tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger56125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-54607228421452984282013-08-05T16:18:00.000+05:302013-08-05T16:18:19.933+05:30राहुल गांधी ! राजनीतिक मंत्र क्या है पार्टनर?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
देखने में खूबसूरत है। अंग्रेजी भी अच्छी बोल लेते हैं। हर जिम्मेदारी से भागते भी हैं। देश को सुधारने की बात भी लगातार करते हैं। और नारा पार्टी, पार्टी पार्टी का लगाते रहते हैं। जी , यह राहुल गांधी हैं। नेहरु-गांधी परिवार की चौथी पीढ़ी। जिसकी राजनीति कांग्रेस में सुधार चाहती है। यानी तीन पीढ़ियों से इतर जो देश चलाने में सुधार की बात करती रही लेकिन राहुल तक आते आते बात कांग्रेस में सुधार की हो रही है। तो क्या यह मान लिया जाये कि राहुल गांधी 2014 की दौड़ में है ही नहीं। या फिर यह माना जाये कि अगर कांग्रेस राहुल की सोच के मुताबिक सुधर जाये तो कांग्रेस ही इंडिया हो जायेगी जैसे एक वक्त दिया इंदिरा इज इंडिया था। इसका जवाब हां भी है और नहीं भी। हां इसलिये क्योंकि बिना जिम्मेदारी राहुल गांधी मान चुके हैं कि कांग्रेस का मतलब ही इंडिया है और कांग्रेस में गांधी परिवार हमेशा से सत्ताधारी रहा है। और नहीं इसलिये क्योंकि राहुल कोई जिम्मेदारी लेने के लिये आगे आते नहीं है। ध्यान दें तो मौजूदा परिस्थितियां इन्हीं हालातों के बीच एक ऐसी लकीर खींच रही है, जहां राहुल को सत्ता में लाने के लिये कांग्रेस को पूर्ण बहुमत चाहिये। और पूर्म बहुमत मिल नहीं सकता है तो संघर्ष करते हुये 2014 में पिछड़ती कांग्रेस में लगातार सुधार की आवाज राहुल उठाते रहेंगे। चौथी पीढ़ी के राहुल गांधी में यह सोच क्यों आयी है या कहे बिना जिम्मेदारी की राजनीति की समझ को ही श्रेष्ठ गांधी परिवार ने क्यों माना। इसके लिये मौजूदा दौर की संसदीय राजनीतिक व्यवस्था को भी ठोक-बजा कर देखने की जरुरत है। राजीव गांधी की हत्या और सोनिया गांधी के कांग्रेस के मुखिया के तौर पर संभालने के बीच सात बरस तक गांधी परिवार कांग्रेस से दूर भी थी और सात में से पांच बरस काग्रेस सत्ता में भी थी। अप्रैल 1998 में सोनिया गांधी ने जब कांग्रेस को संभाला उस वक्त तक कांग्रेस ही नहीं देश भी मान चुका था अब किसी राजनीतिक पार्टी के लिये "एकला चलो" की सोच दूर की गोटी हो चली है। ध्यान दें तो इसी सोच को मनमोहन सिंह ने बीते 9 बरस में और पुख्ता ही किया है। और इसी नौ बरस में राहुल गांधी अमेठी से बतौर सांसद मुख्यधारा की राजनीति से जुड़े भी । राहुल गांधी की राजनीति और मनमोहन सिंह सरकार के कामकाज ने कई बार दिखायी बताया कि दोनों के रास्ते बिलकुल जुदा हैं। लेकिन हर बार राहुल की तुलना में मनमोहन सरकार सोनिया गांधी की ज्यादा जरुरत बने क्योंकि राहुल बिना जिम्मेदारी के खुद के लिये वैसे ही संघर्ष करते नजर आये जैसे वर्तमान में कोई कांग्रेसी सिर्फ और सिर्फ खुद की जीत के लिये संघर्ष करते हुये नजर आ रहा है। यानी कांग्रेसी सांसद को कांग्रेस के चुनाव चिन्ह से ज्यादा सरोकार नहीं है और गांधी परिवार की राजनीति भी किसी कांग्रेसी को चुनाव चिन्ह से ज्यादा देने की स्थिति में है भी नहीं। तो हर कांग्रेसी का महत्व यही है कि वह अपने क्षेत्र में चुनाव जीत जाये तो हर कांग्रेसी के लिये खुद की जीत को पुख्ता बनाने के लिये हर तरह की जोड़-तोड़ को अंजाम देना ही महत्वपूर्ण हो चला है। यहां ना तो राहुल गांधी के इमानदारी भरे भाषण मायने रखते हैं और ना ही कांग्रेस की परंपरा। हर कांग्रेसी सांसद के पास आज की तारीख में इतनी पूंजी है कि वह कई पुश्तो की सियासत कर सकता है। तो ऐसे में कांग्रेसी समझ से ज्यादा खुद को बनाये रखने की सियासत कांग्रेसियो की ज्यादा है। यह समझ गांधी परिवार के जादू खत्म होने का भी संकेत है और मौजूदा चुनावी राजनीति में जमी काई के पत्थर हो जाने का भी संकेत है।<br /><br />तो क्या राहुल गांधी का भविष्य वर्तमान संसदीय राजनीति पर उठते सवालो से कटघरे में खड़ा है या फिर राहुल गांधी खुद को गांधी परिवार की उस राजनीति में ढाल नहीं पाये जिसकी लीक मोतीलाल नेहरु ने खींची और जवाहर लाल से लेकर इंदिरा गांधी और राजीव गांधी तक उसपर चले। 1991 से 1998 तक सोनिया गांधी ने इस लीक को नहीं समझा तो 2004 से 2013 तक राहुल गांधी भी इस लीक को समझ नहीं पा रहे है कि आखिर क्यों। यह सवाल राहुल गांधी के लिये इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि बीते 22 बरस से गांधी परिवार ने देश में कोई सीधी जिम्मेदारी ली नहीं है और जिन्होने काग्रेस हो कर जिम्मेदारी संभाली उन्होंने गांधी परिवार के सत्ता संभालने के तौर तरीको को ही मटियामेट कर दिया। उसमें खासतौर से मनमोहन सिंह- चिदबरंम की जोड़ी। आर्थिक सुधार की जो लकीर मनमोहन सिंह ने 1991 में बतौर वित्त मंत्री बनकर शुरु की, अगर अब के दौर में उसे बारिकी से देखें तो 2004 में चिदंबरम ने उन्हीं नीतियों के कैनवास को मनमोहन सिंह की अगुवाई में और व्यापक किया। देश में खनन और टेलीकॉम को निजी कंपनियों के जरीये खुले बाजार में ले जाने का पहला खेल बीस बरस पहले नरसिंह राव की सरकार के दौर में ही शुरु हुआ। उस वक्त मनमोहन सिंह अगर वित्त मंत्री थे तो चिदंबरम वाणिज्य राज्य मंत्री के तौर पर स्वतंत्र प्रभार देख रहे थे। उस दौर में आईएमएफ और विश्व बैंक की नीतियों तले भारतीय आर्थिक नीतियां जिस तेजी से करवट ले रही थीं और सबकुछ खुले बाजार के हवाले प्रतिस्पर्धा के नाम पर किया जा रहा था, उसमें पहली बार सवाल सिक्यूरटी स्कैम के दौरान खड़ा हुआ और पहली कुर्सी चिदंबरम की ही गई थी। उन पर फेयरग्रोथ कंपनी के पीछे खड़े होकर शेयर बाजार को प्रभावित करने का आरोप लगा था। लेकिन खास बात यह भी है कि उस वक्त मनमोहन सिंह ने बतौर वित्त मंत्री चिदंबरम की वकालत की थी। और जुलाई 1992 में गई कुर्सी पर दोबारा फरवरी 1993 में चिदंबरम को बैठा भी दिया था। अगर अब के दौर में चिदंबरम पर लगते आरोपों तले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पहल देखें तो अठारह बरस पुराने दौर की झलक दिखायी दे सकती है। क्योंकि वित्त मंत्री रहते हुये चिदंबरम ने जिन जिन क्षेत्रों को निजी कंपनियों के लिये और मनमोहन सिंह ने खुली वकालत की, उसकी झलक शेयर बाजार से लेकर खनन के क्षेत्र में निजी कंपनियों की आई बाढ़ समेत टेलिकॉम और बैकिंग प्रणाली को कारपोरेट घरानों के अनुकूल करने की परिस्थितियों से भी समझा जा सकता है। चिदबरंम ने आर्थिक विकास की लकीर खिंचते वक्त हमेशा सरकार को बिचौलिये की भूमिका में रखा। मुनाफे का मंत्र विकसित अर्थव्यवस्था का पैमाना माना। कॉरपोरेट और निजी कंपनियो के हाथों में देश के इन्फ्रास्ट्रक्चर तक को बंधक बनवाया। यानी नब्बे के दशक तक जो सोच राष्ट्रीय हित तले कल्याणकारी राज्य की बात कहती थी, उसे बीते बीस बरस में मनमोहन-चिदंबरम की जोड़ी ने निजी कंपनियो के मुनाफे तले राष्ट्रीय हित का सवाल जोड़ दिया। और इसी सोच के उलट राहुल गांधी पहल करते हुये दिखना चाहते हैं।<br /><br />असल में कॉरपोरेट घरानों या निजी कंपनियों के आसरे आर्थिक विकास का जो खेल इन बीस बरस में लगातार चला अगर उसकी नींव को देखे तो सबसे बड़ा सवाल उस पूंजी की आवाजाही का है, जो बेरोक-टोक हवाला और मनी-लैडरिंग के जरीये देश में आती रही। और इसने चुनावी तंत्र को ही सीधे प्रभावित कर दिया है। और संसदीय राजनीति ही इस कारपोरेट पूंजी के आगे नतमस्तक हो चुकी है। असर इसी का है कि राज्यसभा ही नहीं लोकसभा में जनता के वोट से चुनाव जीतने का तंत्र भी कारपोरेट पूंजी पर जा टिका है। और कांग्रेस के तमाम महारथी इसी कारपोरेट पूंजी को आधार बनाये हुये हैं। जबकि दूसरी तरफ कारपोरेट के साथ राजनेताओ के सरोकार ने आम लोगो के बीच संसदीय राजनीति से ही मोह भंग की स्थिति पैदा कर दी है। और गांधी परिवार की चौथी पीढी पर सवालिया निशान इसलिये ज्यादा गहरा है क्योकि संसदीय राजनीति से इतर देश पहली बार स्टेटसमैन की खोज में राष्ट्रीय नेता देखना चाहता है और राहुल गांधी संसदीय राजनीति के तंत्र में खुद को कांग्रेस का नेता बनाये रखना चाहते हैं।<br /><br />तो राहुल गांधी या काग्रेस का राजनीतिक सच दो स्तर पर है। पहला राहुल गांधी की राजनीतिक चालें और उन्हे घेरे नेताओ की जरुरतें। दूसरा, गैर कांग्रेसी राज्यों में काग्रेस का घटता कद। राहुल की राजनीति चाल काग्रेस के दाग को उभारती है। राहुल को घेरे नेता तिकड़मी और दागदार छवि वाले ज्यादा है। फिर कांग्रेस अभी भी किसी कांग्रेसी को कांग्रेस का चेहरा बनने नहीं देती। जबकि इसी दौर में चुनावी राजनीति, राजनीतिक दलो की साख से खिसक कर नेताओं की साख पर जा टिकी है। और कांग्रेस में सत्ता से लेकर सड़क की राजनीति करने में किसी की साख है तो गांधी परिवार की ही है, जो जिम्मेदारी से मुक्त है तो फिर राहुल के राजनीतिक उवाच का मतलब क्या है। राहुल की मौजूदा परिस्थिति को देखते ही हर किसी के जहन में तुरंत सवाल उभरता है कि क्या कांग्रेस में सत्ता भी गांधी परिवार को संभालनी है और सड़क पर संघर्ष भी गांधी परिवार को करना है। क्योंकि कांग्रेस के लिये संघर्ष करने वाले नेता है कहां। और क्या 1989 में राजीव गांधी के सत्ता गंवाने के बाद गांधी परिवार का भविष्य यही है कि वह कांग्रेस के लिये संघर्ष करें और सत्ता बिना आधार वाले नेता संभाले। दरअसल जो सवाल कांग्रेस के सामने है या कहें मनमोहन सरकार के सामने है अगर दोनो में तारतम्य देखा जाये तो मनमोहन सिंह हो या काग्रेस संगठन दोनों इस दौर में मुश्किल में हैं और दोनों का संभालने की जिम्मेदारी गांधी परिवार की है। लेकिन सरकार गांधी परिवार के हाथ में सीधे नहीं है और संगठन बनाने में राहुल गांधी के युवा भत्ती अभियान छोड दें तो संगठन को व्यापक बनाने के लिये कुछ हो भी नहीं रहा है।<br /><br />यहीं से अब के दौर की वह राजनीतिक परिस्थितियां खड़ी होती है जो किसी भी कांग्रेसी को परेशान करेंगी कि आने वाले दौर में कांग्रेस का हाथ कितना खाली हो जायेगा। उत्तर प्रदेश से लेकर आध्र प्रदेश और बंगाल ,बिहार से लेकर तमिलनाडु तक की गद्दी संभालने वाला कोई कांग्रेसी निकलेगा नहीं , जिसकी कनेक्टिविटी आम वोटर से कांग्रेस के नाम पर हो। यानी वोटरों से जुड़ाव के लिये जाति, धर्म , जरुरत या मजबूरी , जो भी होनी चाहिये वह कांग्रेस के पास नहीं है। और कांग्रेस गांधी परिवार के जरीये इन मुद्दों से इतर जो लोभ इन पांच राज्यो में दूसरे दल जनता को देती है वह केन्द्र की सत्ता से मिलने वाली सुविधा की पोटली या पैकेज है। यानी सौदेबाजी का लोभ भी कांग्रेस का हथियार बन जायेगा और इसे लागू कराने में गांधी परिवार से लेकर सरकार तक भिड़ जायेगी, यह किसने सोचा होगा।<br /><br />इसलिये राहुल के सामने दोहरी चुनौती है । एक तरफ यूपी, बिहार, बंगाल, तमिलनाडु की दौ सौ लोकसभा सीट पर कांग्रेस है कहां, यह राहुल गांधी तक को नहीं पता और इसी दौर में किसानों को केन्द्र का मुआवजा देने या बुदेलखंड या पूर्वोत्तर के लिय पैकेज के एलान से लेकर कैश ट्रांसभर या फूड सिक्यूरटी के ऐलान से ग्रामीण क्षेत्र की 196 सीटों पर काग्रेस को क्या लाभ होने वाला है, इसकी भी कोई राजनीतिक कवायद राहुल गांधी ने की नहीं है। तो फिर कांग्रेस किस भरोसे 2014 में जा रही है। भरोसा ठीक वैसा ही है जैसे गांधी परिवार की महत्ता को बता कर मनमोहन सिंह खुद को टिकाये रहे है। लेकिन राहुल गांधी यह कभी समझ नहीं पाये कि सरकार उनकी। सरकार का रिमोट उनके हाथ में। बावजूद इसके कांग्रेसियों को ही गांधी परिवार पर भरोसा नहीं कि उनकी चुनावी जीत में कोई भूमिका राहुल गांधी की हो सकती है। और राहुल गांधी में वह औरा नहीं बच रहा जहां कांग्रेस तो दूर कोई कांग्रेसी नेता भी इस दौर में खडा हो सके और बिहार, यूपी, छत्तिसगढ, मध्य प्रदेश,उडिसा , गुजरात,तमिलनाडु, आध्र प्रदेश में अपने बूते कांग्रेस का कद बढाने की हैसियत रखता हो।<br /> <br />तो क्या राहुल गांधी के अलावे कांग्रेस का ना कोई चेहरा है ना ही संगठन। यह सच इसलिये क्योकि काग्रेस शासित राज्यो में कौन सा मुख्यमंत्री अपना चेहरा लिये यह यकीन से कह सकता है कि उसके भरोसे कांग्रेस अगली बार भी जीत सकती है। या संगठन इतना मजबूत है कि गांधी परिवार फ्रक्र करें कि सोनिया-राहुल की सभाओं भर से सत्ता काग्रेस के हाथ में आ सकती है। सिर्फ असम में तरुण गगोई ही ऐसे हैं, जो अपने काम के भरोसे अपना अलग चेहरा बना पाये हैं। और उनकी कोई पूछ नहीं है । असल में काग्रेस के भीतर की इस कश्मकश को भी समझना जरुरी है कि गांधी परिवार को कांग्रेस का सर्वेसर्वा मान कर केन्द्र में रखने के बदले अब जिले से लेकर दिल्ली तक और भ्र्रष्टाचार के मुद्दे से लेकर भूख मिटाने की जरुरत के लिये लाने वाले खादान्न बिल के अक्स में भी गांधी परिवार को ही क्यों जोड़ा जा रहा है। लोकपाल विधेयक हो या भूमि अधिग्रहण या फिर खाधान्न विधेयक को लेकर राहुल गांधी इतने उत्साहित क्यो हो जाते है । जबकि यह हर कोई जानता है कि सत्ता में बने रहने के लिये लायी जाने वाली नीतिया हमेशा राजनीतिक लूट में तब्दिल होती है और कार्यकर्त्ता यह मानकर चलता है कि उसे लूट का लांसेंस मिलेगा । दरअसल जन-नीतियों को लेकर बाजार अर्थवयवस्था का यह टकराव ऐसे दौर में खुल कर नजर आ रहा है, जब जनता के मुद्दों को राहुल गांधी संभाले हुये हैं और बाजार अर्थव्यवस्था को मनमोहन सिंह। और दोनों ही कांग्रेसी हैं। फिर राहुल गांधी के मिशन 2014 की टीम में मनमोहन सिंह कही नहीं है और मई 2014 तक सत्ता संभाले मनमोहन सिंह की राजनीतिक थ्योरी में राहुल गांधी कहीं नहीं है । तो अब सोचिये संसदीय चुनावी राजनीति के मिशन 2014 के लिये राहुल गांधी गुड लुकिंग है । राहुल गांधी अग्रेजी दा है । राहुल गांधी पार्टी पार्टी पार्टी करने वाले नेता है। तो राहुल गांधी का भविष्य पढ़ने वाले तय करें । क्योंकि 2014 के लिये राहुल गांधी के सामने नरेन्द्र मोदी खड़े हैं। और राहुल के लिये यही राजनीतिक ऑक्सीजन है ।</div>
