tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger3125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-53529766254135540032009-10-29T07:59:00.000+05:302009-10-29T07:59:00.540+05:30राजधानी की योजनाओं से दूर जंगल में 'राजधानी' फंसने का मतलबमाओवादी संकट कहीं राजनीति के अतर्विरोध को उभार तो नहीं देगा ? माओवादी संकट कहीं विकास की लकीर पर ही सवाल तो खड़ा नहीं कर देगा ? माओवादी संकट कहीं राजनीतिक मुनाफे के आगे नपुंसक होते संस्थानों के दर्द को विस्फोटक तो नहीं बना देगा ? यह सवाल खासे तेजी से उठने लगे हैं। दिल्ली में चिदंबरम चाहे माओवाद के खिलाफ आखिरी लड़ाई का ऐलान करे लेकिन राजनीतिक सत्ता के मुनाफे का टकराव हर लड़ाई को हवा-हवाई बना देगा। राजधानी एक्सप्रेस को पांच घंटे अपने कब्जे में कर अगर माओवादियों ने छत्रघर महतो की रिहायी की मांग की तो उसका दूसरा हिस्सा कहीं ज्यादा खतरनाक है। जिस वक्त जंगल में राजधानी एक्सप्रेस फंसी तो राजनीतिक सत्ता की लड़ाई में राजधानी उलझ गयी, जब हजारों यात्रियों के जेहन में यह सवाल उठ रहा होगा कि सरकार और सुरक्षा बंदोबस्त हैं कहां तो दिल्ली में रेल मंत्री ममता बनर्जी सीपीम को घेरने में लगी रहीं। एक बार भी उन्होंने यह नहीं कहा कि बंगाल के मुख्यमंत्री से वह बात कर रही हैं, उनकी जुबान पर उड़ीसा के सीएम का नाम तो आया लेकिन बंगाल के सीएम का जिक्र करना तक उन्होंने सही नहीं समझा।<br /><br />पॉलिटिकली करेक्ट रहने के लिये सीपीएम ने भी ममता बनर्जी को ही इस मौके पर घेरेने का प्रयास किया। हर कोई भूल गया कि राज्य की जिम्मेदारी क्या है और केन्द्रीय मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक की भूमिका संकट के वक्त क्या होनी चाहिये। जाहिर है पॉलिटिकली करेक्ट रहने की समझ हर राजनीतिक सत्ता की जरुरत है, इसलिये दिल्ली में अगर कभी माओवादियों के खिलाफ आखिरी लड़ाई पर दिल्ली में ठप्पा लग भी जाये तो भी राज्यों की भूमिका राज्यों की सीमा-दर-सीमा बदलगी क्योंकि सीमा बदलते ही राजनीतिक सत्ता भी बदलती है। पॉलिटिकली करेक्ट होने की होड़ पुलिस-सुरक्षाबलो को कैसे तोड़ सकती है इसका अंदाजा बंगाल के पुलिसकर्मियों के टूटते मनोबल से समझा जा सकता है। असल में जिस पुलिसकर्मी की रिहायी माओवादियों ने छाती पर युद्दबंदी का पोस्टर लगाकर मीडिया के हंगामे के बीच की। उस रिहायी के 14 घंटे पहले लालगढ़ में सुरक्षाबलों ने माओवादी किशनजी को घेर लिया था। किशनजी वही शख्स हैं, जो लालगढ की हर माओवादी कार्रवाई का अगुवा है। अपने घेरेबंदी की जानकारी किशनजी को भी थी। लेकिन उसी वक्त माओवादी नेता ने न्यूज चैनलों के जरिए सीधे कहा कि अगर तैनात फोर्स ने किसी भी तरह गोलिया चलायी या कार्रवाई की तो अपहर्त पुलिसकर्मी की हत्या कर दी जायेगी। <br /><br />बुद्धदेव सरकार ने तत्काल फैसला किया कि लालगढ़ में तैनात सुरक्षाकर्मी कार्रवाई नहीं करेंगे। कार्रवाई रोकी गयी और उसके बाद देश में अपनी तरह का पहला युद्दबंदी रिहा हुआ। रिहा युद्धबंदी पुलिसकर्मी ने ना सिर्फ मीडिया के सामने इलाके में विकास का सवाल उठाकर माओवादियों को सही ठहराया बल्कि पुलिस को किस रुप में सत्ता देखती है और प्रचार प्रसार के जरीये उसे हर मामले में शहीद होने का तमगा लगा कर राजनीति पल्ला झाड लेती है, इसने रिहा युद्धबंदी पुलिसकर्मी के उस