tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-60075120620222657182009-11-05T11:31:00.002+05:302009-11-05T11:32:27.579+05:30पहले दुश्मन बनाओ फिर सेना खुद खड़ी होगी<strong>बालासाहेब से राज ठाकरे तक का राजनीतिक मंत्र</strong><br /><br />महाराष्ट्रियनों को एक दुश्मन चाहिये और राज ठाकरे उसी की संरचना में जुटे हैं। और उन दुश्मनों पर हमला करने के लिय राज की सेना धीरे धीरे महाराष्ट्र निर्माण सेना के नाम पर गढ़ी जा रही है। यह मराठी मानुस राजनीति की हकीकत है, जिसे साठ के दशक में बालासाहेब ठाकरे ने शिवसेना के जरिये उभारा और 21 वी सदी में राजठाकरे उभार रहे है । राज ठाकरे का उभार महज लुंपन राजनीति की देन नहीं है ना ही 40 साल पहले बालासाहेब का उभार लुंपन राजनीति की देन थी। याद कीजिये बीस के दशक से लेकर 40 के दशक तक महाराष्ट्रीय नेता भाषा, संस्कृति,इतिहास और परंपरा के नाम पर अलग महाराष्ट्र गठित करवाने का प्रयास चलाते रहे। आजादी के बाद संयुक्त महाराष्ट्र समिति ने एकीकृत महाराष्ट्र का आंदोलन चलाया और उस दौर में ना सिर्फ महाराष्ट्रीय अस्मिता एकबद्द् हुई बल्कि राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशो से जितने भी राज्य बने उसमें केवल महाराष्ट्र ही था जिसने आयोग के प्रस्ताव के खिलाफ संघर्ष किया। <br /><br />विदर्भ के उन जिलो को अपने में शामिल करने की कोशिश की जिनका अलग राज्य बनाने का प्रस्ताव था । फिर सुनिश्तचित किया किया की मुंबई अलग राज्य ना बने । फिर गुजरात को द्विभाषी राज्य से बाहर निकालवाने में सफलता प्राप्त की। अभी भी कर्नाटक के बेलगांव और करवार जिलों का करीब 2806 वर्ग मील क्षेत्र को महाराष्ट्रीय अपना मानते है और गाहे बगाहे दावा ठोकते हैं। वहीं गोवा का महाराष्ट्र में विलय उनका अधूरा सपना है। असल में माराठी मानुस की समझ सिर्फ युवा पीढ़ी को लुभाने या उत्तर भारतीयों के खिलाफ जहर उगने भर की नहीं है। आजादी के बाद मराठाभाषियों की स्मृति में दो ही बाते रहीं । पहली शिवाजी और उनके उत्ताराधिकारियों द्वारा स्थापित किये गये शानदार मराठा साम्राज्य की यादें जो मुगलों और अंग्रेजों के खिलाफ बहादुरी से लडने वाले मराठों को एक पराक्रमी जाति के रुप में गौरान्वित करती है और दूसरी स्वतंत्रता आंदोलन में तिलक, गोखले और रानाडे जैसे महान नेताओ की भूमिका जो उन्हे आजादी के लाभो में अपने हिस्से के दावे का हक देती हैं। <br /><br />मराठी मानुस की महक हुतात्मा चौक से भी समझी जा सकती है जो कभी फलोरा फाउन्टेन के नाम से जाना जाता था लेकिन इस चौक को संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन से जोड़ दिया गया । वहीं गेटवे आफ इंडिया पर शिवाजी की घोड़े पर सवार प्रतिमा के मुकाबले पूरे महाराष्ट्र में गांधी की कोई प्रतिमा नहीं मिलेगी। गांधी जी के बारे में मराठी मानुस की समझ निजी बातचीत में समझी जा