tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger3125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-3068264827300460272011-03-17T22:05:00.001+05:302011-03-17T22:07:15.461+05:30रेलगाड़ी से तेज है बंगाल में बदलाव की बयारबंगाल जाती रेलगाड़ी के नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन छोड़ते ही सामने बैठा कोई यात्री अगर इस मिजाज से आपकी तरफ सवाल उछाल कर यारी करना चाहे कि "ममता बनर्जी बंगाल में वामपंथी को हरायेगी जरुर लेकिन मुख्यमंत्री नहीं बनेगी ", तो आप क्या कहेंगे। जाहिर है जिस तपाक से सवाल उछला उसी तपाक से जवाब भी देना होगा क्योकि अगले अठ्ठरह घंटे तो साथ ही गुजारने हैं। तो जवाब रहा- ऐसा हो नहीं सकता, ममता जिस राजनीतिक दांव को खेल रही हैं उसमें वहीं मुख्यमंत्री नही बनी तो बंगाल को लगेगा कि ममता ने ठग लिया। बात ठगने की नहीं है भाईसाब। जंगलमहल का बंगाली भी जानता है कि ममता वामपंथियों को टक्कर तो दे सकती है लेकिन मुख्यमंत्री बनकर जंगलमहल में मंगल तो नहीं कर सकती। नही ऐसा नही है। दीदी तो जंगलमहल के लिये भी रेलगाड़ी शुरु कर रही हैं।और अब दिल्ली से चलेंगे तो सीधे लालगढ़ में अपने घर पर उतरेंगे। सियालदह जाने की जरुरत ही नहीं पड़ेगी। बिना रिजर्वेशन स्लीपर क्लास में बैठे एक सह-यात्री ने बहस में बीच में टोकते हुये ममता का जिस तरह समर्थन किया और लालगढ़ का जिक्र किया वैसे ही डिब्बे में बैठे यात्रियो के लिये यह खुला आंमत्रण सरीखा था, जिसमें जो चाहे ममता बनर्जी को लेकर अपनी बात कह ले।<br /><br />पूर्वा एक्सप्रेस अपनी रफ्तार में थी और बंगाल के चुनाव को लेकर कई सवाल उछलने लगे तो रेलगाड़ी की रफतार से भी तेज थी। क्या वामपंथियो के तीन दशक की सत्ता की समझ का विकल्प ममता बनर्जी देगी। क्या मनमोहन सिंह की अर्थनीति का विकल्प बंगाल देगा। क्या बंगाल के चुनाव परिणाम पहली बार गरीब बंगाल का अक्स होंगे,जिसके साये में मजदूर,किसान,आदिवासी और अल्पसंख्यक पिछडा तबका ही नजर आयेगा। यह सारे सवाल दिल्ली से कोलकाता लौटते बंगालियो से सुने जा सकते हैं। सिर्फ दिल्ली ही नहीं अलग अलग शहरो में निर्माण से जुडे मजदूरो के अलावे रिक्शा चलाने वाले बंगालियों से लेकर परचून का धंधा करने वाले हो या घरों में काम करने वाली महिलायें हो सभी से जुडे सवाल ममता बन्रजी की राजनीति से कैसे जुड़े हैं और किस तरह ममता बंगाल के वामपंथी गढ़ को तोड देगी , बहस उसी दिशा में चल पड़ी। कन्ट्रेक्टर का धंधा करने वाले पार्थो गांगुली लगे बताने कि कैसे बंगाल चुनाव के ऐलान के साथ ही निर्माण मजदूर और घरो में काम करने वाले बंगालियों के लौटने का सिलसिला जिस तेजी से बढ़ा है , उसमें पहली बार बंगाल में ढहते वामपंथियो की सत्ता से ज्यादा ममता के उस राजनीतिक प्रयोग को देखा जा रहा है, जहां सरोकार की राजनीति परिवर्तन की लहर के तौर पर उठ रही है। हम नहीं गये तो दीदी अकेली पड़ जायेगी। कैडर का आतंक फिर हमें जीने नहीं देगा। घर छोड़कर कबतक बाहर काम करें। वोट नहीं डालेंगे तो दीदी हार जायेगी। अबकि बार लाल झंडा नहीं चलेगा।