तर्क के सामने सबकुछ खारिज कर दिया जब रिहायी के बाद पुलिसकर्मी ने ड्यूटी संभालना तो दूर सीधे कह दिया कि नयी परिस्थियों में वह पहले अपने परिवार से बात करेंगे। <br /><br />महत्वपूर्ण है इसी दौर में राज्य और केन्द्र सरकार सुरक्षाकर्मियों को माओवादियो के खिलाफ लड़ाई तेज करने के लिये लगातार जोर दे रही हैं। ऐसे में बंगाल के पुलिसकर्मियो के सामने एक साथ कई सवाल खड़े हुये हैं कि जिन माओवादियों ने एक पुलिसकर्मी को बंधक बनाया उन्हीं माओवादियों ने उससे ठीक पहले दो एएसआई दीपांकर भट्टाचार्य और साकोल राय की हत्या भी की। फिर रिहायी के वक्त बंधक पुलिसकर्मी, जिन माओवादियों से हाथ मिला रहे थे उन्हीं माओवादियो ने थाने पर हमलाकर दो पुलिसकर्मियों को मारा था । <br /><br />जाहिर है इसके बाद सुरक्षाकर्मियों ने जब माओवादियों को घेरा और ऊपरी निर्देश पर कार्रवायी रोक दी, उनके सामने सवाल है कि कल फिर राजनीतिक सत्ता की मजबूरी उन्हें ना रोके इसकी गारंटी कौन लेगा। वहीं तीसरा सवाल भी ‘राजधानी’ के जंगल में फंसने पर उठा। भुवनेश्वर से आने वाली राजधानी को रुकवाने के बाद वहां के ग्रामीण माओवादियो ने दो ही काम सबसे पहले किये। पहला तो रेलगाड़ी के डिब्बो पर छत्रघर महतो की रिहायी की मांग को लाल रंग से लिख डाला और उससे कहीं ज्यादा तेजी से पेन्ट्री कार और कंबल लूटने के लिये हमला किया। एक बांग्ला न्यूज चैनल के रिपोर्टर ने हिम्मत दिखाकर कुछ फर्लांग दूर वंशतोल और झारग्राम के बीच एक झोपडी में जाकर कैमरे से तस्वीरे लीं तो विकास के सवाल ने पाषाण काल की तस्वीर सामने ला दी। क्योंकि उस झोपड़ी में पेन्ट्री कार से लूटे गये खाने और उसकी चमकीली चिमनी के अलावा लूटा गया कंबल था, जो एक डोरी पर झूल रहा था। इसके अलावा कमरे में चटाई, बांस के डंडे, तेन्दू पत्तों की पोटली, मिट्टी का चूल्हा और लोहे की दो कड़ाई पड़ी थी। ओसारे पर मटमैली साड़ी,धोती और फटे हुये कुछ कपडे जरुर थे । इसके अलावा पूरी झोपड़ी में कुछ नहीं था। राजधानी मे यह सारे सामान फेंकने वाले होंगे, जिसकी कीमत लगाना बेमानी है लेकिन झारग्राम के इलाके का यही सच है। जाहिर है यह सारे सवाल उसी माओवाद से जा जुड़े हैं, जिनके प्रभावित इलाको में राजधानी की कोई योजना पहुंचती नहीं और राजधानी एक्सप्रेस फंस जाये तो राज्य और देश की राजधानी में राजनीतिक ब्रेक लग जाता है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-22146514047190619032009-10-23T14:36:00.001+05:302009-10-23T14:38:16.864+05:30आतंरिक सुरक्षा को खतरे का मतलब ?माओवाद के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई की बात गृह मंत्रालय की रिपोर्ट कर रही है और प्रधानमंत्री माओवाद को देश के आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा बता रहे हैं। सरकार के लिये आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़े खतरे का मतलब देश के बीस से तीस करोड़ लोगों के लिये खींची जाने वाली विकास की लकीर के रास्ते में रुकावट का आना है। जाहिर है ऐसे में सत्तर करोड़ लोगों की न्यूनतम जरुरत तो दूर सत्तर करोड लोग भी सरकार के लिये कोई मायने नहीं रखते इसका अंदाज देश के उन्ही राज्यों के भीतर की तस्वीर को देख समझा जा सकता है, जहां ग्रामीण-आदिवासियों की बहुतायत है। अभी भी गांव विकास के घेरे में आकर शहर नहीं बने है। जहां अभी भी समाज बसता है , उपभोक्ता और बाजार नहीं पहुचा है । इसलिये साफ पानी, प्राथमिक स्कूल, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र से ज्यादा जरुरी गांव को शहर बनाना, शहर में बाजार लाना और ग्रामीण समाज को खत्म कर बाजार के लिये उपभोक्ताओ की कतार खडी कर देना।