Indiblogshttp://www.blogger.com/profile/09707909884476756113noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-69374999923750691892010-06-14T10:23:00.002+05:302010-06-14T10:24:33.731+05:30महाभारत की "राजनीति" में नये भारत की खोज<p class="MsoNormal"><span class="Apple-style-span" style="font-family: Mangal, serif; ">आतंक पैदा कर पूछने का अधिकार मीडिया को भी नहीं है। यह फिल्मी डायलॉग है। बिहार के चुनावी जंग में हाथ आजमा चुके प्रकाश झा की इस नयी "राजनीति" ने सियायत और मीडिया को लेकर कई सवाल खड़े किये हैं। सियासत अगर चरम पर पहुंच जाये तो हर रिश्ता सौदेबाजी में बदल जाता है और मीडिया के सरोकार अगर खत्म हो जाये तो वह आतंक का पर्याय बन जाता है। यह दौर चरम का है या उसके चरम का एहसास है। बहुत बारीकी से सामाजिक व्यवस्था के इस ताने-बाने को राजनीति ने पकड़ने की कोशिश की है। भूख-रोजगार या आम आदमी की त्रासदी भी राजनीति के लिये मायने नहीं रखती लेकिन सियायत की आंधी में आम आदमी का पेट भी राजनीति को ही ताकने लगे, यह एहसास महाभारत को देखते या पढ़ते वक्त चाहे ना जागे, लेकिन महाभारत के चरित्रों को आधुनिक दौर में सिल्वर स्क्रीन पर राजनीति में जरुर महसूस किया जा सकता है। </span></p><p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI"><br />आदर्श राजनीति का जो भभका नसीरुद्दीन शाह के जरीये पांच मिनट में चमक दिखाकर ओझल हो जाता है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">वह झटके में नक्सलवाद से उठ रहे मुद्दों की आंच में दिखायी भी देते है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">साथ ही शहर और जंगल का फर्क भी समझा देते हैं। संसदीय राजनीति एक दौर के बाद सत्ता चाहती है या फिर संन्यास । अच्छा है जो संन्यास की समझ अतिवाम ने नहीं पाली है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">क्योंकि "राजनीति" में नसीरुद्दीन के सवाल जिस तरह हाशिये पर चले जाते हैं</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">कमोवेश वही आलम मेधा पाटकर से लेकर अरुंघति राय या फिर देश भर में चल रहे आंदोलनों का है। सियासत के लिये जमीनी मुद्दे मायने नहीं रखते और सत्ता को सौदे से ज्यादा कुछ दरकार होती नहीं। राजनीति इस मर्म को न सिर्फ समझती है बल्कि जीती है। तत्काल के दौर में देश के मंत्री ही अगर कारपोरेट सेक्टर और लॉबियों को मुनाफा पहुंचाने में लगे हैं तो उसका चरम क्या हो सकता है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">राजनीति ने इसे ही पकड़ने की कोशिश की है।<br /><br />शुगर और चावल लॉबी को जनता की कीमत पर मुनाफा पहुंचवाना या फिर बिचौलियों के जरिये सरकार को ही चूना लगाकर कारपोरेट सेक्टर को लाभ पहुंचाना अगर तत्काल की सियासत है तो फिर भविष्य में कारपोरेट लॉबी से रिश्तों की गांठ परिवार से होते हुये देश की सत्ता को हथियाने या चलाने में भी होगी। महाभारत के चरित्र हर काल खंड में फिट हो सकते हैं लेकिन चरित्रों का चरित्र भी आधुनिक राजनीति के चरम के साथ बदलता चला जायेगा</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">यह हो तो रहा है</span>,<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">लेकिन यह कितना खतरनाक हो सकता है, इसे ही राजनीति महसूस कराती है। महाभारत के दुर्योधन और कर्ण के चरित्र आधुनिक दौर में युधिष्ठिर और अर्जुन से बेहतर और धर्म-परायण लगने लगते हैं। सियासत की हिंसा को धर्म का जामा चाहे महाभारत में कृष्ण ने पहनाया लेकिन आधुनिक राजनीति का चरम हिंसा के जरीये राजनीतिक जीत को ही असल सियासत मानती है। जिसमें कर्म का मतलब ही पहले गोली दागना है।<br /><br />लेकिन सत्ता बगैर वोट बैक के चलती नहीं और महाभारत समाजिक ढांचे को धर्म-अधर्म में बांटे बगैर हक का सवाल खड़ा करता नहीं है। तो फिर राजनीति का चरम होगा क्या। दलित-आदिवासी-किसान समाज के भीतर से कोई सौदेबाजी के लिये निकल तो सकता है और राजनीति की चूलें भी हिला सकता है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">लेकिन आखिर में यह तबके रहेंगे वोट बैंक ही। और अगुवाई करने वाला दलित-आदिवासी-किसान कुछ भी हो उसका ट्रांसफारमेशन उसी सियासत के अनुकूल होगा, जिसके खिलाफ उसके संघर्ष की शुरुआत होती है। यह संसद के हालात देखकर भी समझा जा सकता है, जहां दर्जन भर आदिवासी नेता हैं। साठ से ज्यादा दलित और अस्सी के करीब किसानी से निकले नेता हैं। लेकिन संसद विकास का नाम लेकर माओवाद के खिलाफ सबसे बडी लड़ाई आदिवासी इलाकों को लेकर लड़ रही है। जबकि हकीकत यही है कि देश के करीब </span>65 <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin; mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language: HI">फीसदी आदिवासी भूमिहीन हैं। और देश के साठ फीसदी जंगल में करीब </span>80 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">फीसदी आदिवासी रहते हैं, जो देश के </span>187 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">जिलों में फैला पड़ा है।<br /><br />लेकिन माओवाद महज </span>30 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">जिलों में है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">मगर बाकी डेढ़ सौ जिलों में दो जून की रोटी भी बीते साठ सालों की संसदीय राजनीति नहीं पहुंचा सकी है। वहीं देश के सत्तावन फीसदी दलित भूमिहीन हैं। </span>65 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">फीसदी के पास रोजगार नाम की कोई चीज नहीं है। </span>85 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">फिसदी दलित दिहाड़ी मजदूरी पर जीता है । और किसानो की हालत इस देश में क्या हो चुकी है यह किसी से छुपा नहीं है। बीते पांच साल में एक लाख से ज्यादा किसान खुदकुशी कर चुके हैं।<br /><br />महाभारत में इस भूमिका को कर्ण जीता है तो राजनीति में दलित समाज से निकला अजय देवगन । महाभारत में कर्ण को आश्रय दुर्योधन देता है तो राजनीति में परिवारवाद में सत्ता को हक मानने वाला मनोज वाजपेयी। महाभारत में सत्ता के लिये द्रौपदी को भी दांव पर लगाने वाला युदिष्ठिर धर्म का राग जपता है तो राजनीति में अपराध और बलात्कार करने के बावजूद अर्जुन रामफल सत्ता का हकदार खुद को ही बताता है। महाभारत में अर्जुन का पराक्रम पांडवो को सत्ता दिलाता है तो राजनीति में अमेरिकी शिक्षा और तकनालाजी का ज्ञान रणबीर कपूर को पराक्रमी बनाता है, जिसके जरीये सत्ता के संघर्ष के हर नियम-कायदे बदल जाते हैं। वहीं महाभारत में कृष्ण धर्म के लिये गैर-अपनों का भेद खत्म करते हैं तो राजनीति में नाना पाटकर निहत्थों की हत्या का पाठ सत्ता के लिये पढ़ाते हैं। लेकिन महाभारत के अंत में युद्दभूमि पर गिरे योद्दाओं के जमघट के अलावे कुछ बचता है तो वह हत्याओं से सराबोर धर्म और उसकी छांव में करहाते पांडव। लेकिन राजनीति के अंत में सिवाय सत्ता के कुछ नहीं बचता। और सत्ता की प्रतीक द्रौपदी यानी कैटरिना कैफ और उसके पेट में सत्ताधारियो का अंश। और पराक्रमी अर्जुन यानी रणबीर कपूर राजनीति के चरम को बखूबी समझता है इसलिये सत्ता से बडी सत्ता अमेरिका ही उसकी रगो में दौड़ती है। तो फिर आधुनिक दौर के चैक एंड बैलेंस करने वाले संस्थान कहां गुम हो गये या फिर राजनीति का चरम क्या सत्ता में ही सबको समाहित कर लेगा।<br /><br />यहां सवाल चौथे खम्भे का है, जिसे राजनीति आतंक मानती है और संस्थान सवाल खड़े करते हैं कि मीडिया किसी से भी सवाल पूछ सकती है तो मीडिया से कौन सवाल पूछेगा। और मीडिया खुद से सवाल पूछवाने से बचने के लिये उसी राजनीति की ओट लेने से नहीं चुकता जो खुद मुनाफे और सौदे का पर्याय बनने लगा है। राजनीति संस्थानो के भ्रष्ट होने से ज्यादा भ्रष्टाचार को ही संस्थान में बदल कर लोकतंत्र पर भी सवालिया निशान लगाती है। तो क्या राजनीति के चरम में वह संविधान भी नही बचेगा जो संसदीय राजनीति में लोकतंत्र की चाशनी लपेटकर पुरातनपंतियो को धर्म का उपदेश और आधुनिक दौर में कानूनी-गैरकानूनी का पाठ पढाकर मानवाधिकार से लेकर हक के सवाल को हाशिये पर ढकेल देता है। या फिर राजनीति का चरम महाभारत के अंत और प्रकाश झा की राजनीतिक सीमाओ से बाहर निकल कर कुन्ती पुत्र कर्ण के पिता या राजनीति के नसीरुद्दीन की क्रांति के सपने को दोबारा जगाने के लिये संन्यास छोड़ लौटेगा और विकल्प लुटियन्स के शहर से नहीं खेत-खलिहान और जंगल से शुरु होगा। जो सत्ता-कारपोरेट-मीडिया के कॉकस को भी तोडेगा और उस लॉबिंग के मिथ को भी चकनाचूर कर देगा जो मानता और मनवाता है कि मुनाफा बनाना-कमाना ही विकास की अर्थव्यवस्था का धर्म है।<br /><br />विकल्प का यह राग उस राजनीति के मर्म को भी बदल देगा जो दलित को दलित और आदिवासी को आदिवासी बनाये रखकर पहले असुरिक्षत करते हैं फिर आतंक तले सुरक्षित कर लोकतंत्र का ऐलान करते हैं। यह भूख की उस आग को भी शांत करेगा जो राजनीति में अगर एक निवाले के लिये कभी लाल तो कभी नीला और किसी भी रंग का झंडा उठाकर राजनीति को लोकतंत्र का पर्याय बनाने से नहीं चूकती। तो उस राजनीतिक भ्रम को भी खत्म करेगी जो राजनीति को साफ-स्वच्छ बनाने के लिये पढ़े-लिखे युवाओं को साथ खड़ाकर खुद को पाक-साफ करारने का खेल भी खेल रही है। क्या राजनीति के चरम के बाद विकल्प का राग करोड़ों अकेले लोगों को साथ जोड़ेगा और देश के कमोवेश हर प्रांत में चल रहे आंदोलनों को एक सूत्र में पिरोकर इस एहसास को जगायेगा कि मुद्दा चाहे भूमि पर कब्जे का हो या खनन का या फिर पर्यावरण से लेकर रोजगार का। खेती में उजड़ते किसानों का सवाल हो या जमीन पर क्रंकीट का जंगल खड़ा कर पानी के संकट का। विकास की अंधी दौड़ में सबकुछ समेटने का मिजाज हो या फिर सबकुछ ध्वस्त कर तकनीक पर टिका जीवन। अगर देश में इन मुद्दों पर टिके आंदोलनों से जुडे लोगों की संख्या को जोड़ें और उन्हें ही देश मान कर सियासत की शुरुआत करें तो एक नया लोकतंत्र जन्म ले सकता है। और ऐसे में नयी "राजनीति " महाभारत पर नहीं नये भारत के आधार पर बनेगी जिसमें अजुर्न बने रणबीर कपूर की बिसात और आतंक पैदा करते मीडिया पर डायलॉग नहीं होगा बल्कि विकल्प बनाता नसीरुद्दीन डायलॉग बोलेगा</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">लोकतंत्र के नाम पर मुनाफा-सौदेबाजी की सियासत से बनी सत्ता को आतंक पैदा करने की इजाजत नहीं दी जा सकती।