tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger11125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-76107771621033549932010-09-09T14:37:00.004+05:302010-09-09T14:47:54.990+05:30माओवादियों के पॉलिटिकल ड्राफ्ट के मायनेकांग्रेस के पास पूंजीवादी राज्य नहीं है और आदिवासी-ग्रामीणों को लेकर जो प्रेम सोनिया गांधी से लेकर राहुल गांधी दिखला रहे हैं, उसके पीछे खनिज संसाधनों से परिपूर्ण राज्यों की सत्ता पर काबिज होने का प्रयास है। कांग्रेस की रणनीति उड़ीसा, छत्तीसगढ,झारखंड,मध्यप्रदेश और कर्नाटक को लेकर है। चूंकि अब राज्यसत्ता का महत्व खनिज और उसके इर्द-गिर्द की जमीन पर कब्जा करना ही रह गया है, इसलिये कांग्रेस की राजनीति अब मनमोहन सरकार की नीतियों को ही खुली चुनौती दे रही है, जिससे इन तमाम राज्यों में बहुसंख्य ग्रामीण-आदिवासियों को यह महसूस हो सके कि भाजपा की सत्ता हो या मनमोहन की इकनॉमिक्स कांग्रेस यानी सोनिया-राहुल इससे इत्तेफाक नहीं रखते।" यह वक्तव्य किसी राजनीतिक पार्टी का नहीं बल्कि सीपीआई (माओवादी) का पॉलिटिकल ड्राफ्ट है। <br /><br />माओवादियों की समूची पहल चाहे सामाजिक आर्थिक मुद्दों को लेकर हो लेकिन पहली बार हर मुद्दे का आंकलन राजनीतिक तौर पर किया गया है। जिसमें खासकर किसान और आदिवासियों के सवाल को अलग-अलग कर राजनीतिक समाधान का जोर ठीक उसी तरह दिया गया है जैसे संविधान में आदिवासियो के हक के सवाल दर्ज हैं। सरकार और राजनीतिक दलों की पहल पर यह कह कर सवालिया निशान लगाया गया है कि जब 5वीं अनुसूची के तहत आदिवासियों के अधिकारों का जिक्र संविधान में ही दर्ज है, तो कोई सत्ता इसे लागू करने से क्यों हिचकिचाती है। इतना ही नहीं किसानों की जमीन और आदिवासियों के जंगल-जमीन पर अलग-अलग नीति बनाते हुये माओवादी अब अपने संघर्ष में परिवर्तन लाने को भी तैयार हैं। और इसकी बडी वजह संसदीय राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों की नयी राजनीतिक प्राथमिकताओं को ही माना गया है । <br /><br /><br />माओवादियों का पॉलिटिकल ड्रॉफ्ट इस मायने में कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है कि संसदीय राजनीति को खारिज करने के बावजूद संसदीय राजनीति के तौर तरीकों पर ही इसमें ज्यादा बहस की गयी है। ड्राफ्ट में माना गया है कि आर्थिक सुधार का जो पैटर्न 1991 में शुरू हुआ अब उसका अगला चरण पिछड़े क्षेत्रों की जमीन और खनिज संसाधनों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार से जोड़ने का है। और चूंकि इस दौर में चुनाव लड़ने से लेकर सत्ता बनाना भी खासा महंगा हो चला है तो हर राजनीतिक दल उन क्षेत्रों में अपनी सत्ता चाहता है जहां उसे सबसे ज्यादा मुनाफा हो सके। आदिवासियों का सवाल इसी वजह से हर राजनीतिक दल की प्राथमिकता बना हुआ है क्योंकि आदिवासी प्रभावित इलाकों में गैर आदिवासी नेताओं की घुसपैठ तभी हो सकती है जब वहां के प्रभावी आदिवासी या तो राजनीतिक दलों के सामने बिक जायें या फिर आदिवासियों को उनके हक दिलाने के लिये कोई पार्टी या नेता आगे आये। <br /><br />माओवादियो का मानना है कि कांग्रेस अगर अभी आदिवासियों के हक का सवाल उठा रही है तो उसकी वजह वहां की सत्ता पर काबिज होने का प्रयास है। क्योंकि उड़ीसा के नियामगिरी के आदिवासियों की तरह वह महाराष्ट्र के आदिवासियों को हक नहीं दिलाती है क्योंकि महाराष्ट्र में उसकी सत्ता बरकरार है। माओवादियों का मानना है कि आर्थिक सुधार के इस दूसरे चरण में सत्ता से उनका टकराव इसलिये तेज हो रहा है क्योंकि राज्य को जो पूंजी अब मुनाफे के लिये चाहिये वह शहरों में नहीं ग्रामीण इलाकों में है। और माओवादियों का समूचा काम ही ग्रामीण इलाकों में है। इसलिये सवाल माओवादियों का सरकार पर हमले का नहीं है बल्कि सत्ता ही लगातार हमले कर रही है। लेकिन इस पॉलीटिकल ड्रॉफ्ट में अगर सरकार की प्राथमिकता ग्रामीण किसान आदिवासी बताये गये हैं तो दूसरी तरफ माओवादियों ने अपनी प्रथामिकता में भी परिवर्तन के संकेत दिये हैं। यानी देहाती क्षेत्रों से इतर शहरी और औद्योगिक क्षेत्रों में अपने प्रभाव को फैलाने की बात कही गयी है। <br /><br />माओवादियों ने माना है कि शहरी क्षेत्रों में मजदूर आंदोलन में उनकी शिरकत नहीं के बराबर है। इसी तरह शहरी मध्य वर्ग की मुश्किलों से भी उसका कोई वास्ता नहीं है। जबकि संसदीय राजनीति के बोझ तले सबसे ज्यादा प्रभावित शहरी मध्य वर्ग ही है। खुद की जमीन को व्यापक बनाने के लिये माओवादी अगर एक तरफ किसान-आदिवासी के सवाल को अलग कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ किसानों से शहरी मजदूरों को जोड़ने पर भी जोर दे रहे हैं। यानी माओवादियों की नजर गांव से पलायन कर रहे उन किसानों पर कहीं ज्यादा है जो जमीन से बेदखल होने के बाद शहरों में बतौर मजदूर जी रहे हैं। महत्वपूर्ण है कि खुद सरकार के आंकड़े बताते हैं कि बीते दस वर्षों में 5 करोड़ से ज्यादा किसान अपनी जमीन से बेदखल हुये हैं। और रेड कोरिडोर के इलाके में जितनी योजनाओं को मंजूरी दी गयी है अगर उन पर काम शुरू हो गया तो 5 करोड़ से ज्यादा ग्रामीण-किसान-आदिवासी अपनी पुश्तैनी जमीन से बेदखल हो जायेंगे । जाहिर है माओवादियों का ड्राफ्ट इन आंकडों के दायरे में सामाजिक-आर्थिक समस्या को भी समझ रहा होगा और राजनीतिक दल भी इस नये शहरी मजदूरों के दायरे में अपनी राजनीतिक नीतियों को भी तौल रहे होंगे । लेकिन, माओवादियों के पॉलीटिकल ड्राफ्ट और राज्य सरकारों की विकास नीतियों के बीच कितनी महीन रेखा है इसका अंदाजा भी शहरीकरण की सोच और शहरी गरीबों की बढ़ती तादाद से समझा जा सकता है। <br /><br /><br />कांग्रेस और भाजपा के मुताबिक महाराष्ट्र, गुजरात दो ऐसे राज्य हैं जहा सबसे ज्यादा नये शहर बने। यानी विकास की असल धारा इन दो राज्यो में दिखायी दी। जबकि बाकी राज्यों में भी बीते एक दशक के दौरान गांवो को शहरों में बदलने की कवायद हर राजनीतिक दल ने की। लेकिन माओवादियों की राजनीतिक थ्योरी इसमें गरीबो की बढ़ती संख्या को माप रही है। माओवादियों के मुताबिक गांव की अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर जिस तरीके से शहरी विकास का खांचा खींचा जा रहा है , उसमें मुनाफा ना सिर्फ चंद हाथो में सिमट रहा है बल्कि इन चंद हाथों के जरिये ही राज्यों में सत्ता निर्धारित हो रही है जिससे गरीबी और मुफलिसी का कारण भी राजनीतिकरण बन चुका है। माओवादियों के इस ड्राफ्ट में बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं पर टिकी येदुरप्पा सरकार का जिक्र उदाहरण दे कर किया गया है। यूं भी संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट भी मानती है कि दुनिया में सबसे ज्यादा शहरी गरीब महाराष्ट्र में है, जिसे कांग्रेस शहरीकरण के दौर में सबसे उपलब्धि भरा राज्य मानती है। खास बात यह है कि माओवादियों के इस पॉलिटिकल ड्राफ्ट में कही भी हिंसा का जिक्र नही किया गया है। उसकी जगह क्रांतिकारी आंदोलन शब्द का जिक्र यह कह कर किया गया है कि साम्राज्यवाद के खिलाफ संशोधनवादी पार्टियां या एनजीओ जो कुछ कर रहे है, वह धोखाधड़़ी के सिवाय और कुछ नहीं है। ऐसे में माओवादी अगर मजदूर-किसान मैत्री की स्थापना पर बल देते हुये धैर्यपूर्वक अपने क्रांतिकारी जन आधार को मजबूत बना पाने में सक्षम हो पायेंगे तो साम्राज्यवाद-फासीवाद दोनों के खिलाफ वास्तविक आंदोलन सही दिशा में चल पायेगा ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-18764191127257454112010-04-07T06:24:00.002+05:302010-04-07T06:24:00.494+05:30माओवादियों की समानांतर सरकार<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;"><b>छत्तीसगढ़ के दांतेवाड़ा में नक्सलियों ने 73 पुलिसकर्मियों को निशाना बनाया तो पहली बार ऑपरेशन ग्रीन हंट को करारा झटका लगा। लगा कि रेड कॉरीडोर में रेड हंट ही चलता है। इस घटना के बीच आपको एक गांव ले चल रहे हैं, जिसके हालात देखकर अंदाजा लग सकता है कि शायद कुछ इस तरह माओवादी रेड कॉरीडोर में अपनी समानांतर सरकार चलाते होंगे।</b></span><b><o:p></o:p></b></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">मेरी शादी </span>2004 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">में हुई। पटना में झारखंड के चतरा जिले के टटरा गांव से बारात आयी। शादी के अगले दिन सुबह </span>5 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">बजे ही विदाई हो गयी। रास्ते में पति से पूछा इतनी सुबह विदाई की जरुरत क्यों थी। </span>8 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">बजे भी निकल सकते थे। तब हमें रात बाहर ही बितानी पड़ती। क्यों </span><span lang="EN-US" style="mso-bidi-mso-ansi-language:EN-US;mso-bidi-language: HIfont-family:Mangal;">?</span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi- mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;"> क्योंकि हमारे गांव में शाम </span>4 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi- mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">बजे के बाद किसी भी नये व्यक्ति की इंट्री नहीं हो सकती। ऐसा क्यों </span><span lang="EN-US" style="mso-bidi-mso-ansi-language:EN-US;mso-bidi-language: HIfont-family:Mangal;">?</span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi- mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;"> बस यूं ही । पहुंचोगी तो समझ जाओगी। पटना से गया। गया से चतरा। और चतरा से करीब बीस-पच्चीस किलोमीटर अंदर जंगल के बीच टटरा। दोपहर करीब तीन बजे चतरा पहुंचे। और पौने चार बजे टटरा। गांव के बाहर ही आदिवासियों ने भाड़े की एम्बेसेडर गाड़ी रोक ली। शादी के जोड़े में ही घर की चौखट पर उतरने से पहले गांव के चौखट पर मुझे उतारा गया। उसके बाद पांच आदिवासी महिलाओं ने मुझे घेर लिया। पांचों महिलाओं के कंधे पर बंदूक लटक रही थी। पेट पर गोलियों की लड़ी बंधी थी। दो मेरे आगे</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">दो मेरे पीछे और एक साथ में खड़ी होकर मुझे चंद फर्लांग दूर एक पेड़ की ओट में ले गयी। मेरे सभी गहने उतारवाकर पहले मेरे शरीर में कुछ छुपा हुआ तो नहीं है...उसकी जांच की गयी और फिर सवाल-दर सवालों के जरीये मेरे पूरे खानदान के बारे में जानकारी ली गयी। पिता क्या काम करते हैं से लेकर घर में कौन कौन हैं और खुद मैं कितना पढ़ी हूं। </span></p><p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">संतुष्ट होने के बाद एक बुजुर्ग सरीखे आदिवासी ने मेरे सारे गहने मुझे लौटाये और उसके बाद मैं अपने घर में घुस पायी। और मुझे जानकारी दी गयी कि अब मै इस गांव की नागरिक हूं। मैंने सोचा बिहार से झारखंड घुसने के दौरान भी किसी पुलिस ने हमारी गाड़ी नहीं रोकी लेकिन गांव में आदिवासियों ने जिस तरह सब कुछ खंगाल डाला, उसकी वजह की जानकारी मुझे अगले दिन से ही मिलने लगी। मायके आने की अगली सुबह ही </span>25 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">हजार रुपये वसूलने कुछ युवा आदिवासी लड़के आये । पता चला यह लेवी है। गांव की रक्षा करने वाले आदिवासियों का नियम है कि गांव में जिस लड़के की शादी बाहर होगी, उसे बतौर लेवी </span>25 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">हजार रुपये देने होंगे और लड़की की शादी होने पर </span>10 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">हजार रुपये देने होंगे। लेकिन आदिवासी हैं कौन और जिस तरह आदिवासी लड़कियां बंदूक टांगे घूमती हैं</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">इन्हें रोकने वाला कोई नहीं है।<br /><br />लेकिन हर सुबह और अगले दिन के साथ साथ मुझे नयी जानकारी मिलती। पहली बार देर शाम पटना यानी घर से मोबाइल पर फोन आया तो बात करने छत पर गयी और जोर जोर से बात कर रही थी तो अचानक फोन बंद करने का निर्देश हो गया। घर के बाहर से आदिवासियों ने इशारा किया और घर के लोगों ने फोन बंद करवा दिया। पता चला देर शाम इस तरह फोन पर बात भी नहीं की जा सकती है। क्योंकि खामोशी के बीच आवाज दूर तक गूंजती है और बाहरी किसी भी व्यक्ति को इसका एहसास हो सकता है कि यहां लोग रहते हैं, जिनके संबंध बाहर भी हैं। खासकर गोधूली बेला यानी करीब चार-साढे चार के वक्त न तो बात की जा सकती है न ही कोई घर से निकल सकता है। क्योंकि उस वक्त पुलिस पेट्रोलिंग की गाड़ियां गाहे-बगाहे गांव के करीब से निकलती हैं। फिर फसल अच्छी होने पर लेवी के लिये दो बोरा चावल लेने के तीन आदिवासी लड़के एक दिन फिर घर पर आये। पता चला चावल-गेंहू से लेकर सब्जी तक बतौर लेवी हर घर से लिया जाता है और यह सब आदिवासियों समेत गांव की रक्षा के लिये नियुक्त टीम के लिये होता है, जो सीधे माओवादियों के दिशा-निर्देश पर चलते हैं।<br /><br />माओवादी शब्द भी मेरे लिये नया था। लेकिन धीरे धीरे पता चला कि चतरा से लेकर पांकी तक करीब सवा सौ गांव में इसी तरह माओवादियों की ही सरकार है और उन्हीं का दिशा निर्देश चलता है । हर घर से साल में दस हजार रुपये बतौर सुरक्षा लेवी लिये जाते हैं। टटरा में सिर्फ पच्चीस से तीस घर हैं और घने जंगल के बीचों बीच बसे इस गांव की हर जरुरत के लिये उन्हीं आदिवासियों को कहना पड़ता है जो माओवादियों के नियम कायदों को पूरा करने में जी जीन से लगे रहते हैं। उसकी एवज में गांव के लोग लेवी देते हैं। गाव में कुंआ खुदवाने से लेकर स्वास्थ्य केन्द्र और स्कूली शिक्षा की जरुरत, जो सरकार से पूरी होने चाहिये, उस पर भी इन्ही माओवादियो की निगरानी में काम होता है। गांववालों को कोई असुविधा ना हो इसकी जानकारी हमेशा यह आदिवासी लेते रहते हैं। मसलन मेरा भाई जब पटना से मिलने पहली बार गांव आया तो मेरे पति ने पहले ही उनके आने की जानकारी इस गांव रक्षक कमेटी को दे दी। चतरा से पांकी जाने वाली बस जब गांव के बस स्टैड पर रुकी और मेरा भाई बस से उतरा तो उसके साथ ही समूची बस के यात्रियो को बंदूकों से लैस आदिवासियो की एक पूरी टीम ने उतारा। सभी की जांच की गयी। बस के भीतर भी खोजबीन हुई। पुरुषों को आदिवासी लड़को ने तो महिलाओं को आदिवासी लड़कियों जांचा परखा और फिर बस को रवाना किया। उसके बाद मेरे भाई के समूचे सामान को खुलवाकर देखा गया और घर में आने से पहले मैंने घर के चौखट से ही देखा तो लगातार उनसे पूछताछ की जा रही थी और वह हाथ ऊपर किये हर सवाल का जबाब दे रहे थे। फिर सारी जानकारी जब पहले से दी गयी जानकारी से मेल खा गया तो ही भाई को घर जाने की इजाजत दी गयी। और भाई ने घुसते ही कहा-तुम्हारे घर तो आना बड़ा मुश्किल काम है। ऐसी जांच तो देश में कहीं नहीं होती। दो दिन भाई रहा। लेकिन उस दौरान उसे कोई परेशानी नहीं हुई सिवाय शाम के बाद घर में कैद हो जाने के।