<br /><br />हकीकत में रायपुर,रांची और भुवनेश्वर से आगे छत्तीसगढ, झारखंड और उड़ीसा की अंदरुनी तस्वीर कितनी भयावह है इसका अंदाज इसी बात से लग सकता है कि जिस आर्थिक विकास की स्वर्णिम समझ को बतौर वित्त मंत्री मनमोहन सिंह से लेकर पी चिंदबरम 1991 से 2009 में खींच रहे हैं, उसमें यह तीनो राज्य अव्वल दर्जे के पिछड़े हैं। यहां बाजार पर टिका समाज महज नौ फीसदी है। और सरकार पर टिका है 15 से 20 बीस फीसदी समाज बाकि ना तो बाजार पर टिका है ना ही सरकार पर । यानी सरकार की नीतियां भी ऐसी नहीं है कि वह सत्तर फीसदी लोगों को इसका एहसास कराये की सरकार है जो आपका हित-अहित देखती है ।<br /><br />यह बात वित्त मंत्री से गृह मंत्री बने चिदबंरम तो कह नहीं सकते लेकिन राहुल गांधी समझ रहे है कि उन्हें असल राजनीतिक पारी शुरु करने से पहले उस लकीर पर सवालिया निशान उठाना ही होगा जो आंतरिक सुरक्षा को लेकर सरकार के माथे पर खींची जा रही है । राहुल बेखौफ हो कर कह सकते हैं कि माओवाद प्रभावित इलाको में सरकार बहुसख्यक आम ग्रामीण तक पहुंचती ही नहीं है । राज्यों की राजधानी में ही या फिर शहरों में ही सरकारी नीतिया भ्रष्ट्राचार तले दम तोड़ देती है या फिर जमीनी सच से दूर नीतियों की ऐसी लकीर खींची जाती है जो गांव में पहुंचते पहुंचते एक नये अर्थ में दिखायी देती है। मसलन झारखंड के खूंटी में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र नहीं है लेकिन वहां दवाई फैक्टरी को जगह दे दी गयी। बस्तर में पीने का पानी नहीं है लेकिन वहा बोतल बंद पानी की फैक्ट्री खोली जा सकती है। और बालासोर में बारुद और कैमिकल से लोग मर रहे है लेकिन वहां विशेष आर्थिक क्षेत्र की बात कही जा सकती है।<br /><br />हालांकि राहुल गांधी राजनीति के मर्म को समझते हैं इसलिये वह केन्द्र सरकार को नहीं राज्यों की सरकारों को इसके लिये घेरते है । लेकिन फिर सवाल शुरु होता है कि जो आंखें राहुल गांधी के पास है वह मनमोहन सिंह के पास क्यों नहीं है । यह कैसे संभव है कि राहुल की राजनीतिक जमीन उस उपभोक्ता समाज से हटकर होगी, जिसे अथक मेहनत के साथ मनमोहन सिंह ने बनाया है, या फिर राहुल कोई ऐसी राजनीतिक लकीर खिंचना चाहते है, जिसके बाद केन्द्र और हर राज्य में सिर्फ कांग्रेस की ही सरकार हो । और उस स्थिति में राहुल राज हो तो कोई दूसरा राहुल देशाटन कर देश की उथली और पोपली जमीन को बता कर लोगो की भावनाओं से जुड़ कर उस दौर में राहुल को ही मनमोहन सरीखा ना बना दें।<br /><br />असल में माओवादी प्रभावित रेड कारीडोर का बड़ा सच यही है कि वहा सेना या देश तो छोड़िये राज्यो की पुलिस की तुलना में भी माओवादियो की संख्या एक फीसदी से भी कम है । अगर छत्तीसगढ, झारखंड और उड़ीसा की पुलिस संख्या दो से ढाई लाख है तो इन क्षेत्रों में हथियारबंद माओवादी ढाई से तीन हजार है। इसलिये सवाल माओवाद को नेस्तानाबूद करने के लिये किसी ठोस रणनीति का नहीं है । रणनीति का सवाल यहां के लोगों से जुड़ा है, जिनकी तादाद के आगे ढाई लाख सुरक्षाकर्मी