर 14वीं लोकसभा में एनडीए और यूपीए की तस्वीर को अब के हालात से जोड़कर देखें तो वाकई नयी परिस्थितियां एक नये मोर्चे की दिशा में ले जाती हुई भी दिख सकती है। पिछले चुनाव में एनडीए को कुल 185 सीटें मिली थीं, जिसमें से बीजू जनता दल, टीडीपी और तृणमूल खिसक चुकी हैं । यानी 18 सीटों का झटका लग चुका है। हालांकि अजित सिंह की रालोद और असमगण परिषद एनडीए के नये साथी हैं, लेकिन इनके पास कुल 5 सीटे है। यानी एनडीए का आंकडा पिछले चुनाव की तुलना में 13 सीट कम का ही है। <br /><br />वहीं, यूपीए की कुल सीटें पिछले लोकसभा चुनाव में 219 थी। जिसमें से टीआरएस खिसक चुकी है और एमडीएमके की लिट्टे राजनीति तमिलनाडु में कांग्रेस के साथ खड़े होने नही देगी। यानी कुल नौ सीटे यहां भी कम हो रही है । डीएमके की मजबूरी है कि वह कांग्रेस के साथ रहे क्योकि राज्य में उनकी सरकार को कांग्रेस का समर्थन है। जो निकला तो सरकार भी गिर जायेगी । यूपीए को नया मुनाफा ममता बनर्जी के साथ जुड़ने से हुआ है। ममता एकमात्र ऐसी सहयोगी हैं, जिनकी सीटो में इजाफा तय माना जा रहा है। फिलहाल दो सीटे हैं, जो आधे दर्जन को पार कर सकती हैं। इसका मतलब है यूपीए की स्थिति कमोवेश यही बनी रह सकती है। लेकिन सरकार बनाने में 272 का जादुई आंकडा जो पिछली बार वाममोर्चे के जरीये पूरा हो गया, इस बार वह फिसलेगा ही । क्योंकि बंगाल में ममता-कांग्रेस गठबंधन वामपंथियो को ही तोड़ेगा। और यूपीए कितनी भी मशक्कत कर ले, वह सेक्यूलरवाद के नारे तले वामपंथियो को साथ ला तो सकता है लेकिन 272 का आंकड़ा नहीं छू पायेगा। <br /><br />यह हालात एनडीए और यूपीए की उस धारणा को तोडेंगे, जिसमें वैचारिक मतभेद का सवाल अकसर दोनो से जुड़ जाता है । यानी सत्ता समीकरण के लिये ठीक वैसा ही कोई कॉमन मिनिमम प्रोग्राम निकलेगा, जैसा एनडीए की सत्ता बनाने के लिये वाजपेयी सरकार ने अयोध्या-कामन सिविल कोड-धारा-370 को दरकिनार कर दिया था। लेकिन तब और अब के हालात खासे बदल चुके है । तब मुद्दो पर खामोश होना था, वहीं अब मुद्दों का समाधान देश को चाहिये। जो दो मुद्दे देश के सामने खड़े हैं, उसमें सुरक्षा और अर्थव्यवस्था सबसे महत्वपूर्ण हैं । संयोग से आंतकवाद से लड़ने और देश की सुरक्षा में सेंध ना लगने देने को लेकर कोई बहुत अलग राय एनडीए और यूपीए की नहीं है। पोटा सरीखे कड़े कानून को देखने का नजरिया भी बदल चुका है। वहीं, आर्थिक सुधार को लेकर भी एनडीए-यूपीए की सहमति रही है। विरोध के सुर वामपंथियो ने गाहे-बगाहे जरुर उठाये लेकिन सत्ता का सुख भोगते वक्त वो भी लगाम पूरी तरह छोडे रहे। <br /><br />इन हालात में जब सरकार बनाने के लिये आंकडों के जुगाड़ की जरुरत पड़ेगी तो कई राजनीतिक दल इधर से उधर यह कहते हुये जरुर होंगे कि देश को स्थिरता देना उनकी पहली जरुरत है। फिर चुनाव नहीं चाहिये। एक कॉमन मिनिमम कार्यक्रम के जरीये गठबंधन की सरकारें पिछले दस साल से जब यूपीए-एनडीए के जरीये चली है तो इसको जारी रखने में फर्क क्या पड़ता है। <br /><br />लेकिन तीसरे मोर्चे की आहट और न्यूक्लियर डील के विरोध