tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger16125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-17120785349280653692011-10-08T10:26:00.000+05:302011-10-08T10:27:20.434+05:30मीडिया से टकराव का रास्ताइस वक्त सरकार के निशाने पर देश के दो बडे मीडिया संस्थान है । दोनों संस्थानों को लेकर सरकार के भीतर राय यही है कि यह विपक्ष की राजनीति को हवा दे रहे हैं । सरकार के लिये संकट पैदा कर रहे हैं । वैसे मीडिया की सक्रियता में यह सवाल वाकई अबूझ है कि जिस तरह के हालात देश के भीतर तमाम मुद्दों को लेकर बन रहे हैं उसमें मीडिया का हर संस्थान आम आदमी की परेशानी और उसके सवालों को अगर ना उठाये, तो फिर उस मीडिया संस्थान की विश्वनीयता पर भी सवाल खड़ा होने लगेगा। लेकिन सरकार के भीतर जब यह समझ बन गयी हो कि मीडिया की भूमिका उसे टिकाने या गिराने के लिये ही हो सकती है, तो कोई क्या करे?इसलिये मीडिया के लिये सरकारी एडवाईजरी में जहां तेजी आई है,वहीं जिन मीडिया संस्थानो पर सरकार निशाना साध रही है उसमें निशाने पर वही संस्थान हैं,जिनका वास्ता विजुअल और प्रिंट दोनों से है। साथ ही उन मीडिया संस्थानो के दूसरे धंधे भी है। दरअसल, सिर्फ मीडिया हाउस चलाने वाले मालिकों को तो सरकार सीधे निशाना बना नहीं सकती क्योंकि इससे मीडिया मालिकों की विश्वनीयता ही बढ़ेगी और उनकी सौदेबाजी के दायरे में राजनीति आयेगी। जहां विपक्ष साथ खड़ा हो सकता है। फिर आर्थिक नुकसान की एवज में सरकार को टक्कर देते हुये मीडिया चलाने का मुनाफा भविष्य में कहीं ज्यादा बड़ा हो सकता है। लेकिन जिन मीडिया हाउसों के दूसरे धंधे भी हैं और अगर सरकार वहां चोट करने लगे तो फिर उन मीडिया हाउसों के भीतर यह सवाल खड़ा होगा ही कि कितना नुकसान उठाया जाये या फिर सरकार के साथ खड़े होना जरुरी है। और चूकिं यह खेल राष्ट्रीय स्तर के मीडिया घरानों के साथ हो रहा है तो खबरें दिखाने और परोसने के अंदाज से भी पता लग जाता है कि आखिर मीडिया हाउस के तेवर गायब क्यों हो गये?दरअसल पर्दे के पीछे सरकार का जो खेल मीडिया घरानों को चेताने और हड़काने का चल रहा है,उसके दायरे में अतीत के पन्नों को भी टटोलना होगा और अब के दौर में मीडिया के भीतर भी मुनाफा बनाने की जो होड है, उसे भी समझना होगा। <br /><br />याद कीजिये आपातकाल लगाने के तुरंत बाद जो पहला काम इंदिरा गांधी ने किया वह मीडिया पर नकेल कसने के लिये योजना मंत्रालय से विद्याचरण शुक्ल को निकालकर सूचना प्रसारण मंत्री बनाया और मंत्री बनने के 48 घंटे बाद ही 28 जून 1975 को विद्याचरण शुक्ल ने संपादकों की बैठक बुलायी। जिसमें देश के पांच संपादक इंडियन एक्सप्रेस के एस मुलगांवकर,हिन्दुस्तान टाईम्स के जार्ज वर्गीज, टाइम्स आफ इंडिया के गिरिलाल जैन,स्टैट्समैन के सुरिन्दर निहाल सिंह और पैट्रियॉट के विश्वनाथ को सूचना प्रसारण मंत्री ने सीधे यही कहा कि सरकार संपादकों के काम से खुश नहीं है,उन्हें अपने काम के तरीके बदलने होंगे। चेतावनी देते मंत्री से बेहद तीखी चर्चा वहां आकर रुकी जब गिरिलाल जैन ने कहा ऐसे प्रतिबंध तो अंग्रेजी शासन में भी नहीं लगाये गये थे। इस पर मंत्री का जवाब आया कि यह अग्रेंजी शासन नहीं है, यह राष्ट्रीय आपात स्थिति है। और उसके बाद मीडिया ने कैसे लडाई लड़ी या कौन कहां, कैसे झुका यह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन 36 बरस बाद भ्रष्ट्राचार के कटघरे में खड़े पीएमओ, कालेधन को टालती सरकार और मंहगाई पर फेल मनमोहन इक्नॉमिक्स को लेकर देश भर में सवाल खडे हुये और 29 जून 2011 को जब प्रधानमंत्री ने सफाई देने के लिये संपादकों की बैठक बुलायी। और प्रिट मिडिया के पांच संपादक जब प्रधानमंत्री से मिलकर निकले, तो मनमोहन सिंह एक ऐसी तस्वीर पांचों संपादको ने खींची जिससे लगा यही कि देश के बिगडते हालात में कोई व्यक्ति सबसे ज्यादा परेशान है और कुछ करने का माद्दा रखता है, तो वह प्रधानमंत्री ही है। यानी जो कटघरे में अगर स्थितियां उसे ही सहेजनी हैं, तो फिर संपादक कर क्या सकते हैं या फिर संपादक भी अपनी बिसात पर निहत्थे हैं । यानी लगा यही कि जिस मीडिया का काम निगरानी का है वह इस दौर में कैसे सरकार की निगरानी में आकर ना सिर्फ खुद को धन्य समझने लगा, बल्कि सरकार से करीबी ही उसने विश्वनीयता भी बना ली। लेकिन अन्ना हजारे के आंदोलन को जिस तरह मीडिया ने हाथों हाथ लिया उसने झटके में सरकार के सामने यह सवाल खड़ा कर दिया कि जिस मीडिया को उसने अपनी छवि बनाने के लिये धंधे में बदला और बाजार अर्थव्यवस्था में बांधा अगर उसी मीडिया का धंधा सरकार की बनायी छवि को तोड़ने से आगे बढने लगे, तो वह क्या करेगी । क्या सत्ता इसे लोकतंत्र की जरूरत मान कर खामोश हो जायेगी या फिर 36 बरस पुराने पन्नों को खोलकर देखेगी कि मीडिया पर लगाम लगाने के लिये मुनाफा तंत्र बाजार के बदले सीधे सरकार से जोड़ कर नकेल कसी जाये। अगर सरकार के संकेत इस दौर में देखें तो वह दोराहे पर है। <br /><br />एक तरफ फैलती सूचना टेक्नॉल्जी के सामने उसकी विवशता है, तो दूसरी तरफ मीडिया पर नकेल कस अपनी छवि बचाने की कोशिश है । 36 बरस पहले सिर्फ अखबारों का मामला था तो पीआईबी में बैठे सरकारी बाबू राज्यवार अखबारों की कतरनों के आसरे मंत्री को आपात स्थिति का अक्स दिखाते रहते, लेकिन अन्ना हजारे के दौर में ना तो बाबुओं का विस्तार टेक्नॉल्जी विस्तार के आधार पर हो पाया और ना ही सत्ता की समझ सियासी बची । इसलिये आंदोलन को समझ कर उस पर राजनीतिक लगाम लगाने की समझ भी मनमोहन सिंह के दौर में कुंद है। और राजनीति भी जनता से सरोकार की जगह पैसा बनाकर सत्ता बरकरार रखने की दिशा को ज्यादा रफ्तार से पकड़े हुये है। यानी सियासत की परिभाषा ही जब मनमोहन सिंह के दौर में आर्थिक मुनाफे और घाटे में बदल गयी है तो फिर मीडिया को लेकर सरकारी समझ भी इसी मुनाफा तंत्र के दायरे में सौदेबाजी से आगे कैसे बढ़ेगी। इसलिये जिन्होंने अन्ना हजारे के आंदोलन को प्रधानमंत्री की परिभाषा संसदीय लोकतंत्र के लिये खतरा तले देखा, उन्हें सरकार पुचकार रही है और जिस मीडिया ने अन्ना के अन्ना के आंदोलन में करवट लेते लोकतंत्र को देखा, उन्हें सरकार चेता रही है । लेकिन पहली बार अन्ना आंदोलन एक नये पाठ की तरह ना सिर्फ सरकार के सामने आया बल्कि मिडिया के लिये भी सड़क ने नयी परिभाषा गढ़ी । और दोनों स्थितियों ने मुनाफा बनाने की उस परिभाषा को कमजोर कर दिया जिसके आसरे राजनीति को एक नये कैनवास में मनमोहन सिंह ढाल रहे है और मीडिया अपनी विश्वसनीयता मनमोहन सिंह के कैनवास तले ही मान रही है । मीडिया ने इस दौर को बेहद बारीकी से देखा कि आर्थिक विकास के दायरे में राजनीति का पाठ पढाने वाले मनमोहन सिंह के रत्नों की चमक कैसे घूमिल पड़ी । कैसे सत्ता के गुरूर में डूबी कांग्रेस को दोबारा सरोकार कि सियासत याद आयी । कैसे कांग्रेस की बी टीम के तौर पर उदारवादी चेहरे को पेश करने में जुटी बीजेपी को राजनीति का 36 बरस पुराना ककहरा याद आया । और कैसे तमाशे में फंसा वह मिडिया ढहढहाया जो माने बैठा रहा कि अन्ना सडक से सासंदो को तो डिगा सकते है लेकिन न्यूज चैनल के इस मिथ को नहीं तोड सकते कि मनोरंजन का मतलब टीआरपी है । असल में मिडिया के अक्स में ही सियासत से तमाशा देखने की जो ललक बाजार व्यवस्था ने पैदा की उसने अन्ना के आंदोलन से पहले मिडिया के भीतर भ्रष्ट्राचार की एक ऐसी लकीर बनायी जो अपने आप में सत्ता भी बनी और सत्ता चलाने वालो के साथ खडे होकर खुद को सबसे विश्वनिय मानने भी लगी । लेकिन अन्ना के आंदोलन ने झटके में मिडिया की उस विश्वनियता की परिभाषा को पलट दिया जिसे आर्थिक सुधार के साथ मनमोहन सिंह लगातार गढ रहे थे । विश्वनियता की परिभाषा बदली तो सरकार एक नही कई मुश्किलो से घिरी । उसे मीडिया को सहेजना है। उसे अन्ना टीम को कटघरे में खड़ा करना है । उसे संसदीय लोकतंत्र का राग अलापना है। उसे लाभ उठाकर विपक्ष को मात देने की सियासत भी करनी है। उसने किया क्या? <br /><br />मीडिया से सिर्फ अन्ना नहीं सरकार की बात रखने के कड़े संकेत दिये। लेकिन इस दौर में सरकार इस हकीकत को समझ नही पा रही है कि उसे ठीक खुद को भी करना होगा । प्रणव मुखर्जी न्यूयार्क में अगर प्रधानमंत्री से मुलाकात के बाद यह कहते है कि दुर्गा पूजा में शामिल होने के लिये उन्हें 27 को बंगाल पहुंचना जरुरी है और दिल्ली में पीएम से मुलाकात संभव नहीं हो पाती इसलिये मुलाकात के पीछे कोई सरकार का संकट ना देखे । तो समझना यह भी होगा कि मीडिया की भूमिका इस मौके पर होनी कैसी चाहिये और हो कैसी रही है। और सरकार का संकट कितना गहरा है जो वह मीडिया का आसरे संकट से बचना चाह रही है । यानी पूरी कवायद में सरकार यह भूल गयी कि मुद्दे ही सरकार विरोध के है । आम लोग महंगाई से लेकर भ्रष्ट्राचार मुद्दे में अपनी जरूरतों की आस देख रहे हैं । ऐसे में जनलोकपाल का आंदोलन हो या बीजेपी की राजनीतिक घेराबंदी वह सरकार का गढ्डा खोदेगी ही । तो क्या मनमोहन सिंह के दौर में राजनीति से लेकर मीडिया तक की परिभाषा गढ़ती सरकार अपनी ही परिभाषा भूल चुकी है । और अब वह मीडिया को बांधना चाहती है। लेकिन इन 36 बरस में कैसे सरकार और मीडिया बदले है इसपर गौर कर लें तो तस्वीर और साफ होगी । उस दौर में इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा चापलूसो ने कहा । अब अन्ना टीम की एक स्तम्भ ने अन्ना इज इंडिया और इंडिया इज अन्ना कहा । उस वक्त इंडिया दुडे के दिलिप बाब ने जब इंदिरा गांधी से इंटरव्यू में कुछ कडे सवाल पूछे तो इंदिरा ने यहकहकर जवाब नहीं दिया कि इंडिया दुडे तो एंटी इंडियन पत्रिका है । तब इंडिया दुडे के संपादक अरुण पुरी ने कवर पेज पर छापा । इंदिरा से इंडिया एंड एंटी इंदिरा इज एंटी इंडिया । और वहीं से इंडिया दुडे ने जोर पकडा जिसने मिडिया को नये तेवर दिये । लेकिन अब 17 अगस्त को जब संसद में पीएम मनमोहन सिंह ने अन्ना के आंदोलन को संसदीय लोकतंत्र के लिये खतरा बताया तो कोई यह सवाल नहीं पूछ पाया कि अगर अन्ना इज इंडिया कहा जा रहा है तो फिर सरकार का एंटी अन्ना क्या एंटी इंडियन होना नहीं है । असल में 36 बरस पुराने ढोल खतरनाक जरुर है लेकिन यह कोई नहीं समझ पा रहा कि उस ढोल को बजाने वाली इंडिरा गांधी की अपनी भी कोई अवाज थी। और इंदिरा नहीं मनमोहन सिंह है। जो बरसों बरस राज्यसभा सदस्य के तौर पर संसद की लाइब्रेरी अक्सर बिजनेस पत्रिकाओ को पढकर ही वक्त काटा करते थे । और पडौस में बैठे पत्रकार के सवालो का जवाब भी नहीं देते थे । यह ठीक वैसे ही है जैसे 15 बरस पहले जब आजतक शुरु करने वाले एसपी सिंह की मौत हुई तो दूरदर्शन के एक अधिकारी ने टीवीटुडे के तत्कालिक अधिकारी कृष्णन से कहा कि एसपी की गूंजती आवाज के साथ तो हेडलाईन का साउंड इफैक्ट अच्छा लगता था। लेकिन अब जो नये व्यक्ति आये हैं उनकी आवाज ही जब हेडलाइन के घुम-घडाके में सुनायी नहीं देती तो फिर साउंड इफैक्ट बदल क्यो नहीं देते । और संयोग देखिये आम लोग आज भी आजतक की उसी आवाज को ढूंढते है क्योंकि साउंड इफैक्ट अब भी वही है। और संकट के दौर में कांग्रेस भी 36 बरस पुराने राग को गाना चाहती है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-78452004856575696482010-08-02T14:05:00.001+05:302010-08-02T14:06:21.023+05:30मीडिया नहीं लोकतंत्र की परिभाषा बदल चुकी हैमेरे सामने पत्रकारों की जमात जब सवाल कर रही थी, तो लगा जैसे सवाल पत्रकार नहीं कॉरपोरेट के दलाल पूछ रहे हैं? और यह सुनते ही हॉल में तालियां बज उठीं। यह वाक्या 31 जुलाई को हंस के सालाना जलसे में स्वामी अग्निवेश के भाषण के दौरान का है। इसी तरह 11 जुलाई को उदयन शर्मा की पुण्यतिथि के मौके पर जो जमावड़ा हुआ और उसमें पेड न्यूड से निकली चर्चा जिस तरह हाशिये पर जा पहुंची और सत्ता के आगे पत्रकार से लेकर चुनाव आयोग भी जैसे नतमस्तक दिखा, उसने कई सवाल एक साथ खड़े किये।<br /><br />चुनाव आयुक्त कुरैशी बोले कि चुनाव आयोग की सिर्फ तीन महीने चलती है और उस दौरान भी सत्ता के आगे उसके हाथ बंधे होते हैं। तो कांग्रेस के नेता दिग्विजय यह कहने से नहीं चूके की चुनाव में भागेदारी जनता की होती है, आप उसमें खर्च होने वाले धन को लेकर क्यों परेशान होते हैं। चुनाव आयोग रोक का एक रास्ता बनायेगा तो नेता कोई दूसरा रास्ता निकाल लेगा।जाहिर है, इन बहसों ने पहली बार एक नया सवाल यही उठाया कि क्या अब लोकतंत्र ही खतरे में है। जहा हर सत्ता संस्थान अपने आप में अधूरा है। और इसके जवाब के लपेटे में कई संपादको ने जिस तरह पंतग उड़ाई उससे एक हकीकत तो साफ तौर पर उभरी कि अगर लोकतंत्र का पैमाना इस देश में बदला जा रहा है और राजनीतिक अर्थशास्त्र की थ्योरी नये रुप में परिभाषित हो रही है तो उसमें सूचना-तंत्र की भूमिका सबसे बड़ी है और मीडिया को पत्रकारिता से इतर सूचना-तंत्र में तब्दील किया जा रहा है। यानी पत्रकारिता की शून्यता इसी मीडिया में सबसे ज्यादा घनी है। और उसे भरेगा कौन यह सवाल लगातार कुलांचे मार रहा है।<br /><br />असल में मीडिया को लोकतंत्र के चौथे खम्भे के तौर पर देखने से ही बात शुरु करना होगी। चौथे खम्भे का मतलब है बाकि तीन खम्भे अपनी अपनी जगह काम कर रहे हैं। और काम करने से मतलब संविधान के दायरे में काम कर रहे है, यानी सामाजिक सरोकार के तहत देश में संसदीय राजनीति की जो भूमिका है, उसे जीया जा रहा है। लोगो को लग रहा है कि उनकी नुमाइन्दगी संसद कर रही है। और संसद संविधान के तहत चल रही है इसके लिये न्यायपालिका अपनी भूमिका में मुस्तैद है। इसी तरह विधायिका भी देश को चलाने और नीतियों को लागू कराने को लेकर कहीं ना कहीं जिम्मेदारी निभा रही है। और निगरानी के तौर पर मीडिया जनता और सरकार के बीच अपनी भूमिका निभा रहा है। अगर सत्ता अपनी सुविधा के लिये आम आदमी से जुडे मुद्दों को हाशिये पर ढकेल रही है तो मीडिया हाशिये पर मुद्दों को केन्द्र में लाकर सत्ता पर दबाव बनाये की उस तरफ ध्यान देना जरुरी है। नहीं तो जनभावना सत्ता के खिलाफ जा सकती है और संसदीय चुनाव का लोकतंत्र सत्ता परिवर्तन की दिशा में भी जा सकता है।<br /><br />लेकिन संसदीय चुनावी तंत्र ही लोकतांत्रिक मूल्यों को समाप्त करने की दिशा में हो और हर खम्भा इसी दिशा को मजबूत करने में लगा हो तो मीडिया की भूमिका निगरानी की कैसी रहेगी। यह एक लकीर कैसे समूचे लोकतांत्रिक पहलुओं पर अंगुली उठाती है, इसे समझने के लिये महज खबरें खरीदने या बेचने की स्थितियों से जाना जा सकता है। सभी ने माना की 2009 के चुनाव में समाचार पत्र और न्यूज चैनलों ने जमकर पैकेज सिस्टम चलाया। यानी चुनाव मैदान में उतरे उम्मीदवारों से धन लेकर खबरो को छापा। सरकार की नजरों तले, प्रेस काउसिंल और एडिटर्स गिल्ड से लेकर चुनाव आयोग की सहमति के साथ इस बात पर सहमति बनी कि खबरों को धंधा बनाना सही नहीं है। जाहिर है इसका मतलब साफ है कि यह गैरकानूनी है । लेकिन कानून कभी एकतरफा नहीं होता । जैसे ही किसी मीडिया हाउस का नाम इस बिला पर लिया गया कि यह खबरों को धंधा बना रहा है तो सवाल यह उठा कि खबरों को खरीदने वाला अपराधी है या नहीं। यानी लोकतंत्र का चौथा खम्भा अगर बिक रहा है तो उसे खरीद कौन रहा है । और चौथे खम्भे को खरीदे बगैर क्या सत्ता तक नहीं पहुंचा जा सकता है। या फिर सत्ता तक पहुंचने के रास्ते में मीडिया की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण हो चुकी है कि बगैर उसके नेता की विश्वसनीयता बनती ही नहीं। और मीडिया अपनी विश्वविशनियता की कीमत खुद को बेच कर खत्म कर रहा है।<br /><br />जाहिर है यहां सवाल कई उठ सकते हैं। लेकिन पहला सवाल है कि अगर चुनाव आयोग के बनाये दायरे को संसदीय चुनाव तंत्र ही तोड़ रहा है तो उसकी जिम्मदारी किसकी होगी। कहा जा सकता है यह काम चुनाव आयोग का है, जिसे संविधान के तहत चुनाव के दौर समूचे अधिकार मिले हुये हैं। लेकिन अब सवाल है कि अगर लोकसभा के कुल 543 में से 445 सीटों के घेरे में आने वाले इलाको की मीडिया ने नेताओ की खबर छापने के लिये पैकेज डील की , तो जाहिर है किसी भी नेता ने यह पूंजी चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित पूंजी में नहीं दिखायी होगी। तो क्या उन सभी चुने हुये संसद सदस्यो की सदस्यता रद्द नहीं हो जानी चाहिये? लेकिन यह काम करेगा कौन? चुनाव आयोग के पास अधिकार तो है लेकिन समूची संसदीय राजनीति पर सवालिया निशान लगाने की हैसियत उसकी भी नहीं है और खासकर जब चुनाव आयोग के पद भी राजनीति से प्रभावित होने लगे हो तो सवाल कहीं ज्यादा गहराता है। यहां समझना यह भी चाहिये कि संसदीय तंत्र की जरुरत चुनाव आयोग है। अकेले चुनाव आयोग की महत्ता न के बराबर है। वहीं सुप्रीम कोर्ट भी संसद के सामने नतमस्तक है। क्योकि देश के लोकतंत्र की खूशबू यही कहकर महकायी जाती है कि संसद को तो जनता गढ़ती है। और उससे बडी संस्था दूसरी कोई कैसे हो सकती है।<br /><br />यानी आखिरी लकीर संसद को ही खींचनी है और संसद के भीतर की लकीर बाहर के लोकतांत्रिक मूल्यो को खत्म करके ही बन रही है,तो फिर पहल शुरु कहां से हो। जाहिर है यहां मीडिया की निगरानी काम आ सकती है। लेकिन निगरानी का मतलब यहां संसदीय सत्ता से सीधे टकराने का होगा। टकराने से ही मीडिया को कोई घबराहट होनी नहीं चाहिये क्योकि मीडिया की मौजूदगी ने आजादी के दौर से लेकर इमरजेन्सी और शाईनिंग इंडिया तक के दौर से दो दो हाथ किये हैं। तो अब क्यों नहीं । अब भी का सवाल अब इसलिये गौण होता जा रहा है, क्योकि लोकतंत्र का पहला रास्ता ही खुद को बेचने के लिये तैयार खड़ा है। तो फिर यह लड़ाई कहां जायेगी। जाहिर है मिडिया के भीतर पत्रकारिता की शून्यता के बीच इन सवालों की गूंज कहीं ज्यादा है कि देश का मतलब अब नागरिक नहीं उपभोक्ता होना है। हक का मतलब मनुष्य नहीं है पूंजी के ढेर पर बैठा कोई भी हो सकता है। कह सकते हैं पांच सितारा होटल से लेकर पुलिस थाने तक में किसी आम आदमी से ज्यादा कहीं उस बुलडांग की चल सकती है, जिसके पीछे ताकत हो। और ताकत की मतलब अब पूंजी की सत्ता है। यहां से अब दूसरा सवाल जब नेता बनने से लेकर सत्ता तक चुनावी तंत्र का रास्ता पूंजी पर ही टिका है तो फिर आम आदमी या समाज से सरोकार की जरुरत है क्यो । यानी सौ करोड लोगो के हक के सवाल या जीने की न्यूनतम जरुरतो से जुड़कर संसदीय सत्ता गाठने की जरुरत है क्यों। जब एक तबके के लाभ मात्र से उसके जुठन के जरीये बाकियों की विकास धारा को संसद में ही परिभाषित किया जा सकता हो। यानी संसद के लिये देश का मतलब जब देश के 10 से 20 करोड़ लोगों से ज्यादा का न हो और बकायदा नीतियों के आसरे इन्हीं बीस करोड़ के लिये रेड कारपेट बिछाकर उसके नीचे दबी घास से बेफिक्र होकर कारपेट फटने पर कारपेट बदलकर उसी फटी करपेट के भरोसे देश का पेट और विकास की धारा को घेरे में लाया जा रहा हो तो फिर लोकतंत्र की नयी परिभाषा क्या होगी। क्योंकि यहां मीडिया भी रेड कारपेट तले दबी घास से ज्यादा कारपेट के फटने और उसे बदलने पर नजर टिकाये हुये है और उसकी निगरानी इसलिये भी घास को नहीं देख पायेगी क्योंकि लोकतंत्र का पाठ पढ़ाने वाली संसद के चारों तरफ गरी घास नहीं रेड-कारपेट है और जीने की समूची परिभाषा ही रेड-कारपेट के जरीये बुनी जा रही है। यहां से तीसरा सवाल नुमाइन्गी का शुरु होता है।