tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-81037915015762994632009-06-12T07:18:00.000+05:302009-06-12T07:18:00.430+05:30बीजेपी के ग्राउंड जीरो पर मोदी-आडवाणीजिस युवा राजनीति का सवाल कांग्रेस के भीतर उफान पर है, वह उफान ‘हिन्दुत्व की प्रयोगशाला’ के राज्य गुजरात में बीजेपी के गढ़ राजकोट में अर्से से है। राजकोट में कम्प्यूटर साइंस से लेकर बिजनेस मैनेजमेंट और मेडिकल से लेकर बीपीओ से जुडा युवा तबका बीजेपी का झंडा उठाने से नही चूकता लेकिन लहराते झंडे में संघ की वैचारिक समझ देखना चाहता है। आरएसएस की इस राजनीतिक ट्रेनिंग का असर कमोवेश समूचे सौराष्ट्र में है। इसका केन्द्र राजकोट है और वजह भी यही है कि बीजेपी ने कभी राजकोट सीट नहीं गंवायी। <br /><br />लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी राजकोट में कांग्रेस से हार गयी। बीजेपी के युवा कार्यकर्त्ताओ की माने तो बीजेपी कांग्रस से नहीं बीजेपी के कांग्रेसीकरण से हार गयी। और सौराष्ट्र में बीजेपी का मतलब है नरेन्द्र मोदी। तो पहली बार गुजरात में संघ और बीजेपी के भीतर यह सवाल जोर-शोर से कुलबुला रहा है कि नरेन्द्र मोदी का भी कांग्रेसीकरण तो नहीं हो रहा है?<br /><br />कांग्रेसीकरण का सवाल चुनाव को लेकर बनायी गयी रणनीति और चुनाव के बाद देश की राजनीति में मोदी की अपनी भूमिका के तौर तरीको को अपनाने से है। सौराष्ट्र में बीजेपी और आरएसएस ही नहीं किसी भी तबके के बीच बैठते-घूमते हुये कोई भी नरेन्द्र मोदी की गैर मौजूदगी में भी मोदी का एहसास कर सकता है। द्वारका में द्वारकादीश मंदिर के बाहर मनीष की पान की दुकान हो या पोरबंदर में गांधी के जन्मस्थल वाले मोहल्ले में दिनेश सर्राफा की दुकान या फिर सोमनाथ में सोमेश का एसटीडी बूथ...हर जगह नरेन्द्र मोदी के साथ अपनी तस्वीर को दुकान में चस्पा कर दुकानदार गर्व भी महसूस करता है और सामाजिक अकड़ भी दिखाता है।<br /><br />युवा तबका मोदी के साथ तस्वीर खिंचा कर अपने घेरे में अपनी अकड दिखाने से नही चूकता तो बच्चे और महिलाएं मोदी के हस्ताक्षर लेकर मोदी की नायक छवि को बरकरार रखते हैं। नायक की यह छवि मोदी की किस्सागोई से भी जुड़ चुकी है। मसलन सड़क से गुजरता मोदी का काफिला आम लोगो की आवाजाही नहीं रोकता। सडक पर कोई दुर्घटना हो तो लोगो की आवाजाही चाहे जारी रहे लेकिन मोदी का काफिला रुक जाता है और घायलों का कुशलक्षेम पूछ कर ही आगे बढ़ता है। मोदी की लोकप्रियता का यह अंदाज मोदी को आरएसएस की उस राजनीतिक ट्रेनिंग से अलग खड़ा करता है, जिसमें वैचारिक शुद्दता के साथ आदर्श समाज की परिकल्पना हो। जिसमें संगठन और हिन्दुत्व समाज का भाव हो। ऐसा नहीं है कि अपनी लोकप्रियता को इस तर्ज पर देखने के लिये मोदी ने कोई खास रणनीति अपनायी। असल में आरएसएस की राजनीतिक ट्रेनिंग और बीजेपी की राजनीति ने जहां दम तोडा, वहां नयी पीढी और आर्थिक सुधार के बाद बनते