</span></p>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-53658619629252870092010-01-06T18:04:00.002+05:302010-01-06T18:05:33.360+05:30फिल्म और राजनीति में सरोकार का धंधा<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">चंदेरी के बुनकरों का सवाल आमिर खान जब </span><span lang="EN-US" style="mso-bidi-font-family:Mangal; mso-ansi-language:EN-US;mso-bidi-language:HI">‘</span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">थ्री इडियट्स</span><span style="mso-bidi-font-family: Mangal;mso-bidi-language:HI">’</span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI"> के प्रचार के दौरान उठा रहे रहे थे</span><span style="mso-bidi-font-family:Mangal;mso-bidi-language: HI">,</span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI"> उस वक्त लोकसभा में मंहगाई को लेकर सांसद हंसते-मुस्कुराते चर्चा करते हुये चर्चा से बचना चाह रहे थे । आमिर खान सामाजिक सरोकार को प्रचार का हथकंडा बनाकर अपने धंधे में मुनाफा बढ़ाने की तरकीब अपनाये हुये थे तो लोकसभा में सांसद सामाजिक सरोकार को ही हाशिये पर ढकेल कर अपने मुनाफे को अमली जामा पहनाने में जुटे रहे। संसद ने आखरी दिन सासंदों को मिलने वाली हवाई यात्रा में बढोत्तरी पर सहमति का ठप्पा बिना चर्चा के लगा दिया और कृषि मंत्री मंत्री शरद पवार ने जले पर नमक यह कह कर छिड़क दिया की महंगाई से निजात तुरंत मिलना मुश्किल है। </span></p><p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">वहीं थ्री इडियट्स में मुनाफे का आखिरी ठप्पा आमिर खान ने पांच हिन्दी राष्ट्रीय न्यूज चैनलों के संपादकों को इंटरव्यू के लिये चेन्नई आने का आमंत्रण दे कर लगाया और इडियट बाक्स भी थ्री इडियट्स के धंधे को आगे बढाने में जुट गया । एक तरफ सामाजिक सरोकार की संवेदनाओं को धंधे में बदलकर मुनाफा बनाने की पहल तो दूसरी तरफ सरोकार को हाशिये पर ढकेलकर एक नयी आर्थिक लीक खींचने की कोशिश। देश के जो सामाजिक-आर्थिक हालात हो चले हैं, उसमें पहली बार यह नया सवाल उभर रहा है कि सांसद सिल्वर स्क्रीन के नायक सरीखे हो चले हैं और सिल्वर स्क्रीन के नायक सांसदों की तर्ज पर मुद्दों को उठाकर जिस तरह मुनाफा बनाने में जुटे हैं, उसमें मिस्टर परफेक्शनिस्ट वही है, जो सलीके से समाज को धोखा देना जानता हो। क्योंकि सौ करोड़ से ज्यादा का मुनाफा थ्री इडियट्स के जरीये आमिर खान बना लेंगे और सांसदों की बढ़ी हवाई उडान से देश के खजाने पर सौ करोड़ से ज्यादा का भार पड़ेगा।<br /><br />असल में आम आदमी की जरुरत और उसकी त्रासदी को फिल्मी तर्ज पर रखने का अनूठा प्रयास ही इस दौर में शुरु हुआ है और राजनीति इसे मापदंड बनाकर लोकतंत्र का राग अलापने से नहीं कतरा रही। अगर बीते पांच साल में संसद</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">सिल्वर स्क्रीन और आम आदमी को एक तराजू में रखे तो एक साथ कई सवाल खड़े होते हैं। मसलन </span>2004<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI"> में लोकसभा के </span>156<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI"> सांसद करोड़पति थे और औसतन </span>545<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI"> सांसदों की संपत्ति ढाई करोड से ज्यादा की थी। वहीं </span>2004<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI"> में गरीबी की रेखा से नीचे वालों की तादाद </span>31<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI"> फीसदी थी। और साठ फिसदी से ज्यादा की आय बीस रुपये प्रतिदिन थी। वहीं </span>2009<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI"> में लोकसभा के </span>315<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin; mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language: HI"> सांसद करोड़पति हो गये और औसतन </span>545<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin; mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language: HI"> सांसदों की संपत्ति चार करोड़ अस्सी लाख हो गयी। जबकि </span>2009<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI"> में गरीबी की रेखा से नीचे वालों की तादाद बढ़कर </span>37<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI"> फीसदी हो गयी और बीस रुपये प्रतिदिन कमाने वाले बढ़कर </span>77<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI"> फीसदी तक जा पहुंचे। जबकि इसी दौर में सिल्वर स्क्रीन ने कमाल का उछाल मारा। </span>2004<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI"> में जहां बालीवुड सालाना नौ हजार करोड़ का धंधा कर रहा था, वह पांच साल में बढकर यानी </span>2009<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI"> में तीस हजार करोड़ पार कर गया। ऐसे में आमिर खान अगर यह कहें कि वह चंदेरी ना जाते तो बुनकरो की बदहाली सामने नहीं आती या फिर राहुल गांधी का यह कहना कि दलितों की त्रासदी का समूचा सच सामने नहीं आ पाता अगर वह किसी दलित के घर रात नहीं गुजारते। और सब कुछ दलित राजनीति के अंधेरे में खो जाता यानी मायावती के। यहीं से दूसरा सवाल खड़ा होता है कि दलित या ग्रामीणों की हालत से सरकार वाकिफ हैं। सारे आंकडे उसके पास हैं। जो नीतियां दिल्ली या राज्यों की राजधानियों में बनती है, वह गांव तक नहीं पहुंच पाती, इसे मंत्री और नौकरशाह दोनों जानते समझते हैं। लेकिन इसके बावजूद राहुल गांधी भारत भ्रमण आमिर खान की तर्ज पर करते हैं। वहीं, आमिर खान भी राहुल गांधी की तर्ज पर चंदेरी से लेकर बनारस की गलियो में और पंजाब से लेकर चेन्नई तक में अपनी इमेज बचाकर घूमते हैं। बनारस में आमिर खान नकली गंदे दांत और मुचराये कपड़ों के साथ कांख में किसी बाबू की तरह बैग दबाये दबे पांव ही पहुंचते हैं। लेकिन थ्री इडियट्स का धंधा उन्हें आमिर खान की इमेज को मीडिया में परोसकर ही आगे बढ़ता दिखता है।<br /><br />तो क्या यह माना जाये कि आमिर अपने रंग-ढंग से बनारस</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">कोलकाता से लेकर लुधियाना और चेन्नई तक में रंग भेद का खेल नहीं खेलते । और राहुल गांधी जिन्हें मनमोहन सिंह का खुला आफर है कि वह जब चाहे सरकार में शामिल हो जाये और राहुल खुद चाहे तो मनमोहन को हटाकर पीएम की कुर्सी पर भी बैठकर गरीब-दलितों के घरो में रोशनी दिला सकते है तो भी सिर्फ राजकुमार की छवि के साथ वह आमिर खान जैसे अपनी इमेज से बचते क्यों हैं। और आमिर के चंदेरी के बुनकर और राहुल के बुंदेलखंड में अंतर क्या रखना चाहिये इसे कौन बतायेगा । </span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">आमिर की नजरों से देखें तो फिल्मों का नायक यूं ही नहीं होता</span></p> <p class="MsoNormal">.....<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">और अगर सिल्वर स्क्रीन से देश का सवाल जोड़ दिया जाये तो प्रधानमंत्री किसी नायक सरीखा लग सकता है। वहीं दूसरी तरफ आमिर के प्रचार की पहल राज्य को भाती है क्योंकि इससे बाजारवाद का नारा भी बुलंद रहता है और सामाजिक सरोकार भी जागे रहते हैं। और मनमोहन सिंह की इकनामिक्स को भी एक आधार मिलता है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">जहा मुनाफा सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को टटोल कर चलती हैं। आमिर खान का मानना है कि फिल्मी कलाकार अगर देश के मुद्दों को उठाये तो सरकार और सत्ता की नजर कहीं तेजी से इस पर पडती है । सरकार मानती है कि लोकप्रिय संस्थान अगर आम जनता के मुद्दों के साथ खुद को जोड़े तो आम आदमी ज्यादा जानकारी हासिल करता है। असल में कुछ इसी तरह का सवाल दो बीघा जमीन के नायक बलराज साहनी से पूछा गया था कि उनकी फिल्म के बाद क्या सरकार छोटे किसानो की त्रासदी पर ध्यान देगी। तो बलराज साहनी जबाब था कि फिल्म उसी व्यवस्था के लिये गुदगुदी का काम करती है जो इस तरह की त्रासदी को पैदा करती है। इसलिये फिल्मों को समाधान ना माने। यह महज मनोरंजन है। और मुझे चरित्र के दर्द को उभारने पर सुकून मिलता है। क्योंकि हम जिन सुविधाओं में रहते हैं उसके तले किसी दर्द से कराहते चरित्र को उसी दर्द के साथ जी लेना अदाकारी के साथ मानवीयता भी है।<br /><br />सवाल है तब यह बात कलाकार भी समझते थे और अब मीडियाकर्मी भी नहीं समझ पाते। दरअसल</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">आमिर के प्रचार की जिस रणनीति को अंग्रेजी के बिजनेस अखबार बेहतरीन मार्केटिंग करार दे रहे हैं</span>,<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-font-family:Mangal;mso-bidi-theme-font:minor-bidi;mso-bidi-language: HI"> </span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">वो सीधे सीधे लोगों की भावनाओं के साथ खेलना है। फिल्म के प्रचार के लिए लोगों की भावनाओं की संवेदनीशीलता को धंधे में बदलकर मुनाफा कमाते हुए अलग राह पकड़ लेना नया शगल हो गया है। लेकिन</span>,<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-font-family:Mangal; mso-bidi-theme-font:minor-bidi;mso-bidi-language:HI"> </span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">यहीं एक सवाल फिर उठता है कि यहां एक लकीर से ऊपर पहुचते ही सब एक समान कैसे हो जाते हैं। चाहे वह फिल्म का नायक हो या किसी अखबार या न्यूज चैनल का संपादक या फिर प्रचार में आमिर के साथ खड़े सचिन तेंदुलकर। या फिर लोकसभा के हंसी ठठ्ठे में खोता मंहगाई का मुद्दा । </span></p> <p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">बलराज साहनी से इतर अगर उत्पल दत्त की माने को मुबंई में वैसी ही फिल्म बनती हैं जैसे किसी जूते की फैक्ट्री में जूते । फिल्मकार और उसकी मार्केटिंग से जुडे लोग कहते रहते है लोग ऐसी ही फिल्म चाहते है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">जबकि हकीकत में लोगों को सांस्कृतिक पराभव के लिये परिचालित किया जाता है । कह सकते हैं कभी जो जगह साम्राज्यवादियों ने छोडी सत्ताधारियो ने उस जगह को भरने का ही काम किया और फिल्मों के जरीये भी मुनाफे के उस खाली पडे तंत्र का सहारा फिल्मकारों ने ले लिया, जिसे राज्य ने खाली छोड़ दिया । यानी सरोकार की परिभाषा झटके में बदल दी गयी। और धुआंधार प्रचारतंत्र ने जनता को सांसकृतिक दिवालियेपन तक पहुंचा दिया। आमिर खान के तौर तरीके इस मायने में अलग हो सकते हैं कि वह फिल्म के प्रचार में ही सरोकार को मुनाफे में बदलना चाहते हैं । असल में फिल्मों से जुडा हर कलाकार हो या फिल्मकार, बॉलीवुड शब्द की जगह फिल्म इंडस्ट्री शब्द का प्रयोग करना चाहता है.....इसकी वजह सिर्फ यह नही है कि बालीवुड को उद्योग का दर्जा मिल जाये। बल्कि उस क्रिएटिविटी का चोला बाजार के सामने उतार फेंकना भी है जो सामाजिक सरोकार के जरीये सेंसर का ट्रिगर थामे रहता है। असल में तकनीक ने फिल्मों को सहारा सिर्फ फटाफट धंधा कर खुद को उघोग में बदलने भर का नहीं दिया है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">बल्कि न्यूज चैनलो से लेकर रेडियो जॉकी और इंटरनेट का एक ऐसा साम्राज्य भी दे दिया है, जिसके आसरे धंधा चोखा भी हो जाये और मुनाफे का बंदरबांट कर हर कोई एक दूसरे की उपयोगिता से लेकर उसे जायज ठहराने में भी लगा रहे। यह आमिर खान के इंटरव्यू के आमंत्रण से आगे का रास्ता है। यह रास्ता आपको रामगोपाल वर्मा की फिल्म रण में नजर आ सकता है। फिल्म का नायक अमिताभ बच्चन न्यूज चैनलों के धंधे को समझता-समझाता दोनो है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">लेकिन इस दौर में खुद भी धंधा कर निकल जाता है। मुश्किल यह है कि आमिर खान जिन सवालों को उठाते हुये अपनी फिल्म थ्री इडियट का प्रचार करते हैं। रामगोपाल वर्मा उन्हीं सवालो को उठाते हुये अमिताभ बच्चन के जरीये फिल्म ही बनाकर सीधे धंधा करने से नहीं चूकते। सरकार कह सकती है कि खुले बाजार की थ्योरी तो यही कहती है कि जिसे चाह अपना माल बेच लें...तरीका कोई भी अपना लें ।<br /><br />लेकिन इसे महीन तरीके से समझने के लिये फिल्मों के बदलते रंग को समझना होगा जो वाकई सत्ताधारियों का अक्स है। नाचगानो और फंतासियों के बीच नायक जब विलेन की जमकर मरम्मत करता है तो यह सिर्फ अच्छाई पर बुराई या पोयटिक जस्टिस भर का मसला नहीं होता बल्कि जीवन के लिये रोजमर्रा की समस्या पर पर्दा डालने तथा जनता को उसी परिलोक में झोंक देने की चाल भी होती है, जिसमें सारे अन्याय का इलाज है हीरो का मुक्का । जिसके लगते ही खलनायक का ह्रदय परिवर्तन होता है और वह गरीब-गुरबा की मदद करने लगता है । यहीं सवाल उठता है कि न्यूज चैनलों के धंधे को भी फिल्म रण बताती है और थ्री इडियट का आमिर का प्रचार भी बुनकरों के सवाल को उठाता है। जबकि बुनकर का हुनर नायिका की गोरी चमड़ी पर भी ठहर नहीं पाता। सामधान क्या है, यह रास्ता तुरंत बताना मुश्किल जरुर है</span>,<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">लेकिन मामला माध्यम को चुनना भी है । इसलिये रास्ता यही है कि जनता को जीत कर वापस लाना जरुरी है। व्यवसायिक रुप से भ्रष्ट उन लोगों के विरुद्ध मानव मस्तिष्क के लिये अनवरत संघर्ष जरुरी है, जो पूरे मीडिया को नियत्रित करते हैं और अखबारों</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">रेडियो तथा टीवी के माध्यम से लगातार झूठ और धोखे की बमबारी करते रहते हैं। इन सबके उपर है सरकार </span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">जिसके सदस्य खुलेआम मध्ययुगीन अंधविश्वासों का प्रसार करते हैं और आम जनता के बीच विकास की अनूठी लीक बनाने के लिये सबकुछ पने ही हाथ में रखने में जुटे रहते हैं। जिसे लोकतंत्र का नाम भी दिया जाता है। इसे तोड़ने में संघर्ष तीखा और लगातार का है। जिसके लिये जरुरी है फिल्मों को फैशनेबुल समझ कर देखने वाले दिवालिया मध्यमवर्गीय बुद्दिजिवियों के कोटरो में निवृत होने के बजाय वास्तविक जनता के पास जाया जाये। लेकिन तरीका थ्री इडियट या रण का ना हो। और शायद ना ही करोड़पतियो की लोकसभा का।