<br /><br />साल दर साल बीतते गये तो मैं भी पूरी तरह गांव की हो चुकी थी तो एक दिन मैंने स्कूल में बच्चों को पढ़ाने का जिक्र पति से किया। उसके बाद गांव के उन बच्चों को पढ़ाने लगी जो दिनभर यूं ही भटकते। फिर उन आदिवासियों के बच्चो को पढ़ाया जिनके मां-बाप बंदूक लटकाये घूमते थे। एक दिन मुझे पता चला कि गांव की तरफ से मेरा नाम ग्राम शिक्षक के लिये भेजा गया है। जैसे ही सरकार की तरफ से शिक्षकों की नियुक्ती होगी, वैसे ही मेरी नियुक्ति भी ग्राम शिक्षक के तौर पर हो जायेगी। उसकी एवज में मुझे साढ़े तीन-चार हजार मिलेंगे । लेकिन सरकारी नियुक्ति के बाद पैसे तो सरकार देती है, ऐसे में माओवादी कैसे मेरी तनख्वाह देंगे। तो पति ने बताया कि गांव के लिये जो भी पैसा आता है, बीडीओ का काम है कि समूचा पैसा वह हर गांव की रक्षा में लगे इन माओवादियों को दे दे। उसके बाद जरुरत मुताबिक सरकारी रकम को ग्रामीणो में बांटा जाता है। ऐसे में ग्राम शिक्षक के तौर पर अगर मेरी तनख्वाह करीब चार हजार साढ़े तीन सौ रुपये तक आयेगी तो हर महिने उसमें से पांच सौ से सात सौ रुपये बच्चो की किताब और सलेट और बाकि जरुरतों पर खर्च किया जायेगा।<br /><br />जो आदिवासी पहले दिन मेरी जांच कर रहे थे, अब उन्हीं आदिवासी महिलाओं ने मुझसे आ कर कहा कि बच्चों को पढ़ाने के बाद मैं उन्हे भी हफ्ते में एक दिन पढ़ा दूं। गांव से करीब आधे किलोमीटर दूर उन आदिवासियों की क्लास लगती जो दिन भर कंधे पर बंदूक उठाये गांव-दर गांव रक्षा में जुटी रहती। और लेवी वसूली से लेकर समूची व्यवस्था में जुटी रहती। इन सब से मैं भी खुश हुई कि कुछ दिनो बाद से मैं भी घर के खर्चो में हाथ बंटा सकूंगी। गांव की ही कुछ महिलाएं प्रौढ शिक्षा कार्यक्रम के तहत कई वर्षो से पढ़ाती रही है । देर रात प्रौढ शिक्षा कार्यक्रम के तहत चलने वाली पढ़ाई में अक्सर हथियारों को छोड कापी-कलम लेकर वही आदिवासी पढ़ने पहुंचते, जो दिन के उजाले में हथियारों के साथ गांव में घूमते नजर आते।<br /><br />लेकिन पिछले साल गांव की दो घटनाओ ने मुझे अंदर से हिला दिया। पहली घटना यह कि गांव के एक लड़के की शादी तय हुई तो उसने </span>25 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">हजार लेवी देने से मना कर दिया। चूकि गांव में कभी कोई बारात नहीं आती तो लड़के ने इसका विरोध कर कहा कि अगर बारात को आने नहीं दिया जायेगा तो तो वह लेवी भी नहीं देगा। माओवादी गांव में बारात आने नहीं देते क्योंकि उनका मानना है कि पुलिस बारात के बहाने गांव में घुस सकती है। ऐसे में शादी करके जिस दिन वह लड़का अपनी पत्नी के साथ घर पर आया वैसे ही उस लड़के की हत्या माओवादियों ने कर दी। लडकी पहले दिन ही विधवा हो गयी। वहीं उस लडकी को लेने जब उसके घरवाले अपनी गाड़ी से आ रहे थे तो अचानक गाड़ी गांव की उस सड़क पर चली गयी जिस पर माओवादियों ने विस्फोटक बिछा रखा था। चूंकि लड़की ने अपने घर वालों के बारे में पूरी जानकारी उनके आने से पहले माओवादियो को दे दी थी तो गाड़ी को बचाने के लिये विस्फोटक को उठाने एक आदिवासी लड़का गाड़ी के आगे खड़ा हो गया और दूसरा जैसे ही विस्फोटक के करीब से गाड़ी को निकलवाने का प्रयास कर रहा था तो विस्फोटक पर उस माओवादी आदिवासी लड़के का ही पांव पडा और उसकी जान चली गयी। लेकिन गाडी को आंच भी नहीं आयी। सब कुछ समूचे गांव के सामने हुआ। और उस लड़की ने भी अपने घर की चौखट से देखा कि उसके परिवार वाले कैसे बाल बाल बचे और आदिवासी लड़को ने कैसे बचाया।<br /><br />माओवादियो की वजह से विधवा हुई लड़की अगले दिन जाने के बजाये उस आदिवासी लड़के के अंतिम संस्कार के लिये गांव में ही रुकी। और तीन दिन बाद ही अपने घरवालो के साथ अपने मायके रांची रवाना हुई। माओवादियो की तरफ से उस लड़की को आश्वासन दिया गया कि अगर वह गांव वापस अपने पति के घर पर रहने आयेगी तो उसके लिये भी कोई नौकरी गांव के स्तर पर ही ग्राम पंचायत के जरीये वह कराने का प्रयास करेंगे। बीते छह महिनो से वह लड़की गांव नहीं लौटी लेकिन इस दौर में उस लडके के घर से पहली बार सालाना </span>10 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">हजार की लेवी के अलावा और कोई लेवी नहीं ली गयी।<br /><br />मैं ग्रेजुएट हूं और पटना जैसे शहर में पली बढी हूं। लेकिन पहली बार टटरा गांव में रहते हुये मैं यह महसूस ही नहीं कर पाती कि देश में ऐसी जगह भी है, जहां पुलिस प्रशासन </span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi- mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">व्यवस्था सबकुछ अलग है। लेकिन गांव में कभी बिजली नहीं जाती। पीने के पानी के लिये हैड पंप और कुंआ तो पहले से था लेकिन बीते दो साल से गांव में नल भी लग गया। और जो पाइप लाइन बिछी, उसे बीडीओ ने उन्हीं आदिवासियो के सहयोग से बिछवाया, जो पूरे गांव में बंदूक उठाये घूमते हैं और लेवी लेते हैं। नरेगा का पैसा भी माओवादियो के पास बीडीओ के जरीये आ जाता है। माओवादी सिर्फ गांववालों के नाम या उन आदिवासियो का नाम</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">अंगूठे के निशान के साथ बीडीओ को दे देते हैं, जिससे लगे कि नरेगा का काम हो रहा है। माओवादी जो भी काम कराते हैं, उसके एवज में इसी पैसे से रकम बांट देते हैं। नरेगा में सौ रुपया मिलता है तो माओवादी </span>45 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">रुपये देते हैं। लेकिन गांव में जो भी काम होता है, उसे वहीं के लोग काम करते है। काम सभी के पास है। गांव में भूखों मरने जैसा स्थिति नही है। छह साल से रहते हुये मेरी सोच इतनी ही बदली है कि </span>2004 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">में जब शादी होके टटरा पहुंची थी,तब लगता था कि गांववालो के बीच माओवादी है, अब लगता है कि माओवादियो के बीच हम हैं।</span></p>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com18tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-87186428559096545622010-01-28T08:49:00.000+05:302010-01-28T08:49:00.489+05:30सवालों ने बेचैन किया तो जिंदगी की तंग गलियां छोड़ जवाब खोजने मओवादी बना एक इंजीनियर<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">चन्द्रपुर इंजीनियरिंग कॉलेज की दीवार पर चिपके पुलिसिया पोस्टर ने झटके में माओवादियों को लेकर सरकार के नजरिये और सरकारी सिस्टम को लेकर एक पूरी बहस मेरी आंखों के सामने ला कर खड़ी कर दी । पोस्टर में काले घेरे में एक युवक की तस्वीर छपी थी । जिसके ऊपर मोटे काले अक्षर में लिखा था-यह माओवादी है। इसने बाईस पुलिसकर्मियों को बारुदी सुरंग से उड़ाया है, जो इसे पकड़वाने में मदद देगा उसे पचास हजार रुपये ईनाम में दिये जायेंगे। तस्वीर के नीचे लिखा था माओवादी कामरेड मिलिन्द। यह कब से कामरेड हो गया </span><span lang="EN-US" style="mso-bidi-font-family:Mangal;mso-ansi-language:EN-US; mso-bidi-language:HI">?</span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI"> चेहरा वही लेकिन नाम कुछ और था। इस लडके का नाम तो मिलिन्द नहीं था। अठारह साल पहले की वह शाम याद आ गयी, जिसमें प्रोफेशनलिज्म और एजुकेशन विषय पर जबरदस्त बहस हुई थी। </span></p><p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI"><br />दिसंबर </span>1991 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">। चन्द्रपुर इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र महोत्सव में शामिल होने नागपुर से चन्द्रपुर पहुंचा था। सोच कर गया था कि नक्सलवाद तेजी से आंध्रप्रदेश से सटे विदर्भ के चन्द्रपुर जिले में भी घुस चुका है और चन्द्रपुर से सटे छत्तीसगढ़, जो उस वक्त मध्यप्रदेश का हिस्सा था, वहां भी दस्तक दे रहा था</span>,<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-font-family:Mangal; mso-bidi-theme-font:minor-bidi;mso-bidi-language:HI"> </span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">तो उस पर अखबार के लिये रिपोर्ट भी तैयार हो जायेगी। साथ ही कालेज के छात्र नक्सलियों को लेकर क्या सोचते-समझते हैं</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-font-family:Mangal;mso-bidi-theme-font:minor-bidi;mso-bidi-language: HI"><span style="mso-spacerun:yes"> </span></span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">इस पर पर रिपोर्ट तैयार होगी। इंजीनियरिंग कॉलेज पहुचा तो खासा जोश छात्रों में था। गेट पर ही छात्रों का एक झुंड स्वागत में खड़ा मिल गया। अठारह से बाईस साल के बीच के ही सभी छात्र थे। सभी ने अपनी फैक्ल्टी बतायी। नाम बताया। फिर हम कार्यक्रम में शरीक होने कालेज के कान्फ्रेन्स हॉल में चल पड़े। कालेज के अंदर जाते वक्त अचानक एक छात्र पीछे से आया और मुझसे हाथ मिलाकर कर बोला भईया आप भी प्रोफेशनल नहीं हैं। छात्र महोत्सव में मैंने ही यह विषय रखवाया है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">प्रोफेशनलिज्म और एजुकेशन। तुम्हारा नाम। वसंत तामतुम्डे। अच्छा विषय है। लेकिन कुछ उलझा हुआ सा लगता है क्योंकि एजुकेशन तो प्रोफेशनलिज्म की तरफ ही ले जाता है। चलिये भईया इसी पर तो चर्चा करनी है। मजा आयेगा। उसने मजा आयेगा कुछ इस तरह कहा जैसे उसे सब पता था कि क्या होगा।<br /><br />छात्र महोत्सव के दौरान कालेज के प्रिंसिपल भी मौजूद थे और सभी शिक्षक भी। संयोग से चन्द्रपुर की डीएम को भी आमंत्रित किया गया था। लेकिन डीएम महोदय आखिर में पहुंचे जिसका मलाल उन्हें उस वक्त तो रहा ही मेरे ख्याल से आज भी होगा। खैर एजुकेशन के तौर तरीको को लेकर छात्रों के सवाल खुद ब खुद प्रोफेशनलिज्म से जुड़ते चले गये और जब समूची बहस इस दिशा में जा रही थी कि शिक्षा का मतलब ही छात्रों को प्रोफेशनली ढालना हो चुका है और जिसका मतलब अदद नौकरी पर जा टिका है तो मैंने देखा वसंत ताम्तुबडे ने मंच पर आकर सवाल किया कि प्रोफेशनलिज्म का जिन्दगी से कुछ भी लेना देना नहीं होता और शिक्षा का मतलब जिन्दगी है। और मुझे लगता है कि हम जीवन से अमानवीय परिस्थितियों की दिशा में बढ़ रहे है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">जिसे प्रोफेशनलिज्म कह कर हम साथी बेहद खुश हो रहे हैं। फिर उसने सीधे प्रिंसिपल को संबोधित करते हुये कहा कि आपने कालेज के हर फैक्ल्टी में एक डिजार्टेशन तैयार करने का प्रावधान कर रखा है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">और खास बात यह है कि इस डिजार्टेशन को लेकर सिलेबस में साफ लिखा गया है कि विषय और शोध अगर आम जिन्दगी से जुड़ा हो और उसमें बदलते समाज के बिंब भी हो तो ज्यादा अच्छा रहेगा। मैंने विषय लिया चेंजिंग लाइफस्टाइल आफ ट्राइबल्स</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">विद् स्पेशल रेफरेन्स आफ प्रोबलम आफ नक्सलाइट [ आदिवासियों के जीने के बदलते तरीके</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">नक्सल समस्या के मद्देनजर ]। लेकिन मुझे कहा गया कि आदिवासी और नक्सल को एक साथ ना जोड़ें। डीएम साहब यहां आये नहीं हैं</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">अगर होते तो उनसे पूछंता कि नक्सल शब्द में इतना आतंक क्यों भर दिया गया है। क्यों इस मुद्दे पर कोई चर्चा करने तक से प्रोफेसर घबराते हैं। ऐसे में आदिवासियो के सवाल भी हाशिये पर होते जा रहे हैं। कोई आदिवासियों के मुश्किल जीवन को लेकर चर्चा नहीं करना चाहता। उन्होंने इतना नक्सलाइट के नाम पर आतंक क्यो पैदा कर दिया है कि हमारे प्रोफेसर भी इस विषय पर खामोश रहना चाहते हैं जबकि वह जानते है कि उनके इर्द-गिर्द की परिस्थितियां बदल रही हैं। मेरे ख्याल से डीएम से लेकर प्रोफेसर तक प्रोफेशनल हो चुके हैं। मै जानना चाहता हूं कि मुझे भी इन विषयों को छोडकर प्रोफेशनल होना है या फिर जिस समाज में हमें कालेज से निकलकर काम करना है, उस समाज को जानना भी एजुकेशन है।<br /><br />वसंत के इस सवाल ने अचानक कुछ छात्रों के तेवर बदल दिये । मैकनिकल फैकल्टी के आलोक आर्य ने चन्द्रपुर के औघोगिक विकास और ह्यूमन इंडेक्स के घेरे में प्रोफेशनलिज्म और एजुकेशन का सवाल खड़ा किया। चन्द्पुर के दस टाप उघोगों के बारे में सिलसिलेवार तरीके उसने जानकारी दी। संयोग से सभी उघोगपति देश के भी टॉप टेन में थे । फिर उसने उन गावों के बारे में जानकारी रखी जहां उघोग लगे थे। ग्रामीण आदिवासियों के सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों का जिक्र कर आलोक ने विकास को प्रोफेसनलिज्म से जोड़ते हुये आखिर में यह साबित किया कि अंधी दौड में विकास का मतलब मुनाफा है और समूचा तंत्र इसी विकास को प्रोफेशनलिज्म मान रहा है जबकि करीब चालीस हजार से ज्यादा मुफलिस-पिछडे ग्रामीण आदिवासियों का सवाल</span>, <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin; mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language: HI">जिनके पास दो जून की रोटी नहीं है वह शिक्षा के दायरे में भी नहीं हैं और उनके लिये कोई लकीर खिचने का मतलब है इंजीनियरिंग कालेज में तीन लाख रुपये फीस पर पानी फेरना। क्योंकि इससे कैंपस इंटरव्यू में नौकरी नहीं मिलेगी ।<br /><br />उस दिन बहस में कुछ ज्यादा ही तीखे-तल्ख कमेंट प्रिंसिपल की तरफ से भी आये । जिन्होंने कालेज की बंदिशों को इशारों में समझाया । यह कालेज कांग्रेस के नेता का है। लेकिन छात्रों के सवालो ने इस दिशा में अंगुली उठा दी कि मुद्दों को ना प्रोफेशनल चादर से ढका जा सकता है और ना ही प्रशासन-पुलिस की मुश्किलों को आतंक का जामा पहना कर खामोश रहने से मुद्दे दब जाते हैं।<br /><br />लेकिन इस छात्र महोत्सव के करीब सवा साल बाद यानी </span>1993 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">में एक दिन अचानक एक छात्र नागपुर में मेरे अखबार के दफ्तर में पहुंचा और मिलते ही कहा आपने मुझसे पहचाना नहीं</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">मैं चन्द्रपुर इंजीनियरिंग कालेज का छात्र हूं। लेकिन उसे देखते ही मैंने कहा</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">मुझे आपके सवाल याद हैं</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">जो आपने उस महोत्सव के दौरान उठाये थे । हा भईया </span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">मैकनिकल का आलोक आर्य। बताइये नागपुर में क्या काम है। मुझे आपसे कोई काम नहीं है। मैं सिर्फ एंटी नक्सल कमीश्नर से मिलना चाहता हूं। मुझे भी याद आया कि करीब एक साल पहले ही नागपुर में कमीश्नर रैंक के आईएएस अधिकारी की नियुक्ति नक्सल गतिविधियों को रोकने और इस मुद्दे के सामाजिक-आर्थिक तरीके से समझते हुये रिपोर्ट तैयार करने के लिये हुई है। मैंने पूछा काम क्या है। उसने कहा आज ही मिलवा दिजिये तो अच्छा होगा। नहीं तो कल कालेज में क्लास छूट जायेगा। अगले महीने फाइनल भी है । लेकिन मुझे भी जानकारी होनी चाहिये</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">मैं उन्हें क्या कहूंगा। मैं उन्हें चन्द्रपुर की परिस्थितियों से वाकिफ कराना चाहता हूं। हम कालेज के थर्ड ईयर के छात्रो ने चन्द्रपुर की तीन तहसीलों के सामाजिक-आर्थिक परिवेश का जो आंकलन अपने रिसर्च के लिये किया है, उसमें आदिवासियों की कल्याण योजनाओं की हकीकत मै बताना चाहता हूं। क्यों कल्याण योजनाओ को लेकर आपकी रिसर्च में क्या है। कुछ नहीं हमेशा की तरह कोई योजना लागू नहीं हुई है। करीब एक हजार करोड बीते छह साल में पुलिस-प्रशासन के पास चले गये। लेकिन नयी परिस्थितियां इसलिये ज्यादा खतरनाक हैं क्योंकि पचास से ज्यादा वह आदिवासी पुलिस फाइल में नक्सली करार दिये जा चुके हैं, जिनके गांव में हमने बकायदा दस दिनो तक काम किया। उनकी पूरी प्रोफाइल हमारे पास है। सवाल है जो हमारे डिजार्टेशन में ग्रामीण आदिवासी हैं, वह पुलिस फाइल में नक्सली हैं। मै कमीश्नर को बताना चाहता हूं कि यह परिस्थितियां किस खतरनाक समाज का निर्णाण कर रही हैं।