<br /><br />पंचायत से लेकर संसद तक नुमाइन्दगी के लोकतांत्रिक तौर तरीके कितने बदल चुके है और नुमाइन्दगी का मतलब किस तरह सिर्फ खरीद-फरोख्त पर आ टिका है, उसमें लोकतंत्र के चौथे खम्भे की भूमिका क्या हो सकती है, यह भी समझना जरुरी है । जो जिस क्षेत्र का है उसे वहीं के लोगों की नुमाइन्दगी करनी चाहिये। यह कोई ब्रह्म-वाक्य नहीं है। मगर लोकतंत्र की यही समझ है और इसी आधार पर समूचे लोकतंत्र का ताना-बाना बुना गया। लेकिन इस लोकतंत्र को पूंजी ने कैसे, कब , किस तरह हर लिया यह लोकसभा के 75 तो राज्यसभा के 135 सदस्यों के जरीये समझा जा सकता है। पहले जाति और अब पूंजी के खेल ने लोकतंत्र को किस तरह निचोड़ा है, इसका अंदाजा असम से राज्यसभा में पहुंचे मनमोहन सिंह के जरीये भी समझा जा सकता है और बीते दिनो कर्नाटक से राज्यसभा में पहुंचे विजय माल्या या फिर राजस्थान से पहुंचे राम जेठमलानी समेत 11 सांसदो की कुंडली देखकर बी समझा जा सकता है। ऐसे कैसे हो सकता है कि मनमोहन सिंह के घर का जो पता असम का है, उस घर के पड़ोसी को भी जानकारी नहीं कि उनका पड़ोसी सांसद है और फिलहाल देश का प्रधानमंत्री। असल में नुमान्दगी अगर बिकी है तो उसके पीछे लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाता एक लंबा दौर भी रहा है जिसमें संविधान की परिभाषा तक बदल दी गयी। और इसे बदलने वाला और कोई नहीं वही सत्ता रही जो खुद संविधान का राग जपकर बनी। गांव, किसान , आदिवासी , खेती , कश्मीर, मणिपुर, भोपाल गैस कांड, चौरासी के दंगे , 122 करोड का टी-3 टर्मिनल बनाम बिना फाटक के 345 रेल लाइन, करोड़पतियो में सवा सौ फीसदी की बढोत्तरी बनाम गरीबो में पैतीस फीसदी की बढोत्तरी। एक ही संविधान के दायरे में कैसे इतनी परिभाषा एक सरीखी हो सकती हैं। जहां लाखों आदिवासियों के जीने का हक चंद हाथों में बेच दिया जाये और संसद से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में सिर्फ इसकी गूंज ही सुनायी दे और समेटने वाला सबकुछ समेट कर चलता बने। तो फिर मीडिया किसे जगाये। असल में इस पूरे दौर में हर मुद्दे को लेकर एक सवाल कहीं तेजी से सहमति बनाता हुआ बड़ा हुआ है कि जो सत्ता सोच रही है, और जिस पर संविधानिक संस्थानो की मुहर लगी है, अगर उस पर कोई सवाल कोई भी खड़ा करे तो वह लोकतंत्र के खिलाफ माना जा सकता है। मीडिया तो लोकतंत्र का पहरुआ है। ऐसे में जिस लोकतंत्र की बात सत्ता करती है अगर उससे इतर मीडिया कोई भी सवाल खडा करती है या फिर सत्ता के निर्णयों पर सवाल खडा करती है तो फिर मीडिया खुद को लोकतंत्र से कैसे जोड सकता है। यह संकट लोकतंत्र के हर खम्भे के सामने है।<br /><br />चूंकि चारों खम्भो की सामूहिकता के बाद ही लोकतंत्र का नारा लगाया जा सकता है तो इसका एक मतलब साफ है कि किसी को भी इन परिस्थियों में टिके रहना है तो सत्ता के साथ खड़ा होना होगा और मीडिया इससे इतर अपनी भूमिका कैसे देख समझ सकता है ।<br />यानी लोकतंत्र की इस परिभाषा में पहले संसदीय राजनीतिक सत्ता पर लोकतंत्र के बाकि खम्भों को कुछ इस तरह आश्रित बनाया गया कि वह खुद को सत्ता भी माने और बगैर संसदीय सत्ता के ना नुकुर भी ना कर सके। इसलिये पूंजी या कॉरपोरेट सेक्टर की अपनी सत्ता है और अदालत या जांच एंजेसी की अपनी सत्ता। इसी तरह मीडिया की अपनी सत्ता है। और हर सास्थानिक सत्ता की खासियत यही है कि बाहर से वह लोकतंत्र को थामे नजर आ सकता है लेकिन अंदर से हर संस्था सत्ता बेबस है। कहा यह भी जा सकता है कि इस दौर में लोकतंत्र की परिभाषा ठीक वैसे ही बदली जैसे ग्लोबलाइजेशन आफ प्रोवर्टी में मिशेल चोसडुवस्की कहते है कि आर्थिक सर्वसत्तावाद गोलियों से नहीं आकालों से हत्या करता है। और यह नीतिगत फैसलो में इस तरह खो जाते हैं कि इन्हें कानूनन अपराधी भी नहीं ठहराया जा सकता। क्योंकि अपराध की इस परिभाषा मे तो इसका उल्लेख तक नहीं है। अगर मीडिया की नजरों से इस हकीकत को समझना है तो न्यूज प्रिंट की किमत से लेकर न्यूज चैनलो की कनेक्टेविटी के खर्चे और इसे पाने या दिखाने के लिये सत्ता की ठसक से भी समझा जा सकता है। जिस तरह खेती में बहुराष्ट्रीय कंपनियां घुसी और खाद से लेकर बीज तक को अपने शिकंजे में कस कर किसानों की खुदकुशी का रेडकारपेट यह कह कर बिछाया कि अब खेती का कल्याण होगा क्योंकि उसे विकसित करने खुले बाजार की पूंजी पहुंची है।<br /><br />ठीक इसी तर्ज पर न्यूज प्रिंट पर से सरकारी दबदबा हटाकर हर अखबार छापने वाले के लिये एक ऐसा खांचा बनाया गया, जिसमें अपने प्रोडक्ट को बेचने के लिये वह बाजार के प्रोडक्ट पर जा टिके। यानी विज्ञापन उसकी न्यूनतम जरुरत बने। और खुद की सत्ता बनाये रखते हुये विज्ञापन के लिये हर सत्ता के सामने उसे नतमस्तक होना पड़े। जिसमें सबसे ज्यादा आश्रय सरकारी हो। यही स्थिति न्यूज चैनलों की है। सफेद पूंजी से कोई चैनल तो निकाला जा सकता है लेकिन वह घर घर में दिखायी कैसे दें इसके लिये कोई नियम कायदे नहीं है। कैबल सिस्टम पर समूचे विज्ञापन की की थ्योरी सिमटी हुई है। कैबल यानी टीआरपी और टीआरपी यानी कमाई की शुरुआत। लेकिन कैबल के जरिये कनेक्टीविटी का मतलब होता क्या है। इसे समझने के लिये फिर उन ब्रांड कंपनियो से होते हुये भारत के भीतर बनते इंडिया में घुसना पडेगा। जहां सबसे बेहतर और महंगे या कहे बेस्ट शहर या राज्य का मतलब है मुंबई, अहमदाबाद, हैदराबाद, बेगलुरु, दिल्ली, महाराष्ट्र,गुजरात, अमृतसर, लुधियाना, चंडीगढ़। यानी टीआरपी इन्हीं जगहों से आ सकती है तो फिर भारत को कवर करने की जरुरत है क्या। लेकिन मसला यही खत्म नहीं होता। संसदीय सत्ता यहां सीधे कैबल सिस्टम पर काबिज है। यानी हर राज्य , हर शहर कही भी कोई भी कैबल अगर चल रहा है तो उसके पीछे कोई ना कोई राजनेता है। और किसी राष्ट्रीय न्यूज चैनल को अगर देश भर में कैबल के जरीये दिखना है तो उसका सालाना खर्चा 30 से 40 करोड़ का है। लेकिन यह पूंजी सफेद नहीं काली है। इसे कोई मीडिया वाला कहां से लायेगा। यह सवाल किसी नये न्यूज चैनल वाले के सामने खड़ा हो सकता है लेकिन जो पुराने न्यूज चैनल चल रहे है उनके पास यह पूंजी किस गणित से आती है और कैसे यही बाजार उन्हें टिकाये रकता है, यह समझना कोई दूर की गोटी नहीं है क्योकि लोकतंत्र का यह समाजवादी चेहरा ही असल सत्ता है ।<br />ऐसे में लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाकर उसका समाजवादीकरण ही अगर चारों खम्भे कर लें तो सवाल खड़ा होगा कि इस नये लोकतंत्र की निगरानी कौन करेगा। मीडिया फिट होता नहीं। आंदोलन या संघर्ष देशद्रोही करार दिये जा सकते हैं। आम आदमी का आक्रोश गैर कानूनी ठहराया जा सकता है। तो फिर संसदीय राजनीति का कौन सा तंत्र है, जिसमें लोकतंत्र के होने की बात कही जाये। असल मुश्किल यही है कि अलग अलग खांचो में मीडिया और राजनीति या पूंजी की नयी बनती सत्ता को देखा-परखा जा रहा है। जिसमें बार बार मीडिया को लेकर सवाल खड़े होते हैं कि वह बिक रही है । खत्म हो रही है । या सरोकार खत्म हो चले हैं । अगर सभी को एकसाथ मिलाकर विश्लेषण होगा तो बात यही सामने आयेगी कि खतरे में तो लोकतंत्र है, और लोकतंत्र का चौथा खम्भा तो उसी लोकतंत्र से बंधा है जिसका आस्तित्व खत्म हो चला है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-89589228392951745482010-06-01T10:48:00.001+05:302010-06-01T10:49:22.760+05:30मनमोहन के फंदे में मीडिया<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">मीडिया के पेड न्यूज की कहानी सत्ता के लिये लॉबिंग और कॉरपोरेट घरानों के मुनाफे के लिये बिचौलिये की भूमिका तक पहुंचेगी, यह किसने सोचा होगा। खासकर उस दौर में जब पूंजी ही एक नयी सत्ता बनकर लोकतांत्रिक सत्ता को चुनौती दे रही हो। वैसे मीडिया का राजनीति से प्रेम आज का किस्सा नहीं है। पत्रकारों की एक बड़ी फौज आज भी यही मानती है कि पत्रकारिता एक लकीर के बाद कुंद पड जाती है इसलिये राजनीति ही उन पत्रकारों के लिये एकमात्र रास्ता है, जो सरकार की नीतियों को प्रभावित करने में बतौर पत्रकार काम करते रहे हैं। इसलिये पत्रकार के राजनेता बनने को सकारात्मक भी माना गया। लेकिन तब सोच यही रही कि अच्छे नेता और अच्छे पत्रकार का काम कमोवेश एक सरीखा ही होता है । इसलिये कभी पत्रकारिता ने राजनीति को प्रभावित किया तो कभी नेहरु से लेकर वाजपेयी तक प्रधानमंत्री रहते हुये यह कहने से नही चूके कि पत्रकार तो वह भी रह चुके हैं। लेकिन मनमोहन सिंह के दौर में यह सवाल दूर की गोटी बन चुका है कि प्रधानमंत्री बनने के लिये पत्रकार या नेता होने की भी जरुरत है। इसलिये पत्रकार के सत्ता के गलियारे में लॉबिंग करना या फिर सत्ता का पत्रकारों को अपने हुकुम का गुलाम बनाने के नये अंदाज में मनमोहन सिंह के दौर की राजनीतिक परिस्थितियों को समझना होगा, जिसने आजादी के बाद की पारंपरिक राजनीतिक व्यवस्था का काम तमाम कर दिया है। मनमोहन सिंह संसदीय राजनीति से उपजे नेता नहीं है। आम चुनाव में भागीदारी कर आम जनता के बीच से निकले हुये नेता भी मनमोहन सिंह नहीं है। तो फिर मनमोहन सिंह के सरोकार आम आदमी के साथ कैसे हो सकते हैं,</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">यह सवाल तुरंत उभरेगा। </span></p><p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI"><br />लेकिन यहीं से एक दूसरा सवाल भी उठेगा की </span>2009 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">के चुनाव में तो मनमोहन सिंह की राजनीति के खिलाफ संसदीय राजनीति के जरीये अपना कद बनाने वाले लालकृष्ण आडवाणी मैदान में थे। तो फिर जनता ने उन्हें खारिज क्यों कर दिया। जबकि आम जनता से सरोकार की बात आडवाणी ताल ठोंककर करते रहे और मनमोहन के सरोकार आम आदमी से नहीं है, यह भी ताल ठोंक कर ही बताते रहे। लेकिन यूपीए की जीत और मनमोहन सिंह के दोबारा प्रधानमंत्री बनने से पहली बार उस राजनीति पर सवालिया निशान लगा जो जनता के बीच राजनीति कर अपना वोट बैंक बनाने पर भरोसा करती है। मसलन वामपंथियो का भी आम चुनाव में फेल होना। जबकि देश का सच यही है कि मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों से समाज में असमानता बढ़ी। आर्थिक सुधार से देश बाजार में तब्दील हुआ। नागरिकों से ज्यादा उपभोक्ता होना महत्वपूर्ण हो गया। बीते पांच साल में लखपति और करोड़पतियों की तादाद में अगर दशमलव सात फीसदी बढ़ोतरी हो गयी तो गरीबी की रेखा से नीचे की तादाद में सात फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई। यानी आर्थिक नीतियो का लाभ अगर देश के एक करोड़ लोगों को परोक्ष-अपरोक्ष हुआ या उन्हें लगा कि आर्थिक सुधार से वह उपभोक्ता हो गया तो सीधा नुकसान </span>10 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">करोड़ से ज्यादा लोगो को हुआ। यानी संसदीय लोकतांत्रिक राजनीति के लिये एक उम्दा माहौल तैयार हुआ। जिसमें जनता चाहती तो सत्ता पलट सकती थी। बावजूद इसके मनमोहन सिंह की जीत का मतलब साफ था कि जो नेता चुनावी राजनीति को सरोकार की राजनीति मानते है </span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">उनका सरोकार आम जनता से कट चुका है। आम आदमी जिस अवस्था में रहता है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">नेताओं का जीवन उससे कोसों दूर है। सीधे कहा जाये तो एक देश के एक छोटे से तबके की सुविधा के लिये मनमोहन सिंह ने जो आर्थिक नीतियां परोसीं, उसका लाभ उठाने में ही समूची राजनीति भिड़ गयी। जिसने धीरे धीरे नेताओ का जीवन और राजनीति करने के तौर तरीको में तो पांच सितारा माहौल जड़ दिया लेकिन आम आदमी के जीवन का हर सितारा ही नही उजड़ा बल्कि संसदीय राजनीति के जरीये देश बदला जा सकता है, यह परंपरा भी चुनाव मैदान में खारि्ज हो गयी।<br /><br />लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की पहचान चुनाव है तो हर नीति के सफल-असफल की कहानी भी इसी चुनाव परिणाम पर टिकी है। तो मनमोहन सफल हैं, यह साबित हुआ । यह साबित नहीं हुआ कि संसदीय राजनीति के पारंपरिक तौर तरीके ही मनमोहन की आर्थिक नीति तले असफल हो गये। राजनीति के इस घालमेल में मंडल की राजनीति बीस साल में चक्र पूरा करती नजर आयी और बीजेपी सरीखी पार्टी भी जाति आधारित जनगणना पर तैयार हो गयी और कांग्रेस भी जातीय राजनीति का ढोल बजाने लगी। असल में मीडिया की सफलता - असफलता भी इसी दायरे में आ गयी। मीडिया में भी कुछ ऐसा ही अंतर आया और पत्रकारिता के पारंपरिक मूल्य आधुनिक मीडिया के सामने खारिज हो गये। मनमोहन सिंह की आर्थिक व्यवस्था ने पारंपरिक राजनीति-सामाजिक लक्ष्य को ही व्यवस्था में बदल दिया। यानी आजादी के बाद पचास बरस तक जो संसदीय राजनीति देश को हर क्षेत्र में स्वावलंबी बनाकर आर्थिक तौर पर मजबूती प्रदान करने में भिड़ी थी, उसे मनमोहन सिंह ने व्यवस्था को तोड़-मरोड़ कर आर्थिक लाभ का एक ऐसा घेरा बनाया, जिसमें स्वावलंबन शब्द गायब हो गया। और आर्थिक मजबूती ही नया मंत्र बन गया।<br /><br />पास में पूंजी रहे तो हर सुविधा भोगी जा सकती है । इसके लिये खेती का इन्फ्रास्ट्रक्चर मजबूत करने की सोच हाशिये पर चली गयी। उत्पादन से जुड़े धंधों को चौपट करने की दिशा में बकायदा नीतिगत फैसले लिये गये। इससे इतर सट्टेबाजी की महत्ता देश के सामने उभारी गयी यानी पूजी से पूंजी बनाने का खेल ही विकास की हकीकत है। क्योंकि पूंजी रहे तो राजनीतिक और सामाजिक मान्यता पायी जा सकती है। पूंजी रहे तो संसद से लेकर कॉरपोरेट घरानों के अंतर को भी मिटाया जा सकता है। और पूंजी रहे तो हर संस्थान को देखने-दिखाने का एक ही नजरिया समूचे समाज के सामने परोसा जा सकता है। पूंजी रहे तो कल्याणकारी राज्य की सोच बेमानी साबित की जी सकती है। और पूंजी के आसरे संसदीय सत्ता को भी बेबस पेश किया जा सकता है। मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था में इसका ताना-बाना किस हुनर से किया गया यह सत्ता में अगर कॉरपोरेट घरानों के दखल से समझा जा सकता है तो कॉरपोरेट घरानों की सत्ता के आगे संसदीय सत्ता के नतमस्तक होने से भी जाना जा सकता है। वह दौर पुरातन काल का प्रतीक है, जब पैसे वालो को संसद में पहुंचने से रोकने के लिये खुद राजनीति ही सामने आ खड़ी होती थी। अब तो हर कॉरपोरेट घराने के सर्वेसर्वा को राज्यसभा में लाने के लिये राजनीति ही चिरौरी करती है।<br /><br />जब मनमोहन की अर्थनीति के घेरे में कल्याणकारी राज्य की समझ ही गुम हो चुकी है और संसदीय राजनीति अपना आस्तितव ही पूंजी के मुनाफे तले टटोल रही है तो मीडिया की क्या बिसात। इस व्यवस्था में मीडिया को परिभाषित करने के लिय पत्रकारिता के बोल नहीं बल्कि पूंजी और मुनाफे के बोल ही मान्यता पा सकते हैं। यानी मनमोहन सिंह की व्यवस्था में पैसा कमाना ही पहला और आखिरी सच बन चुका है। ऐसे में लोकतंत्र का कोई खम्भा यह दावा नहीं करता कि बगैर उसके देश नहीं चल सकता और कोई खम्भा यह भी नहीं सोच पाता कि उसकी मौजूदगी तो चेक एंड बैलेंस के तहत है। इसीलिये राजनीति से सरोकार के पारंपरिक मूल्य भी बदले हैं। जो मीडिया पहले राजनीतिक सत्ता को अपनी लेखनी से प्रभावित करता था अब वह वित्तीय संस्थानों और कॉरपोरेट घरानों को प्रभावित करने लगा है। पहले राजनीति ही पत्रकार की मंजिल हो जाया करती थी। अब कॉरपोरेट घरानों से उसका सरोकार बढ़ा तो मंजिल भी कॉरपोरेट घराने हो चले हैं।<br /><br />इसका असर पत्रकारीय क्षेत्र में कारपोरेट घरानों के लिये काम कर रहे पत्रकारो की फौज से भी समझा जा सकता है। दो सौ से ज्यादा पत्रकार दिल्ली के राजनीतिक गलियारो में या नौकरशाहो के दप्तरो में अपने अपने आकाओं के धंधे के मुनाफे के लिये दस्तावेज जुगाड़ने से लेकर राजनीतिक लॉबिंग करते नजर आते हैं। इन पत्रकारो ने पारंपरिक पत्रकारिता छोड़ कर कॉरपोरेट सेक्टर के मीडिया ब्रांच में नौकरी करना ज्यादा बेहतर समझा। इसलिये अब बाबूओ के दप्तरो से कोई पत्रकार किसी दस्तावेज को नहीं पाता। क्योंकि कभी खबरों के लिये या कहे देश हित के लिये जो बाबू मुफ्त में पत्रकारों को दस्तावेज दे देता था, अब उस दस्तावेज की कीमत लगने लगी है। और कॉरपोरेट सेक्टर हित-अहित देखकर दस्तावेजों को मीडिया में रिलीज करता है और उन दस्तावेजो को कोई ना कोई पत्रकार जो कॉरपोरेट के लिये काम कर रहा है </span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">अनमोल कीमत देकर खरीद लेता है। यानी नेहरु से लेकर वाजपेयी तक को अगर फक्र होता कि वह पत्रकार भी रह चुके थे और संपादक मंडली के कई बड़े पत्रकारों ने अगर राजनीति में सीधी भागेदारी करके यह जताया कि वह जनता की सेवा राजनीति में आकर करना चाहते थे तो मनमोहन सिंह के दौर में हालात बिलकुल बदल चुके हैं। अब पत्रकार का रास्ता कॉरपोरेट घरानो की दिशा में जाता है। और किसी कंपनी का मालिक या कॉरपोरेट घराने में नीतियों को बनाने में लगा कोई व्यक्ति कह सकता है कि वह भी पत्रकार है। और जो यह बात कह रहे हैं या कहेंगे उनकी मान्यता सत्ता से लेकर मीडिया के क्षेत्र में भी ज्यादा होगी, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। इसलिये लॉबिग या कॉकस बनाने पर मीडिया या पत्रकार को घेरकर यह सवाल तो उठाया जा सकता है कि पत्रकारिता पटरी से उतर चुकी है लेकिन संसदीय राजनीति का लोकतंत्र ही पटरी से उतर चुका है, इस पर बहस नहीं की जा सकती । इसीलिये प्रेस कान्फ्रेन्स में प्रधानमंत्री से कोई पत्रकार बीते छह साल में एक लाख से ज्यादा किसानो की खुदकुशी पर कुछ नहीं पूछता । बीपीएल का आंकडा </span>47 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">करोड़ पहुंच जाने पर कोई सवाल नहीं करता। रजिस्टर्ड बेरोजगारों की संख्या </span>12 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">करोड़ पहुंचने के कारणों पर सवाल नहीं करता तो समझना यह भी होगा कि मनमोहन सिंह को कमजोर प्रधानमंत्री कहकर मीडिया कहकहा तो लगा सकती है लेकिन इस सच को अपने अक्स में देखना नहीं चाहती कि कमजोर कहने की ताकत भी वही सत्ता दे रही है, जो दिनोंदिन मजबूत होती जा रही है। और उसका राजनीतिक विकल्प अब भी पारंपरिक संसदीय राजनीति में देखा जा रहा है जो खुद मनमोहन की अर्थनीति से लाभ कमाने में जुटी है और आम जनता से कट चुकी है ।</span></p>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-43545154449995122402010-04-02T16:11:00.001+05:302010-04-02T16:12:30.772+05:30सरकार की पार्टनर मीडिया?<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">बॉलीवुड फिल्म </span>‘<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">रण</span>’ <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin; mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language: HI">से लेकर </span>‘<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">माय नेम इज खान</span>’ <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">और </span>‘<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin; mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language: HI">गजनी</span>’ <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">से लेकर </span>‘<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">थ्री इंडियट्स</span>’ <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">। कोई भी चर्चित फिल्म</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">जो बीते तीन-चार वर्षो में लोकप्रिय और हिट रही हो या फिर आने वाली हो</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">वो<span style="mso-spacerun:yes"> </span>बिना मीडिया पार्टनर के आपको नजर नहीं आयेगी। पार्टनर बनने को लेकर होड़ भी कुछ इस तरह है कि राष्ट्रीय न्यूज चैनल चाहे वह हिन्दी के हो या अंग्रेजी के सभी पार्टनर बनना भी चाहते है। फिल्म वाले बनाना भी चाहते हैं। निश्चित तौर पर जब कोई न्यूज चैनल पार्टनर हो जायेगा तो फिल्म के बारे में बताने का उसका नजरिया भी बदल जायेगा और न्यूज चैनल के स्क्रीन पर फिल्म के कार्यक्रम से लेकर नायक-नायिका का इंटरव्यू भी फिल्म को हिट बनाने की दिशा में ही उठेगा।</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">जाहिर है न्यूज चैनल को पार्टनर बना कर अपने माल को बेचने का मतलब सीधा सा है कि उत्पाद की क्रेडेबिलिटी बने। वहीं इंफोटेनमेंट में बदलते न्यूज चैनलों के लिये आपसी प्रतिद्वन्दिता में बाजी मार लेने का खेल भी है। चैनल की इस पार्ट्नरशीप का विस्तार इतना हो चुका है कि देश में कोई भी कार्यक्रम हो या नया प्रोजेक्ट सभी के साथ मीडिया का कोई ना कोई समूह बतौर पार्टनर नजर आ सकता है। मीडिया की यह पार्टनरशीप किसी राजनीतिक दल से जुड़े किसी संगठन के कार्यक्रम से लेकर किसी बड़ी कंपनी के किसी नये उत्पाद को लांच करते वक्त भी नजर आ सकती है। यह वह परिस्थितियां हैं</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">जो मीडिया को लेकर समाज के भीतर चौथे खम्भे के होने का एहसास खत्म करती हैं। अगर हर जगह कोई न कोई न्यूज चैनल किसी ना किसी का पार्टनर होगा तो चौथे खम्भे को लेकर यह भ्रम तो टूटेगा ही कि मीडिया की निगरानी में सभी हैं। या फिर मीडिया का काम निगरानी का है। और अगर मीडिया समाज के भीतर धंधा करने वालों के साथ ही खड़ा है तो फिर धंधे की विश्वसनीयता चाहे मीडिया के आसरे बन जाये लेकिन मीडिया की अपनी विश्वसनीयता तो दांव पर लगेगी ही।