tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger5125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-89782013239669297352009-12-27T15:55:00.000+05:302009-12-27T15:57:41.102+05:30“थ्री ईडियट्स” में आमिर खान है कहाँ?जीनियस जीनियस होता है... उसके जरिये या उसमें अदाकारी का पुट खोजना बेवकूफी होती है। शायद इसीलिये थ्री ईडियट्स आमिर खान के होते हुये भी आमिर खान की फिल्म नहीं है। थ्री ईडियट्स पूरी तरह राजू हिराणी की फिल्म है। वही राजू जिन्होने मुन्नाभाई एमबीबीएम के जरीये पारंपरिक मेडिकल शिक्षा के अमानवीयपन पर बेहद सरलता से अंगुली उठायी। यही सरलता वह थ्री ईडियट्स में इंजीनियरिंग की शिक्षा के मशीनीकरण को लेकर बताते हुये प्रयोग-दर-प्रयोग समझाते जाते हैं। राजू हिराणी नागपुर के हैं और नागपुर शहर में नागपुर के दर्शको के बीच बैठ कर फिल्म देखते वक्त इसका एहसास भी होता है कि थ्री ईडियट्स में चाहे रेंचो की भूमिका में आमिर खान जिनियस हैं, लेकिन सिल्वर स्क्रिन के पर्दे के पीछे किसी कैनवस पर अपने ब्रश से पेंटिंग की तरह हर चरित्र को उकेरते राजू हिराणी ही असल जिनियस हैं। यह नजरिया दिल्ली या मुबंई में नहीं आ सकता। नागपुर के वर्डी क्षेत्र में सिनेमा हाल सिनेमैक्स में फिल्म रिलिज के दूसरे दिन रात के आखरी शो में पहली कतार में बैठकर थ्री इडियट्स देखने के दौरान पहली बार महसूस किया कि आमिर खान का जादू या उनका प्रचार चाहे दर्शकों को थ्री इडियट्स देखने के लिये सिनेमाघरो में ले आया और पहले ही दिन फिल्म ने 29 करोड़ का बिजनेस कर लिया, लेकिन पर्दे के पीछे जिस जादूगरी को राजू हिराणी अंजाम दे रहे थे उसे कहीं ज्यादा शिद्दत से नागपुर के दर्शक महसूस कर रहे थे।<br /><br />जुमलों में शिक्षा के बाजारीकरण और रैगिंग के दौरान कोमल मन की क्रिएटिविटी ही कैसे समूची शिक्षा पर भारी पड़ जाती है, इसका एहसास कलाकार से नहीं फिल्मकार से जोड़ना चाहिये और यह सिनेमैक्स के अंधेरे में गूंजते हंगामे में समझ में जाता है, जब एक दर्शक आमिर खान की रैगिंग के दौरान किये गये प्रयोग पर चिल्ला कर कहता है... वाह भाऊ राजू! हिसलप कालेज का फंडा चुरा लिया। तो किसी प्रयोग पर हाल में आवाज गूंजती है... भाउ... यह तो अपना राजू ही कर सकता है। कमाल है फिल्म परत-दर-परत आगे बढ़ती है तो राजू हिरानी की तराशी पेंटिंग के रंगो में दर्शक भी अपना रंग खोजता चलता है और इंटरवल के दौरान लू में एक दर्शक मुझे इसका एहसास करा देता है कि राजू के सभी प्रयोग मशीनी नहीं होंगे, वह मानवीय पक्षों को भी टटोलेंगे। बात कुछ यूँ निकली... लू करते वक्त...<br /><br />“आपको कैसी लग रही है फिल्म?”<br />“अच्छी है... मजा आ रहा है।”<br />“भाउ राजू की फिल्म में मजा तो होना ही है। राजू कौन? अपना राजू हिराणी।”<br />“अरे! लेकिन मुझे तो आमिर खान की फिल्म लग रही है।”<br />“का बोलता... आमिर खान। भाऊ, आमिर खान तो एक्टिंग कर रहा है।”<br />“तो क्या हुआ... एक्टिंग ना करें तो फिल्म कैसे चलेगी?”<br />“भाऊ, एक बात बताओ... रेंचो जीनियस है न?”<br />“हाँ है... तो?”<br />“तो क्या, जीनियस तो जीनियस है... वह कुछ भी करेगा तो वह हटकर ही होगा ना।”<br />“अरे, लेकिन इसके लिये एक्टिंग तो करनी ही पड़ेगी।”<br />“लेकिन भाऊ... इंटरवल तक आपको एक बार भी लगा कि एक्टिंग से रैंचो यानी आमिर खान जीनियस है? फिल्म में हर प्रयोग को टेक्नालाजी से प्रूफ किया जा रहा है ना... तो फिर आमिर रहे या शाहरुख... क्या अंतर पड़ता है!”<br />“लेकिन गुरू, राजू हिरानी का हर प्रयोग भी टेक्नोलॉजी से जुड़ा है और टेक्नोलॉजी की पढ़ाई के तरीके को लेकर ही वह सवाल भी खड़ा कर रहा है।”<br />“सही कहा भाऊ आपने... लेकिन इंतजार करो, राजू कुछ तो ऐसा करेगा जिससे जिन्दगी जुड़ जाये। जैसे मुन्नाभाई में 12 साल से बीमार लाइलाज मरीज के शरीर में भी हरकत आ जाती है, तो सारी मेडिकल पढ़ाई धरी-की-धरी रह जाती है... कुछ ऐसा तो राजू भाई करेंगे।”<br /><br />हम लू के बाहर आ चुके थे और बात-बात में उसने बताया कि राजू हिरानी के ताल्लुक नागपुर के हिसलप कॉलेज से भी रहे हैं। कैसे कब... यह पूछने से पहले ही इंटरवल के बाद फिल्म शुरु होने की आवाज सुनायी दी। हम हाल के अंदर दौड़े। लेकिन मेरे दिमाग में वह आवाज फिर कौंधी... वाह राजू भाई! यह तो हिसलप का फंडा चुरा लिया। खैर, फिल्म के आखिर में जिस तरह गर्भ से बच्चे को निकालने को लेकर देसी तकनीक का सहारा लिया गया, उसे देखते वक्त मैंने भी महसूस किया कि आमिर खान अचानक महत्वहीन हो गया है और देसी प्रयोग हावी होते जा रहे हैं, जिनके आसरे दुनिया की सबसे खूबसूरत इनामत - बच्चे का जन्म - जुड़ गयी। यानी आमिर सिर्फ एक चेहरा भर है। फिल्म खत्म हुई तो कालेज का जीनियस रैंचो साइन्टिस्ट बन चुका था। लेकिन यह साइंटिस्ट रैंचो को देखते वक्त एक बार भी महसूस नहीं हुआ कि इसमें आमिर की अदाकारी का कोई अंश है, बल्कि बार-बार यही लगा कि इस भूमिका को निभाते हुये कोई भी कलाकार जीनियस से साइंटिस्ट बन सकता है। और दिमाग में आमिर खान की जगह रैंचो का करेक्टर ही घुमड़ रहा था। यह वाकई राजू हिरानी की फिल्म है, लेकिन अदाकारी को लेकर कोई कलाकार इसमें पहचान बनाता है तो वह वही बोमेन ईरानी हैं जिसने मुन्नाभाई में मेडिकल कालेज के प्रिंसिपल की तानाशाही को जिया और थ्री ईटियट्स में इंजिनियरिंग कालेज के डायरेक्टर रहते हुये खुद को किसी मशीन में तब्दील कर लिया। लेकिन दोनों ही चरित्र जब मानवीय पक्ष से टकराते हैं, तो राजू हिरानी द्वारा रचा गया बोमन का चरित्र कुछ इस तरह चकनाचूर होता है जिससे झटके में उबरना भी मुश्किल होता है और डूबना भी बर्दाश्त नहीं हो पाता। यानी बोमन ईरानी की अदाकारी से दर्शकों को प्रेम हो ही जाता है और उसी की खुमारी में फिल्म खत्म होती है।