नये सामाज की जरुरतों को मोदी ने थामा । इसलिये मोदी का संकट दोहरा हो गया। एक तरफ मोदी की प्रयोगशाला में संघ ने भी खुद को झोंका और रास्ता न पाकर बीजेपी भी नतमस्तक हुई। वहीं, दूसरी तरफ इस प्रयोगशाला की हर कैमिकल थ्योरी मोदी ही रहे तो मोदी को देखने का नजरिया भी हर तबके ने अपने अपने तरीके से अपनाया। किसी के लिये मोदी हिन्दुत्व का झंडाबरदार रहे तो किसी के लिये विकास का प्रतीक तो किसी के लिये बालीवुड के नायक सरीखे हो गये। <br /><br />इस अंदाज ने मोदी को भी बरगलाया। जिन्हें टिकट दिया गया, उनका वास्ता संघ से रहा नहीं और सामाजिक पहचान बीजेपी के बीच की है नहीं। हां, बाजार और पूंजी से पहचान बनाने वाले बीजेपी के उन समर्थको को मोदी ने न सिर्फ टिकट दिया बल्कि गुजरात बीजेपी में उनकी राजनीतिक हैसियत भी बढ़ायी। राजकोट के उम्मीदवार किरण पाटिल इस सोच के प्रतीक हैं, जो पैसे के बूते बीजेपी का टिकट तो पा गये लेकिन बीजेपी के भीतर ही वोट ना मिलने से हार गये । असल में आरएसएस ने गुजरात में जो राजनीतिक ट्रेनिंग दी, उसमें हर जिले में ऐसे पैसे वालों की भरमार है, जो संघ या बीजेपी की कार्यशाला या बैठकों को सफल बनाने के लिये हर तरीके से भौतिक इंतजाम करते रहे हैं। <br /><br />मोदी ने पूंजी और राजनीति को मिलाकर उन्हें ही राजनीतिज्ञ बना दिया, जो कल तक पार्टी के इंतजाम का खर्चा उठाते-देखते थे । बीजेपी के इन नये कर्ताधर्ता के राजकरण के तौर तरीके कांग्रेसी सरीखे हैं। जिसमें आरएसएस की सामाजिक सोच नहीं बल्कि सत्ता बनाये रखने के तौर तरीके चलते हैं। यह तरीके बीजेपी के नेता और कार्यकर्ता के बीच खायी लगातार चौड़ी भी करते जा रहे हैं। कार्यकर्ता की समझ या उसके सुझाव या उसकी जरुरत लोकप्रिय मोदी स्टाइल के आगे कोई मायने नहीं रखते क्योकि कार्यकर्ता जहां के सवाल खड़ा करता है, वहां से या तो मोदी सीधा संपर्क बनाने की दिशा में हीरो की तरह जाते हैं.या अपने नये राजनीतिक करिन्दो के जरीये राजनीति टटोलते हैं। यह स्टाइल मोदी को घेरे समूह में भी है। यानी मोदी जैसा ही उसे घेरे लोग भी बनना-दिखना चाहते हैं। तो हर का वास्ता स्टाइल से होता है ना कि मोदी से। <br /><br />कल तक जो घन्नसेठ फक्कड और मुफलिस संघी स्वसंसेवक या बीजेपी नेता को अपने घर में ठहरा कर भोजन करा कर घन्य समझता था, वही सेठ नेता बनने के लिये अब जोड-तोड़ भी कर रहा है और वैचारिक तौर पर खुद को ज्यादा समझदार नेता भी मान रहा है और फक्कड-मुफलिस संघी को बाहर से ही बाहर का रास्ता दिखाने से नहीं चूक रहा। चूंकि मोदी ही सर्वसर्वा हैं और उन तक सीधी पहुंच उस तबके की है तो वह भी कार्यकर्ता-नेता को कुछ नहीं समझता। चूंकि दंगों से उपजी हिन्दुत्व प्रयोगशाला का पाठ बीजेपी की राजनीति के लिये ज्यादा देर तक फायदेमंद हो नही सकता है, इसलिये बीजेपी से पहले मोदी ने ही नये राजधर्म के नये-नये तौर तरीके अपनाये । जिससे 2002 की पहचान का