</span></p>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-87974854861995072572009-11-24T11:40:00.002+05:302009-11-24T11:44:33.167+05:30मुलायम अखाड़े में कुश्ती होगी या नूरा कुश्ती23 नवंबर 2009 को संसद में मुलायम को कहना पड़ा कि 1992 में बाबरी मस्जिद की असल लड़ाई उन्होंने ही लड़ी थी। और संकेत में यह भी कह गये कि कहीं ऐसा न हो कि दुबारा नब्बे के दशक के दौर की परिस्थितियां आ जाये। मुलायम यह बात और किसी को देखकर नहीं कह रहे थे बल्कि उनकी नजरें और जवाब दोनों आडवाणी की तरफ था। उनके ठीक पहले आडवाणी ने मंदिर के लिये मर मिटने की तान छेड़ी थी। तो क्या यह संकेत मुलायम को अपनी पुरानी राजनीति में लौटने की है।<br /><br />संयोग देखिये 1992 में कांशीराम को इटावा संसदीय सीट से उपचुनाव जीतने में मुलायम की जरुरत पड़ी थी और 2009 में इटावा विधानसभा उप चुनाव में मायावती ने मुलायम को पटखनी दे दी। तो क्या मुलायम की राजनीति का चक्र पूरा हो चुका है। क्योंकि जो राजनीतिक जमीन नब्बे के दशक में मुलायम बनाते रहे, वह 2009 में चूक चुके है। अगर राजनीतिक बिसात पर पहली एफआईआर दर्ज हो तो लिखा जा सकता है....हां।<br /><br />लेकिन मुलायम की बिसात की एक-एक तह को हटाया जाये तो राजनीतिक चूक की एफआईआर में शायद... हां-नहीं दोनों लिखना होगा। और मुलायम को परखने का एक मौका और देना होगा। राजनीतिक तौर पर मुलायम की शुरुआत शिकोहाबाद से हुई, जहां समाजवादी नेता नत्थू सिंह ने नगला अंबर की प्रतियोगिता में मुलायम को अपने से बडे पहलवान को चित्त करते देखा। बस मुलायम की यही अदा नत्थू सिंह को भा गयी, जो सोशलिस्ट पार्टी की तरफ से जसवंतनगर से चुनाव लड़ रहे थे। मुलायम ने जमकर चुनाव प्रचार किया। नत्थू जीते और मुलायम के राजनीतिक गुरु बन गये। गैर-कांग्रेस का पहला पाठ मुलायम ने इसी वक्त पढ़ा और उसे अपनी रगों में कैसे दौड़ाया यह 14 जुलाई 1966 को तब नजर आया, जब कांग्रेस सरकार की नीतियों के खिलाफ उत्तर प्रदेश बंद का ऐलान किया गया। और जो दो जिले पूरी तरह बंद रहे, उनमें जसवंतनगर और इटावा ही थे और इसके हीरो और कोई नहीं मुलायम सिंह यादव ही रहे। इसीलिये कुछ दिनो बाद राममनोहर लोहिया जब इटावा पहुचे तो मुलायम से मिले। मुलायम के कंघे पर हाथ रखकर कहा ....यह कल का भविष्य है। और इसे अगले ही साल 1967 में मुलायम ने जसवंतनगर सीट पर कांग्रेस के दिग्गज लाखन सिंह को चित्त कर साबित भी कर दिया। मुलायम ने 28 साल पूरे नहीं किये थे और चुनावी जीत के साथ अपने चाहने वालों को बता दिया कि उनके लिये राजनीतिक मैदान भी अखाड़े की तरह है, जहां बड़ों-बड़ों को वह चित्त करेंगे।<br /><br />पहली राजनीतिक पहल मुलायम की तरफ से अलाभकारी खेती पर टैक्स माफ, अंग्रेजी पर प्रतिबंध और फौजदारी कानून के प्रतिक्रियावादी अनुच्छेदों को मुल्तवी करने की खुली वकालत से शुरु हुआ। लेकिन मुलायम उस दौर में एक साथ कई पांसो को संभालते थे। ब्राह्मण विरोध के लिये आरक्षण का समर्थन किया और युवकों को साथ लाने के लिये उनके सामाजिक और आर्थिक मसलों को उठाया। 18 मार्च 1975 को जब जेपी संपूर्ण क्रांति का नारा दे रहे थे, उस दिन विधानसभा में मुलायम कह रहे थे... नौजवानो की नाराजगी की वजह सामाजिक और आर्थिक है। अपने ही बच्चों के खिलाफ सरकार लाठी, गोली, डीआईआर, मीसा और गुंडा एक्ट का इस्तेमाल कर अच्छा नहीं कर रही है। ...अपनी कुर्सी बचाने के लिये सरकार दमन कर के लाठी चार्ज करवा कर अपनी कब्र खोद रही है। मुलायम के इस रुख ने गैरकांग्रेसवाद की राजनीति में युवाओं को एक समाजवादी नायक दिया, जिसकी बिसात पर हर तबके को साथ जोड़ते हुये भी एक नयी राजनीति की महक दिखायी दे रही थी। इस राजनीति का लाभ मुलायम को अस्सी के दशक के दौर में तब मिला, जब वीपी सिंह दस्यु विरोधी अभियान के नाम पर फर्जी इनकाउंटर में पिछडे युवाओं को निशाना बना रही थी।<br /><br />मुलायम ने इसी दौर में आंदोलन छेड़ा। आंदोलन छेड़ा कैसे जाता है, मुलायम ने एक नयी परिभाषा दी। पुलिसिया आतंक से सड़क पर सीधा संघर्ष किया और सरकार के तौर तरीकों के खिलाफ यानी फर्जी मुठभेड़ों के खिलाफ खुद ही अखबारों में लेख लिखने से लेकर मानवाधिकार संगठन एमेनस्टी इंटरनेशनल तक को बेकसूरों की सूची भेजी। अपने कैनवास को राजनीतिक तौर पर मुलायम ने नया आयाम तब दिया जब राजीव गांधी ने उत्तर प्रदेश की गद्दी पर वीर बहादुर सिंह को बैठा दिया। मुलायम ने कटाक्ष किया...जहां कभी गोविंद वल्लभ पंत बैठते थे, वहां आप जैसे माफिया का बैठना भी जनता को देखना था। बिलकुल लोहियावादी शैली में मुलायम ने कांग्रेस को घेरा। राजनीतिक माफिया और माफिया की राजनीति को जन्म देने वाली कांग्रेस को घेरा। और इसी के सामानांतर साप्रंदायिक दंगे, भ्रष्टाचार,बिजली,हरिजन और किसानों की समस्याओ को उठाया। लेकिन मुलायम की इस राजनीतिक बिसात में सत्ता कही नहीं थी। वहीं 5 दिसंबर 1989 को लखनउ के कुंवर दिग्विजय सिंह स्टेडियम में राज्य की सर्वोच्च गद्दी की शपथ लेने के साथ ही यही बिसात उलटने लगी जो इटावा से लखनऊ तक तो पहुंचाती थी, लेकिन इसके आगे की पटरी किसी को पता नहीं थी। अब मुलायम की छाती पर जो तमगे लग रहे थे वह गैर कांग्रेसवाद से छिटक कर गैर भाजपा की दिशा में ले गये।<br /><br />मुलायम की राजनीतिक पटरी सांप्रदायिकता के खिलाफ चलते हुये बहुसंख्यक तबके को समाजवादी नीति तले एकजूट करने वाली होनी थी। लेकिन साप्रंदायिकता के खिलाफ सवारी करते मुलायम बाबरी मस्जिद की रक्षा में इस तरह उतरे की कल्याण सिंह से लोहा लेते भी मुलायम नजर आ रहे थे और कल्याण को राम बनाकर खुद मौलाना होना भी उन्हें अच्छा लग रहा था। यानी मुलायम एक कुशल नट की तरह समाजवादी बने रहने को राज्य में परिभाषित करने में लगे रहे तो दूसरी तरफ वीपी,देवीलाल,चन्द्रशेखर गुटों में संतुलन बनाने का खेल भी खेल रहे थे। वह टिकैत को लखनऊ आने से और स्वरुपानंद सरस्वती को अयोध्या जाने से रोकने में भी सफल हुये। लेकिन 1991 में सत्ता जब फिसली तो मुलायम खुद इतने फिसल चुके थे कि उनकी मौजूदगी हिन्दी का सवाल उठाने और बाबरी मस्जिद की रक्षा करने वाले तक जा सिमटी। इसी सिमटती राजनीति को तोड़ने के लिये मुलायम ने 1992 में इटावा से कांशीराम को जीता कर दलित मुख्यता जाटव और यादव वोटों की एकता बनायी। मुसलमान भी उनके साथ जुड़े। कांशीराम ने सपा-बसपा गठजोड को लोहिया-आंबेडकर के छोडे गये कार्यो को पूरा करने के उद्देश्य से जोड़ दिया। लेकिन बाबरी मस्जिद गिरायी गयी तो मुसलमान मुलायम के पीछे थे। अछूत कांशीराम के और सवर्ण भाजपा के।<br /><br />जाहिर है यही वह राजनीति है जो कांग्रेस को हाशिये पर ले जाती है। इसे मुलायम नहीं समझ पाये। लेकिन मायावती ने इसी काट को समझा कि अगर कांग्रेस इस तिकडी में दखल देने आ जाये तो मुलायम की जमीन खिसकायी जा सकती है। इसलिये मायावती ने खुद के खिलाफ हमेशा कांग्रेस को तरजीह दी। और इसी दौर में मुलायम के काग्रेस प्रेम से लेकर कल्याण प्रेम किसी से छुपा नहीं। और संकीर्ण यादवो के साथ भी रोटी-बेटी के संबंधो को ना निभा पाना भी भारी पड़ा। लेकिन अब जब मुलायम को अपनी राजनीतिक जमीन पर ही पटखनी मिली है तो पहला काम वह यही कर रहे हैं कि कल्याण और कांग्रेस से पल्ला झाड़ रहे हैं। और इसमें कल्याण सिंह अब यह कर मदद कर रहे है कि उनका काम तो हिन्दुत्व को जगाने और रक्षा करने का है। लेकिन मुलायम समझ रहे हैं कि गोमती किनारे खड़े होकर वह बाबरी ढांचे का राग नहीं अलाप पायेंगे। क्योकि आजम खान की माने तो , बाबरी मस्जिद के ढहने के बाद मुलायम ने पहला टेलीफोन बेनी प्रसाद वर्मा को किया था...और कहा था अब सत्ता भी मिल जायेगी....खामोश हो जाइये। लेकिन अब सवाल यही है कि मुलायम अपनी पुरानी राजनीति पर लौटते हुये अपनी बिसात बिछाते है या बिछ रही राजनीतिक बिसात में फिर अपने उन्हीं मोहरो को बचाने में जुटते हैं, जिन्होंने अपने ही अखाड़े में मुलायम को चित्त करा दिया।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-60075120620222657182009-11-05T11:31:00.002+05:302009-11-05T11:32:27.579+05:30पहले दुश्मन बनाओ फिर सेना खुद खड़ी होगी<strong>बालासाहेब से राज ठाकरे तक का राजनीतिक मंत्र</strong><br /><br />महाराष्ट्रियनों को एक दुश्मन चाहिये और राज ठाकरे उसी की संरचना में जुटे हैं। और उन दुश्मनों पर हमला करने के लिय राज की सेना धीरे धीरे महाराष्ट्र निर्माण सेना के नाम पर गढ़ी जा रही है। यह मराठी मानुस राजनीति की हकीकत है, जिसे साठ के दशक में बालासाहेब ठाकरे ने शिवसेना के जरिये उभारा और 21 वी सदी में राजठाकरे उभार रहे है । राज ठाकरे का उभार महज लुंपन राजनीति की देन नहीं है ना ही 40 साल पहले बालासाहेब का उभार लुंपन राजनीति की देन थी। याद कीजिये बीस के दशक से लेकर 40 के दशक तक महाराष्ट्रीय नेता भाषा, संस्कृति,इतिहास और परंपरा के नाम पर अलग महाराष्ट्र गठित करवाने का प्रयास चलाते रहे। आजादी के बाद संयुक्त महाराष्ट्र समिति ने एकीकृत महाराष्ट्र का आंदोलन चलाया और उस दौर में ना सिर्फ महाराष्ट्रीय अस्मिता एकबद्द् हुई बल्कि राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशो से जितने भी राज्य बने उसमें केवल महाराष्ट्र ही था जिसने आयोग के प्रस्ताव के खिलाफ संघर्ष किया। <br /><br />विदर्भ के उन जिलो को अपने में शामिल करने की कोशिश की जिनका अलग राज्य बनाने का प्रस्ताव था । फिर सुनिश्तचित किया किया की मुंबई अलग राज्य ना बने । फिर गुजरात को द्विभाषी राज्य से बाहर निकालवाने में सफलता प्राप्त की। अभी भी कर्नाटक के बेलगांव और करवार जिलों का करीब 2806 वर्ग मील क्षेत्र को महाराष्ट्रीय अपना मानते है और गाहे बगाहे दावा ठोकते हैं। वहीं गोवा का महाराष्ट्र में विलय उनका अधूरा सपना है। असल में माराठी मानुस की समझ सिर्फ युवा पीढ़ी को लुभाने या उत्तर भारतीयों के खिलाफ जहर उगने भर की नहीं है। आजादी के बाद मराठाभाषियों की स्मृति में दो ही बाते रहीं । पहली शिवाजी और उनके उत्ताराधिकारियों द्वारा स्थापित किये गये शानदार मराठा साम्राज्य की यादें जो मुगलों और अंग्रेजों के खिलाफ बहादुरी से लडने वाले मराठों को एक पराक्रमी जाति के रुप में गौरान्वित करती है और दूसरी स्वतंत्रता आंदोलन में तिलक, गोखले और रानाडे जैसे महान नेताओ की भूमिका जो उन्हे आजादी के लाभो में अपने हिस्से के दावे का हक देती हैं। <br /><br />मराठी मानुस की महक हुतात्मा चौक से भी समझी जा सकती है जो कभी फलोरा फाउन्टेन के नाम से जाना जाता था लेकिन इस चौक को संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन से जोड़ दिया गया । वहीं गेटवे आफ इंडिया पर शिवाजी की घोड़े पर सवार प्रतिमा के मुकाबले पूरे महाराष्ट्र में गांधी की कोई प्रतिमा नहीं मिलेगी। गांधी जी के बारे में मराठी मानुस की समझ निजी बातचीत में समझी जा सकती है, गांधी मराठियो की एकजुटता से घबराते थे कि कही फिर मराठे सूरत को ना लूट लें। एक तरह से गांधी को सिर्फ गुजराती बनिये के तौर पर सीमित कर मराठी मानुस आज भी मराठों के विगत साम्राज्य को याद कर लेता है। असल में शिवसेना ने जब 60 के दशक में मराठी मानुस का आंदोलन थामा और जिस मराठी मिथक का निर्माण किया , वह कुछ इस तरह का था जिसमें साजिश की बू आती। यानी मुबंई में मराठी लोगो की हैसियत अगर सिर्फ क्लर्क, मजदूर,अध्यापक और घरेलू नौकर से ज्यादा की नहीं थी तो वह साजिश के तहत की गयी। बालासाहेब की राजनीति के दौर में गुजराती,पारसी,पंजाबी, दक्षिण भारतीयों का प्रभाव मुबंई में था और शिवसेना इसे साजिश बताते हुये दुश्मन भी बना रही थी और उनसे लडने के लिये मराठियों को एकजुट कर अपनी सेना भी बना रही थी। <br /><br />ठीक इसी तर्ज पर राज ठाकरे भी दुश्मन खोज उनसे लड़ने के लिये अपनी सेना को बनाने में जुटे हैं । बालासाहेब ने लुंगी को पुंगी पहनाने की बात कर दक्षिण भारतीयों के खिलाफ अपनी सेना बढ़ायी तो राज ठाकरे भईया और दूध वालो पर चोट कर उत्तर भारतीयों को दुश्मन बनाकर अपनी सेना बनाना चाहते हैं। यानी दुशमन की जरुरत सेना को बढाने के लिये जरुरी है इसका एहसास बाला साहेब को भी था और राजठाकरे को भी है। इस सेना में युवा मराठी मानुस सबसे ताकतवर हो सकता है, इसका अहसास बाला साहेब को भी रहा और अब राजठाकरे भी समझ चुके हैं। 