</span></p> <p class="MsoNormal"><span class="Apple-style-span" style="font-family: Mangal, serif; ">असल में चौथा खम्भा बने रहकर न्यूज चैनल चलाना यहीं से मुश्किल होता नजर आता है। बिकने और खरीदने का साथ मुनाफे का कोई भी रुप अपना लेने में न्यूज चैनलों को कोई परेशानी होती नहीं । क्योंकि आखिरी मापदंड जब मुनाफे की रकम का जुगाड़ होती है तो चाहे न्यूज चैनलों की कनैक्टिविटी का सवाल हो या विज्ञापन लाने का या फिर टीआरपी के जरीये चैनल को आगे बढ़ाने की होड़ का। पहले यह एकदूसरे के सहयोग पर टिकता है। फिर सभी एक सरीखा लगने लगता है। और आखिर में न्यूज चैनल के भीतर मास्टरवॉयस उसी की मानी जाती है जो सबसे ज्यादा खांटी नोटों के तौर पर मुनाफा दिलवा रहा हो।</span></p> <p class="MsoNormal"><span class="Apple-style-span" style="font-family: Mangal, serif; ">इस परिस्थिति में खुद को बनाये या टिकाये रखने के लिये न्यूज चैनलों के भीतर बिना पार्टनर लिखे या बिना पार्टनर बताये पार्टनर बनने की शुरुआत होती है। और चूंकि राजनीति सबसे पावरफुल सत्ता है तो उसके साथ मूक सहमति की पार्टनरशीप की शुरुआत होती है। लेकिन मीडिया के मंचो से मुनाफा कमाने-बनाने के आगे सरकार के साथ पार्टनरशीप की भी शुरुआत हो चुकी है। यह सिर्फ चुनाव के वक्त पेड न्यूज से ही नहीं उभरा बल्कि कौन सी खबर कवर की जाये और कौन सी नहीं इससे भी उभरने लगा है। जिस तरह राष्ट्रीय और क्षेत्रीय न्यूज चैनलों का अपना अलग वजूद होता है वैसे ही राष्ट्रीय न्यूज चैनलों और क्षेत्रीय स्तर के मीडिया की पार्टनरशीप अलग अलग तरह से कहीं भी देखी समझी जा सकती है। मसलन शरद पवार को निशाना बनाने की मुहिम जब सरकार के भीतर शुरु हुई और कांग्रेस खुल कर महंगाई के लिये कृषि मंत्री को घेरने निकली तो जो बात राष्ट्रीय न्यूज चैनल कह रहे थे या कहें कि दिखा रहे थे वह महाराष्ट्र के न्यूज चैनलो में न तो दिखाया जा रहा था न बताया जा रहा था। पवार की राजनीति को महाराष्ट्र में टक्कर देना कांग्रेस के बूते अभी तक नहीं है और पवार के मुनाफे के घेरे में महाराष्ट्र के न्यूज चैनलों की समूची फेरहिस्त आती है। ऐसे में वहां की रिपोर्टिंग में कृषि मंत्री के साथ साथ समूची कैबिनेट और पीएम का जिक्र हर कोई कर रहा था लेकिन दिल्ली के न्यूज चैनलों में महंगाई को लेकर समूचा ठीकरा पवार पर ही फोड़ा गया।</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">वहीं इस दौर में महंगाई की असल वजह पर कोई रिपोर्टिंग किसी न्यूज चैनल ने नहीं की। पहली बार गन्ने को लेकर मायावती ने उत्तर प्रदेश में महाराष्ट्र में पवार की लॉबी से बडी लॉबी बना ली और चीनी के दामों पर अपनी नकेल कस डाली लेकिन इस पर कोई रिपोर्टिंग नजर नहीं आयी कि मुनाफाखोरी-जमाखोरी के साथ साथ उत्पादों पर कब्जा करने के लिये व्यापारियों का राजनीतिक वर्ग बनाने की भी नयी पहल सत्ता ने ही शुरु कर दी है। जो शेयर बाजार की तरह न सिर्फ कीमतो को अपने अनुसार ऊपर-नीचे कर सकते हैं बल्कि शेयर दलाल की तर्ज पर समूचे बाजार को भी राजनीतिक हित साधने से जोड़ सकते है। मीडिया की यह पार्टनरशीप खबरों को भी राजनीतिक सत्ता के मुताबिक परिभाषित कर सकती है। महिला आरक्षण से लेकर नरेन्द्र मोदी की एसआईटी के सामने पेशी इसका एक छोटा सा उदाहरण है। महिला आरक्षण राज्यसभा में तो लागू होना नहीं है और लोकसभा में सांसदो के सामने संकट आना है तो ऊपरी सदन में जल्दबाजी में पास होना और निचले सदन में अनिश्चितकाल के लिये रोकने की वजह के पीछे की कहानी कभी मीडिया में नहीं आयेगी। जबकि हर कोई जानता है कि आरक्षण के समर्थन में राजनीतिक दलों के सांसदों की संख्या दो तिहाई है। वहीं मोदी एसआईटी दफ्तर के बाहर जमा तमाम न्यूज चैनलों के लिये चाय नाश्ते की व्यवस्था भी कराते हैं और पूछताछ के बाद मीडिया से मजे भी लेते है कि कोई मसाला उन्हें मिला या नहीं। जबकि किसी न्यूज चैनल पर यह सवाल नहीं रेंगता कि गुलबर्ग कांड के </span>24<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI"> धंटे बाद भी एक भी पुलिसकर्मी या सुरक्षाकर्मी वहां क्यो नहीं पहुंचा और मोदी जब एसआईटी के दप्तर पहुंचे तो उनके निवास से एसआईटी दफ्तर के डेढ़ किलोमीटर की दूरी के बीच में सुरक्षा के लिये करीब नौ सौ पुलिस वालों की तैनाती की जरुरत क्यों थी।</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">असल में राजनीति या सरकार से यह पार्टनरशीप कोई सीधा लाभ किसी न्यूज चैनल को पहुंचाती हो ऐसा भी नहीं है। और ऐसा भी नहीं है कि सरकार या राजनीति के रुठने पर किसी न्यूज चैनल के सामने संकट के बादल मंडराने लगे। लेकिन पार्टनर होकर जिस तरह से सत्ता के भीतर सत्ता का घेरा हर संस्थान बना रहा है और उसमें शरीक होने के लिये मीडिया समूहो से जुड़ा उच्च तबका बैचेन है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">उससे कई सवाल खुद-ब-खुद निकल पड़े हैं। क्या व्यवस्था का खाका ही संस्थानो की सहमति के आधार पर बन रहा है। सहमति और पार्टनर होकर मुश्किलों को ना सिर्फ टाला जा सकता है बल्कि ज्यादा बड़ी सत्ता के लिये कॉकस भी बनाया जा सकता है। सबसे बड़ी बात तो यही है कि क्या पदों पर बैठे लोगों को इसका एहसास हो चुका है कि जिस तेजी से देश की अर्थव्यवस्था कुलाचे मार रही है अगर उसमें मुनाफा बनाते हुये टिके रहना है तो पार्टनर बन कर जीया जा सकता है। जिसके लिये लोकतंत्र के सारे खम्भे ढहा ही क्यों ना दिये जायें। क्योंकि नया लोकतंत्र जनता या सरोकार में नहीं बाजार और मुनाफे पर टिका है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">और फिलहाल उसका पार्टनर मीडिया है। तो आवाज कौन उठायेगा</span>?</p>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-81568573331644234632010-03-19T12:47:00.001+05:302010-03-19T12:50:18.922+05:30खबरदार करते न्यूज चैनलों में खबर कहां है?<p class="MsoNormal"><span class="Apple-style-span" style="font-family:Mangal, serif;font-size:100%;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: 13px; line-height: 14px;"><b></b></span></span></p><span class="Apple-style-span" style="font-family:Mangal, serif;font-size:100%;"><b><p class="MsoNormal"><span class="Apple-style-span" style="font-weight: normal; "><b></b></span></p><b><p class="MsoNormal" style="display: inline !important; "><span class="Apple-style-span" style="font-weight: normal;">संसद के अंदर-बाहर महिला आरक्षण बिल को लेकर हंगामा था। तमाम न्यूज चैनलों में बहस चल रही थी कि आरक्षण बिल पास होगा या नहीं। रिपोर्टरों से लेकर विशेषज्ञ इस मुद्दे पर जूझ रहे थे। अचानक हिन्दी के तीन टॉपमोस्ट राष्ट्रीय न्यूज चैनलो के पर्दैं पर ब्रेकिंग न्यूज आयी-आनंदी को गोली लगी। आनंदी की हालत नाजुक। जगीरा को बचाने में लगी आनंदी को गोली। जा सकती है आनंदी की जान। लगातार आधे घंटे तक ब्रेकिंग न्यूज की ये पट्टियां चलती रहीं। आधे घंटे बाद इन्हीं तीन न्यूज चैनलों में से देश के अव्वल राष्ट्रीय न्यूज चैनल में ब्रेकिंग न्यूज के साथ ही पट्टी लिखी आने लगीं-टीआरपी के लिये बालिका वधू का खेल। इंटरटेनमेंट चैनलों में टीआरपी की जंग। आनंदी को गोली टीआरपी के लिये मारी गयी।</span></p></b><p></p><p class="MsoNormal"><span class="Apple-style-span" style="font-weight: normal; "><b></b></span></p><b><p class="MsoNormal" style="display: inline !important; "><span class="Apple-style-span" style="font-weight: normal;">एक झटके में लगा कि महिला आरक्षण को लेकर खबरों की जो संवेदनशीलता हिन्दी न्यूज चैनलों में दिखायी जा रही थी, उसने अपनी टीआरपी के खेल में खबरों की जगह टीआरपी वाले इंटरटेनमेंट चैनलों के सीरियलो की टीआरपी को भी खुद से जोड़ने की नायाब पहल शुरु कर दी है। कुछ इसी तर्ज पर खबरों को कवर करने से लेकर दिखाने का खेल भी न्यूज चैनल खुल्लम खुल्ला अपनाने लगे हैं। कॉमनवेल्थ गेम्स की कवरेज को लेकर दिल्ली में ओलंपिक एसोसिएशन ने न्यूज चैनलों को आमंत्रित किया। कमोवेश हर न्यूज चैनल के संपादक स्तर के पत्रकार कैमरा टीम के साथ इस बैठक में नजर आये। सभी के पास कॉमनवेल्थ गेम्स के कवरेज को लेकर प्लानिंग थी। और सभी सीधे सुरेश कलमाडी से संवाद बनाने में लगे थे।</span></p></b><p></p><p class="MsoNormal"><span class="Apple-style-span" style="font-weight: normal; "><b></b></span></p><b><p class="MsoNormal" style="display: inline !important; "><span class="Apple-style-span" style="font-weight: normal;">वहीं माओवादियों के खिलाफ ग्रीन हंट शुरु होने के बाद पहली बार दिल्ली में सरकार के खिलाफ मोर्चाबंदी करते हुये कई लोग एकसाथ मंच पर आये। इसमें जानी मानी लेखिका और एक्टिविस्ट अरुंधति राय, पूर्व आईएएस और नक्सलियों के बीच काम कर रहे बी डी शर्मा से लेकर मेनस्ट्रीम पत्रिका के संपादक सुमित चक्रवर्ती समेत कई क्षेत्रों से जुड़े आधे दर्जन से ज्यादा लोगों ने दिल्ली के फॉरेन प्रेस क्लब में प्रेस कॉन्फ्रेंस की। इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में बीबीसी,रायटर्स और सीएनएन जैसे अंतरराष्ट्रीय चैनल और एजेंसियों के पत्रकार मौजूद थे। लेकिन हिन्दी के टॉपमोस्ट पांच न्यूज चैनलों में से कोई पत्रकार वार्ता को कवर करने नहीं पहुंचा। जब देश के तीन सौ से ज्यादा जिलों को रेड कॉरिडोर में मान आंतरिक सुरक्षा का सवाल सरकार खड़ा कर रही है और आतंकवाद की तरह माओवाद को भी मान रही है तो भी किसी न्यूज चैनल के संपादक ने इस प्रेस कॉन्फ्रेंस को दिखाना जरुरी नहीं समझा । जबकि अगले दिन नॉर्थ ब्लॉक से निकलते गृह मंत्री पीं चिदंबरम की एक टिप्पणी, जिसे टेलीविजन की भाषा में बाइट कहा जाता है, को लेने के लिये करीब बीस न्यूज चैनलों के माईक-कैमरे सजे पड़े थे, जिसमें माओवादियों को लेकर बिहार-झारखंड की सरकार के ग्रीन-हंट ऑपरेशन को हरी झंडी देने की बात कही जा रही थी।</span></p></b><p></p><p class="MsoNormal"><span class="Apple-style-span" style="font-weight: normal; "><b></b></span></p><b><p class="MsoNormal" style="display: inline !important; "><span class="Apple-style-span" style="font-weight: normal;">यह टीआरपी की अगली कडी है। जिसमें खबरों को कवर करना या ना करना भी सीधे धंधे से मुनाफा बनाना है। सुरेश कलमाडी आज की तारीख में किसी भी न्यूज चैनल के संपादक के लिये सबसे बड़े व्यक्ति हैं। क्योंकि कॉमनवेल्थ के प्रचार प्रसार में मीडिया के हिस्से में करीब पाच सौ करोड़ का विज्ञापन है। और इस पूंजी को पाने के लिये कोई भी न्यूज चैनल अब यह खबर नहीं दिखा सकता है कि कॉमनवेल्थ की तैयारी कमजोर है। य़ा फिर दिल्ली में यमुना की जमीन से लेकर कॉमनवेल्थ के लिये दिल्ली में हजारों हजार पेड़ काटे जा चुके हैं और सिलसिला लगातार जारी भी है। यमुना की जमीन पर जिस तरह कॉमनवेल्थ के लिये कंक्रीट का जंगल खडा किया गया है, उससे सौ साल में सबसे ज्यादा पर्यावरण गर्म होने की स्थिति दिल्ली की है। लेकिन अब मीडिया की नजर कॉमनवेल्थ के धंधे से मुनाफा बनाने की है तो पर्यावरण तो दूर की बात है, खिलाड़ियों की बदहाली से जुडी खबरें भी गायब हो चुकी हैं। यानी कॉमनवेल्थ में सोने के तमगे का जुगाड़ होगा कैसे और खिलाड़ी जिन्हें कॉमनवेल्थ में देश का नाम रोशन करना है, वह खुद कितने अंधेरे में हैं, इस पर भी कोई खबर दिखाना नहीं चाहता क्योंकि उसे डर है कि कहीं कॉमनवेल्थ के प्रचार-प्रसार का विज्ञापन उसकी झोली से ना खिसक जाये। साथ ही वह तमाम कॉरपोरेट कंपनियां, जिनका जुडाव कॉमनवेल्थ गेम्स से है उनको लेकर भी कमाल का प्रेम मीडिया ने दिखाना शुरु कर दिया है। क्योंकि निजी विज्ञापन भी करीब हजार करोड से ज्यादा का है, जिसका इंतजार मीडिया कर रहा है। मीडिया की पूरी नजर इस वक्त करोड़ों रुपए के इन विज्ञापनों पर ऐसी टिकी है कि उसे इसके अलावा कुछ दिखायी नहीं दे रहा।</span></p></b><p></p><p class="MsoNormal"><span class="Apple-style-span" style="font-weight: normal; "><b></b></span></p><b><p class="MsoNormal" style="display: inline !important; "><span class="Apple-style-span" style="font-weight: normal;">ऐसे में सरकार और माओवाद के टकराव में देश के दो करोड़ से ज्यादा आदिवासी-ग्रामीणों का हाल कितना बदहाल है, इस पर देश के बुद्दिजिवियों को कोई न्यूज चैनल क्यों कवर करेगा। वहीं सरकार से करीबी धंधा करते न्यूज चैनलों को खबरनवीस भी माने रखगी तो फिर माओवाद हो या देश की कोई भी समस्या सिर्फ सरकार की परिभाषा के अलावे कुछ भी दिखाने का कोई मतलब है ही क्या। असल में खबर की जगह पूंजी का मुनाफा किस रुप में अपनाया जा चुका है, इसका एहसास हॉकी से लेकर आईपीएल के जरीये भी जाना जा सकता है। हॉकी को लेकर न्यूज चैनलों की बेरुखी तबतक रही जबतक प्रयोजक के तौर पर हीरो-होंडा और सेल सामने नहीं आये। जैसे ही विज्ञापनो का पैसा मीडिया में पंप हुआ और ओलंपिक एसोसिएशन ने पहल की तो तुरत-फुरत में राष्ट्रीय खेल को लेकर राष्ट्रीय भावना जाग गयी और औसतन प्रति दिन तीस से पच्चतर मिनट तक के कार्यक्रम हॉकी को लेकर दिखाये जाने लगे। जबकि उससे पहले डेढ़ मिनट से लेकर सात मिनट तक के प्रोग्राम ही न्यूज चैनलो पर चलते रहे थे। और उसमें भी आधे से ज्यादा हॉकी पर मंडराते आतंकवाद को लेकर रहते थे। आईपीएल को लेकर भी मीडिया की खुमारी तब टूटी जब उसके विज्ञापनो की बौछार हुई और विजुअल को दिखाने की इजाजत मिली।</span></p></b><p></p><p class="MsoNormal"><span class="Apple-style-span" style="font-weight: normal; "><b></b></span></p><b><p class="MsoNormal" style="display: inline !important; "><span class="Apple-style-span" style="font-weight: normal;">जाहिर है खबरो को दिखाने के लिये सरकार से लाइसेंस ले कर खड़े हुये न्यूज चैनलो की समूची कतार ही जब खबरों को परिभाषित करने से पहले अपना मुनाफा और मुनाफे पर टिके धंधे को ही देख रही हो तब न्यूज को परिभाषित करने का तरीका भी बदलेगा और देश के हालात पर भी वही नजरिया सर्वमान्य करने की कोशिश होगी जो सरकार की नीति में फिट बैठे। ऐसे में अगर किसी न्यूज चैनल में किसी दुर्घटना या आतंकवादी हमला या फिर ब्लास्ट से इतर कोई भी खबर दिखायी दे जाये तो एक बार उसकी तह में जाकर जरुर देखना चाहिये क्योंकि बिना मुनाफे के कोई खबर खबर बन ही नहीं सकती। क्योकि अब सवाल है कि महिला आरक्षण बिल हो या आनंदी को गोली लगना या फिर महंगाई से त्रस्त देश के सत्तर करोड़ से ज्यादा लोगो का दर्द या कॉमनवेल्थ गेम्स को लेकर दिल्ली को रंगीन बनाने का खेल। न्यूज चैनलों के आईने में सभी ब्रेकिंग न्यूज हैं और सभी एक सरीखी खबर हैं। तो कौन माई का लाल कहेगा कि न्यूज चैनल खबर नहीं नाच-गाना दिखाते हैं ।</span></p></b><p></p></b></span><p></p>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-52396514021219908372010-03-05T11:01:00.002+05:302010-03-05T11:06:06.292+05:30मीडिया को कठघरे में रखती एक कविता, गौर कीजिए...<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">बंधु....जो हालत और हालात देश के हैं</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">वैसे में अक्सर हम जैसे बहुत कुछ कहना-लिखना चाहते हैं। लेकिन कभी चंद लाइने हमारे बहुत-कुछ कहे या लिखे से आगे की बात कह जाती हैं। कभी मेरी सहयोगी रही ऋचा साकले ने मुझे यह कविता भेजी...तो मुझे लगा यह तो हम सभी को पढ़नी चाहिये.......खासकर कलमगिरी करने वालों को....जरा पढ़ें फिर गौर करें। </span></p> <p class="MsoNormal"><o:p> </o:p></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">उनवान- सहाफ़ी से<span style="mso-spacerun:yes"> </span>(शीर्षक- पत्रकार से)<br /><br /></span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">क़ौम की बेहतरी का छोड़ ख़याल</span>, (<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">देश की उन्नति का विचार छोड़ दे)</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">फिक्र-ए-तामीर-ए-मुल्क दिल से निकाल</span>, (<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">राष्ट्र निर्माण की चिन्ता छोड़ दे)</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">तेरा परचम है तेरा दस्त-ए-सवाल</span>, (<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">तेरे बैनर पर ही प्रश्न चिन्ह है)</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">बेज़मीरी का और क्या हो मआल (गिरने की क़ीमत क्या होनी चाहिए)</span></p> <p class="MsoNormal"><o:p> </o:p></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">अब क़लम से इज़ारबंद ही डाल (अपनी लेखनी से बस नाड़े ही पिरो)<br /><br /></span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">तंग कर दे ग़रीब पे ये ज़मीन</span>, (<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">निर्धनों पर अत्याचार में हाथ बंटा)</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">ख़म ही रख आस्तान-ए-ज़र पे जबीं</span>, (<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">धनपशुओं के आगे नमन करता रह)</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">ऐब का दौर है हुनर का नहीं</span>, (<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">ये समय बुराइयों का है योग्यता का नहीं)</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">आज हुस्न-ए-कमाल को है जवाल (तेरी यही योग्यता साबित करने का समय है)</span></p> <p class="MsoNormal"><o:p> </o:p></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">अब क़लम से इज़ारबंद ही डाल</span></p> <p class="MsoNormal"><o:p> </o:p></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">क्यों यहाँ सुब्ह-ए-नौ की बात चले</span>, (<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">किसलिए नई भोर की बात करोगे)</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">क्यों सितम की सियाह रात ढले</span>, (<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">क्यों तुम अत्याचार की रात की बात करोगे)</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">सब बराबर हैं आसमान के तले</span>, (<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">तुमने मान लिया है कि सब अच्छा है)</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">सबको रज़ाअत पसंद कह के टाल (सबको एडजस्ट करने वाला कहता रह)</span></p> <p class="MsoNormal"><o:p> </o:p></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">अब क़लम से इज़ारबंद ही डाल</span></p> <p class="MsoNormal"><o:p> </o:p></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">नाम से पेशतर लगाके अमीर</span>, (<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">अपने काम के बजाय अपनी औक़ात को धार दे)</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">हर मुसलमान को बना के फ़क़ीर</span>, (<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">हर ईमानदार को कमज़ोर बनाकर)</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">क़स्र-ओ-दीवान हो क़याम पज़ीर</span>, (<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">हर हाल में महल और पद हासिल कर