में वामपंथियो का सरकार को बीच में छोड़ने के बाद एक साथ कई सवालों ने भी जन्म लिया है। सबसे बड़ा सवाल यही है कि देश जिन हालातों से गुजर रहा है, उसमे सत्ता से जुड़कर मलाई खाने की जो परंपरा राजनीतिक दलों की बन पड़ी है, उसमें सरकार चलाने की कांग्रेस और बीजेपी की अपनी सोच कहां टिकती है । बीजेपी दिन्दुत्व के नाम पर राजनीति करती है लेकिन मंदिर नहीं बनवा सकती । बनवायेगी तो सरकार गिर जायेगी । कांग्रेस जिस महिला-आदिवासी-पिछडों-किसानों का सवाल खड़ा कर उन्हे मुख्य़धारा से जोड़ने और राहत देने की बात करती है, वह कोई ऐसी नीति बना नही सकती जिससे उसके किसी सहयोगी का वोट बैंक आहत हो तो सरकार का मतलब है क्या। <br /><br />जाहिर है सरकार देश में होनी चाहिये। जिसकी नजर में आम आदमी हो। हर धर्म-प्रांत का व्यक्ति हो। देश की अर्थव्यवस्था बाजार पर नहीं खुद पर निर्भर हो। आतंकवाद के जरीये बंटते समाज को बांधा जा सके। पड़ोसी देश आंखे न तरेरे । सुरक्षा व्यवस्था चाक चौबंद हो । यानी देश में कही सरकार है, इसका एहसास देश को हो । जिसमें राजनीतिक दलो की सौदेबाजी के बदले मुद्दो के समाधान के तौर तरीकों पर सहमति -असहमति के बीच नीतियों को अमली जामा पहनाने की पहल हो। मुश्किलों में मुहाने खड़े देश को लेकर कोई सहमति राजनीतिक दलों में बनती है तो आसान और मुश्किल दोनों तरीका बीजेपी और कांग्रेस को एक साथ देश चलाने के लिये ला सकती है। पिछले आम चुनाव में बीजेपी को 138 और कांग्रेस को 145 सीटे मिली थीं। दोनों को जोड़ने पर 278 का आंकड़ा पहुचता है यानी जादुई 272 से ऊपर । अगर यही स्थिति दोबारा देश में बन भी रही है तो सरकार नहीं देश चलाने के नाम पर कॉमन मिनिमम प्रोग्राम क्या नही बन सकता । मंत्री पदो का बंटवारा नीतियो के तहत हो सकता है। जिसकी ज्यादा सीटे हों उसका प्रधानमंत्री । सहयोगी का उप-प्रधानमंत्री । सुरक्षा बीजेपी के पास तो गृहमंत्रालय कांग्रेस के पास । वित्त मंत्रालय कांग्रेस के पास तो वाणिज्य बीजेपी के पास। उघोग काग्रेस तो कृर्षि बीजेपी के पास । रेल काग्रेस के पास तो उड्डयन बीजेपी के पास । कोयला कांग्रेस के पास तो स्टील बीजेपी के पास । आईटी सेक्टर बीजेपी के पास तो दूर संचार कांग्रेस के पास । महिला कल्याण बीजेपी के पास तो युवा-खेल कांग्रेस के पास । पिछड़ा कांग्रेस का पास तो अल्पसंख्यक बीजेपी के पास । आपसी सहमति के जरीये कुछ नये मंत्रालय भी बनाये जा सकते है जो चैक एंड बैलैंस की तरह काम करे। <br /><br />जाहिर है यह समझ देश चलाने के लिये होगी तो सौदेबाजी की राजनीति कर अपने वोटबैंक को सत्ता से मलाई दिलाने की क्षेत्रिय राजनीति बंद हो जायेगी। और जनता भी समझेगी नेताओ के जरीये बेल-आउट से काम नही चलेगा। और अगर यह भी तरीका फेल हो जायेगा तो नयी स्थितियां नये समीकरण की दिशा में ले ही जायेगी...