<br /><br />ऐसे में दिमाग में सवाल उठता ही है कि आखिर आमिर खान इस फिल्म में हैं कहाँ? अगर फिल्म में होते तो वह अपने प्रचार के दौरान देश भ्रमण में शिक्षा संस्थाओं से जुड़े मुद्दे उठाते। क्योंकि चंदेरी या बनारस की गलियों में आज भी प्राथमिक स्कूल तक नहीं हैं और जिनकी लागत मारुति 800 से ज्यादा की नहीं है। और देश में आर्थिक सुधार के बाद से मारुति 800 जितनी बिकी है उसका दस फीसदी भी प्राथमिक स्कूल नहीं खुल पाये हैं। लेकिन आमिर खान फिल्म के धंधे से जुड़े हैं, इसलिये वह सरल भाषा में समझते हैं कि मुनाफा ना हो तो फिल्म फिल्म नहीं होती। इसलिये आमिर खान फिल्म में काम करने के पैसे नहीं लेते, बल्कि रेवेन्यू शेयरिंग में उनकी हिस्सेदारी होती है और उनका टारगेट थ्री ईडियट्स को लेकर सौ करोड़ रुपये बनाना है। यह मिस्टर परफैक्शनिस्ट है। मुझे लगा यही जादू मनमोहन सिंह का है... तभी तो वह राजनीति के मिस्टर परफैक्शनिस्ट हो चले हैं। नागपुर में थ्री ईडियट्स देखते वक्त सोचा... काश राजू हिरानी... मिस्टर परफैक्शनिस्ट पर फिल्म बनाये और सरलता से धंधे के गणित को सरोकार से समझा दे। फिर देखेंगे प्रचार के तरीके क्या होंगे और कितने शहरों के सिनेमैक्स में कोई दर्शक अंधेरे में चिल्ला कर कैसे कहता है... भाउ, यह तो अपने दिल्ली-मुबंई के फंडे हैं।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-28998791855531764862009-01-24T08:30:00.000+05:302009-01-24T08:30:00.147+05:30स्लमडॉग मिलेनियर : ऑस्कर,अमिताभ,असलियतमिलेनियर के रास्ते स्लमडॉग का चलना कभी संभ्रात समाज को बर्दाश्त नहीं होता । जंजीर से लेकर अग्निपथ यानी करीब डेढ़ दशक तक समाज के भीतर के इसी टकराव की रोटी अमिताभ बच्चन ने चबायी है। जिसका ताना-बाना सलीम-जावेद की जोड़ी ने कागज पर उकेरा और शब्दों को अपनी अदाकारी में लपेट कर अमिताभ ने सिल्वर स्क्रीन पर जीया। अमिताभ के महानायक बनने की गाथा का सच यही है कि सैकडों दर्शकों के सामने भी अमिताभ हर दर्शक को इतना अलग कर संघर्ष के लिये तैयार करते कि हर किसी को यही लगता कि वह समाज के सबसे निचले पायदान से सबसे ऊपरी पायदान पर अपनी लड़ाई के बूते पहुंचेगा।<br /><br />पहले समाज की ठोकर फिर समाज को ठोकर मारने की जो रचना दीवार-लावारिस-मुकद्दर का सिकंदर सरीखे किरदार दो से तीन दर्जन से ज्यादा फिल्मों में अमिताभ बच्चन ने जीये कमोवेश उसका आधुनिक तरीका स्लमडॉग का सच है। समाज के भीतर के असमान लिचलिचेपन से जब कोई फिल्म टकराती है तो वह फिल्म महज कलाकारों की या डायरेक्टर की नहीं होती. बल्कि फिल्म आम लोगो की हो जाती हैं।<br /><br />स्लमडॉग का सच भी कुछ ऐसा ही है। पहले दिन का पहला शो। हाउस फुल सिनेमाघर । उसमें कौन बनेगा करोड़पति के खेल से लेकर स्लम की जिन्दगी जीने का जुनून। और सबकुछ खोते हुये सब कुछ पाने का ख्वाब। यह समझ बॉलीवुड की एक ऐसी हकीकत है, जिसे तीन घंटे की पोयटिक जस्टिस का नाम दिया जाता है और जिसे बच्चन के जरीये सलीम-जावेद ने खूब जीया है और खूब नाम कमाया है। इसी नब्ज को स्लमडॉग के डायरेक्टर डैनी बॉयल ने बेहद बारीकी से पकड़ा। डायलॉग की बारीकी देखने लायक हो। फिल्मी डायलॉग का पहला शब्द मादरचो.... का गूंजता है। इस एक शब्द से देखने वाले स्लमडॉग का सच समझ लें और दर्शकों में से आवाज आती है...यह तो अपनी ही फिल्म है गुरु...संवाद यही नहीं रुकता ....स्लमडॉग पुलिस के कब्जे में है, जिसके ज्ञान को पुलिस फ्राड-चीटर मान रही है।<br /><br />दूसरा संवाद उभरता है....जब डाक्टर-इंजीनियर-प्रोफेसर और पढ़े-लिखे लाख की रकम से आगे नही जा पाये तो यह स्लमडॉग करोड़ रुपये तक कैसे पहुंच गया और उस पर पुलिसिया थर्ड डिग्री के दर्द को झेलता स्लमडॉग का छोटा सा जबाब... मै हर जबाब जानता हूं......एक ऐसी हुक दर्शको में भरती है, जहां त्वरित कामेंट आता है....अबे किताब पढ़ने से सबकुछ नहीं आता। कौन बनेगा करोड़पति में अनिल कपूर के सवाल दर सवाल और जबाब देने से पहले हर सवाल को जिन्दगी में झेलने वाला स्लमडॉग । इससे ज्यादा खुरदुरी जमीन किसी फिल्म की कैसे हो हो सकती है जो एक तरफ करोड़पति बनने का रोमांच पैदा करे तो दूसरी तरफ मिलेनियर समाज का अंदर के मवाद को रिस रिस कर जख्म दर जख्म दिये जाए। इस तरह का सामंजस्य धारावी और सलाम बाम्बे में भी नही उभर पाया और बच्चन की फिल्मो में सलीम जावेद यहीं चूक जाते थे क्योंकि उन्हें अपने समाज को बेचना था और उसकी कमजोरियो में भी एक रोमाटिज्म पैदा करना भी था। इसलिये अमिताभ की फिल्म खत्म होने के बाद जीत का नशा तो पैदा करती, लेकिन देखने वाले को अकेला छोड़ देती, जहां वह समाज की विसंगतियों में रोमांच पैदा करके जी ले यही बहुत है।<br /><br />लेकिन स्लमडॉग जिस रास्ते को पकडती है, उसमें वह राज्य व्यवस्था के हर खांचे पर इतनी खामोशी से उंगली उठाती है कि देखने वाले के भीतर आक्रोष लाचारी के मुलम्मे में चढ़ा हुआ आता है । दंगो में जिन्दा जलते आदमी को देखने के बजाय पुलिस का ताश खेलना। चंद सेकेन्ड का दृश्य है मगर वह दिमाग में आखिर तक रेंगता है। स्लम से निकले जमाल और सलीम वैसे ही दो भाई हैं, जैसे अमिताभ की फिल्म दीवार में विजय और रवि फुटपाथ पर बड़े होते हैं। यहां विजय जिस रास्ते पर चलता है स्लमडॉग में काफी हद तक वही रास्ता सलीम पकड़ता है। दीवार में विजय यानी अमिताभ की मौत की वजह उसका अपना ही भाई रवि बनता है तो स्लमडॉग में सलीम की मौत की वजह भी उसका भाई जमाल बनता है। फिल्म दीवार में उस व्यवस्था के कवच को बचाया जाता है जिसके टूटने का मतलब नायक के हाथों राज्य व्यवस्था का हाशिये पर चले जाना है। इसलिये आदर्श की जीत होती है लेकिन स्लमडॉग किसी कवच को फिल्म में बनने ही नहीं देता उसलिये उसे बचाने का जिम्मा भी उसके कंधे पर नहीं है।