tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger3125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-20406253206468745482010-09-27T12:22:00.001+05:302010-09-27T12:23:30.543+05:30भाजपा का अनूठा सचनरेन्द्र मोदी भाजपा के स्टार प्रचारक हैं। नरेन्द्र मोदी भाजपा के सबसे कद्दावर नेता हैं। नरेन्द्र मोदी भाजपा शासित राज्यों में सबसे अव्वल मुख्यमंत्री हैं। नरेन्द्र मोदी विकास की लकीर खींचने में माहिर हैं। नरेन्द्र मोदी के हिन्दुत्व प्रयोग के आगे तो संघ परिवार भी नतमस्तक है। नरेन्द्र मोदी के नाम के साथ यह ऐसे अंलकार हैं, जो भाजपा और आरएसएस में बीते नौ सालो से लगातार सुने जाते रहे हैं। लेकिन नरेन्द्र मोदी बिहार में चुनाव प्रचार करने नहीं जा सकते। नरेन्द्र मोदी बिहार गये तो भाजपा-जेडीयू गठबंधन का चुनावी भट्टा बैठ सकता है। नरेन्द्र मोदी अगर बिहार गये तो नीतीश गठबंधन ही तोड़ सकते हैं। यानी एक ही व्यक्ति को लेकर एक ही वक्त दो बातें कैसे कहीं जा सकती हैं। असल में नरेन्द्र मोदी बिहार चुनाव प्रचार के मद्देनजर वजीर से सिर्फ राजनीतिक प्यादा ही नहीं बने हैं बल्कि भाजपा के भीतर राजनीतिक रस्साकसी में उस रस्सी में तब्दील किये जा रहे हैं, जिसमें जीत-हार रस्सी खींचने वालों की होगी और मोदी के हक सिर्फ इस या उस खेमे के हिस्से में जाना ही बचेगा। <br /><br />अगर भाजपा की इस राजनीति का पोस्ट्मार्टम करें तो पहली नजर में यही लगेगा कि आखिर नरेन्द्र मोदी को लेकर नीतीश कुमार भाजपा पर क्यों दबाव बना रहे हैं। जबकि राजनीतिक मंत्र तो यही कहता है कि नरेन्द्र मोदी पर निर्णय तो भाजपा को करना है। तो क्या जानबुझकर भाजपा के भीतर से एक खेमा नीतिश कुमार को उकसा रहा है कि वह नरेन्द्र मोदी को बिहार जाने से रोकने के लिये कुछ इस तरह अपनी बात रखे जिससे मुस्लिम समुदाय को यही संकेत जाये कि नीतीश ने उस मोदी से टक्कर ली है, जिसके आगे भाजपा भी नतमस्तक है। या फिर नरेन्द्र मोदी पर इतनी कालिख पोत दी जाये कि भाजपा बिना नरेन्द्र मोदी के मॉडरेट लगे। यानी भाजपा की वह चौकडी जो दिल्ली में ही रहकर ना सिर्फ खुद सबसे ताकतवर जतलाना चाहती है, बल्कि दिल्ली से ही पार्टी को अपनी अंगुलियो पर नचाते हुये बागडोर को संभालना चाहती है। और भाजपा अध्यक्ष बनने के दौरान रिंग से ही बाहर किये जाने का खार अब भी आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत से खाये हुये है। <br /><br />असल में भाजपा की राजनीतिक रस्साकस्सी की नयी कहानी यहीं से शुरु हुई लेकिन पहली बार इस चौकडी के मंसूबे भी अलग अलग राह पकड़े हुये हैं और पार्टी अध्यक्ष नीतिन गडकरी को हाशिये पर ढकेल नरेन्द्र मोदी के कद को भी बौना साबित करने की जुगत में लगे हैं। इसलिये राजनीतिक रस्साकस्सी की इस कहानी में हर उस मुद्दे को देखने का नजरिया भी न देखने वाला हो चला है, जो कभी भाजपा के लिये ऑक्सीजन का काम करती। खासकर तीन मुद्दे किसान-आदिवासी, खेती की जमीन-खनन, अयोध्या-राममंदिर। उन मुद्दो पर आएं, उससे पहले नरेन्द्र मोदी की मुश्किलो को समझ लें। <br /><br />मोदी सोहराबुद्दीन फर्जी इनकाउंटर से ज्यादा संजय जोशी फर्जी सैक्स सीडी को लेकर फंसे हैं। एनकाउंटर मामले में फंसे गुजरात के अधिकारी अब यह बताने लगे है कि सीडी कैसे फर्जी बनी। उसे कैसे मुंबई अधिवेशन के वक्त बंटवाया गया। और यह जानकारी अब आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत के पास भी तथ्यों के साथ पहुंच चुकी है। और इसी के बाद भागवत ने भाजपा अध्यक्ष गडकरी से कहा कि संजय जोशी को भी भाजपा के सांगठनिक काम में लगायें। गडकरी जब भाजपा कार्यकारिणी बना रहे थे, जब संजय जोशी के नाम को लेकर नरेन्द्र मोदी का वीटो चला था और दिल्ली की चौकडी के एक नेता ने गडकरी को संकेत की भाषा में चेताया भी कि उस रास्ते ना जाएं, जहां टकराव से शुरुआत हो। <br /><br />लेकिन इस दौर में मोदी के गृहराज्यमंत्री ही जब सीबीआई के फंदे में आये और राज्य के 60 से 70 पुलिस-प्रशानिक अधिकारियो पर मोदी का एंजेडा चलाने पर कार्रवाई के संकेत कानूनी तौर पर मिल रहे हैं तो दिल्ली की चौकडी के नेताओ को यह महसूस भी होने लगा है कि इससे बेहतर मौका फिर नहीं मिलेगा, जब वह अपना कद मोदी से बडा कर लें। या फिर नरेन्द्र मोदी का कद छोटा कर दें। मनमोहन सरकार के साथ पहली बार कई मुद्दों पर जिस तरह भाजपा ने गलबईयां डालीं और बावजूद उसके मोदी को राहत दिलाने की पहल से ज्यादा सरकार चलाने को अहमियत दी, उसने भी भाजपा के भीतर एक नया सवाल खड़ा किया कि पहले दिन जब सीबीआई ने गुजरात के गृहराज्य.