लोकतंत्र का मिजाज तो यही है ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-55960935712191912312008-11-24T08:42:00.003+05:302008-11-24T08:48:58.519+05:30आरएसएस को हिन्दुत्व का पाठ पढ़ाएंगी सावरकर की पातीराष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की मानें तो एटीएस पंचतंत्र की कहानी लिख रहा है। क्योंकि जो लोग मालेगांव ब्लास्ट के आरोपी हो सकते हैं, वही लोग संघ के कार्यवाह मोहनराव भागवत और कार्यकारिणी सदस्य इन्द्रेश कुमार की हत्या की साजिश कैसे रच सकते हैं। लेकिन हिन्दुत्व की जिस राह को 'अभिनव भारत' सरीखा संगठन पकड़े हुये है और हिन्दुत्व का नाम लेते लेते आरएसएस जिस राह पर जा चुका है अगर दोनो की स्थिति को दोनो के घेरे में ही देखे तो पहला सवाल यही उठेगा कि मालेगांव को लेकर जो सोच अभिनव भारत में है, कमोवेश वही सोच आरएसएस को भी लेकर है। यानी मालेगाव और संघ के हिन्दुत्व में कोई अंतर करने की स्थिति में 'अभिनव भारत' नहीं है।<br /><br />इस स्थिति को समझने से पहले जरा दोनों के अतीत को समझ लें। दरअसल, अभिनव भारत जिस हिन्दु महासभा से निकला उसके कर्ता-धर्त्ता सावरकर थे जो सीधे कहते थे," इस ब्रह्माण्ड में हिन्दुओं का अपना देश होना ही चाहिये, जहां हम हिन्दुओं के रुप में, शक्तिशाली लोगो के वंशज के रुप में फलते-फूलते रहें। सो, शुद्दि को अपनाये, जिसका केवल धार्मिक नहीं, राजनीतिक पहलू भी है । " वहीं हेडगेवार समाज के शुद्दिकरण के रास्ते हिन्दु राष्ट्र का सपना देशवासियो की आंखों में संजोना चाहते थे।<br /><br />सावरकर पुणे की जमीन और कोकणस्थ ब्रह्माणों के बीच से हिन्दुसभा को खड़ा कर सैनिक संघर्ष के लिये 1904 में अभिनव भारत को लेकर ब्रिट्रिश सरकार को चुनौती दे रहे थे। वहीं दो दशक बाद हेडगेवार नागपुर की जमीन पर तेलुगु ब्राह्मणों के बीच से हिन्दुओं के अनुकुल स्थिति बनाने के लिये कांग्रेस की नीतियों का विरोध कर हिन्दुत्व शुद्दिकरण पर जोर दे रहे थे। उस दौर में सावरकर के तेवर के आगे आरएसएस कोई मायने नहीं रखती थी । ठीक उसी तरह जैसे अब आरएसएस के आगे हिन्दु महासभा कोई मायने नहीं रखती । सावरकर की पुत्रवधु हिमानी सावरकर 2004 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में हिन्दुमहासभा का अलख लिये चुनाव लड़ रही थीं। उस समय बीजेपी ही नहीं आरएसएस के स्वयंसेवक भी मजा ले रहे थे। हिमानी अपना चुनाव प्रचार करने ऑटो पर निकलती थीं और बीजेपी के समर्थक जो शायद आरएसएस से भी जुड़े रहे होगे, आटोवाले को कहते थे "हिमानी पैसा ना दे पाये तो हमसे ले लेना ।"<br /><br />लेकिन वही दौर ऐसा भी था जब आरएसएस के भीतर बीजेपी को लेकर घमासान मचा हुआ था । इसलिये कार्यवाह का पद जब मोहन राव भागवत ने संभाला तो मोहनराव में लोग मधुकर राव भागवत को देख रहे थे । मधुकर राव भागवत ना सिर्फ मोहन भागवत के पिता थे बल्कि हेगडेवार जब आरएसएस को भारत की धमनियो में दौड़ाने की बात कहते थे तो मधुकरराव हमेशा उनके साथ खड़े रहे । उस दौर में मधुकर राव भागवत गुजरात में संघ के प्रांत प्रचारक थे, जो राजनीतिक नजरिए को खारिज कर हिन्दुत्व के जरिये समाज का शुद्दिकरण सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर करना चाहते थे। लेकिन मोहन भागवत ने जब कार्यवाह का पद संभाला तो अयोध्या में मंदिर निर्माण एक सपना बना दिया गया था। स्वदेशी मुद्दा एफडीआई के आगे घुटने टेक रहा था। गो-रक्षा का सवाल उठाना आर्थिक विकास की राह में पुरातनपंथी राग अलापने सरीखा करार दिया जा रहा था । धारा-370 का जिक्र राजनीतिक तौर पर एक बेमानी भरा शब्द हो चुका था। धर्मातरंण के आगे आरएसएस नतमस्तक नजर आ रहा था । बांग्लादेशी घुसपैठ का मामला वाजपेयी सरकार में ठंडे बस्ते में डल चुका था ।