<br /><br />अचानक सुशाधर महतो ने जिस तेजी से अपनी बात कही उससे सभी झटके में आ गये। महतो दा आप ऐसा क्यों कहते हैं। क्या वामपंथियो ने मजदूरों के लिये कुछ नहीं किया। किया होगा लेकिन दिल्ली में आज भी ममता दीदी का घर हम बंगालियो के लिये खुला है। सीपीएम का नेता तो दसियों साल से दिल्ली में है लेकिन कोई सीपीएम का नेता दिल्ली में मिलता तक नहीं है। हमारा रिजर्वेशन भी ममता के घर से हुआ। और अबकि बार तो दीदी ने दिल्ली से भी हमारे इलाके में रेलगाड़ी रोकने का स्टेशन बनाने का ऐलान कर दिया है। हम पहली बार बिना किसी दलाल को पैसे दिये रिजर्वेशन पर घर लौट रहे हैं। महतो दा की खामोश बीबी भी झटके में बोल पड़ी। अब बताओ दीदी के लिये लौटना को पहले से ही होगा। हम लौटेंगे तो दीदी के लिये काम करेंगे। गांव में हिम्मत आयोगी। कैडर की हिंसा का जवाब देंगे। यह सारे बोल रेलगाड़ियो से लौटते उन बंगालियों के हैं, जिनका जीवन दिहाड़ी मजदूरी या हर दिन जीने के लिये रोजगार तलाश करना ही जिन्दगी का पहला और आखिरी सच बना हुआ है। दिल्ली से सीधे कोई रेलगाड़ी जंगलमहल के इलाके में घर तक भी ले जा सकती है , यह सपना भी कभी उन बंगालियो ने नहीं देखा जिनका सबकुछ लालगढ़ के आंदोलन में खाक हो गया।<br /><br />लेकिन ममता ने इस सपने को भी अपने बजट में जगह दे दी। जंगलमहल के जिस इलाके में माओवादियो ने रेलगाड़ी रोककर कंबल और पेन्ट्रीकार को ही तो लूटा था। ममता ने उनका साथ दिया तो क्या गलत किया। वामपंथियों ने तो हमारा हक लूटा है और सत्ता में बनी हुई है। दीदी अगर लुटेरो को सत्ता से भगाने के लिये जुटी हैं तो हमें वोट डालने के लिये लौटना ही पड़ेगा। चाहे रेलभाडा उधार ही क्यों ना लेना पड़े। बूढी मां,पत्नी , भाभी को बिना रिजर्वेशन भी रिजर्वेशन के डिब्बे में रिजर्वेशन के जुगाड में घूमते बीरभूम के जागो दा भी बहस में अपनी गुंजाइश देख कूद पड़े। नाम जगीश्वर था लेकिन उनके साथ खड़े एक युवा लड़के ने जागो दा के सुर में सुर मिलाते हुये कहा जब दूरंतो गाड़ी चल सकती है तो सिर्फ हम मजदूरों के लिये रिजर्वेशन वाली गाड़ी क्यों नहीं चल सकती जो सीधे जंगलमहल ले जाये। भाईसाहब आप क्या माओवादी है जो जंगलमहल के लिये ही एक रेलगाड़ी खोज रहे हैं। बगल में बैठे शशीधर शर्मा खामोशी तोड़ ऐसी टिप्पणी देंगे किसी ने सोचा नहीं होगा। इसलिये माओवादी कहते ही हर कोई खामोश हो गया। लेकिन जवाब सुशाधर महतो की पत्नी से आया जो बोल पड़ी माओवादी से भी हिम्मत आता है। अब हम गांव लौटेगी तो गांव वालो में हिम्मत आयेगा। वहां तो सीपीएम के कैडर से वोट डालने के लिये भी लड़ना पडता है। पहले से जायेंगे तो सभी को एक-दूसरे का सहारा मिलेगा। हिम्मत लौटेगा। उनके साथ सफर करने वाले दिल्ली के लाजपत इलाके में काम करने वाले सुनिल महतो और जायदीप भी इसके बाद लगे बताने। तीन बरस पहले ही दिल्ली आये। जब आये थे तब लालगढ में रहना मुश्किल था। घर जल चुका था। सारा सामान लुटा जा चुका था। पिछले एक साल से दोबारा लालगढ में आवाजाही शुरु की तो घास-फूस की झोपडी बनायी और अब खेती दोबारा शुरु करवाने का भरोसा ममता ने दिया है। हम तो चाहते है कि इसबार आरपार की लड़ाई हो जाये। ममता दीदी सीपीएम को उखाड़ फेंके। और हमें दोबारा दिल्ली आने की जरुरत न पड़े । दिल्ली आना कौन चाहता है । अब बंगाल में सीपीएम का डर हमारा पेट भी काट डालेगा तो पेट की खातिर कहीं तो भागना ही पडेगा। लेकिन दीदी इस पेट को समझती है। और सीपीएम सिर्फ सिर गिनता है। जाहिर था शाम ढलने के बाद सभी अपने अपने खाने के जुगाड़ और सोने की व्यवस्था में लग गये। और तब अपने सामने बैठे उसी शख्स को मैंने कुरेदा, जिसने ममता के सीएम ना बनने को लेकर पहली बहस छेड़ी थी, क्यों आपको जवाब मिल गया कि ममता बनर्जी ही मुख्यमंत्री बनेंगी। नहीं, मिला और मेरा भरोसा पक्का है कि ममता चुनाव तो जीत जायेंगी लेकिन सीएम वह नहीं बनेगी। क्यों । आपने नहीं देखा ममता बनर्जी को लेकर कैसे पहली बार उन बंगालियों में भी जोश है, जो हाशिये पर