60 के दशक में मुंबई में अधिकांश निवेश पूंजीप्रधान क्षेत्रो में हुआ जिससे रोजगार के मौके कम हुये । फिर साक्षरता बढने की सबसे धीमी दर महाराष्ट्रीयों की ही थी । इन परिस्थितयों में नौकरियों में पिछड़ना महाराष्ट्रियनों के लिये एक बडा सामाजिक और आर्थिक आघात था । बालासाहेब ठाकरे ने इसी मर्म को छुआ और अपने अखबार मार्मिक के जरीये महाराष्ट्र और मुबंई के किन रोजगार में कितने मराठी है इसका आंकडा रखना शुरु किया। <br /><br />बालासाहेब ने बेरोजगारी को भी हथियार बनाते हुये उसकी वजह दूसरे राजनीतिक दलों का लचीलापन करार दिया और अगले दौर में कामगारों को साथ करने के लिये वाम ट्रेड यूनियनों पर निसाना साधा और भारतीय कामगार सेना बनाकर एक तीर से कई निशाने साधे । दक्षिण भारतीयों के खिलाफ युवा मराठी को खडा करने के लिये यहां तक कहा कि सभी लुंगी वाले अपराधी , जुआरी , अबैध शराब खींचने वाले, दलाल, गुंडे, भिखारी और कम्युनिस्ट हैं। ....मै चाहता हूं कि शराब खींचने वाला भी महाराष्ट्रीय हो, गुंडा भी महाराष्ट्रीयन हो, और मवाली भी महाराष्ट्रीयन हो । इस तेवर के बीच जैसे ही ठाकरे ने ट्रेड यूनियन बनायी वैसे ही कई उघोगपतियों ने बाल ठाकरे के साथ दोस्ती कर ली । नयी परिस्थियो में राज ठाकरे भईया यानी उत्तर भारतीयों पर अपराधी, जुआरी,दलाल,अंडरवर्ल्ड से जुड़े होने के आरोप लगाते हुये युवा मराठी के बीच उनके हक को छिने जाने को साजिश ही करार दे रहे हैं। राज ठाकरे की राजनीति अभी ट्रेड यूनियन के जरिए शुरु नहीं हुई है लेकिन चाचा बालासाहेब की ही तर्ज पर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का पेंपलेट छपवा कर नौकरी के लिये कामगारों की नियुक्ति को प्रभावित करने लगे हैं। <br /><br />बाला साहेब से इतर राज की राजनीति आधुनिक परिपेक्ष्य में उघोगपतियों से संबंध गांठकर अपनों के लिये रोजगार और पूंजी बनाने की जगह सीधे पूंजी पर कब्जा करने की रमनीति ज्यादा है। मुंबई, पुणे, नासिक, कोल्हापुर से लेकर कोंकण के इलाके में राजठाकरे सीधे जमीन को हथियाने पर ज्यादा जोर देते हैं। कोई उघोग या मिल बीमार होकर बंद होती है तो उसकी जमीन पर पहला कब्जा उनका खुद का हो या फिर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के ही किसी बंदे का हो, इस दिशा में उनकी पहल सीधी होती है। बाला साहेब के दौर में कामगारो को साथ जोडने में खाली नौकरियों पर शिवसैनिक ध्यान रखते थे और फिर कामगार सेना के पर्चे पर फार्म भर कर नौकरी देने के लिये उघोगपतियों को हडकाया जाता था। वहीं राज ठाकरे के दौर में महाराष्ट्र के हर जिले में एमआईडीसी यानी महाराष्ट्र औघोगिक विकास निगम बन चुका है तो नयी पहल के तहत राजठाकरे की नजर हर एमआईडीसी पर है । अपने जोर पर एमआईडीसी में अपने से जुडे कामगारों को नौकरिया दिलाना और एमआईडीसी में उघोग के लिये जमीन चाहने वाले किसी को भी सरकार पर दबाब बनाकर जमीन दिलवाना और फिर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना से जोड़ना नयी रणनिति है। बाल ठाकरे राजनीति करते हुये स्टार वेल्यू के महत्व को भी बाखूबी समझते ते और अब राज ठाकरे भी इस स्टार वेल्यू को समझने लगे हैं। बालासाहेब ने युसुफ भाई यानी दिलीप कुमार पर पहला निशाना साधा था तो राज ठाकरे ने अमिताभ बच्चन पर निशाना साधा। बाला साहेब से समझौता करने एक वक्त शत्रुध्न सिन्हा को ठाकरे के घर मातोश्री जाना पडा था तो करण जौहर को राज के घर कृष्ण निवास जाना पड़ा। यानी दुश्मन हर वक्त ठाकरे ने बनाया और सेना को मजबूत किया। बालासाहेब ने तो बकायदा चित्रपट शाखा खोली। जहां शुरुआती दौर में मराठी कलाकारो को ईगे बढाने की बात कही गयी लेकिन बाद में यह बालठाकरे की स्टार वेल्यू से जुड़ गया। कमोवेश यही स्टार वेल्यू का अंदाज राजठाकरे ने भी समझा । कांग्रेस के जरीये राजनीति आगे बढायी जा सकती है और खुद को खड़ाकर कांग्रेस से सौदेबाजी की जा सकती है , यह पाठ सिर्फ राजठाकरे के भूमिपुत्र आंदोलन में ही सामने आया ऐसा भी नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के हस्ताक्षेप के बावजूद राज को लेकर महाराष्ट्र सरकार की ढिलायी ने भी राज को हिरो बना दिया इसमें दो मत नहीं। <br /><br />लेकिन याद किजिये 1995 में शिवसेना के महाराष्ट्र में सत्ता में आने से पहले की राजनीति । शिवसेना के मुखपत्र में विधानसभा अध्यक्ष का अपमानजनक कार्टून छपा । विधानसभा में हंगामा हुआ । विशेषाधिकार समिति के अध्यक्ष शंकर राव जगताप ने ठाकरे को सात दिन का कारावास देने की सिफारिश की । मुख्यमंत्री शरद पवार ने मामला टालने के लिये और ज्यादा कड़ी सजा देने की सिफारिश कर दी । पवार के सुझाव पर पुनर्विचार की बात उठी और माना गया कि टेबल के नीचे पवार और सेना ने हाथ मिला लिया। लेकिन 1995 के चुनाव में बालासाहेब ने पवार को अपना दुश्मन बना लिया और सेना के गढ़ को मजबूत करने में जुटे। विधानसभा चुनाव के ऐलान के साथ ही बालासाहेब ने पवार को झटका दिया और दाउद इब्राहिम के ओल्गा टेलिस को दिये उस इटरव्यू को खूब उछाला जिसमें दाउद ने पवार से पारिवारिक रिश्ते होने का दावा किया था। फिर खैरनार के आरोपों को भी पवार के मत्थे सेना ने जमकर फोड़ा। परिणाम यही हुआ मुंबई के मंत्रालय पर भगवा लहराने का बालासाहेब ठाकरे का सपना साकार हो गया। और शपथ समारोह में मंच पर और कोई नहीं वही खैरनार अतिथि के तौर पर आंमत्रित थे जिन्होने पवार के खिलाफ भ्रष्ट्राचार की मुहिम चलायी थी । संयोग से राज ठकरे का कद अभी इतना नहीं बढा है कि वह महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का झंडा मंत्रालय पर लहरा सके लेकिन जिस तर्ज पर कांग्रेस की राजनीति पवार को शह और शिवसेना को मात देने के लिये राजठाकरे सरीखे प्यादे से एकसाथ कई चाल चलवा रही है उसमें आने वाले दिनो में राज को रोकना मुश्किल भी होगा यह भी तय है । क्योंकि दुश्मन बनाकर सेना जुगाड़ना राज ने भी सिखा है और महाराष्ट्र में चाहे कांग्रेस-एनसीपी की सत्ता तीसरी बार लगातार मिल गयी हो लेकिन महाराष्ट्र के सामाजिक आर्थिक हालात इस दौर में बद से बदतर हुये है , इसे हर राजनीतिक दल समझ रहा है। शहर बिजली से और गांव खेती से परेशान है। युवा बेरोजगारी से और बुजुर्ग महंगाई से मुश्किल में है। यह परिस्थितियां कब अशोक चव्हाण की कलई खोल देगी कहना मुश्किल है। और तबतक राजठाकरे ऐसे ही औने बौने रहेंगे-सोचना नादानी होगी । 19 अगस्त 1967 को बालासाहेब ने कहे था, -- " हां मै तानाशाह हूं, इतने शासकों की हमें क्या जरुरत है ? आज भारत को तो हिटलर की आवश्कता है। ....भारत में लोकतंत्र क्यों होना चाहिये ? यहा तो हमें हिटलर चाहिये । " इसी बात को 2009 में राजठाकरे कुछ यूं कहते है..."मै तानाशाह नहीं हूं । लेकिन ऐसी राजनीति मुझे नहीं करनी । जो साजिश करें । मराठी मानुस को ही मुबंई से महाराष्ट्र से बेदखल कर दे। अब हम विधानसभा में पहुंचे है और अंदर मेरी सेना है तो सड़क पर मै हूं । देखे अब मुंबई या महाराष्ट्र में किसकी चलती है।"Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-3964085313012238222009-10-31T13:08:00.001+05:302009-10-31T13:10:26.219+05:30पूंजी, पॉलिटिक्स और पत्रकारितावैकल्पिक धारा की लीक तलवार की नोंक पर चलने समान है। क्योंकि विकल्प किसी भी तरह का हो उसमें सवाल सिर्फ श्रम और विजन का नहीं होता बल्कि इसके साथ ही चली आ रही लीक से एक ऐसे संघर्ष का होता है जो विकल्प साधने वाले को भी खारिज करने की परिस्थितियां पैदा कर देती हैं । राजनीतिक तौर पर शायद इसीलिये अक्सर यही सवाल उठता है कि विकल्प सोचना नहीं है और मौजूदा परिस्थितियो में जो संसदीय राजनीति का बंदरबांट करे वही विकल्प है। चाहे यह रास्ते उसी सत्ता की तरफ जाते हैं, जहां से गड़बड़ी पैदा हो रही है। मीडिया या कहें न्यूज चैनलों को लेकर यह सवाल बार बार उठता है कि जो कुछ खबरों के नाम पर परोसा जा रहा है, उससे इतर पत्रकारिता की कोई सोचता क्यों नहीं है। <br /><br />सवाल यह नहीं है कि राजनीति अगर आम-जन से कटी है तो पत्रकारिता भी कमरे में सिमटी है। बड़ा सवाल यह है कि एक ऐसी व्यवस्था न्यूज चैनलों को खड़ा करने के लिये बना दी गयी है, जिसमें पत्रकारिता शब्द बेमानी हो चला है और धंधा समूची पत्रकारिता के कंधे पर सवार होकर बाजार और मुनाफे के घालमेल में मीडिया को ही कटघरे में खड़ा कर मौज कर रहा है। और इसका दूसरा पहलू कहीं ज्यादा खतरनाक है कि हर रास्ता राजनीति के मुहाने पर जाकर खत्म हो रहा है, जहां से राजनीति उसे अपने गोद में लेती है। नया पक्ष यह भी है कि राजनीति ने अब पत्रकारिता को अपने कोख में ही बड़ा करना शुरु कर दिया है। <br /><br />कोख की बात बाद में पहले गोद की बात। न्यूज चैनलों में राजनीति की गोद का मतलब संपादक के साथ साथ मालिक बनने की दिशा में कॉरपोरेट स्टाइल में कदम बढ़ाना है। यानी उस बाजार की मुश्किलात से न्यूज चैनल संपादक को रुबरु होना है जो राजनीतिक सत्ता के इशारे पर चलती है । यानी मीडिया हाउस का मुनाफा अपरोक्ष तौर पर उसी राजनीति से जुड़ता है, जिस राजनीतिक सत्ता पर मीडिया को बतौर चौथे खम्बे नज़र रखनी है । कोई संपादक कितनी क्रियेटिव है, उससे ज्यादा उस संपादक का महत्व है कि वह कितना मुनाफा बाजार से बटोर सकता है। और मुनाफा बटोरने में राजनीतिक सत्ता की कितनी चलती है या सत्ता जिसके करीब होती है उसके अनुरुप मुनाफा कैसे हो जाता है यह किसी भी राज्य या केन्द्र में सरकारो के आने जाने से ठीक पहले बाजार के रुख से समझा जा सकता है। बाजार कितना भी खुला हो और अंबानी से लेकर टाटा-बिरला तक आर्थिक सुधार के बाद जितना भी खुली अर्थव्यवनस्था में व्यवसाय अनुकूल व्यवस्था की बात कहे , लेकिन बड़ा सच अभी भी यही है कि जिसके साथ सत्ता खड़ी है वह सबसे ज्यादा मुनाफा बना सकता है और अपने पैर फैला सकता है। कमोवेश यही हालत मीडिया की भी की गयी है। लेकिन न्यूज चैनलों की लकीर दूसरे धंधों से कुछ अलग है। यहां प्रोडक्ट उसी आम-जन को तय करना होता है जो राजनीतिक सत्ता के उलट-फेर का माद्दा भी रखती है। इसलिये राजनीति सत्ता ने मीडिया हाउसों को अगर मुनाफे से लुभाया है तो संपादकों को पत्रकारिता से आगे राजनीति का पाठ बताने में भी गुरेज नहीं किया और उस सच को भी सामने रखा कि मीडिया हाउसों से झटके में बडा होने का एकमात्र मंत्र यही है कि राजनीति से दोस्ती करने हुये सत्ताधारियों की फेरहिस्त में शामिल हो जाइये। यह बेहद छोटी परिस्थिति है कि न्यूज चैनल राजनेताओं के साथ चुनाव में पैकेज डील कर के खबरों को छापते -दिखाते हों या राजनेता खुद ही प्रचार तत्व को खबरों में तब्दील करा कर न्यूज चैनलों को मुनाफा दिला दें। उससे आगे की फेरहिस्त में संपादक किसी राजनीतिक दल से चुनाव लड़ने के लिये टिकट अपने या अपनों के लिये मांगता है और बात आगे बढती हा तो राज्य सभा में जाने के लिेये पत्रकारिता को सौदेबाजी की भेंट चढा देता है। <br /><br />असल में सत्ता के पास न्यूज चैनलों को कटघरे में खडा करने के इतने औजार होते हैं कि संपादक तभी संपादक रह सकता है जब पत्रकारिता को सत्ता से बडी सत्ता बना ले। लेकिन न्यूज चैनलों के मद्देनजर गोद से ज्यादा बडा सवाल कोख का हो गया है । क्योंकि यहां यह सवाल छोटा है कि ममता बनर्जी को सीपीएम प्रभावित न्यूज चैनल बर्दाश्त नहीं है और सीपीएम का मानना है कि न्यूज चैनलों ने नंदीग्राम से लेकर लालगढ तक को जिस तरह उठाया, वह उनकी पार्टी के खिलाफ इसलिये गया क्योकि दिल्ली में कांग्रेस की सत्ता है और राष्ट्रीय न्यूज चैनल कांग्रेस से प्रभावित होते हैं। बड़ा सवाल सरकार ही खड़ा कर रही है । मनमोहन सरकार अब यह कहने से नहीं चूकती कि न्यूज चैनल अब कोई ऐरा-गैरा नत्थु खैरा नहीं निकाल पायेंगे । लाइसेंस बांटने पर नकेल कसी जायेगी। यानी न्यूज चैनलों में राजनीति की दखल का यह एहसास पहली बार कुछ इस तरह सामने आ रहा है मसलन पत्रकारों के होने या ना होने का कोई मतलब नहीं है। और राजनीति की सुविधा-असुविधा से लेकर सही पत्रकारिता का समूचा ज्ञान भी राजनीति को ही है। और राजनीतिक सत्ता के आगे पत्रकार या पत्रकारिता पसंगा भर भी नहीं है। <br /><br />असल में इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि तकनीकी विस्तार ने मीडिया को जो विस्तार दिया है उतना विस्तार पत्रकारों का नहीं हुआ है । और मीडिया का यही तकनीकी विस्तार ही असल में पत्रकारिता भी है और राजनीति को प्रभावित करने वाला चौथा खम्भा भी है । कह सकते है कि चौथे खम्भे की परिभाषा में पत्रकार या पत्रकारिता के मायने ही कोई मायने नहीं रखते है। लेकिन बिगड़े न्यूज चैनलों को सुधारने की जो भी बात राजनीति करती है, उसमें राजनीतिक धंधे के तहत न्यूज चैनल कैसे चलते है और चलकर सफल होने वाले न्यूज चैनल इस धंधे को बरकरार