मंत्री और मोदी के सबसे करीबी नेता पर हाथ डाला तो प्रधानमंत्री का लंच भी आडवाणी-सुषमा स्वराज -जेटली ने खारिज कर दिया। लेकिन उसके बाद कभी मोदी के राहत का सौदा इन नेताओ ने नहीं किया। जबकि न्यूक्लियर बिल पर मनमोहन सिंह और हाल में कश्मीर मुददे को लेकर चिदबंरम बकायदा भाजपा नेताओ से मिले और एक लिहाज से नतमस्तक मुद्रा में रहे। <br /><br />भाजपा ने सरकार को संकट से उबारा भी। लेकिन मोदी को संकट में अकेले छोड़ा गया। यानी लगातार यह संकेत गया कि संसद में सरकार के सुर में सुर भाजपा भी मिला रही है। लेकिन दूसरी तरफ आरएसएस के संकेत के बाद गडकरी ने संजय जोशी को बिहार चुनाव के सर्वे में लगाया और पिछले हप्ते जब दिल्ली में भाजपा के मीडिया मैनेजमेंट की क्लास हुई, जिसमें देश भर से मीडिया से रुबरु होने वाले भाजपा कार्यकर्ता दिल्ली पहुंचे तो उन्हें संबोधित करते हुये लालकृष्ण आडवाणी समेत चौकडी की मौजूदगी में नीतिन गडकरी सीधे यह कह गये कि<br />, " एक बार जब पार्टी में कोई फैसला हो जाये , तो उस पर अलग अलग राय मीडिया के सामने नहीं जानी चाहिये ।" <br /><br />जाहिर है गडकरी के इस कथन को झारखंड में सरकार बनाने पर मचे घमासान से जोड़कर देखा जा सकता है लेकिन संघ परिवार के यह संकेत अयोध्या में राम मंदिर और टप्पल में किसान संघर्ष को लेकर गडकरी को दिये गये। आरएसएस में इस बात को लेकर बैचेनी है कि टप्पल में जिस वक्त किसान संघर्ष पूरे उभार पर था, उस वक्त किसान संघ दिल्ली के भाजपा हेडक्वार्टर में बैठक कर अपनी क्षमता और रणनीति बनाने के लिये बैठक कर रहा था। इसी तरह जब उडीसा के नियामगिरी के आदिवासियो का मसला आया तो संघ का आदिवासी कल्य़ाण सेवा मंडल अपने कार्यक्रमो की समीक्षा करते हुये राजनीतिक तौर पर भाजपा से मदद की सोच रहा था। और भाजपा जो एक वक्त उडीसा में बीजू सरकार के साथ थी उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसकी रणनीति ऐसे मौके पर किस राह चलनी चाहिये। भूमि अधिग्रहण को लेकर भी भाजपा की नीतियां सरकार की पिछलग्गू वाली ही हैं। हालांकि संघ का मानना है कि भूमि अधिग्रहण को लेकर मुआवजा सुधार के बदले भूमि सुधार जरुरी हैं। यानी इन मुद्दो के आसरे पहली बार संघ जहां यह मान रहा है कि अटल बिहारी वाजपेयी के बाद अब भाजपा में कोई नेता नहीं है जो मुद्दो को अपने तरीके से उठा सके और राजनीति को मुद्दो के सहारे उठा सके। <br /><br />लेकिन संघ का अंदरुनी सच यह भी है कि वह भी भाजपा से कोई चुनौती किसी मुद्दे पर नहीं चाहता है। इसलिये भाजपा नेतृत्व जितना कमजोर रहे उतना ही उसके अनुकूल है। क्योंकि मुद्दो के सहारे संघ के संगठनों को एक गांठ में पिरोना भी उसकी पहली प्राथमिकता है। इसका असर अयोध्या मसले पर अदालत के फैसले को लेकर भाजपा की संसदीय राजनीति में अगुवाई करने वाले नेताओ का पहल और आरएसएस की पहल से भी समझा जा सकता है। भाजपा का कोई वैसा नेता अयोध्या को लेकर मुखर नहीं है, जिसका कद संसद या दिल्ली की राजनीति में हैसियत ऱखता हो। आरएसएस भी नब्बे के दशक से इतर अपनी रणनीति बदलते हुये कानून और संविधान के दायरे में मंदिर के लिये सहमति का सवाल खडा कर अपनी लक्ष्मण रेखा खुद खींच रही है। यानी पहली बार अयोद्या को लेकर कोई चेहरा अभी तक पूरे संघ परिवार के भीतर से नहीं उभरा है, जो सामाजिक तौर पर या राजनीतिर तौर पर असर डाल सके। <br /><br />इसमें एक नाम नरेन्द्र मोदी का लिया जा सकता है। लेकिन उन्हें विहिप पसंद नहीं करता और आरएसएस घबराता है तो दिल्ली की राजनीति में कद बढ़ा कर बैठे नेता अपने लिये खतरा मानते है। इसलिये मोदी को गुजरात में ही बंद किया गया है। और संघ इस परिस्थिति को अपने अनुकूल मान रहा है कि इस बार अयोध्या को लेकर सबकुछ सिर्फ विहिप पर भी नहीं टिका है और कोई राजनीतिक आंदोलन भी इसकी दिशा तय नहीं कर