हैं। यानी ममता की छवि उसकी ईमानदारी की है। और यही छवि वामपंथियो को डरा रही है। इसलिये ममता इस छवि को तोड़ना नहीं चाहेगी। बल्कि रेलमंत्री बनी रहेगी और बंगाल के उस तबके का भला करती रहेगी जो हाशिये पर है। तो मुख्यमंत्री कौन होगा । कोई भी हो सकता है। लेकिन मेरे ख्याल से प्रणव मुखर्जी हो सकते हैं। और ममता अपने किसी करीबी खास को डिप्टी सीएम बना देगी। क्योकि ममता जिस बंगाल का सपना सत्ता में आने के बाद दिखा रही हैं, उसकी रुकावट यही लेफ्ट फ्रंट होगा जो अभी वामपंथी लीक छोड़ चुका है। लेकिन बंगाली समाज अभी भी वामपंथी है। इसलिये समझना यही चाहिये कि ममता आज की तारिख में सीपीएम से बड़ी वामपंथी है। और सत्ता बदलाव के बाद ममता अपनी छवि को दिल्ली में भुनायेगी ना कि बंगाल में खपायेगी। और आप तो न्यूज चैनल के हैं, टीवी पर देखता रहता हूं। लेकिन मैं कैडर का हूं । जनता से जुड़ कर ही काम करता हूं।<br />क्या सीपीएम के हैं?<br />जी नहीं, अल्ट्रा लेफ्ट का हूं । अल्ट्रा लेफ्ट यानी.... यानी क्या वहीं माओवादी ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-69938619753643587452009-07-08T10:53:00.001+05:302009-07-08T10:54:59.683+05:30वैकल्पिक राजनीति को खड़ा करता ममता का रेल बजटमाओवादियों को केन्द्र सरकार आतंकवादी करार दे चुकी है। जिन माओवादी प्रभावित इलाको में चार राज्यों में चार अलग अलग राजनीतिक दलों की सरकारें पहुंच नहीं पाती हैं और चारों सरकारें माओवादियों को विकास विरोधी करार दे रही हैं, वहां ममता बनर्जी के रेल बजट में पावर प्रोजेक्ट से लेकर रेलवे लाईन बिछाने और आदर्श रेलवे स्टेशन बनाने के ऐलान का मतलब क्या है?<br /><br />ममता ने रेल बजट के जरीये माओवादी प्रभावित इलाको को लेकर एक ऐसा तुरुप का पत्ता फेंका है जो सफल हो गया तो संसदीय राजनीति की उस सत्ता को आईना दिखा सकता है जो विकास और बाजार अर्थव्यवस्था के नाम पर लाल गलियारे को लगातार आतंक का पर्याय बनाये हुये है। राजनीतिक तौर पर आंध्रप्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड और पं बंगाल में राजनीतिक दलों ने सत्ता के लिये माओवादियों से चुनावी समझौते किये लेकिन माओवाद प्रभावित इलाको में न्यूनतम के जुगाड़ को भी बेहद मुश्किल करार दिया। और इसको लिये माओवादियो को विकास विरोधी करार देने से सरकारें नहीं चूकीं।<br /><br />झारखंड में माओवादियों से चुनावी समझौते करने के आरोप कांग्रेस-भाजपा और झमुमो विधायकों पर लगा । उसी का नया चेहरा इस बार लोकसभा में नजर आया जब माओवादी नेता बैठा चुनाव लड़कर सांसद बन गये। लेकिन नया सवाल ममता की उस राजनीति का है, जो सिंगुर से निकली है और वाममोर्चा को उसी की राजनीति तले सत्ता से बाहर करने की रणनीति को लगातार आगे बढ़ा रही है। वहीं कांग्रेस ममता को थामकर इस अंतर्विरोध का लाभ उठाकर विकास के अपने अंतर्विरोध को छुपाना चाह रही है। ममता के सिंगुर में टाटा की नैनो को बोरिया-बिस्तर समेटने के लिये मजबूर करने के आंदोलन और नंदीग्राम में इंडोनेशिया के कैमिकल हब को ना लगने देने के संघर्ष को बुद्ददेव सरकार ने कभी एक सरीखा नहीं माना।