<br /><br />मुझे याद है सारी जानकारी एंटी नक्सल कमीश्नर को आलोक आर्य ने बतायी थी करीब तीन घंटे तक। आलोक ने अपना रिसर्च पेपर भी अधिकारियो को सौपा था। जिसके कुछ हिस्से और नक्सल बताकर बंद किये गये आदिवासियो की फेरहिस्त भी हमने अखबार में छापी। लेकिन ठीक </span>18 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">साल बाद जब उसी लडके की तस्वीर बतौर माओवादी उसी कालेज के दीवार पर चस्पां देखी तो इस बारे में और जानकारी के लिये स्थानीय अखबार देशोन्नती की फाइलों को देखा और आदिवासी और नक्सलियो की स्टोरी करने वाले रिपोर्टर सुरेश से बातचीत की। मिलिन्द के बारे जानकारी मिली कि फिलहाल वहीं एरिया कमांडर है और चन्द्रपुर से लेकर दांतेवाडा तक के दो दर्जन से ज्यादा दलम उसके साथ काम करते हैं। मिलिन्द के बारे में और जानकारी तो रिपोर्टर से नहीं मिली लेकिन चन्द्रपुर इंजीनियरिंग कालेज के प्रोफेसर ने इसकी जानकारी जरुर दी कि मिलिन्द और कोई नहीं आलोक ही है। </span>1994-95 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">में कैपंस इंटरव्यू में ही उसे लार्सन एंड ट्रूब्रो में नौकरी मिल गयी थी। लेकिन मिलिन्द ने यह नौकरी एक साल में ही छोड़ दी। उसके बाद चन्द्रपुर में होने वाली माईनिंग को लेकर उसने उस दौर में मजदूरों के सवालों को उठाया। उसी दौर में नक्सली संगठन पीपुल्सवार के संपर्क में आया और मजदूरों को लेकर महाराष्ट्र कामगार किसान-मजदूर संगठन के बैनर तले काम करना भी शुरु किया। लेकिन </span>1997 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">से लेकर </span>2007 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">तक यानी करीब दस साल तक आलोक क्या करता रहा इसकी जानकारी कभी किसी को मिली नहीं लेकिन आलोक से मिलिन्द बनने को लेकर चन्द्रपुर इंजीनियरिंग कालेज के परिसर में किस्सागोई जरुर जारी रही। जिस दौर में नंदीग्राम में माओवादियों की गतिविधियां सामने आयीं, उसी दौर में कई बडी बारुदी सुरंग से पुलिस पर हमले भी हुये और उनके पीछे मिलिन्द का नाम ही आया लेकिन सितंबर </span>2009 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">में जब </span>22 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">पुलिसकर्मियों की मौत चन्द्रपुर-गढचिरोली की सीमा पर हुई तो पहली बार पुलिस ने पोस्टर निकाला और मिलिन्द को पकड़ने वाले को </span>50 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">हजार रुपये ईनाम देने का एलान किया। जानकारी यह भी मिली कि आलोक के बैच के दो और छात्र भी मिलिन्द के साथ हैं। मेरे दिमाग में वसंत ताम्तुमडे का चेहरा रेंग गया । हालांकि उसकी किसी ने पुष्टी नहीं की लेकिन </span>1990-94 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">के बैच को लेकर कालेज के प्रोफेसरो ने भी माना उस वक्त छात्रो ने जो सवाल खडे किये थे, उसके जवाब तो आजतक नहीं मिले लेकिन वह समस्या इस रुप में बड़ी हो सकती है, इसका अंदेशा छात्रो ने जरुर दिया था। यह अलग सवाल है कि किसी ने यह नहीं सोचा था कि कालेज के छात्र ही निकल कर इस धारा में बह जायेंगे।<br /><br />मैकनिकल का छात्र बतौर माओवादी किस तरह का आदिवासियों के मुद्दो को लेकर प्रयोग या हिंसा को अंजाम दे रहा है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">यह भी स्थानीय लोगों से बातचीत में सामने आया । खासकर आदिवासी युवक-युवतियों को बडी तादाद में इस पूरे इलाके में अपने साथ माओवादियो ने जोड़ा है। उसमें भी युवतियों को हाथ में अधिकतर दलम की कमान है। महाराष्ट्र पुलिस के मुताबिक महिलाओं की भूमिका महाराष्ट्र - छत्तीसगढ़ सीमा के दलमो में सबसे ज्यादा बढ़ी है । करीब अस्सी फीसदी दलम की कमान महिलाओं के हाथ में है। क्योंकि यहां धारणा यही है कि आदिवासी समुदायों में महिलाओ की जो स्थिति है उसमें उनके सामने संकट गांव में रहने के दौरान ज्यादा है क्योंकि नयी आदिवासी पीढी से लेकर क्षेत्र में तैनात पुलिस कास्टेबल से लेकर बडे अधिकारियो की हवस का शिकार आदिवासी लडकियां होती हैं। और माओवादियो ने उनके हाथ में बंदूक थमा दी है। ऐसे में करीब नौ सौ से लेकर दो हजार तक ऐसी लडकियां माओवादियों के साथ बंदूक थामे हुये हैं, जो अपनी सुरक्षा के साथ साथ अपने बुजुर्ग मां-बाप की सुरक्षा भी बंदूक तले देख रही हैं। इससे इन क्षेत्रों में अपराध भी कम हुए हैं । आदिवासी लडके भी माओवादियो ते साथ इसलिये जुड़ रहे हैं क्योकि उनके सामने जीने का कोई दूसरा चेहरा नहीं है। समूचे इलाके में रोजगार है नहीं। जो उघोग काम रहे हैं, चाहे वह पेपर मिल हो या सीमेंट फैक्टरी या कोयला खनन</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">सभी में मजदूरो को दूसरे क्षेत्रो से लाने की परंपरा शुरु हो चुकी है। क्योंकि अकुशल मजदूरों का काम ठेके पर नीलाम होता है। कमोवेश सारे ठेकेदार दूसरे प्रांतो के हैं तो मजदूर भी दूसरे प्रांतो से लाये जाते हैं। जिससे किसी तरह से मजदूरी को लेकर कोई कानूनी अड़चन ना आये या किसी तरह का कोई आंदोलन ना खड़ा हो जाये। हर नौ-दस महिनो के बाद मजदूरों को भी बदल दिया जाता है।<br /><br />ऐसे वातावरण में आदिवासी युवकों को अपने साथ जोडने की पहल दो-तरफा हुई है । एक तो सीधे बंदूक उठाकर जंगल जाने को तैयार है और दूसरे गांव में रहकर ही स्वावलंबन की परिस्थितियों को आगे बढ़ाने में लगे हैं। खास कर खेती और बंबू के जरीये कुटीर उघोग का चलन इन क्षेत्रो में शुरु किया गया है। जिसका पैसा बैंको से नहीं तेंदू पत्ता को खरीदने वाले ठेकेदार देता है। क्योकि इन ठेकेदारो पर दलम की बंदूक सटी होती है। इसी तरह से आदिवासी जंगल पदार्थो से जो कुछ भी बाजार में बिकने लायक बनाते हैं, उसके लिये धन का मुहैया इसी स्तर पर उघोगों से लेकर ठेकेदारों तक से माओवादी ही करते हैं। चन्द्रपुर कालेज के प्रो रानाडे और एडवोकेट सालवे के मुताबिक करीब चलीस हजार अदिवासी ग्रामीणों की रोजी रोटी इसे से चलती है। चन्द्पुर के एडवोकेट सालवे के मुताबिक माओवादियों को लेकर पुलिस और अर्द्दसैनिक बलो की नयी पहल ने एक मुश्किल जरुर खडी कर दी है कि माओवादी अपने साथ किसी भी आदिवासी को साथ लेने से पहले जो स्थानीय मुद्दो से दो-चार करवाते थे और एक लंबी ट्रेनिग होती थी</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">उस पर रोक लग गयी है क्योंकि पुलिस ऐसे किसी भी संगठन को अब काम करने की ना तो इजाजत देती है और कोई किसी भी स्तर पर मानवाधिकार से लेकर मजदूरी या रोजगार का सवाल उठाता भी है तो पहले ही राउंड में वह माओवादी करार देकर जेल में बंद कर दिया जाता है। ऐसे में बिना कोई ट्रेनिंग ही बंदूक उठाने की आदिवासी पहल ने बड़ी तादाद में हिंसा को भी बढ़ावा दिया है और खासे आदिवासी मारे भी जा रहे हैं। और यह पूरा इलाके उसी माओवादी कामरेड मिलिन्द के इलाके में आता है जहां उसे पकड़वाने का इनाम पचास हजार रुपये है।</span></p>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com34tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-23249887701660626582009-10-27T11:09:00.004+05:302009-10-27T11:13:34.787+05:30नक्सली, युद्धबंदी और सरकारये पहला मौका है जब माओवादी प्रभावित इलाकों में सरकार के खिलाफ लड़ेंगे और मरेंगे की तर्ज पर ग्रामीण आदिवासियों को तैयार किया जा रहा है। लड़ना सरकार से है और मरना सरकार के हाथों ही है। सरकार का मतलब पुलिस-सेना सबकुछ है। क्योंकि नैतिक तौर पर सरकार के किसी नुमाइन्दे में इतनी हिम्मत है नहीं कि वह ग्रामीण इलाकों में आकर ग्रामीण आदिवासियों के हालात देख सकें। जितनी सेना इन इलाको में भरी जा रही है, जितने आधुनिक हथियारों से लैस सुरक्षाकर्मियों की फौज लगातार क्षेत्र में घुल रही है, उसमें ग्रामीण आदिवासी क्या करें। वर्दीधारियों को आदिवासियों की भाषा समझ में आती नहीं है, उनके लिये सफलता का मतलब हर किसी को माओवादी ठहराकर या तो पकड़ना, मारना है या फिर गिरफ्तार करना है। यह समझने के लिये कोई तैयार नहीं है कि ग्रामीण आदिवासियों की रोजी रोटी कैसे चल रही होगी जब जमीन-जंगल सभी को रौंदा जा रहा है। प्राथमिक अस्पतालों में इलाज कराने गये लोगों को माओवादी बताकर अस्पताल के बदले सीधे थाने और जेल भेजा जा रहा है। यह परिस्थितियां युद्ध सरीखी नहीं है तो क्या हैं ?<br /><br />यह जबाब लालगढ़ में माओवादियों की कमान संभाले कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी का है। जिनसे मैंने सीधा सवाल किया था कि अपहर्त सब-इन्सपेक्टर की रिहायी के वक्त उसकी छाती पर पीओडब्ल्यू यानी प्रिजनर आफ वार यानी युद्दबंदी क्यों लिखकर टांगा गया। 26 महिलाओं की रिहायी के बाद क्या यह माओवादियों की रणनीति का हिस्सा बन गया है। नहीं, ऐसा हमने कभी नहीं कहा। लेकिन आपको यह भी समझना होगा कि बुद्ददेव सरकार ने 26 महिलाओं को क्यों छोड़ा।<br /><br />महिलाओं पर सिर्फ पेड़ काट कर रास्ते पर डालने और गड्डा खोदने का आरोप है। लेकिन इस आरोप के साथ माओवादियों को मदद देने और पुलिस कार्रवाई में बाधा पहुचाने का भी आरोप है। अगर आप सत्ता में है तो आरोप किसी भी स्तर पर लगा सकते है, बड़ी बात है कि अगर आदिवासी महिलायें सरकार के लिये इतनी ही घातक होती तो सरकार कभी उन्हें रिहा नहीं करती। अगर आप पुलिसवाले का अपहरण कर उसका सर तलवार की नोंक पर रखते है तो सरकार के पास विकल्प क्या बचेगा। ऐसा होता तो अभी तक सरकार का ध्यान अपनी पुलिस के बचाने में जाता । लेकिन नंदीग्राम से लालगढ़ तक पुलिसवालो को जनता के सामने सरकार ने झोंक दिया। दो दर्जन से ज्यादा पुलिस वाल मारे गये हैं। यहा सवाल युद्धबंदी पुलिसकर्मी का नही था बल्कि बुद्ददेव सरकार समझ रही थी कि अगर महिलाओं को माओवादी करार देकर जेल में बंद रखा गया तो ग्रामीण आदिवासियो में और अंसतोष आ जायेगा। सवाल है इससे पहले भी कई मौको पर नक्सली संगठनों ने पुलिसकर्मियों का अपहरण कर स्थानीय तौर पर प्रशासन-सरकार से सौदेबाजी की है , लेकिन यह पहला मौका है कि युद्धबंदी शब्द का प्रयोग किया गया। अस्सी के दशक में जब पीपुल्स वार के महासचिव सीतीरमैया ने आंध्रप्रदेश के सात विधायकों का अपहरण भी किया था तो उस दौर में भी रिहायी के लिये शर्त्ते रखी गयीं, जो पूरी हुई तो विधायकों को छोड़ दिया गया। उस वक्त सीतीरमैया ने कहा था कि अगर जरुरत हुई तो राजीव गांधी का अपहरण भी कर सकते हैं। उस दौर में पीपुल्स वार ग्रुप आंध्रप्रदेश में सिमटा था। लेकिन अपहरण राजनीतिक तौर पर नक्सलियो की रणनीति का हिस्सा हो सकता है, ऐसा बीते दो दशक में सामने आया नहीं। वहीं बिहार में एमसीसी ने भी कभी किसी का अपहऱण कर सरकार से किसी सौदेबाजी को अपनी रणनीति का हिस्सा नहीं बनाया। दोनों नक्सली संगठन अब एक साथ है और साथ होने के पांच साल पूरे होने के बाद झारखंड में जिस तरह एक पुलिसवाले का सर कलम किया गया और बंगाल में युद्दबंदी बता कर रिहायी की गयी उसने सरकार के सामने बडा सवाल खड़ा किया है कि अगर वाकई युद्द सरीखी कार्रवाई करनी पडी तो रेड कारीडोर का सच भी सामने आयेगा और जो विकास की उस जरजर जमीन को ही सामने रखेगा, जहा अभी भी पाषण काल है । तो क्या माओवादी रणनीति के तहत युद्ध की स्थिति पैदा कर रहे हैं। कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी के मुताबिक युद्द का मतलब किसी आखरी लड़ाई से नहीं है, बल्कि उन परिस्थितियों को दुनिया के सामने लाना है, जिसके तले ग्रामीण आदिवासी जी रहे हैं। लालगढ़ को ही लें। वहां के बत्तीस गांव और उसके अगल-बगल के करीब पचास से ज्यादा गांव में एक भी स्कूल नहीं है। तीन प्राथमिक स्वास्थय केन्द्र हैं। पीने का साफ पानी तो दूर रोजी रोटी के लिये सरकार की कोई योजना इऩ गांवों तक नहीं पहुंची है। वह संयुक्त फोर्स की आवाजाही ने उस जमीन को भी बूटों तले रौंदना शुरु कर दिया है जिसके आसरे थोडी बहुत खेती होती थी । साथ ही मजदूरी के लिये कही भी आवाजाही गांववालो को बंद करनी पड़ी है क्योंकि गांव के भीतर पहुचने के लिये इन्हीं गांववालों को पुलिस हथियार बनाती है ।<br /><br />लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में वामपंथी सरकार ने गांव-गांव का रसद-पानी जिस तरह बंद कर दिया है उसमें माड़-भात और आलू ही जब जीने का एकमात्र जरिया हो और अब उसके भी लाले पड़ने लगे हों , तो यह स्थिति उन शहरी लोगों को देखनी चाहिये जो सबकुछ कानून-व्यवस्था के जरिये ही सुलझाना चाहते हैं। असल में सरकार का संकट यही से शुरु होता क्योंकि एक तरफ गृहमंत्री पी चिदबंरम माओवादियों से आखिरी लडाई के मूड़ में हैं, वहीं राहुल गांधी एक देश में बनते दो देश का जिक्र कर माओवादी प्रभावित इलाको में गवरर्मेंस का संकट उभारते हैं। लेकिन सवाल है 12 राज्यों के 127 जिलों के रेडकारीडोर में कमोवेश हर राजनीतिक जल की सरकारें हैं। मसलन, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार तो कर्नाटक,मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ में भाजपा की सरकार है।<br /><br />वहीं बिहार में जदयू के साथ बीजेपी सत्ता में है तो उड़ीसा में बीजू जनता दल और बंगाल में वामपंथियों की सरकार है । यानी सरकारों के काम अगर वाकई लाल गलियारे तक नहीं पहुंची है तो इसके लिये किसी एक राजनीतिक दल को दोषी ठहराया भी नहीं जा सकता है। झारखंड में तो राष्ट्रपति शासन है यानी सीधे केन्द्र सरकार की निगरानी में है , लेकिन माओवादियो की सबसे बर्बर स्थिति झारखंड में ही उभर रही है । असल में राहुल गांधी की सोच गलत है भी नहीं कि गवर्मेंस फेल हो रहा है । सत्ता शहरों में सिमट गयी है । गरीब या ग्रामीणों को मौका नही मिलता है। लेकिन यह सोच अगर सही है तो सवाल मनमोहन सरकार पर उठेंगे। तब उनकी सोच को लागू करने निकले चिदबंरम की आखिरी लड़ाई भी बेमानी लग सकती है । यूं भी अगर सामाजिक आर्थिक नजरिये से अगर माओवादी प्रभावित इलाकों को देखे तो मुख्यधारा से कितनी दूर है यह , इसका अंदाज प्रतिव्यक्ति आय से भी लग सकता है । देस में प्रतिव्यक्ति आय 2800 रुपये प्रतिमाह है लेकिन लाल गलियारे में औसतन प्रतिव्यक्ति आय 1200 रुपये प्रतिमाह है । करीब तीन करोड़ ग्रामीणों का पलायन बीते एक दशक में इन क्षेत्रों में काम ना मिलने की वजह से हुआ है। यानी रोजी रोटी की तालाश में इतनी बडी तादाद जिला मुख्यालयों या शहरों में चली गयी। तो सरकारी योजनाओ की वजह से करीब दो करोड़ से ज्यादा लोग विस्थापित हो गये। माओवादी प्रभावित क्षेत्र में सरकार की जितनी परियोजनाये निर्धारित है अगर सभी पर काम शुरु हो जाये तो कम से कम 55 जिलों में एक लाख एकड़ से ज्यादा की खेती योग्य भूमि पूरी तरह खत्म हो जायेगी । इन जमीनो पर टिके कितने किसान-मजदूरों के सामने रोजी रोटी के लाले कैसे पड़ जायेंगे इसका अंदाजा भी सरकारी योजनाओ से मिने वाली नौकरियो की तादाद से समझा जा सकता है। औसतन इन 55 जिलों में प्रति सौ एकड खेती की जमीन पर पांच हजार परिवारो का पेट भरता है, वहीं औघोगिक योजनाओ के आने के बाद प्रति सौ एकड़ 40 से 50 परिवार को ही रोजगार मिलेगा ।