पंसगा भर है। इन क्षेत्रों में उन ग्रामीण-आदिवासियो की तादाद तीन से चार करोड की है जिनके लिये कोई नीतिया सरकार के पास नहीं है और जो नीतिया सरकार के होने का एहसास कराती है, वह सुरक्षाकर्मियो की बंदूक या डंडा है । उनसे कौन कैसे लड़ सकता है, खासकर जब सवाल विकास की अंधी लकीर खिंचने का हो। इन इलाको में ना तो जवाहर रोजगार योजना पहुंचा। ना इंदिरा आवास योजना ओर ना ही नरेगा। जंगल जीवन है और जीवन जंगल है। ऐसे में अगर जंगल और प्रकृतिक संसधानों पर किसी की नजर हो तो करोड़ों लोगो का क्या होगा यह सवाल आंतरिक सुरक्षा का है।<br /><br />लेकिन आंतरिक सुरक्षा को लेकर देखने का नजरिया कैसे बदलता है, यह गृह मंत्रालय की ही उस रिपोर्ट से समझा जा सकता है जिसमें विकास को माओवादी रोक रहे है । इसमें दो मत नही कि सरकारी संपत्ति को सबसे ज्यादा सीधा नुकसान माओवादी ने सीदे तौर पर किया है । झारखंड में चतरा से लेकर डालटेनगंज जाने के दो रास्ते है । एक लातेहार हो कर और दूसरा पांकी होकर । अगर पांकी होकर डालटेनगंज जाया जाये तो रास्ते में हर सरकारी इमारत डायनामाइट से उडायी हुई मिलेगी । और वहां किसी भी ग्रामीण आदिवासी से पूछने पर सीधा जबाब भी मिलता है कि यह इमारते माओवादियों ने उड़ायी हैं ।<br /><br />लेकिन इस इलाके का दूसरा सच भी है । इस रास्ते में प्रकृति पूरी छटा के साथ रहती है। प्राकृतिक संसाधनो की भरमार आपको रास्ते भर मिलेंगे। जंगल गांव रास्ते में मिलेंगे । पलामू को बांटती कोयलकारो नदी आपको यहीं मिलेगी। रास्ते में करीब तीस-चालीस गांव के डेढ-दो लाख ग्रामीणों का जीवन पूरी तरह जंगल पर ही कैसे निर्भर है, इस हकीकत को कोई भी नंगी आंखों से देख सकता है । सरकार की कोई नीति अगर यहा पहुंचती है तो सारे गांव वाले सहम जाते हैं क्योकि हर नीति का मतलब उनकी जिन्दगी के खत्म होने के साथ जुड़ा होता है । सरकार चाहते है नदी पर पुल बन जाये। सरकार चाहती है पलामू के जंगल क्षेत्र को पर्यटन के लिये विकसित किया जाये। सरकार चाहती है यहा के अभ्रख-बाक्साइट को यही के यही सफाय़ी कर दुनिया भर के बाजार में धाक जमा ली जाये क्योकि यहा का अभ्रख दुनिया का सबसे बेहतरीन अभ्रख है । इसके लिये खनन करना चाहती है । छह फैक्ट्रियां लगाना चाहती है। करीब 80 किलोमीटर की इस पट्टी पर एक भी स्कूल, अस्पताल या जंगल गांवों में जिन्दगी चलाने में मदद के लिये सरकार की कोई योजना नहीं पहुंची है ।<br /><br />हां, सरकारी बाबू है उनके लिये वहीं इमारते थीं, जहा से दफ्तर या बाबूओं के रहने के लिये खड़ी की गयी थी। जिन्हे माओवादियो ने उडा दिया और क्षेत्र के आदिवासी सरकार के आतंकवाद निरोधक कानून के दायरे में आने से बिना डरे बताते है कि उन्होंने इस इमारत की इंटे अपनी झोपडियो में लगा ली है। यहां एक हजार स्कावयर फुट की जमीन पर पक्का घर बनाने की कीमत महज बारह से पन्द्रह हजार है। वहीं इतनी ही जमीन में जो आदिवासी अपना घर बांस और जंगली साजो समान से बनाते है उसमें कुल खर्चा 700-800 रुपये का आता है । क्योंकि जंगल से बांस लेने पर क्षेत्र का बाबू तीन सौ- चार सौ रुपये वसूलता लेता है। बाकी खपरैल में खर्च होता है । तो इस क्षेत्र में अब बाबू की नही माओवादियो की चलती है तो घर का खर्च घट कर आधा हो गया है। वहीं बाबू के लिये पक्का मकान बनाने में जो मजदूरी यहां के ग्रामीण आदिवासियों ने नब्बे के दशक में की, उस वक्त उन्हें दिनभर काम करने के 12 से 15 रुपये मिलते थे, जो अब किसी सरकारी काम को करने में 18 से 20 रुपये तक पहुंचे हैं।