<br /><br />लेकिन अपनों के लिये जीने और मरने का जो जज्बा स्लम में मिलता है, उसे ही फिल्म का पोयटिक जस्टिस बनाया गया। इसलिये सलीम की मौत जमाल के लिये कुर्बानी सरीखे या शहीद होने सरीखे हैं। जबकि विजय की मौत नायक को आदर्शवाद का पाठ पढ़ाने की है। जो जिसे समाज और सत्ता चबाकर आंखों के सामने अपनी सुविधानुसार परिभाषा गढने से नहीं चूक रहे। वहीं स्लमडॉग में झोपड़पट्टी के जीवन के सच के आगे संभ्रात समाज का जीवन इतना खोखला लगता है कि उससे घृणा भी नहीं हो पाती।<br /><br />अमिताभ बच्चन का दर्द यही है। क्योंकि स्लमडॉग की शुरुआत में जमाल का जुनून अमिताभ की ही तरह अमिताभ को लेकर कैसा है, इसे महज एक दृश्य में जिस तरह फिल्म के निर्देशक डैनी बॉयल ने दिखाया है वह सलीम-जावेद की जोड़ी पटकथा लिखते वक्त कभी सोच भी नहीं सकती थी। और अमिताभ इस दृश्य को सिनेमायी पर्दे पर जी भी नहीं सकते थे। फिल्म में जमाल की अमिताभ को देखने की चाहत पखाने के ढेर में नहला कर भी खुशी दे जाती है। भारतीय सिनेमा में यह दृश्य जुनून और सच की पराकाष्ठा है। संभवत यह दृश्य कोई दलित लेखक ही अपनी पटकथा में लिख सकता है। हांलाकि नामदेख ढसाल सरीखे दलित साहित्यकार भी ऐसे बिम्बो से चुके हैं। इसकी वजह हर आंदोलन के बाद दलित-पिछडे समाज के भीतर भी उसी संभ्रात समाज की तरह विकल्प बनाने की समझ है, जिसके खिलाफ आंदोलन शुरु होता है । यानी संघर्ष या आंदोलन के बाद खुरदुरी जमीन पर भी चकाचौंध दिखाने और जीने का खेल आधुनिक समाजिक आंदोलनों से जुड़ा रहा है। इसलिये दलित पिछडे ही नही बल्कि धारावी सरीके झोपडपट्टी के नेताओं का जीवन तो स्लम से शुरु होता है लेकिन धीरे धीर उसी स्लम को बनाये ऱखकर उसी पायदान को छूने की चाहत में आगे बढता है, जिसके खिलाफ बचपन से लड़ाई लड़ी।<br /><br />अमिताभ बच्चन का संकट यही है । जिन फिल्मो की कहानियों ने उन्हें महानायक बनाया संयोग से उसी सूत्र को पकडकर स्लमडॉग मिलेनियर ऑस्कर की दौड़ में आ गयी लेकिन इस दौर में अमिताभ का जीवन उस संभ्रात समाज का अक्स हो चुका है जहां संघर्ष या हक की लड़ाई के नायक पर सफल महानायक राज कर रहा है। जो सुविधा-चकाचौंध की हट में सब को डराना चाहता है । डराकर जीतने की चाहत बॉलीवुड का भी सच है। इसलिये बॉलीवुड की फिल्में कहानियों के साथ न्याय नहीं कर पाती। उन बिम्बो को साध नहीं पातीं जो क्रूर हकीकत हैं।<br /><br />स्लमडॉग में बच्चो से भीख मंगवाने के लिये पहले दर्शन दो घनश्याम.....गीत याद कराना और फिर गर्म चम्मच से आंखे निकाल लेना का दृश्य़ जब कौन बनेगा करोड़पति के सवाल से जुड़ता है और अनिलकपूर जमाल से सवाल करते है कि दर्शन दो घनश्याम...किसका गीत है...तुलसीदास-सूरदास-मीराबाई....और जबाब देने से पहले जमाल की आंखों के सामने उसकी अपनी हकीकत रेंगती है कि..वह बच गया....वरना आज वह भी सूरदास होता ...तो करोड़पति के खेल से भी देखने वाले को घृणा होती है। लेकिन इसे कहने के लिये फिल्म के नायक को अमिताभ की फिल्म की तरह अपनी छाती तान कर कुछ डायलॉग नही बोलने थे बल्कि स्लमडॉग पर मुंबई का चायवाला उपहास सुनते हुये महज सूरदास कहना था। यह बेचारगी ही दर्शको में हिम्मत भरती है। क्योंकि जो मौजूद है उसे बदलने का जज्बा तभी पैदा हो सकता है जब सच बताने और दिखाने पर अलग-अलग तबके और माध्यमों की तो सहमति हो जाये। लेकिन बॉलीवुड की फिल्में सिर्फ नायक में हिम्मत भरती है और देखने वालों को अकेला कर कमजोर करती है क्योकि वह असल जमीन से हटकर सिनेमायी संघर्ष का आगाज होता है।<br /><br />असल में फिल्म में मुंबई को जिस परछायी की तरह दिखाया गया वह स्लम के सामानांतर पांच सितारा अट्टालिकाओं पर भी उपहास करती है। लेकिन लाचारी और बेचारगी के बीच स्लम की जमीन पर बनी-बसी मुबंई की हकीकत का एहसास सलीम के जरीये कराने से नहीं चूकती, जहां वह मुंबई को दुनिया के बीच का शहर और खुद को मुंबई के बीच का केन्द्र मानता है । लेकिन सलीम का तरीका दीवार के विजय सरीखा लाखों की इमारत खरीद कर कराने का नहीं है। असल में अमिताभ बच्चन की सामाजिक ट्रेनिग उनकी फिल्मी सफलता का ग्राफ है जो चमकते-दमकते भारत में घुसने के लिये जोड़-तोड़ को संघर्ष का जामा पहनाता है। इसलिये महानायक बनते बनते उसकी फिल्मे नायक की धार खोकर शिक्षा और आदर्श का मुलम्मा चढाकर प्रगति गीत गाने से नहीं कतराती। सुविधा पर आंच आने या खुलेपन की कीमती चादर ओढकर कुछ भी करने में जरा भी ठेस लगती है तो अमिताभ का आक्रोष फिल्मी तर्ज पर उभरना चाहता है। इसलिये स्लमडॉग का मर्म अमिताभ के नायकत्व को हाशिये पर ले जाने का मर्म है इसलिये पश्चिम का दर्द इस तरह साल रहा है । जो इनका निजी दर्द है। ऑस्कर के दस नॉमिनेशन में से तीन में ए आर रहमान भी ऑस्कर की दौड़ में हैं। फिल्म का गीत ओ रे रिंगा....कमाल का है । हालाकि ऑस्कर की दौड में जय हो.. और ओ साया... है । लेकिन इस फिल्म को देखते वक्त कभी महसूस नहीं होता कि गीत-संगीत कहीं फिल्म को आगे बढा रहा है...बल्कि फिल्म खत्म होने के बाद गीत दिखायी देता है, जिसका ट्रीटमेंट बतलाता है कि स्लमडॉग मिलेनियर महज कहानी है....