<br /><br />असल में रेडकारिडोर का सवाल सिर्फ विकास होने या करने से ही नहीं जुडा है । जो नयी राजनीतिक परिस्थितियां बन रही हैं, उसमें युद्धबंदी की राजनीति का मतलब एक ऐसे टकराव का पैदा होना है, जिसमें करोड़ों ग्रामीण आदिवासियों को झोंकना होगा। युद्धबंदी का सवाल सिर्फ विकास की सही स्थिति भर की नक्सली रणनीति भर से नहीं जुड़ा है। इसका दूसरा सच यह भी है कि देश के भीतर दो देश के आगे एक दूसरे के खिलाफ खड़े होने की स्थिति भी युद्ध की तर्ज पर की जा रही है ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-79061737330721382062009-09-27T12:21:00.004+05:302009-09-27T12:27:11.348+05:30रात के अंधेरे में लालगढ़ से दिल्ली तक माओवादी नज़रिया<strong>-सत्ता बंदूक की गोली से निकलती है और व्यवस्था बंदूक से चलती है </strong><br /><strong>- कोबाड के एनकाउंटर की तैयारी झारखंड में हो चुकी थी<br /><br /></strong>माओवादी कोबाड गांधी को पुलिस एनकाउंटर में मारना चाहती थी। लेकिन मीडिया में कोबाड की गिरफ्तारी की बात आने पर सरकार को कहना पड़ा कि कोबाड गांधी नामक बड़े माओवादी को दिल्ली में पकड़ा गया है, जो सीपीआई माओवादी का पोलित ब्यूरो सदस्य है। यह बात अचानक किसी ने टेलीफोन पर कही। 24 सितंबर की रात के वक्त मोबाइल की घंटी बजी और एक नया नंबर देख कर थोडी हिचकिचाहट हुई कि कौन होगा...रात में किस मुद्दे पर कौन सी खबर की बात कहेगा....यह सोचते सोचते हुये ही मोबाइल का हरा बटन दब गया और दूसरी तरफ से पहली आवाज यही आयी कि मैं आपको यही जानकारी देना चाहता हूं कि सीपीआई माओवादी संगठन के जिस पोलित ब्यूरो सदस्य कोबाड गांधी को पुलिस ने पकड़ा है, उसके एनकाउंटर की तैयारी पुलिस कर रही थी।<br /><br />लोकिन आप कौन बोल रहे हैं ? मैं लालगढ़ का किशनजी बोल रहा हूं । किशनजी ....यानी सीपीआई माओवादी का पोलितब्यूरो सदस्य कोटेश्वर राव ...यह नाम मेरे दिमाग में आया तो मैंने पूछा, किशनजी अगर इनकाउंटर करना होता तो पुलिस कोबाड को अदालत में पेश नहीं करती।<br /><br />आप सही कह रहें है लेकिन पहले मेरी पूरी बात सुन लें .....जी कहिये । उन्होंने कहा, हमें कोबाड गांधी के पकडे जाने की जानकारी 22 सितबर की सुबह ही लग गयी थी । इसका मतलब है कोबाड को 22 सितंबर से पहले पकड़ा गया था। हमनें दिल्ली में पुलिस से पूछवाया। लेकिन पुलिस ने जब कोबाड को पकड़ने की खबर को गलत माना तो हमने 22 सितंबर को दोपहर बाद से ही तमाम राष्ट्रीय अखबारो को इसकी जानकारी दी। इसके बाद मीडिया के लगातार पूछने के बाद ही सरकार की तरफ से रात में कोबाड गांधी की गिरफ्तारी की पुष्टि की गयी। अगर मीडिया सामने नहीं आता तो दिल्ली पुलिस झारंखड पुलिस को भरोसे में ले चुकी थी और कोबाड के एनकाउंटर की तैयारी कर रही थी। क्योंकि दिल्ली पुलिस के विशेष सेल ने जब झारखंड पुलिस को कोबाड गांधी के पकड़ने की जानकारी दी तो झारखंड पुलिस ने इतना ही कहा कि कोबाड गांधी को एनकाउटर में मार देना चाहिये। नहीं तो माओवादी झारखंड समेत अपने प्रभावित क्षेत्रो में तबाही मचा देगे। हमारे एक साथी को झारखंड पुलिस ने पकड़ा था और दो महीने पहले ही हमने पांच राज्यो में बंद का ऐलान किया था। झारखंड में हमारी ताकत से सरकार वाकिफ है। इसलिये झारखंड में भी जब हमने पता किया तो यही पता चला कि 21 सितंबर को ही झारखंड पुलिस की तरफ से कोबाड गांधी के एनकाउंटर को हरी झंडी दे दी गयी थी।<br />लेकिन दिल्ली में एनकाउंटर करना खेल नहीं है। क्योंकि मीडिया है, सरकारी तंत्र है...फिर लोकतंत्र पर इस तरह का दाग सरकार भी लगने नहीं देगी!<br /><br />मै कब कह रहा हूं कि एनकाउंटर दिल्ली में होना था । झारखंड पुलिस चाहती थी कि 22 सितंबर की रात ही कोबाड गांधी को डाल्टेनगंज ले जाया जाये । वहां डाल्टेनगंज और चतरा के बीच पांकी इलाके में पहुंचाया जाये और एनकाउंटर में मारने का ऐलान अगले ही दिन 23 सितंबर को कर दिया जाये। माओवादी नेता कोटेश्ववर राव की मानें तो कोबाड गांधी के एनकाउंटर के जरीये झारखंड पुलिस के आईजी रैंक के एक अधिकारी इसके जरिए मेडल और बडा ओहदा भी चाहते थे, जो उन्हें इसके बाद गृह मंत्रालय की सिफारिश पर मिल भी जाता। मुझे लगा माओवादी पूरे मामले को सनसनीखेज बनाकर सरकार की क्रूर छवि को ही उभारना चाहते है। मैंने बात मोड़ते हूये पूछा, कोबाड गांधी की गिरफ्तारी का असर माओवाद के विस्तार कार्यक्रम पर कितना पड़ेगा ? करीब दो-तीन महीने तक संगठन का काम रुकेगा, जबतक दूसरे सदस्य कोबाड का काम नहीं संभाल लेते। मैंने देखा, रात के करीब साढे बारह बज रहे है..तो सोचा लालगढ के बार में भी माओवादियो की पहल और सोच क्या चल रही है, जरा इसे जान लेना भी अच्छा है, यह सोच मैने जैसे ही कहा, लालगढ़ मे तो आपको फोर्स ने घेर लिया है तो पल में जवाब आया, बिलकुल नहीं...आप यह जरुर कह सकते है कि लालगढ के जरीये पहली बार बंगाल में माओवादी कैडर और सीपीएम के हथियारबंद दस्ते आमने सामने आ खडे हुये हैं। प्रभावित इलाको के तीन ब्लाक मिदनापुर, सेलबनी और वाल्तोर में बीते तीन महिने की हिंसक झडपो में सीपीएम के सौ से ज्यादा हथियार बंद कैडर मारे जा चुके है । अभी तक इन क्षेत्रो में सीपीएम के चार सौ से ज्यादा हथियारबंद कैडर को जमीन छोड़नी पडी है जो कि 12 कैंपो में मौजूद थे।<br /><br />कैंप का मतलब...क्या सेना का कैंप ? जी नहीं. सीपीएम का कैंप, जहां उनके हथियारबंद कैडर रहते हैं। सबसे बड़ा कैप तो सीपीएम नेता अनिल विश्वास के घर पर ही था, जहां सीपीएम के 35 कैडर मारे गये। इसी के बाद सीपीएम के एक दूसरे बडे नेता सुशांतो घोष ने सार्वजनिक सभा में ऐलान किया कि "नंदीग्राम की तरह लालगढ़ पर हमला कर जीत लेगें।" तो इसका असर लोगो में किस तरह हुआ यह बेकरा गांव की सभी में देखने को मिला, जहां के गांववालों ने सुशांतो घोष की सभा नहीं होने दी । जब वह सभा को संबोधित करने पहुंचे तो गांववालो ने उन्हें खदेड़ दिया। गांववालों में सीपीएम को लेकर कितना आक्रोष है, इसका नजारा मिदनापुर में हमनें देखा । मिदनापुर में इनायतपुर के पोलकिया गांव में 21 सितंबर की रात सीपीएम के पांच लोग मारे गये। दस घायल हुये । यहां की तीन आदिवासी महिलाओ के साथ सीपीएम के हथियार बंद कैडर ने बदसलूकी की थी । जिसके बाद गांववालो में आक्रोष आ गया । गांववालो ने सीपीएम की शिकायत यहां तैनात ज्वाइंट फोर्स से की । लेकिन गांववालो की मदद ज्वाइंट फोर्स ने नहीं की । माओवादियो से गांववालो ने मदद मांगी । 10 घंटे तक फायरिंग हुई । जिसके बाद सीपीएम के पांच लोग मारे गये । इसी तरह सोनाचूरा में 8 सीपीएम कैडर मारे गये । सीपीएम को लेकर लोगो में आक्रोष है । यही हमें ताकत भी दे रहा है और हम उसी जनता के भरोसे संघर्ष भी कर रहे है।<br /><br />लेकिन अब केन्द्र सरकार भी माओवादियो को चारो तरफ से घेरने की तैयारी कर रही है। कैसे सामना करेंगे ? सवाल हमारा सामने करने का नहीं है । हम जानते है कि अबूझमाड यानी माओवादी प्रभावित क्षेत्र में घुसने के लिये 8 हैलीपैड बनाये गये है । आंध्र प्रदेश से सीमावर्ती चित्तूर , भद्राचलम से लेकर छत्तीसगढ के बीजापुर तक में अर्धसैनिक बलो को तैनात किया जा रहा है । लेकिन इसमें जितना नुकसान हमारा है, उतना ही सरकार का भी होगा। इसका एक चेहरा छत्तीसगढ के दंत्तेवाडा के पालाचेलिना गांव में सामने भी आया, जहां कोबरा फोर्स को पीछे हटना पड़ा। तो क्या यह चलता रहेगा। यह सरकार पर है। क्योंकि यहां के आदिवासी ग्रामीणो में गुस्सा है। वह हमसे कहते हैं मिलकर लडेगें, मिलकर मरेंगे। यह सरकार का काम है कि उनकी जरुरतो को उनके अनुसार समाधान करे। नहीं तो हम भी उन्हीं के साथ मिलकर लडेंगे, मिलकर मरेंगे ।<br /><br />तो क्या सरकार समझती है कि गांववालो की जरुरत क्या है ? देखिये , सवाल समझने का नहीं है । जिन पांच राज्यो को लेकर सरकार परेशान है। उनमें झारंखंड, छत्तीसगढ और उड़ीसा में सबसे ज्यादा खनिज संसाधन है। खनिज संसाधन की लूट के लिये तब तक रास्ता नहीं खुल सकता है, जब तक यहां के ग्रामीण आंदोलन कर रहे है और हम उनके साथ खड़े हैं। लेकिन सरकार विकास के रास्ते भी खनिज संपदा का उपयोग कर सकती है ? सही कह रहे हैं आप लेकिन आंध्रप्रदेश से लेकर बंगाल तक के रेड कारिडोर पर पहली बार अमेरिका की नजर है । उसे भारत का यह खनिज औने पौने दाम में मल्टीनेशनल कंपनियो को दिलाने का रास्ता खोलना है। हाल ही में गृह मंत्री चिदबंरम साहब पेंटागन गये थे। वहीं उन्हें ब्लू प्रिट दिया गया कि कैसे माओवादियो को इन इलाको से खत्म करना है। इसी लिये कश्मीर से फौज हटायी जा रही है, जिसे माओवादी प्रभावित इलाको में हमारे खिलाफ लगाया जा रहा है। लेकिन यह समझ भारत की नही, अमेरिका की है । अमेरिका समझ रहा है कि विश्व बाजार जब तक पहले की तरह चालू नहीं हो जाता तब तक मंदी का असर बरकरार रहेगा। इन इलाको के खनिज संसाधन अगर विश्वबाजार में पहुंच जायें तो दुनिया के सामने करीब पचास लाख करोड़ से ज्यादा का व्यापार आयेगा, जो झटके में मुर्दा पडी दुनिया की दर्जनों बड़ी कंपनियो में जान फूंक देगा। आप यही देखो की एस्सार का 15 हजार करोड का प्रोजेक्ट इसी दिशा में काम कर रहा है । बैलेडिला से लेकर बंदरगाह तक पाइप लाइन का उसका प्रोजेक्ट शुरु हुआ है । यानी यहां की खनिज संपदा कैसे बाहर भेजी इस दिशा में पहल शुरु हो चुकी है।<br /><br />लेकिन माना जाता है कि आप लोगो को राजनीतिक मदद भी है । आप लोगो को ममता बनर्जी की मदद मिल रही है। ऐसे मुद्दो को आप संसदीय राजनीति के जरीये उठा सकते है । इसके लिये हथियार उठाने की क्या जरुरत है ? आप ममता की क्या बात कर रहे हैं। वह तो खुद सौ फीसदी प्राइवेटाइजेशन की वकालत कर रही है । मैं आपको एक केस बताता हू ....आप खुद जांच लें । कोलकत्ता हवाइअड्डा से जब आप शहर की तरफ आते है तो रास्ते में राजारहाट पडता है । यहां उपनगरी तैयार की जा रही है । जहां अत्याधुनिक सबकुछ होगा । किसानों की जमीन हथियायी जा रही है । विप्रो और इन्फोसिस को दुबारा मनाकर लाया जा रहा है । लेकिन किस तरह राजनीति यहां एकजुट है, जरा इसका नजारा देखिये। यहां जो सक्रिय हैं, उनमें सीपीएम के पोलित ब्यूरो सदस्य गौतम देव, ज्योति बसु के बेटे चंदन बसु, तृणमूल कांग्रेस के स्थानीय विधायक शामिल हैं। उसके अलावा बिल्डिग माफिया कमल नामक शख्स भी साथ है। सैन्ट्रल बैक आफ इंडिया इनका प्रमोटर है । और राजारहाट में अभी तक 600 किसान जमीन गंवा चुके है । जिसमें से 60 किसान मारे भी गये है । 100 से ज्यादा घायल होकर घर में भी पड़े हैं। लेकिन इन किसानो को राजनीतिक हिंसा का शिकार बता दिया गया । यानी किसान को भी राजनीतिक दल से जोडकर उपनगरी के मुनाफे में बंदरबांट सीपीएम और तृणमूल दोनो कर रही हैं ।<br /><br />तो क्या इसे जनता समझ नहीं रही है ? समझ क्यों नहीं रही है। ईद के दिन ही यानी 21 सिंतबर को ही तृणमूल का एक नेता निशिकांत मंडल मारा गया । निशिकांत सोनाचूरा ग्राम पंचायत का प्रधान था । तृणमूल नेता को क्या ग्रामीणों ने मारा ? आप कह सकते हैं कि ग्रामीण आदिवासियो की सहमति के बगैर इस तरह की पंचायत के प्रधान की हत्या हो ही नहीं सकती है । निशिकांत पहले सीपीएम में था। फिर तृणमूल में आ गया । ऐसे बहुत सारे सीपीएम के नेता है तो पंचायत स्तर पर अब ममता बनर्जी के साथ आ गये है । एसे में गांववाले मान रहे हैं कि ममता नयी सीपीएम हो गयी हैं। जबकि यह लड़ाई सीपीएम की नीतियो के खिलाफ और उसके कैडर की तानाशाही के खिलाफ शुरु हुई थी। वहीं स्थिति अब ममता की बन रही है। इसलिये अब देखिए निशिकांत की हत्या नंदीग्राम में हुई, जहां से ममता बनर्जी को राजनीतिक पहचान और लाभ मिला।<br /><br />तो क्या यह माना जाये कि 2011 के चुनाव में ममता नहीं जीत पायेगी ? यह तो हम नहीं कह सकते है कि चुनाव कौन जीतेगा या कौन हारेगा लेकिन अब ग्रामीण आदिवासी मानने लगे है कि ममता बनर्जी भी उसी रास्ते पर है, जिस पर सीपीएम थी । यानी ममता का मतलब एक नयी सीपीएम है । बाचतीत करते रात के डेढ़ बज चुके थे मैने फोन काटने के ख्याल से कहा कि .....चलिये इस पर फिर बात होगी। क्या आपके इस मोबाइल पर फोन करने पर आप फिर मिल जायेगे ? नहीं... फोन आप मत करिये। जब हमें बात करनी होगी तो हमीं फोन करेगे । बातचीत खत्म हुई तो मुझे यही लगा कि माओवादियो को लेकर सरकार का जो नजरिया है, उसके ठीक विपरित माओवादियो का नजरिया व्यवस्था और सरकार को लेकर है...यह रास्ता बंदूक के जरिये कैसे एक हो सकता है, चाहे वह बंदूक किसी भी तरफ से उठायी गयी हो।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com17tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-13754262155735272892009-09-21T10:29:00.001+05:302009-09-21T10:30:38.225+05:30माओवादी गठबंधन के पांच साल का मतलबसत्ता के लिये राजनीतिक गठबंधन के दौर में नक्सलियों के गठबंधन के पांच साल पूरे होने के मौके पर अगर यह सवाल उठाया जाए कि राजनीतिक गठबंधन ने माओवादियों को ढील दे दी और माओवादियो के गठबंधन ने राजनीतिक सत्ता को कटघरे में खडा कर दिया, तो कुछ गलत नहीं होगा । ठीक पांच साल पहले सीपीआई(एमएल), पीपुल्सवार और एमसीसीआई ने मिलकर सीपीआई माओवादी का गठन किया । और इसके बाद रेड कॉरिडोर की जो लकीर आंध्र प्रदेश के नल्लामला के जंगलों से होते हुये बस्तर में रुक जाती थी और एक नयी लकीर उड़ीसा से शुरु होकर बिहार-झारखंड होते हुये बंगाल तक एक नयी रेखा खींचती थी, दोनों न सिर्फ एक हो गयीं बल्कि माओवादियो के इस गठबंधन ने राजनीतिक तौर पर राज्य सत्ता को भी किस तरह कटघरे में खड़ा किया, यह बार बार उभरा। <br /><br />जहानाबाद जेल ब्रेक से लेकर लालगढ के दौर में न सिर्फ माओवादियो की मारक क्षमता बढ़ती हुई दिखायी दी बल्कि संसदीय राजनीति और राज्य व्यवस्था माओवादी प्रभावित इलाकों में प्रभावहीन होकर उभरी। इस गठबंधन ने एकतरफ जहां पीपुल्स वार को एमसीसी के आम लोगो की भागेदारी के साथ सांगठनिक तौर तरीको को सिखाया, वही एमसीसी को पीपुल्सवार की तर्ज पर गुरिल्ला युद्द की ट्रेनिंग मिल गयी। वहीं दूसरी तरफ राजनीतिक दलों को गठबंधन के जरीये सत्ता तो मिली लेकिन माओवादियों के खिलाफ अलग अलग समझ रखने की वजह से कोई ठोस नीति कहीं नहीं बन सकी।<br /><br />2004 में ही आंध्र प्रदेश में कांग्रेस के साथ टीआरएस जुड़ी। तेलागंना इलाके में पैठ बनाने वाली टीआरएस ने माओवादियों के खिलाफ कांग्रेस को कोई ठोस नीति नही बनाने दी। छत्तीसगढ में भाजपा ने सलवाजुडुम का नायाब प्रयोग कर जिस तरह आदिवासियो के हाथ में हथियार थमा दिये, उससे कांग्रेस माओवादियों से ज्यादा भाजपा की नीतियो के खिलाफ हो गयी या कहे राजनीतिक तौर पर निशाना साधने लगी। वहीं, उड़ीसा में भाजपा जो कार्रवाई माओवादियो के खिलाफ करना चाहती थी, उससे बीजू जनता दल इत्तिफाक नहीं रखती। झारखंड में कांग्रेस और झामुमो के बीच माओवादियो के खिलाफ कार्रवाई को लेकर कोई सहमति नहीं बनी। वहीं बंगाल में सीपीएम की राय और रणनीति दोनो से न तो सीपीआई ने कभी इत्तेफाक किया और ना ही फारवर्ड ब्लाक ने सहमति जतायी। <br /><br />ऐसी ही उलझने केन्द्र स्तर पर भी रहीं। लेकिन माओवादियो के गठबंधन ने इसी दौर में पहली बार संसदीय राजनीति में हाथ जलाये बगैर राजनीतिक दलों को भी अपने प्रयोग में मोहरा बनाया। इसका सबसे ताजा उदाहरण अगर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस है तो 2004 में पहला उदाहरण चन्द्रशेखर राव की टीआरएस थी । 