सकती है, गांधी मराठियो की एकजुटता से घबराते थे कि कही फिर मराठे सूरत को ना लूट लें। एक तरह से गांधी को सिर्फ गुजराती बनिये के तौर पर सीमित कर मराठी मानुस आज भी मराठों के विगत साम्राज्य को याद कर लेता है। असल में शिवसेना ने जब 60 के दशक में मराठी मानुस का आंदोलन थामा और जिस मराठी मिथक का निर्माण किया , वह कुछ इस तरह का था जिसमें साजिश की बू आती। यानी मुबंई में मराठी लोगो की हैसियत अगर सिर्फ क्लर्क, मजदूर,अध्यापक और घरेलू नौकर से ज्यादा की नहीं थी तो वह साजिश के तहत की गयी। बालासाहेब की राजनीति के दौर में गुजराती,पारसी,पंजाबी, दक्षिण भारतीयों का प्रभाव मुबंई में था और शिवसेना इसे साजिश बताते हुये दुश्मन भी बना रही थी और उनसे लडने के लिये मराठियों को एकजुट कर अपनी सेना भी बना रही थी। <br /><br />ठीक इसी तर्ज पर राज ठाकरे भी दुश्मन खोज उनसे लड़ने के लिये अपनी सेना को बनाने में जुटे हैं । बालासाहेब ने लुंगी को पुंगी पहनाने की बात कर दक्षिण भारतीयों के खिलाफ अपनी सेना बढ़ायी तो राज ठाकरे भईया और दूध वालो पर चोट कर उत्तर भारतीयों को दुश्मन बनाकर अपनी सेना बनाना चाहते हैं। यानी दुशमन की जरुरत सेना को बढाने के लिये जरुरी है इसका एहसास बाला साहेब को भी था और राजठाकरे को भी है। इस सेना में युवा मराठी मानुस सबसे ताकतवर हो सकता है, इसका अहसास बाला साहेब को भी रहा और अब राजठाकरे भी समझ चुके हैं। 60 के दशक में मुंबई में अधिकांश निवेश पूंजीप्रधान क्षेत्रो में हुआ जिससे रोजगार के मौके कम हुये । फिर साक्षरता बढने की सबसे धीमी दर महाराष्ट्रीयों की ही थी । इन परिस्थितयों में नौकरियों में पिछड़ना महाराष्ट्रियनों के लिये एक बडा सामाजिक और आर्थिक आघात था । बालासाहेब ठाकरे ने इसी मर्म को छुआ और अपने अखबार मार्मिक के जरीये महाराष्ट्र और मुबंई के किन रोजगार में कितने मराठी है इसका आंकडा रखना शुरु किया। <br /><br />बालासाहेब ने बेरोजगारी को भी हथियार बनाते हुये उसकी वजह दूसरे राजनीतिक दलों का लचीलापन करार दिया और अगले दौर में कामगारों को साथ करने के लिये वाम ट्रेड यूनियनों पर निसाना साधा और भारतीय कामगार सेना बनाकर एक तीर से कई निशाने साधे । दक्षिण भारतीयों के खिलाफ युवा मराठी को खडा करने के लिये यहां तक कहा कि सभी लुंगी वाले अपराधी , जुआरी , अबैध शराब खींचने वाले, दलाल, गुंडे, भिखारी और कम्युनिस्ट हैं। ....मै चाहता हूं कि शराब खींचने वाला भी महाराष्ट्रीय हो, गुंडा भी महाराष्ट्रीयन हो, और मवाली भी महाराष्ट्रीयन हो । इस तेवर के बीच जैसे ही ठाकरे ने ट्रेड यूनियन बनायी वैसे ही कई उघोगपतियों ने बाल ठाकरे के साथ दोस्ती कर ली । नयी परिस्थियो में राज ठाकरे भईया यानी उत्तर भारतीयों पर अपराधी, जुआरी,दलाल,अंडरवर्ल्ड से जुड़े होने के आरोप लगाते हुये युवा मराठी के बीच उनके हक को छिने जाने को साजिश ही करार दे रहे