सच से इतर। लेकिन यही फिल्म की सबसे बडी सफलता है, जहां दर्शक गीत सुनने के लिये सिनमाहाल में यह सोच कर नहीं रुकता कि जिस स्लम के सच को उसने देखा है उसे रोमाटिंक वह कैसे बना ले। असलियत यही है । इसीलिये यह ऑस्कर की दौड़ में है और अमिताभ का रोमाटिज्म यही मात खाता है ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-4278720353742224532008-12-23T10:19:00.001+05:302008-12-23T19:06:42.129+05:30विमान अपहरण करें या होटल में लोगों को बंधक बनाएं,आतंकवादियों के आगे घुटने न टेके जाएं : आमिर“आतंकवाद का मतलब सिर्फ बारुद नही है। ये समाज को छिन्न-भिन्न करके भी लाया जा सकता है। खासकर जब सुरक्षा के लिये संबंध टूटने लगें या लोग संबंध तोडंने लगें। सुरक्षा का मतलब पैसा हो जाये..बिजनेस बन जाये। यह सब हमारे चारों तरफ जमकर हो रहा है। मेरी फिल्म देखने वाले मुझे मि.परफेक्शनिस्ट कहते हैं। लेकिन मैं क्या करुं...सिर्फ अदाकारी कर खामोश हो जाऊं। इंतजार करुं की कोई फिल्मकार मुझे किसी फिल्म में किसी चरित्र को जीने का मौका दें। और न दे तो क्या करुंगा...खामोश बैठा इंतजार करता रहूं। मै फिल्म बनाता हूं। उसे बेचने के गुर अपने तरीके से विकसित करता हूं, जिससे अगली फिल्म बना सकूं। आतंकवाद के खिलाफ खुद को कैसे तैयार करना है, इसे हमें आपको भी समझना होगा। सिर्फ सरकार या नेताओं के आसरे सबकुछ कैसे छोड़ा जा सकता है। आतंकवाद समाज को बांट रहा है तो एकजूट समाज को होना होगा...महज राजनीतिक एकजुटता दिखायी देने लगी है तो उससे काम नहीं चलेगा ।" फिल्म गजनी के प्रमोशन के लिये दिल्ली पहुंचे आमिर खान का नजरिया किसी भी फिल्मकार या कलाकार से कैसे बिलकुल अलग है, इसका एहसास इस बात से हुआ कि अपनी ही रिलीज होने वाली फिल्म गजनी से हटकर बात करने पर उन्हें कोई एतराज नहीं था।<br /><br />ताज-ओबेराय पर हमले के बाद रईसों के चोचले जाग उठे..जो फुटपाथ-बाजार-रेलवे स्टेशन पर आंतकवादी धमको के बाद नही जागते। इस सवाल के पूरा होने से पहले ही आमिर ने बिना शिकन कहा..जी, ऐसा सोचा जा सकता है। मै तो कहता हूं ऐसा सोचा जा रहा है, तभी आप ऐसा सवाल कर रहे हैं। लेकिन यह तो हम सभी को मिलकर सोचना होगा आखिर किसी न किसी की जान तो दोनो जगहों पर जा रही है । संयोग से दोनो को अलग-अलग कर दिया गया है। यह नजरिया कहां से आया। इसे तो कोई आंतकवादी ले कर नही आया। मैं खुद जब घर के ड्राइंग रुम में टेलीविजन पर धधकते ताज होटल की तस्वीरें देख रहा था, उस वक्त मेरे बेटे ने मुझसे कहा, फिल्म सरफरोश आपको फिर से दिखलाने की व्यवस्था करनी चाहिये और अब आप फिल्म में आंतकवादियो से मार नहीं खाना....। अब आप सोचिये कितना असर मुबंई हमलो का बच्चों पर हुआ है। लेकिन उनके अंदर का गुस्सा निकल किस रुप में रहा है।<br /><br />यह एक रोमांटिग सोच है कि लोग फिल्मों के जरीये समाधान देख रहे है। मैं अभिताभ बच्चन की अदाकारी का मुरीद हूं । लेकिन आप ही मुझे बताये कि जिस आक्रोष की छवि को आपने अमिताभ में देखा...उसमें अपने आप को उनका हर फैन देखता था। लेकिन उससे समाज या व्यवस्था की जटिलता कम नही हो गयी। वह भी बिजनेस था लेकिन तब किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि ऐसे किरदार का सिनेमायी स्क्रीन पर उतारना बिजनेस है। अब वक्त बदल गया है । अब सिर्फ चरित्रों के आसरे बिजनेस नही किया जा सकता। मैंने कई तरह की फिल्में की। फिल्म "दिल चाहता है " की थीम को देखें । उस चरित्र को समाज के भीतर हकीकत में देखा जा सकता है। लेकिन अब के दौर में यह भी समझना होगा कि कोई चरित्र इतना आइडियल नही है कि वह आपको बिजनेस दे दे । उस फिल्म के प्रमोशन के लिये हमने कई अलग अलग प्रयोग किये । वक्त सिर्फ बीतते हुये नही बदला है बल्कि जीने के अंदाज में भी वक्त बदल गया है। जिसे हमारी सरकार या कहे देस चलाने वाले समझ नही पा रहे हैं । और अगर समझ रहे है तो उस दिशा में कोई पॉजेटिव कदम नही उठा रहे है ।<br /><br />तो क्या यह माना जाये जो धंधा करना नहीं जानता है वह आज के दौर में फेल है और आमिर खान उसी लिये मि. परपेक्शनिस्ट है, क्योकि वह धंधा समझते हैं। आप कह सकते है , बिलकुल । लेकिन धंधे का मतलब सिर्फ पैसा कमाना नही है । अब आप इसे ऑफ-द-रिकार्ड मानें या मान ही लें.....पैसे पर सरकार से ज्यादा लोगों का भरोसा हो गया है। यह किसी बिजनेसमैन ने तो देश को नही सिखाया। मैं मुंबई में देखता हूं, या कहे देश के जिस भी हिस्से में फिल्म निर्माण को लेकर जाना होता है, या कहूं मेरा ताल्लुक जिन लोगों से पड़ता है। मै देखता हूं कि पैसा बनाने-कमाने की होड़ सबसे ज्यादा है । और जिसे नुकसान हो रहा होता है वह अपने आप को सबसे ज्यादा असुरक्षित मानता है। बॉलीवुड ही नही किसी भी क्षेत्र में मैंने देखा है कि जिसके पास मनी है वह खुद को सबसे सुरक्षित समझता है । पहले तो ऐसा नहीं था । पहले देश और सरकार भी सुरक्षा का एहसास कराते थे । अब आप ही बताइये यह स्थिति पैदा किसने की । हमने आपने तो नहीं की। लेकिन इन स्थितियों में भी मै फिल्मों को लेकर नये प्रयोग करता हूं । फिल्म "लगान" तो ग्रामीण परिवेश की फिल्म थी । जिसमें भाषा भी हिन्दी नही थी । अवधी सरीखी भाषा थी । उस फिल्म पर महिनों काम करना और बनान रिस्क था या कि शुरुआती दौर में फिल्मकार की या मेरे जैसे कलाकार को देखें तो मूर्खता लगेगी । लेकिन फिल्म बनी और कमाल दिखाया उसने । मै खुद धोती-कमीज पहन कर जगह -जगह गया क्रिकेट खेली । मेरी पूरी टीम ने देश के अलग अलग हिस्सों में बकायदा सिनेमायी परिवेश को सड़क पर उतारा।<br /><br />जाहिर है यह नया सवाल यहीं से खड़ा होता है कि आमिर खान गजनी के प्रमोशन में दिल्ली आये तो बंगाली मार्केट पहुंच कर अपने फैन के बाल काटने लगे...