21 सितंबर 2004 को जब दोनो माओवादी संगठनो ने गठबंधन का ऐलान किया था तो उस वक्त एमसीसी के महासचिव कामरेड किशन से जब यह सवाल पूछा गया था कि इस गठबंधन का असर क्या होगा तो किशन का जबाब था कि, " इसका प्रभाव मजदूरों,किसानों और मेहनतकश जनसमुदाय समेत समूची जनता पर पड़ेगा । क्योंकि आज तमाम गांधीवादी, बोटबाज और नकली कम्युनिस्ट पार्टियों का जनप्रेमी मुखौटा काफी हद तक उतर चुका है। ऐसी परिस्थिति में जनता भी एक ऐसी पार्टी का इंतजार कर रही है जो उनके मुक्ति संघर्ष को नेतृत्व प्रदान कर सके । और आने वाले दिनो में इसका सकारात्मक प्रभाव नये तरीके से वोटबाज राजनीति में मेहनतकश समुदाय महसूस करेगा। क्योकि गठबंधन के बाद सीपीआई माओवादी क्रांतिकारी वर्ग संघर्ष के साथ साथ कृषि क्रांतिकारी गुरिल्ला युद्द के जरीये भी बदलाव का नया रुप देखेगी"। <br /><br />दरअसल, एमसीसी के महासचिव पांच साल पहले जब यह बात कह रहे थे, उससे पहले एमसीसी की पहल बंगाल में थी जरुर लेकिन वाममोर्चा सरकार के सामने उसने कभी ऐसी चुनौती किसी मुद्दे के आसरे नहीं रखी, जिससे नक्सलबाडी संघर्ष या आम जनता की भागीदारी का कोई एहसास माओवादियो के साथ जागे। लेकिन गठबंधन के बाद जिस तर्ज पर बंगाल में सिंगूर, नंदीग्राम और लालगढ़ में माओवादियो की मौजूदगी नजर आयी और जमीन अधिग्रहण के मुद्दो को खेत मजदूर और आदिवासियो के हक में करने के लिये उसी संसदीय राजनीति को औजार बना लिया, जिसकी नीतियां इसके खिलाफ शुरु से रही, वह गौरतलब हैं। रणनीति के तौर पर बंगाल में पहली बार आंध्र प्रदेश के माओवादियो ने अगुवाई की और उसे सांगठनिक या कहे प्रभावित लोगो को गोलबंद करने में जिस तरह एमसीसी का कैडर जुटा उसने राजनीतिक तौर पर गठबंधन के महत्व को सामने रखा। सिंगूर, नंदीग्राम के बाद लालगढ में पीपुल्स वार के पोलित ब्यूरो सदस्य कोटेश्वर राव जिस तरह मीडिया के सामने खुल कर लाये गये, उसने राजनीतिक दलों के गठबंधन में सत्ता की खिंचतान को ही एक सीख दी कि गठबंधन के जरीये ताकत बढाने का मतलब अपनी जमीन पर साथी को बडे कद में रखना भी होता है। <br /><br />संसदीय राजनीति के गठबंधन में महाराष्ट्र से लेकर बिहार तक में और खासकर बंगाल में कभी अपनी जमीन पर किसी राजनीतिक दल ने अपने सहयोगी को आगे बढ़ने नहीं दिया, उल्टे साथी की राजनीति को भी हड़पने का मंत्र जरुर फूंका । असल में राजनीतिक दलों में जब खुद का कद बड़ा और बड़ा करने और दिखाने की होड़ है, ऐसे वक्त अगर बीते पांच साल के दौर में उसी पीपुल्स वार की पहल को देखे जो उससे पहले के 35 साल में कभी एमएल के वार जोन में माओवादियो को घुसने नहीं देता था और वैचारिक तौर पर संघर्ष से ज्यादा एक-दूसरे के कैडर को खत्म करने की दिशा में ही बढ़ता चला गया । गठबंधन के बाद पीपुल्स वार ने एमसीसी के साथ मिलकर एमएल शब्द छोडकर सिर्फ संगठन का नया नाम सीपीआई माओवादी पर ही सहमति नहीं बनायी बल्कि एमसीसी को गुरिल्ला जोन विकसित करने की जो ट्रेनिग दी, उसी का असर है कि देश का गृहमंत्रालय आंतरिक सुरक्षा के मुद्दे को सबसे गंभीर मान रहा है। क्योंकि रिपोर्ट साफ बतलाती है कि देश में पहली बार गुरिल्ला जोन ना सिर्फ विकसित किये गये हैं, बल्कि रणनीति के तौर पर इस जोन को दो स्तरो पर बांटा गया है, जिसमें आधार क्षेत्र में जन राजनीतिक सत्ता स्थापित करते हुये नये निर्माण क्षेत्र को विकसित करने की दिशा में माओवादी बढ़ रहे हैं। <br /><br />असल में 2004 में पीपुल्स वार के महासचिव गणपति से यही सवाल किया गया था कि जंगल से बाहर माओवादियो की पकड़-पहुंच को लेकर गठबंधन की रणनीति क्या होगी। उस वक्त गणपति ने कहा था , " शत्रु के साथ छोटी झड़पों से बड़ी लड़ाइयों में विकास, छोटे सैन्य रुपों से बडे सैन्य रुपों का निर्माण, थोडी संख्या से बड़ी संख्या बनना, कमान और कमीशनों के रुप से ज्यादा व्यवस्थित ढांचो में विकास और शत्रु से हथियार छिनते हुये स्वयं को सशस्त्र करते में ज्यादा क्षमता। साथ ही आंतरिक पार्टी संघर्षो से बचने के लिये नये तरीके से राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक उत्पीड़न के मुद्दो के लिये कैडर को लगातार संघर्ष से जोडे रखना। " माओवादियो की इस सोच को अगर रेड कॉरिडोर में टटोल कर देखे तो पहली बार कई ऐसी स्थितिया सामने आयेंगी, जिसमें यह साफ लगेगा कि जिस तैयारी में माओवादी पांच साल पहले गठबंधन के जरीये जुटे और इन पांच सालो में छत्तीसगढ़, उड़ीसा,झारखंड और बंगाल में जो चेहरा माओवादियो का उभरा, उसने पहली बार विकास से कोसों दूर होते इलाको में ही विकास की लकीर के जरीये लूटतंत्र का संसदीय चेहरा भी उभार दिया है । इससे पहले के 35 सालों में रेड कॉरिडोर को लेकर यही सवाल सबसे ज्यादा गूंजता था कि नक्सल प्रभावित इलाको में विकास हुआ नहीं है या फिर सरकार की किसी योजना को माओवादी पहुंचने नहीं देते हैं। लेकिन बीते पांच सालो में जिस तेजी से रेडकॉरिडोर में किसान-आदिवासियो की जमीन पर विकास की लकीर खिंचने का प्रयास हुआ और प्राकृतिक संसाधनो की लूट खासकर खनिज पदार्थो को बहुराष्ट्रीय कंपनियो को बेचेने का प्रक्रिया शुरु हुई, उसने सरकार-माओवादी टकराव को एक नया कलेवर दे दिया। क्योंकि नक्सल प्रभावित सवा सौ जिलो के छह सौ गांव की स्थिति सामाजिक-आर्थिक तौर पर आज भी सबसे पिछड़े क्षेत्रों की त्रासदी ही बयान करती है। यह वैसे गांव हैं, जहा प्राथमिक शिक्षा,प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और पीने का पानी तक मुहैया नहीं है। वहीं, अड़तालिस जिले ऐसे हैं, जहां की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियो में आजादी के बाद से इतना ही बदलाव आया है कि अंग्रेजों की जगह स्थानीय जमींदारो और राज्य सत्ता के नुमाइन्दो ने ले ली है। इन क्षेत्रो में नया बदलाव उनकी जमीन पर दखल और खनन है। यहां स्पेशल इकनामी जोन के नाम पर सिर्फ जमीन अधिग्रहण ही नहीं बल्कि उड़ीसा, छत्तीसगढ और झारखंड में खनिज के लिये यूरोप,एशिया और अफ्रीका की दो दर्जन से ज्यादा बहुराष्ट्रीय कंपनियो से देश की टॉप दस कंपनिया इस बात की होड़ कर रही है कि खनिजों की माइनिंग का अधिकार किसे मिलता है। <br /><br />अगर रेडकारिडोर में बंगाल को छोड भी दिया जाये तो भी इस लालगलियारे के छह प्रमुख राज्यों आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र ,मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ,उड़ीसा और झारखंड में करीब अठारह लाख करोड़ की माइनिंग की बोली बीते पांच साल में लगायी गयी। जिसकी कीमत विश्व बाजार में साठ लाख करोड़ से ज्यादा की है । जाहिर है मुनाफे के इतने बडे अंतर का मतलब राज्यों में कमीशन को लेकर भी होड़ होगी। इस होड़ का असर यही है कि जिन इलाको में खनन होना है उन्हीं इलाको में सबसे ज्यादा माओवादियो के प्रभाव को बताया दिखाया गया है और राज्य पुलिस से लेकर अर्द्दसैनिक बलो की जो तैनाती दिखायी जा रही है, वह भी इन्हीं इलाको में केन्द्रित है । इसका असर माओवादियो के लिये दोहरे फायदे वाला भी साबित हुआ है । एक तरफ जिन इलाको में खनन हो रहा है या होना है वहां ग्रामीण-आदिवासी सरकार की नीतियो के खिलाफ एकजूट हुये हैं। इनके बीच माओवादियो की पैठ किस तेजी से बढ़ी है, इसका एहसास इसी से हो सकता है कि आंकडों के लिहाज से माओवादियों के निर्माण कैडर में दो सौ फीसदी तक का इजाफा हुआ है। निर्माण कैडर का मतलब है, जहां माओवादी निर्माण की अवस्था में हैं। वहीं पांच साल पहले जिस रणनीति का जिक्र पीपुल्सवार के महासचिव गणपति कर रहे थे कि उसी घेरे में सरकार घिरने भी आ रही है । क्योंकि उसी दौर में सुरक्षा बलों को सबसे ज्यादा नुकसान माओवादियों के हमले में हुआ है। हथियारों की लूट से लेकर अर्द्धसैनिकों की मौत बारुदी सुरंग के साथ साथ मुठभेढ़ के दौरान हुई है । इसकी एक वजह माओवादियों से ज्यादा खनन में कोई मुश्किल ना आने देने की राज्य सरकारो की सोच भी है। लेकिन माओवादियो को इसका सबसे बडा लाभ उन नये क्षेत्रो में मिल रहा है, जिसे विकास की श्रेणी में रखकर सरकार गांव से शहरो में तब्दील होते हुये देख रही है। <br /><br />इस दौर में रेड कॉरिडोर में ही पचास से ज्यादा नये शहर सरकार के दस्तावेजों में बने हैं। लेकिन आर्थिक नीतियो को लेकर जो तनाव इन क्षेत्रो में पनपा है, उसमें वैचारिक तौर पर माओवादियों को एक बड़ा आधार भी इन्हीं क्षेत्र में बनता जा रहा है । क्योकि माओवादी इन इलाकों में उन मुद्दों को छू रहे हैं, जिससे जनता को हर क्षण दो-चार होना पडता है। मसलन , माओवादियो ने राष्ट्रीयता से लेकर दलित उत्पीडन और महिलाओ से लेकर अल्पसंख्यक समुदायों के उत्पीडन के मुद्दो को लेकर विशिष्ट नीतियां तैयार की हैं। लेकिन गठबंधन के इस दौर में संसदीय राजनीति या माओवादियों से इतर आम लोगो का परिस्थतियों को देखे तो उनके सामने सबसे मुश्किल वक्त है। एक तरफ राज्य की भूमिका ज्यादा से ज्यादा मुनाफा बनाने वाली हो चली हैं और वैसी नीतियों को ही लागू कराने वाली बन चुकी हैं, जिसमें उनका वोट बैक समा जाये। <br /><br />वहीं, माओवादियो का चाहे विस्तार इन इलाको में खूब हो रहा है लेकिन उनके रणनीति अभी भी खुद को बचाते हुये अपनी पकड़ को मजबूत बनाने की है। यानी माओवादी अभी उस स्थिति में नहीं आये हैं, जहां प्रभावित इलाको की आर्थिक परिस्थियों को बदल दें । या फिर जिस सर्वहारा का सवाल जिन इलाको में गूजता है, उन इलाको के लिये कोई वैक्लिपिक ढांचा खड़ा कर सके । वही दूसरी तरफ केन्द्र सरकार का नजरिया माओवादियो को लेकर कितनी सतही समझ वाला है, यह माओवादियो के आत्मसमर्पण और उनके पुनर्वास के लिये जारी सुविधाओ के ऐलान से समझा जा सकता है, जिसके तहत मुआवजे-दर-मुआवजे का जिक्र किया गया है । यानी गठबंधन में जिस तरह छोटे सहयोगी दलो को सत्ता की मलाई चखाकर सत्ता बरकरार रखी जाती है, उसी तर्ज पर माओवादियो की समस्या का समाधान भी देखा जा रहा है । जबकि माओवादियो की पहल बताती है कि संसदीय राजनीति के इसी तौर तरीकों में पिछले चालीस साल में माओवादी न सिर्फ फैलते चले गये हैं बल्कि राजनीतिक दलों से कही ज्यादा प्रयोग कर उन्होंने खुद का खासा मजबूत बना लिया है और गठबंधन उसका नया हथियार है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-8302348056252225802009-08-23T12:27:00.000+05:302009-08-23T12:28:36.528+05:30जसवंत की किताब के बहाने माओवादियों के सवाल20 अगस्त की शाम मोबाइल पर एकदम अनजाना सा नंबर आया तो मैंने फोन को साइलेंट मोड में डाल दिया। लेकिन जब वही नंबर लगातार तीसरी बार मोबाइल पर उभरा तो मेरे हैलो कहने के साथ ही दूसरी तरफ से आवाज आई, अब आप दंगों का इंतजार करें। मैं चौंका...आप कौन बोल रहे हैं। हम बोल रहे हैं। हम कौन...मैंने आपको पहचाना नहीं। हम नक्सली....लालगढ वाले किशनजी । मैं चौका..तो क्या आप लालगढ में दंगों की बात कर रहे हैं। जी नहीं, हम जसवंत सिंह की बात कर रहे हैं। आप तो उसी खबर में लगे होंगे। इसीलिये कह रहा हूं, यह तो बीजेपी का पुराना स्टाइल है। जब कुछ ना बचे तो उग्र हिन्दुत्व की बात कर दो। अयोध्या भी तो इसी तरह उठा था और हाल में कंधमाल में भी आरएसएस ने ऐसा ही किया। कर्नाटक में भी ऐसा ही कुछ हुआ। <br /><br />मुझे झटका लगा कि कोई नक्सली कैसे इस तरह अचानक एकदम अनजान से मुद्दे पर टिप्पणी कर सकता है। कुछ गुस्से में मैने टोका, क्या लालगढ में सीआरपीएफ ने कब्जा कर लिया है। मैने आपको लालगढ पर बात करने के लिये फोन नहीं किया है, लालगढ में तो हमारा कब्जा बरकरार है, आप आ कर देख सकते है। यह भी देख सकते हैं कि कितनी बडी तादाद में इस पूरे इलाके के आदिवासी ग्रामीण हमारे साथ कैडर के तौर पर जुड रहे हैं। सरकार के कहने पर मत जाइयेगा कि उसने लालगढ में कब्जा कर लिया है और माओवादी भाग गए हैं। पुलिस-सीआरपीएफ सिर्फ शहरों तक पहुंचती है, जहां दुकानें होती हैं। दुकानें खुल जाएं...धंधा चलने लगे तो सरकार मान लेती है कि सब पटरी पर आ गया। लेकिन आप गांव में अंदर आकर देखेंगे तो आप समझेंगे कि सरकारी नजरिया किस तरह आदिवासियों को, ग्रामीणो को देखता समझता ही नहीं। मैने फोन इसलिये किया कि जिस तरह लालगढ को आप समझना नहीं चाहते वैसे ही विभाजन के दौर को कोई राजनीतिक दल समझना नहीं चाहता। <br /><br />बातों का सिलसिला बढने के साथ मेरी जिज्ञासा भी बढती गई। मैंने पूछ ही लिया, क्यों, आपने जसवंत सिंह की किताब पढ ली है? लगभग पढ ली है। तो क्या वह लालगढ तक पहुच गई। हम सिर्फ लालगढ तक सीमित नहीं हैं। और पढने-पढाने को हम छोड़ते भी नहीं हैं। हम आपसे कह रहे है कि विभाजन को लेकर सिर्फ जिन्ना-नेहरु-पटेल का खेल तो अब बंद करना चाहिये। देश की जो हालत है उसमें मीडिया को अपनी भूमिका तो समझनी चाहिये। आप तो लगातार उस किताब पर चैनल में प्रोग्राम कर रहे हो, आप ही बताइए कि किताब में 1919 से लेकर 1947 तक के दौर की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का कोई जिक्र है, जिसके आधार पर लीग और कांग्रेस की राजनीति का खांचा खिंचा जा रहा है। सच तो यह है कि इसमें सिर्फ उन राजनीतिक परिस्थितियों को ही अपने तरीके से या यूं कहें कि अभी के परिपेक्ष्य में टटोला गया है जिन्हें़ विभाजन से जोडी जा सके। <br /><br />उसमें नेहरु-पटेल और जिन्ना के साथ साथ वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन को भी किसी फिल्मी कलाकार की तरह सामने रखा गया है। गांधी को भी एक भूमिका में फिट कर दिया गया है जिससे उन पर कोई अंगुली ना उठे। आपको यह समझना चाहिये कि जहां राजनीति पर से लोगों का भरोसा उठ रहा है, वहा राजनेता ही दूसरे माध्यमो में घुस रहे है। जिन्ना पर यह यह किताब ना तो स्कॉलर की लगती है ना ही पॉलिटिशियन की। <br /><br />लेकिन राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में लिखी किताब में आप उस दौर के सामाजिक ढांचे पर बहस क्यो चाहते हैं।...