हैं। राज ठाकरे की राजनीति अभी ट्रेड यूनियन के जरिए शुरु नहीं हुई है लेकिन चाचा बालासाहेब की ही तर्ज पर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का पेंपलेट छपवा कर नौकरी के लिये कामगारों की नियुक्ति को प्रभावित करने लगे हैं। <br /><br />बाला साहेब से इतर राज की राजनीति आधुनिक परिपेक्ष्य में उघोगपतियों से संबंध गांठकर अपनों के लिये रोजगार और पूंजी बनाने की जगह सीधे पूंजी पर कब्जा करने की रमनीति ज्यादा है। मुंबई, पुणे, नासिक, कोल्हापुर से लेकर कोंकण के इलाके में राजठाकरे सीधे जमीन को हथियाने पर ज्यादा जोर देते हैं। कोई उघोग या मिल बीमार होकर बंद होती है तो उसकी जमीन पर पहला कब्जा उनका खुद का हो या फिर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के ही किसी बंदे का हो, इस दिशा में उनकी पहल सीधी होती है। बाला साहेब के दौर में कामगारो को साथ जोडने में खाली नौकरियों पर शिवसैनिक ध्यान रखते थे और फिर कामगार सेना के पर्चे पर फार्म भर कर नौकरी देने के लिये उघोगपतियों को हडकाया जाता था। वहीं राज ठाकरे के दौर में महाराष्ट्र के हर जिले में एमआईडीसी यानी महाराष्ट्र औघोगिक विकास निगम बन चुका है तो नयी पहल के तहत राजठाकरे की नजर हर एमआईडीसी पर है । अपने जोर पर एमआईडीसी में अपने से जुडे कामगारों को नौकरिया दिलाना और एमआईडीसी में उघोग के लिये जमीन चाहने वाले किसी को भी सरकार पर दबाब बनाकर जमीन दिलवाना और फिर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना से जोड़ना नयी रणनिति है। बाल ठाकरे राजनीति करते हुये स्टार वेल्यू के महत्व को भी बाखूबी समझते ते और अब राज ठाकरे भी इस स्टार वेल्यू को समझने लगे हैं। बालासाहेब ने युसुफ भाई यानी दिलीप कुमार पर पहला निशाना साधा था तो राज ठाकरे ने अमिताभ बच्चन पर निशाना साधा। बाला साहेब से समझौता करने एक वक्त शत्रुध्न सिन्हा को ठाकरे के घर मातोश्री जाना पडा था तो करण जौहर को राज के घर कृष्ण निवास जाना पड़ा। यानी दुश्मन हर वक्त ठाकरे ने बनाया और सेना को मजबूत किया। बालासाहेब ने तो बकायदा चित्रपट शाखा खोली। जहां शुरुआती दौर में मराठी कलाकारो को ईगे बढाने की बात कही गयी लेकिन बाद में यह बालठाकरे की स्टार वेल्यू से जुड़ गया। कमोवेश यही स्टार वेल्यू का अंदाज राजठाकरे ने भी समझा । कांग्रेस के जरीये राजनीति आगे बढायी जा सकती है और खुद को खड़ाकर कांग्रेस से सौदेबाजी की जा सकती है , यह पाठ सिर्फ राजठाकरे के भूमिपुत्र आंदोलन में ही सामने आया ऐसा भी नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के हस्ताक्षेप के बावजूद राज को लेकर महाराष्ट्र सरकार की ढिलायी ने भी राज को हिरो बना दिया इसमें दो मत नहीं। <br /><br />लेकिन याद किजिये 1995 में शिवसेना के महाराष्ट्र में सत्ता में आने से पहले की राजनीति । शिवसेना के मुखपत्र में विधानसभा अध्यक्ष का अपमानजनक