तमगा ही छाती पर न टंगा रहे । इसलिये 2009 तक आते आते मोदी ने विकास का खांचा उस नयी अर्थव्यवस्था के ही इर्द-गिर्द ही रचा, जिसके खिलाफ स्वदेशी जागरण मंच काम करता रहा है। जिसमें वैकल्पिक आर्थिक खांचा खड़ा कर स्वावलंबन का सवाल है। खेती और उघोगों के सामानांतर समाज के हर तबके को भी एक साथ खड़ा करने का सवाल है । वहीं, मोदी के अंदाज ने सौराष्ट्र के एनआरआई समेत उस क्रीम तबके को पकड़ा, जिसकी जरुरत विकास का इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने की थी । जिसके लिये वह फंडिंग के लिये भी तैयार है। <br /><br />मोदी ने उघोगोपतियो को रिझाने के लिये सौराष्ट्र की जमीन का एनओसी खुद ही बांटे। उघोगों के लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करने का जिम्मा भी खुद उठाया। उघोगों तक बेहतरीन सड़क बनाने की रफ्तार भी अपने हाथ में रखी। भ्रष्टाचार या कमीशनखोरी के बंदरबांट को सीधे सत्ता से जोडा। और सत्ता को भी इस तबके ने हिस्सेदारी दे दी। इसका बेहतरीन उदाहरण पोरबंदर में देखा जा सकता है, जहां सबसे ज्यादा एनआरआई हैं। तो पोरबंदर जिला भी है और औघोगिक विकास की नगरी भी। बडे किसान भी है और किसान-व्यापारी मोदी स्टाइल के प्रतीक भी हैं। असल में नरेन्द्र मोदी राजनीति एक स्टाइल है, जो गुजरात में पांच करोड़ गुजरातियों का नाम तो लेता है लेकिन सामाजिक तौर पर महज पचास लाख गुजरातियों के जरीये बाकियों को इस स्टाइल को अपनाने पर ही टिका देता है। ऐसे में सत्ता की कार्यप्रणाली भी संगठन से इतर इसी स्टाइल पर आ टिकी है जो व्यक्ति विशेष को देखती है न कि किसी विचारधारा या सांगठनिक तौर-तरीको को। <br /><br />मोदी स्टाइल सत्ता बरकरार रखने का एक ऐसा तरीका है, जो पार्टी या विचारधारा से हटकर एक तबके को मुनाफे की थ्योरी समझाता है तो दूसरे तबके को मुनाफे में हिस्सेदारी के लिये लालायित करता है। जो बच जाते हैं, उन्हे संभावना और आशंका के बीच तब तक झूलाता है ज बतक उसपर कोई और राजनीति अपना मुलम्मा ना चढ़ा ले। राजनीतिक तौर पर बीजेपी के लिये यह शार्टकट का रास्ता हो सकता है लेकिन पांच करोड गुजरातियों और सवा सौ करोड़ भारतीयों के अंतर को समझना होगा, जो ना तो बीजेपी समझ पायी न ही लाल कृष्ण आडवाणी समझ पा रहे है। <br /><br />सत्ता का रास्ता बीजेपी के लिये तभी तक मान्य है, जबतक वह कांग्रेस की बनायी लीक का विकल्प दे सके। असल में बीजेपी सत्ता के लिये अपनी उस लकीर को ही मिटाना चाह रही है, जो कांग्रेस की राजनीति से अलग बन रही थी। कांग्रेस के एनजीओ स्टाइल के सामानांतर संघ के करीब चालीस संगठन और को-ओपरेटिव व्यवस्था का जो खांचा बीजेपी को राजनीतिक लाभ पहुचा सकता था, उसे बीजेपी ने खुद ही तोडा । हिन्दुत्व की प्रयोगशाला या मंदिर निर्माण कांग्रेस की राजनीति का विकल्प नहीं हो सकते बल्कि सामाजिक तौर पर भावनात्मक उभान जरुर पैदा कर सकते हैं। लेकिन इस उभान का राजनीतिक