क्योंकि बिना उसके सही संदर्भ गायब हो जाते है। आप ही बताइये, भारत लौटने पर गांधी ने समूचे देश की यात्रा कर क्या देखा। आप एक लाइन में कह सकते हैं कि देश को देखा। लेकिन सच यह नहीं है। गांधी ने उस जमीन को परखा जो भारत को जिलाये हुये है, जो उसकी धमनियों से होकर बहने वाला खून है, उसके फेफडों के अंदर जाने वाली हवा है। किसान मजदूर के बगैर भारत की कल्पऩा नहीं की जा सकती। इसलिये गांधी ने सबसे पहले उसी मर्म को छुआ। <br /><br />जसवंत की किताब में एक जगह लिखा है कि नेहरु-जिन्ना और गांधी तीनो ने पश्चिमी तालीम हासिल की थी । नेहरु-जिन्ना तो पश्चिमी सोच में ही ढले रहे और उसी आधार पर भारत-पाकिस्तान के उत्तराधिकारी बन कर खुद को उबारते चले गये। लेकिन गांधी में भारतीय तत्व था। लेकिन जसवंत सिंह यह नहीं बताते कि यह भारतीय तत्व कौन सा था। वह गांधी ही थे जिन्होंने किसान आंदोलन को दबाया। गांधी शांति की वकालत करते हुये सीधे कहते थे कि , <br />"यदि जमींदार आप पर उत्पीड़न करें तो आपको थोड़ा सह लेना चाहिये। यदि जमींदार आपको परेशान करें तो मै किसान भाई से कहूंगा कि वह लड़ें नहीं बल्कि मैत्रीपूर्ण रुख अपनायें।" गांधी की कथनी-करनी का फर्क जसवंत को रखना चाहिए जो अंग्रेजों के लिये मददगार साबित हो रहा था। चम्पारण, खेडा और बारडोली के किसान आंदोलन इस बात के सबूत हैं कि गांधी किसानों को बंधक बना रहे थे। क्योकि एक तरफ वह ग्राम स्वराज अर्थात परम्परागत हिन्दू ग्रामीण समाज के आत्मनिर्भर ढांचे को जिलाना चाहते थे पर उसके लिए बहुसंख्यक ग्रामीण समाज की आर्थिक और सामाजिक अस्मिता और नेतृत्वकारी शक्तियो को आगे बढाना उन्हे स्वीकार नहीं था। गांधी वाकई भारतीय मूल को ना समझते तो नेहरु-जिन्ना दोनों ही विभाजन के नायक भी ना हो पाते जैसा जसवंत लिख रहे है। लेकिन इस मूल को तो सामने लाना चाहिये...क्योकि गांधी परम्परागत ग्रामीण समाज को तोड़ कर उस पर थोपे गए जमीदांरों और साहूकारों के जरिये ही अपनी राजनीति कर रहे थे। <br /><br />मिसाल के लिये बारडोली में चलाये गये गांधीवादी रचनात्मक कार्यक्रम को ही लें। 1929 तक बारह सौ चरखे बारडोली में चलाये जा रहे थे लेकिन सभी धनी पट्टीदार परिवारों में थे। गरीब किसानो के घर एक भी चरखा नहीं था, जबकि चरखा लाया ही गरीब परिवारो के लिए गया था। फिर अस्पृश्यता हटाने के सवाल पर तो इतना ही कहना काफी होगा कि 1936 तक एक भी अछूत छात्र बारडोली क्षेत्र के पट्टीदार मंडल द्रारा चलाये जा रहे आश्रमों और होस्टल में भर्त्ती नहीं हुआ था। गांधी जी का रचनात्मक कार्यक्रम तो पट्टीदारों और बंधुआ मजदूरों के बीच संबंधो में भी कोई अंतर नहीं ला पाया था। <br /><br />लेकिन जसवंत की किताब में मूलत: नेहरु और पटेल पर चोट की गई है। सही कह रहे हैं। किताब में एक जगह लिखा गया है कि नेहरु और पटेल को समझ ही नहीं थी कि विभाजन के बाद देश कैसे चलाना है। हो सकता है बीजेपी इसी से रुठी हो। लेकिन किसान-मजदूर की बात करने वाली बीजेपी को समझना चाहिये कि लौह पुरुष पटेल भी किसानो के हक में खडे नहीं हुए। साहूकार और बंधुआ किसानों को लेकर गांधी के सबसे बडे प्रतिनिधि वल्लभ भाई पटेल ने गरीब किसानो को सलाह दी, "सरकार तुम्हें और साहूकार को अलग अलग करना चाहती है ....यह तो पतिव्रता नारी से अपने पति को छोड देने की मांग जैसा हुआ । " जसवंत को किताब में बताना चाहिये कि पटेल का लोहा किस तरह घनी पट्टीदार और बनियों के लिये बज रहा था। <br /><br />जसवंत तो खुद राजस्थान से आते है। उन्होंने अपनी किताब में गांधी को कैसे क्लीन चीट दे दी। जबकि राजस्थान के राजपूताना इलाकों में मोतीलाल तेजावत ने रियासती जुल्म के खिलाफ जब किसानों को एकजुट किया तो रियासत ने अंग्रेजों के फौज की मदद से भीलों पर गोलियां बरसा दी थी। गांधी जी ने उस वक्त भी इस गोलीकांड की निंदा नहीं की। देखिये किताब इसलिये बेकार है क्योंकि इसमें जनता को जोडा ही नहीं गया है। <br /><br />नेहरु के जरिये कांग्रेस पर अटैक करने से जसवंत को लगता होगा कि उन्होंने अपना राजनीतिक धंधा पूरा कर लिया, जबकि कांग्रेस पर अटैक करना था तो सहजानंद सस्वती का जिक्र करना चाहिये था। चर्चा किसान सभा के संगठन की होनी चाहिए थी। 2 अक्टूबर, 1937 को पटेल ने राजेन्द्र प्रसाद को पत्र लिख कर आगाह किया कि भविष्यि में किसान सभा बहुत बडी बाधा उत्पन्न करेगी, हमें इसके गठन के खिलाफ खड़े होना होगा। इसी के बाद से धीरे-धीरे कांग्रेसियों ने सहजानंद सरस्वती का बायकॉट करना शुरु किया। बंबई में तो गांधी, जमुनालाल बजाज, सरदार पटेल, राजगोपालाचारी और राजेन्द्र प्रसाद ने एक बैढक में सहजानंद को हिंसक , तोड़क और उपद्रवी तक घोषित कर दिया। <br /><br />आपका यह तो नहीं कहना है कि स्थितियां अभी भी नहीं बदली हैं। आप यह माने या ना माने ...हम यह नहीं कहते कि किताब में हिसंक आंदोलन का जिक्र होना चाहिए। सवाल यह है कि नेहरु - जिन्ना सरीखे चरित्र किस तरह खडे हो रहे थे। उन सामाजिक परिस्थितियों का जिक्र अगर किताब में नहीं है तो मीडिया को तो करना चाहिए, क्योंकि आपने ही ठीक सवाल रखा...स्थिति बदली कहां है। सहजानंद सरस्वती किसान सभा में गरीब और मंझोले किसानों का ज्यादा प्रतिनिधित्व चाहते थे। यह मांग हर क्षेत्र में आज भी है। जसवंत सिंह को सिर्फ धर्म के नाम पर आरक्षण दिखाई देता है..वह किताब में लिखते भी हैं कि धार्मिक आरक्षण राजनीति का हथियार बन गया है। जसवंत तो इस्लामिक राष्ट्र को भी बकवास बताते हैं लेकिन हिन्दू राष्ट्र पर खामोश हो जाते हैं, जिसे सावरकर ने ही सबसे पहले उठाया। नेपाल में जब कम्युनिस्ट सत्ता में आये तो बीजेपी को लगा एकमात्र हिन्दू राष्ट्र ध्वस्त हो गया। तो वह लगे विरोध करने। और मीडिया भी उसे तूल देता है, क्योंकि बाकी वर्गों को छूने पर देश में आग लग सकती है। <br /><br />जसवंत सिंह की किताब में विभाजन को लेकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले किरदार खत्म कहां हुए हैं।...वैसे ही किरदार तो अब भी राजनीति और समाज में मौजूद हैं। और उन्हे उसी तरह किताब लिखकर या मीडिया से प्रचारित कर के स्थापित किया जा रहा है। मेरा आपसे सिर्फ यही कहना है कि आप किताब को हर कैनवास में रखकर बताएं। चाहे किताब में कैनवास ना हो, नहीं तो भविष्य में यही बडे नेता हो जाएंगे जो किताब लिखने पर निकाले जा रहे हैं या जो निकाल रहे हैं। <br /><br />तो आप लोग किताब क्यो नहीं लिखते। हम लिखते भी हैं और बताते भी हैं, लेकिन लेखन का धंधा नहीं करते। किस तरह बहुसंख्यक तबके को दरकिनार कर सबकुछ प्रचारित किया जाता है, यह तो आप लालगढ से भी समझ सकते हैं। लालगढ में हमारी ताकत बढी है तो सरकार कह रही है ऑपरेशन सफल हो गया। आप आईये ..देखिये, अंदर गांव में स्थिति क्या है। लेकिन इसी तरह जसवंत की किताब को भी देखिये। यह कह कर किशनजी ने फोन काट दिया।<br /><br />किशन जी वही शख्सन हैं, जिसने लालगढ में आंदोलन खडा किया। असल में किशनजी माओवादी संगठन के पोलित ब्यूरो सदस्य कोटेश्वर राव हैं। यह तथ्य लालगढ में हिंसा के दौर में खुल कर उभरा था। लेकिन सवाल है कि जो तथ्य विभाजन को लेकर नक्सली खींच रहे है, उसपर कोई राजनेता कभी कलम चलायेगा।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-19369278099283967882009-06-22T10:56:00.002+05:302009-06-22T11:00:06.200+05:30"लालगढ को लालगढ तक देखना वैसी ही भूल होगी जैसे माओवादियो को सिर्फ लालगढ में देखना "<strong>माओवादी नेता कामरेड किशनजी से पुण्य प्रसून वाजपेयी की बातचीत<br /></strong><br />लालगढ़ में पुलिस और अर्धसैनिक बलों के आपरेशन शुरु होने के 72 घंटो बाद हालात कितने बदले हैं और माओवादियों की अगली पहल क्या होगी यह सवाल हर किसी के जहन में है। खासकर पहली बार सीपीएम लालगढ़ में माओवादियों के सफाये का सवाल उसी तरह उठा रही है, जैसा कभी नक्सलबाडी में किसानों ने जमींदारो को लेकर उठाया था । जब इन सवालो को मैंने कामरेड किशनजी के सामने रखा तो उनका पहला और सीधा सपाट जबाब यही आया कि "लालगढ को लालगढ तक देखना वैसी ही भूल होगी जैसे माओवादियो को सिर्फ लालगढ में देखना। " कामरेड किशन के इस जबाब के बाद मैने सवाल-दर-सवाल उठाये और जबाब भी बिना किसी लाग लपेट के इस तरह आया जैसे लालगढ युद्द में पुलिस का ऑपरेशन नहीं बल्कि कौई बौद्दिक क्लास चल रही हो।<br /><br /><strong>सवाल- लालगढ को लालगढ तक देखना भूल होगी । इसका मतलब क्या क्या है ।<br /></strong>जबाव- लालगढ पश्चिमी मिदनापुर का हिस्सा है । और इस वक्त मिदनापुर के करीब साढे सोलह हजार गांवो में आदिवासी ग्रामीण सीपीएम सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ने को तैयार है । इन ग्रामीणों की हालत ऐसी है, जहां इनके पास गंवाने के लिये कुछ भी नही है । इन गांवो में खाना या पीने का पानी तक सरकार मुहैया नहीं करा पायी है । सरकारी योजनाओ के तहत मुफ्त अन्न हो या कुएं का पानी । इसके लिये इन्हे सीपीएम काडर पर ही निर्भर रहना पड़ता है । गांव की बदहाली और सीपीएम काडर की खुशहाली देखकर यही लगता है कि इलाके में यह नये दौर के जमींदार है । जिनके पास सबकुछ है। गाड़ी, हथियार, धन-धान्य सबकुछ । लालगढ के कुछ सीपीएम काडर के घरों में तो एयरकंडीशन भी मिला। पानी के बड़े बड़े 20-20 लीटर वाले प्लास्टिक के टैंक मिले । जबकि गांव के कुंओं में इन्होने कैरोसिन तेल डाल दिया जिससे गांववाले पानी ना पी सके । और यह सब कोई आज का किस्सा नहीं है । सालो-साल से यह चला आ रहा है । किसी गांववाले के पास रोजगार का कोई साधन नहीं है । जंगल गांव की तरह यहा के आदिवासी रहते है । यहां अभी भी पैसे से ज्यादा सामानो की अदला-बदली से काम चलाया जाता है । इसलिये सवाल माओवादियों का नहीं है । हमनें तो इन्हे सिर्फ गोलबंद किया है । इनके भीतर इतना आक्रोष भरा हुआ है कि यह पुलिस-सेना की गोली खाने को भी तैयार है । और गांव वालो का यह आक्रोष सिर्फ लालगढ़ तक सीमित नही है ।<br /><br /><strong>सवाल- तो माओवादियो ने गांववालो की यह गोलबंदी लालगढ़ से बाहर भी की है । </strong><br />जबाब- हम लगातार प्रयास जरुर कर रहे है कि गांववाले एकजुट हों। वह राजनीतिक दलों के काडर के बहकावे में अब न आये । क्योकि उनकी एकजुटता ही इस पूरे इलाके में कोई राजनीतिक विकल्प दे सकती है । हमारी तरफ से गोलबंदी का मतलब ग्रामीण आदिवासियों में हिम्मत पैदा करना है, जिन्हें लगातार राजनीतिक लाभ के लिये तोड़ा जा रहा था । सीपीएम के काडर का काम इस इलाके में सिर्फ चुनाव में जीत हासिल करना ही होता है। पंचायत स्तर से लेकर लोकसभा चुनाव तक में सिर्फ चुनाव के वक्त गाववालों को थोड़ी राहत वोट डालने को लेकर मिलती क्योकि इलाके में कब्जा दिखाकर काडर को भी उपर से लाभ मिलता । लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में हमने चुनाव का बांयकाट कराकर गाववालो को जोडा और सीपीएम काडर पर निशाना साधा। उससे सीपीएम उम्मीदवार जीता जरुर, लेकिन उनकी पार्टी में साफ मैसेज गया कि मिदनापुर में सीपीएम की पकड खत्म हो चुकी है । जिसका केन्द्र लालगढ़ है ।<br /><strong><br />सवाल--तो क्या ममता बनर्जी अब अपना कब्जा इस इलाके में देख रही हैं । इसीलिये वह आपलोगों को मदद कर रही हैं । </strong><br />जबाब- ममता बनर्जी क्या देख रही है या क्या सोच रही है, यह तो हम नहीं कह सकते । लेकिन ममता ने नंदीग्राम के आंदोलन में जो सवाल उठाये उसपर हमारी सहमति जरुर है । लेकिन लालगढ में आंदोलन ममता को राजनीतिक लाभ पहुचाने के लिये हो रहा है, ऐसा सोचना सही नहीं होगा । ममता को लेकर हमें यह आशा जरुर है कि वह ग्रामीण आदिवासियो की मुश्किलो को समझते हुये अपने ओहदे से सरकार को प्रभावित करेंगी । लेकिन संघर्ष का जो रास्ता यहा के आदिवासियो ने पकड़ा है, उसे राजनीतिक तौर पर हम राजनीतिक विकल्प के तौर पर देख रहे हैं क्योकि बंगाल की स्थितिया इतनी विकट हो चली है कि लालगढ़ आंदोलन को पूरे राज्य में बेहद आशा के साथ देखा जा रहा है । वामपंथी विचारधारा को मानने वाला आम शहरी व्यक्ति इसमें नक्सलबाडी का दौर देख रहा है ।<br /><br /><strong>सवाल---नक्सलबाडी से लालगढ़ को जोड़ना जल्दबाजी नहीं है।<br /></strong>जबाब---जोड़ने का मतलब हुबहू स्थिति का होना नहीं है । जिन हालातों में सीपीएम बनी और जनता ने कांग्रेस को खारिज कर सीपीएम को सत्ता सौपी । चालीस साल बाद ना सिर्फ उसी जनता के सपने टूटे है, बल्कि सीपीएम भी भटक चुकी है । क्योंकि जिस जमीन-किसान के मुद्दे के आसरे वाममोर्चा तीस साल से सत्ता में काबिज है और जमीन पर खडा किसान लहूलुहान हो रहा है तो उसका आक्रोष कहां निकलेगा । क्योंकि इन तीस सालो में भूमिहीन खेत मजदूरो की तादाद 35 लाख से बढकर 74 लाख 18 हजार हो चुकी है । राज्य में 73 लाख 51 हजार भूमिहीन किसान है । इस दौर में चार लाख एकड़ जमीन भूमिहीनो में बांटने के लिये अधिग्रहित भी की गयी । लेकिन अधिग्रहित जमीन का 75 फिसदी कौन डकार गया, इसका लेखा-जोखा आजतक सीपीएम ने जनता के सामने नहीं रखा । छोटी जोत के कारण 90 फिसदी पट्टेदार और 83 फिसद बटाईदार काम के लिये दूसरी जगहो पर जाने के लिये मजबूर हुये । इसमें आधे पट्टेदार और बटाईदारो की हालत नरेगा के तहत काम मिलने वालों से भी बदतर हालत है। इन्हें रोजाना के तीस रुपये तक नहीं मिल पाते। लेकिन नया सवाल कही ज्यादा गहरा है, क्योकि एक तरफ राज्य में 11 लाख 75 हजार ऐसी वन भूमि है, जिसपर खेती हो नहीं सकती। और कंगाल होकर बंद हो चुके उद्योगों की 40 हजार एकड जमीन फालतू पड़ी है । वहीं किसानी ही जब एकमात्र रोजगार और जीने का आधार है तो इनका निवाला छीनकर सरकार खेती योग्य जमीन में ही अपने आर्थिक विकास को क्यों देख रही है । यही हालात तो नक्सलबाडी के दौर में थे ।<br /><br /><strong>सवाल- लेकिन बुद्ददेव सरकार अब माओवादियो पर प्रतिबंध लगाकर कुचलने के मूड में है ।<br /></strong>जबाव- आपको यह समझना होगा कि सीपीएम का यह दोहरा खेल है । बंगाल में माओवादियों के खिलाफ सीपीएम सरकार का रुख दूसरे राज्यों से भी कड़ा है । हमारे काडर को चुन चुन कर मारा गया है । तीस से ज्यादा माओवादी बंगाल के जेलों में बंद है । अदालत ले जाते वक्त इनका चेहरा काले कपडे से ढक कर लाया-ले जाया जाता है ...जैसा किसी खूखांर अपराधी के साथ होता है । दमदम जेल में बंद माओवादी हिमाद्री सेन राय उर्फ शोमेन इसका एक उदाहरण है । प्रतिबंध लगाना राजनीतिक तौर पर सीपीएम के लिये घाटे का सौदा है क्योकि लालगढ सरीखी जगहों पर गांव के गांव माओवादी हैं। क्या प्रतिबंध लगाकर बारह हजार गांववालो को जेल में बंद किया जा सकता है । लेकिन चुनाव के वक्त चुनावी सौदेबाजी में यह गांववाले सीपीएम को भी वोट दे देते है क्योकि हम चुनाव लड़ते नहीं है । अगर प्रतिबंध लगता है तो गांव के गांव जेल में बंद तो कर नहीं सकते लेकिन पुलिस को अत्याचार करने का एक हथियार जरुर दे सकते है । जिससे सीपीएम के प्रति राजनीतिक तौर पर गांववालो में और ज्यादा विरोध होगा ही । अभी तो आंदोलन के वक्त ही पुलिस अत्याचार होता है । नंदीग्राम में भी हुआ और लालगढ में भी हो रहा है । महिलाओ के साथ बलात्कार की कई धटनाये सामने आयी है । लेकिन प्रतिबंध लगने के बाद पुलिस की तानाशाही हो जायेगी इससे इंकार नहीं किया जा सकता है ।<br /><br /><strong>सवाल- लेकिन काफी गांववाले माओवादियों से भी परेशान है, वह पलायन कर रहे हैं।</strong><br />जबाब- हो सकता है...क्योकि पलायन तो गांव से हो रहा है । लालगढ़ में जिस तरह सीपीएम और माओवादियो के बीच गांववाले बंटे हैं, उसमें पुलिस आपरेशन शुरु होने के बाद सीपीएम समर्थक गांववालो का पलायन हो रहा है...इससे इंकार नहीं किया जा सकता । लेकिन इसकी वजह हमारा दबाब नही है बल्कि पुलिस कार्रवायी सीपीएम कैडर की तर्ज पर हो रही है । जिसमें गांव के सीपीएम समर्थको के इशारे पर माओवादी समर्थकों पर पुलिस अत्याचार हो रहा है । इसलिये अब गांव के भीतर ही सीपीएम समर्थक ग्रमीणो का विरोध हो रहा है । उन्हें गांव छोडने के लिये मजबूर किया जा रहा है । जो गांव छोड रहे हैं, उनसे दस रुपये और एक किलोग्राम चावल भी गांव में बचे लोग ले रहे है । जिससे संघर्ष लंबे वक्त तक चल सके ।