tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-63114062433699465952009-07-13T13:19:00.002+05:302009-07-13T13:20:18.903+05:30कांशीराम का चमचा युग और मायावती का मिशनसैनिक स्कूल में शिक्षा पाये डां आंबेडकर जीवनभर कहते रहे, बगैर शिक्षा के सारी लड़ाई बेमानी है। आंबेडकर को भी शिक्षा इसीलिये मिल गयी क्योंकि वह एक सैनिक के बेटे थे। और ईस्ट इंडिया कंपनी का यह नियम था कि सेना से जुड़ा कोई अधिकारी हो या कर्मचारी उनके बच्चों को अनिवार्य रुप से सैनिक स्कूल में शिक्षा दी जायेगी। आंबेडकर के पिता रामजी सकपाल सैनिक स्कूल में हेडमास्टर थे और रामजी सकपाल के पिता मालोंजी सकपाल सेना में थे। हालांकि 1892 में महारो के सेना में शामिल होने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। लेकिन इस कडी में आंबेडकर तो शिक्षा पा गये मगर दलित संघर्ष में शिक्षा प्रेम की यह लड़ाई मायावती तक पहुंचते पहुंचते कांशीराम के उस चमचा युग को ही जीने लगी है, जिसमें दलित ही सत्ता का चमचा हो जाये और दलित संघर्ष ही कमजोर हो।<br /><br />आंबेडकर से मायावती वाया कांशीराम का यह रास्ता करीब सत्तर साल बाद दलित को उसी मीनार पर बैठाने पर आमादा है, जिस पर हिन्दुओं को बैठ देखकर आंबेडकर संघर्ष की राह पर चल पड़े थे। सत्ता कैसे चमचा बनाती है और कैसे किसे औजार बनाती है, इसे मायावती की सत्ता के अक्स में ही देखने से पहले औजार और चमचा की थ्योरी को समझना भी जरुरी है।<br /><br />डा. आंबेडकर की पूना पैक्ट पर प्रतिक्रिया थी, यदि चिर-परिचित मुहावरों में कहना हो तो हिन्दुओं के लिहाज से संयुक्त निर्वाचक मंडल "एक सडा गला उपनगर" है, जिसमें हिन्दुओं को किसी अछूत को नामांकित करने का ऐसा अधिकार मिला हुआ है, जिसमें उसे अछूतों का प्रतिनिधि तो नाममात्र के लिये बनाये लेकिन असलियत में उसे हिन्दुओ का औजार बना सके। वहीं कांशीराम ने आंबेडकर की इसी प्रतिक्रिया को चमचा युग से जोड़ा । कांशीराम के मुताबिक , "चमचा एक देशी शब्द है जो ऐसे व्यक्ति के लिये प्रयुक्त किया जाता है जो अपने आप क्रियाशील नहीं हो पाता बल्कि उसे सक्रिय करने के लिये किसी अन्य व्यक्ति की आवश्यक्ता पड़ती है। वह अन्य व्यक्ति चमचे को सदैव अपने व्यक्तिगत उपयोग और हित में अथवा अपनी जाति की भलाई में इस्तेमाल करता है। जो स्वयं चमचे की जाति के लिये हमेशा नुकसानदेह होता है।"<br /><br />मायावती इस सच को ना समझती हो ऐसा हो नही सकता । लेकिन बहुजन के संघर्ष से सर्वजन की सोशल इंजिनियरिंग का खेल मायावती की सत्ता कैसे औजार और चमचो में सिमटी है यह समझना जरुरी है । मायावती सत्ता चलाने में दक्ष है इसलिये अपने हर कदम को राज्य के निर्णय से जोड़कर चलती है । बुत या प्रतिमा प्रेम मायावती का नहीं राज्य का निर्णय है, इसलिये सुप्रीम कोर्ट भी मायावती की प्रतिमाओ को लगाने से नहीं रोक सकता । चूंकि आंबेडकर-कांशीराम-मायावती के बुत समूचे राज्य में अभी तक जितने लगे है, अगर उनकी जगहो पर आंबेडकर की शिक्षा पर जोर देने वाले सच के दलित उत्थान को पकड़ा जाता तो संयोग से राज्य में उच्च शिक्षा के लिये अंतर्राष्ट्रीय स्तर की तीन यूनिवर्सिटी और राज्य के हर गांव में एक प्राथमिक स्कूल खुल सकता था। लेकिन बुत लगाना कैबिनेट का निर्णय है और कैबिनेट राज्य की जरुरत को सबसे ज्यादा समझती है, क्योंकि जनता ने ही इस सरकार को चुना है, जिसकी कैबिनेट निर्णय ले रही है तो सुप्रीम कोर्ट क्या कर सकता है ।