tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger1125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-46711997750502876792009-07-23T11:33:00.000+05:302009-07-23T11:34:11.530+05:30कितना खतरनाक है किसान का सचमेरे पास पन्द्रह एकड़ जमीन है । मैं छतरपुर से चालीस किलोमॉीटर दूर विजावर में जसगुआं खुर्द गाव का जमींदार हूं । मैं आपसे पांच रुपये ज्यादा लेकर क्या करुंगा । मामला सिर्फ आम की सूखी लकड़ियों के मोल भाव का था । उसने पैंतीस रुपये मांगे और मैं तीस रुपये देने की बात कर रहा था। बस इसी बात पर वह बुजुर्ग व्यक्ति फूट पड़ा। इस तरह फूटा की उसकी आवाज में आक्रोष था, लेकिन आंखों में आंसू भी थे । आंसुओं में लाचारी कहीं ज्यादा थी। मानसून आया नहीं तो गांव में रह कर क्या करता। जमीन फट रही है। सोयाबिन की फसल जो अब तक जवान हो जाती है, इस बार बुआई तक नहीं हुई। पिछले साल 15 मई तक बुआई का काम पूरा हो गया था लेकिन अब तो जुलाई शुरु हो गया। गांव में जमींदार बनकर ऐसे ही कोई कैसे रह सकता है। खुद का पेट खाली होगा तो गांववालों के हक के लिये आवाज भी नहीं निकलती।<br /><br />सबकुछ एक सांस में जिस तरह लकड़ी बेचेने वाला वह शख्स महज पांच रुपये के सवाल पर कहता चला गया, उसने मुझे एक झटके में अंदर से हिला दिया। मैं आम की लकड़ी लेने निकला था । दिल्ली से सटे गाजियाबाद के वसुंधरा इलाके में पूजा -हवन के लिये आम की लकड़ी खोज रहा था। सड़क किनारे लगे पानवाले से लेकर कबाड़ी और फूल वाले सभी के ठेलो पर गया और पूछा कि आम की लकड़ी कहां मिलेगी। कोई नहीं बता पाया । भटकते भटकते इंदिरापुरम थाने के सामने पहुंच गया तो खाकी वर्दी को देख कर दिमाग में आया कि इसे जरुर पता होगा। पूछा तो एक पुलिस वाले ने अंगुली उठाकर इशारे से बताये कि वह सामने झोपड़ी में चले जाओ....और यही वह बुजुर्ग लकड़ी का कोयला और आम की लकड़ी बेचते मिल गए ।<br /><br />मुझे तीन चार किलोग्राम लकड़ी की जरुरत थी सो उन्होंने तौल दी ...मुझसे कहा पैंतीस रुपये हुये, मैंने तीस रुपये की बात कही तो यह शख्स फूट पड़ा। मै खुद को रोक नहीं पाया और झोपडी में बिछी चारपाई पर ही बैठ गया। बुजुर्ग के हाथ में चालीस रुपये रखते हुये कहा कि मुझे लगा कि खुले पैंतीस रुपये मेरे पास नहीं थे...मुझे लगा आपके पास भी नहीं होगे इसलिये तीस रुपये की बात कह दी। मेरे चारपाई पर बैठते ही उस बुजुर्ग का आक्रोष थमा...लोकिन सख्त तेवर में बोला पांच रुपये का मतलब शहर में नहीं होता लेकिन गांव में पांच रुपये आज भी बड़ी रकम है । लेकिन आपने बताया आप जमींदार हैं..तो इस तरह यहा आकर लकड़ी बेच कर क्या कमाई हो जाती होगी.....