<br /><br />वाम मोर्चा सरकार ने सिंगूर को विकास विरोधी तो नंदीग्राम को माओवादियो की बंदूक का आंतक बताकर खारिज भी किया। लेकिन ममता बनर्जी ने सिंगूर से लेकर नंदीग्राम और फिर लालगढ़ को भी उसी कडी का हिस्सा उस रेल बजट के जरीये बना दिया, जिसको लेकर कयास लगाये जा रहे थे कि बंगाल की राजनीति को ममता बतौर रेलमंत्री कैसे साध पायेगी। रेल बजट में ममता ने न सिर्फ सिंगूर से नंदीग्राम तक रेल लाइन बिछाने का ऐलान किया बल्कि लालगढ़ के उन इलाकों में जहां सेना को अभी भी जाने में मुश्किल का सामना करना पड़ रहा है, वहां भी रेल लाइन बिछाने का ऐलान किया। यानी अपनी राजनीतिक जमीन को पटरी दे दी है। रेल बजट में सालबोनी,झारग्राम और उस बेलपहाडी को भी रेलवे से जोड़ने का ऐलान किया गया जो झारखंड और बंगाल की सीमा पर माओवादियो का गढ़ माना जाता है और बुद्ददेव भट्टाचार्य मानते है कि माओवादियों की वहा सामानातंर सरकार चलती है। यह वही इलाका है, जहा बुद्ददेव को बारुदी सुरंग से उडाने की कोशिश इसी साल माओवादियों ने की थी। बंगाल की राजनीति को बिलकुल नये मुद्दे के आसरे अपनी राजनीतिक जमीन बनाने की जो पहल ममता बनर्जी कर रही है, उसमें राज्य के बारह जिलो के वह ग्रामीण पिछडे इलाके हैं, जहां विकास का मतलब आज भी सीपीएम कैडर से लाभ की दो रोटी का मिलना है। ममता इस हकीकत को समझ रही है कि राज्य के चालीस फिसदी इलाके ऐसे है, जहां वाम मोर्च्रा के तीन दशक के शासन के बाद भी जिन्दगी का मतलब दो जून की रोटी से आगे बढ़ नहीं पाया है इसलिये रेल बजट में इन चालीस फिसदी क्षेत्रों को रेलवे स्टेसनो के जरीये घेरने में ममता जुटी है। बजट में देश के जिन 309 रेलवे स्टेशन को आदर्श रेलवे स्टेशन बनाने की बता कही गयी है उसमें 142 सिर्फ बंगाल के है । आदर्श रेलवे स्टेशन का मतलब है, एक ऐसा इन्फ्रास्ट्रक्चर स्टेशन पर मौजूद रहना जो किसी भी इलाके के लोगों की जिन्दगी को संभाल सके। यानी रोजगार से लेकर न्यूनतम जरुरत का ढांचा रेलवे स्टेशन पर जरुर मौजूद रहेगा। इस कड़ी में ममता ने लालगढ़ स्टेशन को भी आदर्श स्टेशन बनाने के साथ इस इलाके में पावर प्लांट लगाने का ऐलान कर सीपीएम की उस कर उस रणनीति को सिर्फ पशिचमी मिदनापुर ही नहीं बल्कि बांकुडा, पुरुलिया, बीरभूम समेत आठ जिलों के उन ग्रामीण इलाकों को खुली हवा का एहसास कराया है, जिन्हें आज भी लगता है कि कैडर के साथ खडे हुये बगैर कुछ भी मिल नहीं सकता है।<br /><br />असल में ममता जिस राह पर है वह एक वैकल्पिक राजनीति की दिशा भी है। क्योंकि सवाल सिर्फ बंगाल का नहीं है। छत्तीसगढ़ में जहां राज्य सरकार माओवादियों को आतंकवादी मानकर ग्रामीण आदिवासियो के जरीये ग्रामीण समाज का नया चेहरा बनाने में लगी है, वहां अभी भी विकास तो दूर न्यूनतम के लिये भी पहले माओवादियों के खिलाफ नारा लगाना पडता है। खासकर दांतेवाडा और मलकानगिरी के इलाके में पीने का पानी, प्राथमिक शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थय केन्द्र से लेकर आवाजाही के लिये परिवहन व्यवस्था का कोई खांका आज तक खडा नहीं किया गया है । पूरा इलाका प्रकृतिक संसाधनो पर निर्भर है। यहां तक कि जल के स्रोत भी प्राकृतिक है। भाजपा की रमन सरकार के मुताबिक इस इलाके में सुरक्षा बल भी जब जाने से घबराते है तो विकास का कौन सा काम यहा जा सकता है। लेकिन ममता ने इस इलाके में रेलवे लाइन बिछाने का निर्णय लिया है। वहीं उड़ीसा का सम्बलपुर-बेहरामपुर और तेलागंना का मेडक-अक्कानापेट वह इलाका है, जहां माओवादियों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियो के खिलाफ आंदोलन भी शुरु किया है और एक दौर में नक्सलियों का गढ़ भी रहा है।<br /><br />आंध्रप्रदेश का अक्कानापेट में ही पहली बार एनटीआर ने अपनी राजनीतिक सभा में नक्सलियों को अन्ना यानी बड़ा भाई कहा था, जिसके बाद एनटीआर को समूचे तेलागंना के नक्सल प्रभावित इलाकों में दो तिहाइ सीटों पर जीत मिली थी। लेकिन उस इलाके में विकास की लकीर खिंचने की हिम्मत ना एनटीआर ने की न ही चन्द्रबाबू नायडू कर पाये, न ही अभी के कांग्रेसी मुख्यमंत्री वाय एसआर कर पा रहे हैं ।