<br /><br />लेकिन कैबिनेट का निर्णय अगर इतनी मोटी लकीर खिंचता है तो इसे मिटाने वाले के साथ सौदेबाजी का दायरा कितना बड़ा हो सकता है। मायावती की कैबिनेट ने ही राज्य के स्कूलो में फीस न बढ़ाने का निर्णय लेते हुये हर निजी स्कूल को चेताया की अगर उसने फीस बढ़ायी तो इसे लोकहित के खिलाफ और राज्य के निर्णय के खिलाफ उठाया गया कदम माना जायेगा। लेकिन देश के सबसे अव्वल निजी शिक्षा संस्थान होने का दावा करने वाले ऐमेटी इंटरनेशनल से लेकर करीब दर्जन भर निजी शिक्षा संस्थानों ने कैबिनेट के निर्णय को ताक पर रखकर ना सिर्फ फीस वसूलनी जारी रखी है, बल्कि उसमें वह एरियर भी जोड़ दिया जिसपर दिल्ली तक में रोक लगायी जा चुकी है।<br /><br />सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट कैबिनेट के निर्णय पर हाथ खड़े कर देता है और निजी शिक्षा संस्थान कैबिनेट के निर्णय को ढेंगा दिखा देते है । असल में मायावती का यही सलिका कांशीराम के दलित संघर्ष के तौर तरीको को ढेंगा दिखाते हुये सत्ता के लिये राजनीतिक चमचो से होते हुये सत्ता चलाने के लिये नौकरशाही चमचे तक पर जा सिमटा है। कांशीराम कहते है, कोई औजार,दलाल,पिठ्टू अथवा चमचा इसलिये बनाया जाता है ताकि उससे वास्तविक और सच्चे संघर्षकर्ता का विरोध कराया जा सके । बीसवीं शताब्दी की शुरुआत से ही दलित वर्ग छुआछुत और अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़ा हुआ था। शुरुआत मे उनकी उपेक्षा की गयी किन्तु बाद में जब दलित वर्गो का सच्चा नेतृत्व प्रबल और शक्तिसंपन्न हो गया तो उनकी उपेक्षा नहीं की जी सकती थी। इस मुकाम पर उच्च जातीय हिन्दुओं को दलित वर्गो के विरुद्द चमचों को उभारने की जरुरत महसूस हुई। मायावती ने कांशीराम के इस थ्योरी को बहुजन से सर्वजन के तौर पर उभार कर अपने बूते सत्ता पा कर दिखाला दी। लेकिन यहां कांशीराम की गढी राजनीतिक मायावती भी बूत ही निकली। क्योंकि मायावती ने कांशीराम के चमचा थ्योरी को अपनाया तो जरुर लेकिन दलितों का भला करने के लिये नहीं बल्कि अपने राजनीतिक कद को चमचों के बीच ऊंचा करने के लिये, जिसमें बिना चमचों के कद मायने नहीं रखेगा इस एहसास को मायावती ने दिल - दिमाग दोनो में समा लिया । इसलिये राजनीतिक तौर पर अगर चमचा भी नेता और नेता भी चमचा लगने लगा तो मायावती ने इसे अपनी पहली जीत मान ली । लेकिन सत्ता चलाने के तौर तरीको में मायावती नेता की जगह व्यवस्था बन गयी । यानी जिस मायावती को सत्ता में आने व्यवस्था को एक राजनीतिक दिशा देनी थी वही मायावती चमचो के धालमेल की तरह व्यवस्था और नेता के घालमेल में भी जा उलझी ।