लाभ तभी मिल सकता है, जब सामाजिक तौर पर वैकल्पिक राजनीति की जमीन हो। असल में भगवा कांग्रेसीकरण ने इसी जमीन को हड़पा है। जिसमें गुजरात में मोदी हो या दिल्ली में आडवाणी दोनो ने विकल्प का सारा ताना-बाना खुद के ही हर्द-गिर्द बुनने की जबरन कोशिश की है। <br /><br />इस हकीकत को कोई समझ नही पा रहा है कि आरएसएस अगर खुद को सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन कहता है तो उसका राजनीतिक पाठ समाजिक शुद्दीकरण और सांगठनिक विचार को ही राजनीतिक सत्ता मानता है। जो कांग्रेस की संसदीय राजनीति की थ्योरी से हटकर है । इसलिये संघ का वोट बैंक भगवा कांग्रेसीकरण यानी बीजेपी का वोटबैंक नही हो सकता। इसलिये सवाल यह नहीं है कि आडवाणी हार गये है और मोदी भी उसी राह पर हैं। बड़ा सवाल यह है कि एक तरफ कांग्रेस है तो दूसरी तरफ संघ । वाजपेयी ने संघ की समझ को सूंड से पकड कर सत्ता भोगी और आडवाणी ने संघ की समझ को पूंछ मान कर खुद को ही मजबूत नेता माना । राजकोट की हार बताती है कि मोदी भी इसी राह पर है। लेकिन बीजेपी के ग्राउंड जीरो पर खडे होकर महसूस किया जा सकता है कि भविष्य का सवाल बीजेपी की राजनीति या मोदी की राह की नहीं बल्कि आरएसएस के आस्तित्व का है । जिसका नया पाठ मुद्दा के आसरे राजनीति को खडा करना है ना कि राजनीति के आसरे मुद्दो को ताड़ना । <br /><br />(गुजरात से लौटकर)Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-36565957101653932062009-05-09T10:01:00.000+05:302009-05-09T10:01:00.723+05:30मोदी पर एसिड़ टेस्ट का वक्त आ गया हैगुजरात दंगों की सुनवायी गुजरात में ही कराने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से किसी की आंखो में सबसे ज्यादा चमक आयी होगी तो वह नरेन्द्र मोदी ही होंगे । दंगों के बाद मोदी ने जिस तरह समाज में खिंची लकीर का राजनीतिकरण किया, उसमें चुनावी जीत बीजेपी को नहीं मोदी को मिली। सात साल में मोदी ने जिस गुजरात की अस्मिता को हवा दी, उसमें मोदी की पहचान राष्ट्रीय नेता की जगह एक ऐसे कद्दावर क्षेत्रिय नेता के तौर पर उभरी, जिसके बगैर बीजेपी अधूरी है। बीजेपी के इसी अधूरेपन का लाभ मोदी को मिला और अपनी बनायी राजनीतिक जमीन पर ही मोदी ने सारे प्रयोग किये । इसलिये मोदी का कोई प्रयोग गुजरात की सीमा के बाहर नहीं निकला। <br /><br />राष्ट्रीय राजनीति में मोदी का प्रयोग उस एनडीए के भीतर भी स्वीकार नहीं हुआ, जिसकी अगुवाई बीजेपी कर रही है। यानी मोदी सफल और चपल नेता अगर दिखे तो गुजरात के भीतर ही। मोदी के इसी मोदीत्व ने कांग्रेस के लिये ऑक्सीजन की तरह काम किया। मोदी का ऑक्सीजन सिलेन्डर कांग्रेस को 28 फरवरी 2002 को मिला। इससे पहले के दस साल में कांग्रेस के लिये लालकृष्ण आडवाणी का राम मंदिर प्रेम ऑक्सीजन की तरह काम कर रहा था। 