<br /><br />सवाल कमाई का नहीं पेट पालने का है । कमाई मुनाफे को कहते हैं। हम यहां मुनाफा बनाने नहीं आये हैं। बस अपना पेट पाल रहे हैं । सूखे ने पूरे परिवार को ही अलग थलग कर दिया है । मेरे चार बेटे हैं । पानी होता तो सभी किसानी करते । लेकिन सूखा है तो चारो बेटे भी रोजगार की तालाश में कही ना कही निकल पड़े । क्या बेटों के बारे में कोई जानकारी नहीं कि कौन कहां है । कैसे जानकारी होगी । हमी यहां लक्कड़ बेच रहे हैं, इसकी जानकारी गांव में किसे होगी । अब चारों बेटे कहा क्या कर रहे हैं, यह तो दशहरा में गांव लौटने पर ही पता चलेगा । लेकिन गांव में तो सरकार की भी कई योजना हैं। वहां रह कर भी तो कमाया खाया जा सकता है । बड़ी मुश्किल है । जैसे दिये में तेल ना डालो तो बुझ जाता है, वैसा ही सरकार की योजना का है। बाबुओं को तेल चाहिये। अब समूचे गांव में किसान के पास कुछ नगद है ही नहीं तो वह बाबुओ को दे क्या ।<br /><br />लेकिन सरपंच व्यवस्था के जरीये भी तो काम हो रहा है । सरपंच का मतलब है पैसे के बंटवारे का पंच। कोई योजना में कितना भी पैसा आये लेकिन सरपंच तभी केस बनाता है, जब उसे पचास फीसदी कमीशन मिल जाये । हमारे यहां नरेगा भी आया था। हर परिवार में एक व्यक्ति को काम मिलेगा, यह पोस्टर गांव गांव में चिपकाया गया। हमने भी सोचा कि छोटा बेटा, जिसकी शादी नहीं हुई है, वह गांव में ही रहे इसलिये उसी का नाम नरेगा के लिये दिया। लेकिन सरपंच को उसमे केस बनाने के लिये पचास फीसदी चाहिये। और बाबू को पन्द्रह फीसदी अलग। अब दिन भर मेहनत करके सौ रुपये के बदले पैतीस रुपया कमाने से क्या होगा। रजिस्ट्रर पर दस्खख्त कराता है सौ रुपया का और मिलता है पैतीस रुपया। कुछ गांव में तो पन्द्रह रुपया में भी गांव वालों ने काम किया है । क्योकि सरपंच तक पहुंच कर केस बनवाने में ही बीस-तीस रुपया खर्च हो जाता है।<br /><br />केस बनवाने का मतलब क्या है । केस का मतलब है, जिसको सरकार की योजना का लाभ मिल सकता है। इसपर सरपंच और बाबू बैठा रहता है । वह नाम लिखेगा ही नहीं तो काम मिलेगा ही नहीं। हां , अगर केस बना देगा कि इसको काम मिलना चाहिये तो मिल जायेगा। तो क्या आपको किसान राहत का भी कोई पैसा नहीं मिला । एक बार हल्ला हुआ था कि बैंक से जो पैसा लिये थे, वह भी माफ हो गया और बैक बिना कमीशन खेती के लिये कर्ज देगा। लेकिन पिछले साल तीन महीने बैंक का चक्कर जब गांव का जमींदार होकर हमीं लगाते रहे तो गांव वालों का क्या हाल हुआ होगा जरा सोचिये। हमनें बैंक से 18 हजार रुपया लिया था, लेकिन यहां आने से पहले बैंक को पूरा इक्कीस हजार लौटाये। कौन सा बैक था । ग्रामीण विकास बैंक । तीन बाबू बैठता है वहां । लेकिन कर्ज माफी तो दूर राहत सिर्फ इतना दिया कि कमीशन नहीं लिया । नहीं तो कई गांव में तो सरपंच के जरीये ही कर्ज लिये किसानों को धमकाया जाता कि अगर कर्ज का पैसा नहीं लौटाया तो कानूनी कार्रवाई होगी और जमीन जब्त हो जायेगी । इसीलिये वहा महाजनी जोर-शोर से चलता है। जिसके पास पैसा है, वह राजा है, जो किसान है, वह रंक है ।