<br /><br />समझ यही बनी जब मायावती का निर्णय कैबिनेट का निर्णय है तो मायावती सरीखा निर्णय ही राज्य का निर्णय है। इसलिये फीस बढोतरी रोकने के लिये कैबिनेट के निर्णय को लागू कराने का अधिकार हर जिला अधिकारी को सौपा गया । लेकिन जिला अधिकारी के टालमटोल रवैये से यह भी झलका कि इस निर्णय का मतलब निजी स्कूलो से धन की उगाही है। तो उसने कैबिनेट के निर्णय को खाली पोटली को भरने वाला मान लिया जाये। हालांकि ‘कार्रवाई होनी चाहिये’ वाला भाव जिला अधिकारी का भी रहा । शिक्षा निदेशक ने इसे कैबिनेट का निर्णय बताकर खामोश रहना ही बेहतर समझा । लेकिन जब कैबिनेट का निर्णय लागू होना चाहिये का सवाल उभरा तो शिक्षा निदेशक ने मायावती का आदेश ना मानने की गुस्ताखी करने वाले के खिलाफ मायावती के ही दरवाजे पर दस्तक देने की अपील की। जब यही सवाल माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के मंत्री रंगनाथ मिश्रा से पूछा गया कि कैबिनेट के निर्णय का उल्लंघन कोई कैसे कर सकता है और उल्लंघन करने वाले के खिलाफ कार्रवाई कौन करेगा तो फिर सवाल उभरा कि यह तो मायावती का फैसला है । इसका उल्लघंन कोई कैसे कर सकता है। फिर जिलाधिकारी को तो तत्काल कार्रवाई करनी चाहिये। लेकिन आखिर में मंत्री के माध्यम से भी मामला बैठक और दिशा-निर्देश में ही खो गया।<br /><br />सवाल है कि कैबिनेट का निर्णय भी मायावती का और लागू ना होने पर कार्रवाई भी मायावती ही करे...तो मायावती हैं कहां । मायावती ही व्यवस्था हैं,मायावती ही राज्य है । फिर राज्य चला कौन रहा है और कांशीराम ने जिस मायावती को गढ़ा वह मिशनरी है कांशीराम के चमचा युग की प्रतीक । क्योंकि दोनो का अंतर कांशीराम ने यह कहते हुये साफ किया था कि , " कुछ लोग मिशनरी व्यक्तियों को चमचा समझने की भूल कर बैठते हैं। जबकि दोनो विपरित ध्रुवों के होते है। किसी चमचे को उसके समुदाय के विरुद्द प्रयोग किया जाता है। जबकि किसी मिशनरी को उसके अपने समुदाय की भलाई के लिये प्रयोग किया जाता है। कह सकते है चमचा अपने समुदाय के सच्चे और वास्तविक नेता को कमजोर करता है और मिशनरी अपने समुदाय के सच्चे नेता को मजबूत करता है। "<br /><br />जाहिर है कांशीराम के चमचा युग की थ्योरी तले मायावती का मिशन राजनीति की नयी विधा है यह सही है या गलत यह निर्णय उसी जनता को करना है जिसने मायावती को सत्ता तक पहुंचाया। क्योंकि सिर्फ दलित संघर्ष से जोडकर मायावती को देखने का मतलब है कैबिनेट का कोई ना कोई निर्णय जो कही हजारों करोडं रुपयों के बुत में उलझेगा या फिर करोडों रुपयों के जरीये कैबिनेट को ही खारिज करेगा ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-8334250695453172222009-05-26T12:46:00.002+05:302009-05-26T12:47:21.216+05:30बादलपुर का दर्द और मायावती की मखमली चादरचुनाव परिणाम आने के 48 घंटे बाद मायावती के गांव बादलपुर के निवासी रामप्रवेश से जब मैंने चुनाव में बीएसपी को मिली शिकस्त पर सवाल पूछा तो बिना कुछ बोले रामप्रवेश ने अपनी अंगुली मायावती के घर की तरफ उठा दी। रामप्रवेश का घर मायावती की इमारत के पीछे करीब पांच सौ मीटर की दूरी पर है। जहां से मायावती का बंगला साफ दिखायी देता है। खपरैल और कच्ची मिट्टी में ईंट के सहारे बने रामप्रवेश के घर से मायावती का बंगला पत्थर से बना दिखता है। हांलाकि यह कमाल रंग-रोगन का भी है। <br /><br />खैर मायावती के बंगले की तरफ उठी रामप्रवेश की अंगुली को देखकर मैंने फिर पूछा- इसमें