<br /><br />हालांकि तेलागंना राष्ट्रवादी ने यहां के विकास का मुद्दा जरुर उठाया। लेकिन पहली बार वहा रेलवे लाइन बिछगी तो इसका असर यहा किस रुप में पड़ सकता है, इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि इस पूरे इलाके में जंगल झांड, तेंदू पत्ता , और गड्डे खोदने वाली जवाहर रोजगार योजना ही जीने का आधार है । जबकि पूरा इलाका साल के जंगल से भरा पड़ा है। वहीं उड़ीसा के जिन इलाको में रेल लाइन बिछेगी वहां के प्रकृतिक संसाधनो पर बहुराष्ट्रीय कंपनियां दोहने के लिये सरकार से नो आब्जेक्शन सर्टीफिकेट ले चुकी है। यानी करीब पचास हजार करोड डॉलर से ज्यादा की परियोजनाओ को लेकर इन इलाको में सौदा सरकारी तौर पर किया जा चुका है। इन इलाकों के आदिवासियो ने अपने पारंपरिक हथियार उठाकर आंदोलन की शुरुआत यहां इसलिये कि क्योकि प्रकृति से हटकर उनके जीने का कोई दूसरा साधन पूरे इलाके में है नहीं। पहली बार किसी रेल मंत्री ने इस इलाके को भी मुख्यधारा से सीधे जोड़ने की सोची है। वहीं झांरखंड के संथाल परगना इलाके में माओवादियों ने खासी तेजी से दस्तक दी है। बंगाल की सीमा से सटे होने की वजह से भी यहा माओवादियो ने खुद को खड़ा किया है। जबकि दूसरी वजह यहां खादान और प्रकृतिक संसाधनों का होना है, जिसपर मुंडा की नजर मुख्यमंत्री रहने के दौरान सबसे ज्यादा लगी रहीं। संथाल आदिवासियो की बहुतायत वाल इस इलाके मे विकास का कोई सवाल राज्य बनने के बाद किसी भी मुख्यमंत्री ने नहीं किया । बाबूलाल मंराडी ने जबतक सड़के ठीक करायीं, उनकी गद्दी चली गयी । अर्जुन मुंडा ने देशी टाटा से लेकर कोरियाई कंपनी समेत एक दर्जन देशी विदेशी कंपनियो के साथ अलग अलग परियोजनाओ को लेकर की शुरुआती सौदेबाजी भी की । करीब पांच लाख करोड़ के जरीये पचास लाख करोड़ के प्रकृतिक संसाधनो की लूट का लाइसेंस भी इन कंपनियो को दे दिया । नंदीग्राम के आंदोलन के दौर में यहां के आदिवासी खुद खड़े हुये और सरकारी धंधे का खुला विरोध झंरखंड के नंदीग्राम से करने से नहीं चूके।<br /><br />ममता इस इलाके में भी रेलवे के जरीये विकास की पहली रेखा खिंचने को तैयार है । ऐसे में सवाल यह नहीं है कि ममता माओवादी प्रभावित इलाको में रेलवे लाइन बिछाकर या फिर परियोजनाओ के जरीये ग्रामीण आदिवासियो को विकास के ढांचे से जोडते हुये वाम राजनीति का विकल्प बनना चाह रही है।<br /><br />बड़ा सवाल यह है कि तमाम राजनीतिक दलो ने जिस तरह माओवाद को कानून व्यवस्था का सवाल मान लिया है, और उसके घेरे में करोड़ों ग्रामीण आदिवासियों को माओवादियों का हिमायती मानकर उनके खिलाफ कार्रवायी के जरीये अपनी सफलता दिखा रही है । ऐसे में आदिवासी जीवन बद से बदतर किया जा रहा है । सास्कृतिक आधारों को खत्म किया जा रहा है । गांवों को शहर बनाने के लिये विकास को चंद हाथों के मुनाफे के जरीये लुटाया जा रहा है। बाजार और सत्ता का संतुलन बनाने के लिये विकास और आंतक को अपने अनुकूल परिभाषित करने से ना राष्ट्रीय राजनीतिक दल कतरा रहे है, न ही क्षेत्रिय दल। जबकि अर्थव्यवस्था की हकीकत यही है कि जिन इलाको में ममता का रेल बजट असर दिखाने वाला है, अगर वहां माओवादियो पर नकेल कसने के नाम पर खर्च की गयी पूंजी को क्षेत्र के ग्रामीण-आदिवासियों के नाम मनीआर्डर भी कर दिया जाता तो हर आदिवासी परिवार दिल्ली में घर खरीद कर सहूलियत से रह सकता था । इतनी बड़ी तादाद में माओवाद