रखने में ही जुटे रहते है, समझना यह ज्यादा जरुरी है। <br /><br /><br />किसी भी राष्ट्रीय न्यूज चैनल को शुरु करने के लिये चालीस से पचास करोड़ से ज्यादा नहीं चाहिये। और फैलते बाजारवाद में विज्ञापन से कोई भी न्यूज चैनल साल में औसतन 20-25 करोड आसानी से कमा सकता है। जो न्यूज चैनल टॉप पर होगा उसकी सालाना कमाई सौ करोड पार होती है। मंदी में भी यह कमाइ सौ करोड से कम नही हुई। जाहिर है न्यूज चैनल चलाने के लिये कागज पर हर न्यूज चैनल वाले के लिय न्यूज चैनल का धंधा मुनाफे वाला है। क्योंकि एक साथ छह करोड घरों में कोई अखबार पहुंच नही सकता। किसी राजनेता की सार्वजनिक सभा में लोग जुट नही सकते लेकिन कोई बड़ी खबर अगर ब्रेक हो तो इतनी बडी तादाद में एक साथ लोग खबरो को देख सुन सकते हैं। जाहिर है बीते एक दशक के दौर में न्यूज चैनलों ने जो उडान भरी उसने उस राजनीतिक सत्ता की जड़े भी हिलायी जो बिना सरोकार देश को चलाने में गर्व महसूस करते। लेकिन राजनीतिक सत्ता के सामने न्यूज चैनलों की क्या औकात। इसलिये न्यूज चैनलों को कोख में ही राजनीति ने बांधने का फार्मूला अपनाया। चैनलों को दिखाने के लिये को केबल नेटवर्क है, उसपर राजनीति ने खुद को काबिज कर एक नया पिंजरा बनाया, जिसमें न्यूज चैनलों को कैद कर दिया । किसी भी राष्ट्रीय न्यूज चैनल को केबल से देश भर में जोडने के लिये सालाना 35 से 40 करोड रुपये लुटाने की ताकत चैनल के पास होनी चाहिये तभी कोई नया चैनल आ सकता है। क्योंकि हर राज्य में केबल नेटवर्क से तभी कोई चैनल जुड़ सकता है, जब वह फीस चुकता कर दे । यह रकम सफेद हो नहीं सकती क्योंकि इसका बंटवारा जिस राजनीति को प्रभावित करता है, वह राजनीतिक दल नही सत्ता देखती है और वह किसी की भी हो सकती है । सबसे ज्यादा फीस महाराष्ट्र में 8 करोड़ की है, फिर गुजरात के लिये 5 करोड़ तक देने ही होगे। बिहार-उत्तरप्रदेश-झरखंड-उत्तराखंड में मिलाकर 3 से 4 करोड में सालाना केबल नेटवर्क दिखाता है। मजेदार तथ्य यह है कि केबल नेटवर्क को ही चैनलों की टीआरपी से जोड़ा जाता है और टीआरपी के आधार पर ही चैनलों को विज्ञापन मिलता है । यहीं से ब्रांड और धंधे का खेल शुरु होता है । टीआरपी और विज्ञापन को इस तरह जोड़ा गया है कि जो केबल नेटवर्क में करोडो लुटा सकता है वही विज्ञापन के जरीये करोड़ों कमा सकता है। करोड़ों के वारे न्यारे का यह खेल ही उपभोक्ताओं के लिये एक ऐसा ब्रांड बनाता है, जिसमें किसी भी प्रोडक्ट की कोई भी कीमत देने के लिये एक तबका एक क्लास के तौर पर खड़ा हो जाता है। <br /><br />आप कह सकते है कि इस क्लास में राजनेता और सत्ता से सटे पत्रकारो की भागेदारी बराबर की होती है क्योकि यह गठजोड़ संसदीय राजनीति तले लोकतंत्र का गीत गाता भी है और लोकतंत्र को बाजार के आइने में देखने-दिखाने को मजबूर करता भी है । लेकिन पत्रकारिता को कोख में रखने की राजनीति भी यहीं से शुरु होती है । कोई पत्रकार न्यूज चैनल ला तो सकता है लेकिन उसे केबल नेटवर्क के जरीये दिखाने के लिये फिर उसी राजनीति के सामने नतमस्तक होना पड़ता है, जिसपर नजर रखने के ख्याल से न्यूज चैनल का जन्म होता है। कमोवेश हर राज्य में सत्ताधारी राजनीतिक दल के बडे नेताओं ने ही केबल पर कब्जा कर लिया है । यानी जो राजनीति पहले न्यूज चैनलों के मालिक या संपादको से गुहार लगाती ती कि उनके खिलाफ की खबरों को ना दिखाया जाये अब वही राजनीति सीधे कहने से नहीं चूकती- आपको जो खबरे दिखानी हो दिखाइये लेकिन वह हमारे राज्य में नहीं दिखेंगी क्येकि केबल पर आपका चैनल हम आने ही नहीं देंगे। यानी केबल नेटवर्क पर सत्ता का कब्जा राजनीति का नया मंत्र है। इसका शुरुआती प्रयोग अगर छत्तीसगढ में अजित जोगी ने किया तो ताजा प्रयोग वाय एस आर रेड्डी के बेटे जगन ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने के लिये किया । आंध्र में केबल नेटवर्क पर जगन का ही कब्जा है। छत्तीसगढ में अब रमन सिंह का कब्जा है । पंजाब में बादल परिवार का कब्जा है। महाराष्ट् में एनसीपी-काग्रेस और शिवसेना के केबल नेटवर्क युद्द में राज ठाकरे ने सेंघ लगाना शुर कर दिया है । तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार की ही न्यूज चैनलों को दिखाने ना दिखवाने की तूती बोलती है। गुजरात में मोदी की हरी झंडी के बगैर मुश्किल है कि कोई चैनल स्मूथली दिखायी दे। बंगाल में वामपंथियों को अभी तक अपने कैडर पर भरोसा था लेकिन ममता के तेवरों ने सीपीएम को जिस तरह चुनौती दी है, उसमें केबल पर कब्जे की जगह कैबल अब ममता और सीपीएम को लेकर कैडर की तर्ज पर बंट जरुर गया है। <br /><br />इन हालात में न्यूज चैनल के सामने गाना-बजाना दिखाना या कहे खबरों से हटकर कुछ भी दिखाना ढाल भी है और मुनाफा बनाना भी। यह ठीक उसी तरह है जैसे सिनेमा देखने के लिये अब सौ रुपये जेब में होने चाहिये। यह बहुसंख्यक तबके के पास होते नहीं है, इसलिये पाइरेटेड का धंधा फलता फूलता है। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में सिनेमा की हत्या भी हुई। सिनेमा अब उसी तबके के लिये बनने लगा, जो दो घंटे में मनोरंजन की नयी व्याख्या करता करता है। ऐसे में सिनेमा भी सरोकार पैदा नहीं करता। उसी तरह खबरें भी सरोकार की भाषा नहीं समझती क्योंकि उसका मुनाफा जनता से नही सत्ता से जोड़ दिया गया है और इस दौड में डीटीएच कोई मायने नहीं रखता। क्योंकि डीटीएच से न्यूज चैनल घरों में दिखायी जरुर देता है मगर विज्ञापन की वह पूंजी नही जुगाड़ी जा सकती जो केबल के जरिए टीआरपी से होती हुई न्यूज चैनलों तक पहुंचती है। <br /><br />किसी भी नये चैनल की मुश्किल यही होती है कि वह खुद को केबल और टीआरपी के बीच फिट कैसे करें । किस राज्य की किस सत्ता और किस राजनेता के जरीये न्यूज चैनल के मुनाफे की अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी करे । जबकि पुराने चैनलो की कैबल कनेक्टिविटी और टीआरपी में कभी बड़ा उलटफेर या परिवर्तन चार हफ्तों तक भी नहीं टिकता है, चाहे कोई न्यूज चैनल कुछ भी दिखाये । यह यथावत स्थिति हर किसी को बाजारवाद में बंदरबांट के लिये कथित स्पर्धा से जोड़े रखते हुये सभी की महत्ता बरकरार रखती है। भाजपा ने एनडीए की सरकार के दौर में इस गोरखधंधे को तोड़ने के लिये कैस लाने की सोची थी। लेकिन उसी दौर में जब यह पंडारा बाक्स खुला कि करोड़ों के वारे न्यारे से लेकर राजनीति के अनुकुल न्यूज चैनलो पर इसी माध्यम से नकेल कसी जा सकती है तो धीरे धीरे सबकुछ ठंडे बस्ते में डाला गया । लेकिन मुनाफे के धंधे को बरकरार रखने के बाजारवाद में पत्रकार किसी खूंटे से बांधा जाये यह सवाल सबसे बड़ा हो गया है । पत्रकार न्यूज चैनल के लिये मुनाफा जुगाड़ने से सीधे जुड़ जाये, पत्रकार राजनीतिक सत्ता के इशारे पर काम करने लगे , पत्रकार लोकसभा के टिकट लेने-दिलवाने से लेकर राज्यसभा तक पहुंचने के जुगाड़ को पत्रकारिता का आखिरी मिशन मान लें या फिर पत्रकार सत्ता की उस व्यवस्था के आगे घुटने टेक दें, जहां सत्ता परिवर्तन भी एक तानाशाह से दूसरे तानाशाह की ओर जाते दिखे और पत्रकारिता का मतलब इस सत्ता परिवर्तन में ही क्राति की लहर दिखला दें। इस दौर में विकल्प की पत्रकारिता करने की सोचना सबसे बड़ा अपराध तो माना ही जायेगा जैसे आज अधिकतर न्यूज चैनलो में यह कह कर ठहाका लगाया जाता है कि अरे यह तो पत्रकार है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-22146514047190619032009-10-23T14:36:00.001+05:302009-10-23T14:38:16.864+05:30आतंरिक सुरक्षा को खतरे का मतलब ?माओवाद के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई की बात गृह मंत्रालय की रिपोर्ट कर रही है और प्रधानमंत्री माओवाद को देश के आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा बता रहे हैं। सरकार के लिये आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़े खतरे का मतलब देश के बीस से तीस करोड़ लोगों के लिये खींची जाने वाली विकास की लकीर के रास्ते में रुकावट का आना है। जाहिर है ऐसे में सत्तर करोड़ लोगों की न्यूनतम जरुरत तो दूर सत्तर करोड लोग भी सरकार के लिये कोई मायने नहीं रखते इसका अंदाज देश के उन्ही राज्यों के भीतर की तस्वीर को देख समझा जा सकता है, जहां ग्रामीण-आदिवासियों की बहुतायत है। अभी भी गांव विकास के घेरे में आकर शहर नहीं बने है। जहां अभी भी समाज बसता है , उपभोक्ता और बाजार नहीं पहुचा है । इसलिये साफ पानी, प्राथमिक स्कूल, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र से ज्यादा जरुरी गांव को शहर बनाना, शहर में बाजार लाना और ग्रामीण समाज को खत्म कर बाजार के लिये उपभोक्ताओ की कतार खडी कर देना।<br /><br />हकीकत में रायपुर,रांची और भुवनेश्वर से आगे छत्तीसगढ, झारखंड और उड़ीसा की अंदरुनी तस्वीर कितनी भयावह है इसका अंदाज इसी बात से लग सकता है कि जिस आर्थिक विकास की स्वर्णिम समझ को बतौर वित्त मंत्री मनमोहन सिंह से लेकर पी चिंदबरम 1991 से 2009 में खींच रहे हैं, उसमें यह तीनो राज्य अव्वल दर्जे के पिछड़े हैं। यहां बाजार पर टिका समाज महज नौ फीसदी है। और सरकार पर टिका है 15 से 20 बीस फीसदी समाज बाकि ना तो बाजार पर टिका है ना ही सरकार पर । यानी सरकार की नीतियां भी ऐसी नहीं है कि वह सत्तर फीसदी लोगों को इसका एहसास कराये की सरकार है जो आपका हित-अहित देखती है ।<br /><br />यह बात वित्त मंत्री से गृह मंत्री बने चिदबंरम तो कह नहीं सकते लेकिन राहुल गांधी समझ रहे है कि उन्हें असल राजनीतिक पारी शुरु करने से पहले उस लकीर पर सवालिया निशान उठाना ही होगा जो आंतरिक सुरक्षा को लेकर सरकार के माथे पर खींची जा रही है । राहुल बेखौफ हो कर कह सकते हैं कि माओवाद प्रभावित इलाको में सरकार बहुसख्यक आम ग्रामीण तक पहुंचती ही नहीं है । राज्यों की राजधानी में ही या फिर शहरों में ही सरकारी नीतिया भ्रष्ट्राचार तले दम तोड़ देती है या फिर जमीनी सच से दूर नीतियों की ऐसी लकीर खींची जाती है जो गांव में पहुंचते पहुंचते एक नये अर्थ में दिखायी देती है। मसलन झारखंड के खूंटी में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र नहीं है लेकिन वहां दवाई फैक्टरी को जगह दे दी गयी। बस्तर में पीने का पानी नहीं है लेकिन वहा बोतल बंद पानी की फैक्ट्री खोली जा सकती है। और बालासोर में बारुद और कैमिकल से लोग मर रहे है लेकिन वहां विशेष आर्थिक क्षेत्र की बात कही जा सकती है।<br /><br />हालांकि राहुल गांधी राजनीति के मर्म को समझते हैं इसलिये वह केन्द्र सरकार को नहीं राज्यों की सरकारों को इसके लिये घेरते है । लेकिन फिर सवाल शुरु होता है कि जो आंखें राहुल गांधी के पास है वह मनमोहन सिंह के पास क्यों नहीं है । यह कैसे संभव है कि राहुल की राजनीतिक जमीन उस उपभोक्ता समाज से हटकर होगी, जिसे अथक मेहनत के साथ मनमोहन सिंह ने बनाया है, या फिर राहुल कोई ऐसी राजनीतिक लकीर खिंचना चाहते है, जिसके बाद केन्द्र और हर राज्य में सिर्फ कांग्रेस की ही सरकार हो । और उस स्थिति में राहुल राज हो तो कोई दूसरा राहुल देशाटन कर देश की उथली और पोपली जमीन को बता कर लोगो की भावनाओं से जुड़ कर उस दौर में राहुल को ही मनमोहन सरीखा ना बना दें।<br /><br />असल में माओवादी प्रभावित रेड कारीडोर का बड़ा सच यही है कि वहा सेना या देश तो छोड़िये राज्यो की पुलिस की तुलना में भी माओवादियो की संख्या एक फीसदी से भी कम है । अगर छत्तीसगढ, झारखंड और उड़ीसा की पुलिस संख्या दो से ढाई लाख है तो इन क्षेत्रों में हथियारबंद माओवादी ढाई से तीन हजार है। इसलिये सवाल माओवाद को नेस्तानाबूद करने के लिये किसी ठोस रणनीति का नहीं है । रणनीति का सवाल यहां के लोगों से जुड़ा है, जिनकी तादाद के आगे ढाई लाख सुरक्षाकर्मी पंसगा भर है। इन क्षेत्रों में उन ग्रामीण-आदिवासियो की तादाद तीन से चार करोड की है जिनके लिये कोई नीतिया सरकार के पास नहीं है और जो नीतिया सरकार के होने का एहसास कराती है, वह सुरक्षाकर्मियो की बंदूक या डंडा है । उनसे कौन कैसे लड़ सकता है, खासकर जब सवाल विकास की अंधी लकीर खिंचने का हो। इन इलाको में ना तो जवाहर रोजगार योजना पहुंचा। ना इंदिरा आवास योजना ओर ना ही नरेगा। जंगल जीवन है और जीवन जंगल है। ऐसे में अगर जंगल और प्रकृतिक संसधानों पर किसी की नजर हो तो करोड़ों लोगो का क्या होगा यह सवाल आंतरिक सुरक्षा का है।<br /><br />लेकिन आंतरिक सुरक्षा को लेकर देखने का नजरिया कैसे बदलता है, यह गृह मंत्रालय की ही उस रिपोर्ट से समझा जा सकता है जिसमें विकास को माओवादी रोक रहे है । इसमें दो मत नही कि सरकारी संपत्ति को सबसे ज्यादा सीधा नुकसान माओवादी ने सीदे तौर पर किया है । झारखंड में चतरा से लेकर डालटेनगंज जाने के दो रास्ते है । एक लातेहार हो कर और दूसरा पांकी होकर । अगर पांकी होकर डालटेनगंज जाया जाये तो रास्ते में हर सरकारी इमारत डायनामाइट से उडायी हुई मिलेगी । और वहां किसी भी ग्रामीण आदिवासी से पूछने पर सीधा जबाब भी मिलता है कि यह इमारते माओवादियों ने उड़ायी हैं ।