रहा है। लेकिन अंदरुनी तौर पर संघ को इसका भी एहसास है कि अयोध्या में राम मंदिर के हक में स्थिति ना बनी तो जो परिस्थितियां बनेंगी उस पर लगाम लगाने की हैसियत उसकी भी नही है। यानी नब्बे के दशक में राम मंदिर को लेकर जो राह संघ परिवार या भाजपा राजनीतिक तौर पर खींच रहे थे, अब वह उभरने वाली परिस्थितियों का इंतजार कर रहे हैं। इसलिये दिल्ली के संघ मुख्यालय में प्रांत प्रचारको के साथ मंथन में गडकरी तो शामिल होते है लेकिन आडवाणी, सुषमा, जेटली शामिल नहीं होते। हालांकि आरएसएस की तान को अपनी ताकत मानने वाले मुरली मनोहर जोशी और संघ मुख्यालय को दडंवत कर ठाकुरवाद को बल देने वाले राजनाथ सिंह जरुर अयोध्या के चिंतन में शामिल होते हैं लेकिन इनकी मौजूदगी महज मौजूदगी वाली ही रहती है। यानी भाजपा के इस राजनीतिक घटाटोप में पार्टी में कोई ऐसा नेता नहीं है जिसकी नजर बिहार या उत्तर प्रदेश चुनाव या फिर बीच में पड़ने वाले बंगाल चुनाव को लेकर तीक्ष्ण हो। या फिर यह सोच रहा हो कि कर्नाटक, मध्य प्रदेश या छत्तीसगढ में अगर भष्ट्राचार से लेकर आदिवासी-किसान और नक्सली संकट आने वाले दौर में मद्दा बना तो भाजपा की सत्ता वहा बचेगी कैसे और भविष्य में क्या झारखंड जैसे प्रयोग के जरीये पार्टी फंड बढाने की बात होगी। और उसमें भी नेताओ का कद सत्ता की जोड़तोड़ तले ही मापा जायेगा कि कौन सत्ता दिला पाने में सक्षम है। यानी एक वक्त के प्रमोद महाजन की सोच ही पार्टी का रुप ले लेगी, यह किसने सोचा होगा । और यह सोच दिल्ली की चौकड़ी को इस एहसास में डूबा दें 2014 के आम चुनाव के वक्त उसका निजी कद इतना बढ़ जायेगा कि वह पीएम पद का उम्मीदवार हो जाये...<br /><br />बस इंतजार संघ परिवार की हरी झंडी है, तो समझा जा सकता है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी और संसदीय राजनीति के अटूट गांधी परिवार से यह टक्कर कैसे लेंगे और "पार्टी विथ डिफरेन्स " का सपना किसे दिखायेंगे।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-28917937248258561172009-08-28T08:07:00.002+05:302009-08-28T08:09:03.227+05:30संघ या भाजपा में किसका ज़हर किसे डसेगा ?बीजेपी को कौन ठीक करेगा ? ये कुछ ऐसा ही है जैसे पीसा की झुकती मीनार को कौन सीधा कर देगा। यह टिप्पणी संघ के ही एक बुजुर्ग स्वयंसेवक की है, जो उन्होंने और किसी से नहीं बल्कि जम्मू में सरसंघचालक से कही । इसका जबाब भी सरसंघचालक की तरफ से तुरंत आया कि संघ सांस्कृतिक संगठन है, उसे राजनीतिक से क्या लेना देना। इस पर एक दूसरे स्वयंसेवक ने सवाल उठाया कि राजनीति करने वाले भी अगर स्वयंसेवक है और वह भटक गये हैं तो उन्हें कौन ठीक करेगा। इसपर सरसंघचालक का जबाब आया कि भटकाव की एक उम्र होती है, एक उम्र के बाद भटकाव नहीं निजी स्वार्थ होते हैं। उन्हे दुरस्त करने के लिये किसी भी स्वयंसेवक को पहले अपने आप से जूझना पड़ता है। यह शुद्दीकरण है। <br /><br />जाहिर है यह संवाद लंबा भी चला होगा । लेकिन यह संवाद संघ के संस्थापक और पहले सरसंघचालक हेडगेवार की तरह का है । जब हेडगेवार ने हिन्दू राष्ट्र का सवाल काशी की एक सभा में उठाया तो वक्ताओ में से सवाल उछला कि कौन मूर्ख कहता है कि यह हिन्दू राष्ट्र है । इसपर हेडगेवार ने न सिर्फ हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना को सामने रखा बल्कि हिन्दुओ को लेकर ही उस सवाल का भी जबाब दिया, जिसमें कहा गया कि चार हिन्दू भी कभी एक रास्ते नहीं चलते। जब तक शवयात्रा में शामिल न हों। <br /><br />लेकिन यही सवाल बदले हुये रुप में संघ के सामने 84 साल बाद भी भाजपा को लेकर खड़ा हो गया है। संघ के भीतर भाजपा को लेकर चार हिन्दुओ की कथानुसार सवाल उठने लगे हैं कि सत्ता के मारे भाजपा के चार नेता भी एक दिशा में नहीं चल रहे । और अगर सत्ता होती तो सभी एक दिशा में चल पड़ते । सवाल जबाब के इस सिलसिले में अपने ही राजनीतिक संगठन और अपने ही स्वयंसेवकों को लेकर सरसंघचालक मोहनराव भागवत को भी आठ दशक पुराने उन तर्को को ही सामने रखना पड़ रहा है, जिसको कभी हेडगेवार ने सामने रखा था । भाजपा की उथल-पुथल ने संघ को अंदर से किस तरह हिला दिया है, इसका अंदाज इसी बात से लग सकता है कि नागपुर के हेडगेवार भवन के परिसर में स्वयंसेवकों की सबसे बड़ी टोली जो हर सुबह शाम मिलती है, उसमें बीते रविवार इस बात को लेकर चर्चा शुरु हो गयी कि भाजपा की समूची कार्यप्रणाली सिर्फ राजनीतिक सत्ता की जोड़-तोड़ में ठीक उसी तरह चल रही है जैसे कांग्रेस में चला करती है। इसलिये भाजपा के स्वयंसेवक भी संघ से ज्यादा कांग्रेस से प्रभावित हैं। यानी कांग्रेसीकरण की दिशा को भाजपा ने आत्मसात कर लिया है ।