<br /><br />लेकिन आंतरिक सुरक्षा का खतरा इससे आगे का है । क्योंकि छत्तीसगढ,झारखंड और उड़ीसा में जो खनिज मौजूद है अगर उसकी कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजर से जोड़ी जाये तो तीनों राज्यों का वर्तमान बजट और पंचवर्षिय योजना के धन से औसतन दस गुना ज्यादा का है । तो क्या यह माना जाये कि असल में आंतरिक सुरक्षा की चुनौती देशी जमीन की पूंजी की बोली अंतर्रष्ट्रीय बाजार में लगवाने की है । यहा की अर्थव्यवस्था का गणित कितना घालमेल वाला है इसका अंदाज कई स्तरों पर लग सकता है । जैसे माओवादियों से निपटने के लिये सुरक्षा बंदोबस्त पर यहा कश्मीर के बाद सबसे ज्या खर्च किया जा रहा है। हर दिन का सरकारी खर्चा जो सुरक्षा के आधुनिकीकरण से लेकर खाने पीने तक पर होता है वह तीनों राज्यों के माओवाद प्रभावित पैंतालिस जिलों के महिने के बजट पर भारी पडता है। पुलिस, सडक,इमारत,हथियार और सूचनातंत्र पर पांच हजार करोड खर्च सितंबर से दिसंबर तक हो जायेंगे।<br /><br />इतने धन में चार करोड़ ग्रामीण आदिवासियो का जीवन कई पुश्तो तक ना सिर्फ संभल सकता है बल्कि माओवाद को यही आदिवासी भगा देगे अगर यह माना जाये कि माओवादी यहा कब्जा किये बैठे हैं तो। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि चार महिनो के दौरान माओवादियो के खिलाफ जिस निर्णायक लड़ाई का अंदेशा सरकार दे रही है, उस पर कुल खर्चा अगर बीस से पच्चीस हजार करोड़ तक सीधे होगा तो अपरोक्ष तौर पर इस क्षेत्र में सरकार खनन के जरीये पचास लाख करोड़ से ज्यादा की खनिज को अपने हाथ में भी ले सकती है। जिसका मूल्य अंतरराष्ट्रीय बाजार में कितना होगा यह फिलहाल सोचा जा सकता है क्योकि मंदी की गिरफ्त में आये अमेरिकी अर्थशाश्त्रियो की माने तो भारत ही तीसरी दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण देश है जो अपने खनिज संसाधनों से एक बार फिर उस बाजार को जगा सकता है जो फिलहाल सोया हुआ है।<br /><br />चूंकि भारत और अंतरराष्ष्ट्रीय बाजार के बीच खनिज संसाधनो को लेकर करीब बीस गुने का अंतर है । यानी भारत में मजदूरी और खनिज दोनो की कीमत विश्व बाजार की तुलना में बीस गुना कम है । वहीं छत्तीसगढ , झारखंड और उड़ीसा ऐसे राज्य है जहां मजदूरी और खनिज भारत के भीतर ही ना सिरफ सबसे सस्ता है बल्कि महानगरों की तुलना में करीब बीस गुना से ज्यादा यह सस्ता है । ऐसे में विश्व बाजार अगर भारत के जरीये जागता है तो यह देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की सबसे बडी वित्तीय जीत हो सकती है जिन्हे आर्थिक सुधार पर गर्व है और बीते दो दशको में देश के भीतर सबसे बडी क्रांति नई अर्थव्यवस्था का आगमन ही है, जिससे मंदी के दौर में भी भारतीय विकास दर समूची दुनिया में श्रेष्ठ है। तो सवाल है इस अर्थव्यवस्था से छत्तीसगढ,झारखंड और उड़ीसा कैसे वंचित रह सकता है, जो इसे रोकेगा वह आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा तो होगा ही।