प्रभावित इलाकों में केन्द्र और राज्य सरकारो ने खर्च किया है। वहीं ममता बनर्जी जब लालगढ़ में सुरक्षा बलो की जगह भोजन-पानी भिजवाने का सवाल खड़ा करती है तो कांग्रेस-वाम दोनो इसे ममता की नादानी बताते है । जाहिर है माओवाद प्रभावित रेड कारिडोर को लेकर राइट-लेफ्ट दोनो की राजनीति से इतर ममता का रेलबजट है । अगर यह सिर्फ बजट है तो इसका लाभ आखिरकार उसी राजनीति को मिलेगा जो विकास को बाजार से जोड़ रही है और अगर यह ममता की राजनीति है, तो यकीनन वैकल्पिक राजनीति की पहली मोटी लकीर है जो भविष्य का रास्ता तैयार कर रही है, बस इंतजार करना होगा ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-30543404055634883362009-06-18T07:01:00.002+05:302009-06-18T17:11:26.616+05:30लालगढ़ के राजनीतिक प्रयोग में ममता प्यादा भर हैंकिसने हमारे कुंओं में कैरोसिन तेल डाला?...... नये जमींदार ने। किसने चावल में जहर भरी दवाई मिला दी? .. नये जमींदार ने। किसने हमें हमारी जमीन से उजाड़ा?... नये जमींदार ने। पुलिस किसकी है.? नये जमींदार की। सेना किसके लिये है?... नये जमींदार के लिये। तो अब लड़ाई किससे है ?.. नये जमींदार से। यह नारे लालगढ के हैं । 16 जून को लालगढ़ टाउन के बीच मैदान में करीब छह सौ गांव के पन्द्रह हजार से ज्यादा लोग जमा हुये तो मंच से यही नारे लग रहे थे। मंच से आवाज आती... नये जमींदार पर निशाना है और हजारो की तादाद में जमा लोग इस आवाज को आगे बढाते हुये कहते.... या खुद निशाना बन जाना है।<br /><br />वाममोर्चा के तीस साल के शासन में पहली बार माओवादियो का रुख वामपंथियो के खिलाफ ठीक उसी तरह है, जैसे चालीस साल पहले कांग्रेस के खिलाफ वामपंथियो ने हथियार उठाकर कांग्रेस को जमींदार और फासिस्ट करार दिया था। वहीं चालीस साल बाद अब संघर्ष से निकल कर सत्ता में पहुची सीपीएम को फासिस्ट और जमींदार का तमगा माओवादी दे रहे है। पश्चिम बंगाल में वाम राजनीति का चक्का एक सौ अस्सी डिग्री में किस तरह घूम चुका है, इसका अंदाजा सीपीआई माओवादी की सीधी पहल से समझा जा सकता है।<br /><br />16 जून को लालगढ़ टाउन के मैदान की सभा को संबोधित करने और कोई नहीं, उसी आंदोलन से निकले नेता पहुंचे थे, जिन्होंने साठ के दशक में नक्सलबाडी में हथियार उठाकर कांग्रेस के शासन के खिलाफ बिगुल फूंका था । और आंदोलन की आग उस वक्त इतनी तेज हुई थी कि सीपीआई में दो फाड़ हो गया था। और तीन साल बाद यानी 1967 में ही पहली बार गैर कांग्रेसी संयुक्त मोर्चा सरकार बनी, जिसमें ज्योति बसु उप-मुख्यमंत्री थे। लेकिन साठ के दशक में नक्सलबाडी की आग ने वामपंथियो को यह सीख जरुर दे दी की बंगाल की जमीन वामपंथियो के भटकाव को भी बर्दाश्त नहीं करेगी। उस वक्त वजह भी यही रही कि सीपीआई के भटकाव से टूट कर निकली सीपीएम ने जंगल-जमीन से जुड़े मुद्दो को ही अपनी राजनीति का पहला आधार बनाया। नक्सलबाडी की इस आग ने संसदीय राजनीति में चाहे सीपीएम को सफलता दे दी लेकिन आंदोलन की कमान उस दौर जिन एमएल और एमसीसी संगठनों ने थाम रखी थी, पहली बार यही दोनो धारायें एक साथ सीपीएम के खिलाफ बंगाल में हथियार उठाये हुये हैं।