<br /><br />असल में चर्चा इतनी भर ही होती तो भी ठीक है । कुछ पुराने स्वयंसेवको ने भाजपा की त्रासदी का इलाज हेडग्वार की सीख से जोड़ा । चर्चा में बकायदा हेडगेवार के उस प्रकरण को सुनाया गया जो उन्होंने कांग्रेस छोडकर आरएसएस बनाने की दिशा में कदम बढ़ाये । स्वयंसेवकों को जो किस्सा वहां सुनाया गया उसके मुताबिक, <br /><br />" कलकत्ता से मेडिकल की पढ़ाई पूरी करने के बाद डॉक्टर हेडगेवार तीन हजार रुपये की नौकरी छोड़ कर नागपुर आ गये । जहा वह कांग्रेस में भर्ती हो गये। 1920 में नागपुर में काग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ, डा हेडगेवार उसकी व्यवस्था में लगे स्वयंसेवी दल के प्रमुख थे । दिन रात परिश्रम करके उन्होने अधिवेशन को सफल बनाया । नागपुर के युवकों की ओर से पूर्ण स्वतंत्रता प्रप्ति तक अविराम संघर्ष करते रहने का प्रस्ताव भी उन्होंने अधिवेशन में रखवाया । 1921 के असहयोग आंदोलन में वे एक साल के लिये जेल भी गये । वहां उन्होंने देखा कि अपने भाषणो में बड़े-बड़े आदर्शो की बात करने वाले कांग्रेसी नेता जेल में एक गुड के टुकड़ों के लिये कैसे लड़ते हैं। मुस्लिम तुष्टीकरण,अनुशासनहीनता और निजी स्वार्थपरता जैसी कांग्रेस-चरित्र की विशेषताओ को देखकर उनका मन इस ओर से खट्टा हो गया । इसके बाद ही उन्होंने सोचा ही बिना हिन्दू संगठन के भारत का उत्थान संभव नहीं है, क्योकि हिन्दू समाज ही देश का एकमेव समाज है। इसी के बाद 1925 में विजयी दशमी के दिन राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ की स्थापना की।" <br /><br />हेगडेवार की इस कथा के बाद स्वयसेवक इस सवाल से जूझते है कि भाजपा की वजह से क्या संघ को लेकर हेडगेवार की सोच मर जायेगी । चर्चा आगे बढ़ती है तो भाजपा से बेहतर संघ के स्वयंसेवकों को वही काग्रेस भी नजर आने लगती है, जिसके खिलाफ कभी हेडगेवार कडे हुये थे । अनुशासन को लेकर कांग्रेस और भाजपा की तुलना । फिर निजी स्वार्थ को लेकर भाजपा नेताओं पर अंगुली उठाते हुये गिनती कम पड़ना । और फिर सत्ता के लिये गठबंधन की राजनीति को मुस्लिम तुष्टीकरण से कहीं ज्यादा खतरनाक ठहराते हुये यह सवाल करना कि संघ को कहां तक भाजपा को फिर से मथने के लिये जुटना चाहिये। <br />संघ के स्वयसेवको के भाजपा को लेकर यह सवाल सिर्फ नागपुर तक सीमित हो ऐसा भी नहीं है । यह सवाल राजकोट में भी मौजूद हैं और असम में भी । लेकिन संघ के लिये बड़ा सवाल यही से शुरु होता है । क्योंकि इस दौर में संघ अगर भाजपा को देखकर कोई टीका-टिप्पणी ना करे तो संघ की मौजूदगी का एहसास संघ में ही नहीं होता । इसलिये महत्वपूर्ण यह नहीं है कि सरसंघचालक भाजपा से जुडे हर सवाल का जबाब जहां जाते हैं, वहां पत्रकारों को देखकर या कहे कैमरो को देखकर देने लगते हैं। बल्कि पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन भी इसी तरह की प्रतिक्रिया देने लगे हैं । जैसा वह सरसंघचालक रहते हुये किया करते थे और सबसे अलोकप्रिय होते चले गये। स्थिति संघ के लिये इससे आगे बिगड़ रही है । पिछले दस वर्षो में वाजपेयी की अगुवायी में संघ के स्वयंसेवकों ने पांच साल देश जरुर चलाया। लेकिन इसी दौर में संघ अपनी जमीन पर ही परायी होती गयी और उसकी खुद की जमीन भी भाजपा की सत्ता महत्ता को बनाये रकने पर आ टिकी है। भाजपा के संकट ने संघ के सामने 84 साल में पहली बार ऐसी चुनौती रखी है, जहां से खुद का शुद्दीकरण पहले करना है। संघ का कोई संगठन पिछले दस वर्षो में सरोकार से नहीं जुटा। यानी जिस संगठन का जिस क्षेत्र में जो काम है, उसकी विसंगतियो से जूझते हुये हिन्दू समाज की व्यापकता को एकजुट करने की जो सोच हेडगेवार और गोलवरकर से होते हुये देवरस और रज्जू भैया तक फैली, उस पर भाजपा के