1992 से 2002 तक बाबरी मस्जिद-अयोध्या की राजनीति ने कांग्रेस-बीजेपी के जरिए समाज के भीतर जो लकीर खींची. उसमें सत्ता किसी को भी मिली लेकिन नुकसान दोश को ही उठाना पड़ा। मगर 2002 को गुजरात में जो हुआ उस लकीर को गुजरात से उठाकर देश के भीतर खींचने का राजनीतिक प्रयास चौतरफा हुआ। <br /><br />दंगो का सकारात्मक-नकारात्मक लाभ राजनीति ने जी भर के उठाया लेकिन नायक -खलनायक की तस्वीर नरेन्द्र मोदी के ही साथ जुड़ी। कह सकते हैं मोदी चाहते भी यही होंगे । लेकिन जिस तरह आडवाणी ने जिन्ना प्रकरण के जरिए संघ परिवार को झटका देकर खुद को उस राष्ट्रीय राजनीति में मान्य कराने की पहल शुरु की, वो वाजपेयी की जगह भरने की जद्दोजहद थी, जो वाजपेयी के दौर में आडवाणी को असल चेहरा माने हुये थी। ऐसे में सवाल उठा कि क्या सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी मोदी को गुजरात की सीमा से बाहर स्थापित होने का जरीया तो नहीं बनेगा। देश की कमान संभालने के लिये जो राष्ट्रीय राजनीति देश में चल निकली है, उसमें कांग्रेस को बीजेपी के भीतर कट्टर हिन्दुत्व का एक ऐसा चेहरा चाहिये ही, जिसके मुंह में खून लगा हुआ हो। वहीं बीजेपी को अपने भीतर ऐसा कोई नेता चाहिये ही, जो संगठन को जयश्रीराम के नारे तले जोड़े लेकिन गठबंधन के सामने उसका चेहरा श्रीमान वाला ही हो। <br /><br />जिस वक्त लोहिया गैर कांग्रेसवाद का नारा लगा रहे थे, उस वक्त जनसंघ में दीनदयाल उपाध्याय ऐसा ही चेहरा थे। इसलिये 1963 के उपचुनाव में लोहिया ने जनसंघ के दीनदयाल जी को जौनपुर से लड़वाया । उस दौर में बलराज मधोक कट्टर चेहरा थे। लेकिन जब मधोक सॉफ्ट हुये तो उस समय वाजपेयी का चेहरा कट्टर हो चुका था । लेकिन जेपी के दौर में वाजपेयी ने राष्ट्रीय राजनीति की लकीर को पकड़ा और सॉफ्ट होते गये तो आडवाणी कट्टर चेहरे के तौर पर उभरे। लेकिन वाजपेयी काल खत्म होते ही आडवाणी को मोदी सरीखा चेहरा मिल गया तो श्रीमान का मुखौटा खुद-ब-खुद आडवाणी के चेहरे पर लग गया। <br /><br />लेकिन गुजरात दंगों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने एक साथ कई अंतर्विरोध को उभार दिया है। मोदी का सबसे बडा संकट यही रहा है कि गुजरात के विकास मॉडल से लेकर आंतकवाद के खिलाफ उनकी आवाज में दंगों की गूंज कुछ इस तरह समायी रही कि गुजरात में वह तानाशाह लगे तो गुजरात से बाहर अलोकतांत्रिक नेता। यानी हर प्रयोग के पीछे दंगों के दर्द पर सत्ता का आंतक ही उभरा। जिस लोकतांत्रिक मूल्यों की बात संसदीय राजनीति करती है, उसमें मोदीत्व ने कील ठोंक कर एहसास कराया कि मूल्यो को पालने का मतलब अपना राजनीतिक जनाजा उठाना है। लेकिन अब गुजरात में दंगों की सुनवायी फास्ट ट्रैक अदालतों में शुरु होते ही अगर यह राजनीतिक संकेत मिलने लगें कि मुक्तभोगियों को न्याय मिल रहा है। तो क्या नरेन्द्र मोदी का चेहरा बदलने लगेगा। पांच करोड़ गुजरातियों में अल्पसंख्यकों के लिये भी न्याय मौजूद है, अगर संवाद दिल्ली तक होता है तो कांग्रेस को ऑक्सीजन