ले)</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">और ख़ुत्बों में दे उमर की मिसाल (और सिर्फ़ बयान में ख़लीफ़ा उमर फ़ारूक़ की मिसाल दे)</span></p> <p class="MsoNormal"><o:p> </o:p></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">अब क़लम से इज़ारबंद ही डाल</span></p> <p class="MsoNormal"><o:p> </o:p></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">आदमीयत की हमनवाई में</span>, (<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi- mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">मानवता का साथ देने के ढोंग में)</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">तेरा हमसर नहीं ख़ुदाई में</span>, (<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">कोई तुझसा नहीं भगवान का दावा करने में)</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">बादशाहों की रहनुमाई में</span>, (<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">सत्ताधारियों के तलवे चाटने में)</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">रोज़ इस्लाम का जुलूस निकाल (रोज़ धर्म का नाटक रच)</span></p> <p class="MsoNormal"><o:p> </o:p></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">अब कलम से इज़ारबंद ही डाल</span></p> <p class="MsoNormal"><o:p> </o:p></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">लाख होंठों पे दम हमारा हो</span>, (<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi- mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">फिर भी बात अवाम की ही करना)</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">और दिल सुबह का सितारा हो</span>, (<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">ये दिखाना के जिस सुबह की तू बात करता है वो आएगी)</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">सामने मौत का नज़ारा हो</span>, (<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">सम्मुख मौत बंट रही हो तब भी)</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">लिख यही ठीक है मरीज़ का हाल (यही कहना मानवता सुरक्षित है)</span></p> <p class="MsoNormal"><o:p> </o:p></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">अब कलम से इज़ारबंद ही डाल (अपनी लेखनी से बस नाड़े ही पिरो)</span></p> <p class="MsoNormal"><span style="mso-spacerun:yes"> </span></p> <p class="MsoNormal">- <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">हबीब जालिब</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">पाकिस्तान</span></p> <p class="MsoNormal">(1928- 1993)</p>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-52510200257899478532010-02-09T11:23:00.000+05:302010-02-09T11:24:21.711+05:30कोई कैसे बताए कि मीडिया बिका हुआ हैबिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने चार साल के शासन के दौरान अपने सुशासन के प्रचार-प्रसार में सौ करोड़ रुपये फूंक दिये। हरियाणा के सीएम ने पिछले साल चुनाव के ऐलान से ऐन पहले के ढाई महीने में अपनी सफलता के गीत गाने में अस्सी करोड़ रुपये फूंके थे। महाराष्ट्र सरकार ने चुनावी साल यानी 2009 में करीब दो सौ करोड़ रुपये प्रचार प्रसार में फूंक कर बताया कि उसने कितने कमाल का काम महाराष्ट्र के लिये किया है। केन्द्र सरकार के डीएवीपी ने पिछले साल जुलाई-अगस्त में यानी सिर्फ दो महीने में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के महिमागान में दो करोड़ 97 लाख 70 हजार 498 रुपये फूंक दिए। बीते साल मायावती ने सवा सौ करोड़ तो नरेन्द्र मोदी ने डेढ़ सौ करोड़ रुपये प्रचार प्रसार में खर्च कर यह बताया कि उनके कामकाज से राज्य कितना खुशहाल हुआ है और आगे भी कैसी तरक्की करेगा।<br /><br />औसतन हर राज्य में 75-80 करोड़ रुपए सालाना प्रचार-प्रसार में फूंके ही जाते हैं। यह काला धन नहीं होता। सफेद और जनता का पैसा होता है। यानी तीस हजार करोड़ से ज्यादा की पूंजी हर साल खुल्लम-खुल्ला मीडिया के जरीये प्रचार प्रसार में फूंकी ही जाती है। जी, यह पूंजी मीडिया में जाती है। उसी मीडिया में, जिसे लेकर नया सवाल पेड न्यूज का खड़ा हुआ है, यानी खबरों को भी छापने और दिखाने के लिये खबर से जुड़ी पार्टी से पैसे लिये जाये। खासकर चुनाव के वक्त चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों से नोटों की गड्डियां लेकर खबर को प्रचार प्रसार में तब्दील कर दिया जाये। पेड न्यूज का यह धंधा काला होता है क्योंकि सफेद धन इस तरह दिखाया नहीं जा सकता। लेकिन नोट छापने वाली कोई मशीन तो काले-सफेद का भेद करती नहीं इसलिये नेताओ का यह पैसा उसी आम जनता को किसी न किसी तरह चूना लगाकर ही बनाया जाता है, जिसके लिये चुनाव लोकतंत्र का प्रतीक और मीडिया लोकतंत्र का चौथा खम्भा है, जिसका काम निगरानी का है।<br /><br />अब सवाल है कि सत्ता में आ कर अपनी कमजोरियों को छुपाकर उसे उपलब्धियों में बदलकर करोड़ों रुपये निगरानी करने वालों को बांट कर जब लोकतंत्र को बचाने का प्रचार प्रसार हो रहा हो तो कौन सही है और कौन गलत इसका पता कैसे चलेगा? नयी मुश्किल यहीं से शुरु होती है। मीडिया पर सरकार नकेल कसे और बताये खबरों की कीमत लगाने का खेल वह बंद करे या फिर मीडिया सरकार पर नकेल कसे और बताये कि आप आम जनता के धन को अपने प्रचार-प्रसार में उड़ाएं नहीं, उससे लोकहितकारी नीतियों को अमल में लायें। और काला धन बांटने वाले नेताओं के बारे में जानकारी देने लगे कि फलां नेता ने कहां से कितनी काली पूंजी बनायी है। क्या यह संभव है ? लेकिन सवाल उठे हैं और उसकी जांच को लेकर भी सरकार और मीडिया दोनों सक्रिय हैं। लेकिन कोतवाली करने वही सस्थान सक्रिय हैं, जिनके कर्ता-धर्ता ही करोड़ों के वारे-न्यारे में हमेशा सक्रिय रहे। आहत पत्रकारों ने चुनाव आयोग का दरवाजा खटखटकाया तो आयोग ने भी प्रेस काउंसिल से पूछा कि वह ‘पेड न्यूज’ को परिभाषित करे। प्रेस काउंसिल ने एडिटर्स गिल्ड का दरवाजा खटखटाया। आम धारणा यही बनी कि एडिटर्स गिल्ड निर्णय ले तो पेड न्यूज का धंधा बंद हो सकता है और मीडिया पत्रकारिता पर लौट सकती है। लेकिन समझ यह भी आया कि अब एडिटर नामक जीव पत्रकारिता नहीं मीडिया चलाता है तो उसकी जरुरत उस पूंजी पर जा टिकी है, जिसके आसरे उसकी मौजूदगी एडिटर के रुप में भी रहे और उसका संस्थान मुनाफे के आसरे भी चलता रहे। वहीं सरकार ने भी अपनी नीतियों के आसरे ऐसी व्यवस्था कर दी है कि जिससे बिना पूंजी कोई मीडिया के बाजार में टिक ना सके और पूंजी के लिये सरकार के सामने घुटने टेककर खड़ा भी रहे। मसलन अखबारी कागज की कीमत इसी आर्थिक सुधार के दौर में कई सौ फीसदी तक बढ़ गई। आज बीस पेज के अखबार की लागत पन्द्रह रुपये होगी ही। लेकिन, अखबार की कीमत तीन रुपये से ज्यादा हो नहीं सकती। जिसमें हॉकर और आवाजाही में डेढ़ रुपये तक जायेंगे। 15 रुपये का अखबार डेढ़ रुपये में बेचकर कोई कैसे लागत भी निकालेगा। अगर जनता के पैसे पर सरकारी प्रचार प्रसार को जायज ठहरा दिया जाये तो भी औसतन अखबारों को प्रति अखबार चार से पांच रुपये से ज्यादा मिल नहीं सकता, वह भी उन्हें जिनकी प्रसार संख्या लाख से ज्यादा हो। बाकी की पूंजी कहां से आयेगी। जो विज्ञापन निजी कंपनियों के हैं, वह भी प्रति अखबार दो-तीन रुपये से ज्यादा होते नहीं। तो बाकी बचे प्रति अखबार पांच रुपये के लिये कौन सहारा होगा। यह स्थिति टॉप के तीन अखबारो से इतर है क्योंकि उनका बजट निजी-सरकारी विज्ञापनों से चल सकता है।<br /><br />लेकिन मुनाफे की होड़ में कौन किसका किस रुप में सहारा बनेगा यह सवाल अलसुलझा नहीं है। जिले स्तर पर विधायक-सांसद तो राज्य स्तर पर मुख्यमंत्री या मंत्रालय संभालने वाले मंत्री और राष्ट्रीय स्तर पर सरकार सबसे बडी पार्टी होती है। यानी निजी राजनीति को साधने से लेकर पार्टी लाइन और विचारधारा को साधना भी पूंजी कमाने का धंधा मीडिया के लिये हो सकता है। लेकिन इसे कोई पेड न्यूज के घेरे में नहीं रखता। कमोवेश यही स्थिति न्यूज चैनलों की है। लेकिन,यहां विज्ञापनो का अंतर उस टीआरपी से होता है, जिसके घेरे में पहले नंबर पर रहने वाला चैनल तो ढाई सौ करोड़ रुपये सालाना तक कमा सकता है और दसवे नंबर के न्यूज चैनल को साल भर में पच्चीस लाख जुटाने में पसीने छूट जाते हैं। पर खर्च में एक-दो करोड़ से अधिक अंतर नहीं होता। यहीं लगता है कि सरकार की निगरानी होनी चाहिये । लेकिन सरकार निगरानी की जगह सौदेबाजी की पार्टी बन जाती है। यह सरकार की ही कमजोर नीति है कि डीटीएच यानी डायरेक्ट टू होम विज्ञापन का कोई आधार नहीं है और केबल सिस्टम जिस पर टीआरपी टिकी है, उस पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। इसलिये न्यूज चैनल अपने प्रचार प्रसार के लिये केबल संचालित करने वालों को सालाना 30 से 40 करोड़ रुपये देते है ताकि वह राष्ट्रीय स्तर पर दिखायी दे सकें। यह 30 से 40 करोड़ कोई सफेद धन नही होता। फिर केबल ही जब टीआरपी का आधार हो तो न्यूज चैनल की जान खबरों से ज्यादा केबल और उसके बाद टीआरपी में रहती है। इसलिये हर राज्य में केबल पर उसी राजनीति का कब्जा है, जिसकी सरकार है। तो केबल पर दिखने के लिये कोई न्यूज चैनल कैसे उस राज्य की सत्ता से खिलवाड़ कर सकता है, चाहे वहां का नेता सरकार चलाये या जनता के धन को प्रचार प्रसार में उड़ाये। भागेदारी जब मीडिया-सरकार की एक सरीखी है, तो जनता के बीच सवाल सिर्फ विश्वसनीयता का ही बचेगा। शायद इसलिये न मीडिया की विश्वसनीयता बच रही है और न ही राजनीति और नेताओं की। क्योंकि इस देश में जिनकी विश्वसनीयता है, उनके प्रचार-प्रसार की जरुरत नहीं पड़ती। जय जवान-जय किसान का नारा लगाने वाले लाल बहादुर शास्त्री के प्रचार में बीस साल का खर्च सिर्फ सवा करोड़ है और सरदार पटेल पर बीस साल में सिर्फ डेढ़ करोड़ रुपए खर्च किये गये। लेकिन 1991 यानी आर्थिक सुधार के बाद से केन्द्र सरकार ने सिर्फ प्रचार प्रसार में नब्बे लाख करोड़ से ज्यादा फूंक डाले। मीडिया भी उसी से फला-बढ़ा। ये भी एक सच है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com21tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-24173018822090442052009-12-21T13:27:00.003+05:302009-12-21T13:50:55.782+05:30आखिर किसे इडियट बना रहे हैं आमिर खान !<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">हैलो</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">जी आमिर खान आपको इन्वाइट कर रहे हैं। इंटरव्यू देने के लिये । आप तो जानते है कि अमिर खान देश भ्रमण कर रहे हैं। जी...थ्री इंडियट्स को लेकर । हां</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">रविवार को वह चेन्नई में होंगे...तो आपको चेन्नई आना होगा। आप बीस दिसंबर यानी रविवार को चेन्नई पहुंच जाइये। वहीं आमिर खान से इंटरव्यू भी हो जायेगा। आमिर रविवार को तीन बजे तक चेन्नई पहुचेंगे तो आपका इंटरव्यू चार बजे होगा। आप उससे पहले पहुंच जाएं। और हां... आमिर खान चाहते है कि इंटरव्यू के बाद आप तुरंत दिल्ली ना लौटे बल्कि रात में साथ डिनर लें और अगले दिन सुबह लौटें। तो आप कब पहुंचेंगे। अरे अभी आपने जानकारी दी...हम आपको कल बताते हैं</span>, <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin; mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language: HIfont-family:Calibri;">क्या हो सकता है। नहीं-नहीं आपको आना जरुर है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">हम सिर्फ पांच जनर्लिस्ट को ही इन्वाइट कर रहे हैं और आमिर खासतौर से चाहते है कि आप चेन्नई जरुर आएं। ठीक है कल बात करेंगे......तभी बतायेंगे। </span></p><p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;"><br />फोन पर बात खत्म हई और मेरे दिमाग में </span><span lang="EN-US" style="mso-bidi-mso-ansi-language:EN-US;mso-bidi-language:HIfont-family:Mangal;">‘</span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">थ्री इडियट्स</span><span style="mso-bidi-mso-bidi-language:HI;font-family:Mangal;">’</span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;"> को लेकर आमिर खान के देश भ्रमण से जुड़े न्यूज चैनलो पर रेंगने वाली तस्वीरे घुमड़ने लगी । आमिर, जिसकी अपनी एक इमेज है। ऐसी इमेज जो बॉलीवुड में दूसरे नामी कलाकारों से उन्हें अलग करती है....जो सामाजिक सरोकार से भी जुड़ी है। मेधा पाटकर के आंदोलन को नैतिक साहस देने वाले आमिर खान बिना कोई मुखौटा लगाये पहुंचे थे। अच्छा लगा था। लेकिन जेहन में बड़ा सवाल यही था कि बनारस की गलियों में अपनी मां के घर को ढूंढते आमिर खान को चेहरा बदलने की जरुरत क्यों पड़ी। मुंह में पान। गंदे दांत। शर्ट और हाफ स्वेटर.....कांख में बाबू टाइप बैग को दबाये आमिर खुछ इस तरह आम लोगों के बीच घूम रहे थे, जैसे वह बनारसी हो गये या फिर बनारस की पहचान यही है। जबकि मध्य प्रदेश में चंदेरी के बुनकरों की बदहाली में उन्होंने करीना कपूर का तमगा जड़ बुनकरों की हालत में सुधार लाने के लिये लोकप्रिय डिजाइनर सव्यसाची मुखर्जी से भी संपर्क किया। कहा गया कि आमिर बुनकरों के संकटों को समझ रहे हैं। वहीं कोलकत्ता में सौरभ गांगुली के घर के दरवाजे के बाहर किसी फितरती....अफलातून...की तरह नजर आये आमिर। पंजाब में एक विवाह समारोह में दुल्हे के मां-बाप के साथ एक ही थाली में टुकड़ों को बांटते हुये हर्षोउल्लास के साथ खुशी बांटते नजर आये। बनारस के रिक्शे वाले की समझ हो या चंदेरी के बुनकर या फिर पंजाब के बरातियो की समझ.....सब यह मान रहे थे कि आमिर उनके बीच उनके हो गये। फिर आमिर को चेहरा बदलने की जरुरत क्यों पड़ी । क्या आमिर का नजरिया वर्ग-प्रांत के मुताबिक लोगो के बीच बदल जाता है। या फिर आमिर पहले मुखौटे से इस बात को अवगत कराते है कि मै आपके बीच का सामान्य व्यक्ति हूं जो आप ही के प्रांत का है। लेकिन उसके बाद अपनी असल इमेज दिखाकर वह अचानक विशिष्ट हो जाते हैं। जैसे झटके में उनके रंग में रंगा व्यक्ति आमिर खान निकला। अगर आखिर में बताना ही है कि मै आमिर खान हूं तो फिर मुखौटा ओढ़ने की जरुरत क्यों।<br /><br />कह सकते है यह थ्री इडिट्स के प्रचार का हिस्सा है और इसे इतने गंभीर रुप से नहीं देखना चाहिये । लेकिन यहीं से एक दूसरा सवाल भी पैदा होता है कि जो दबे-कुचले लोग हैं। जो व्यवस्था की नीतियों तले अपने हुनर को भी को खो रहे हैं। जिनके सामने दो जून की रोटी का संकट पैदा हो चुका है। जिनके लिये सरकार के पास कोई नीति नहीं है और राजनीति में वोट बैक के प्यादे बनकर यही लोकतंत्र के नारे को जिलाये हुये हैं तो क्या वाकई आमिर खान की पहल उनकी स्थिति बदल सकती है। या फिर आमिर की इमेज में इससे सामाजिक सरोकार के दो-चार तमगे और जुड़ जायेंगे। यह सारे सवाल जेहन में रेंग ही रहे थे कि मुबंई का नंबर फिर मोबाइल पर चमका। और आमिर खान के इंटरव्यू का निमंत्रण दोहराते हुये इस बार कई सुविधाओ भरे जबाब जो सवाल का पुट ज्यादा लिये हुये थे...दूसरी तरफ से गूंजे। आपके रहने की व्यवस्था चेन्नई से डेढ-दो घंटे की रनिंग बाद फिशरमैन्स क्लोव में की गयी है। यह बेहद खूबसूरत जगह पर है। चेन्नई से महाबलीपुरम की तरफ । आपके कैमरापर्सन की भी ठहरने की व्यवस्था हम कर देंगे। आप उनका नाम हमें बता दें। जिससे उनकी भी व्यवस्था हो जाये। मैं सोचने लगा जब </span><span lang="EN-US" style="mso-bidi-mso-ansi-language:EN-US; mso-bidi-language:HIfont-family:Mangal;">‘</span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">आजतक</span><span style="mso-bidi-mso-bidi-language:HI;font-family:Mangal;">’</span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;"> शुरु हुआ था तो एसपी सिंह अक्सर कहा करते थे कि कही किसी भी कार्यक्रम को कवर करने जाना है तो कंपनी के पैसे से जाना है। किसी की सुविधा नहीं लेनी है । और नेताओ का मेहमान तो बिलकुल नहीं बनना है। इतना ही नहीं जब आजतक न्यूज चैनल के रुप में सामने आया तो भी मैंने उस दौर में इंडिया दुडे के मैनेजिंग एडिटर और आजतक के मालिक अरुण पुरी को भी मीटिंग में अक्सर कहते सुना कि किसी दूसरे का मेहमान बनकर उससे प्रभावित होते हुये न्यूज कवर करने का कोई मतलब नहीं है। इससे विश्वसनीयता खत्म होती है। और बाद में न्यूज हेड उदय शंकर बने तो उन्होंने भी इस लकीर को ही पकड़ा कि न्यूज कवर करना है तो अपने बूते। कही डिगना नहीं है। कहीं झुकना नहीं है। और विश्वसनीयता बरकरार रखनी है।<br /><br />लेकिन फोन पर मुझे आमिर खान के साथ डिनर का न्यौता देकर लुभाया भी जा रहा था। लेकिन आप हमें क्यों बुला रहे हैं ....हम कैसे थ्री इडियट्स का प्रचार कर सकते हैं। आपको प्रचार करने को कहां कह रहे हैं। आप जो चाहे सो आमिर खान से पूछ सकते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि आमिर जिस तर्ज बनारस से चेन्नई तक को नांप रहे हैं, उससे वहां के दर्द को भी थ्री इडियट्स में लपेट रहे हैं। सबकुछ प्रचार का हिस्सा है तो हम कैसे इसमें शरीक हो सकते है। यह आप कैसे कह सकते है....आमिर खान चंदेरी नहीं जाते तो कौन जानता वहां के बुनकरो की बदहाली। मेरा दिमाग ठनका......यानी आमिर चंदेरी गये तो ही देश जान रहा है कि चंदेरी के बुनकरो की बदहाली। क्यों आप जानते है कि देश के पैंतीस लाख से ज्यादा बुनकर आर्थिक सुधार तले मजदूर बन गये। जो देश के अलग अलग शहरो में अब निर्माण मजदूरी कर रहे हैं। सही कह रहे है आप चंदेरी का मामला सामने आया तो बाकी संकट भी आमिर उभारेंगे।<br /><br />मुझे भी लगा फिल्मों का नायक यूं ही नहीं होता.....सिल्वर स्क्रीन की आंखों से अगर देश को देखा जाये और प्रधानमंत्री किसी नायक सरीखा हो जाये या फिर नायक ही सर्वेसर्वा हो जाये तो शायद देश में कोई संकट ही ना रहे। मुझे याद आया जब बलराज साहनी</span>,<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-mso-bidi-theme-font:minor-bidi; mso-bidi-language:HIfont-family:Mangal;"> दो</span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;"> बीघा जमीन फिल्म की शूटिंग कर रहे थे तो उनसे पूछा गया कि किसानों की त्रासदी की तरफ क्या सरकार इस फिल्म के बाद ध्यान देगी। तो बलराज साहनी जबाब था कि फिल्म उसी व्यवस्था के लिये गुदगुदी का काम करती है जो इस तरह की त्रासदी को पैदा करती है। इसलिये फिल्मों को समाधान ना माने। यह महज मनोरंजन है । और मुझे चरित्र के दर्द को उभारने पर सुकून मिलता है। क्योकि हम जिन सुविधाओं में रहते हैं उसके तले किसी दर्द से कराहते चरित्र को उसी दर्द के साथ जी लेना अदाकारी के साथ मानवीयता भी है।<br /><br />सोचा तब यह बात कलाकार भी समझते थे और अब मीडियाकर्मी भी नहीं समझ पाते। फिर सोचा कि मीडिया का यह चेहरा ही असल में भूत-प्रेत और नाचा-गाना को खबर के तौर पर पेश करने से ज्यादा त्रासदी वाला हो चला है। दरअसल, आमिर के प्रचार की जिस रणनीति को अंग्रेजी के बिजनेस अखबार बेहतरीन मार्केटिंग करार दे रहे हैं,वो सीधे सीधे लोगों की भावनाओं के साथ खेलना है। फिल्म के प्रचार के लिए लोगों की भावनाओं की संवेदनीशीलता को धंधे में बदलकर मुनाफा कमाते हुए अलग राह पकड़ लेना नया शगल हो गया है। लेकिन,यहीं एक सवाल फिर जेहन में आता है कि यहां एक लकीर से ऊपर पहुचते ही सब एक समान कैसे हो जाते हैं। चाहे वह फिल्म का नायक हो या किसी अखबार या न्यूज चैनल का संपादक या फिर प्रचार में आमिर के साथ खड़े सचिन तेंदुलकर। सोचा आमिर खान चेन्नई में क्या इंटरव्यू देते हैं और थ्री इडियट्स का कैसे प्रचार करते हैं, यह दूसरे न्यूज चैनलों को देखकर समझ ही लेंगे। मैंने फोन पर बिना देर किये कहा</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">मुझे क्षमा करें मैं चेन्नई नहीं आ पाऊंगा।