उफान के दौर में कुछ इस तरह ब्रेक लगी कि संघ भी पिछडता चला गया । <br /><br />सवाल यह नहीं है कि जनसंघ और फिर भाजपा को संघ ने एक ठोस जमीन दी, इसीलिये उसे राजनीतिक सफलता मिली । महत्वपूर्ण है कि लोहिया से लेकर जेपी भी इस तथ्य को समझते रहे कि संघ के तमाम संगठन, जो अलग अलग क्षेत्रो में काम कर रहे हैं, अगर उन्हे साथ जोड़ा जाये तो राजनीतिक सफलता के लिये एक बडे समाजिक कार्य पर जाया होने वाले वक्त को बचाया जा सकता है। वनवासी कल्य़ाण आश्रम, भारतीय किसान संघ, विघा भारती, भारत विकास परिषद, संस्कार भारती, सेवा भारती, प्रज्ञा भारती, लधु उघोग भारती, सहकार भारती, विज्ञान भारती, ग्राहक पंचायत से लेकर हिन्दू जागरण मंच और विश्वहिन्दू परिषद जैसे दो दर्जन से ज्यादा संगठन संघ की छतरी तले देश के तीस करोड़ लोगो के बीच अगर काम रहे हैं तो उसका लाभ किसी भी राजनीतिक दल को मिल सकता है। इसका लाभ 1967 में गैर कांग्रेसवाद के नारे लगाते लोहिया ने भी उठाया और 1977 में जेपी ने जनता पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने में भी उठाया । और यहां यह भी कहा जा सकता है कि 1990 में अयोध्या आंदोलन की अगुवायी करते लालकृष्ण आडवाणी उस मानसिकता के बीच नायक भी बनते चले गये जो चाहे अयोध्या आंदोलन का आडवाणी तरीका पंसद ना करता हो लेकिन संघ के तौर तरीके सो अलग अलग संगठनो के जरीये जुड़ा था। <br /><br />1999 में वाजपेयी की जीत के पीछे महज कारगिल जीत का भावनात्मक प्रचार नहीं था, बल्कि सुदूर गांवो में भी संघ की शाखा इस बात का एहसास करा रही थी कि भाजपा कहीं अलग है । या कहे कांग्रेस से अलग राजनीतिक दल है, जो सरोकार को समझता है । लेकिन इसका एहसास कियी को नहीं था कि भाजपा की सत्ता संघ के लिये धीमे जहर का काम करेगी । यह ज़हर संघ के भीतर बीते दस साल में किस तरह फैलता चला गया इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि 1998 के बाद से सिवाय विश्व हिन्दू परिषद के किसी संघठन की सदस्य सख्या में इजाफा नहीं हुआ। उतना ही नहीं जिन संगठनो ने जो भी मुद्दे उठाये, उन सभी मुद्दों का आंकलन राजनीतिक तौर पर भाजपा के घेरे में पहले हुआ, उसके बाद संघ के सरोकार का सवाल उठा। <br /><br />आदिवासी, मजदूर, किसान , शिक्षा व्यवस्था, स्वदेशी यानी कोई भी मुद्दा भाजपा के लिये घाटे का है या मुनाफे का, इसकी जांच परख पहले हुई । फिर सत्ता में भाजपा के साथ खड़े राजनीतिक दलों की भी अपनी अपनी राजनीतिक जरुरत थी, तो भाजपा की राजनीतिक प्रयोगसाला में आने के बाद किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच, वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती, हिन्दू जागरण मंच सभी कुंद कर दिये गये। क्योंकि इनके मुद्दे सरकार को परेशानी में डाल सकते थे। और जो लकीर आर्थिक सुधार के भाजपा के दौर में भी खींची, उसको इतनी महत्ता दी गयी कि उस वक्त सरसंघचालक सुदर्शन ने अपने से बुजुर्ग और ज्यादा मान्यताप्राप्त दंतोपंत ठेंगडी को भी खामोश करा दिया। <br /><br />नया सवाल इसलिये गहरा है क्योंकि भाजपा के पास सत्ता है नहीं। और संघ के संगठनों की सामाजिक पहल भी भाजपा सरीखी ही हो चुकी है। यानी संघ का कोई संगठन अपने ही मुद्दे को लेकर कोई आंदोलन तो दूर मुद्दों पर सहमति बनाकर अपने क्षेत्र में ही किसी प्रकार का दबाब बना नहीं सकता है। स्थिति कितनी बदतर हो चली है, यह पिछले हफ्ते संघ के संगठनो की पहल से ही समझ लें। संघ के संगठनों ने पिछले हफ्ते जो काम किये, उसमें पर्यावरण को लेकर भोपाल में गोष्ठी है। जिसमें पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन ने कहा कि पश्चिमी देशो के सिद्दांत से ही पर्यावरण संतुलन बिगड़ा है । हिन्दु मंच ने दिल्ली में आतंकवाद मुक्त पखवाड़ा मनाया, सेवा भारती ने उदयपुर में 695 मरीजो को शिविरो में जांचा । विश्वहिन्दू परिषद ने तमिलनाडु में कोडईकनाल के घने जंगलो में 207 वन बंधुओ की स्वधर्म वापसी करायी । नारी रक्षा मंच ने संस्कार को लेकर इंदौर में एक सम्मेलन किया। लखनऊ में स्व अधीश कुमार स्मृति व्याख्यानमाला हुई । आदित्य वाहिनी ने उड़ीसा में सनातन धर्म को बनाया। दुर्गा वाहिनी ने भारत तिब्बत सीमा पर सैनिको को रक्षा सूत्र बांधे। कह सकते हैं कमोवेश हर संगठन की कुछ ऐसी ही पहल बीते हफ्ते रही या कहें भाजपा के राजनीतिक हितो को साधने वाले संघ के तौर तरीको ने तमाम संगठनो को इसी तरह की सामाजिक कार्यो में लगा दिया। जहां सिवाय संबंघ बनाने और सामाजिक समरसता का भाव समाज में फैलाते हुये भरे पेट के साथ आराम तलबी के अलावे कुछ नहीं बचा। <br /><br />संघ की जब यह हालात अपने संगठनो को लेकर है तब सवाल पैदा होता है कि उससे भाजपा को क्या राजनीतिक फायदा हो सकता है और भाजपा संघ को महत्ता क्यो दे। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि संघ के इन्ही संगठनों को जिलाये बगैर भाजपा का भी राजनीतिक भला नहीं हो सकता है क्योकि राजनीति चाहे सरोकार से नहीं सौदेबाजी से चलती है, लेकिन भाजपा के नेताओं को सौदेबाजी के टेबल तक पहुचने के लिये संघ का सरोकार चाहिये ही। नया सवाल है कि इन संगठनों में सरोकार की जान कैसे फूंकी जाये । खासकर जब संगठन से बड़े मुद्दे हो चले हैं और मुद्दो को लेकर कोई राजनीति इस देश में बची नहीं है। यानी एक तरफ जिन मुद्दो के आसरे हेडगेवार हिन्दु राष्ट्र का सपना संजोये थे, वही मुद्दे कही ज्यादा व्यापक हो कर राजनीति और संगठन को ही खत्म कर रहे हैं। तब संकट यह है कि इन मुद्दो को किस तरह उठाया जाये, जिससे संघ की पुरानी हैसियत भी लौटे और भाजपा भी महसूस करे कि उसका राजनातिक लाभ संघ के बगैर हो नहीं सकता । क्योंकि नये तरीके की राजनीति और सरोकार गुजरात की तर्ज पर उठ रहे हैं, जो आतंक की लकीर तले विकास और सत्ता को इस तरह रखता है। राजनीति सिमटती है और विकास से जुड़े मुद्दे धर्म का लेप चढ़ा लेते हैं। इन सब के बीच गठबंधन की सोच सर्व धर्म सम्माव की धज्जिया उड़ाती है और नरेन्द्र मोदी सरीखी मानसिकता संघ से भी बड़ी हो जाती है और सत्ता की सौदेबाजी भी मोदी के आगे छोटी होने लगती है। <br /><br />इन नयी परिस्थितियो में अगर दिखायी देने वाला संकट विचारधारा के घेरे में संघ और भाजपा दोनों एक दूसरे के सामने खड़े हुये हैं । तो संघ परिवार की नयी बैचेनी एक-दूसरे के अंतर्विरोध को ठिकाने लगाकर खुद को खड़े करने की पैदा हो चली है। इसमें मुश्किल यह हो गयी है कि भाजपा के भीतर अगर आडवाणी को चुनौती देने के लिये एक अदना सा कार्यकर्त्ता भी खुद को सक्षम मान रहा है तो संघ में एक अदना सा स्वयंसेवक सरसंघचालक से बेहतर समाधान की बात कहने लगा है । यानी सत्ता की लड़ाई में सत्ताधारी ही महत्वहीन बन गये हैं।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-75662937261404105692009-02-06T09:00:00.000+05:302009-02-06T09:00:00.872+05:30कौन बदल गया : बीजेपी या आरएसएस?राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों को हर क्षण जीवन से जोड़कर देखने वाले नागपुर के एक परिवार ने सवाल पूछा-बीजेपी कितनी बदल गयी है। कोई जवाब देने से पहले मेरे मुंह से निकल पड़ा-आरएसएस भी तो कितनी बदल गयी है। मुझे पता नहीं था कि मेरा सवाल ही इस परिवार के लिये जवाब हो जायेगा, जो तीन पीढ़ियों से संघ से न सिर्फ जुड़ा है बल्कि संघ से जुड़ने की प्रेरणा लगातार हर सुबह संघ जमघट में मोहल्ले दर मोहल्ला अब भी देता है। कोई बड़ी-छोटी सभा-सम्मेलन नागपुर में हो तो सैकड़ों लोगों की रोटी बनाने में पूरा परिवार जुट जाता है।<br />नागपुर के महाल इलाके का ये परिवार 1940 से यहां रह रहा है, इसलिये हेडगेवार-गुरु गोलवरकर-देवरस-रज्जु भैया सभी को बेहद करीब से इस परिवार ने देखा है। महाल में ही संघ मुख्यालय है और इस मोहल्ले के संकरी गलियों में सैकड़ों परिवार हैं, जो हेडगेवार के दौर से संघ परिवार के सदस्य हैं।<br /><br />लेकिन संघ बदल गया है....यह सवाल किसी संघी परिवार के लिये जवाब हो जाये, ये मैंने कतई नहीं सोचा। लेकिन कहते हैं न किसी को पूरी तरह माफ कर देना ही उसे पूरी तरह जान लेना होता है। कुछ इसी तर्ज पर सहमति की लीक के साथ परिवार के मुखिया ने मुझसे पूछा कि 21 जनवरी को दिल्ली में ही तो दत्तोपंत ठेंगडी भवन का उद्धाटन हुआ है, जो डेढ़ करोड़ की लागत से बना है। मैंने भी कहा, जी...उस समारोह में मैं भी गया था। इसका उद्घाटन सरसंघचालक सुदर्शन ने किया था । तो आपने भी महसूस किया कि संघ बदल गया है।