<br /><br />तो क्या खेती सिर्फ बारिश पर टिकी है । बारिश पर या कहें पैसे पर । क्योकि सिचाई की कोई व्यवस्था है नहीं। बिजली रहती नहीं है । जो मोटर पंप लगा रखे हैं उन्हें चलाने के लिये डीजल चाहिये । अगर पंप के भरोसे ही खेती करनी है तो हर महिने कम से कम दो हजार रुपया पास में रहना चाहिये। फिर बीज और खाद की जो व्यवस्था सरकार ने कम दाम पर कर रखी है, वह तभी मिल सकता है, जब पास में चार पांच सौ रुपये कमीशन देने या केस बनाने के हो। यहां भी केस बनता है। हां, अगर एकदम गरीब किसान है तो सरपंच के लिखने पर बीज बहुत ही कम कीमत पर भी मिल सकता है। तो बीज कम कीमत में तो मिल जाता है, लेकिन उसकी एवज पर आधा बीज मुफ्त में सरपंच अपने पास में रख लेता है। यह सिर्फ आपके इलाके में है या समूचे क्षेत्र में। यह न तो इलाके में है, न क्षेत्र में बल्कि पूरे राज्य में या कहे पूरे देश में ग्रामीण इलाको का यही हाल है ।<br /><br />मध्य प्रदेश से सटा विदर्भ का इलाका है । पहले यह मध्य भारत का ही हिस्सा था । हमारे बड़े बेटे की शादी वहीं हुई है । अकोला में । वहां भी हमारा जाना अक्सर होता । बेटा तो जाता ही रहता है । वहां के किसानों के सामने भी सबसे बडा संकट यही है कि बीज-खाद और डीजल का पैसा किसी के पास है नहीं । ग्रामीण बैक किसानों को उनका हक देता नहीं। वहां भी महाजनी ही किसानो को चलाती है। इतनी लंबी बहस के बाद जब मैने उन बुजुर्ग का नाम पूछा तो उल्टे हंसते हुये मुझी से मेरा नाम पूछ लिया। फिर कहा, हम ब्राह्ममण हैं। मेरा नाम जगदीश प्रसाद तिवारी है। इसलिये हम आम की लकड़ी यहां बेच रहे हैं। क्योंकि इस उम्र में कोई दूसरा काम कर नहीं सकते और धर्म कोई दूसरा काम करने का मन बनने नहीं देता। किसान शुरु से ही थे । कई पीढियों से किसानी चली आ रही है । लेकिन यह कभी नहीं सोचे थे कि जमीन रहने के बाद भी किसानी नहीं कर पायेगे। और जमीन रहने के बाद भी परिवार बिखर जायेगा।<br /><br />मेरे लिये कल्पना से परे था कि लकड़ी बेचता यह शख्स परिवार के बारे में बताते बताते रो पड़ेगा और कहने लगा कि मुझे पता ही नहीं है कि मेरा छोटा बेटा कहा कमाने खाने निकला। मैं तो यहां लकड़ी बेचने इसलिये पहुंच गया कि गांव के रामप्रसाद का बेटा यहां हवलदार है। मैंने उसके घर में तब पूजा करायी थी, जब उसके बेटे को नौकरी लगी थी । उसने मेरी व्यवस्था तो यहां करा दी । लेकिन छोटका होगा कहां........मैंने कहा मै आपसे इसीलिये बात कर रहा थी कि पत्रकार हूं । आपकी बात अखबार में लिखूंगा । मैंने उनके कंधे पर हाथ रखा तो उस बुजुर्ग ने मुझे ही संभालते हुये कहा...घर में पूजा है क्या । हां.....तो जाओ पंडित जी इंतजार कर रहे होंगे फिर मुझे पांच रुपये लौटाते हुये कहा कि पैतीस रुपये हुये ...यह आपके पांच रुपये । मैं पांच रुपये जेब में डालने के लिये उठा तो वह बुजुर्ग कह उठा इस पांच रुपये को कम ना आंको। गांव में कईयो की जिन्दगी इसी में चलती है। और देश में शहर से ज्यादा गांव हैं। मुझे लगा मनमोहन सिंह हर गांव में शहर देखना चाहते है और राहुल गांधी हर गांव को अपने सपने से जोड़ना चाहते है । ऐसे में किसान का सच कितना खतरनाक है ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com16