कार्टून छपा । विधानसभा में हंगामा हुआ । विशेषाधिकार समिति के अध्यक्ष शंकर राव जगताप ने ठाकरे को सात दिन का कारावास देने की सिफारिश की । मुख्यमंत्री शरद पवार ने मामला टालने के लिये और ज्यादा कड़ी सजा देने की सिफारिश कर दी । पवार के सुझाव पर पुनर्विचार की बात उठी और माना गया कि टेबल के नीचे पवार और सेना ने हाथ मिला लिया। लेकिन 1995 के चुनाव में बालासाहेब ने पवार को अपना दुश्मन बना लिया और सेना के गढ़ को मजबूत करने में जुटे। विधानसभा चुनाव के ऐलान के साथ ही बालासाहेब ने पवार को झटका दिया और दाउद इब्राहिम के ओल्गा टेलिस को दिये उस इटरव्यू को खूब उछाला जिसमें दाउद ने पवार से पारिवारिक रिश्ते होने का दावा किया था। फिर खैरनार के आरोपों को भी पवार के मत्थे सेना ने जमकर फोड़ा। परिणाम यही हुआ मुंबई के मंत्रालय पर भगवा लहराने का बालासाहेब ठाकरे का सपना साकार हो गया। और शपथ समारोह में मंच पर और कोई नहीं वही खैरनार अतिथि के तौर पर आंमत्रित थे जिन्होने पवार के खिलाफ भ्रष्ट्राचार की मुहिम चलायी थी । संयोग से राज ठकरे का कद अभी इतना नहीं बढा है कि वह महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का झंडा मंत्रालय पर लहरा सके लेकिन जिस तर्ज पर कांग्रेस की राजनीति पवार को शह और शिवसेना को मात देने के लिये राजठाकरे सरीखे प्यादे से एकसाथ कई चाल चलवा रही है उसमें आने वाले दिनो में राज को रोकना मुश्किल भी होगा यह भी तय है । क्योंकि दुश्मन बनाकर सेना जुगाड़ना राज ने भी सिखा है और महाराष्ट्र में चाहे कांग्रेस-एनसीपी की सत्ता तीसरी बार लगातार मिल गयी हो लेकिन महाराष्ट्र के सामाजिक आर्थिक हालात इस दौर में बद से बदतर हुये है , इसे हर राजनीतिक दल समझ रहा है। शहर बिजली से और गांव खेती से परेशान है। युवा बेरोजगारी से और बुजुर्ग महंगाई से मुश्किल में है। यह परिस्थितियां कब अशोक चव्हाण की कलई खोल देगी कहना मुश्किल है। और तबतक राजठाकरे ऐसे ही औने बौने रहेंगे-सोचना नादानी होगी । 19 अगस्त 1967 को बालासाहेब ने कहे था, -- " हां मै तानाशाह हूं, इतने शासकों की हमें क्या जरुरत है ? आज भारत को तो हिटलर की आवश्कता है। ....भारत में लोकतंत्र क्यों होना चाहिये ? यहा तो हमें हिटलर चाहिये । " इसी बात को 2009 में राजठाकरे कुछ यूं कहते है..."मै तानाशाह नहीं हूं । लेकिन ऐसी राजनीति मुझे नहीं करनी । जो साजिश करें । मराठी मानुस को ही मुबंई से महाराष्ट्र से बेदखल कर दे। अब हम विधानसभा में पहुंचे है और अंदर मेरी सेना है तो सड़क पर मै हूं । देखे अब मुंबई या महाराष्ट्र में किसकी चलती है।"Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-33916340685251665652008-10-24T07:12:00.004+05:302008-10-24T10:29:02.796+05:30रगों में दौड़ती मुंबई का चेहरा बदल चुका हैसाठ के दशक की फिल्म 'शहर और सपना' से लेकर सुकेतु मेहता की किताब 'मैक्सिमम सिटी' के बीच चार दशकों का फासला है। मुंबई को लेकर बनी फिल्म 'शहर और सपना' राजकपूर और दिलीप कुमार के दौर की है। इसमें रोजगार की तलाश में बिहार-उत्तर प्रदेश-बंगाल से मुंबई पहुंचे मजदूरों के दर्द का किस्सा है,जो सोलह से अठारह घंटे खटता है। रात कहीं पाइप में तो कहीं पटरी पर तो कही पुल के नीचे या सीढियों तले गुजारता है।<br /><br />फुर्सत के क्षणों में सिनेमा ही उसका साथी है और उन सब के बीच कहीं बॉलीवुड का कोई नायक-खलनायक या नायिका को शूटिंग के दौरान देख लेता है, तो उसकी जिन्दगी तर जाती है। होली-दिवाली या ईद के मौके पर जब वह गोरखपुर-छपरा-दरभंगा-आसनसोल लौटता है, तो मुंबई की चकाचौंघ उसकी कहानियां होती हैं और उन कहानियों में वह खुद को भी कहीं ना कहीं खड़ा कर मुंबई का हिस्सा बनता है। और मुंबई जाने की चाह इन छोटे शहरों के लड़कपन छोड़ जवान होती पीढियों की आंखों में बड़े हो रहे सपनो को पंख लगाते हैं।<br /><br />इसलिये मुंबई चार दशक पहले मैक्सिम सिटी नहीं थी । वह सपनों का शहर था, जिससे जुड़ने की चाह हर किसी में पनपती थी। गांव की मिट्टी का सोंधापन अगर किसी के आंगन में खत्म होता और बडी इमारत वहां बनती तो उसके साथ अगर मुंबई की कमाई जुड़ी होती तो इमारत या हवेली का अंदाज राजकपूर-देवआनंद या युसुफ मियां यानी दिलीप कुमार के सात जुड़ ही जाता। अगर दिवाली या ईद के मौके पर कोई नया फैशन किसी की घरवाली दिखा जाती तो मीना कुमारी-वहीदा रहमान या साधना से जोड़ कर मुंबई की महक गांव की किस्सागोई का हिस्सा बनती चली जाती।<br /><br />यह किस्से मुबंई को उस वक्त भी गांव और छोटे शहरों में जिलाये रखते, जिस वक्त पिया का इंतजार होता । और एक दिवाली से दूसरी दिवाली इसी आस में कट जाती कि फिर मुंबई की चकाचौंध समूचे गांव में एक नया किस्सा गढ़ेगी और इंतजार का दर्द झटके में फुर्र हो जायेगा।<br /><br />लेकिन चार दशक बाद सपनों को ध्वस्त कर मुंबई की नयी तस्वीर मैक्सिम सिटी के तौर पर उभरती है, जिसमें अपराध और पैसा अफरात में है। जिसमें पटरी से लेकर पाइप और ढाबा से लेकर पुल के नीचे का सराय भी माफियागिरी का हिस्सा है । जिसमें सबकी हिस्सेदारी है । हिस्सेदारी में किसी तरह की भागेदारी का संघर्ष समूची मुंबई को खाये जा रहा है। और मुबंई के सपने की जगह उस पूंजी ने ले ली जो हिस्सेदारी और भागेदारी से एक नये समाज को बनाने में जुटी है । यह समाज अपने पैरो की जगह उस अफरात पैसे को पैर बनाने पर आमदा है, जो उसे एक झटके में समाज से अलग कर सात संमदर पार ले जा सकता है। <br /><br />यह नयी जमात अंडरवर्ल्ड की है । जिसमें हिस्सेदारी और भागेदारी किसी को भी कहीं का कहीं पहुचा सकती है । साठ के दशक में कैफी आजमी आजमगढ़ से ही मुंबई पहुंचे थे, और नब्बे के दशक में आजमगढ़ से ही अबू सलेम पहुंचा। नब्बे के दशक में कैफी को मुंबई तंग लगने लगी थी । वह आजमगढ़ लौटने को