<br /><br />राजनीतिक तौर पर सीपीआई एमएल पीपुल्स वार और एमसीसीआई 2004 में एक साथ हुये। लेकिन विलय के बाद बने सीपीआई माओवादी के लिये बीते पांच साल में यह पहला मौका है, जब राजनीतिक तौर पर वह सीधे सीपीएम को जमींदार और फासिस्ट करार दे कर हथियारबंद संघर्ष के जरीये चुनौती देने को तैयार है । जाहिर है सीधे राज्य के खिलाफ इस तरह हथियारबंद संघर्ष नक्सलबाडी के बाद प्रयोग के तौर पर कहीं हुआ तो वह आंध्र-प्रदेश है । जहां नक्सली संगठन पीपुल्स वार ने राज्य को चुनौती दी तो संसदीय राजनीति में कांग्रेस से लेकर एनटीआर और 2004 में तेलगंनाराष्ट्वादी पार्टी ने चुनावी लाभ भी उठाया । लेकिन बंगाल की स्थिति इस बार सबसे ज्यादा जटील है। नंदीग्राम की आग को राजनीतिक तौर पर ममता बनर्जी ने सीधे किसी सोच के तहत ढाल नहीं बनाया। बल्कि पिछले चालीस साल की जो राजनीतिक ट्रेनिग बंगाल में सत्ताधारी वामपंथियो ने ही जनता को दी है, उसका असर यही हुआ कि जब वाममोर्चा सरकार जंगल-जमीन से जुडे मुद्दो को बिना सुलझाये ही आगे बढी तो सुलगते नंदीग्राम का राजनीतिक असर वामपंथी जनता में खुद-ब-खुद हुआ। और ममता बनर्जी को इसका चुनावी लाभ मिला। लेकिन ममता बनर्जी की राजनीतिक ट्रेनिंग वाम राजनीति के जरीये नहीं हुई है, इसलिये लालगढ़ की हिंसा के बीच जब ममता बनर्जी बंगाल में इस बात का ऐलान करती है कि हिंसा के जरीये समाधान नहीं हो सकता है और लालगढ में हथियार नहीं उठाये जाने चाहिये तो प्रतिक्रिया में कहीं ज्यादा हिंसा इस बात का भी संकेत दे रही है कि माओवादी ममता के जरीये वाममोर्चा के खिलाफ अपनी राजनीतिक लडाई को महज ढाल बनाना चाहते है न कि ममता के अनुकूल राजनीतिक परिस्थितियों की लड़ाई लडना चाहते हैं । वही ममता बनर्जी उस राजनीतिक माहौल को तो सूंघ पा रही है, जिसमें सीपीएम के खिलाफ ग्रामीण इलाको में तेजी से आक्रोष उभर रहा है मगर उस आक्रोष को कोई राजनीतिक जामा नहीं पहना पा रही है।<br /><br />इस लडाई में ममता का संकट दोहरा है। एक तरफ वैचारिक तौर पर तृणमूल कांग्रेस की कोई पहचान नहीं है, सिवाय कांग्रेस के टूट कर दल बनाने से और दूसरी तरफ ममता ने उसी कांग्रेस का हाथ थाम रखा है, जिसके साथ सीपीएम से फूटा गुस्सा जा नहीं सकता है। यानी पहले नंदीग्राम और अब लालगढ से निकले मुद्दे ममता की राजनीति को साध रहे है । ममता भी राजनीतिक भाषा में वाम लहजे का इस्तेमाल कर रही हैं, जो जमीन-जंगल से जुडे किसान-मजदूर-आदिवासी और गांववालों को अछ्छी लग रही है। लेकिन बंगाल की जमीन पर वाम और अतिवाम की लडाई में ममता महज प्यादा हैं, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है । क्योंकि सीपीएम जिस नयी पीढी का सवाल उठाकर आर्थिक सुधार की दिशा में कदम बढा रही है, वह पीढी मंदी के दौर में देश में रोजगार छिनने वाले माहौल को बकायदा देख रही है। बंगाल की इस युवा पीढी का लालन-पालन भी वामसमझ वाले परिवार और माहौल में हुआ है । इसलिये बंगाल में नये सवाल देश के दूसरे हिस्सो की तुलना में कहीं तेजी से उठते हैं। खासकर मुद्दों को अगर राजनीतिक पंख लग जाये तो बंगाल की एकजुट समझ भी खुल कर सडकों पर ही निकलती है । इसका असर सामाजिक तौर पर किस तेजी से हो रहा है, यह लालगढ के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। जहां सीआरपीएफ के बासठ कैंप गांव और जंगल में चुनाव के बाद से ही लगा दिये गये थे । लेकिन जब नारे लगे की पुलिस -सेना जमींदार के लिये है तो गांव से सुरक्षाकर्मियों को 12 कैंप इसलिये समेटने पड़े क्योंकि गांववालों ने खाना-पानी बंद देना और कैंप तक पहुंचने देना भी बंद कर दिया । इसका असर शहर में भी दिखायी दिया खासकर उन जिलो में जहा राशनिंग लूट हुई थी। सीआरपीएफ को देख कर शहरों में यह सवाल तेजी से घुमड़ने लगा कि अगर वाममोर्चा विकास के नाम पर खेत और जमीन को खत्म कर देगे तो मुश्किल और बढेगी । वहीं किसान-मजदूर अगर मारा जायेगा तो खेती करेगा कौन।