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-69938619753643587452009-07-08T10:53:00.001+05:302009-07-08T10:54:59.683+05:30वैकल्पिक राजनीति को खड़ा करता ममता का रेल बजटमाओवादियों को केन्द्र सरकार आतंकवादी करार दे चुकी है। जिन माओवादी प्रभावित इलाको में चार राज्यों में चार अलग अलग राजनीतिक दलों की सरकारें पहुंच नहीं पाती हैं और चारों सरकारें माओवादियों को विकास विरोधी करार दे रही हैं, वहां ममता बनर्जी के रेल बजट में पावर प्रोजेक्ट से लेकर रेलवे लाईन बिछाने और आदर्श रेलवे स्टेशन बनाने के ऐलान का मतलब क्या है?<br /><br />ममता ने रेल बजट के जरीये माओवादी प्रभावित इलाको को लेकर एक ऐसा तुरुप का पत्ता फेंका है जो सफल हो गया तो संसदीय राजनीति की उस सत्ता को आईना दिखा सकता है जो विकास और बाजार अर्थव्यवस्था के नाम पर लाल गलियारे को लगातार आतंक का पर्याय बनाये हुये है। राजनीतिक तौर पर आंध्रप्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड और पं बंगाल में राजनीतिक दलों ने सत्ता के लिये माओवादियों से चुनावी समझौते किये लेकिन माओवाद प्रभावित इलाको में न्यूनतम के जुगाड़ को भी बेहद मुश्किल करार दिया। और इसको लिये माओवादियो को विकास विरोधी करार देने से सरकारें नहीं चूकीं।<br /><br />झारखंड में माओवादियों से चुनावी समझौते करने के आरोप कांग्रेस-भाजपा और झमुमो विधायकों पर लगा । उसी का नया चेहरा इस बार लोकसभा में नजर आया जब माओवादी नेता बैठा चुनाव लड़कर सांसद बन गये। लेकिन नया सवाल ममता की उस राजनीति का है, जो सिंगुर से निकली है और वाममोर्चा को उसी की राजनीति तले सत्ता से बाहर करने की रणनीति को लगातार आगे बढ़ा रही है। वहीं कांग्रेस ममता को थामकर इस अंतर्विरोध का लाभ उठाकर विकास के अपने अंतर्विरोध को छुपाना चाह रही है। ममता के सिंगुर में टाटा की नैनो को बोरिया-बिस्तर समेटने के लिये मजबूर करने के आंदोलन और नंदीग्राम में इंडोनेशिया के कैमिकल हब को ना लगने देने के संघर्ष को बुद्ददेव सरकार ने कभी एक सरीखा नहीं माना।<br /><br />वाम मोर्चा सरकार ने सिंगूर को विकास विरोधी तो नंदीग्राम को माओवादियो की बंदूक का आंतक बताकर खारिज भी किया। लेकिन ममता बनर्जी ने सिंगूर से लेकर नंदीग्राम और फिर लालगढ़ को भी उसी कडी का हिस्सा उस रेल बजट के जरीये बना दिया, जिसको लेकर कयास लगाये जा रहे थे कि बंगाल की राजनीति को ममता बतौर रेलमंत्री कैसे साध पायेगी। रेल बजट में ममता ने न सिर्फ सिंगूर से नंदीग्राम तक रेल लाइन बिछाने का ऐलान किया बल्कि लालगढ़ के उन इलाकों में जहां सेना को अभी भी जाने में मुश्किल का सामना करना पड़ रहा है, वहां भी रेल लाइन बिछाने का ऐलान किया। यानी अपनी राजनीतिक जमीन को पटरी दे दी है। रेल बजट में सालबोनी,झारग्राम और उस बेलपहाडी को भी रेलवे से जोड़ने का ऐलान किया गया जो झारखंड और बंगाल की सीमा पर माओवादियो का गढ़ माना जाता है और बुद्ददेव भट्टाचार्य मानते है कि माओवादियों की वहा सामानातंर सरकार चलती है। यह वही इलाका है, जहा बुद्ददेव को बारुदी सुरंग से उडाने की कोशिश इसी साल माओवादियों ने की थी। बंगाल की राजनीति को बिलकुल नये मुद्दे के आसरे अपनी राजनीतिक जमीन बनाने की जो पहल ममता बनर्जी कर रही है, उसमें राज्य के बारह जिलो के वह ग्रामीण पिछडे इलाके हैं, जहां विकास का मतलब आज भी सीपीएम कैडर से लाभ की दो रोटी का मिलना है। ममता इस हकीकत को समझ रही है कि राज्य के चालीस फिसदी इलाके ऐसे है, जहां वाम मोर्च्रा के तीन दशक के शासन के बाद भी जिन्दगी का मतलब दो