<br />पूर्वोत्तर में संघ के चार स्वंयसेवकों की हत्या के बावजूद तब के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी की खामोशी ने संघ के माथे पर लकीर खिंच दी थी । जम्मू-कश्मीर को तीन हिस्सो में बांट कर देश को जोडने के संघ कार्यकारिणी के फैसले को वाजपेयी सरकार ने ही ठेंगा दिखा दिया था । और इन सबके बीच बीजेपी की तर्ज पर मुस्लिमो को साथ लाने की जो पहल संघ के भीतर इन्द्रेश कुमार कर रहे थे उसने संघ के एक बडे तबके में बैचेनी पैदा कर दी थी ।<br /><br />जाहिर है इन परिस्तिथितियो को महज संघ के भीतर का कट्टर हिन्दुत्व ही नही देख कर खुद को अलग थलग समझ रहा था बल्कि मराठी समाज का वह तबका जो सावरकर के आसरे कभी आरएसएस को मान्यता नहीं देता था, वह कहीं ज्यादा खिन्न भी था । 2002 से लेकर 2006 के दौरान विश्व हिन्दु परिषद से लेकर भारतीय मजदूर संघ,स्वदेशी जागरण मंच और किसान संघ के बीच का तालमेल भी बिगड़ता गया । इन सब के बीच सरसंघचालक कुपं सीं सुदर्शन की उस पहल ने आग में घी का काम किया जब आरएसएस पर लगी सांप्रदायिक छवि को धोने के लिये सुदर्शन ने मुस्लिम समारोह-सम्मेलनो में जाना शुरु कर दिया । महाराष्ट्र के हिन्दुवादी आंदोलन में संघ की इन तमाम पहल का नतीजा समाज के भीतर संघ की घटती हैसियत से साफ नजर आने लगा । 2004 में बाजपेयी सरकार की चुनाव में हार ने ना सिर्फ संघ के एंजेडे की हवा निकाल दी जो संघ के लिबरल होने पर बीजेपी की सत्ता का स्वाद चख रहा था और सत्ता को अपना औजार बनाकर हिन्दुत्व का राग अलापने से भी नही कतरा रहा था । बल्कि इस दौर में संघ के भीतर जिस मराठी लॉबी को हाशिये पर ठकेला गया था उसने खुलकर संघ की सेक्यूलर सोच को निशाना बनाना शुरु किया ।<br /><br />इस दौर में सावरकर -गोडसे की नयी पीढ़ी, जो संघ से पहले अंसतुष्ट थी, उसने सावरकर की संस्था 'अभिनव भारत' को फिर से सक्रिय करने की दिशा में वर्तमान कालखंड को ही उचित माना । इस विंग ने संघ पर भी मुस्लिम परस्ती और हिन्दु विरोधी सेक्यूलर राह पर जाने के आरोप मढ़ा। ऐसा नही है कि अभिनव भारत एकाएक उभरा और उसने संघ को निशाने पर ले लिया । दरअसल, 2006 में अभिनव भारत को दुबारा जब शुरु करने का सवाल उठा तो संघ के हिन्दुत्व को खारिज करने वाले हिन्दुवादी नेताओ की पंरपरा भी खुलकर सामने आयी। पुणे में हुई बैठक में , जिसमे हिमानी सावरकर भी मौजूद थीं, उसमें यह सवाल उठाया गया कि आरएसएस हमेशा हिन्दुओं के मुद्दे पर कोई खुली राय रखने की जगह खामोश रहकर उसका लाभ उठाना चाहता रहा है। बैठक में शिवाजी मराठा और लोकमान्य तिलक से हिन्दुत्व की पाती जोड कर सावरकर की फिलास्फी और गोडसे की थ्योरी को मान्यता दी गयी । बैठक में धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी से लेकर गोरक्षा पीठ के मंहत दिग्विजय नाथ और शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानंद के भक्तो की मौजूदगी थी । या कहे उनकी पंरपरा को मानने वालो ने इस बैठक में माना कि संघ के आसरे हिन्दुत्व की बात को आगे बढाने का कोई मतलब नहीं है।