</span><span style="mso-bidi- mso-bidi-language:HI;font-family:Mangal;"><o:p></o:p></span></p>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-79013754117561119672009-12-12T11:41:00.001+05:302009-12-12T13:25:46.335+05:30कोपेनहेगेन, मीडिया और कविता<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">कोपेनहेगेन से कुछ निकलेगा इसकी संभावना नहीं के बराबर है । सवाल है जो पर्यावरण अमेरिका के लिये अर्थशास्त्र है</span><span style="mso-bidi-mso-bidi-language: HI;font-family:Mangal;">,</span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi- mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;"> वही पर्यावरण हमारे लिये संस्कृति है । और कोपेनहेगेन में इसी संस्कृति को कानूनी जामा पहनाकर टेक्नालाजी बेचने-खरीदने का धंधा शुरु हुआ है । संस्कृति बेचकर विकासशील देशो के उन्हीं उघोगों और कारपोरेट सेक्टरो को कमाने के लिये कोपेनहेगेन में </span>200<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;"> बिलियन डालर है जिनके धंधे तले भारत में किसानी खतरे में पड चुकी है और पीने का पानी दुर्लभ हो रहा है । मनमोहन सिंह भी इसी समझ पर ठप्पा लगाने </span>18<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi- mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;"> दिसंबर को कोपेनहेगेन जायेंगे। मनमोहन के अर्थशास्त्र ने जो नयी सस्कृति देश में परोसी है, उसमें धंधे और मुनाफे में सबकुछ सिमट गया है । लोकतंत्र का हर पहरुआ पहेल मुनाफा बनाता है फिर सवाल खड़ा करता है । अछूता चौथा खम्भा यानी मीडिया भी नहीं है। जाहिर है धंधा मीडिया की जरुरत बन चुकी है तो कोपेनहेगेन को लेकर उसकी रिपोर्टिग भी उसी दिशा में बहेगी जिस दिशा में मुनाफा पानी तक सोख ले रहा है । पृथ्वी गर्म हो रही है। जीवन को खतरा है । </span>2012<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi- mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;"> तक सबकुछ खत्म हो जायेगा.....कुछ इसी तरह अखबार और न्यूज चैनल लगातार खबरे दिखा भी रहे है । इसी मीडिया के लिये कोई मायने नहीं रखता कि आधुनिकता और औघोगिकरण के साये में कैसे मानसून को ही छिन लिया गया । बीते बीस सालों के मनमोहनइक्नामिक्स के दौर में </span>45<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;"> हजार से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या कर ली और नौ फीसदी खेती योग्य जमीन को बंजर बनाया गया । चार फिसदी खेती की जमीन को उघोगों ने हड़प लिया । यह सवाल मीडिया के लिये मौजू नहीं है । याद कीजिये कैसे दो दशक पहले तक एक बहस होती थी कि पत्रकारिता और साहित्य एक दूसरे से जुडे हुये है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">तब सरोकार का सवाल सबसे बड़ा माना जाता है । लेकिन नये दौर में पत्रकारिता बिकने को तैयार है तो साहित्य कमरे में बौद्धिकता से दो दो हाथ कर रहा है । कहते है तीसरा विश्वयुद्द पानी को लेकर ही होगा । ऐसे में बात कोपेनहेगेन की क्या करें.......माना जाता है कवितायें हमें अपने समय और चीजों के भीतर मौजूद उन बारीक और सघन संवेदनाओ और आहटों के संसार में ले जाती है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">जो बाजार के शोर में हमसे अनदेखा या अनसुना रहता है । ऐसे मौके पर आज एक कविता पढाइये...आलोक धन्वा की यह कविता उसी बाजार से जिरह करती है जो जिन्दगी का सबकुछ सोखकर जिलाना चाहती है । करीब </span>12<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;"> साल पहले आलोक धन्वा ने यह कविता लिखी थी ।</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;"><b>पानी</b></span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">आदमी तो आदमी</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">मै तो पानी के बारे में भी सोचता था</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">कि पानी को भारत में बसना सिखाउगां<br /><br /></span></p> <p class="MsoNormal"><span style="mso-spacerun:yes"> </span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">सोचता था</span><span lang="HI"> </span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">पानी होगा आसान</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">पूरब जैसा</span><span lang="HI"> </span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">पुआल के टोप जैसा</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">मोम की रोशनी जैसा<br /><br /></span></p> <p class="MsoNormal"><span style="mso-spacerun:yes"> </span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">गोधूलि के उस पार तक</span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-mso-bidi-theme-font: minor-bidi;mso-bidi-language:HIfont-family:Mangal;"><o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">मुश्किल से दिखाई देगा</span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-mso-bidi-theme-font: minor-bidi;mso-bidi-language:HIfont-family:Mangal;"><o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">और एक ऐसे देश में भटकायेगा</span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi- mso-bidi-theme-font:minor-bidi;mso-bidi-language:HIfont-family:Mangal;"><o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">जिसे अभी नक्शे पर आना है<br /><br /></span></p> <p class="MsoNormal"><span style="mso-bidi-language:HI"><o:p> </o:p></span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">उचाई पर जाकर फूल रही लतर</span><span lang="HI"> </span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">जैसे उठती रही हवा में नामालूम गुंबद तक</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">यह मिट्टी के घडे में भरा रहेगा</span><span lang="HI"> </span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">जब भी मुझे प्यास लगेगी<br /><br /></span></p> <p class="MsoNormal"><span style="mso-bidi-language:HI"><o:p> </o:p></span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">शरद हो जायेगा और भी पतला</span><span lang="HI"> </span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">साफ और धीमा</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">किनारे पर उगे पेड की छाया में<br /><br /></span></p> <p class="MsoNormal"><span style="mso-spacerun:yes"> </span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">सोचता था</span><span lang="HI"> </span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">यह सिर्फ शरीर के काम ही नहीं आयेगा</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">जो रात हमने नाव पर जगकर गुजारी</span><span lang="HI"> </span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">क्या उस रात पानी</span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-mso-bidi-theme-font:minor-bidi; mso-bidi-language:HIfont-family:Mangal;"><o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">सिर्फ शरीर तक आकर लौटता रहा </span>?<br /><br /><span style="mso-bidi-language:HI"><o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal"><span style="mso-bidi-language:HI"><o:p> </o:p></span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">क्या क्या बसाया हम ने</span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-mso-bidi-theme-font: minor-bidi;mso-bidi-language:HIfont-family:Mangal;"><o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">जब से लिखना शुरु किया </span>?<br /><br /><span style="mso-bidi-language:HI"><o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal"><span style="mso-spacerun:yes"> </span><span style="mso-bidi-language:HI"><o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">उजडते हुए बार-बार</span><span lang="HI"> </span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">उजडने के बारे में लिखते हुये</span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi- mso-bidi-theme-font:minor-bidi;mso-bidi-language:HIfont-family:Mangal;"><o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">पता नहीं वाणी का </span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-mso-bidi-theme-font: minor-bidi;mso-bidi-language:HIfont-family:Mangal;"><o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">कितना नुकसान किया<br /><br /></span></p> <p class="MsoNormal"><span style="mso-bidi-language:HI"><o:p> </o:p></span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">पानी सिर्फ वही नहीं करता</span><span lang="HI"> </span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">जैसा उस से करने के लिये कहा जाता है</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">महज एक पौधे को सींचते हुये पानी</span><span lang="HI"> </span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">उसकी जरा-सी जमीन के भीतर भी</span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">किस तरह जाता है<br /><br /></span></p> <p class="MsoNormal"><span style="mso-spacerun:yes"> </span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">क्या स्त्रियों की आवाजो से बच रही है</span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi- mso-bidi-theme-font:minor-bidi;mso-bidi-language:HIfont-family:Mangal;"><o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">पानी की आवाजें</span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-mso-bidi-theme-font:minor-bidi; mso-bidi-language:HIfont-family:Mangal;"><o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">और दूसरी सब आवाजे कैसी है</span>?<br /><br /><span style="mso-bidi-language:HI"><o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal"><span style="mso-bidi-language:HI"><o:p> </o:p></span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">दुखी और टूटे हुये ह्रदय में</span><span lang="HI"> </span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">सिर्फ पानी की रात है</span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-mso-bidi-theme-font: minor-bidi;mso-bidi-language:HIfont-family:Mangal;"><o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">वहीं है आशा और वहीं है</span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-mso-bidi-theme-font: minor-bidi;mso-bidi-language:HIfont-family:Mangal;"><o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HIfont-family:Calibri;">दुनिया में फिर से लौट आने की अकेली राह .</span></p>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-20167872476175128942009-11-08T06:10:00.000+05:302009-11-08T06:10:00.890+05:30............और अबसामने प्रभाष जोशी और सन्नाटा छा जाए। जो डराने लगे। असम्भव है। लेकिन यह भी हुआ। पहली बार डर लगा... दिमाग में कौंधा, अब। एम्बुलेंस का दरवाजा बंद होते ही खामोशी इस तरह पसरी कि अंदर चार लोगों की मौजूदगी के बीच भी हर कोई अकेला हो गया और साथ कोई रहा तो चिरनिद्रा में प्रभाष जोशी। पहली बार लगा...अब सन्नाटे को कौन तोड़ेगा ? हर खामोशी को भेदने वाला शख्स अगर खामोश हो गया तो अब ? लगा शायद एकटक प्रभाष जोशी को देखते रहने से वही हौसला और गर्व महसूस हो, जिसे बीते 25 बरस की पहचान में हर क्षण प्रभाषजी के भीतर देखा। अचानक लगा प्रभाष जी बात कर रहे हैं। और खुद ही कह रहे हैं...पंडित....अब ? <br /><br /><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj4AFLXBr0QKAFhNJKAVlXDkLPYkomda3v2VZqdthc3zA-sjIeAAzNZCnWbs2Sug2yvgjM_m8u5BB2B4WmWeVGPwEknKPKCyRbG-ezWlRsCMXbNypbHRuWHmmq6FlY4minZ2zTx2v9yXETS/s1600-h/PJoshi.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 290px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj4AFLXBr0QKAFhNJKAVlXDkLPYkomda3v2VZqdthc3zA-sjIeAAzNZCnWbs2Sug2yvgjM_m8u5BB2B4WmWeVGPwEknKPKCyRbG-ezWlRsCMXbNypbHRuWHmmq6FlY4minZ2zTx2v9yXETS/s320/PJoshi.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5401421632047663746" /></a><br /><br />अब........के इस सवाल ने मेरे भीतर प्रभाष जी के हर तब को जिला दिया। गुरुवार 1 नवंबर 1984 को सुबह साठ पैसे खुले लेकर जनसत्ता की तलाश में पटना रेलवे स्टेशन तक गया। "इंदिरा गांधी की हत्या"। काले बार्डर से खींची लकीरों के बीच अखबार के पर सिर्फ यही शीर्षक था। और उसके नीचे प्रभाष जी का संपादकीय, जिसकी शुरुआत..... "वे महात्मा गांधी की तरह नहीं आई थीं, न उनके सिद्दांतों पर उनकी तरह चल रही थीं। लेकिन गईं तो महात्मा गांधी की तरह गोलियों से छलनी होकर ।" <br /><br />चार साल बाद 1988 में प्रभाष जी से जब पहली बार मिलने का मौका जनसत्ता के चड़ीगढ़ संस्करण के लिये इंटरव्यू के दौरान मिला तो उनके किसी सवाल से पहले ही मैंने उसी संपादकीय का जिक्र कर सवाल पूछा...1984 में इंदिरा की हत्या पर गांधी को याद कर आप कहना क्या चाहते थे ? उन्होंने कहा, चडीगढ़ घूमे..काम करोगे जनसत्ता में ? पहले जवाब दीजिये तो सोचेंगे। उन्होंने कहा, गांधी होते तो देश में आपातकाल नहीं लगता, लेकिन इंदिरा की हत्या के दिन इंदिरा पर लिखते वक्त आपातकाल के घब्बे को कैसे लिखा जा सकता है....फिर कुछ खामोश रह कर कहा , लेकिन भूला भी कैसे जा सकता है। मेरे मुंह से झटके में निकला... जी, काम करुंगा...लेकिन बीए का रिजल्ट अभी निकला नहीं है। तो जिस दिन निकल आये, रिजल्ट लेकर आ जाना। नौकरी दे दूंगा। अभी बाहर जा कर पटना से आने-जाने का किराया ले लो। और हां, घूमना-फिरना ना छोड़ना। <br /><br />कमाल है, जिस अखबार को खरीदने और फिर हर दिन पढ़ने का नशा लिये मैं पटना में रहता हूं उसके संपादक से मिलने में कहीं ज्यादा नशा हो सकता है। प्रभाष जी जैसे संपादक से मिलने का नशा क्या हो सकता है, यह नागपुर, औरंगाबाद, छत्तीसगढ़, तेलांगना, मुंबई,भोपाल की पत्रकारीय खाक छानते रहने के दौरान हर मुलाकात में समझा। विदर्भ के आदिवासियों को नक्सली करार देने का जिक्र 1990 में जब दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग के एक्सप्रेस बिल्डिंग के उनके कैबिन में दोपहर दो-ढाई बजे के दौरान किया तो वे अचानक बोले- जो कह रहे हो लिखने में कितना वक्त लगाओगे ? मैंने कहा, आप जितना वक्त देंगे। दो घंटे काफी होंगे ? यह परीक्षा है या छाप कर पैसे भी दीजियेगा । वे हंसते हुये बोले...घूमते रहना पंडित। फिर मेरे लिये कैबिन के किनारे में कुर्सी लगायी। टाइपिस्ट सफेद कागज लाया। सवा चार बजे मैंने विदर्भ के आदिवासियों की त्रासदी लिखी..जिसे पढ़कर शीर्षक बदल दिया...आदिवासियों पर चला पुलिसिया हंटर। कंपोजिंग में भिजवाते हुये कहा, इसे आज ही छापें और लेख का पेमेंट करा दें। जहां जाओ, वहीं लिखो। घूमना...लिखना दोनों न छोड़ो। अगली बार जरा शंकर गुहा नियोगी के आंदोलन पर लिखवाऊंगा। और हां, संभव हो तो पीपुल्सवार के सीतारमैय्या का इंटरव्यू करो। पता तो चले कि नक्सली जमीन की दिशा क्या है। <br /><br />संपादक में कितनी भूख हो सकती है, खबरों को जानने की। प्रभाष जी, नब्ज पकड़ना चाहते हैं और वह अपने रिपोर्टरों को दौड़ाते रहते है लेकिन मैं तो उनका रिपोर्टर भी नही था फिर भी संपादकीय पेज पर मेरी बड़ी बड़ी रिपोर्ट को जगह देते। और हमेशा चाहते कि मै रिपोर्टर के तौर पर आर्टिकल लिखूं। <br /><br />6 दिसबंर 1992 की घटना के बाद प्रभाष जी ने किस तरह अपनी कलम से संघ की ना सिर्फ घज्जियां उड़ायीं बल्कि सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष का जो बिगुल बजाया, वह किसी से छुपा नहीं है। फरवरी 1993 में जब दिल्ली में जनसत्ता के कैबिन में उनसे मुलाकात हुई तो उन्होंने नागपुर के हालात पर चर्चा कर अचानक कहा , पंडित तुम तो ऐसी जगह हो जहां संघ भी है और अंबेडकर भी और तो और नक्सली भी। अच्छा यह बताओ तुम्हारा जन्मदिन कब है ?......18 मार्च । तो रहा सौदा । मुझे आर्टिकल चाहिये संघ, दलित और नक्सली के सम्मिश्रण का सच। जो बताये कि आखिर व्यवस्था परिवर्तन क्यों नहीं हो रहा है। और 18 मार्च को उनका बधाई कार्ड मिला। जनसत्ता मिले तो देखना..."आखिर क्यों नहीं हो पा रहा है व्यवस्था परिवर्तन"। जन्मदिन की बधाई..घूमना और लिखना । प्रभाष जोशी। <br /><br />कमाल है क्या यह वही शख्स है जो मेरे सामने चिरनिद्रा में है। व्यवस्था परिवर्तन का ही तो सवाल इसी शख्स ने मनमोहन सरकार की दूसरी पारी शुरु होने वाले दिन शपथ ग्रहण समारोह के वक्त ज़ी न्यूज में चर्चा के दौरान कहा था...बाजारवाद ने सबकुछ हड़प लिया है । व्यवस्था परिवर्तन का माद्दा भी। फिर लगे बताने कि कौन से सासंद का कौन का जुगाड या जरुरत है, जो मंत्री बन रहा है । खुद कितनी यात्रा कर कितनों के बारे में क्या क्या जानते, यह सब किदवंती की तरह मेरे दिमाग में बार बार कौंध रहा था कि तभी सिसकियों के बीच बगल में बैठे रामबहादुर राय ने मेरे कंघे पर हाथ रख दिया। अचानक अतीत से जागा तो देखा राय साहब ( अपनत्व में रामबहादुर राय को यही कहता रहा हूं) की आंखों से आंसू टपक रहे हैं। अकेले हो गये ना । ऐसा पत्रकार कहां मिलेगा। मैं तो पिछले 50 दिनों से जुटा हूं उन वजहों को तलाशने, जिसने जनसत्ता को पैदा किया। प्रभाष जी के बारे जितना खोजता हूं, उतना ही लगता है कि कुछ नहीं जानता। प्रभाष जी ने पत्रकारिता हथेली पर नोट्स लिखकर रिपोर्टिग करते हुये शुरु की थी। 1960 में विनोबा भावे जब इंदौर पहुचे तो नई दुनिया के संपादक राहुल बारपुते और राजेन्द्र माथुर ने प्रभाष जी को ही रिपोर्टिंग पर लगाया। इंटर की परीक्षा छोड़ इंदौर से सटे एक गांव सुनवानी महाकाल में जा कर प्रभाषजी अकेले रहने लगे। दाढ़ी बढ़ी तो कुछ ने कहा की साधु हो गये हैं। गांववालों को पढ़ाने और उनकी मुश्किलों को हल करने पर कांग्रेसी सोचने लगे कि यह व्यक्ति अपना चुनावी क्षेत्र बना रहा है। लेकिन विनोबा भावे के इंदौर प्रवास पर प्रभाष जी की रिपोर्टिंग इतनी लोकप्रिय हुई कि फिर रास्ता पत्रकारिता....<br /><br />लेकिन इस रिपोर्टिंग की तैयारी पिताजी को रात ढाई बजे ही करनी पड़ती थी। एम्बुलेंस में साथ प्रभाष जी के सिर की तरफ बैठे सोपान (प्रभाष जी के छोटे बेटे) ने बीच में लगभग भर्राते हुये कहा । विनोबा जी सुबह तीन बजे से काम शुरु कर देते थे तो पिताजी ढाई बजे ही तैयार होकर विनोबा जी के निवास स्थान पर पहुंच जाते। राय साहब बोले उस वक्त गांववाले इंदौर अनाज बेचने जाते तो प्रभाष जी के कोटे का दाना-पानी उनके दरवाजे पर रख जाते। और प्रभाष जी खुद ही गेंहू पीसते। और गांव की महिलायें उन्हें गद्दी-गद्दी कहती। सोपान यह कह कर बोले कि चक्की को वहां गद्दी ही कहा जाता है। <br /><br />फिर रामनाथ गोयनका से मुलाकात भी तो एक इतिहास है। सोपान के यह कहते ही राय साहब कहने लगे जेपी ने ही आरएनजी के पास प्रभाष जी को भेजा था। और प्रभाष जी ने जनसत्ता तो जिस तरह निकाला यह तो सभी जानते है लेकिन इंडियन एक्सप्रेस के तीन एडिशन चड़ीगढ़, अहमदाबाद और दिल्ली के संपादक भी रहे और चडीगढ़ के इंडियन एक्सप्रेस को दिल्ली से ज्यादा क्रेडेबल और लोकप्रिय बना दिया। अंग्रेजी अखबार में ऐसा कभी होता नहीं है कि संपादक के ट्रांसफर पर समूचा स्टाफ रो रहा हो। चड़ीगढ़ से दिल्ली ट्रासंपर होने पर इस नायाब स्थिति की जानकारी आरएनजी को भी मिली। वह चौंके भी। लेकिन जब जनसत्ता का सवाल आया तो प्रभाष जी ने आरएनजी को संकेत यही दिया कि पटेगी नहीं और झगड़ा हो जायेगा। आरएनजी ने कहा झगड़ लेंगे। लेकिन जनसत्ता तुम्ही निकालो। <br /><br />राय साहब और सोपान लगातार झलकते आंसूओं के बीच हर उस याद को बांट रहे थे जो बार बार यह एहसास भी करा रहा था कि इसे बांटने के लिये अब हमें खुद की ही खामोशी तोड़नी होगी। तभी ड्राइवर ने हमें टोका और पूछा गांधी शांति प्रतिष्ठान आ गया है, किस गेट से गांडी अंदर करुं ? सोपान बोले, पहले वाले से फिर कहा यहां तो रुकना ही होगा। इमरजेन्सी की हर याद तो यहीं दफ्न है। पिताजी भी इमरजेन्सी के दिन अगर दिल्ली में रहते हैं तो गांधी पीस फाउंडेशन जरुर आते हैं। हमने भी कई काली राते सन्नाटे और खौफ के बीच काटी हैं। लेकिन मुझे लगा पत्रकारिता आज जिस मुहाने पर है और प्रभाष जोशी जिस तरह अकेले उससे दो दो हाथ करने समूचे देश को लगातार नाप रहे थे, उसमें सवाल अब कहीं ज्यादा बड़ा हो चुका है क्योकि एम्बुलेंस के भीतर की खामोशी तो आपसी दर्द बांटकर टूट गयी लेकिन बाहर जो सन्नाटा है, उसे कौन तोड़ेगा ? मैंने देखा गांधी पीस फाउंडेशन से हवाई अड्डे के लिये एम्बुलेंस के रवाना होने से चंद सेकेंड पहले प्रधानमंत्री की श्रदांजलि लिये एक अधिकारी भी पहुंच गया। और फिर मेरे दिमाग में यही सवाल कौंधा.......