जून की रोटी से आगे बढ़ नहीं पाया है इसलिये रेल बजट में इन चालीस फिसदी क्षेत्रों को रेलवे स्टेसनो के जरीये घेरने में ममता जुटी है। बजट में देश के जिन 309 रेलवे स्टेशन को आदर्श रेलवे स्टेशन बनाने की बता कही गयी है उसमें 142 सिर्फ बंगाल के है । आदर्श रेलवे स्टेशन का मतलब है, एक ऐसा इन्फ्रास्ट्रक्चर स्टेशन पर मौजूद रहना जो किसी भी इलाके के लोगों की जिन्दगी को संभाल सके। यानी रोजगार से लेकर न्यूनतम जरुरत का ढांचा रेलवे स्टेशन पर जरुर मौजूद रहेगा। इस कड़ी में ममता ने लालगढ़ स्टेशन को भी आदर्श स्टेशन बनाने के साथ इस इलाके में पावर प्लांट लगाने का ऐलान कर सीपीएम की उस कर उस रणनीति को सिर्फ पशिचमी मिदनापुर ही नहीं बल्कि बांकुडा, पुरुलिया, बीरभूम समेत आठ जिलों के उन ग्रामीण इलाकों को खुली हवा का एहसास कराया है, जिन्हें आज भी लगता है कि कैडर के साथ खडे हुये बगैर कुछ भी मिल नहीं सकता है।<br /><br />असल में ममता जिस राह पर है वह एक वैकल्पिक राजनीति की दिशा भी है। क्योंकि सवाल सिर्फ बंगाल का नहीं है। छत्तीसगढ़ में जहां राज्य सरकार माओवादियों को आतंकवादी मानकर ग्रामीण आदिवासियो के जरीये ग्रामीण समाज का नया चेहरा बनाने में लगी है, वहां अभी भी विकास तो दूर न्यूनतम के लिये भी पहले माओवादियों के खिलाफ नारा लगाना पडता है। खासकर दांतेवाडा और मलकानगिरी के इलाके में पीने का पानी, प्राथमिक शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थय केन्द्र से लेकर आवाजाही के लिये परिवहन व्यवस्था का कोई खांका आज तक खडा नहीं किया गया है । पूरा इलाका प्रकृतिक संसाधनो पर निर्भर है। यहां तक कि जल के स्रोत भी प्राकृतिक है। भाजपा की रमन सरकार के मुताबिक इस इलाके में सुरक्षा बल भी जब जाने से घबराते है तो विकास का कौन सा काम यहा जा सकता है। लेकिन ममता ने इस इलाके में रेलवे लाइन बिछाने का निर्णय लिया है। वहीं उड़ीसा का सम्बलपुर-बेहरामपुर और तेलागंना का मेडक-अक्कानापेट वह इलाका है, जहां माओवादियों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियो के खिलाफ आंदोलन भी शुरु किया है और एक दौर में नक्सलियों का गढ़ भी रहा है।<br /><br />आंध्रप्रदेश का अक्कानापेट में ही पहली बार एनटीआर ने अपनी राजनीतिक सभा में नक्सलियों को अन्ना यानी बड़ा भाई कहा था, जिसके बाद एनटीआर को समूचे तेलागंना के नक्सल प्रभावित इलाकों में दो तिहाइ सीटों पर जीत मिली थी। लेकिन उस इलाके में विकास की लकीर खिंचने की हिम्मत ना एनटीआर ने की न ही चन्द्रबाबू नायडू कर पाये, न ही अभी के कांग्रेसी मुख्यमंत्री वाय एसआर कर पा रहे हैं ।<br /><br />हालांकि तेलागंना राष्ट्रवादी ने यहां के विकास का मुद्दा जरुर उठाया। लेकिन पहली बार वहा रेलवे लाइन बिछगी तो इसका असर यहा किस रुप में पड़ सकता है, इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि इस पूरे इलाके में जंगल झांड, तेंदू पत्ता , और गड्डे खोदने वाली जवाहर रोजगार योजना ही जीने का आधार है । जबकि पूरा इलाका साल के जंगल से भरा पड़ा है। वहीं उड़ीसा के जिन इलाको में रेल लाइन बिछेगी वहां के प्रकृतिक संसाधनो पर बहुराष्ट्रीय कंपनियां दोहने के लिये सरकार से नो आब्जेक्शन सर्टीफिकेट ले चुकी है। यानी करीब पचास हजार करोड डॉलर से ज्यादा की परियोजनाओ को लेकर इन इलाको में सौदा सरकारी तौर पर किया जा