<br /><br />राज्य के सत्रह जिले ऐसे हैं, जहां खेती न हो तो जिन्दगी की गाड़ी चल नहीं सकती है । इन जिलों में गरीबों की तादाद का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि साठ फिसद घरों में बीपीएल कार्ड है और निन्यानवे फिसद परिवारो के घर राशन का ही चावल-गेंहू आता है । और सत्ताधारी वामपंथियो के लिये कैडर बनाने और जुटाने की सौदेबाजी का आधार भी पेट भरने के साधन जुटाने पर आ टिकता है। यानी बीपीएल कार्ड सीपीएम कैडर के पास होगा ही । राशन की लूट में उसी कैडर को अन्न मिलेगा जो सत्ता के लिये काम कर रहा होगा। जाहिर है जब वाम राजनीति पेट की परिभाषा पर टिकी होगी तो जिसमें बल होगा वहीं असल वामपंथी भी हो जायेगा। चूंकि राज्य की सत्ता की ताकत के सामने हर कोई बौना है और राज्य के आंतक के सामने हर आंतक छोटा है तो ऐसे में सत्ताधारी अगर कमजोर होगा तो पेट की जरुरत वैचारिक आधार बदलने में कितनी देर लगायेगी । असल में नंदीग्राम और लालगढ की राजनीति से बंगाल की सामाजिक-आर्थिक स्थिति सीधे जुड़ी हुई है । इसलिये चुनाव में जैसे ममता बनर्जी मजबूत हुई हैं, सीपीएम का कैडर ममता के साथ हथियार लेकर खड़ा होने से नहीं कतरा रहा है। वहीं ममता की यही जीत सीपीएम को कमजोर करने से ज्यादा माओवादियो को मजबूत कर रही है, क्योकि बंदूक तले वह राज्य की पुलिस से दो दो हाथ कर रहे है और जिले-दर-जिले ममता के साथ जुड़ने वाला सीपीएम कैडर प्रमोशन पाकर पेट के लिये कहीं ज्यादा लाभ समेट रहा है। वाममोर्चा के कैडर के चक्रव्यू को भेंदते हुये लालगढ से माओवादी कोलकत्ता तक अब नक्सलबाडी की तर्ज पर उस राजनीति को हवा देने में लग गये हैं, जहां राज्य मान ले कि हथियार जनता ने उठा लिये हैं।<br /><br />चूंकि गांव समिति से लेकर जिला कमेटी तक के स्तर पर कामकाज देखने वाले कैडर के पास हथियार रहते हैं और चुनाव से पहले इलाको के कब्जे की राजनीति इसी हथियार के भरोसे चलती है, इसे हर राजनीतिक दल का कैडर जानता सतझता है । चूकि सत्ताधारी सीपीएम कैडर के पास सबसे ज्यादा हथियार हो सकते है, इसी आधार पर माओवादियो ने अपनी रणनीति के तहत गांव वालों को उकसाना भी शुरु किया है जिससे सीपीएम दफ्तरों और नेताओं के घरो में आग लगा कर हथियार समेटे जा रहे है । लालगढ के इलाके में अगर सीपीएम कैडर का पूरी तरह सफाया हुआ है तो उसकी बडी वजह उनके हाथों से हथियारों का जाना भी है और ग्रामीणो का हाथ में हथियार उठाकर माओवादियो की सभा में नारा लगाना भी।<br /><br />ऐसे में सवाल सिर्फ लालगढ के जरीय माओवादियो के हथियारबंध संघर्ष के नारे भर का नहीं है। बल्कि मुश्किल परिस्थितयाँ उस आने वाले टकराव को लेकर बन रहे राजनीतिक माहौल की हैं, जो प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर इलाकों में लूट के लिये बड़े कारपोरेट घरानों को लाइसेंस दे रही हैं और चार फसली खेती योग्य जमीन पर उद्योग लगा कर रोजगार पैदा करने का स्वांग रच रही हैं। जबकि बंगाल का सच यही है कि वहां वो नारे भी दम तोड चुके हैं, जिसके भरोसे कांग्रेस रोजगार क्रांति का सपना संजोये है। क्या ऐसे में बंगाल में वामपंथियों और माओवादियों का संघर्ष देश की राजनीति को साध पायेगा, यह नया सवाल बंगाल की जमीन पर वाम राजनीति को समझने वाला बौद्धिक तबका खड़ा कर रहा है क्योंकि उसे लगने लगा है जब प्रतिक्रियावादी ममता बनर्जी की सलाहकार नक्सली महाश्वेता देवी हो सकती हैं, तो भविष्य में नयी राजनीतिक जमीन माओवादियो के लिये कुछ नयी परिस्थितियाँ पैदा भी कर सकती है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com7