और अब।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com21tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-3964085313012238222009-10-31T13:08:00.001+05:302009-10-31T13:10:26.219+05:30पूंजी, पॉलिटिक्स और पत्रकारितावैकल्पिक धारा की लीक तलवार की नोंक पर चलने समान है। क्योंकि विकल्प किसी भी तरह का हो उसमें सवाल सिर्फ श्रम और विजन का नहीं होता बल्कि इसके साथ ही चली आ रही लीक से एक ऐसे संघर्ष का होता है जो विकल्प साधने वाले को भी खारिज करने की परिस्थितियां पैदा कर देती हैं । राजनीतिक तौर पर शायद इसीलिये अक्सर यही सवाल उठता है कि विकल्प सोचना नहीं है और मौजूदा परिस्थितियो में जो संसदीय राजनीति का बंदरबांट करे वही विकल्प है। चाहे यह रास्ते उसी सत्ता की तरफ जाते हैं, जहां से गड़बड़ी पैदा हो रही है। मीडिया या कहें न्यूज चैनलों को लेकर यह सवाल बार बार उठता है कि जो कुछ खबरों के नाम पर परोसा जा रहा है, उससे इतर पत्रकारिता की कोई सोचता क्यों नहीं है। <br /><br />सवाल यह नहीं है कि राजनीति अगर आम-जन से कटी है तो पत्रकारिता भी कमरे में सिमटी है। बड़ा सवाल यह है कि एक ऐसी व्यवस्था न्यूज चैनलों को खड़ा करने के लिये बना दी गयी है, जिसमें पत्रकारिता शब्द बेमानी हो चला है और धंधा समूची पत्रकारिता के कंधे पर सवार होकर बाजार और मुनाफे के घालमेल में मीडिया को ही कटघरे में खड़ा कर मौज कर रहा है। और इसका दूसरा पहलू कहीं ज्यादा खतरनाक है कि हर रास्ता राजनीति के मुहाने पर जाकर खत्म हो रहा है, जहां से राजनीति उसे अपने गोद में लेती है। नया पक्ष यह भी है कि राजनीति ने अब पत्रकारिता को अपने कोख में ही बड़ा करना शुरु कर दिया है। <br /><br />कोख की बात बाद में पहले गोद की बात। न्यूज चैनलों में राजनीति की गोद का मतलब संपादक के साथ साथ मालिक बनने की दिशा में कॉरपोरेट स्टाइल में कदम बढ़ाना है। यानी उस बाजार की मुश्किलात से न्यूज चैनल संपादक को रुबरु होना है जो राजनीतिक सत्ता के इशारे पर चलती है । यानी मीडिया हाउस का मुनाफा अपरोक्ष तौर पर उसी राजनीति से जुड़ता है, जिस राजनीतिक सत्ता पर मीडिया को बतौर चौथे खम्बे नज़र रखनी है । कोई संपादक कितनी क्रियेटिव है, उससे ज्यादा उस संपादक का महत्व है कि वह कितना मुनाफा बाजार से बटोर सकता है। और मुनाफा बटोरने में राजनीतिक सत्ता की कितनी चलती है या सत्ता जिसके करीब होती है उसके अनुरुप मुनाफा कैसे हो जाता है यह किसी भी राज्य या केन्द्र में सरकारो के आने जाने से ठीक पहले बाजार के रुख से समझा जा सकता है। बाजार कितना भी खुला हो और अंबानी से लेकर टाटा-बिरला तक आर्थिक सुधार के बाद जितना भी खुली अर्थव्यवनस्था में व्यवसाय अनुकूल व्यवस्था की बात कहे , लेकिन बड़ा सच अभी भी यही है कि जिसके साथ सत्ता खड़ी है वह सबसे ज्यादा मुनाफा बना सकता है और अपने पैर फैला सकता है। कमोवेश यही हालत मीडिया की भी की गयी है। लेकिन न्यूज चैनलों की लकीर दूसरे धंधों से कुछ अलग है। यहां प्रोडक्ट उसी आम-जन को तय करना होता है जो राजनीतिक सत्ता के उलट-फेर का माद्दा भी रखती है। इसलिये राजनीति सत्ता ने मीडिया हाउसों को अगर मुनाफे से लुभाया है तो संपादकों को पत्रकारिता से आगे राजनीति का पाठ बताने में भी गुरेज नहीं किया और उस सच को भी सामने रखा कि मीडिया हाउसों से झटके में बडा होने का एकमात्र मंत्र यही है कि राजनीति से दोस्ती करने हुये सत्ताधारियों की फेरहिस्त में शामिल हो जाइये। यह बेहद छोटी परिस्थिति है कि न्यूज चैनल राजनेताओं के साथ चुनाव में पैकेज डील कर के खबरों को छापते -दिखाते हों या राजनेता खुद ही प्रचार तत्व को खबरों में तब्दील करा कर न्यूज चैनलों को मुनाफा दिला दें। उससे आगे की फेरहिस्त में संपादक किसी राजनीतिक दल से चुनाव लड़ने के लिये टिकट अपने या अपनों के लिये मांगता है और बात आगे बढती हा तो राज्य सभा में जाने के लिेये पत्रकारिता को सौदेबाजी की भेंट चढा देता है। <br /><br />असल में सत्ता के पास न्यूज चैनलों को कटघरे में खडा करने के इतने औजार होते हैं कि संपादक तभी संपादक रह सकता है जब पत्रकारिता को सत्ता से बडी सत्ता बना ले। लेकिन न्यूज चैनलों के मद्देनजर गोद से ज्यादा बडा सवाल कोख का हो गया है । क्योंकि यहां यह सवाल छोटा है कि ममता बनर्जी को सीपीएम प्रभावित न्यूज चैनल बर्दाश्त नहीं है और सीपीएम का मानना है कि न्यूज चैनलों ने नंदीग्राम से लेकर लालगढ तक को जिस तरह उठाया, वह उनकी पार्टी के खिलाफ इसलिये गया क्योकि दिल्ली में कांग्रेस की सत्ता है और राष्ट्रीय न्यूज चैनल कांग्रेस से प्रभावित होते हैं। बड़ा सवाल सरकार ही खड़ा कर रही है । मनमोहन सरकार अब यह कहने से नहीं चूकती कि न्यूज चैनल अब कोई ऐरा-गैरा नत्थु खैरा नहीं निकाल पायेंगे । लाइसेंस बांटने पर नकेल कसी जायेगी। यानी न्यूज चैनलों में राजनीति की दखल का यह एहसास पहली बार कुछ इस तरह सामने आ रहा है मसलन पत्रकारों के होने या ना होने का कोई मतलब नहीं है। और राजनीति की सुविधा-असुविधा से लेकर सही पत्रकारिता का समूचा ज्ञान भी राजनीति को ही है। और राजनीतिक सत्ता के आगे पत्रकार या पत्रकारिता पसंगा भर भी नहीं है। <br /><br />असल में इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि तकनीकी विस्तार ने मीडिया को जो विस्तार दिया है उतना विस्तार पत्रकारों का नहीं हुआ है । और मीडिया का यही तकनीकी विस्तार ही असल में पत्रकारिता भी है और राजनीति को प्रभावित करने वाला चौथा खम्भा भी है । कह सकते है कि चौथे खम्भे की परिभाषा में पत्रकार या पत्रकारिता के मायने ही कोई मायने नहीं रखते है। लेकिन बिगड़े न्यूज चैनलों को सुधारने की जो भी बात राजनीति करती है, उसमें राजनीतिक धंधे के तहत न्यूज चैनल कैसे चलते है और चलकर सफल होने वाले न्यूज चैनल इस धंधे को बरकरार रखने में ही जुटे रहते है, समझना यह ज्यादा जरुरी है। <br /><br /><br />किसी भी राष्ट्रीय न्यूज चैनल को शुरु करने के लिये चालीस से पचास करोड़ से ज्यादा नहीं चाहिये। और फैलते बाजारवाद में विज्ञापन से कोई भी न्यूज चैनल साल में औसतन 20-25 करोड आसानी से कमा सकता है। जो न्यूज चैनल टॉप पर होगा उसकी सालाना कमाई सौ करोड पार होती है। मंदी में भी यह कमाइ सौ करोड से कम नही हुई। जाहिर है न्यूज चैनल चलाने के लिये कागज पर हर न्यूज चैनल वाले के लिय न्यूज चैनल का धंधा मुनाफे वाला है। क्योंकि एक साथ छह करोड घरों में कोई अखबार पहुंच नही सकता। किसी राजनेता की सार्वजनिक सभा में लोग जुट नही सकते लेकिन कोई बड़ी खबर अगर ब्रेक हो तो इतनी बडी तादाद में एक साथ लोग खबरो को देख सुन सकते हैं। जाहिर है बीते एक दशक के दौर में न्यूज चैनलों ने जो उडान भरी उसने उस राजनीतिक सत्ता की जड़े भी हिलायी जो बिना सरोकार देश को चलाने में गर्व महसूस करते। लेकिन राजनीतिक सत्ता के सामने न्यूज चैनलों की क्या औकात। इसलिये न्यूज चैनलों को कोख में ही राजनीति ने बांधने का फार्मूला अपनाया। चैनलों को दिखाने के लिये को केबल नेटवर्क है, उसपर राजनीति ने खुद को काबिज कर एक नया पिंजरा बनाया, जिसमें न्यूज चैनलों को कैद कर दिया । किसी भी राष्ट्रीय न्यूज चैनल को केबल से देश भर में जोडने के लिये सालाना 35 से 40 करोड रुपये लुटाने की ताकत चैनल के पास होनी चाहिये तभी कोई नया चैनल आ सकता है। क्योंकि हर राज्य में केबल नेटवर्क से तभी कोई चैनल जुड़ सकता है, जब वह फीस चुकता कर दे । यह रकम सफेद हो नहीं सकती क्योंकि इसका बंटवारा जिस राजनीति को प्रभावित करता है, वह राजनीतिक दल नही सत्ता देखती है और वह किसी की भी हो सकती है । सबसे ज्यादा फीस महाराष्ट्र में 8 करोड़ की है, फिर गुजरात के लिये 5 करोड़ तक देने ही होगे। बिहार-उत्तरप्रदेश-झरखंड-उत्तराखंड में मिलाकर 3 से 4 करोड में सालाना केबल नेटवर्क दिखाता है। मजेदार तथ्य यह है कि केबल नेटवर्क को ही चैनलों की टीआरपी से जोड़ा जाता है और टीआरपी के आधार पर ही चैनलों को विज्ञापन मिलता है । यहीं से ब्रांड और धंधे का खेल शुरु होता है । टीआरपी और विज्ञापन को इस तरह जोड़ा गया है कि जो केबल नेटवर्क में करोडो लुटा सकता है वही विज्ञापन के जरीये करोड़ों कमा सकता है। करोड़ों के वारे न्यारे का यह खेल ही उपभोक्ताओं के लिये एक ऐसा ब्रांड बनाता है, जिसमें किसी भी प्रोडक्ट की कोई भी कीमत देने के लिये एक तबका एक क्लास के तौर पर खड़ा हो जाता है। <br /><br />आप कह सकते है कि इस क्लास में राजनेता और सत्ता से सटे पत्रकारो की भागेदारी बराबर की होती है क्योकि यह गठजोड़ संसदीय राजनीति तले लोकतंत्र का गीत गाता भी है और लोकतंत्र को बाजार के आइने में देखने-दिखाने को मजबूर करता भी है । लेकिन पत्रकारिता को कोख में रखने की राजनीति भी यहीं से शुरु होती है । कोई पत्रकार न्यूज चैनल ला तो सकता है लेकिन उसे केबल नेटवर्क के जरीये दिखाने के लिये फिर उसी राजनीति के सामने नतमस्तक होना पड़ता है, जिसपर नजर रखने के ख्याल से न्यूज चैनल का जन्म होता है। कमोवेश हर राज्य में सत्ताधारी राजनीतिक दल के बडे नेताओं ने ही केबल पर कब्जा कर लिया है । यानी जो राजनीति पहले न्यूज चैनलों के मालिक या संपादको से गुहार लगाती ती कि उनके खिलाफ की खबरों को ना दिखाया जाये अब वही राजनीति सीधे कहने से नहीं चूकती- आपको जो खबरे दिखानी हो दिखाइये लेकिन वह हमारे राज्य में नहीं दिखेंगी क्येकि केबल पर आपका चैनल हम आने ही नहीं देंगे। यानी केबल नेटवर्क पर सत्ता का कब्जा राजनीति का नया मंत्र है। इसका शुरुआती प्रयोग अगर छत्तीसगढ में अजित जोगी ने किया तो ताजा प्रयोग वाय एस आर रेड्डी के बेटे जगन ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने के लिये किया । आंध्र में केबल नेटवर्क पर जगन का ही कब्जा है। छत्तीसगढ में अब रमन सिंह का कब्जा है । पंजाब में बादल परिवार का कब्जा है। महाराष्ट् में एनसीपी-काग्रेस और शिवसेना के केबल नेटवर्क युद्द में राज ठाकरे ने सेंघ लगाना शुर कर दिया है । तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार की ही न्यूज चैनलों को दिखाने ना दिखवाने की तूती बोलती है। गुजरात में मोदी की हरी झंडी के बगैर मुश्किल है कि कोई चैनल स्मूथली दिखायी दे। बंगाल में वामपंथियों को अभी तक अपने कैडर पर भरोसा था लेकिन ममता के तेवरों ने सीपीएम को जिस तरह चुनौती दी है, उसमें केबल पर कब्जे की जगह कैबल अब ममता और सीपीएम को लेकर कैडर की तर्ज पर बंट जरुर गया है। <br /><br />इन हालात में न्यूज चैनल के सामने गाना-बजाना दिखाना या कहे खबरों से हटकर कुछ भी दिखाना ढाल भी है और मुनाफा बनाना भी। यह ठीक उसी तरह है जैसे सिनेमा देखने के लिये अब सौ रुपये जेब में होने चाहिये। यह बहुसंख्यक तबके के पास होते नहीं है, इसलिये पाइरेटेड का धंधा फलता फूलता है। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में सिनेमा की हत्या भी हुई। सिनेमा अब उसी तबके के लिये बनने लगा, जो दो घंटे में मनोरंजन की नयी व्याख्या करता करता है। ऐसे में सिनेमा भी सरोकार पैदा नहीं करता। उसी तरह खबरें भी सरोकार की भाषा नहीं समझती क्योंकि उसका मुनाफा जनता से नही सत्ता से जोड़ दिया गया है और इस दौड में डीटीएच कोई मायने नहीं रखता। क्योंकि डीटीएच से न्यूज चैनल घरों में दिखायी जरुर देता है मगर विज्ञापन की वह पूंजी नही जुगाड़ी जा सकती जो केबल के जरिए टीआरपी से होती हुई न्यूज चैनलों तक पहुंचती है। <br /><br />किसी भी नये चैनल की मुश्किल यही होती है कि वह खुद को केबल और टीआरपी के बीच फिट कैसे करें । किस राज्य की किस सत्ता और किस राजनेता के जरीये न्यूज चैनल के मुनाफे की अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी करे । जबकि पुराने चैनलो की कैबल कनेक्टिविटी और टीआरपी में कभी बड़ा उलटफेर या परिवर्तन चार हफ्तों तक भी नहीं टिकता है, चाहे कोई न्यूज चैनल कुछ भी दिखाये । यह यथावत स्थिति हर किसी को बाजारवाद में बंदरबांट के लिये कथित स्पर्धा से जोड़े रखते हुये सभी की महत्ता बरकरार रखती है। भाजपा ने एनडीए की सरकार के दौर में इस गोरखधंधे को तोड़ने के लिये कैस लाने की सोची थी। लेकिन उसी दौर में जब यह पंडारा बाक्स खुला कि करोड़ों के वारे न्यारे से लेकर राजनीति के अनुकुल न्यूज चैनलो पर इसी माध्यम से नकेल कसी जा सकती है तो धीरे धीरे सबकुछ ठंडे बस्ते में डाला गया । लेकिन मुनाफे के धंधे को बरकरार रखने के बाजारवाद में पत्रकार किसी खूंटे से बांधा जाये यह सवाल सबसे बड़ा हो गया है । पत्रकार न्यूज चैनल के लिये मुनाफा जुगाड़ने से सीधे जुड़ जाये, पत्रकार राजनीतिक सत्ता के इशारे पर काम करने लगे , पत्रकार लोकसभा के टिकट लेने-दिलवाने से लेकर राज्यसभा तक पहुंचने के जुगाड़ को पत्रकारिता का आखिरी मिशन मान लें या फिर पत्रकार सत्ता की उस व्यवस्था के आगे घुटने टेक दें, जहां सत्ता परिवर्तन भी एक तानाशाह से दूसरे तानाशाह की ओर जाते दिखे और पत्रकारिता का मतलब इस सत्ता परिवर्तन में ही क्राति की लहर दिखला दें। इस दौर में विकल्प की पत्रकारिता करने की सोचना सबसे बड़ा अपराध तो माना ही जायेगा जैसे आज अधिकतर न्यूज चैनलो में यह कह कर ठहाका लगाया जाता है कि अरे यह तो पत्रकार है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-30735288354901635922009-07-26T11:15:00.002+05:302009-07-27T21:05:07.794+05:30मीडिया, राजनीति और नौकरशाही का कॉकटेलमीडिया को अपने होने पर संदेह है । उसकी मौजूदगी डराती है । उसका कहा-लिखा किसी भी कहे लिखे से आगे जाता नहीं। कोई भी मीडिया से उसी तरह डर जाता है जैसे नेता....गुंडे या बलवा करने वाले से कोई डरता हो। लेकिन राजनीति और मीडिया आमने-सामने हो तो मुश्किल हो जाता है कि किसे मान्यता दें या किसे खारिज करें। रोना-हंसना, दुत्काराना-पुचकारना, सहलाना-चिकोटी काटना ही मीडिया-राजनीति का नया सच है। मीडिया के भीतर राजनीति के चश्मे से या राजनीति के भीतर मीडिया के चश्मे से झांक कर देखने पर कोई अलग राग दोनो में नजर नहीं आयेगा। लेकिन दोनों प्रोडेक्ट का मिजाज अलग है, इसलिये बाजार में दोनों एक दूसरे की जरुरत बनाये रखने के लिये एक दूसरे को बेहतरीन प्रोडक्ट बताने से भी नहीं चूकते। यह यारी लोकतंत्र की धज्जिया उड़ाकर लोकतंत्र के कसीदे भी गढ़ती है और भष्ट्राचार में गोते लगाकर भष्ट्राचार को संस्थान में बदलने से भी नही हिचकती।<br /><br />मौजूद राजनेताओं की फेरहिस्त में मीडिया से निकले लोगो की मौजूदगी कमोवेश हर राजनीतिक दलो में है । अस्सी के दशक तक नेता अपनी इमेज साफ करने के लिये एक बार पत्रकार होने की चादर को ओढ़ ही लेता था, जिससे नैतिक तौर पर उसे भी समाज का पहरुआ मान लिया जाये। जागरुक नेता के तौर पर ...बुद्दिजीवी होने का तमगा पाने के तौर पर, पढ़े-लिखों के बीच मान्यता मिलने के तौर पर नेता का पत्रकार होना उसके कैरियर का स्वर्णिम हथियार होता, जिसे बतौर नेता मीडिया के घेरे में फंसने पर बिना हिचक वह उसे भांजता हुआ निकल जाता।<br /><br />नेहरु से लेकर वाजपेयी तक के दौर में कई प्रधानमंत्रियो और वरिष्ठ नेताओं ने खुलकर कहा कि वह पत्रकार भी रह चुके हैं। आई के गुजराल और वीपी सिंह भी कई मौकों पर कहते थे कि एक वक्त पत्रकार तो वह भी रहे हैं । लेकिन नया सवाल एकदम उलट है। एक पत्रकार की पुण्यतिथि पर कबिना मंत्री मंच से खुलकर कहता है कि उन्हें मीडिया की फ्रिक्र नहीं है कि वह क्या लिखते हैं क्योकि पत्रकार और पत्रकारिता अब मुनाफा बनाने के लिये किसी भी स्तर तक जा पहुंची है। अखबार के एक ही पन्ने पर एक ही व्यक्ति से जुड़ी दो खबरें छपती हैं, जो एक दूसरे को काटती हैं। राजनेता की यह सोच ख्याली कह कर टाली नहीं जा सकती है । हकीकत है कि इस तरह की पत्रकारिता हो रही है ।<br /><br />लेकिन यहां सवाल उस राजनीति का है, जो खुद कटघरे में है। सत्ता तक पहुंचने के जिसके रास्ते में कई स्तर की पत्रकारिता की बलि भी वह खुद चढ़ाता है और जो खुद मुनाफे की अर्थव्यवस्था को ही लोकहित का बतलाती है। लेकिन लोकहित किस तरह राज्य ने हाशिये पर ढकेला है यह कोई दूर की गोटी नहीं है लेकिन यहां सवाल मीडिया का है। यानी उस पत्रकारिता का सवाल है, जिस पत्रकारिता को पहरुआ होना है, पर वह पहरुआ होने का कमीशन मांगने लगी है और जिस राजनीति को कल्य़ाणकारी होना है, वह मुनाफा कमा कर सत्ता पर बरकरार रहने की जोड़तोड़ को राष्ट्रीय नीति बनाने और बतलाने से नही चूक रही है। तो पत्रकार को याद करने के लिये मंच पर नेता चाहिये, यह सोच भी पत्रकारो की ही है और नेता अगर पत्रकारो के मंच से ही पत्रकारिता को जमीन दिखा दे तो यह भी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है।<br /><br />लेकिन पत्रकारिता के घालमेल का असल खेल यहीं से शुरु होता है । मीडिया को लेकर पिछले एक दशक में जितनी बहस मीडिया में ही हुई उतनी आजादी के बाद से नहीं हुई है। पहली बार मीडिया को देखने, समझने या उसे परोसने को लेकर सही रास्ता बताने की होड मीडियाकर्मियों में ही जिस तेजी से बढ़ी है, उसका एक मतलब तो साफ है कि पत्रकारो में वर्तमान स्थिति को लेकर बैचैनी है। लेकिन बैचैनी किस तरह हर रास्ते को एक नये चौराहे पर ले जाकर ना सिर्फ छोड़ती है, बल्कि मीडिया का मूल कर्म ही बहस से गायब हो चला है, इसका एहसास उसी सभा में हुआ, जिसमें संपादक स्तर के पत्रकार जुटे थे।<br /><br />उदयन शर्मा की पुण्यतिथि के मौके पर जो सवाल उस सभा में मंच या मंच के नीचे से उठे, वह गौर करने वाले इसलिये हैं, क्योंकि इससे हटकर व्यवसायिक मीडिया में कुछ होता नही और राजनीति भी कमोवेश अपने आत्ममंथन में इसी तरह के सवाल अपने घेरे में उठाती है और सत्ता मिलने के बाद उसी तरह खामोश हो जाती है, जैसे कोई पत्रकार संपादक का पद मिलने के बाद खुद को कॉरपोरेट का हिस्सा मान लेता है। मीडिया अगर प्रोडक्ट है तो पाठक उपभोक्ता हैं। और उपभोक्ता के भी कुछ अधिकार होते हैं। अगर वह माल खरीद रहा है तो उसे जो माल दिया जा रहा है उसकी क्वालिटी और माप में गड़बड़ी होने पर उपभोक्ता शिकायत कर भरपायी कर सकता है। लेकिन मीडिया अगर खबरों की जगहो पर मनोरंजन या सनसनाहट पैदा करने वाले तंत्र-मंत्र को दिखाये या छापे तो उपभोक्ता कहां शिकायत करें। यह मामला चारसौबीसी का बनता है । इस तरह के मापदंड मीडिया को पटरी पर लाने के लिये अपनाये जाने चाहिये। प्रिंट के पत्रकार की यह टिप्पणी खासी क्रांतिकारी लगती है।<br /><br />लेकिन मीडिया को लेकर पत्रकारों के बीच की बहस बार बार इसका एहसास कराने से नहीं चूकती कि पत्रकारिता और प्रोडक्ट में अंतर कुछ भी नही है । असल में खबरों को किसी प्रोडक्ट की तरह परखें तो इसमें न्यूज चैनल के पत्रकार की टिप्पणी भी जोड़ी जा सकती है, जिनके मुताबिक देश की नब्ज न पकड़ पाने की वजह कमरे में बैठकर रिपोर्टिग करना है। और आर्थिक मंदी ने न्यूज चैनलों के पत्रकारो को कमरे में बंद कर दिया है, ऐसे में स्पॉट पर जाकर नब्ज पकडने के बदले जब रिपोर्टर दिल्ली में बैठकर समूचे देश के चुनावी तापमान को मांपना चाहेगा तो गलती तो होगी ही।