जबकि पहले दिलीप कुमार हो , राजकपूर हो या देव आन्नद या फिर अभिताभ बच्चन भी, वह आम लोगो के बीच कभी नही जाते थे । आमिर तो मेघा पाटकर से मिलने उनके आंदोलन को समर्थन देने जंतर-मंतर पर भी चले जाते है। सही कहा आपने। लेकिन मैं न्यूज पेपर पढ़ता हूं तो मुझे लगता है कि नेता भी आम लोगों से नहीं मिलते । अब आप क्यों कहोगे । अगर बिजनेस ने लोगों से मिलने की मजबूरी सिखला दी तब तो यह बिजनेस नेताओं को सीखना चाहिये । इससे कम से कम आम लोग क्या सोचते है यह तो पता चल जायेगा। मुझे गुरुदत्त की "प्यासा" शानदार फिल्म लगती है । लेकिन प्यासा का निर्माण क्या बिना आम लोगो के सच को समझे बनाया जा सकता है। हकीकत में इसी तरह की फिल्म करना चाहता हूं । महबूब खान की मदर इंडिया हो या के. आसिफ की मुगले आजम और विमल राय हो या गुरुदत्त साहेब सभी ने अपने अपने तरीके से प्रयोग किये । मै भी कुछ नये की तलाश में हमेशा रहता हूं । मै इस कड़ी को आगे बढ़ाना चाहता हूं।<br /><br />लेकिन नर्मदा बांध का विरोध करने वालो के साथ खड़े होने पर आपकी फिल्म<br />"फना "को गुजरात के थियेटर में लगने नहीं दिया गया,इससे बिजनेस नही डगमगाता । मै एक बात कहूं...अगर किसी फिल्म में भी इस दृश्य को दिखलाना होता तो भी कोई स्टोरी राइटर या स्क्रिप्ट राइटर भी इस तरीके को ना अपनाता। क्योंकि इससे मेरी ज्वेनअननेस ही सामने आती है । फिर आप जिस दौर में जी रहे है उसमें तो हर चीज नफे-नुकसान में देखी-समझी जाती है। आप पता कीजिये उससे राजनीतिक घाटा गुजरात में नेताओं को ही हुआ होगा। क्योंकि लोग बेवकूफ नही रहे। तमाम सूचना माध्यम हर तरह की जानकारी लोगों को दे देते है। और मेरी क्रेडिबेलिटी यही है कि लोग मेरी फिल्मो के साथ जुड़ते हैं...जब मै उनके साथ खड़ा होता हूं। मेरी पूरी यूनिट "तारे जमी पर " फिल्म को लेकर शंका में थी । उन्हे लगता था कि यह फिल्म तो चल ही नही सकती। लेकिन मुझे भरोसा था । मैं बच्चो की स्थिति स्कूल में, टूटते संयुक्त परिवार में, जहा सिर्फ नौकरी पेशा वाले मां-बाप होते है, को समझता हूं । क्योंकि लोगो से लगातार मिलता रहता हूं, इसलिये इस फिल्म की कहानी सुनते ही मैंने तुरंत हामी भर दी। और मै आज यकीन से कहता हूं कि मेरे बीस साल के कैरियर की चौंतीस फिल्मो में यह श्रेष्ट फिल्म है।<br /><br />जब इतना भरोसा आपको अपने उपर है तो शाहरुख से दिल्लगी करके आप क्या जतलाते है। सही कहा आपने यह दिल्लगी ही है। हम दोनों हमउम्र है । वह पर्दे पर रोमांटिक है। मैं जिन्दगी में । लेकिन यकीन कीजिये यह दिल्लगी बिजनेस नहीं है ।<br />लेकिन आमिर जब तमाम संस्थान कमजोर हो रहे हो..तब बॉलीवुड कैसे बचेगा । आप खुद आंतकवाद के खिलाफ सड़क पर नहीं आये बल्कि ब्लॉग के जरीये अपना विरोध जतला दिया। ना..ना यह कोइ जरुरी नहीं है कि हर बात के लिये सड़क पर आया जाये । मैंने आतंकवाद के खिलाफ अपनी बात कही । हां ...यह सही है कि जब कुछ ना बचेगा तो बॉलीवुड कहा बचेगा। लेकिन आतंकवाद जैसे संकटों से बॉलीवुड या फिल्में निजात नही दिला सकती । इसके लिये देश को कड़े निर्णय लेने होंगे। आतंकवादियो के सामने झुकना नही होगा। आतंकवादियो को यह मैसेज देना जरुरी है कि वो विमान अपहरण करें या पांच सितारा होटल में गोलाबारी करके लोगों को होस्टेज बना लें, लेकिन उनकी मांगो को नही माना जायेगा। किसी भी तरह समझौते का रास्ता धीरे धीरे सौदेबाजी की तरफ ले जाता है। इससे बचना होगा । इसके लिये सबकुछ सरकार पर नही छोड़ा जा सकता । सभी को एकजुट होना ही होगा । नहीं तो बंट-बंट कर हम आतंकवाद को मजबूत कर देंगे। आखिर में यह कह दूं कि हर कोई अगर मि. या मिसेज परफेक्शनिस्ट हो जाये तो न्याय के लिये इंडिया गेट पर मोमबत्ती जलाने या गेट-वे-आफ-इंडिया पर ह्यूमन चेन बनाने की जरुरत नही पड़ेगी।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-33916340685251665652008-10-24T07:12:00.004+05:302008-10-24T10:29:02.796+05:30रगों में दौड़ती मुंबई का चेहरा बदल चुका हैसाठ के दशक की फिल्म 'शहर और सपना' से लेकर सुकेतु मेहता की किताब 'मैक्सिमम सिटी' के बीच चार दशकों का फासला है। मुंबई को लेकर बनी फिल्म 'शहर और सपना' राजकपूर और दिलीप कुमार के दौर की है। इसमें रोजगार की तलाश में बिहार-उत्तर प्रदेश-बंगाल से मुंबई पहुंचे मजदूरों के दर्द का किस्सा है,जो सोलह से अठारह घंटे खटता है। रात कहीं पाइप में तो कहीं पटरी पर तो कही पुल के नीचे या सीढियों तले गुजारता है।<br /><br />फुर्सत के क्षणों में सिनेमा ही उसका साथी है और उन सब के बीच कहीं बॉलीवुड का कोई नायक-खलनायक या नायिका को शूटिंग के दौरान देख लेता है, तो उसकी जिन्दगी तर जाती है। होली-दिवाली या ईद के मौके पर जब वह गोरखपुर-छपरा-दरभंगा-आसनसोल लौटता है, तो मुंबई की चकाचौंघ उसकी कहानियां होती हैं और उन कहानियों में वह खुद को भी कहीं ना कहीं खड़ा कर मुंबई का हिस्सा बनता है। और मुंबई जाने की चाह इन छोटे शहरों के लड़कपन छोड़ जवान होती पीढियों की आंखों में बड़े हो रहे सपनो को पंख लगाते हैं।<br /><br />इसलिये मुंबई चार दशक पहले मैक्सिम सिटी नहीं थी । वह सपनों का शहर था, जिससे जुड़ने की चाह हर किसी में पनपती थी। गांव की मिट्टी का सोंधापन अगर किसी के आंगन में खत्म होता और बडी इमारत वहां बनती तो उसके साथ अगर मुंबई की कमाई जुड़ी होती तो इमारत या हवेली का अंदाज राजकपूर-देवआनंद या युसुफ मियां यानी दिलीप कुमार के सात जुड़ ही जाता। अगर दिवाली या ईद के मौके पर कोई नया फैशन किसी की घरवाली दिखा जाती तो मीना कुमारी-वहीदा रहमान या साधना से जोड़ कर मुंबई की महक गांव की किस्सागोई का हिस्सा बनती चली जाती।<br /><br />यह किस्से मुबंई को उस वक्त भी गांव और छोटे शहरों में जिलाये रखते, जिस वक्त पिया का इंतजार होता । और एक दिवाली से दूसरी दिवाली इसी आस में कट जाती कि फिर मुंबई की चकाचौंध समूचे गांव में एक नया किस्सा गढ़ेगी और इंतजार का दर्द झटके में फुर्र हो जायेगा।