<br /><br /><strong>सवाल--आप ग्राउंड जीरो पर है । हालात क्या है लालगढ़ के ।<br /></strong>जबाब-- लालगढ टाउन पर पुलिस सीआरपीएफ ने कैप जरुर लगा लिये हैं । लेकिन गांवो में किसी के आने की हिमम्त नहीं है । आदिवासी महिलाए-पुरुष बच्चे सभी तो लड़ने मरने के लिये तैयार हैं । लेकिन हम खुद नही चाहते कोई आदिवासी - ग्रामीण मारा जाये । इसलिये यह सरकारी प्रचार है कि हमने गांववालो को मानव ढाल बना रखा है । पहली बात तो यह कि गांववाले और माओवादी कोई अलग नही हैं। माओवादी बाहर से आकर यहा नही लड़ रहे । बल्कि पिछले पांच साल में लालगढ में गांववाले सरकार की नीतियो के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं । फिर हमारी तैयारी ऐसी है कि पुलिस चाह कर भी गांव तक पहुंच नहीं सकती है। जंगल में गुरिल्ला युद्द की समझ हमे पुलिस से ज्यादा है । इसलिये पुलिस वहीं तक पहुच सकी है, जहा तक बख्तरबंद गाडियां जा सकती है । उसके आगे पुलिस को अपने पैरो पर चल कर आना होगा ।<br /><br /><strong>आखिरी सवाल- कभी यह अतिवाम सीपीएम में ही थी, अब आमने सामने आ जाने की वजह ।<br /></strong>जबाव--अच्छा किया जो यह सवाल आपने आज पूछ लिया । क्योंकि आज 21 जून को ही बत्तीस साल पहले 1977 में ज्योति बाबू मुख्यमंत्री बने थे । पहली बार जब 1967 मे संयुक्त मोर्चे की सरकार में ज्योति बसु उपमुख्यमंत्री बने । लेकिन 1964 में जो सवाल भूमि को लेकर वाम आंदोलन खडा कर रहा था उसे संयुक्त मोर्चा की सरकार ने जब सत्ता में आने के बाद टाला तो अतिवाम ने सीपीएम के खिलाफ आंदोलन की पहल की । उस वक्त जमीन के मुद्दे पर ज्योति बसु सरकार ने सीपीआई एमएल पर या आरोप लगाया था कि उन्हें अतिवाम धारा ने नीतियो को लागू कराने का वक्त नहीं दिया । अब हमारा सवाल यही है कि जिन बातों को ज्योति बसु ने 42 साल पहले कहा था जब आजतक वही पूरे नहीं हो पाये तो अब और कितना वक्त दिया जाना चाहिये ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-68759264778819149522009-04-20T12:58:00.002+05:302009-04-20T12:59:31.393+05:30राजनीतिक अंधेरे में नक्सली हिंसा के मायनेचुनाव के पहले चरण में बैलेट पर बुलेट दाग कर नक्सलियों ने अपनी पांच साल पहले की उस सोच को ही मूर्त रुप देना शुरु किया है, जिसे एमसीसी और पीडब्लूजी ने मिलकर पाला था। ठीक पांच साल पहले 2004 में बिहार-झारखंड में सक्रिय माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर यानी एमसीसी और आंध्रप्रदेश से लेकर बस्तर तक में सक्रिय पीपुल्सवार ग्रुप यानी पीडब्ल्युजी एक हुये थे। उस वक्त नक्सली संगठनों के अंदर पीडब्ल्यूजी की पहचान हथियारबंद संघर्ष के लिये मजबूत ट्रेनिंग दस्ते का होना था तो एमसीसी की पहचान प्रभावित इलाकों में लोगो को सामूहिक तौर पर जोड़ कर किसी भी हमले को अंजाम देना था। <br /><br />लेकिन, 2004 में जब दोनों संगठन एक हुये और सीपीआई माओवादी का गठन किया तो पहला सवाल दोनों के बीच इसी बात को लेकर उठा कि संसदीय राजनीति के चुनाव में माओवादियों की पहल का तरीका इस तरह का होना चाहिये, जिससे आर्म्स स्ट्रगल में बहुसंख्यक लोगों की भागेदारी नजर आये। सांगठनिक तौर पर संघर्ष के नक्सली तरीकों में आम लोगो की गोलबंदी को एमसीसी ने बखूबी अंजाम देना जहानाबाद जेल ब्रेक से ही शुरु किया । जेल ब्रेक को सफल प्रयोग मान कर माओवादियो ने बीते पांच साल में जो भी प्रयोग किये, उसमें आंध्र के नक्सलियों ने अगर उपरी कमान संभाली तो बिहार झारखंड के नक्सलियों ने जमीनी कमान संभाली । <br /><br />पहले चरण के मतदान के वक्त माओवादियों की यही रणनीति सामने भी आयी । लेकिन माओवादियों की सोच को सिर्फ चुनावी हिंसा से जोडकर देखना भूल होगी । हकीकत में झारखंड, बिहार, उड़ीसा, छत्तीसगढ और महाराष्ट्र के जिन इलाकों में नक्सली हिंसा हुई हैं, वहां की सामाजिक आर्थिक स्थिति के उपर पहली बार राजनीतिक हालात हावी हुये है। यानी पहले नक्सल प्रभावित इलाको में बहस की गुंजाइश विकास को लेकर होती रही। जिसमें रोजगार से लेकर न्यूनतम जरुरतों का सवाल माओवादी उठाते रहे। नक्सली संगठन पीपुल्सवार ने हमेशा इसी नजरिये को राजनीतिक आधार भी बनाया। जिस वजह से राष्ट्रीय राजनीति में हमेशा नक्सली संघर्ष को सामाजिक-आर्थिक समस्या के ही इर्द-गिर्द रखा गया। लेकिन बीते पांच साल में सीपीआई माओवादी ने सामाजिक-आर्थिक मुद्दों से इतर राजनीतिक तौर पर ही अपने प्रभावित इलाकों में हर कार्रवाई शुरु की। जिसका असर आंध्र प्रदेश के तेलागंना, महाराष्ट्र के विदर्भ और छत्तीसगढ के बस्तर से लेकर मध्यप्रदेश, उडीसा, झारखंड बिहार और पश्चिमी बंगाल के हर उस मुद्दे में नजर आया जो राजनीतिक दलों को प्रभावित कर रहा था। <br /><br />तेलांगना में माओवादियों ने शुरु से ही इस प्रचार को आगे बढाया कि वह किसी राजनीतिक दल के साथ नहीं है। और तेलागंना राष्ट्रवादी पार्टी की राजनीति उनकी सोच से अलग है। इस थ्योरी ने माओवादियो की राजनीतिक जमीन झटके में चन्द्रशेखर से अलग की और वायएसआर रेड्डी को भी चेताया कि वह एनटीआर की बोली अन्ना या बडे भाई वाली ना बोले। वहीं, विदर्भ के चन्द्रपुर और गढ़चिरोली में किसानों की आत्महत्या से लेकर उघोगपतियो के मुनाफे को भी उस राजनीति से जोड़ा, जहां सवाल सामाजिक-आर्थिक आधार पर रखकर पिछड़े आदिवासियों का आंकलन ना हो, बल्कि राजनीतिक दलों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा का विद्रूप चेहरा ही उभरे। <br /><br />इसलिये कांग्रेस और बीजेपी की नीतियों के जरीये उनके नेताओं के लाभ का लेखा-जोखा भी इन इलाको में रखा गया। कुछ उसी तर्ज पर छत्तीसगढ में भी माओवादियों की पहल राजनीतिक तौर पर ही हुई, जिसके एवज में सलमा जुडुम को राज्य सरकार ने खड़ा किया। लेकिन माओवादियों ने सलवा-जुडुम के सामानातंर उस राजनीतिक लाभ को इन इलाकों में उभारना शुरु किया जो प्रकृतिक संपदा को निचोड़ कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ कौडियो के भाव जा रहा है। इसी आधार का असर उडीसा में नाल्को के अधिकारियो पर हमले में नजर आया । जबकि झारखंड और बिहार में सीधे राजनेताओ पर निशाना साध कर माओवादियों ने राजनीतिक संदेश देने की ही पहल को आगे बढाया। <br /><br />असल में माओवादियों की नयी थ्योरी कहीं ज्यादा राजनीतिक चेतावनी वाली है । खासकर संसदीय राजनीति के उस तंत्र को वह सीधे चेतावनी देने की स्थिति में खुद को लाना चाहती है, जो अभी तक विकास के अंतर्विरोध के मद्देनजर ही पिछड़े इलाकों में सक्रिय माओवादियो का आईना देश को दिखाती रही है । एसइजेड यानी स्पेशल इकनॉमी जोन की अधिकतर योजनाएं उसी रेड कारिडोर में हैं, जहा माओवादी सक्रिय हैं । लेकिन पहली बार एसईजेड का विरोध सामाजिक-आर्थिक तौर पर करने की जगह माओवादियों ने उसे उसी राजनीति से जोड़ा, जिसकी आर्थिक नीतियों को लेकर आम शहरी जनता में भी सवाल उठ रहे हैं। नंदीग्राम और सिंगुर इस मायने में पारदर्शी राजनीति का प्रतीक है । जहां माओवादियो ने वाम राजनीति के सामानातंर उस प्रतिक्रियावादी राजनीति को आगे बढाया, जिसने वामपंथियों को सत्ता के लिये विचारधारा से उतरते देखा। बंगाल में वाममोर्चा का यह बयान दुरस्त है कि ममता के पीछे माओवादियो का राजनीतिक संघर्ष काम कर रहा है। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं है कि ममता की राजनीति उसी वाम राजनीति का विकल्प है। हकीकत में पहली बार माओवादी राजनीतिक तौर पर उस सोच को खारिज करना चाहते हैं जिसके जरीये यह सवाल खड़ा होता है कि सत्ता अगर बंदूक की नली से नहीं निकलती तो माओवाद की थ्योरी संसदीय राजनीति में सिवाय हिंसा के क्या मायने रखती है। यह सवाल माओवाद के सामने इसलिये भी बड़ा है क्योकि पहली बार केन्द्र सरकार ने नक्सल हिंसा को आंतकवाद सरीखा माना है। जिसे उन्हीं वामंपथियों ने सही ठहराया है, जो एक दशक पहले तक अतिवाम को भटकाव या बड़े भाई के तर्ज पर देखते थे। लेकिन सरकार की इस पहल को भी माओवादियों ने राजनीतिक तौर पर ही उठाया । जिसका असर नंदीग्राम में दिखा । लेकिन चुनाव में वोटिंग के दौरान नक्सली हिंसा लोकतंत्र के खिलाफ की भाषा मानी जायेगी, यह भी हकीकत है । <br /><br />लेकिन, देश की राजनीति का नया सवाल लोकतंत्र के नाम पर राजनीतिक दलों के आम लोगो से गैर सरोकार वाले मुद्दों का उठना भी है और सरोकार के उन मुद्दो को लोकतंत्र का ही नाम लेकर हाशिये पर ढकेल देना भी, जो लोकतंत्र पर ही सवालिया निशान लगाते हैं। मसलन , अपराधियों और बाहुबलियों से कोई राजनीतिक दल नहीं बच पाया है लेकिन इसे मुद्दा नहीं बनने दिया गया। बालीवुड या क्रिकेट खिलाडियों के जरीये राजनीति का गैर राजनीतिक राग हर राजनीतिक दल ने छेड़ा । रोजगार और मंहगाई के निपटने का कोई तरीका किसी दल के पास नहीं है। अगर इन सवालों ने गांव और छोटे शहरो में चुनाव के लोकतंत्र को लेकर वोटरो में सवाल खडे किये हैं तो आंतकवाद के सवाल ने शहरी मतदाताओ के बीच राजनीति को लेकर एक आक्रोष भी पैदा किया है। <br /><br />यह वही परिस्थितयां हैं, जिसमें पहली बार विकल्प का सवाल खड़ा तो हो रहा है लेकिन बिना किसी रास्ते के विकल्प का सवाल सवाल ही बना रह जा रहा है । इसलिये चुनाव के वक्त नक्सली हिसा ने नक्सल प्रभावित इलाको में कुछ नये सवाल पैदा कर दिये हैं। बिना स्थानीय मदद के चुनाव के वक्त हिंसा कैसे संभव है । स्थानीय वोटरों का यह एहसास खत्म हो चुका है कि वह चुनाव के जरीये लोकतंत्र को जीते हैं। राजनीतिक दलों के उम्मीदवार खलनायक माने जाते हैं। हिंसा का अंदेशा जब सरकार और सुरक्षाकर्मियों को भी था तो भी नक्सली कार्रवाई कर कैसे सुरक्षित निकल गये। राजनीतिक दलों ने कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं दी। और सीमा सुरक्षा बल के महानिदेशक को क्यों कहना पडा कि नक्सलियों से निपटने में राज्य सरकारें पूरी तरह विफल रही हैं। और उनसे नक्सल संकट सुलझ भी नही सकता है। असल में माओवादियों के लेकर बड़े सवाल अब शहरी मतदाताओ तक भी पहुंच रहे हैं । क्योंकि जिन राजनीतिक परिस्थियों से वोटर यह जानते समझते हुये गुजर रहा है कि चुनावी लोकतंत्र में उसकी शिरकत सिवाय वोट डालने भर की है। उसमें चुनाव के जरीये सत्ता बनाना या बदलना लोकतंत्र का नही सौदे का हिस्सा है, जो उन्हीं नेताओं के हाथ में है, जिन्हे वह लगातार सवाल उठाता रहा है । यानी चुनावी लोकतंत्र का जो खाका पिछले साठ साल से चला आ रहा है, उसमें राजनीति के जरीये विकल्प के सपनो को संजोना खत्म हो चला है। और माओवाद की नयी राजनीतिक दस्तक चुनावी लोकंतंत्र के टूटे सपने से निकल कर फिर से सत्ता बंदूक की नली से निकलने का अंदेशा जगाना चाह रही है ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-34822875211212041762009-02-26T09:40:00.001+05:302009-02-26T09:40:00.278+05:30राजनीति की नयी लीक राहुल गांधी से लेकर नक्सली गणपति तक<em>("सत्ता सिर्फ बंदूक की नली से नहीं निकलती" पर कई प्रतिक्रियाएं आयीं,जिन्होंने कई सवाल खड़े किये । लेकिन हर में महक विकल्प के खोज की ही नजर आयी। कुमार आलोक, गोंदियाल, विपिन देव त्यागी, कपिल, निरंजन हों या स्वपनिला....आपकी प्रतिक्रियाओं ने मुझे एक नया कंटेट दिया कि मुख्यधारा की राजनीति में ही देश को देखना होगा। मैंने कांग्रेस के राजकुमार और नक्सली नेता गणपति को मिलाकर देखने की कोशिश की है। मुझे लग रहा है समाधान यह दोनों नहीं है लेकिन पहली बार मुख्यधारा की राजनीति सत्ता की खातिर राहुल को गणपति से ज्यादा खतरनाक मानने लगी है। आप पढ़ें पिर चर्चा करेंगे।............)<br /></em><br />" आप युवा हैं और आपके कंधों के सहारे नेता पहले टिकट पाते हैं और फिर गद्दी। नेता सत्ता की मलाई जमकर खाते है और आप यूं ही अंधेरे में गुम हो जाते हैं। इसलिये युवाओं को अब पहल करनी होगी, जिससे उम्र ढलने से पहले वह देश की कमान अपने हाथों में ले सकें। नहीं तो युवा अंधेरे में ही खो जायेगा।"<br /><br />"आप मजदूर हैं और आपकी मेहनत के सहारे ही देश आगे बढ़ता है। आपके खून-पसीने को मलाई में बदलकर मालिक-सरकार जमकर मौज उड़ाते हैं और आप अंधेरे में रहते हैं। इसलिये एक वर्ग की सरकार में बगैर हिस्सेदारी के भी रणनीति के तौर पर कैसे लाभ उठाया जाये, इसे समझना होगा । नहीं तो हम सभी मारे जाएंगे।"<br /><br />पहला वक्तव्य राहुल गांधी का है, जो उन्होंने दिल्ली में एनयूएसआई और यूथ कांग्रेस की सभा में 8 फरवरी 2009 को दिया। वहीं दूसरा वक्तव्य नक्सली संगठन पीपुल्स वार ग्रुप के महासचिव गणपति का है, जो उन्होंने दिसंबर 2008 में दिया था। अपने अपने घेरे में कमोवेश दोनो बयान फार्मूले से हटकर हैं। राहुल का वक्तव्य संसदीय राजनीति की उस परिभाषा से हटकर है, जिसे पिछले साठ साल से तमाम नेता देश को पढ़ा रहे हैं। और गणपति का बयान अल्ट्रा लेफ्ट की उस राजनीति से हटकर है जिसका पाठ माओवादी पिछले चालीस साल से पढ़ रहे हैं। तो क्या देश का मिजाज हर स्तर पर बदल चुका है और जो शून्यता नजर आ रही है वह बदलते परिवेश को बदलने या ना बदले जाने के टकराव को लेकर ही है।<br /><br />कमोवेश संसदीय राजनीति के भीतर राहुल गांधी की मौजूदगी और नक्सली संगठनों के अंदर संघर्ष के बदलते तौर-तरीको ने पहली बार एक नया सवाल खड़ा किया है कि दोनो अपनी उम्र पूरी कर चुके हैं और अब बदलाव जरुरी है। मसला यह नहीं है कि बाजार अर्थव्यवस्था का जो सपना न्यू इकनॉमी के जरिये खड़ा किया गया, उसके ढहने के बाद संसदीय राजनीति का खोखलापन खुलकर सामने आ गया। जहां उसके पास जनवादी सोच के जरिये लोकतांत्रिक पहल करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है बल्कि संवैधानिक तौर पर देश की मजबूती के लिये जो जो खम्भे अलग-अलग संस्थानों के जरिये खड़े किये गये, वह सभी संसदीय राजनीति के दायरे में ढहाये गये । उन्हें इतना निकम्मा बनाया गया कि देश की सुरक्षा को बेचकर मुनाफा कमाने और बनाने की प्रवृति पैदा होती चली गयी।<br /><br />राहुल गांधी का भाषण या उनके राजनीतिक तौर-तरीके साठ साल की संसदीय राजनीति के सामने बचकाने हो सकते हैं। यह कहा जा सकता है कि देश के किसी भी रंग को राहुल ने देखा समझा नहीं है इसलिये दलित के घर रात गुजारना और अगली सुबह पैरा-ग्लाइडिंग करना उनके राजनीतिक नौसिखियेपन को ही उभारता है। जिसमें राहुल ना राजनेता लगते हैं ना बिगडे युवा नेता। लेकिन जो मौजूदा राजनीति चालू है, उसमें किस नेता या किस राजनीति का दामन देश थामना चाहता है , यही सवाल राहुल की दिशा में युवा होने का नया पाठ पढ़ाता है।