<br /><br />जाहिर है यह दो अलग अलग तथ्य मीडिया के उस सरोकार की तरफ अंगुली उठाते हैं जो प्रोडक्ट से हटकर पत्रकारिता को पैरों पर खड़ा करने की जद्दोजहद से निकली है । इसमें दो मत नहीं कि समाज की नब्ज पकड़ने के लिये समाज के बीच पत्रकार को रहना होगा लेकिन मीडिया में यह अपने तरह की अलग बहस है कि पत्रकारिता समाज से भी सरोकार तभी रखेगी, जब कोई घटना होगी या चुनाव होंगे या नब्ज पकडने की वास्तव में कोई जरुरत होगी। यानी मीडिया कोई प्रोडक्ट न होकर उसमें काम करने वाले पत्रकार प्रोडक्ट हो चुके हैं, जो किसी घटना को लेकर रिपोर्टिंग तभी कर पायेंगे जब मीडिया हाउस उसे भेजेगा।<br /><br />अब सवाल पहले पत्रकार का जो उपभोक्ताओ को खबरें न परोस कर चारसौबीसी कर रहा है। तो पत्रकार के सामने तर्क है कि वह बताये कि आखिर शहर में दंगे के दिन वह किसी फिल्म का प्रीमियर देख रहा था तो खबर तो फिल्म की ही कवर करेगा । या फिर फिल्म करोड़ों लोगों तक पहुंचेगी और दंगे तो सिर्फ एक लाख लोगो को ही प्रभावित कर रहे हैं, तो वह अपना प्रोडक्ट ज्यादा बड़े बाजार के लिये बनायेगा। यानी देश में सांप्रदायिक दंगो को राजनीति हवा दे रही है और उसी दौर में फिल्म अवॉर्ड समारोह या कोई मनोरंजक बालीवुड का प्रोग्राम हो रहा है और कोई चैनल उसे ही दिखाये। य़ा फिर अवार्ड समारोह की ही खबर किसी अखबार के पन्ने पर चटकारे लेकर छपी रहे तो कोई उपभोक्ता क्या कर सकता है। जैसे ही पत्रकारिता प्रोडक्ट में तब्दील की जायेगी, उसे समाज की नहीं बाजार की जरुरत पड़ेगी। पत्रकारिता का संकट यह नहीं है कि वह खबरों से इतर चमकदमक को खबर बना कर परोसने लगी है।<br /><br />मुश्किल है पत्रकारिता के बदलते परिवेश में मीडिया ने अपना पहला बाजार राजनीति को ही माना। संपादक से आगे क्या। यह सवाल पदों के आसरे पहचान बनाने वाले पत्रकारों से लेकर खांटी जमीन की पत्रकारिता करने वालो को भी राजनीति के उसी दायरे में ले गया, जिस पर पत्रकारिता को ही निगरानी रखते हुये जमीनी मुद्दों को उठाये रखना है। संयोग से उदयन की इस सभा में एनसीपी के नेता डीपी त्रिपाठी ने कहा कि राजनीति का यह सबसे मुश्किल भरा वक्त इसलिये है क्योकि वाम राजनीति इस लोकसभा चुनाव में चूक गयी। वाम राजनीति रहती तो सत्ता मनमानी नहीं कर सकती थी। वहीं कपिल सिब्बल ने कहा कि उदयन सरीखे पत्रकार होते तो पत्रकारिता चूकती नही, जो लगातार चूक रही है । लेकिन मंच के नीचे से यह सवाल भी उठा कि उदयन को भी आखिर राजनीति क्यों रास आयी । क्यो पत्रकारिता में इतना स्पेस नहीं है कि पत्रकार की जिजिविशा को जिलाये रख सके। उदयन जिस दौर में कांग्रेस में गये या कहें कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़े, उस दौर में देश में सांप्रदायिकता तेजी से सर उठा रही थी । और उदयन की पहचान सांप्रदायिकता के खिलाफ पत्रकारिता को धार देने वाली रिपोर्ट करने में ही थी। सवाल सिर्फ उदयन का ही नहीं है। अरुण शौरी जिस संस्थान से निकले, उसे चलाने वाले गोयनका राजनीति में अरुण शौरी से मीलो आगे रहे। लेकिन गोयनका ने कभी पिछले दरवाजे से संसद पहुचने की मंशा नहीं जतायी। चाहते तो कोई रुकावट उनके रास्ते में आती नहीं । गोयनका को पॉलिटिकल एक्टिविस्ट के तौर पर देखा समझा जा सकता है। लेकिन उसी इंडियन एक्सप्रेस में जब कुलदीप नैयर का सवाल आता है और इंदिरा गांधी के दबाब में कुलदीप नैयर से और कोई नहीं गोयनका ही इस्तीफा लेते है तो पत्रकारिता के उस घेरे को अब के संपादक समझ सकते है कि मीडिया की ताकत क्या हो सकती है, अगर उसे बनाया जाये तो।<br /><br />लेकिन कमजोर पड़ते मीडिया में अच्छे पत्रकारो के सामने क्या सिर्फ राजनीति इसीलिये रास्ता हो सकती है क्योकि उनका पहला बाजार राजनीति ही रहा और खुद को बेचने वह दूसरी जगह कैसे जा सकते हैं। स्वप्न दास हो या पायोनियर के संपादक चंदन मित्रा या फिर एम जे अकबर । इनकी पत्रकारिता पर उस तरह सवाल उठ ही नहीं सकते हैं, जैसे अब के संपादक या पत्रकारो के राजनीति से रिश्ते को लेकर उठते हैं। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि राजनीति में गये इन पत्रकारों की हैसियत राजनीतिक मंच पर क्या हो सकती है या क्या है, जरा इस स्थिति को भी समझना चाहिये।<br /><br />राजनीतिक गलियारे में माना जाता है कि उड़ीसा में नवीन पटनायक से बातचीत करने के लिये अगर चंदन मित्रा की जगह किसी भी नेता को भेजा जाता तो बीजू जनता दल और भाजपा में टूट नहीं होती। इसी तरह चुनाव के वक्त वरुण गांधी के समाज बांटने वाले तेवर को लेकर बलबीर पूंज ही भाजपा के लिये खेतवार बने। बलवीर पुंज भी एक वक्त पत्रकार ही थे । और वह गर्व भी करते है कि पत्रकारिता के बेहतरीन दौर में बतौर पत्रकार उन्होने काम किया है। लेकिन राजनीति के घेरे में इन पत्रकारो की हैसियत खुद को वाजपेयी-आडवाणी का हनुमान कहने वाले विनय कटियार से ज्यादा नहीं हो सकती है। तो क्या माना जा सकता है कि पत्रकारिय दौर में भी यह पत्रकार पत्रकारिता ना करके राजनीतिक मंशा को ही अंजाम देते रहे। और जैसे ही राजनीति में जाने की सौदेबाजी का मौका मिला यह तुरंत राजनीति के मैदान में कूद गये।<br /><br />पत्रकार का नेता बनने का यह पिछले दरवाजे से घुसना कहा जा सकता है,क्योकि राजनीति जिस तरह का सार्वजनिक जीवन मांगती है, पत्रकार उसे चाहकर भी नहीं जी पाता। पॉलिटिक्स और मीडिया को लेकर यहां से एक समान लकीर भी खिंची जा सकती है। दोनों पेशे में समाज के बीच जीवन गुजरता है। यह अलग बात है कि पत्रकारों को राजनीतिज्ञो के बीच भी वक्त गुजारना पड़ता है और नेता भी मीडिया के जरीये समाज की नब्ज टटोलने की कोशिश करता रहता है। लेकिन संयोग से दोनो जिस संकट पर पहुचे है, उसका जबाब भी इन्ही दोनों पेशे की तरफ से उदयन को याद करने वाली सभा में उभरा।<br /><br />राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक के एक ब्यूरो चीफ ने सभा में साफ कहा कि पत्रकारिता का सबसे बडा संकट तत्काल को जीना है। इसमें भी बडा संकट गहरा रहा है क्योकि आने वाली पीढ़ी तो उस गलती को भी नहीं समझ पा रही है, जिसे अभी के संपादक किये जा रहे हैं। यानी जो मीडिया में सत्तासीन हैं, उन्हे तमाम गलतियों के बावजूद पद छोडना नहीं है या उन्हे हटाने की बात करना सही नहीं है क्योकि उनके हटने के बाद जो पीढी आयेगी, वह तो और दिवालिया है।<br /><br />जाहिर है यह समझ खुद को बचाने वाली भी हो सकती है और आने वाली पीढ़ी की हरकतो को देखकर वाकई का डर भी। लेकिन पत्रकारिता में संकट के दौर में यह एक अनूठी समझ भी है, जिसमें उस दौर को मान्यता दी जा रही है जो बाजार के जरीये मीडिया को पूरी तरह मुनाफापरस्त बना चुकी है। लेकिन इस मुनाफापरस्त वक्त की पीढी की पत्रकारिता को कोई बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है य़ा फिर उसके मिजाज को पत्रकारिय चिंतन से इतर देख रहा है। यह घालमेल राजनीति में किस हद तक समा चुका है, इसे सीपीएम नेता सीताराम येचुरी के ही वक्तव्य से समझा जा सकता है। संयोग से उदयन की सभा के दिन सीपीएम सेन्ट्रल कमेटी की बैठक भी दिल्ली में हो रही थी, जिसमें चुनाव में मिली हार की समीक्षा की जा रही थी। और सीताराम येचुरी दिये गये वादे के मुताबिक बैठक के बीच में उदयन की सभा में पहुंचे, जिसमें उन्होंने माना कि वामपंथियों की हार की बड़ी वजह उन आम वोटरों को अपनी भावनाओं से वाकिफ न करा पाना था, जिससे उन्हें वोट मिलते। यानी सीपीएम के दिमाग में जो राजनीति तमाम मुद्दों को लेकर चल रही थी, उसके उलट लोग सोच रहे होगे, इसलिये सीपीएम हार गयी। लेकिन क्या सिर्फ यही वजह रही होगी। हालाकि सीपीएम के मुखपत्र में कैडर में फैलते भष्ट्राचार से लेकर कैडर और आम वोटरो के बीच बढ़ती दूरियो का भी बच बचाकर जिक्र किया गया। लेकिन सीताराम येचुरी के कथन ने उस दिशा को हवा दी, जहा राजनीति अपने हिसाब से जोड़-तोड़ कर सत्ता में आने की रणनीति अपनाती है लेकिन जनता के दिमाग में कुछ और होता है।<br /><br />यहां सवाल है कि राजनीति को जनता की जरुरतो को समझना है या फिर राजनीति अपने मुताबिक जनता को समझा कर जीत हासिल कर सकती है। भाजपा ने भी लोकसभा चुनाव में वहीं गलती कि जहां उसे लगा कि उसकी राजनीति को जनता समझ जायेगी और जो मुद्दे जनता से जुड़े हैं अगर उसमें आंतकवाद और सांप्रदायिकता का लेप चढ़ा दिया जाये तो भावनात्मक तौर पर उसके अनुकुल चुनावी परिणाम आ जायेगे। हालांकि भाजपा एक कदम और आगे बढ़ी और उसने हिन्दुत्व को भी मुद्दे सरीखा ही आडवाणी के चश्मे से देखना शुरु किया। हिन्दुत्व कांग्रेस के लिये मुद्दा हो सकता है लेकिन भाजपा की जो अपनी पूरी ट्रेनिंग है, उसमें हिन्दुत्व जीवनशैली होगी। चूंकि आरएसएस की यह पूरी समझ ही भाजपा के लिये एक वोट बैक बनाती है, इसलिये अपने आधार को खारिज कर भाजपा को कैसे चुनाव में जीत मिल सकती है, यह भाजपा को समझना है।<br /><br />यही समझ वामपंथियो में भी आयी, जहां वह वाम राजनीति से इतर सामाजिक-आर्थिक इंजिनियरिंग का ऐसा लेप तैयार करने में जुट गयी जिसमें वह काग्रेस का विकल्प बनने को भी तैयार हो गयी और जातीय राजनीति से निकले क्षेत्रिय दलों की अगुवाई करते हुये भी खुद को वाम राजनीति करने वाला मानने लगी। इस बैकल्पिक राजनीति की उसकी समझ को उसी की ट्रेनिग वाले वाम प्रदेश में ही उसे सबसे घातक झटका लगा क्योकि उसने अपने उन्हीं आधारो को छोड़ा, जिसके जरीये उसे राजनीतिक मान्यता मिली थी।<br /><br />जाहिर है यहां सवाल मीडिया का भी उभरा कि क्या उसने भी अपने उन आधारो को छोड़ दिया है, जिसके आसरे पत्रकारिता की बात होती थी । या फिर वाकई वक्त इतना आगे निकल चुका है कि पत्रकारिता के पुराने मापदंडों से अब के मीडिया को आंकना भारी भूल होगी । लेकिन इसके सामानांतर बड़ा सवाल भी इसी सभा में उठा कि मीडिया का तकनीकि विस्तार तो खासा हुआ है लेकिन पत्रकारो का विस्तार उतना नहीं हो पाया है, जितना एक दशक पहले तक पत्रकारो का होता था और उसमें उदयन-एसपी सिंह या फिर राजेन्द्र माथुर या सर्वेश्वरदयाल सक्सेना सरीखो का हुआ। मीडिया को लेकर नौकरशाह चुनाव आयुक्त एस एम कुरैशी ने भी अपनी लताड़ जानते समझते हुये लगा दी कि चुनाव को लेकर जीत-हार का सिलसिला रोक कर चुनाव आयोग ने कितने कमाल का काम किया है। एक तरफ कुरैशी साहब यह बोलने से नहीं चूके की मीडिया सर्वे के जरीये राजनीतिक दलों को लाभ पहुंचा देती है क्योंकि सर्वे का कोई बड़ा आधार नहीं होता। दूसरी तरफ राजनीति के प्रति लोगो में अविश्वास न जागे, इसके लिये मीडिया को भी मदद करने की अपील भी यह कहते हुये कि राजनेता लोकतंत्र की सबसे बड़ी पहचान है । कुरैशी साहब के मुताबिक चुनाव आयोग जिस तरह चुनावों को इतने बडे पैमाने पर सफल बनाता है, असल लोकतंत्र का रंग यही है । हालांकि मंच के नीचे से यह सवाल भी उठा कि सत्तर करोड़ मतदाताओं में से जब पैंतिस करोड़ वोट डालते ही नही तो लोकतंत्र का मतलब क्या होगा। 15 वीं लोकसभा चुनाव में भी तीस करोड से ज्यादा वोटरो ने वोट डालने में रुचि दिखायी ही नही । और वोट ना डालने वालो की यह तादाद राष्ट्रीय पार्टियो को मिले कुल वोट से भी ज्यादा है या कहे कांग्रेस की अगुवाई में जो सरकार बनी है, उससे दुगुना वोट पड़ा ही नहीं।<br /><br />लेकिन मीडिया का संकट इतना भर नहीं है कि पत्रकार शब्द समाज में किसी को भी डरा दे। राजनीति या नौकरशाही इसके सामने ताल ठोंककर उसे खारिज कर निकल भी सकती है । उस सभा के अध्यक्ष जनता दल यूनाइटेड के अध्यक्ष शरद यादव ने आखिर में जब अभी के सभी पत्रकारो को खारिज कर पुराने पत्रकारो को याद किया तो भी पत्रकारो की इस सभा में खामोशी ही रही। शरद यादव ने बडे प्यार से प्रभाष जोशी को भी खारिज करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उन्होंने कहा कि अभी के पत्रकारो में एकमात्र प्रभाष जोशी हैं, जो सबसे ज्यादा लिखते है लेकिन वह भी रौ में बह जाते हैं। जबकि शरद यादव जी के तीस मिनट के भाषण के बाद मंच के नीचे बैठे हास्य कवि सुरेन्द्र शर्मा ने टिप्पणी की- कोई समझा दे कि शरद जी ने कहा क्या तो उसे एक करोड़ का इनाम मिलेगा। असल में मीडिया की गत पत्रकारों ने क्या बना दी है यह 11 जुलायी को उदयन की पुण्यतिथि पर रखी इस सभा में मंच पर बैठे एक मंत्री,चार नेता और एक नौकरशाह और मंच के नीचे बैठे पत्रकारो की फेरहिस्त में कुलदीप नैयर से लेकर एक दर्जन संपादको से भी समझी जा सकती है। दरअसल, इस सभा में जो भी बहस हुई, इससे इतर मंच और मंच के बैठे नीचे लोगें से भी अंदाज लगाया जा सकता है कि एतक पत्रकारों को याद करने के लिए पत्रकारों द्वारा आयोजित सभी में ही किसे ज्यादा तरजीह मिलेग।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-17045937875184336322009-03-20T09:24:00.001+05:302009-03-20T09:24:00.184+05:30मिलिनियर मीडियाडॉग-पार्ट 2लेकिन मीडिया का यह पहला चैप्टर है, जो न्यूज रुम से शुरु होता है। दूसरा चैप्टर मीडिया का मतलब बिजनेस और चलाने का मतलब मुनाफा वसूली से जुड़ा है। ये चैप्टर उस न्यू इकॉनमी की देन है, जिसमें न्यूज चैनल के लिये लाइसेंस खरीदने से चौथा पाया होने की शुरुआत होती है। <br /><br />न्यूज चैनल के लिये लाइसेंस का मतलब आपका हाथ-चेहरा । अगला-पिछला सबकुछ सफेद हो । वैचारिक तौर पर सेक्यूलर और लोकतांत्रिक होने की पहचान आपके साथ जुड़ी हो । अपराध या भ्रष्टाचार का तमगा आपकी छाती पर न टंगा हो। जाहिर है यह ऐसी नियमावली है, जिसकी कोई कीमत नहीं लगा सकता और जो लगायेगा वह वसूली भी ऐसी करेगा कि सामने वाले का सबकुछ काला हो, तभी संभव है। तो सरकार के मंत्री से लेकर चढ़ावा लेते बाबूओ की पूरी फौज, एनओसी की मुहर की व्यवस्था आईबी रिपोर्ट से लेकर थाने की रिपोर्ट तक की करा देती है। <br /><br />सवाल है कि किसी के पास न्यूज चैनल का लाइसेंस जब इतने चढ़ावे के बाद आ ही जाता है तो वह अपनी मुनाफा वसूली कैसे करेगा । पहला तरीका है लाइसेंस को एक साल के लिये किसी बेहतरीन पार्टी को बेच देना। कीमत एक करोड़ से लेकर कुछ भी । यानी सामने वाला लाइसेंस लेकर बाजार को किस तरह दुह सकता है....यह उसकी काबिलियत पर है । और अगर लाइसेंस के जरुरतमंद की पहुंच-पकड़ राजनीतिक पूंजी से जुड़ी होगी तो लाइसेंस की कीमत पांच करोड़ तक लगती है। न्यूज चैनल के कई लाइसेंस इस तरह खुले बाजार में लगातार घुम रहे हैं। कुछ खरीदे भी गये और चल भी रहे हैं। लेकिन सवाल है इस हालात में न्यूज रुम को भी करोड़ों के वारे न्यारे करने हैं...और चूकि चैनल का प्रोडक्ट खबर है तो खेल को पूंजी में बदलने का खेल यहीं से शुरु होता है। सबसे पहले खबर को कवर करने वाले पत्रकारों को चैनल का मंच देकर वसूली के नियम कायदे बता दिये जाते हैं। उसके भी दो तरीके हैं। खबरों को दिखाने के बदले सीधे पांच से पचास लाख तक का टारगेट सालाना पूरा करना । या फिर राज्यों के ब्यूरो को पचास लाख से लेकर एक करोड़ तक में बेच देना। यह तरीका सीधे खबरों को बिजनेस में फुटकर तौर पर भी बदलना माना जा सकता है।<br /><br />लेकिन संभ्रात तरीका किसी राजनीतिक दल या किसी राज्य सरकार से सौदेबाजी को मूर्त रुप में ढालना है । यह सौदा चुनाव के वक्त जोर पकड़ता है। जिसमें पांच करोड़ से लेकर पचास करोड़ तक सौदा हो सकता है। राज्यों के चुनाव में यह सौदा राजनीतिक दलों में खूब गूंजता है। पिछले चुनाव में जो पांच राज्यों के चुनाव हुये, उसमें कई चैनलों के वारे न्यारे इसी सौदे से हो गये। चुनाव चाहे लोकतंत्र की पहचान हो लेकिन चुनाव का मतलब लोकतांत्रिक तरीके से पूंजी और मुनाफा वसूली की सौदेबाजी का तंत्र भी है, जो सभी को फलने फूलने का मौका देता है । लेकिन यह तंत्र इतना मजबूत है कि इसके घेरे में समूचा मीडिया घुसने को बेताब रहता है। यानी यहां टीवी या अखबार की लकीर मिट जाती है। लोकतंत्र में चुनाव का मतलब महज यही नहीं है, मायावती टिकटो को बेचती हैं या फिर बीजेपी और कांग्रेस में पहली बार टिकट बेचे गये। असल में चुनाव में खबरों को बेचने का सिलसिला भी शुरु हुआ। इसका मतलब है अखबारों में जो छप रहा है, न्यूज चैनलो में जो दिख रहा है, वह खबरें बिकी हुई हैं। इसके लिये भी रिपोर्टर को टारगेट दिया जाता है। और संस्थान संभ्रात है तो हर सीट पर सीधे चुनाव लड़ने वाले प्रमुख या तीन उम्मीदवार से वसूली कर एडिटोरियल पॉलिसी बना देता है कि खबरो का मिजाज क्या होगा। यह सौदेबाजी प्रति उम्मीदवार अखबार के प्रचार प्रसार और उसकी विश्वसनीयता के आधार पर तय होती है, जो एक लाख से लेकर एक करोड़ तक होती है। मसलन उत्तर प्रदेश के बहुतेरे अखबार इस तैयारी में है कि लोकसभा चुनाव में कम से कम पचास से सौ करोड़ तो बनाये ही जा सकते हैं। बेहद रईस क्षेत्र या वीवीआईपी सीट की सौदेबाजी का आंकलन करना बेवकूफी होती है क्यकि उस सौदेबाजी के इतने हाथ और चेहरे होते हैं कि उसे नंबरो से जोड़कर नहीं आंका जा सकता है। इन परिस्थितियो में खबरों को लिखना सबसे ज्यादा हुनर का काम होता है, क्योंकि खबरों को इस तरह पाठको के सामने परोसना होता है, जिससे वह विज्ञापन भी न लगे और अखबार की विश्वसनीयता भी बरकार रहे। मतलब खबरों के दो चेहरे है मगर मकसद एक है। पहला "किस-सीन" सरीखे प्रोग्राम टीआरपी देंगे और समाज को जो लुभायेगा,उसे बिजनेस और मुनाफे में बदला जा सकता है । दुसरा खबर को ही धंधे में बदल दिया जाये, जिससे मुनाफा वसूली के लिये टीआरपी ना देखनी पडी और न्यूज प्रोडक्ट का जामा भी बरकरार रहे । <br /><br />असल में यह परिस्थितियां किसी एक न्यूज चैनल या नेताओं या फिर ब्रांड चमकाने के लिये बाजार से मुनाफा बटोरने भर की नहीं हैं। यह एक पूरा समाज है जो देश को अपने घेरे में लाना चाहता है या फिर अपने घेरे से ही देश की लीक बनाना चाहता है। इन हालात के बीच मीडिया में खबरों के लौटने का मतलब एक ऐसे लोकतंत्र का जाप करना है, जिसमें सत्ता का चेहरा कभी खुरदुरा ना दिखे । क्योंकि चैक एंड बैलेंस की जो थ्योरी संविधान के जरीये लोकतंत्र के हर पाये को एक दूसरे की निगरानी के तहत खड़ा किया गया और अगर साठ साल बाद यही पाये अपने को बचाये रखने के लिये चैक एंड बैलेस का खेल खेल रहे है तो देश की बहुसंख्यक जनता को यह महसूस होता रहेगा कि दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश का वह नागरिक है। और चुनाव के दिन आप वोट नहीं डाल रहे हो तो आप सो रहे हैं का ताना आपको आपकी जिम्मेदारी का एहसास करा कर एक नयी सौदेबाजी में निकल सकता है। वैसे भी खुद को लोकतांत्रिक कहलाने का प्रोगपेंडा सबसे मंहगा सौदा होता है। और इस सौदे के घेरे में जब लोकतंत्र का ही पाया हो तो बात ही क्या है ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-43684995399555538622009-03-16T09:39:00.000+05:302009-03-16T09:39:02.127+05:30“मिलिनियर मीडियाडॉग” - 1एंकर के कान में आवाज गूंजती है....<br /><br />...तालिबान ने स्वात घाटी पर कब्जा कर लिया है । एंकर स्क्रीन पर तालिबान के खौफ का समूचा खांका खींचता है। फिर पाकिस्तान के स्वात इलाके में तालिबान के कब्जे की बात कहता है। अभी बात अधूरी ही थी कि एंकर के कान में फिर आवाज गूंजती है....रुको--रुको । कब्जा नहीं किया है शरीयत कानून लागू करने पर तालिबान के साथ पाकिस्तान ने समझौता कर लिया है। एंकर कब्जे की बात को झटके में शरीयत कानून से जोड़ता है। तभी एंकर के कान में शाहरुख कान के कंधों के ऑपरेशन की खबर पहले बताने को कहा जाता है। शरीयत कानून पर शाहरुख का कंधा नाचने लगता है और टीवी स्क्रीन पर शहरुख "डॉन" का गाना गाते नाचते नजर आते है। एंकर शब्द दर शब्द के जरिये शाहरुख की कहानी गढ़ना शुरु ही करता है.....कि कानों में अचानक एक नया निर्देश आता है- डिफेन्स बजट में पैंतीस फीसदी की बढोत्तरी कर दी गयी है। एंकट लटपटा जाता है और उसके मुंह से निकलता है शाहरुख की सुरक्षा में पैंतीस फीसदी की बढोत्तरी। देखने वाल ठहाके लगाते है और कानो में नया निर्देश देते है ...