<br /><br />लेकिन चार दशक बाद सपनों को ध्वस्त कर मुंबई की नयी तस्वीर मैक्सिम सिटी के तौर पर उभरती है, जिसमें अपराध और पैसा अफरात में है। जिसमें पटरी से लेकर पाइप और ढाबा से लेकर पुल के नीचे का सराय भी माफियागिरी का हिस्सा है । जिसमें सबकी हिस्सेदारी है । हिस्सेदारी में किसी तरह की भागेदारी का संघर्ष समूची मुंबई को खाये जा रहा है। और मुबंई के सपने की जगह उस पूंजी ने ले ली जो हिस्सेदारी और भागेदारी से एक नये समाज को बनाने में जुटी है । यह समाज अपने पैरो की जगह उस अफरात पैसे को पैर बनाने पर आमदा है, जो उसे एक झटके में समाज से अलग कर सात संमदर पार ले जा सकता है। <br /><br />यह नयी जमात अंडरवर्ल्ड की है । जिसमें हिस्सेदारी और भागेदारी किसी को भी कहीं का कहीं पहुचा सकती है । साठ के दशक में कैफी आजमी आजमगढ़ से ही मुंबई पहुंचे थे, और नब्बे के दशक में आजमगढ़ से ही अबू सलेम पहुंचा। नब्बे के दशक में कैफी को मुंबई तंग लगने लगी थी । वह आजमगढ़ लौटने को बैचेन रहते थे। जिस शहर के सपनों के आसरे उन्होंने अपने शहर को हवा दी, तीन दशक बाद उसी शहर मुबई में उनके सपने समा नही पा रहे थे तो वह आजमगढ़ लौट कर अपने सपनों को हवा देने लगे। <br /><br />लेकिन नब्बे के दशक में अबू सलेम का जो सपना आजमगढ़ पहुंचा, वह मुंबई के पार दुबई होते हुये सिंगापुर और मलेशिया तक का था । <br /><br />पैसे ने देश की सीमा लांघी तो बाजार के खुलेपन ने सामाजिक-राजनीतिक तानाबाना भी तोड़ दिया । नया समाज अगर उस पैसे पर आ टिका जो सपना नही सच है तो राजनीति ने सच को सपना करार दिया । जिस दलित आंदोलन ने मुंबई समेत महाराष्ट्र को अस्मिता और संघर्ष का पाठ पढाया, नयी अर्थव्यवस्था के सामने उसने घुटने टेक दिये। अंबेडकर ने जागरुकता तो दी लेकिन राजनीतिक तौर पर कोई ऐसा मंच नहीं दिया, जहां समाज बदलने का सपना संजोया जा सके। मुंबई सपनों के शहर से मैक्सिमम सिटी में बदली तो दलित मराठी को भी समझ में नही आ रहा कि दलित का तमगा लगाकर वह किस संघर्ष को अंजाम देगा। अचानक दलित मराठी युवक मराठी मानुष में अपने आस्तित्व को देखने लगा है।<br /><br />पूंजी से पूंजी बनाने के नये खेल ने उस औघोगिकरण को भी चौपट कर दिया जो ना सिर्फ रोजगार देते थे बल्कि मजदूरो का एक समाज भी बनाये हुये थे। मुंबई समेत महाराष्ट् के चार लाख से ज्यादा छोटी बड़ी इंडस्ट्री बीते ढाई दशक में बंद हो गयी या बीमार होकर ठप पड़ गयी । राज्य के करीब पचास लाख से ज्यादा कामगार इस दौर में बेरोजगार हो गये । जो बेरोजगार हो रहे थे उनके परिवार में बच्चे स्कूली पढाई करते हुये यह समझने लगे थे कि बाप के पास रोजगार नहीं है तो पढाई तो दूर दो जून की रोटी को लेकर भी घरो में बकझक होनी है। होने भी लगी । सोलापुर की चादर या सूती कपड़े इतिहास बन गया। चार बड़ी मिलें और साठ से ज्यादा छोटे उघोग जो इन मिलों पर टिके थे, बंद हो गये । <br /><br />कमोवेश कोल्हापुर-लातूर-बीड-औरगाबाद से लेकर विदर्भ के नागपुर तक यही स्थिति होती चली गयी । जिन जमीनों पर उघोग थे या जितने उघोग थे उन्हे कोई संकट नहीं आया क्योंकि उनके लिये बाजार पंख फैला रहा था। सबकुछ मुनाफे में बदलना था तो बदला भी । लेकिन संकट इन ढाई दशको में उस पीढी को हुआ, जिसने घर में बाप के रोजगार के संकट को स्कूली जीवन में देखा और जब उसके कंधे मजबूत हुये तो रोजगार का कोई साधन उसके पास नहीं था । बाप की मजबूरी में बाप की कोई शिक्षा भी मायने नही होती, तो हुई भी नहीं । रोजगार के समूचे साधन राजनीति के आसरे टिके तो राजनीतिक विचारधाराओ ने भी दम तोड़ दिया। आंदोलन के जरिये बने राजनीतिक दल भी पैसे वाली सत्ताधारियों के जेबी पार्टियो के तौर पर झुकने लगी । इसे लुंपन राजनीति की काट महाराष्ट्र की राजनीति में आधुनिक राजनीति का लेप लगाकर बाल ठाकरे ने ही परोसी। राजनीति रोजगार है, इसे खुले तौर पर उन लड़को के सामने रखा, जिन्होंने बचपन मे अपने घरों में अंबेडकर-फुले के आंदोलन को पढ़ा समझा। सामजवादियो के परिवार के लड़के भी ठाकरे के साथ हुये । बेरोजगारी के आलम में बाप -बेटे की आंखों में आयी दूरी ने बेटे को लुंपन राजनीति को बतौर रोजगार आत्मसात करने से रोका भी नहीं।<br /><br />मजदूर संगठन से लेकर करीब 22 संगठन शिवसेना ने नब्बे के दशक में बनाये । 1995 के चुनाव में ठाकरे के साथ हर सभा में युवा नारा लगाता था, जिधर बम उधर हम । लेकिन सत्ता मिलने के बाद रोजगार के तरीकों को सत्ता से जोड़कर कैसे चलाया जाये, जिससे हिस्सेदारी और भागेदारी का खेल बंद हो, इसे शिवसेना ना समझ पायी। लेकिन इस पीढी को यह समझ आ गया कि सत्ता के खिलाफ खड़े होने की राजनीति रोजगार का धन तो मुहैया करा सकती है। विरोध को लामबंद जो करेगा, सत्ता की सौदेबाजी में उसके सामने सभी को नतमस्तक होना भी पड़ेगा। हुआ भी यही । बाल ठाकरे, जहां उम्र की वजह से चूकते हैं, वहा राज ठाकरे खड़े होते हैं। राज ठाकरे उस राजनीतिक दौर की देन हैं, जहा राजनीति सरोकार की भाषा भूल चुकी है और पूंजी के आसरे सत्ता को बनाये रखने का मंत्रजाप कर रही है।<br /><br />माना जाता है शरद पवार ने जब कांग्रेस छोड़कर एनसीपी बनायी तो जलगांव में एक सभा की और जो उनके साथ शामिल हुआ उसे एक बैग और महेन्द्रा की एक नयी जीप की चाबी दी गयी। उस दौर में पवार बतौर मराठा ही नही, पोटली के मामले में भी सबसे ताकतवर थे । ताकतवर पवार अब भी है लेकिन अब कई नेताओ की पोटली भारी है । पूंजी सबके पास है। और रुपया से रुपया बनाने का खेल मनमोहन सिंह की बाजार अर्थव्यवस्था ने सिखला दिया है तो सत्ता भी उसी रास्ते चल पड़ी है । इसलिये यह कहना बेमानी होगा कि कांग्रेस-एनसीपी ने राज ठाकरे पर पहले लगाम नहीं लगायी, जिसका परिणाम अब नजर आ रहा है।