कहां से मिलेगा। कांग्रेस के लिये मोदी सरीखा ऑक्सीजन कितना जरुरी है, यह गुलबर्गा सोसायटी में कांग्रेसी सांसद एहसान जाफरी समेत 70 लोगो के मामले तले देखा जा सकता है। जिस पर पुलिस ने कभी मुकदमा दर्ज नहीं किया और कांग्रेस ने कभी मुकदमा दर्ज कराने की पहल नहीं की। <br /><br />सोनिया गांधी इस दौर में तीन बार अहमदाबाद के इस इलाके में गयीं, लेकिन कांग्रेसी सांसद एहसान जाफरी की विधवा जाकिया जाफरी से उसके घर पर जाकर मिलने की जरुरत नहीं समझी। कांग्रेस का सॉफ्ट हिन्दुत्व इससे डगमगा सकता था। इसे कांग्रेस के सलाहकारो ने समझा। लेकिन एसआईटी की रिपोर्ट ने ही जब गुजरात में न्याय न मिल पाने के तर्क को खारिज किया तो सवाल फिर उसी राजनीतिक ऑक्सीजन का उठा, जो मोदी के जरिए कांग्रेस को मिलता। ऐसे में सिटिजन फॉर जस्टिस ऐंड पीस ने जाकिया जाफरी के जरीये गुलबर्गा सोसायटी की याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की, जिससे मोदी एक बार फिर संदेह के घेरे में आ गये। यानी गुलबर्गा को लेकर संदेह और गुजरात में न्याय मिलने को लेकर लाभ की गोधारी लकीर मोदी को लेकर चार दिनो के बीतर उभर गयी। असल में राजनीति का यही अंतर्विरोध कांग्रेस को भी चाहिये और बीजेपी को भी । क्योकि मोदी की पहल दंगों के बाद गुजरात में जो रही, उसमें कांग्रेस-बीजेपी दोनो ने निर्णय कभी नहीं दिया। दोनों ने मोदीत्व का खेल ही खेला। <br /><br />सवाल है कि जिस तर्ज पर सैकडों मंदिरो को अपने काल में ही गिरा कर सड़क चौड़ी और शहर खूबसूरत बनाने की प्रक्रिया मोदी ने शुरु की, क्या उसी अंदाज में दंगाइयों को सजा दिलाने की दिशा में मोदी बढ़ पाएंगे । जब सडक़ों के किनारे के मंदिर गिराये जा रहे थे तो विश्व हिन्दु परिषद समेत तमाम हिन्दुवादी संगठनो में खासा आक्रोष था। इसकी शिकायत आरएसएस से भी हुई । मोदी को इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा। लेकिन उस दौर में संघ के भीतर भी खटपट कहीं ज्यादा थी और मोदी का कद गुजरात में बीजेपी से कही बड़ा हो चुका था, इसलिये उन्हे कोई छू न सका लेकिन उस दौर में कांग्रेस खामोश रही। मोदी की वजह से बीजेपी छोड़ कांग्रेस में आये शंकर सिंह बधेला भी चौंके थे कि मंदिर कैसे गिर रहे हैं। उन्हें कहना पड़ा कि मोदी बिल्डरों और कोरपोरेट की सुविधा-असुविधा देख रहे हैं। <br /><br />सवाल है क्या दंगो पर न्याय की तलवार अगर मोदी चलवाने में मदद करते है तो कांग्रेस फिर खामोश रहेगी या वह कट्टर हिन्दुत्व को उकसायेगी । जिससे उसे राजनीतिक ऑक्सीजन मिलती रहे । मोदी यह कर नहीं सकते है, इसे कोई भी कांग्रेसी खुल कर कह सकता है। लेकिन मोदी की खुद पर की गयी पहल पर गौर करे तो कई सवालो के जबाब खुद-ब-खुद मिलेंगे। मसलन 2001 में पहली बार मुख्यमंत्री की शपद लेने के बाद अपने कंधो का सहारा देकर मोदी केशुभाई पटेल को लेकर मंच पर पहुंचे थे। आज केशुभाई का नाम लेना भी मोदी के