<br /><br />लेकिन इस इलाके का दूसरा सच भी है । इस रास्ते में प्रकृति पूरी छटा के साथ रहती है। प्राकृतिक संसाधनो की भरमार आपको रास्ते भर मिलेंगे। जंगल गांव रास्ते में मिलेंगे । पलामू को बांटती कोयलकारो नदी आपको यहीं मिलेगी। रास्ते में करीब तीस-चालीस गांव के डेढ-दो लाख ग्रामीणों का जीवन पूरी तरह जंगल पर ही कैसे निर्भर है, इस हकीकत को कोई भी नंगी आंखों से देख सकता है । सरकार की कोई नीति अगर यहा पहुंचती है तो सारे गांव वाले सहम जाते हैं क्योकि हर नीति का मतलब उनकी जिन्दगी के खत्म होने के साथ जुड़ा होता है । सरकार चाहते है नदी पर पुल बन जाये। सरकार चाहती है पलामू के जंगल क्षेत्र को पर्यटन के लिये विकसित किया जाये। सरकार चाहती है यहा के अभ्रख-बाक्साइट को यही के यही सफाय़ी कर दुनिया भर के बाजार में धाक जमा ली जाये क्योकि यहा का अभ्रख दुनिया का सबसे बेहतरीन अभ्रख है । इसके लिये खनन करना चाहती है । छह फैक्ट्रियां लगाना चाहती है। करीब 80 किलोमीटर की इस पट्टी पर एक भी स्कूल, अस्पताल या जंगल गांवों में जिन्दगी चलाने में मदद के लिये सरकार की कोई योजना नहीं पहुंची है ।<br /><br />हां, सरकारी बाबू है उनके लिये वहीं इमारते थीं, जहा से दफ्तर या बाबूओं के रहने के लिये खड़ी की गयी थी। जिन्हे माओवादियो ने उडा दिया और क्षेत्र के आदिवासी सरकार के आतंकवाद निरोधक कानून के दायरे में आने से बिना डरे बताते है कि उन्होंने इस इमारत की इंटे अपनी झोपडियो में लगा ली है। यहां एक हजार स्कावयर फुट की जमीन पर पक्का घर बनाने की कीमत महज बारह से पन्द्रह हजार है। वहीं इतनी ही जमीन में जो आदिवासी अपना घर बांस और जंगली साजो समान से बनाते है उसमें कुल खर्चा 700-800 रुपये का आता है । क्योंकि जंगल से बांस लेने पर क्षेत्र का बाबू तीन सौ- चार सौ रुपये वसूलता लेता है। बाकी खपरैल में खर्च होता है । तो इस क्षेत्र में अब बाबू की नही माओवादियो की चलती है तो घर का खर्च घट कर आधा हो गया है। वहीं बाबू के लिये पक्का मकान बनाने में जो मजदूरी यहां के ग्रामीण आदिवासियों ने नब्बे के दशक में की, उस वक्त उन्हें दिनभर काम करने के 12 से 15 रुपये मिलते थे, जो अब किसी सरकारी काम को करने में 18 से 20 रुपये तक पहुंचे हैं।<br /><br />लेकिन आंतरिक सुरक्षा का खतरा इससे आगे का है । क्योंकि छत्तीसगढ,झारखंड और उड़ीसा में जो खनिज मौजूद है अगर उसकी कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजर से जोड़ी जाये तो तीनों राज्यों का वर्तमान बजट और पंचवर्षिय योजना के धन से औसतन दस गुना ज्यादा का है । तो क्या यह माना जाये कि असल में आंतरिक सुरक्षा की चुनौती देशी जमीन की पूंजी की बोली अंतर्रष्ट्रीय बाजार में लगवाने की है । यहा की अर्थव्यवस्था का गणित कितना घालमेल वाला है इसका अंदाज कई स्तरों पर लग सकता है । जैसे माओवादियों से निपटने के लिये सुरक्षा बंदोबस्त पर यहा कश्मीर के बाद सबसे ज्या खर्च किया जा रहा है। हर दिन का सरकारी खर्चा जो सुरक्षा के आधुनिकीकरण से लेकर खाने पीने तक पर होता है वह तीनों राज्यों के माओवाद प्रभावित पैंतालिस जिलों के महिने के बजट पर भारी पडता है। पुलिस, सडक,इमारत,हथियार और सूचनातंत्र पर पांच हजार करोड खर्च सितंबर से दिसंबर तक हो जायेंगे।<br /><br />इतने धन में चार करोड़ ग्रामीण आदिवासियो का जीवन कई पुश्तो तक ना सिर्फ संभल सकता है बल्कि माओवाद को यही आदिवासी भगा देगे अगर यह माना जाये कि माओवादी यहा कब्जा किये बैठे हैं तो। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि चार महिनो के दौरान माओवादियो के खिलाफ जिस निर्णायक लड़ाई का अंदेशा सरकार दे रही है, उस पर कुल खर्चा अगर बीस से पच्चीस हजार करोड़ तक सीधे होगा तो अपरोक्ष तौर पर इस क्षेत्र में सरकार खनन के जरीये पचास लाख करोड़ से ज्यादा की खनिज को अपने हाथ में भी ले सकती है। जिसका मूल्य अंतरराष्ट्रीय बाजार में कितना होगा यह फिलहाल सोचा जा सकता है क्योकि मंदी की गिरफ्त में आये अमेरिकी अर्थशाश्त्रियो की माने तो भारत ही तीसरी दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण देश है जो अपने खनिज संसाधनों से एक बार फिर उस बाजार को जगा सकता है जो फिलहाल सोया हुआ है।<br /><br />चूंकि भारत और अंतरराष्ष्ट्रीय बाजार के बीच खनिज संसाधनो को लेकर करीब बीस गुने का अंतर है । यानी भारत में मजदूरी और खनिज दोनो की कीमत विश्व बाजार की तुलना में बीस गुना कम है । वहीं छत्तीसगढ , झारखंड और उड़ीसा ऐसे राज्य है जहां मजदूरी और खनिज भारत के भीतर ही ना सिरफ सबसे सस्ता है बल्कि महानगरों की तुलना में करीब बीस गुना से ज्यादा यह सस्ता है । ऐसे में विश्व बाजार अगर भारत के जरीये जागता है तो यह देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की सबसे बडी वित्तीय जीत हो सकती है जिन्हे आर्थिक सुधार पर गर्व है और बीते दो दशको में देश के भीतर सबसे बडी क्रांति नई अर्थव्यवस्था का आगमन ही है, जिससे मंदी के दौर में भी भारतीय विकास दर समूची दुनिया में श्रेष्ठ है। तो सवाल है इस अर्थव्यवस्था से छत्तीसगढ,झारखंड और उड़ीसा कैसे वंचित रह सकता है, जो इसे रोकेगा वह आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा तो होगा ही।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-23679924462653185982009-10-17T12:00:00.001+05:302009-10-17T12:02:11.911+05:30इस रात की सुबह है....बस पत्रकार रहिये और एकजुट होइयेसवाल पत्रकारिता और पत्रकार का था और प्रतिक्रिया में मीडिया संस्थानों पर बात होने लगी। आलोक नंदन जी, आपसे यही आग्रह है कि एक बार पत्रकार हो जाइये तो समझ जायेंगे कि खबरों को पकड़ने की कुलबुलाहट क्या होती है? सवाल ममता बनर्जी का नहीं है। सवाल है उस सत्ता का जिसे ममता चुनौती दे भी रही है और खुद भी उसी सत्ता सरीखा व्यवहार करने लगी हैं। यहां ममता के बदले कोई और होता तो भी किसी पत्रकार के लिये फर्क नहीं पड़ता। और जहां तक रेप शब्द में आपको फिल्मी तत्व दिख रहा है तो यह आपका मानसिक दिवालियापन है। आपको एक बार शोमा और कोमलिका से बात करनी चाहिये......कि हकीकत में और क्या क्या कहा गया...और उन पर भरोसा करना तो सीखना ही होगा।<br /><br />जहां तक व्यक्तिगत सीमा का सवाल है तो मुझे नहीं लगता कि किसी पत्रकार के लिये कोई खबर पकड़ने में कोई सीमा होती है। यहां महिला-पुरुष का अंतर भी नहीं करना चाहिये ...पत्रकार पत्रकार होता है । जो बात प्रभाकर मणि तिवारी जी कहते कहते रुक रहे हैं....असल में उस सवाल को बड़े कैनवास पर उठाने की जरुरत है। कहीं मीडिया को पार्टियो में बांट कर पत्रकारिता पर अंकुश लगाने का खेल तो नहीं हो रहा है। तिवारी जी मीडिया सिर्फ बंगाल में ही नहीं बंटी है बल्कि दिल्ली और मुंबई में भी बंटी है....लेकिन वह बंटना संस्थानो या कहें मीडिया हाउसों की जरुरत है..कोई भी दिल्ली के किसी भी राष्ट्रीय न्यूज चैनलों को देखते हुये कह सकता है कि फलां न्यूज चैनल फलां राजनीतिक दल के लिये काम कर रहा है।<br /><br />यह बंटना अंग्रेजी-हिन्दी दोनों में है। सवाल है कि पत्रकार भी बंटने लगे हैं जो पत्रकारिता के लिये खतरा है। लेकिन आपको यह मानना होगा कि कि न्यूज चैनलों से ज्यादा क्रेडिबिलिटी या विशवसनीयता कुछ एक पत्रकारों की है । ओर यह पत्रकार किसी भी न्यूज चैनलों की जरुरत हैं। मुद्दा यही है कि पत्रकार रहकर क्या किसी न्यूज चैनल में काम नहीं किया जा सकता है। मुझे लगता है कि किया जा सकता है....हां, मुश्किलें आयेंगी जरुर और यह भी तय हे कि आपके साथ पद का नहीं पत्रकार होने का तमगा जुड़ता चले जाये। लेकिन यह कह बचना कि फलां सीपीएम का है और फलां कांग्रेस या बीजेपी का है तो उसमें काम करने वाले सभी पत्रकार उसी सोच में ढले है...यह कहना बेमानी होगी।<br /><br />यहां बात शोमा दास और कोमलिका से आगे निकल रही है। राजनीतिक दल और राजनेताओं के अपने अपने तरीके होते है खुद के फ्रस्ट्रेशन को लेकर । नंदीग्राम के दौर में मैंने कानू सन्याल का इंटरव्यू दिखलाया और वामपंथी सोच के दिवालियेपन पर हमला किया तो सीपीएम माओवादी प्रभावित राजनीति को बल देने का आरोप पत्रकारो पर खुल्लमखुल्ला लगाने लगी और जब सिंगूर को लेकर ममता के विकास पर सवाल लगे तो वह बीजेपी के हाथो बिके होने का आरोप पत्रकारो पर लगाने लगी।<br /><br />एनडीटीवी की मोनादीपा से ममता ने कहा कि टाटा ने किसे कितने पैसे दिये हैं। यह अलग बात है कि जब सिंगूर से टाटा ने बोरिया बस्ता समेटा तो एनडीटीवी पर मोनादीपा की रिपोर्ट देखकर ममता खुश भी हुई होगी। लेकिन यहां सवाल उस राजनीति की है जो पहले संस्थानो को मुनाफे या धंधे के आधार पर बांटती है और उसके बाद उसमें काम करने वाला पत्रकार अपनी सारी क्रियटीविटी इसी में लगाना चाहता है कि वह भी संस्थान या मालिक से साथ खड़ा है । और अगर उसने सस्थान की लीक से हटकर स्टोरी कर दी तो या तो उसकी नौकरी चली जायेगी या फिर काम करने को नहीं मिलेगा। मुझे याद नहीं आता कि किसी पत्रकार को किसी संस्थान से बीते एक दशक में जब से न्यूज चैनल आये है , इसलिये निकाल दिया गया हो कि उसने मीडिया हाउस के राजनीतिक लाभ वाली सोच के खिलाफ स्टोरी की हो । जबकि राजनीतिक तौर पर जुडे मीडिया हाउसों में उनकी राजनीति सोच के उलट खबर करने वाले पत्रकारों को मैंने आगे बढ़ते और ज्यादा मान्यता पाते अक्सर देखा है ।<br /><br />हां, दिनेश राय द्बिवेदी ने जो टिप्पणी कि की जो सत्ता में होता है वही तानाशाह हो जाता है.... इस दौर का यह सच जरुर है इसलिये ममता को अगर लग रहा है कि बंगाल की कुर्सी उस मिल सकती है तो वह भी उसी तानाशाही रुख को अख्तियार कर रही है जो सीपीएम ने कर रखी है । लेकिन इस तानाशाही में पत्रकार अगर एकजुट रहे और ना बंटे तो मुझे नहीं लगता कि सत्ता की मद किसी में इतना गुमान भर दें कि वह जो चाहे सो कहे या कर लें ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-82915927969732110952009-10-07T09:36:00.004+05:302009-10-07T11:45:15.280+05:30कहीं सावरकर की लीक पर तो नहीं हैं भागवत !<strong>भोंसले मिलिट्री स्कूल से उठते सवालों के बीच..</strong><br /><strong></strong><br />नासिक के भोंसले मिलिट्री स्कूल में घुसते ही यह एहसास किसी को भी हो सकता है कि चुनावी राजनीति से देश का भला नहीं हो सकता । चुनाव भ्रष्टाचार करने और अनुशासन तोड़ने वालों के लिये है। मिलिट्री और अनुशासन का पर्याय राजनीति हो नहीं सकती और राजनीति के लिये मिलिट्री और अनुशासन महज एक सुविधा का तंत्र है। यह विचार स्कूल की किसी दीवार पर नहीं लिखे बल्कि राजनीति और मिलिट्री को लेकर यह परिभाषा इसी स्कूल के तीसरे दर्जै के एक छात्र की है। सुबह दस बजे स्कूल की एसेम्बली खत्म होने के बाद स्कूल के मैदान से भागते दौड़ते बच्चों का झुंड जब कैरिडोर में आया तो एक तरफ सरस्वती की प्रतिमा और दीवार की दूसरी तरफ डा. बी.एस.मुंजे की तस्वीर को प्रणाम कर ही हर छात्र को क्लास में जाते हुये देखा। सरस्वती की प्रतिमा नीचे थी तो छोटे छात्र छू कर प्रणाम कर रहे थे तो डा. मुंजे की तस्वीर दीवार पर खासी ऊंची थी तो उन्हें देख कर हाथ जोड़कर छोटे-छोटे छात्र क्लास रुम की तरफ भाग रहे थे।<br /><br />उन्हीं भागते दौड़ते छात्र में तीसरी कक्षा के एक छात्र ने जब रुककर पूछा-आप टेलीविजन पर आते हो न ! और बातचीत में मैने पूछा अब महाराष्ट्र में चुनाव होने वाले है , आपको पता है। इस पर राजनीति को लेकर छात्र की उक्त सटीक टिप्पणी ने मुझे एक साथ कई झटके दे दिये। सबसे पहले तो यही समझा की मिलिट्री स्कूल की ट्रेनिग राजनीति को खारिज करती है। फिर जेहन में आया कि यह वही मिलिट्री स्कूल है, जिसका नाम मालेगांव और नांदेड ब्लास्ट में सामने आया। कट्टर हिन्दुवादी संगठन अभिनव भारत से लेकर आरोपी लें. कर्नल प्रसाद पुरोहित के तार भोंसले मिलिट्री स्कूल से ही शुरुआती दौर में जोड़े गये थे । फिर नासिक के सामाजिक-आर्थिक विकास में राजनीति के हस्तक्षेप और जाति से ज्यादा धर्म के आधार पर टकराव और धर्म की धाराओं को लेकर भी टकराव को इसी नासिक ने राजनीतिक तौर पर भोगा है, यह भी समझा ।