हर खबर को मिलाकर रैप-अप कीजिये और ब्रेक का ऐलान कर दिजिये। <br /><br />बात पीछे छूट जाती है और न्यूज चैनल अपनी रफ्तार में चलता रहता है। पांच दिनो बाद हफ्ते भर की टीआरपी के आंकडे आते हैं । एंकर टीआरपी में अपनी एंकरिंग के वक्त की टीआरपी खोजता है। उसे पता चलता है, जिस वक्त वह तालिबान से लेकर शाहरुख तक को एक दम में साधता जा रहा था, वही बुलेटिन टीआरपी में अव्वल है तो उसकी बांछें खिल जाती हैं। अचानक न्यूज रुम का वह हीरो हो जाता है। न्यूज डायरेक्टर उसकी पीठ ठोंकते हैं । <br /><br />अब एंकर हर बार खबर बताते वक्त इंतजार करता है कि एक साथ कई खबरें उसके बुलेटिन में आये, जिससे उत्तर आधुनिक खबर का कोलाज बनाकर वह दर्शकों के सामने कुछ इस तरह रखे की टीआरपी में उसके नाम का तमगा हर बार लगता रहे। न्यूज डायरेक्टर उसकी पीठ ठोंकता रहे और न्यूज रुम का असल हीरो वह करार दे दिया जाये। <br /><br />यह टीवी पत्रकारिता का ऐसा पाठ है जो हर कोई पढ़ने के लिये बेताब है । लेकिन न्यूज चैनल के रोमांच का यह एक छोटा सा हिस्सा है । हर खबर को वक्त से पहले दिखाने की छटपटाहट से लेकर खबर गूदने की कला अगर न्यूज रुम में नहीं है तो सर्कस चल ही नहीं सकता। सुबह के दस या कभी ग्यारह बजे की न्यूज मीटिंग में क्रिएटिव खबरों को लेकर हर पत्रकार की जुबान कैसे फिसलती है और कैसे वह झटके में सबसे समझदार करार दिया जाता है...यह भी एक हुनर है । एक ने कहा, आज किसानों के पैकेज का ऐलान हो सकता है । उन इलाकों से रिपोर्ट की व्यवस्था करनी चाहिये जहां किसानो ने सबसे ज्यादा आत्महत्या की हैं। तभी दूसरा ज्यादा जोर से बोल पड़ा...अरे छोड़िये कौन देखेगा। आज रितिक रोशन का जन्मदिन है । उसके घर पर ओबी वैन खड़ी कर दिजिये और उसके फिल्मीसफर को लेकर कोई घांसू सा प्रोग्राम बनाना चाहिये। चलेगा यही । देश युवा हो चुका है । नयी पीढी को तो बताना होगा किसान चीज क्या होती है । सही है तभी एक तीसरे पत्रकार ने बारीकी से कहा...आज दोपहर बाद दिल्ली में एश्वर्या बच्चन एक अंतर्राष्ट्रीय घडी का ब्रांड एम्बेसडर बनेंगी तो उनसे भी रितिक के जन्मदिन पर सवाल किया जा सकता है । धूम फिल्म में दोनो ने एकसाथ काम भी किया था फिर उस फिल्म के जरीये घूम का वह किस सीन भी दिखा सकते है, जिसे लेकर खासा हंगामा मचा था और बच्चन परिवार आहत था। <br /><br />तभी कार्डिनेशन वाले ने कहा, आधे धंटे का विशेष "किस-सीन" पर ही करना चाहिये। जिसका पेग रितिक-एश्रवर्य की किस सीन होगा । इसमें अमिताभ-रेखा से लेकर रणबीर-दीपिका का "किस -सीन" भी दिखाया जायेगा । आइडिया हवा में कुचांले मार रहा था तो आउटपुट को कवर करने वाले पत्रकार को आइडिया आया कि इस पर एसएमएस पोल भी करा सकते हैं कि दर्शको को कौन सा किस सीन सबसे ज्यादा पंसद है । खामोश न्यूज डायरेक्टर अचानक बोल पडे...आइडिया तो सही है। एसाइन्मेंट चीफ कहां खामोश रहते, बोले हां ...अगर इसका प्रोमो दोपहर से ही चलवा दिया जाये कि दर्शको को कौन सा "किस-सीन" सबसे ज्यादा पंसद है तो एसएमएस की बाढ़ आ जायेगी । फाइनल हुआ चैनल आज रितिक रोशन को बेचेगा । <br /><br />लेकिन सर..दिल्ली में और भी बहुत कुछ है ....उस पर भी ठप्पा लगा दे....यह आवाज पीएमओ और विदेश मंत्रालय देखने वाले पत्रकार की थी । संयोग से आज दिल्ली में पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद कसूरी हैं। एक तरफ सरकार तालिबान का राग अलाप रही है और पाकिस्तान से युद्द के लिये दो-दो हाथ की तैयारी कर रही है...उस वक्त कसूरी का इंटरव्यू किया जा सकता है कि तालिबान का मतलब है क्या । बीच में ही आउटपुट-एसाइनमेंट के लोग एक साथ बोल पडे...कहां फंसते हैं, तालिबान का खौफ जब टीआरपी दे रहा है तो कसूरी के जरिये सबकी हवा क्यों निकालना चाहते हैं । तो सर एलटीटीआई को लेकर श्रीलंका की पूर्व राष्टरपति चन्द्रिका कुमारतुंगा से बात की जा सकती है । उनका इंटरव्यू लिया जा सकता है..संयोग से वह भी दिल्ली में हैं। एसाइन्टमेंट वाले को आश्चर्य हुआ कि उसे जानकारी ही नहीं कि यह सब दिल्ली में हैं तो सवाल किया, मामला क्या है..क्यों दोनो नेता दिल्ली पहुंचे हैं । जी..अय्यर की किताब का विमोचन है । कौन अय्यर.... मणिशंकर अय्यर । जी..वहीं । अरे अय्यर को कौन जानता है, उनकी क्रिडेबिलेटी या कहिये कांग्रेस के भीतर उन्हे पूछता ही कौन है । कौन देखेगा इनके गेस्ट को । छोड़िये। खामोश न्यूज डायरेक्टर फिर उचके और कहा, नजर रखिये प्रोग्राम पर कहीं कुछ कह दिया या फिर किसी ने कुछ दिखाया तो बताइयेगा...ऐसे कोई मतलब नहीं है इनके इंटरव्यू का । <br />खैर छिट-पुट खबरों पर चिंतन-मनन के बाद दो घंटे की बैठक खत्म हुई । दोपहर के खाने को लेकर चर्चा हुई । कैंटिन और नये जायके को लेकर मंदी पर फब्ती कसी गयी । किसानों ने देश बचाया है...गर्व से कई तर्क कईयों ने दिये....उन्होंने भी जिन्होंने किसानों को टीवी स्क्रीन पर दिखाने को महा-बेवकूफी करार दिया था । खैर दिन बीता । समूची मीटिंग और रिपोर्ट करने ...खबर दिखाने की बहस हर दिन की तरह खत्म हुई । अगले दिन राजनीतिक दल को कवर करने वाला रिपोर्टर देश की राष्ट्रीय पार्टी के दफ्तर में बैठा था । तभी पता चला आज प्रेस कान्फ्रेन्स वरिष्ट नेता और सरकार में कबिना मंत्री रह चुके राष्ट्रीय दल के नेता लेंगे । पत्रकारों से बातचीत के बाद जब वह रिपोर्टर किसी सवाल पर प्रतिक्रिया लेने इस नेता के पास पहुंचा तो नेता-पूर्व मंत्री ने रिपोर्टर से कहा..आपके चैनल ने कल कमाल का प्रोग्राम दिखाया । किस हीरो का किस-सीन सबसे बेहतर है । क्रिएटिव था प्रोग्राम । मैंने तो कुछ देर ही देखा । तभी इस राष्ट्रीय पार्टी के कई छुटमैया नेता बोल पड़े । जबरदस्त था प्रोग्राम....हमने पूरा देखा । इसे रीपीट कब किजियेगा । अरे सर जरुर देखियेगा...खास कर इसका अंत जहां राजकपूर-नर्गिस और रितिक-एश्वर्या को एक साथ दिखाया गया है। <br /><br />रिपोर्टर ने नेताओं की प्रतिक्रिया को हुबहू अगले दिन की न्यूज मीटिंग में बताया । न्यूज डायरेक्टर की बांछें खिल गयी । उन्हें व्यक्तिगत तौर पर लगा कि उनसे बेहतर कोई संपादक हो ही नही सकता है । न्यूज डायरेक्टर ने प्रोग्राम बनानेवाले प्रोडूसर को बधाई दी । फिर आधे दर्जन पत्रकारों ने एक-दूसरे की पीठ ठोंकी कि यह आईडिया उन्हीं का था । खैर पांच दिन बाद आयी टीआरपी में भी यह प्रोग्राम अव्वल रहा। चैनल ने एक पायदान ऊपर कदम बढाया। <br /><br />दो हफ्ते बाद मुबंई के एक पांच सितारा होटल में विज्ञापनदाताओं की एक पार्टी हुई, जिसमं पहली बार एंकरो को भी बुलाया गया । विज्ञापन देने वाले एंकरो से मिलकर बहुत खुश हुये । विज्ञापन देने वालों के जहन में हर एंकर की याद उसके किसी ना किसी प्रोग्राम को लेकर थी तो कई तरह के प्रोग्राम का जिक्र हुआ तो एंकर ने भी छाती फुलायी और खुद को इस तरह पेश किया जैसे वह न होता तो उनका पंसदीदा प्रोग्राम टीवी स्क्रीन पर चल ही नहीं पाता। दो युवा एंकर तो खुद को हीरो-हीरोइन समझ कर फोटो खिंचवाने से लेकर ऑटोग्राफ देने और संगीत की धुन पर इस तरह मचले की लाइव शो हो जाता तो टीआरपी छप्पर फाड़ कर मिलती। उस रात के हीरो भी वही रहे और विज्ञापन देने वालो ने दोनो युवा एंकरो की पीठ ठोंकी और सीओ ने भी जब खुली तारीफ कर दी तो परिणाम अगले दिन से ही स्क्रीन पर नजर आने लगा। दोनो एंकरो को कई प्रोग्राम की एंकरिंग का मौका मिलने लगा । और न्यूज डायरेक्टर ने दिल खोलकर दोनो एंकरों को सबसे बेहतर करार दिया। दोनों ने खुद को सबसे बेहतरीन पत्रकार मान लिया । आफिस में रिपोर्टर-पत्रकारो की धडकन बढ़ गयी। <br /><br />खबर परोसते न्यूज चैनलो की असल पहचान कमोवेश इसी वातावरण के इर्द-गिर्द घूमती है । यह एक ऐसा घेरा है, जिसमें समाने और ना समा पाने का सुकुन भी एक सा है । इस वातावरण को किसी एक न्यूज चैनल के घेरे में रखना वैसी ही मूर्खता होगी जैसे चैनलों पर परोसे जा रहे सच पर वाहवाही सिर्फ किसी एक नेता की मानी जाये या फिर जिन विज्ञापनदाताओ की पूंजी के जरीये न्यूज चैनल चलते हैं, उनमें सिर्फ चंद के खुश होने की बात कही जाये। यानी नेताओं की कमी नहीं और विज्ञापन देने वालो में भी इस विचार की भरमार है कि जो टीवी न्यूज चैनल पर दिखायी दे रहा है उन्हे देखने में मजा आता है । असल में हिन्दी पट्टी में हिन्दी के न्यूज चैनलों ने पहली बार भाषायी क्रांति के साथ साथ मुनाफे और बाजार की एक ऐसा परिभाषा गढ़ी है, जिसने समाज के भीतर एक नया समाज गढ़ दिया है । इस समझ के दायरे में जाति-शिक्षा-लिंग सब बराबर हैं। यानी जो समाज राजनीतिक तौर पर बंटा है या सामाजिक विसंगतियो का शिकार होकर दकियानुसी संवाद बनाता है, उसे टीवी के जरीये एक ऐसा जुबान दी गयी कि उसका विशलेषण राजनीतिक तौर पर होने लगे । मंगलौर के पब में लडकियो के साथ मारपीट जैसी स्थिति अगर बिना टीवी न्यूज चैनल के होती तो उसका स्वरुप यही होता कि जिन लडकों ने लडकियो के साथ बदसलूकी की उनका शहर में रहना दुभर हो जाता। या फिर लड़कियों के परिजन लुंपन लडकों की ऐसी पिटाई करते और मुथालिक का चेहरा काला कर शहर भर में घुमाते की उसकी हिम्मत नहीं पड़ती कि लडकियों की तरफ आंख भी उठा सके। <br />लेकिन कमाल टीवी का है । जिसने मुथालिक की गुंडागर्दी को नैतिकता के उस पाठ का हिस्सा बना दिया जिसकी दुहायी संघ परिवार गाहे-बगाहे देता रहता है । अब विशलेषण होगा तो मुथालिक महज पूंछ की तरह होंगे और आरएसएस सूंड की तरह नजर आयेगा। हुआ भी यही । और यही सूंड धीरे धीरे बीजेपी की राजनीति का हिस्सा बनी और बीजेपी इस मुद्दे को आत्मसात कर ले, इसका प्रयास कांग्रेस ने खुल्लमखुल्ला संघ से जोड़कर कर दिया । जो न्यूज "किस-सीन" के प्रोग्राम में खोये रहते, जब उनके माइक और कैमरा नेताओ की प्रतिक्रिया लेने निकले तो कौन नेता बेवकूफ होगा जो घटना पर अपनी जुबान न खोले । किसी को तालिबानी कल्चर दिखा तो किसी को हिन्दु समाज की नैतिकता । किसी को हिन्दु वोट नजर आया तो किसी को युवा वोट । जाहिर है क्या नेता, क्या सरकार, क्या गुंडा और क्या समाज सुधारक न्यूज चैनल के पर्दे पर कोई भी आये लगते सभी एक सरीखे है । कोई खबर किसी भी रुप में दिखायी जाये, उसके तरीके उसी मनोरंजन का हिस्सा बन जाते है जिसे खारिज करने के लिये मीडिया की जरुरत हुई । और उसे लोकतंत्र का चौथा खम्भा माना गया।...........................................................(जारी)Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-90445284745713425412008-11-16T10:08:00.003+05:302008-11-16T10:14:56.543+05:30मस्त लोगों के मरे हुये मन<p>नोट-आज 16 नवंबर, प्रेस दिवस है। ये लेख उसी उपलक्ष्य में लिखा गया है।<br /> </p><p>6 जून 1981 को बिहार की बागमती नदी में समस्तीपुर-वनमंखी पैसेंजर गाड़ी के सात डिब्बे टूट कर गिर गये । उस समय दिनमान के संपादक रघुवीर सहाय ने अपने संपादकीय में लिखा-<br />" रेल दुर्घटना की खबर ने उन्हे छोड़, जिन के अपने सगे उस गाडी में थे, किसी को विचलित नहीं किया।" संपादक के नाम एक ऐसे पत्र को दिनमान की कवर स्टोरी का हिस्सा बनाया, जिसमें इस घटना को एक भयानक राष्ट्रीय विपत्ति बताया गया था। यह वाकया इसलिये याद आ गया दो महीने पहले बिहार में ही कोसी नदी ने जब अपनी धारा बदली तो सात जिलो के दो लाख लोगो को लील लिया। लेकिन किसी अखबार-पत्रिका या न्यूज चैनल की कवर या मुख्य स्टोरी यह तब तक नहीं बन पायी जब तक प्रधानमंत्री ने इसे राष्ट्रीय विपदा नही बताया।<br /><br />दिल्ली के किसी समाचार-पत्र को पढ़ कर बिहार के हालात की जानकारी किसी को नही मिल सकती थी । न्यूज चैनलों ने भी एक हफ्ते तक प्राइम टाइम में इस खबर को छूने की हिम्मत नही दिखायी। उन्हें इसकी टीआरपी न मिलने का डर था। यानी 1981 के बाद देश के विकास और मीडिया के आधुनिकीकरण में लगे 27 सालो में हर शख्स अकेला ही होता जा रहा है। 27 साल पहले हजारों अकेले आदमियों की मौत हुई थी और 2008 में लाखों अकेले आदमी मरे नहीं लेकिन इस या उस दौर में सरोकार का मीडिया, मुनाफे के मीडिया में बदल गया।<br /><br />दरअसल खुले बाजार ने महज मुनाफे की थ्योरी को समाज और आर्थिक तौर पर ही नही परोसा बल्कि राजनीति और मीडिया को एक साथ सरोकार की भाषा छुड़वाने की स्थितियां बना दीं। इस दौरान मीडिया सबसे रईस होकर उभरा तो उसके भीतर सत्ता के करीब होने की ललक बढ़ी। लेकिन बाजार व्यवस्था का प्रभाव महज बिजनेस के रुप में मीडिया पर पड़ा, ऐसा भी नही है । लोकतंत्र का जो पाठ संसदीय राजनीति ने नीतियों के जरीये देश के सामने रखा, उसमें निजी शब्द हावी होता चला गया। खासकर निजी का मुनाफा ही निजी की सुरक्षा हो गयी । सत्ता के सामने अपने हक की लड़ाई के मायने तक बदलने लगे। जब आम आदमी का विकास एक दूसरे के हक को छीनकर परिभाषित होने लगा तो जिसका पेट भरा था या जो मुनाफे की पायदान पर सबसे ऊपर खड़ा था, उसने अपने आपको लोगो से काटकर सत्ता के अनुकुल करना ही बेहतर समझा। हकीकत मे लोकतंत्र की यह परिभाषा राज्य ने ही गढ़ी जिसने अपनी भूमिका एजेंट भर की रखी तो मीडिया भी इससे हटकर नही सोच पाया ।<br /> </p><p>1991 से लेकर 2008 तक के दौरान आर्थिक सुधार को लेकर जो भी नीतियां राज्य ने अलग अलग सरकारों के दौर में रखीं, उसे बिजनेस मीडिया {आर्थिक अखबार-बिजेनेस चैनल } ने कभी खारिज नही किया । मीडिया भी नीतिगत तौर पर सत्ता के करीब ही हुआ क्योंकि लोकतंत्र की परिभाषा बदली थी तो चौथे स्तभं को लेकर भी नयी व्याख्या सरकार के नजरिये से नजर मिला कर चलने की ज्यादा हो गयी। मीडिया को आर्थिक तौर पर चलाते हुये मुनाफा बनाना पूरी तरह सत्ता पर टिका क्योंकि मीडिया इस डेढ़ दशक में सरोकार के सूचना तंत्र से ज्यादा सूचना तंत्र का बिजनेस बन गया ।<br /><br />इसकी सुरक्षा मीडिया को मुनाफे के तौर पर मिली यह भी सच है। यह समझ ठीक उसी तरह विकसित हुई, जैसे थोड़ी से भी सुरक्षा पाते ही एक भारतीय आदमी अपने को इतना अधिक सत्ता के नजदीक समझने लगा है कि उसका सोचने का ढंग उसी तरह मानव विरोधी और निर्मम हो जाता है, जैसा शासक वर्ग का है। इस के पीछे कही ना कही यह विचारधारा भी काम कर रही है कि देश की सामाजिक व्यवस्था को न्याय के पक्ष में बदलने में आम नागरिको का कोई हाथ हो नही सकता । वह तो केवल सत्ता के शीर्ष स्थानों पर बैठे लोगो द्रारा बदली जायेगी। जो लोग समाज को बनाने में अपने मौलिक अधिकारो को छोड़ चुके हैं, वे सह्हदय भी नही हो सकते । यही होंगे तो केवल अपनी इकाइयों के साझीदार के लिये, जाति के लिये, संप्रदाय के लिये या परिवार के लिये होगे।<br /><br /> मीडिया इस समझ से अछूता है ऐसा भी नही है। इसलिये इस दौर में जिस तरह की खबरों को परोसा जा रहा है या जिस तरह से परोसा जा रहा है वह निजी मुनाफे और सत्तानूकुल बने रहने के सच से हटकर कतई नहीं है। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि राष्ट्र की संपत्ति से लेकर औघोगिक और सामरिक समृद्दि तक में देश के लोगों की और संस्थाओ की भागेदारी गायब हो रही है। वह खुले बाजार की तरह सीमापार की करेंसी तक पर जा टिकी है। मीडिया भी इससे अछूता नही है। एफडीआई का कितना फीसदी मीडिया के विस्तार में लगाया जा सकता है, यह सरकार और मीडिया के बीच समझौते का नया पहलू है।<br /><br />शायद इसीलिये किसानों की आत्महत्या से लेकर आंतकवाद छाया और उस पर सांप्रदायिक राजनीति के आसरे सत्ता चमकाने के तथ्यों को नजरअंदाज कर बाजार की शानोशौकत से लेकर हंसी ठठा का खेल अखबारों से लेकर न्यूज चैनलो में नजर आता है। उसमे यह कहने से गुरेज नही किया जा सकता कि मीडिया के मन में समाज और राष्ट्र की वह कल्पना मर चुकी है, जिसमें यह संभव हो की सत्ता के संवेदनहीन होने पर मीडिया की खबर समूचे देश को सचेत कर दे।<br /></p>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com21tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-45689857970228716242008-10-17T08:46:00.001+05:302008-10-17T08:50:03.621+05:30मीडिया, चमक और सपनाझकाझक कपड़ों से लैस नयी पीढ़ी। कोट-टाई, बंद गले का मॉडलर कोट, आंखों में शानदार धूप का चश्मा। किसी के कांधे से लटकता चमड़े का बेहतरीन बैग तो किसी के हाथ में मिनरल वाटर की बोतल। संवरे बाल और सौद्दर्य प्रसाधन में लिपटे साफ सफेद चेहरे। लेकिन आवाज में गुस्सा। भरोसा टूटने का गुस्सा। खुद के होने की छटपटाहट...जिसे नकारा जा रहा है।<br /><br />चकाचौंध में लिपटी युवा पीढ़ी की एक ऐसी तस्वीर जो आसमान में उड़ान भरने के लिये ही बेताब रहती है, वही बेबस होकर सड़क पर एक अदद नौकरी की मांग जिस तरह कर रही थी, उसने झटके में उस सपने को किरच-किरच कर दिया जो खुली अर्थव्यवस्था में सबकुछ जेब में रख कर दुनिया फतह करने का सपना संजोये हुये है । जेट एयरवेज के साढे आठसौ प्रोबेशनर, जो चंद घंटे पहले तक उस आर्थिक सुधार के प्रतीक थे, जिसने बाजार को इस हद तक खोल दिया था कि हर चमक-दमक वाले प्रोफेशनल यह कहने से नहीं कतराते थे कि खर्च करना आना चाहिये। धन का जुगाड़ तो बाजार करा देगा। आज वही प्रोफेशनल जब यह कह रहे है कि हमारी डिपॉजिट करायी गयी रकम जो 50 हजार से लेकर सवा लाख तक है, उसे तो लौटा दो। तब कई ऐसे चेहरे सामने आने लगे जो सालों साल से अपनी जमीन का मुआवजा मांग रहे हैं।<br /> <br />लेकिन उन चेहरों पर कोई चमक कभी किसी ने नहीं देखी। टपकता पसीना और फटेहाल कपड़ों में अपने हक की लड़ाई को अंजाम देने के लिये सडक पर खून-पसीना एक करते किसान-मजदूरो की सुध कभी किसी ने नहीं ली । इन चेहरो को कभी टेलीविजन स्क्रिन पर भी तवज्जो नहीं मिली । न्यूज चैनलों के भीतर वरिषठों में तमाम असहमतियो के बीच इस बात को लेकर जरुर सहमति रहती कि किसान-मजबूर के हक की लड़ाई को दिखाने का कोई मतलब नहीं है। यह चेहरे नये बनते भारत से कोसो दूर है...इन्हे कोई देखना नहीं चाहता । फिर टीआरपी की दौड़ में यह चेहरे बने बनाये ब्रांड को भी खत्म कर देंगे।<br /><br />सहमति का आलम इस हद तक खतरनाक है कि अगर किसी जूनियर ने इन चेहरो को ज्यादा तरजीह दे दी तो उसे अखबार में काम करने की खुली नसीहत भी दे दी जाती । लेकिन उसी अंदाज में जब चमकते-दमकते चेहरे चकाचौंध भारत से सराबोर होकर आश्चर्य के साथ सड़क पर आये तो विवशता या कहें कमजोरी इस हद तक थी कि यह पीढी अपने सीनियर ही नहीं न्यूज चैनलो के पत्रकारों से भी गुहार लगा रही थी कि कल उनके साथ भी ऐसा हो सकता है इसलिये उनकी लड़ाई में सभी शामिल हो जाये।<br /><br />कमोवेश इसी तरह का सवाल नौ महिने पहले जमीन से बेदखल हुये 25 की तर्ज पर लगती थी जिसे कोई सुनना नही चाहता । बाजार समूची युवा पीढ़ी को चला रहा था और ब्रांड बनते पत्रकार भी इस एहसास को समेटे न्यूज चैनलों को चला रहे हैं, जहां बाजार की लीक छोड़ने का मतलब पिछड़ते जाना है। पिछड़ना कोई चाहता नहीं इसलिये चमक-दमक से भरपूर नयी पीढ़ी भी जब अपनी रोजी-रोटी का सवाल लेकर सड़क पर ही पिल पड़ी तो न्यूज चैनल फिर अपने राग में आ गये । 15 अक्तूबर को दोपहर एक बजकर बीस मिनट पर जैसे ही यह खबर ब्रेक हुई और तस्वीरों के जरिये स्क्रीन पर हवा में उड़ान भरती युवा पीढ़ी जमीन पर खुले आसमान तले नजर आयी तो सभी चैनल दिखाने में जुटे लेकिन किसी ने अपने उस व्हील को तोड़ने की जहमत नहीं उठायी जो प्रायोजक कार्यक्रम पहले से तय थे। डेढ़ बजते ही कमोबेश हर न्यूज चैनल पर हास्य-व्यंग्य से लेकर मनोरंजन और फैशन दिखाया जा रहा था। कहीं <br /><br />"कॉमेडी कमाल की" चल रहा था तो कही "आजा हंस ले", "हंसी की महफिल","फैशन का टशन","खेल एक्सट्रा" यानी सभी उसी बाजार के प्रचार से धन जुटाने में जुटे थे जो मंदी की मार तले किसी को भी सड़क पर लाने को आमादा है।<br /><br />लेकिन बिजनेस चैनलों ने इस संकट के सुर में अपने संकट को भी देखा समझा और अचानक सरकार को बेल आउट की दिशा में सुझाव देने में जुट गये। यानी संकट जेट एयरवेज पर आया हो तो उससे निपटने के लिये देश का धन एयरवेज को दे दिया जाये, जिससे वह अपने नुकसान की भरपायी करे और सभी प्रोफेशनलो को नौकरी पर रख ले। लेकिन किसी चैनल ने इस रिपोर्ट को दिखा कर सरकार को समझाने की जहमत नही उठायी कि भुखमरी में भारत का नंबर 66 हैं और भुखमरी से बेलआउट करने के लिये सरकार को पहल करनी चाहिये ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com13