<br /><br />आपने जवाब पर मैं सोचता और चर्चा आगे बढ़ती, इससे पहले मेरे दिमाग में 2002 का स्वदेशी जागरण मंच के प्रतिनिधि मंडल का सम्मेलन आ गया। आगरा में दो दिन के इस सम्मेलन में दंत्तोपंत ठेंगडी-गोविन्दाचार्य-गुरुमूर्ति और मदनदास देवी भी मौजूद थे। सबसे बुजुर्ग संघी ठेंगड़ी ने इसी सम्मेलन में उस वक्त वाजपेयी सरकार के वित्त मंत्री यशंवत सिन्हा पर वर्ल्ड बैंक के एंजेडे को लागू करने का आरोप लगाते हुये उन्हें तत्काल हटाने की मांग की थी। उन्होंने यशवंत सिन्हा को अर्थ की जगह अनर्थ मंत्री कहा था। ठेंगड़ी ने इसी सम्मेलन में पहली बार मुरलीधर राव के जरिये स्वदेशी विचार को दोबारा आंदोलन की शक्ल देने का भरोसा जताया था। इसी सम्मेलन में मदन दास देवी आर्थिक नीतियों में विकल्प के तौर पर हाथ में पत्रिका इकनॉमिस्ट लेकर चीन की आर्थिक नीति की वकालत कर रहे थे। इस सम्मेलन में गोविन्दाचार्य देश भर के युवाओं को जमाकर आर्थिक आंदोलन की भूमिका का राग दे रहे थे और इसी सम्मेलन में गुरुमूर्ति राष्ट्रीय मजदूर संघ और स्वदेशी जागरण मंच के जरिये बीजेपी की पटरी से उतरी आर्थिक नीतियों को पटरी पर लाने का जिक्र करने से नहीं चूक रहे थे।<br /><br />संयोग से दत्तोपंत ठेंगडी ने इसी सम्मेलन में बीजेपी की नीतियों के कांग्रेसीकरण होने का आरोप मढ़ते हुये सीधे कहा था कि उन्हें डर लगता है कि बीजेपी भी कांग्रेस की तरह विरासत की राजनीति शुरु ना कर दे और हमारे मरने के बाद कोई सड़क या इमारत बनवाकर आंदोलन स्वाहा ना कर दें। लेकिन संघ की इच्छा और बीजेपी की पूंजी पर बनी दत्तोपंत ठेंगडी इमारत के जरिये भारतीय मजदूर संघ का भला होगा यह ठेंगडी के साथ काम कर चुके किसी संघी के लिये सोचना भी शायद मुश्किल होता।<br /><br />आगरा के इस सम्मेलन का जिक्र करते हुये जैसे ही मैंने कहा-ठेंगडी की मौत तो अब हुई जिसका उद्धाटन सरसंघचालक सुदर्शन ने किया है। तो नागपुर के इस संघी परिवार के मुखिया ने बिना लाग लपेट कर बताया कि ठेंगडी ने मजदूरों को देशहित का पाठ पहले पढ़ाया और फिर संगठन बनाया। लेकिन अब पहले इमारत बनी है और उसके जरिये मजदूर संघ को जिलाने की बात की जा रही है। जबकि ठेंगडी होते तो डेढ़ करोड़ की कोई इंडस्ट्री लगवाकर रोजगार की व्यवस्था पहले करते। उसके बाद देश के विकास में मजदूरों के योगदान का सवाल उठाते जो मजदूरो को देश से जोड़ता और फिर संगठन और पार्टी खुद-ब-खुद मजबूत होती।<br /><br />मुझे भी याद आया कि संघ के मुखिया ने उद्धघाटन करते हुये कहा था-ठेंगडी को श्रमिक क्षेत्र में काम करने के लिये उस वक्त भेजा गया, जब इस क्षेत्र में वामपंथ और अन्य वादो का बोलबाला था। उस वक्त मजदूर संगठन कहते- हमारी मांगे पूरी हो, चाहे जो मजबूरी हो । लेकिन ठेंगडी ने कहा-मजदूरो को पूरा दाम मिलना चाहिये पर सबसे उपर देशहित होन चाहिये। 1962 के चीन युद्द के वक्त जब बंगाल के वामपंथी संगठनों ने हड़ताल की वकालत की तब मजदूर संघ से जुड़े श्रमिको ने अतिरिक्त काम किया। इस कथन का जिक्र करते हुये मैने सवाल किया कि लेकिन उन्हीं लोगो के बीच संघ इतना कैसे बदल सकता है...जो ठेंगडी के साथ थे वहीं लोग तो ठेंगडी भवन का उद्घाटन देखकर ताली बजा रहे थे। इस समारोह में ठेंगडी के प्रिय मुरलीघर राव से लेकर ठेंगडी के वैचारिक सहयोगी हसुभाई दवे और केतकर भी मौजूद थे।<br />लेकिन विकल्प क्या है...यही सवाल संघ को शायद जोड़े हुये होगा, आप यह भी कह सकते हैं । नागपुर के इस परिवार ने चर्चा का सिरा पकडते हुये कहा। लेकिन सार्वजनिक तौर पर तो बीजेपी है....आप यह बताइये कि बीजेपी कितनी-कैसे बदल गयी।<br /><br />लेकिन पहले आप बताएं की बीजेपी का मतलब आप समझते क्या हैं। मेरे इस सवाल पर बिना देर लगाये ही वह बोल पड़े....आंख बंद कर बीजेपी बोलता हूं तो आडवाणी की तस्वीर और कुर्सी पर मुस्कुराते लेकिन उम्र की बीमारी लिये बाजपेयी जी दिमाग में चल पड़ते हैं । कोई और तस्वीर तो मैं देखता ही नहीं हूं।