इस बंगले का क्या कसूर। रामप्रवेश ने बिना बोले अंगुली उन घरों की तरफ उठा दी, जो कुकरमुत्ते की तरह बंगले के इर्द-गिर्द नजर आ रहे थे। तभी रामप्रवेश की पत्नी ननकी घर से बाहर निकली और मेरे सवाल पूछते ही बिदक गयीं। हर सवाल के सैकड़ों जबाब उसके पास थे। लेकिन चुनाव में मायावती की खस्ता हुई हालत पर एक ही टिप्पणी थी, जो बोओगो, वही काटागे। इस सवाल का जबाब बादलपुर की गलियों में लगातार घूमते हुये मैं भी टटोलता रहा कि मायावती ने ऐसा बोया क्या जो चुनावी परिणाम में उसे वही काटना पड़ रहा है। <br /><br />नुक्कड पर पुलिस पिकेट के सामने चाय की चुस्कियो के बीच बार बार मैंने यह सवाल चाय पीने वालो के बीच सीधे उछाला कि मायावती का चुनाव परिणाम तो वैसे ही है, जैसे जो बोया वही काटने को मिला । मैंने देखा विरोध किसी ने किया नहीं । हां, चुनावी तिकड़म के इस सच को सभी बताने से नहीं चूके की बहनजी के पास हर कोई टिकट के लिये इसीलिय चल कर आता है, क्योकि हमारा वोट हाथी पर ही लगता है। हम भी जानते है और बहनजी भी कि हाथी का रिश्ता चुनाव का नही बहुजन का है। लेकिन बहनजी ने ऐसा क्या बोया जो चुनाव परिणाम दगा दे गये , इस सवाल पर चाय पीने बालों से हटकर चाय बनाकर पिलाने वाले जगत ने केतली में उबलते पानी को दिखाकर मुझ पर ही सवाल ठोंका कि अगर बाल्टी में पडी इस सडी चाय पत्ती को पानी में दुबारा डाल दे तो फिर आप इस दुकान पर चाय पीने आओगे। फिर खुद ही कहा जब स्वाद आयेगा नही तो आओगे नहीं और उसपर प्लास्टिक के कप की जगह चमकती प्याली में भी चाय दे दू तो प्याली का झटका तो एक बार ही खाओगे ना। जगत रुका नही कि करीब अस्सी साल के बुजुर्गवार बीडी फूंकते हुये बोले, जीत-हार से जिन्दगी नहीं संवरती। कांशीराम चुनाव को हथियार बनाये थे, बहनजी हथियार को ही चुनाव माने बैठी हैं। <br /><br />जाहिर है बातचीत में चुनाव और हथियार पर भी चर्चा शुरु हुई, जिसमें बहुजन से सर्वजन को चुनावी हथियार बनाने को लेकर भी कई तरह के सवाल उठे लेकिन मायावती की राजनीतिक धार जिस राजनीतिक अंतर्विरोध को पकड कर लाभ उठाती है, उसमें अगर कोई दूसरा मायावती के अंतर्विरोध को ही अपना हथियार बना ले तो मायावती क्या करेगी। <br /><br />इस सवाल पर बादलपुर की आंखो के सामने कांशीराम के न होने का दर्द और मायावती के भटकने की त्रासदी पहली बार दिखी। मायावती का उत्तरप्रदेश में जनाधार बहुत ज्यादा सिकुड़ा हो ऐसा भी नहीं है । राष्ट्रीय स्तर पर भी मायावती को मिलने वाले वोट में दशमलव का ही अंतर आया है । लेकिन पहली बार मायावती का चुनावी हथियार ही अगर उन हाथों को पूरी तरह ट्रेंड नहीं पा रहा है जो हथियार चला रहे है , तो सवाल गहरा है। इसमें दो मत नही कांशीराम ने आंबेडकर के उस राजनीतिक मुहावरे को कई बार कहा कि चुनावी राजनीति साधन है, साध्य नहीं। लेकिन मायावती ने सत्ता को साध्य माना यह भी अबूझ नहीं है। मायावती ने उस भोक्तावादी समाज को भी पकडने की कोशिश की जिसको लेकर अंबेडकर और कांशीराम दोनो यह कहने से नहीं चूके कि दलित राजनीति को उन मुद्दों से अलग नहीं किया जा सकता जो दैनन्दनी से जुडे हों और समाज के भीतर उसको लेकर प्रतिस्पर्धा हो। आंबेडकर चाहते