सामने किसी भी बीजेपी नेता को खुद को मुशकिल में डालने वाला साबित होगा। दंगों के बाद जिन अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें राजधर्म का पाठ पढ़ने का वक्तव्य दिया, वही वाजपेयी 2002 में चुनाव में जीत के बाद मोदी के साथ मंच पर खडे होकर मोदी की पीठ थपथपा रहे थे । साथ में आडवाणी भी मंच पर मंद मंद मुस्कुरा रहे थे। वही मोदी जब 2007 में तीसरी बार चुनाव जीत कर मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे थे तो मंच पर सिर्फ वही थे। निरे अकेले । बाद में आडवाणी-राजनाथ के साथ स्टेडियम का चक्कर जरुर गाड़ी पर सवार होकर लगाया। यानी मोदी इस हकीकत को असलियत का जामा पहनाते गये कि कद तभी बढ़ सकता है, जब कदवालो को दरकिनार कर अपनी जमीन पर अपना कद मापने की व्यवस्था हो। इसलिये राजनीतिक तौर पर जो प्रयोग केन्द्र में होने थे, मोदी ने उसे गुजरात में किया। <br /><br />हर उस मुद्दे को गुजरात की जमीन पर आजमाया, जो देश के सामने बड़ा होता जा रहा । मनमोहन की न्यू-इकनॉमी में वाइब्रेंट गुजरात । वामपंथियो की जनवादी कार नैनो का अपहरण । आंतकवाद के दर्द का खांटी इलाज । बिहारी और मराठी मानुस में क्षेत्रिय राजनीतिक दलों के सन आफ सॉयल की लड़ाई के बीच गुजराती अस्मिता का वैभव। यानी मोदी ने राजनीतिक काट हर तबके को दी, लेकिन सीमा गुजरात में ही बांधी रही। लेकिन इस बार सवाल कही बड़ा है । नरेन्द्र मोदी का नाम कारपोरेट जगत से लेकर उनकी अपनी पार्टी के भीतर से पीएम बनने की काबिलियत रखने वाले नेता के तौर पर उठा है। वह भी उस दौर में जब आडवाणी पीएम बनने को बेताब खड़े हैं। कांग्रेस पूंजी का नशा पैदा कर मध्यम वर्ग को डरा रही है कि मनमोहन के पीएम न बनने का मतलब है, मंदी के गर्त में डूबते चले जाना। और कम से कम आधे दर्जन दूसरे नेताओ को लगने लगा है कि राजनीतिक सौदेबाजी में चुनाव परिणाम उन्हे पीएम की कुर्सी तक पहुंचा सकते हैं। <br /><br />ऐसे में नरेन्द्र मोदी को लेकर अगर सुप्रीम कोर्ट का फैसला बीजेपी के चश्मे से ही देखा जाये कि मोदी की प्रशासनिक काबिलियत में सुप्रीम कोर्ट का भरोसा जगा है, इसलिये दंगो पर न्याय करवाने का जिम्मा सौपा गया । तो सवाल उस मोदी का ही उठेगा, जिसने भरोसा डिगाकर मोदीत्व पैदा किया और कांग्रेस के लिये ऑक्सीजन का काम किया। अगर मोदी ऑक्सीजन नहीं है और बीजेपी के चश्मे के पीछे की आंख नहीं है, तो फिर मोदी की जरुरत बीजेपी या कांग्रेस को कितनी होगी। और जो चमक अभी मोदी की आंखो में दिखायी दे रही है, वह कब तक कायम रह पायेगी । <br /><br />बड़ा सवाल यही है कि इस सवाल का जबाब बीजेपी और कांग्रेस को एक सरीखा चाहिये जो पहली बार मोदीत्व तले नहीं मिल रहा । इसलिये नयी लडाई बीजेपी को कांग्रेस से भी लड़नी है और आरएसएस से भी । यह नयी लड़ाई क्या गुल खिलायेगी....कुछ इंतजार करना होगा ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com10