<br /><br />माना यह भी गया कि बीजेपी को आगे रख कर संघ अब अपनी कमजोरी छुपाने में भी ज्यादा वक्त जाया कर रहा है इसलिये नये तरीके से हिन्दुराष्ट्र का सवाल खड़ा करना है तो पहले आरएसएस को खारिज करना होगा । हालांकि, ऐरएलएल के भीतर यह अब भी माना जाता है कि कांग्रेस से ज्यादा नजदीकी हिन्दुमहासभा की ही रही । 1937 तक तो जिस पंडाल में कांग्रेस का अधिवेशन होता था, उसी पंडाल में दो दिन बाद हिन्दुमहासभा का अधिवेशन होता। और मदन मोहन मालवीय के दौर में तो दोनो अधिवेशनों की अध्यक्षता मालवीय जी ने ही की। इसलिये आरएसएस कांग्रेस की थ्योरी से हटकर सोचती रही । लेकिन हिन्दु महासभा का मानना है कि संघ ने बीजेपी की सत्ता का मजा लेकर सत्ता दोबारा पाने के लिये खुद के संगठन का कांग्रेसीकरण ज्यादा कर लिया है और हिन्दु राष्ट्र की थ्योरी को पूरी तरह नकार दिया है।<br /><br />महत्वपूर्ण यह भी है ब्राह्मणों की पंरपरा को लेकर भी मतभेद उभरे। चूकि हेडगेवार की तरह सुदर्शन भी तेलुगु ब्रह्मण है, तो हिन्दुत्व पर कड़ा रुख अपनाने की सुदर्शन की क्षमता को लेकर भी यह बहस हुई कि संघ फिलहाल सबसे कमजोर रुप में काम कर रहा है। इसलिये संघ की मराठी लाबी भी सावरकर की सोच को आगे बढाने में मदद करेगी। इन सब का असर संघ पर किस रुप में पड़ा है या फिर देश में जो राजनीतिक हालात हैं, उसमे सरसंघचालक सुदर्शन भी अंदर से किस तरह हिले हुये है इसका अंदाजा पिछले महीने 7 नबंबर को दिल्ली के जंतर-मंतर पर गो-रक्षा के सवाल पर हिमानी सावरकर के साथ मंच पर खडे सुदर्शन को देख कर समझा जा सकता था । यानी जो परिस्थितियां सावरकर और संघ को अलग किये हुये थीं, उसमे पहली बार संघ के भीतर भी इस बात को लेकर कुलबलाहट है कि जिस राह पर वह चल रही है वह रास्ता सही नहीं है।<br /><br />मामला सिर्फ मोहन भागवत या इन्द्रेश की हत्या की साजिश का नहीं है , पुणे में गोखले-साठे-पेशवा-सावरकर की कतार में खडे कोकनस्थ बह्मण अब स्वदेशी अर्थव्यवस्था के उस ढांचे को जीवित करना चाह रहे हैं, जिसकी बात कभी संघ के नेता दत्तोपंत ढेंगडी किया करते थे। लेकिन ढेंगडी अपनी बात कहते कहते मर गये मगर न वाजपेयी सरकार ने उनकी बात सुनी ना सरसंघचालक ने उन्हे तरजीह दी । जाहिर है, आजादी के बाद पहली बार अगर अभिनव भारत को बनाने की जरुरत सावरकर को मानने वाले कर रहे है तो इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि हिन्दुत्व की जो थ्योरी सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर अभी तक आरएसएस परोस रही है और बीजेपी उसे राजनीतिक धार दे रही है, वह अपने ही कटघरे में पहली बार खड़ी है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com16