थे कि दलितो के भौतिक पक्षो को भी नेतृत्व देखें। लेकिन कांशीराम की राजनीति ने जिस तरह इसकी अनदेखी की उससे दलित समस्याएं रहस्मय बनती चली गयी। वहीं मायावती की भौतिकवादी समझ उस पूंजी पर टिकी जिसने चुनावी तिकडमो को तो जुबान दी लेकिन दलित आंदोलन में जीवन के वास्तविक मुद्दो को लेकर एक तरह की अरुचि पैदा कर दी। हो सकता है बादलपुर के रामप्रवेश की अंगुली इसीलिये मायावती के बंगले की तरफ उठी होगी। <br /><br />असल में दलित राजनीति की यह कमजोरी आंबेडकर से लेकर मायावती तक पहुंचते पहुंचते ऐसा रुप धारण कर लेगी, जहां संघर्ष और मुद्दों को भी भौतिकता के आधार पर टटोला जायेगा, यह किसी ने सोचा ना होगा । लेकिन न्यू इकनामी में जिस तरह समाज के भीतर जातीय बंधनो से इतर भी सामाजिक संबंध बनने लगे, वह गौरतलब है। युवा दलित पहचान के लिये दलित पैंथर की लीक पकडने के बदले अब उस धारा को पकड़ना चाह रहा है, जो वर्ग और जाति को तोडकर पूंजी प्रेम में समा रहे हैं। यह युवा मायावती की राजनीति पर सवाल नहीं करता लेकिन मायावती की तर्ज पर अपने घेरे में सौदेबाजी करने से भी नही चूकना चाहता। मनमोहन की अर्थव्यवस्था में समाने के बाद वह अपनी सौदेबाजी का दायरा सामाजिक और राजनीतिक दोनो तौर पर बठता हुआ देख रहा है। इसलिये बादलपुर का युवा बीएसपी को वोट डालने के बावजूद मनमोहन की जीत में अपना नफा-नुकसान टटोलने लगा है। ग्रेजुएट राधव और बलवान यह कहने से नहीं कतराते कि मंदी में शेयर बाजार को एनडीए उस तरह नहीं संभाल पाती, जैसा यूपीए संभाल लेगी । मायावती के पास इस समझ की काट कबतक आयेगी यह दूर की कौडी है लेकिन दो दशकों से जिस तरह मायावती की समूची राजनीति दलित भावना को हवा देती रही है, पहली बार उसपर भी भौतिक जरुरत सवाल उठा रही है। <br /><br />लेकिन, सवाल सिर्फ बादलपुर या उत्तर प्रदेश का नही है, सवाल महाराष्ट् सरीखे राज्य का भी है, जहा मायावती का हर उम्मीदवार औसतन सौ करोड़ का मालिक था। इसमें हर जाति-धर्म के उम्मीदवार थे। बिल्डर से लेकर अंडरवर्ल्ड से जुड़े उम्मीदवार भी हाथी की सवारी कर रहे थे। लेकिन मायावती के समूचे समीकरण सीधे वोट बैंक के आसरे टिके रहे। जबकि महाराष्ट्र आंबेडकर के राजनीतिक प्रयोग की जमीन रही है। जहा राजनीतिक तौर पर दलितो को चुनाव में पहला मंच आंबेडकर ने स्वतंत्र मजदूर पक्ष बनाकर दिया था। अस्पृश्य समाज के राजनीतिक अधिकारो के लिये 15 अगस्त 1936 में इसकी स्थापना मुबंई में की गयी। आंबेडकर के इस राजनीतिक मंच बनाने के पीछे 16 जून 1934 की गांधी के साथ पहली मुलाकात की खटास भी थी। पहली मुलाकात में ही आंबेडकर ने गांधी जी के सामने अस्पृश्य समाज की मुश्कलों को उठाया। आंबेडकर ने कहा कि हिन्दुओं के अमानवीय अत्याचार अस्पृश्य समाज पर होते हैं और न्याय के लिये अस्पृश्य ना तो पुलिस के पास जा पाता है ना ही अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है । ऐसे में हरीजन सेवक संघ को अस्पृश्य समाज के लिये काम करना चाहिये। उनके लिये एक बजट बनाकर न्याय की दिशा में बढ़ना चाहिये । लेकिन गांधी इसपर राजी नहीं हुये । आंबेडकर की पहली राजनीतिक पहल यही से शुरु हुई। लेकिन उनके जहन में इस मंच के जरीये मजदूर-श्रमिको को भी साथ लाने की योजना थी। जिसपर कांग्रेस ने फूट डलवाकर पानी में मिला दिया।