बैचेन रहते थे। जिस शहर के सपनों के आसरे उन्होंने अपने शहर को हवा दी, तीन दशक बाद उसी शहर मुबई में उनके सपने समा नही पा रहे थे तो वह आजमगढ़ लौट कर अपने सपनों को हवा देने लगे। <br /><br />लेकिन नब्बे के दशक में अबू सलेम का जो सपना आजमगढ़ पहुंचा, वह मुंबई के पार दुबई होते हुये सिंगापुर और मलेशिया तक का था । <br /><br />पैसे ने देश की सीमा लांघी तो बाजार के खुलेपन ने सामाजिक-राजनीतिक तानाबाना भी तोड़ दिया । नया समाज अगर उस पैसे पर आ टिका जो सपना नही सच है तो राजनीति ने सच को सपना करार दिया । जिस दलित आंदोलन ने मुंबई समेत महाराष्ट्र को अस्मिता और संघर्ष का पाठ पढाया, नयी अर्थव्यवस्था के सामने उसने घुटने टेक दिये। अंबेडकर ने जागरुकता तो दी लेकिन राजनीतिक तौर पर कोई ऐसा मंच नहीं दिया, जहां समाज बदलने का सपना संजोया जा सके। मुंबई सपनों के शहर से मैक्सिमम सिटी में बदली तो दलित मराठी को भी समझ में नही आ रहा कि दलित का तमगा लगाकर वह किस संघर्ष को अंजाम देगा। अचानक दलित मराठी युवक मराठी मानुष में अपने आस्तित्व को देखने लगा है।<br /><br />पूंजी से पूंजी बनाने के नये खेल ने उस औघोगिकरण को भी चौपट कर दिया जो ना सिर्फ रोजगार देते थे बल्कि मजदूरो का एक समाज भी बनाये हुये थे। मुंबई समेत महाराष्ट् के चार लाख से ज्यादा छोटी बड़ी इंडस्ट्री बीते ढाई दशक में बंद हो गयी या बीमार होकर ठप पड़ गयी । राज्य के करीब पचास लाख से ज्यादा कामगार इस दौर में बेरोजगार हो गये । जो बेरोजगार हो रहे थे उनके परिवार में बच्चे स्कूली पढाई करते हुये यह समझने लगे थे कि बाप के पास रोजगार नहीं है तो पढाई तो दूर दो जून की रोटी को लेकर भी घरो में बकझक होनी है। होने भी लगी । सोलापुर की चादर या सूती कपड़े इतिहास बन गया। चार बड़ी मिलें और साठ से ज्यादा छोटे उघोग जो इन मिलों पर टिके थे, बंद हो गये । <br /><br />कमोवेश कोल्हापुर-लातूर-बीड-औरगाबाद से लेकर विदर्भ के नागपुर तक यही स्थिति होती चली गयी । जिन जमीनों पर उघोग थे या जितने उघोग थे उन्हे कोई संकट नहीं आया क्योंकि उनके लिये बाजार पंख फैला रहा था। सबकुछ मुनाफे में बदलना था तो बदला भी । लेकिन संकट इन ढाई दशको में उस पीढी को हुआ, जिसने घर में बाप के रोजगार के संकट को स्कूली जीवन में देखा और जब उसके कंधे मजबूत हुये तो रोजगार का कोई साधन उसके पास नहीं था । बाप की मजबूरी में बाप की कोई शिक्षा भी मायने नही होती, तो हुई भी नहीं । रोजगार के समूचे साधन राजनीति के आसरे टिके तो राजनीतिक विचारधाराओ ने भी दम तोड़ दिया। आंदोलन के जरिये बने राजनीतिक दल भी पैसे वाली सत्ताधारियों के जेबी पार्टियो के तौर पर झुकने लगी । इसे लुंपन राजनीति की काट महाराष्ट्र की राजनीति में आधुनिक राजनीति का लेप लगाकर बाल ठाकरे ने ही परोसी। राजनीति रोजगार है, इसे खुले तौर पर उन लड़को के सामने रखा, जिन्होंने बचपन मे अपने घरों में अंबेडकर-फुले के आंदोलन को पढ़ा समझा। सामजवादियो के परिवार के लड़के भी ठाकरे के साथ हुये । बेरोजगारी के आलम में बाप -बेटे की आंखों में आयी दूरी ने बेटे को लुंपन राजनीति को बतौर रोजगार आत्मसात करने से रोका भी नहीं।