चुका है। इन इलाकों के आदिवासियो ने अपने पारंपरिक हथियार उठाकर आंदोलन की शुरुआत यहां इसलिये कि क्योकि प्रकृति से हटकर उनके जीने का कोई दूसरा साधन पूरे इलाके में है नहीं। पहली बार किसी रेल मंत्री ने इस इलाके को भी मुख्यधारा से सीधे जोड़ने की सोची है। वहीं झांरखंड के संथाल परगना इलाके में माओवादियों ने खासी तेजी से दस्तक दी है। बंगाल की सीमा से सटे होने की वजह से भी यहा माओवादियो ने खुद को खड़ा किया है। जबकि दूसरी वजह यहां खादान और प्रकृतिक संसाधनों का होना है, जिसपर मुंडा की नजर मुख्यमंत्री रहने के दौरान सबसे ज्यादा लगी रहीं। संथाल आदिवासियो की बहुतायत वाल इस इलाके मे विकास का कोई सवाल राज्य बनने के बाद किसी भी मुख्यमंत्री ने नहीं किया । बाबूलाल मंराडी ने जबतक सड़के ठीक करायीं, उनकी गद्दी चली गयी । अर्जुन मुंडा ने देशी टाटा से लेकर कोरियाई कंपनी समेत एक दर्जन देशी विदेशी कंपनियो के साथ अलग अलग परियोजनाओ को लेकर की शुरुआती सौदेबाजी भी की । करीब पांच लाख करोड़ के जरीये पचास लाख करोड़ के प्रकृतिक संसाधनो की लूट का लाइसेंस भी इन कंपनियो को दे दिया । नंदीग्राम के आंदोलन के दौर में यहां के आदिवासी खुद खड़े हुये और सरकारी धंधे का खुला विरोध झंरखंड के नंदीग्राम से करने से नहीं चूके।<br /><br />ममता इस इलाके में भी रेलवे के जरीये विकास की पहली रेखा खिंचने को तैयार है । ऐसे में सवाल यह नहीं है कि ममता माओवादी प्रभावित इलाको में रेलवे लाइन बिछाकर या फिर परियोजनाओ के जरीये ग्रामीण आदिवासियो को विकास के ढांचे से जोडते हुये वाम राजनीति का विकल्प बनना चाह रही है।<br /><br />बड़ा सवाल यह है कि तमाम राजनीतिक दलो ने जिस तरह माओवाद को कानून व्यवस्था का सवाल मान लिया है, और उसके घेरे में करोड़ों ग्रामीण आदिवासियों को माओवादियों का हिमायती मानकर उनके खिलाफ कार्रवायी के जरीये अपनी सफलता दिखा रही है । ऐसे में आदिवासी जीवन बद से बदतर किया जा रहा है । सास्कृतिक आधारों को खत्म किया जा रहा है । गांवों को शहर बनाने के लिये विकास को चंद हाथों के मुनाफे के जरीये लुटाया जा रहा है। बाजार और सत्ता का संतुलन बनाने के लिये विकास और आंतक को अपने अनुकूल परिभाषित करने से ना राष्ट्रीय राजनीतिक दल कतरा रहे है, न ही क्षेत्रिय दल। जबकि अर्थव्यवस्था की हकीकत यही है कि जिन इलाको में ममता का रेल बजट असर दिखाने वाला है, अगर वहां माओवादियो पर नकेल कसने के नाम पर खर्च की गयी पूंजी को क्षेत्र के ग्रामीण-आदिवासियों के नाम मनीआर्डर भी कर दिया जाता तो हर आदिवासी परिवार दिल्ली में घर खरीद कर सहूलियत से रह सकता था । इतनी बड़ी तादाद में माओवाद प्रभावित इलाकों में केन्द्र और राज्य सरकारो ने खर्च किया है। वहीं ममता बनर्जी जब लालगढ़ में सुरक्षा बलो की जगह भोजन-पानी भिजवाने का सवाल खड़ा करती है तो कांग्रेस-वाम दोनो इसे ममता की नादानी बताते है । जाहिर है माओवाद प्रभावित रेड कारिडोर को लेकर राइट-लेफ्ट दोनो की राजनीति से इतर ममता का रेलबजट है । अगर यह सिर्फ बजट है तो इसका लाभ आखिरकार उसी राजनीति को मिलेगा जो विकास को बाजार से जोड़ रही है और अगर यह ममता की राजनीति है, तो यकीनन वैकल्पिक राजनीति की पहली मोटी लकीर है जो भविष्य का रास्ता तैयार कर रही है, बस इंतजार करना होगा ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com8