<br /><br />नया सवाल मायावती की राजनीतिक पहल का है । मायावती आंबेडकर-कांशीरामऔर खुद की प्रतिमाओ और अपनी वैभवता के आसरे दलित वोट बैक में जो रंग भरती रही है, वह दलितों के भीतर नये भौतिक मूल्यों से टकरा रहे हैं। इसका अंदाजा बादलपुर ही नही नागपुर में भी मिलता है। 1993 में पहली बार मायवती ने सभा की थी। नागपुर के यशंवत स्टेडियम में तीन पायदान का मंच बना था। सबसे उपर कांशीराम और मायावती बैठी थी। उसके नीचे रिपब्लिकन खोब्राग़डे के नेता और उसके नीचे स्थानीय दलित नेता। मायावती की इस सभा में दलित रंगभूमि के युवा कलाकारो ने आंबेडकर पर एक नुक्कड नाटक भी किया था। उस वक्त रिपब्लिकन पार्टी के जेबी पार्टी बनने से दुखी युवा दलित मायावती में अपना नायक देख रहे थे जो उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपने बूते दखल दे चुकी थी। लेकिन जिस तरह की राजनीतिक सोशल इंजिनियरिंग की परिभाषा इस चुनाव में मायावती ने उम्मीदवारों के जरीये गढ़ी, उसका परिणाम यही रहा कि चुनाव में दलित रंगभूमि के कलाकार कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन के लिये नाटक करते नजर आये और बीएसपी को महज साढे चार फिसदी वोट मिले जो अन्य को मिलने वाले वोट का भी एक चौथायी है । और विधानसभा की तुलना में आधे से भी कम है। यहां सवाल यह नहीं है कि मायावती के चुनावी धंधे का पाठ अब सर्वव्यापी हो चुका है और धंधे का टकराव मायावती के वोट बैंक में भी टकरा रहा है । बडा सवाल यह है कि पथरीले समाज को राजनीति उसी मखमली चादर से ढकना चाह रही है, जिसके जरीये देश के भीतर दो देश खडे किये गये। क्योंकि राहुल गांधी जिस कलावती का नाम लेकर मखमली राजनीति को चौंकाते है और सरकार किसानों की खुदकुशी रोकने के लिये करोड़ों के पैकेज का ऐलान कर अपनी जिम्मेदारी से निजात पाना चाहती है। वहां कांग्रेस को भी चुनाव में शिकस्त मिलती है और मायावती की जमीन भी नजर नही आती। वहां का दलित-किसान-पिछडा-गरीब-मजदूर हर उस नेता में अपनी जिन्दगी देखता है जो न्यूनतम का जुगाड कराते हुये आंखो के सामने नजर आते रहे। असल में अमरावती की कलावती के लिये राहुल जितने दूर हैं, उससे कही ज्यादा की दूरी बादलपुर की ननकी की लखनउ की मायावती से हो चली है। बादलपुर से निकलते वक्त रामप्रवेश की पत्नी ननकी ने जब यह कहते हुये पानी का गिलास बढाया कि रामप्रवेश अबकि गुड घर लाये नहीं है, इसलिये खाली पानी दे रहे है तो झटके में लगा रामप्रवेश की उठी अंगुली कही मायावती के बंगले में बंद हाथी और कुकरमुत्ते की तरह उगे घरो में पडी जंजीर तो नहीं दिखा रहे थे। <br /><br />अगर ऐसा है तो बड़ा सवाल यह भी है कि जिस जंजीर के आसरे दलित राजनीति को मायावती बांधे हुये है उसे तो झोपडी में रात गुजारने की राहुल नीति और पैकेज देने की मनमोहन नीति ही तोड देगी । फिर आंबेडकर के उस दलित संधर्ष का क्या होगा जिन्होने कभी कांग्रेस को जलता हुआ मकान कहते हुये दलितो में अपने बूते संघर्ष करने का अलख जलाया था ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com11