<br /><br />मजदूर संगठन से लेकर करीब 22 संगठन शिवसेना ने नब्बे के दशक में बनाये । 1995 के चुनाव में ठाकरे के साथ हर सभा में युवा नारा लगाता था, जिधर बम उधर हम । लेकिन सत्ता मिलने के बाद रोजगार के तरीकों को सत्ता से जोड़कर कैसे चलाया जाये, जिससे हिस्सेदारी और भागेदारी का खेल बंद हो, इसे शिवसेना ना समझ पायी। लेकिन इस पीढी को यह समझ आ गया कि सत्ता के खिलाफ खड़े होने की राजनीति रोजगार का धन तो मुहैया करा सकती है। विरोध को लामबंद जो करेगा, सत्ता की सौदेबाजी में उसके सामने सभी को नतमस्तक होना भी पड़ेगा। हुआ भी यही । बाल ठाकरे, जहां उम्र की वजह से चूकते हैं, वहा राज ठाकरे खड़े होते हैं। राज ठाकरे उस राजनीतिक दौर की देन हैं, जहा राजनीति सरोकार की भाषा भूल चुकी है और पूंजी के आसरे सत्ता को बनाये रखने का मंत्रजाप कर रही है।<br /><br />माना जाता है शरद पवार ने जब कांग्रेस छोड़कर एनसीपी बनायी तो जलगांव में एक सभा की और जो उनके साथ शामिल हुआ उसे एक बैग और महेन्द्रा की एक नयी जीप की चाबी दी गयी। उस दौर में पवार बतौर मराठा ही नही, पोटली के मामले में भी सबसे ताकतवर थे । ताकतवर पवार अब भी है लेकिन अब कई नेताओ की पोटली भारी है । पूंजी सबके पास है। और रुपया से रुपया बनाने का खेल मनमोहन सिंह की बाजार अर्थव्यवस्था ने सिखला दिया है तो सत्ता भी उसी रास्ते चल पड़ी है । इसलिये यह कहना बेमानी होगा कि कांग्रेस-एनसीपी ने राज ठाकरे पर पहले लगाम नहीं लगायी, जिसका परिणाम अब नजर आ रहा है।<br /><br />असल में आम लोगो से सरोकार की राजनीति हाशिये पर कांग्रेस-एनसीपी ने ही ढकेली है, इसलिये मामला कानून-व्यवस्था का नहीं है । मामला उस राज्य को बनाने का है, जहां जीने के लिये कोई रास्ता चाहिये । संयोग से मराठी मानुष का रास्ता सत्ता को सीधे चुनौती देकर सौदेबाजी कर सकता है, तो यही ठीक है । वजह भी यही है कि मुबंई से निकली आग जब बिहार के उन शहरो में फैल रही है, जहां कभी मुंबई से खुद को जोड़कर सपने रचे जाते थे, तो समझ उन सपनों को रचने की नहीं बल्कि अपने घेरे में उसी मुंबई को बनाने की है, जहां हिस्सेदारी और भागेदारी की मांग सीधे सत्ता से की जा सके। लेकिन इसके लिये सत्ता को भी पूंजी की ताकत चाहिये , जो नेता लोग पहली बार युवा पीढी को झोंककर बनाना चाहते है। इसीलिये पहली बार राजठाकरे ने मुंबई के कामगारों में नहीं बिहार के नेताओं में यह टीस भरी है कि फिर बिहार मुंबई क्यों नहीं । बिहार के सत्ताधारियों के लिये न्यूइकनामिक्स का यही मॉडल आधुनिक संपूर्ण क्रांति है ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com15