<br /><br />असल में आम लोगो से सरोकार की राजनीति हाशिये पर कांग्रेस-एनसीपी ने ही ढकेली है, इसलिये मामला कानून-व्यवस्था का नहीं है । मामला उस राज्य को बनाने का है, जहां जीने के लिये कोई रास्ता चाहिये । संयोग से मराठी मानुष का रास्ता सत्ता को सीधे चुनौती देकर सौदेबाजी कर सकता है, तो यही ठीक है । वजह भी यही है कि मुबंई से निकली आग जब बिहार के उन शहरो में फैल रही है, जहां कभी मुंबई से खुद को जोड़कर सपने रचे जाते थे, तो समझ उन सपनों को रचने की नहीं बल्कि अपने घेरे में उसी मुंबई को बनाने की है, जहां हिस्सेदारी और भागेदारी की मांग सीधे सत्ता से की जा सके। लेकिन इसके लिये सत्ता को भी पूंजी की ताकत चाहिये , जो नेता लोग पहली बार युवा पीढी को झोंककर बनाना चाहते है। इसीलिये पहली बार राजठाकरे ने मुंबई के कामगारों में नहीं बिहार के नेताओं में यह टीस भरी है कि फिर बिहार मुंबई क्यों नहीं । बिहार के सत्ताधारियों के लिये न्यूइकनामिक्स का यही मॉडल आधुनिक संपूर्ण क्रांति है ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-24023527706799516962008-09-09T10:06:00.004+05:302008-09-09T14:36:32.925+05:30बालीवुड की नजर में फेल हो चुके है राज्यये किताब रुसी लेखक अलेक्जेन्डर बुश्किन की है...बहुत शानदार लिखा है..सुनो....और वक्त तुर्कमानी घोड़ों की तरह भागता चला गया.........."<br /><br />"चमकू " फिल्म का यह संवाद नक्सली नेता का एक बच्चे से है । यह उस बच्चे की ट्रेनिंग है, जो फिल्म का नायक बनेगा। एसेंस की तरह नक्सलवाद को छू कर बाजारु होने की दिशा में बढती फिल्म राज्य की हर उस पहल पर सवाल उठाती है , जो हिंसा को खत्म करने के लिये प्रतिहिंसा का आसरा लेती है। एक दूसरी फिल्म "मुखबिर" भी हिंसा को खत्म करने के लिये राज्य की हिंसक पहल के लिए राज्य को ही कटघरे में खडा करती है । फिल्म "वेडनस-डे" भी आंतकवाद के खिलाफ राज्य की हिंसक कार्रवायी को लेकर एक ऐसा सवाल खडा करती है, जहां आम आदमी असहाय और विकल्पहीन नजर आता है।<br /><br />दरअसल, बॉलीवुड की हाल की फिल्मो में यह साफ उभारा जा रहा है कि नायक की खलनायकी के पीछे राज्य की खलनायक पहल है। और खलनायक होते हुये भी नायक का चरित्र बरकरार रहता है लेकिन राज्य की खलनायकी का चेहरा और ज्यादा विकृत होते जाता है । लेकिन तीन नयी फिल्म चमकू, मुखबिर और वेडनसडे में बेहद महीन तरीके से मानवाधिकार संगठनो की उस आवाज को बुलंदी दी गयी है, जिसमें बार बार नक्सलवाद, आंतकवाद और कट्टरपंथी हिंसा के नाम पर राज्य की पहल किस तरह आंतकवादी या हिंसात्मक हो जाती है, और जिसे स्टेट टेरर के नाम से बार बार उठाया जाता है।<br /><br />समाज में हिंसा की वजह राज्य की नाकाम नीतियां है । नाकाम नीतियों की वजह से उसके भुक्तभोगियों के सामने प्रतिहिंसा के अलावे कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता । और इस प्रतिहिंसा का लाभ राज्य कैसे उठाता है और स्टेट टेरर का साधन इन प्रतिहिंसा करने वालो को कैसे बनाता है, बॉलीवुड की इन तीनो नयी फिल्मों में बखूबी नज़र आता है।<br /><br />दरअसल, पुलिस महकमा नाकाम हो चुका है , यह सिनेमायी पर्दे पर सत्तर के दशक में नजर आने लगा । लेकिन पुलिस के साथ साथ प्रशासन भी भष्ट्र और नाकाम हो रहा है, यह नब्बे के दशक में उभरा । लेकिन बीते डेढ़ दशक में आंतकवाद और नक्सलवाद को लेकर राज्य ने सुरक्षा की जो पहल की उसमें राजनेता और खुफिया विभाग के अलावा एक विशेष एजेंसी का जिक्र हर बार आया । लेकिन, आतंकवाद और नक्सलवाद से निपटने के जो तरीके राज्य ने अपनाये और दोनो की हिंसा या प्रसार में जो तेजी इसी दौर में हुई उसने राज्य की पहल को लेकर यूं भी समाज के भीतर एक बहस तो छेड ही रखी है। नक्सलवाद को लेकर छत्तीसगढ सरकार का सलवाजुडुम का प्रयोग अब बॉलीबुड का मसाला बन चुका है । सलवाजुडुम में वही आदिवासी बंदूक उठाये हुये हैं, जिनके लिये नक्सलवाद लड़ने का ऐलान करता है । लेकिन नक्सलवाद की बंदूक राज्य के खिलाफ है और सलवाजुडुम में शामिल आदिवासियों की बंदूक राज्य की लाइसेंसी बंदूक है। सवाल है कि सलवाजुडुम को लेकर जब सुप्रीमकोर्ट यह सवाल खड़ा करता है कि राज्य किसी को भी बंदूक कैसे थमा सकता है, और राज्य सरकार जबाब देती है कि इन आदिवासियो की सुरक्षा की उसे चिंता है और आदिवासी आत्मसुरक्षा को लेकर राज्य से गुहार लगा रहे है तो राज्य के सामने भी कोई दूसरा विकल्प नहीं है।<br /><br />सवाल है कि यहां राज्य से सुप्रीमकोर्ट यह सवाल नही करता कि नक्सलवाद की वजह क्या है या फिर पुलिस महकमा क्या पुरी तरह नाकाम हो गया है। लेकिन बॉलीवुड इस सच को पकड़ता है और बॉलीवुड पहुंचते-पहुंचते सुप्रीमकोर्ट का यह सवाल बिलकुल नये कलेवर के साथ सामने आता है। जहां नक्सलवादियों से मानवीयता की ट्रेनिग पाया "चमकू"का नायक नक्सलवादियों के राज्य की गोलियों से खत्म होने के बाद राज्य के लिये सबसे बेहतरीन खुफिया सुरक्षाकर्मी साबित होता है। चूंकि ट्रेनिंग नक्सलवाद की है तो राज्य का खुफिया अधिकारी यह कहने से नहीं घबराता कि राजनीतिक समझ चमकू की बेहद उम्दा है । जिन परिस्थितयों में जंगलों में रहना पड़ता है, उसमें राज्य के अधिकारी यह मानने से नहीं कतराते की किसी भी पुलिसकर्मी या सुरक्षाकर्मी से ज्याद तेज-फुर्तीला चमकू है । इतना ही नहीं हर कट्टरपंथी हिंसा और आंतकवाद को भेदने के लिये चमकू सरीखा नायक उनके पास नहीं है । लेकिन चमकू इन परिस्थितयो में जिन वजहों से आया वह राज्य की ही कमजोर नीतियों का नतीजा है , इसपर जहां