<br /><br />दूसरी तरफ नक्सली गणपति माओवाद की उस थ्योरी से अलग रणनीति की बात कर रहे हैं जो सत्ता बधूक की नली से निकलती है का पाठ पढती रही। संसदीय राजनीति में घुसे बगैर उसके अंतर्विरोध का लाभ लोगों के आक्रोष को गोलबंद कर ही उठाया जा सकता है। इसलिये मुंबई हमलों में मारे गये शहीद पुलिसकर्मियो को लाल सलाम देने के साथ साथ राजनेताओं को निशाना बनाने के बदले उनके निर्देश पर तैनात पुलिसकर्मियों को ही निशाना बनाने की थ्योरी ने माओवादियो के बीच भी एक नयी बहस शुरु की है। बहस इसलिये क्योंकि जिस संसदीय राजनीति को लेकर आम जनता में आक्रोष है अगर उस राजनीति से सत्ता साधने वाले नेताओं को माओवादी अपने निशाने पर नहीं ले सकते तो बदलाव या विकल्प को कैसे सामने लाया जा सकता है। माओवादियों की सेन्ट्रल कमिटी में पोलित ब्यूरो का एक सदस्य सवाल उठाता है कि पीपुल्स वार ग्रुप के पूर्व महासचिव सितारमैय्या 1987 में आंध्र प्रदेश के सात विधायको का अपहरण करने के बाद यह कहने से नही घबराते की राजनीतिक जरुरत के लिये राजीव गांधी का भी अपहरण किया जा सकता है। लेकिन इस सभा में चर्चा यही आकर खत्म होती है कि नेताओं को लेकर आम जनता के बीच आक्रोष जब संसदीय राजनीति और राज्य सत्ता पर सवालिया निशान खुद-ब-खुद लगा रहा है तो ऐसे में नेताओं को निशाने बनाने का मतलब होगा उनके प्रति जनता की संवेदनाओं को जोड़ना । या फिर माओवादी विचारधारा के खिलाफ लोगों की भावनाओं को जगाने का मौका देना। इससे अच्छा है हर ढहते संस्थान के समानांतर अपने संसथान को खड़ा करना। न्याय देने के लिये गांव गांव में अपनी पंचायत लगाकर तुरंत सुनावई और फैसला देना । यानी सजा भी तुरंत । जिसमें हाथ-पांव तोड़ने से लेकर मौत की सजा और भारी जुर्माने का भी प्रावधान। जंगल नष्ट करने वाले उघोगों और खनिज संपदा समेटकर देश के बाहर लेजाकर मुनाफा कमाने वालो के खिलाफ स्थानीय लोगो को गोलबंद कर आंदोलन की शुरुआत करना । जो बंगाल-उड़ीसा-झारखंड-छत्तीसगढ़ में जारी है। जिले और गांव के विकास के लिये आने वाले सरकारी धन की लूट कर स्थानीय जरुरत के मुताबिक विकास की लकीर खींचना। ट्रेड यूनियन से लेकर सरकारी कामगारों को साथ जोड़ना, जिससे मौका पड़ने पर आंदोलन खड़ा किया जा सके और सरकारी लूट को रोका जा सके। इसलिये सत्ता के तौर तरीको में सुधार की बात कर अतिवाम आंदोलन का घेरा पहले व्यापक करना होगा इसलिये इसे रणनीति के तौर पर उभारने की जरुरत है नही तो हम सभी मारे जायेगे । यह समझ गणपति के जरीय माओवादियो में निकली है।<br /><br />एक तरफ राहुल गांधी की राजनीति समझ में युवा शक्ति के जरीये पांरपरिक संसदीय राजनीति को ढेंगा दिखाना और दूसरी तरफ गणपति की अतिवाम राजनीति में संसदीय राजनीति के सामानांतर सुधारवादी वाम राजनीति का खाका रखने की थ्योरी ने इसके संकेत दे दिये है कि बदलाव का पहला तरीका अपने अपने घेरे में टकराव से ही होना है। पहले बात राजनीति की। पिछले एक दशक में हर राजनीतिक दल ने सत्ता का स्वाद गठबंधन के जरीये चखा। इसलिये 2009 के चुनाव में हर राजनीतिक दल सत्ता में आने के लिये गठबंधन की सौदेबाजी का ही आंकलन ज्यादा कर रहा है कि उसे लाभ कहां-कैसे होगा । सत्ता के सामने विचारधारा की मौत हो चुकी है यह बात गठबंधन से लेकर सत्ता चलाने के दौरान नीतियों के जरीये खूब उभरी है।<br /><br />इन परिस्थितियो में राहुल गांधी का मतलब क्या है। राहुल गांधी के आने का मतलब उस लीक का टूटना है, जिसे अपने अनुकूल जनता पार्टी के प्रयोग से निकले नेता अभी तक चला रहे हैं । यानी 1977 के बाद से देश के सामाजिक-आर्थिक चेहरे में बदलाव आया लेकिन राजनीतिक सत्ता जस की तस चलती रही और उसी अनुरुप समाज को मानना और बनाने की थ्योरी संसदीय राजनीति रखती है। जाहिर है, ऐसे में राहुल की राजनीति का मतलब उन नेताओ का रिटायरमेंट है, जो भारतीय राजनीति के क्षितिज पर ध्रुवतारे की तरह चमक रहे हैं। प्रधानमंत्री से लेकर देश के मुख्य ओहदों के लिये नेताओं की फेरहिस्त तैयार है। कांग्रेस के प्रणव मुखर्जी, चिदबंरम, एंटोनी, कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, शिवराज पाटिल, एसएम कृष्णा सहित कोई भी नाम किसी भी ओहदे पर बैठकर देश चलाने का सपना संजोये हुये है। वहीं, शरद पवार, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, करुणानिधी, पासवान से लेकर कोई भी क्षेत्रीय झंडबरदार देश की बागडोर संभालने के लिये बेकरार है। इन हालात में राहुल गांधी के मैदान में आने के तरीके ने कई सवाल एकसाथ खड़े किये हैं। क्योकि राहुल गांधी अगर सत्ता में आ जाते हैं तो उनका काम करने का तरीका जाहिर तौर पर उस प्रक्रिया सरीखा नहीं होगा, जहां दिल्ली से चला एक रुपया गांव तक पहुंचते पहुंचते छह पैसे में बचा रहे। देश की सुरक्षा के लिये हथियार खरीदी से लेकर आत्महत्या करते किसानों की जान बचाने के लिये पैकेज देने का जो तरीका अभी तक अपनाया जाता रहा है जाहिर है, वह बदल जायेगा । यानी कमेटियों और संस्थाओं के निरीक्षण-परिक्षण में ही कई साल गुजरते है और उसके बाद जो राशि निर्धारित होती है उसी की कीमत निर्धारित से कई गुना ज्यादा हो चुकी होती है। जाहिर है, राहुल के सत्ता में आने का मतलब महज युवाओं को सत्ता से जोड़कर देश चलाने का सपना जिलाना नहीं है। पहली बार परंपराओं से इतर राजनीतिक प्रक्रिया को चलाना होगा जो परिणाम दे। यह अच्छा-बुरा दोनो हो सकता है। लेकिन राहुल के तरीके नये और चौकाने वाले होगे क्योकि जो अपराध और भष्ट्राचार संसदीय राजनीति में घुस चुका है और पीढियों के लिये पूंजी बनाने से लेकर राजनीतिक जगह बनाने तक के लिये जद्दोजहद कर रही है, उसे युवा तबका तत्काल खारिज करेगा।<br /><br />इसीलिये 2009 के चुनाव संसदीय राजनीति के लिये मील का पत्थर सरीखा है। क्योंकि गठबंधन के तौर तरीके उन नेताओं को एक साथ लेकर आयेगे जो राहुल के सत्ता में आने के साथ ही रिटायर होने की स्थिति में आयेंगे । राहुल गांधी को रोकना उस संसदीय राजनीति की जरुरत है जो विशेषाधिकार की सत्ता बनाती है और जिसके घेरे में आने के लिये हर तरह के अपराधी बैचेन रहते है। 14 वीं लोकसभा इस सोच का ही प्रतीक है । इसमें सौ से ज्यादा सांसद ऐसे थे, जिनपर अपराध का कोई ना कोई मामला चल रहे हो।<br /><br />लेकिन संसदीय राजनीति का विकलप राहुल दे नहीं पाएंगे । बल्कि युवा पीढी के जरीये सत्ता विरासत की राजनीति को हवा देगी, यह भी सच है । क्योंकि युवा की तादाद देश के चालीस करोड वोटर के तौर पर है लेकिन नेता के तौर पर राहुल के साथ राजेश पायलट के बेटे से लेकर सिंधिया और मुरली देवडा के बच्चे हैं। यही हाल पवार की बेटी से लेकर मुलायम के बेटे का है। जिसकी लकीर कश्मीर में फारुख अब्दुल्ला और पंजाब में प्रकाश शिंह बादल ने अपने अपने बेटों के जरीये खिंच कर दिखा दी है। राजनीतिक तौर पर विचारधारा की मौत संयोग से उसी दौर में हुई है जिस वक्त मुनाफे के लिये सबकुछ बाजार व्यवस्था पर टिका और फिर वह खुद ढह गया।<br /><br />सत्ता ने संसदीय राजनीति में लेफ्ट - राइट की बहस को ही बेमानी करार दिया । ऐसे में संसदीय राजनीति से इतर कहीं एक आस तो माओवादियों ने उन इलाको में दिखायी जो संसद की राजनीति और विकास की लकीर में हाशिये पर रहे। लेकिन पहली बार विचारधारा के सन्नाटे में कहीं ज्यादा घुप अंधेरा अतिवाम की राजनीतिक पहल में भी उभरा। जिस राजनीति के अंतर्विरोध को रणनीति के तौर पर साधने की पहल माओवादी गणपति ने कहीं उस दौर में नक्सल को लेकर सरकार का रवैया सामाजिक-आर्थिक समस्या से इतर कानूनी तौर पर आंतकवाद के सामानांतर मान लिया गया। सरकार ने जब नक्सलियों को आतंकवादी माना, उसी दौर में नक्सलियों के बीच सरकार के वैचारिक शून्यता को भरने की बहस गूंज रही है।<br /><br />पहली बार केन्द्र सरकार ने कानून बनाकर नक्सलियो को भी उस घेरे में लाने की पहल की, वहीं नक्सलियो के बीच यह सवाल उठा कि नक्सली आंदोलन कमजोर पड़ने की वजह सिर्फ बंदूक की भाषा को समझना है। गणपति ने माओवादियों के बीच यह सवाल उठाय़ा। पिछले डेढ़ दशक में नक्सलियों को सिर्फ सत्ता की बंदूक से बचाने के लिये ही समूची रणनीति बनानी पड रही है । इसलिये उनका आंदोलन सिमटा है लेकिन अब विस्तार के लिये जरुरी है सत्ता बंदूक की नली से निकलती है कि थ्योरी को उलट कर सत्ता की कमजोर नली को ही हथियार बनाया जाये।<br /><br />सवाल यही है कि क्या राजनीति इतनी पोपली हो चुकी है, जहां राहुल गांधी के तेवर उन नेताओं को खारिज करने से नही चुक रहे, जिन्हे लगता है देश अब भी वही चला सकते है और माओवादी नेता गणपति उन्हीं नेताओ को बरकरार रख नक्सली जमीन मजबूत करना चाहते है, जिनके खिलाफ आम लोगो में आक्रोष है और जिन्हें राहुल खारिज कर रहे है। कहीं यह क्रातिकारी बदलाव के संकेत तो नहीं हैं?Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-59273247051148038472009-02-17T11:09:00.002+05:302009-02-17T11:26:26.725+05:30“सत्ता सिर्फ बंदूक की नली से नहीं निकलती”संसदीय राजनीति युवा तबके के जरिए अपनी पस्त पड़ती राजनीति को ढाल बनाना चाहती है। वहीं एक दौर में युवाओं के सपनों को हवा देने वाली वामपंथी समझ थम चुकी है। और इन सबके बीच अपनी जमीन को लगातार फैलाने का दावा करने वाली नक्सली राजनीति के पास वैकल्पिक व्यवस्था का कोई खाका नही है। कुछ ऐसी ही वैचारिक समझ लगातार उभर रही है, जिसमें पहली बार माओवादियों की चिंता अपने घेरे में उभर रही है कि उनकी समूची राजनीति व्यवस्था का बुरा असर उन पर भी पड़ा है। और इसकी सबसे बड़ी वजह विकल्प की स्थितियों को सामने लाने के लिये सकारात्मक प्रयोग की जगह राज्य से दो-दो हाथ करने में ही ऊर्जा समाप्त हो रही है। खासकर पिछड़े और ग्रामीण इलाकों के लोगों को जिन वजहों से सत्तर-अस्सी-नब्बे के दशक तक साथ में जोड़ा जाता था, अब वह सकारात्मक प्रयोग संगठन में समाप्त हो गये है।<br /><br />वह दौर भी खत्म हो गया जब क्रांतिकारी कवि चेराबंडु राजू से लेकर गदर तक का साहित्य भी आम लोगों की जुबान में आम लोगों की परेशानियों को व्यक्त करता था। जिससे ग्रामीण आदिवासी खुद को अभिव्यक्त करने के लिये आगे आते थे। लेकिन गदर के गीत क्रांतिकारी गीतों की शृंखला में आखिरी साहित्य साबित हुये हैं। फिर जीने की परिस्थितियों में भी लगातार बदलाव हुआ है, इसलिये माओवादियों के सामने सबसे बड़ा संकट यही हुआ है कि वह किस तरह जमीन के सवालों को उठाये जिससे जमीन के लोग उनसे जुड़ते जाएँ।<br /><br />चूँकि बैठक में एमसीसी और पीपुल्स वार के माओवादियों की मौजूदगी थी, जिनका पाँच साल पहले विलय हो चुका है। लेकिन दोनों ने अपनी जमीन बिहार-झारखंड और आंध्रप्रदेश-महाराष्ट्र की अगुवाई नहीं छोड़ी है, इस वजह से इन्हीं प्रदेशों में आम लोगों को साथ लाने के लिये साहित्य-गीत-कविता की स्थानीय महक को क्रांतिकारी मुलम्मे में चढ़ा कर कैसे रखा जाये, जिससे लोग जिन्दगी के साथ जुड़ते चले जाये - समूची बहस इसी पर आ टिकी। माओवादियों ने चेराबंडु राजू की उन कविताओं का जिक्र भी किया जो चंद लाइनों में व्यवस्था पर सवाल उठाता था। 1965 में लिखी उनकी कविता... मेरा मुकदमा ऐसा नहीं है कि उसका फैसला / काले कोट वालों को नीली करेंसी नोट देकर / किसी एक देस की किसी अदालत में हो जाये / मुझे गवाह के कटघरे में आने दो। या फिर 1968 में लिखी कविता जिसका पाठ उन्होंने तिरुपति के छात्रों के बीच किया था- ऐसी करुणा तेरी, / जो सूखी छाती से चिपकी रहे,/ बच्चों को न दे सके सांत्वना,/ भूखों मरने तक की हालत में, / यह उधार गहनों की चकाचौंध,/ क्या कहना! माँ भारती बोलो तो, / क्या तेरा लक्ष्य है? कैसा आदर्श है? बन्देमातरम्! बन्देमातरम्! नक्सलियों में सवाल यह भी उठ रहा है साहित्य और क्रांति को एक साथ लेकर चलने में स्थितियाँ कब-कैसे बदलती चली गयी, इस तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया।<br /><br />हाल में साहित्योत्तर स्थितियों को दुबारा जगाने के लिये माओवादियों ने एक संगठन भी बनाया। लेकिन आंध्र प्रदेश के अलावा किसी राज्य में इस संगठन को चलने नहीं दिया गया और साहित्य से ज्यादा उसस जुड़े लोगों को नक्सली मान कर जेल में ठूँसा गया। जिससे हर आगे बढ़ा कदम पीछे हुआ।<br /><br />माओवादियो की यह बहस उन परिस्थितियों को भी टटोल रही थी कि आखिर जो सरकार एक दशक पहले तक नक्सलवाद को सामाजिक-आर्थिक समस्या के आईने में देखती थी, वही अब आंतकवाद के सामानांतर क्यों देख-समझ रही है। खासकर संसदीय राजनीति को लेकर आम वोटर जब सवाल कर रहा और राजनेताओं को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है, तब माओवादियों की पहल किस तरह होनी चाहिये। क्योंकि बढ़ती आंतकवादी हिंसा के दौरान हर तरह की हिंसा को जब एक ही दायरे में रखा जा रहा है, तब कौन से तरीके होने चाहिये जो विकल्प का सवाल भी उठाये और विचारधारा के साथ राजनीति को भी जोड़े। माओवादियो के सामने वैचारिक तौर पर आर्थिक नीतियों को भी लेकर संकट उभरा है।<br /><br />पिछले डेढ़ दशक के दौरान आर्थिक सुधार को लेकर सरकार पर हमला करने की रणनीति लगातार माओवादियो ने अपनायी। वामपंथी जब यूपीए सरकार में शामिल हुये तो बंगाल में ही माओवादियों ने अपनी जमीन मजबूत की। निशाना आर्थिक नीतियों को लेकर ही रहा। लेकिन आर्थिक नीतियों को लेकर जो फुग्गा या कहें जो सपना दिखाया गया बाजार व्यवस्था के ढहने से वह तो फूटा लेकिन माओवादियों के सामने बड़ा सवाल यही है कि आर्थिक नीतियों ने उन्हें आम जनता के बीच पहुँचने के लिये एक हथियार तो दिया था लेकिन अब विकल्प की नीतियों को सामने लाना सबसे बड़ी चुनौती है। इसका कोई मजमून माओवादियों के पास नहीं है। खासकर जिन इलाकों में माओवादियो ने अपना प्रभाव बनाया भी है, वहाँ किसी तरह का कोई आर्थिक प्रयोग ऐसा नहीं उभरा है, जिससे बाजार अर्थव्यवस्था के सामानांतर देसी अर्थव्यवस्था अपनाने का सवाल उठा हो। यानी खुद पर निर्भर होकर किसी एक क्षेत्र को कैसे चलाया जा सकता है, इसका कोई प्रयोग सामने नहीं आया है। नया संकट यह भी है कि अंतर्राष्ट्रीय तौर पर माओवादी आंदोलनों की कोई रुपरेखा ऐसी बची नही है जो कोई नया कौरिडोर बनाये। नेपाल में माओवादियों के राजनीतिक प्रयोग को लेकर असहमति की एक बड़ी रेखा भी इस बैठक के दौरान उभरी। लेकिन सामाजिक तौर पर माओवादियों के सामने बडा संकट उन परिस्थितियों में अपनी पैठ बरकरार है जहाँ राजनीतिक तौर पर उन्हें खारिज किया जा रहा है। संसदीय राजनीति से इतर किस तरह की व्यवस्था बहुसंख्यक तबके के लिये अनुकूल होगी, माओवादियों के सामने यह भी अनसुलझा सवाल ही बना हुआ है। इसीलिये जो चुनौती सामने है उसमें बड़ा सवाल यह भी उभर रहा है कि दो दशक पहले जिन इलाकों में माओवादियों ने अपना प्रभाव लोगो में जमाया अब उनके सवालों का जबाब देने से ज्यादा सवाल माओवादियों के सामने खुद को टिकाये रखने के हो गये है। इसलिये पहली बार इस असफलता को भी माना गाया कि राजनीतिक क्षेत्र में ट्रेड यूनियन का खात्मा होने से बाजार व्यवस्था के ढहने के बाद शून्यता पैदा हो गयी है। मजदूरों को लेकर एक समूची व्यवस्था जो वामपंथी मिजाज के साथ बरकरार रहती और राज्य व्यवस्था को चुनौती देकर बहुसंख्य्क जनता को साथ जोड़ती, इस बार उसी की अभाव है। पहली बार ग्रामीण और शहरी दोनों स्तर पर राज्य को लेकर आक्रोष है।<br /><br />पहली बार अशिक्षित समाज और उच्च शिक्षित वर्ग भी विकल्प खोज रहा है। खासकर अपनी परिस्थितियों में उसके अनुकूल नौकरी से लेकर आर्थिक सहूलियत का कोई माहौल नहीं बच पा रहा, तो भी वामपंथी और माओवादियों दोनों इसका लाभ उठाने में चूक रहे हैं। माओवादियों के भीतर पहली बार इस बात को लेकर कसमसाहट कहीं ज्यादा है कि देश का बहुसंख्यक तबका विकल्प तलाश रहा है और दशकों से विकल्प का सवाल उठाने वालों के पास ही मौका पड़ने पर कोई विकल्प देने के लिये नहीं है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com13