<br /><br />क्यों आडवाणी जी की तस्वीर पीएम के लिये इंतजार करते शख्स के तौर पर नहीं उभरती है ? मेरे इस सवाल पर श्याम जी जोर से हंस पड़े। यहां नागपुर के इस परिवार के मुखिया का नाम लेना जरुरी है क्योंकि जो बात उन्होने कही वह प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार आडवाणी के बारे में एक सरसंघचालक की है । और इसे छुपाकर नहीं बताया जा सकता। श्याम जी के मुताबिक जब आडवाणी जी सोमनाथ से अयोध्या के लिये रथयात्रा पर निकले थे तो लगातार नागपुर के संघ मुख्यालय में भी उमंगे उछालें मार रही थीं। संघ परिवार के सदस्य रथ यात्रा को देखने के लिये नागपुर में घुसने वाली वर्धा रोड पर बीस किलोमीटर पहले से ही फूल-मालाओं के साथ मौजूद थे । नागपुर में चंद घंटे रुके आडवाणी जी सरसंघचालक देवरस से मिलने भी पहुंचे । लेकिन अगले दिन रथ यात्रा के नागपुर से निकलने के बाद अयोध्या आंदोलन को लेकर चर्चा के बीच संघ मुख्यालय में कई संघ सदस्यों की मौजूदगी में आडवाणी जी की रथ यात्रा की सफलता-असफलता पर भी सवाल जबाब हो रहे थे।<br /><br />उस वक्त एक प्रचारक ने रथ यात्रा की सफलता के बाद बीजेपी की राजनीतिक सफलता का मुद्दा उठाया तो देवरस ने इसे संगठन को मजबूत और एकजूट करने वाली यात्रा बताते हुये कहा कि आपातकाल के बाद अयोध्या ही एक ऐसा मुद्दा बना है, जिससे बिखर रहे संगठन एक साथ एक मन से जुडेंगे। एक अन्य ने जब कहा कि आपातकाल के बाद जनता पार्टी सत्ता में आयी थी तो क्या बीजेपी भी सत्ता में आ सकती है। देवरस का जबाब था रास्ता बनेगा लेकिन सत्ता तक पहुंचना अयोध्या के आगे की राजनीतिक पहल पर निर्भर करता है। इसपर आडवाणी के नेतृत्व को लेकर जब एक स्वयंसेवक ने सवाल किया तो देवरस ने उनके साथ संगठन और विचार की इमानदारी की बात कही। लेकिन आडवाणी जी के बारे में जब एक निजी सवाल आया तो देवरस ने कहा, आडवाणी जी की निजी छवि ही उन्हे सार्वजनिक नहीं होने देती। आडवाणी जी जो बात सोमनाथ में सोच कर चले होंगे, उसे ही अयोध्या तक ले जायेंगे। परिस्थितयां उन्हें खोलती नहीं हैं। इसे आप आडवाणी की ताकत मानें या कमजोरी, लेकिन वह परिवेश और विचार से प्रभावित होकर राजनीतिक समझ विकसित करें या बदलें यह मुश्किल है।<br /><br />जाहिर है इस जबाव के खत्म होते ही मैने तुरंत पूछा तो क्या जिन्ना प्रकरण पर न सिर्फ आडवाणी का टिके रहना और अपनी किताब में भी उसका जिक्र कर उसमें बिना किसी बदलाव के छापने का मतलब यही है कि आडवाणी का जिन्ना को लेकर विचार पाकिस्तान यात्रा से पहले से रहा होगा । इस पर श्याम जी खामोश हो गये लेकिन फिर बोले- आपने जो सवाल शुरु में उठाया था कि आरएसएस बदल गयी है तो उसका जबाब यही है कि 2004 से लेकर 2007 तक जो मंथन संघ के भीतर हुआ और उसके बाद आडवाणी को प्रधानमंत्री पद के लिये बतौर उम्मीदवार बनाने पर संघ ने सहमति जिस तरह दी, उसका मतलब है संघ बदल गया है।<br /><br />जाहिर है यह संकेत संघ के अभी के हालात को लेकर समझने के लिये काफी था। क्योंकि सरकार्यवाह मोहन भागवात, मदनदास देवी और सुरेश सोनी बकायदा आडवाणी के आवास में जा कर पीएम की उम्मीदवारी पर मुहर लगा कर आये थे । जबकि सरसंघचालक सुदर्शन ने चार साल पहले ही आडवाणी और वाजपेयी को रिटायर होने की सलाह दी थी। असल में आरएसएस के भीतर पहली बार कई पावर सेंटर काम कर रहे हैं और पहली बार सरसंघचालक द्वारा अपनी विरासत सौपने की परंपरा पावर सेंटर के हिसाब से चल रही है। जिसमें इंतजार करना कोई नहीं चाहता और टकराव के जरिये ही वक्त कटता जाये जो परंपरा को बनाये रखने का स्वांग देता रहे...यह मानसिकता कहीं तेज होती जा रही है। और उसी का अक्स बीजेपी में मौजूद है, जिसमें राजनाथ की दिशा और आडवाणी की राजनीति टकराती है तो इस एहसास के साथ की टकराव की राजनीति से संघ में भी गुदगुदी होती है। और परिवार में यह संवाद बनता है कि अब तो फैसला होना चाहिये जिससे परिवार पटरी पर आ जाये। यानी कभी राजनाथ सिंह को लगे कि वह आडवाणी से बेहतर पीएम के उम्मीदवार है तो कभी सरकार्यवाह मोहनराव भागवत को लगे कि जितनी जल्दी हो वह सरसंघचालक बन जाये तो परिवार का भला हो।<br />यह बात नागपुर के श्यामजी ने नहीं कहीं लेकिन संकेत में बता दिया कि चर्चा असल में कौन बदला है, इसकी जगह कौन नहीं बदला.... इस पर होनी चाहिये थी जिससे खामोशी में वक्त कट जाता और कुछ कहना भी नहीं पड़ता।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com23