जहां सवाल उठने की गुंजाइश बनती है वहां वहां राज्य खामोशी की चादर ओढ लेता है । चालीस साल में छह जिलों से देश के सवा सौ जिलों में नक्सलवाद फैल गया, इसकी वजहो पर कभी गृहमंत्रालय की रिपोर्ट तैयार नही हुई। आदिवासी-ग्रामीण इलाकों में विकास की लकीर ना खिंचने की जो वजहें रही, उसको उभारने की हिम्मत देश की किसी सरकार ने नहीं की । चमकू के पिता का हत्यारा और उसे मौत के मुंह में पहुचाने वाला शख्स राज्य की व्यव्स्था का हिस्सा बनकर सट्टेबाजी का किंग बन चुका है और उसे मारना नामुमकिन है, सेंसरबोर्ड चमकू में यह बताने की इजाजत तो दे देता है लेकिन जो हिंसा नक्सलवाद और आंतकवांद के नाम पर हो रही है उनके पीछे राज्य का कितना आंतक है, यह सवाल आते ही मंत्री या देशभक्ति का एसा जज्बा जगाया जाता है कि हर कोई लाचार हो जाता है । यह लाचारी किस हद तक समाज के भीतर या कहे राज्य के सिस्टम में मौजूद है इसे "मुखबिर" में कई स्तर पर उठाया गया है।<br /><br />अगर राज्य की नीतिया राज्यहीत के ही खिलाफ है , तो कोई न्याय की गुहार कहां करेगा । खास कर जो राज्य व्यवस्था के चक्रव्यू में फंस जाये और एक तरफ राज्य को एहसास हो कि उसने गलत तो किया है लेकिन गलती मानने का मतलब अपने उपर सीधे सवाल खडा करना हो तो ऐसे में कुछ मासूम जिंन्दगियों से खिलवाड़ में फर्क क्या पडता है । यह सवाल फिल्म " वेडनेसडे " उठाती है । लेकिन हर विकल्प और समाधान का रास्ता किस तरह हिंसा की गिरफ्त में जा रहा है, इसे अगर राष्ट्रीय मानवाधिकार रिपोर्ट में राज्य की हिंसा के बढते आंकडे से समझा जा सकता है तो फिल्म में राज्य का अपने ही नागरिको को लेकर संवाद की हर स्थिति खत्म करने की पहल और न्याय के बंद होते रास्तों से समझा जा सकता है।<br /><br />मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक देश में पिछले दो दशको में करीब पचास हजार निर्दोष आदमी को जेल की सलाखो के पीछे पहुचना पड़ा । करीब एक लाख से ज्यादा मामले है, जिसमें राज्य की भूमिका पर उंगली उठी है और हर साल समूचे देश में हर राज्य में करीब सौ से ज्यादा मामले होते ही है, जिसमें राजनेताओं को संसदीय राजनीति के अधिकार में छूट मिल जाती है या दंबगई से छूट ले लेते है । खासबात यह है कि उस सच को राज्य भी सूंड से पकडने से घबराता है और बॉलीवुड अपनी कला के जरीये पूंछ से ही मुद्दे को पकड़ कर सूंघ दिखाने का प्रयास कर रहा है । आंतकवादी हिंसा की प्लानिंग करने वाले मुखिया को लेकर अभी राज्य ने बहस शुरु नहीं की है लेकिन सिनेमाई पर्दे पर इसका सच सामने आने लगा है । राज्य की खुफिया एंजेंसी आंकतवादी हिंसा को आंजाम देने वाले प्यादो को लेकर तो छोटे और पिछडे गरीब शहरो की तरफ अपनी रिपोर्ट में लगातार उंगली उठा रही है, और उस तबके पर भी नजर रखने की दिशा में राज्य को हिदायत दे रही है, जिन्हें आईएसआई अपना औजार बना रही है। जो बतौर नौकरी या रोजगार के तौर पर आंतकवादी हिंसा को अंजाम देने से नहीं चुक रहे है। राज्य का तंत्र जिस रुप में काम कर रहा है उसमें राज्य एक खास तबके का होकर रह जा रहा है और बहुसंख्य तबके के साथ राज्य का संवाद खत्म होता जा रहा है । संवाद खत्म होने की स्थिति में फिल्म"वेनसडे" में अगर नसीररुद्दीन के सामने आंतकवादी हिंसा के जरीये अपनी बात कहने के अलावे कोइ दूसरा रास्ता नहीं बचता तो फिल्म"मुखबिर"में इस तरह की आंतकवादी हिंसा को नाकाम करने के लिये राज्य की हिंसा का औजार भी कैसे वही मासूम-निर्दोष आम शख्स बन जाता है, इसे बखूबी दिखाया गया है । आतंकवादी हिंसा के पीछे जो लोग है वह किन मनोस्थितियों में से लगातार गुजर रहे है और आंतकवाद को खत्म करने के लिये राज्य की पहल किन मनोस्तियों में कैसे महज रिपोर्ट और प्रमोशन के ही इर्द-गिर्द घुमने लगी है , और राजनीति सत्ता को बरकरार रखने या सत्ता बनाने का कैसा खेल खेलने लगती है अब यह भी सिनेमायी पर्दे पर उभरने लगा है । खास बात यह भी है कि की जिन मुद्दों पर बहस करने से राज्य बच रहा है , उस और बॉलीवुड की नजर है । अलग अलग जगहो पर हिंसक घटनाओं पर हुई राजनीति से समाज के भीतर खटास पैदा हुई है और आंतकवाद को लेकर राजनीतिक दल ना सिर्फ एक दूसरे पर निशाना साध रहे है बल्कि केन्द्र सरकार को भी कटधरे में यह कहते हुये खड़ा किया किया जा रहा है कि उसकी मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति की वजह से आंतकवाद की घटनाएं बढ़ी हैं, ऐसे में फिल्म"वेनेसडे"में आंतकवादी का नाम और मजबह तक ना बताना उस सकारात्मक समाधान की तरफ ले जाता है, जिससे राज्य लगातार बचता रहा है। और हाल के दौर में जानबूझकर बचना भी चाहता है।<br /><br />इतना ही नहीं फिल्म"वेडनसडे" आंतकंवादी को बिना सजा दिलाये, जिस मोड़ पर खत्म हो जाती है, वह राज्य के फेल होने की उस दास्तां को उभार देती है, जिसमें हर बार किसी भी आंतकवादी घटना के बाद किसी को भी पकड़ कर उसे सजा दिलाने की जद्दोजहद में पुलिस-खुफिया एजेंसी जुट जाती है । खुद को सफल बताने के लिये नयी कहानी गढती है लेकिन अदालत की चौखट पर सबकुछ फेल हो जाता है और एक वक्त के बाद आरोपी छूट जाता है और लोग भी भूल जाते है कि कौन सा आरोपी किस घटना का जिम्मेदार था, जिसे सजा मिली या नहीं । लेकिन फिल्मों को देखने के बाद यह सवाल आपके भीतर बार बार उभरेगा कि नक्सलवाद-आंतकवाद और कट्टरपंथियो की हिंसा की काट राज्य की प्रतिहिंसा हो चली है । जिसमें जान मासूम और निर्दोष की ही जायेगी क्योकि इस सिस्टम में आम आदमी के पास कोई विकल्प नही बचा है ।<br />खैर पश्चिम बंगाल के वामपंथ के पूंजीवादी चेहरे पर चर्चा अगली बार।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com12