<br /><br />स्कूल की दीवार पर डां मुंजे की तस्वीर के नीचे धर्मवीर डां बीएसमुंजे लिखे था । धर्मवीर की पदवी आरएसएस ने डां मुंजे को जीते जी दे दी थी । लेकिन संघ के मुखिया गुरु गोलवरकर के दौर में लिखा जाना शुरु हुआ। असल में डां मुंजे वही शख्स हैं, जिन्होंने हेडगेवार के साथ मिलकर आरएसएस की नींव डाली थी। लेकिन हेडगेवार से ज्यादा डां मुंजे सावरकर से प्रभावित थे। सावरकर का घर भी नासिक शहर से सिर्फ 12 किलोमीटर दूर भगूर में है । इसलिये नासिक सावरकर का पहली प्रयोगशाला रही। लेकिन सावरकर जिस तरह सीधे राजनीति के जरिए हिन्दुत्व और हिन्दू राष्ट्र का सवाल खड़े करते रहे डां मुंजे उससे थोड़े हटकर थे । वह राजनीति को महज रणनीति भर ही मानते और हिन्दू राष्ट्र के लिये हर तरह से अनुशासनबद्ध समाज की परिकल्पना उनके जेहन में थी। इसीलिये आरएसएस बनाने के बाद अगर हेडगेवार देश के भीतर संघ की जड़ों को मजबूत करने में लगे तो सावरकर ने उस दौर में दुनिया के कई देशो समेत इटली की यात्रा कर यह भी देखने का प्रयास किया की मुसोलेनी अपनी सेना को वैचारिक तौर पर राजनीति से आगे कैसे ले जाते हैं।<br /><br />माना जाता है कि मुसोलेनी के वैचारिक प्रयोग से प्रभावित होकर ही डां मुंजे ने 1937 में नासिक में भोंसले मिलिट्री स्कूल की स्थापना की। भगूर में सावरकर की लीक पर चलने वालों की मानें तो आज भी सब यही मानते हैं कि मिलिट्री स्कूल का सपना सावरकर का था। और हेडगेवार सामाजिक शुद्दीकरण के जरिए हिन्दू राष्ट्र की ट्रेनिंग समाज को देना चाहते थे और इन दोनों के बीच पुल की तरह डां मुंजे और उनका यह मिलिट्री स्कूल था। यानी उस दौर में नासिक में यह भावना बेहद प्रबल थी कि हिन्दू महासभा के अनुकूल जब देश निर्माण का स्थिति आ जायेगी तो मिलिट्री स्कूल के जरिए वैचारिक सेना का नायाब प्रयोग भी होगा। जिसमें संघ के स्वयंसेवक सहायक की भूमिका निभायेंगे ।<br /><br />लेकिन मिलिट्री स्कूल बनने के 72 साल बाद भी नासिक की जमीन पर राजनीति के जरिए राष्ट्र निर्माण एक वीभत्स सोच है, यह तीसरे दर्जे के छात्र के कथन से ही नही उभरता बल्कि नये दौर में भी जो राजनीति पसर रही है, उसकी जमीन भी कमोवेश वैसी है। आरएसएस के स्वयंसेवकों में ठीक वैसा ही अंतर्द्वन्द 2009 में भी है जो 1937 में था । अभिनव भारत के गठन को लेकर पहली बैठक नासिक में ही हुई । उसमें हिन्दू महासभा से ज्यादा संघ के स्वयंसेवक इकठ्ठा हुये । नादेंड ब्लास्ट को लेकर जिन दस लोगों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गयी, उसमें आठ के संबंध संघ के संगठन से ही है। लक्ष्मण राजकोंडवार संघ का कार्यकर्ता माना जाता है। उनके दोनों बेटे नरेश और हिमांशु जो बम बनाते वक्त मारे गये, वीएचपी से जुडे थे। महेश पांडे और गुन्नीराज ठाकुर बंजरंग दल से जुड़े थे । मालेगांव और नांदेड ब्लास्ट में आरोपी लें कर्नल प्रसाद पुरोहित को भी बनाया गया । प्रज्ञा ठाकुर को भी शिकंजे में लिया गया। यानी साधु-संत से लेकर संघ और सेना। इसी दौर में भोंसले मिलिट्री स्कूल की भूमिका को लेकर राजनीति में सवाल उठे। लेकिन मालेगांव विस्फोट के बाद नासिक के सामाजिक मिजाज में बडा अंतर भी आ गया । नासिक जिले में ही मालेगांव भी आता है । लेकिन दोनों दो अलग अलग संसदीय सीट भी है । दोनों ही सीटों पर वोट बैंक का ध्रुवीकरण जिस तरीके से होता रहा है, उसमें हिन्दुत्व शैली का राष्ट्रवाद और मुस्लिम तुष्टीकरण का सेक्यूलरवाद कुछ इस तरह घुमड़ता है कि जीत-हार में वोटों का अंतर कभी ज्यादा नहीं हो पाता। यहां सिर्फ वोट हिन्दु और मुस्लिम के नाम पर ही नहीं बंटता बल्कि अभी भी हिन्दुत्व की कौन सी शैली सही है, उसको लेकर बहस होती है।<br /><br />लेकिन यह बहस हिन्दुत्व को लेकर एक बार फिर आजादी से पहले की स्थिति को जिला रही है, यह सावरकर और गोलवरकर के जरिए अभी के सरसंघचालक को घेर रही है। अचानक ऐसी दो किताबे नासिक में दिखायी देने लगी हैं, जिसे संघ ने खारिज कर दिया था । 1920 में सावरकर की लिखी किताब "हिन्दुत्व" अचानक दिखायी देने लगी है । इस किताब को संघ ने कभी मान्यता नहीं दी। क्योंकि हेडगेवार उस दौर में कांग्रेस से जुड़े थे और सावरकर ने किताब में साफ लिखा था कि जिनकी पुण्यभूमि भारत नहीं है, वह हिन्दुत्व के साथ नहीं चल सकते और राष्ट्रीय नहीं हो सकते। यानी हिन्दुओं को छोड़ कर हर किसी की राष्ट्रीयता पर सीधा सवाल उठाया। यह किताब नासिक में हिन्दुत्व मिजाज को अचानक भा रही है। वहीं सावरकर के बड़े भाई बाबा राव सावरकर ने भी एक किताब "वी" लिखी थी, जिसका मराठी,हिन्दी और अंग्रेजी अनुवाद और किसी ने नहीं बल्कि गुरु गोलवरकर ने किया था। गोलवलकर ने 1963 में इस किताब को यह कह कर खारिज किया कि भारतीय समाज अब नये परिवेश में है, इसलिये इस किताब के दोबारा प्रकाशन की जरुरत नही है ।<br /><br />लेकिन जबसे मोहनराव भागवत सरसंघचालक बने है और अपने पहले भाषण से उन्होंने हिन्दु राष्ट्र का नारा लगाना शुरु किया है, उसमें अचानक 46 साल बाद दुबारा यह "वी "नामक किताब भी सतह पर आ गयी है । खास बात यह हा कि "वी" नामक किताब को लेकर दोबारा वही बात कही जा रही है जो 1939 से 1963 तक कही गयी । यानी उस दौर में संघ के स्वयंसेवक मानते थे कि यह किताब गुरु गोलवरकर ने ही लिखी है। जबकि 2005 में गोलवरकर के शताब्दी समारोह में शेषाद्री ने इस किताब को गोलवरकर से अलग करते हुये किताब के मूल लेखक बाबाराव सावरकर के बारे में जानकारी दी थी। असल में मालेगांव और नादेड में हुये विस्फोट के बाद जिस तर्ज पर पुलिस प्रशासन ने कार्रवाई शुरु की और घेरे में कट्टर हिन्दुवादी संगठनों को लिया, उसमें अचानक सावरकर की सोच को संघ की धारा में लपेटकर वर्तमान राजनीति की कमजोरियो को जिस तरह उठाया जा रहा है, उसमें यह बहस भी शुरु हुई है कि भाजपा को भी भविष्य में उसी दिशा को पकड़ना होगा । यह धारा आरएसएस को भी अंदर से कैसे हिला रही है, इसका अंदाज सरसंघचालक को लेकर भी नये सवालो के जरिए उभरा है। सरसंघचालक मोहनराव भागवत छठे नहीं सातवें सरसंघचालक है। यानी पहली बार नासिक,पुणे से होते हुये नागपुर में भी डां परांजपे को याद किया जा रहा है। डां परांजपे एक साल के लिये 1930 में सरसंघचालक बने थे। उस साल डा. हेडगेवार नमक सत्याग्रह की तर्ज पर जंगल सत्याग्रह के आरोप में जेल में बंद थे। हेडगेवार के जेल में होने की वजह से डा. परांजपे को सरसंघचालक बनाया गया था । लेकिन डा. परांजपे हिन्दु महासभा के भी नेता थे और 1937 में संघ और हिन्दु महासभा में खटास इतनी बढ़ी कि इस साल हुये चुनाव में हिन्दु महासभा के खिलाफ आरएसएस ने कांग्रेस का साथ दिया। और इसी के बाद से डा. परांजपे का नाम भी संघ में हर कोई भूल गया । ले्किन 79 साल बाद संघ के भीतर ही अगर डा. पराजंपे को याद कर हिन्दुत्व की उस धारा की तर्ज पर मोहनराव भागवत को देखा जा रहा है, जो धारा सावरकर ने खींची थी तो इसका मतलब सिर्फ इतना नहीं है कि संघ बदल रहा है या फिर संघ के भीतर संघ को लेकर ही नये सवाल खड़े हो रहे हैं।<br /><br />सावरकर ने 1937 में कर्णावती अधिवेशन में पहली बार द्वि-राष्ट्र की बात कही थी और कहीं ज्यादा जोर देकर हिन्दू राष्ट्र की वकालत यह कहते हुये कही थी कि जो यहां है वह खुद को हिन्दू राष्ट्र का हिस्सा माने। अगर मोहनराव भागवत के हर सार्वजनिक भाषण को उनके सरसंघचालक बनने के बाद से सुनें तो सभी में इसी हिन्दू राष्ट्र की प्रतिध्वनि सुनायी देगी । लेकिन दशहरा के दिन अपने नागपुर भाषण में उन्होंने हिन्दू राष्ट्र शब्द का भी प्रयोग नहीं किया । असल में जो आग आरएसएस के भीतर सुलग रही है, उसकी सबसे बड़ी वजह वैचारिक और राजनीतिक तौर पर शून्यता का आ जाना है। इसलिये सवाल भोंसले मिलिट्री स्कूल से निकल रहे हैं और रास्ता भाजपा के बदले आरएसएस के जरिए देखने की कश्मकश हो रही है । मिलिट्री स्कूल के जिस कारिडोर में डा. मुंजे की तस्वीर लगी है, उसके ठीक समानांतर पांच तस्वीरे और भी है । जो इसी स्कूल के छात्र रहे है। इसमें पहली तस्वीर कांग्रेस के नेता वसंत साठे की है। उसके बाद रिटा. मेजर प्रकाश किटकुले, रिटा. लेफ्टि. जनरल वाय डी शहस्त्रबुद्दे, रिटां लेफ्टि.जनरल एस सी सरदेशपांडे और रिटां लेफ्टि. जनरल एम एल छिब्बर की है । यानी चार फौजी और एक नेता, वह भी कांग्रेसी । लेकिन भोंसले मिलिट्री स्कूल से लेकर मालेगांव तक राजनीति की जो महीन लकीर विचारधारा के आधार पर राष्ट्र की परिकल्पना किये हुये है, उसमें बंटा हुआ हर तबका इस बात पर एकमत जरुर है कि राजनीति उन्हें चला रही है। उनकी राजनीति में कोई हिस्सेदारी नहीं है। मालेगांव धमाके के बाद इलाके के तीस फीसदी मुसलमानों का अगर ध्रुवीकरण हुआ है तो खानदेशी, मराठा, दलित, माली से लेकर उत्तर भारतीयो की बड़ी तादाद का भी ध्रुवीकरण हो गया है। यानी जो ज्यादा उग्र है, उसके लिये राजनीति के रास्ते दोनों तरफ से खुले हैं। यही हाल नासिक का भी है । इसलिये सवाल सिर्फ भोंसले मिलिट्री स्कूल के तीसरी कक्षा के छात्र का नहीं है जो राजनीतिक पर टिप्पणी कर राजनीति से आगे का रास्ता चाहता है। राजनीति के पारंपरिक सारे सवाल नासिक की युवा पीढ़ी के सामने किस रुप में बेमानी है, इसका अंदाज इसी से मिल सकता है कि सावरकर के मोहल्ले का नीतिन मोरघडे बीएससी का छात्र है लेकिन वह साधु-संत से लेकर संघ-अभिनव भारत और सेना को भी एक ही तश्तरी में रखकर इतना ही कहता है कि यह सभी राजनीति के मोहरे भर हैं। इससे आगे सोच कर राजनीति को जो मोहरा बनायेगा असल बदलाव यहीं होगा। नयी परिस्थितियों में इस पूरे इलाके में यह समझ राजनीतिक तौर पर भी दलों में आयी है। इसलिये शिवसेना से आगे बढ़ते महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के उग्र तेवर युवा पीढ़ी को भा रहे हैं राजनीति में पूंजी का लेप उस पुरानी धारा को भा रहा है जो अभी तक कांग्रेस और भाजपा में अपना अक्स देखते थे। लेकिन मालेगांव विस्फोट के बाद हिन्दुत्व की जिस लड़ी को आरएसएस के भीतर स्वयंसेवक ही सुलगाना चाह रहे है, अगर वह सुलगी तो राष्ट्रीय राजनीति में हिन्दुत्व का तत्व अयोध्या से कहीं आगे का होगा ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-13754262155735272892009-09-21T10:29:00.001+05:302009-09-21T10:30:38.225+05:30माओवादी गठबंधन के पांच साल का मतलबसत्ता के लिये राजनीतिक गठबंधन के दौर में नक्सलियों के गठबंधन के पांच साल पूरे होने के मौके पर अगर यह सवाल उठाया जाए कि राजनीतिक गठबंधन ने माओवादियों को ढील दे दी और माओवादियो के गठबंधन ने राजनीतिक सत्ता को कटघरे में खडा कर दिया, तो कुछ गलत नहीं होगा । ठीक पांच साल पहले सीपीआई(एमएल), पीपुल्सवार और एमसीसीआई ने मिलकर सीपीआई माओवादी का गठन किया । और इसके बाद रेड कॉरिडोर की जो लकीर आंध्र प्रदेश के नल्लामला के जंगलों से होते हुये बस्तर में रुक जाती थी और एक नयी लकीर उड़ीसा से शुरु होकर बिहार-झारखंड होते हुये बंगाल तक एक नयी रेखा खींचती थी, दोनों न सिर्फ एक हो गयीं बल्कि माओवादियो के इस गठबंधन ने राजनीतिक तौर पर राज्य सत्ता को भी किस तरह कटघरे में खड़ा किया, यह बार बार उभरा। <br /><br />जहानाबाद जेल ब्रेक से लेकर लालगढ के दौर में न सिर्फ माओवादियो की मारक क्षमता बढ़ती हुई दिखायी दी बल्कि संसदीय राजनीति और राज्य व्यवस्था माओवादी प्रभावित इलाकों में प्रभावहीन होकर उभरी। इस गठबंधन ने एकतरफ जहां पीपुल्स वार को एमसीसी के आम लोगो की भागेदारी के साथ सांगठनिक तौर तरीको को सिखाया, वही एमसीसी को पीपुल्सवार की तर्ज पर गुरिल्ला युद्द की ट्रेनिंग मिल गयी। वहीं दूसरी तरफ राजनीतिक दलों को गठबंधन के जरीये सत्ता तो मिली लेकिन माओवादियों के खिलाफ अलग अलग समझ रखने की वजह से कोई ठोस नीति कहीं नहीं बन सकी।<br /><br />2004 में ही आंध्र प्रदेश में कांग्रेस के साथ टीआरएस जुड़ी। तेलागंना इलाके में पैठ बनाने वाली टीआरएस ने माओवादियों के खिलाफ कांग्रेस को कोई ठोस नीति नही बनाने दी। छत्तीसगढ में भाजपा ने सलवाजुडुम का नायाब प्रयोग कर जिस तरह आदिवासियो के हाथ में हथियार थमा दिये, उससे कांग्रेस माओवादियों से ज्यादा भाजपा की नीतियो के खिलाफ हो गयी या कहे राजनीतिक तौर पर निशाना साधने लगी। वहीं, उड़ीसा में भाजपा जो कार्रवाई माओवादियो के खिलाफ करना चाहती थी, उससे बीजू जनता दल इत्तिफाक नहीं रखती। झारखंड में कांग्रेस और झामुमो के बीच माओवादियो के खिलाफ कार्रवाई को लेकर कोई सहमति नहीं बनी। वहीं बंगाल में सीपीएम की राय और रणनीति दोनो से न तो सीपीआई ने कभी इत्तेफाक किया और ना ही फारवर्ड ब्लाक ने सहमति जतायी। <br /><br />ऐसी ही उलझने केन्द्र स्तर पर भी रहीं। लेकिन माओवादियो के गठबंधन ने इसी दौर में पहली बार संसदीय राजनीति में हाथ जलाये बगैर राजनीतिक दलों को भी अपने प्रयोग में मोहरा बनाया। इसका सबसे ताजा उदाहरण अगर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस है तो 2004 में पहला उदाहरण चन्द्रशेखर राव की टीआरएस थी । 21 सितंबर 2004 को जब दोनो माओवादी संगठनो ने गठबंधन का ऐलान किया था तो उस वक्त एमसीसी के महासचिव कामरेड किशन से जब यह सवाल पूछा गया था कि इस गठबंधन का असर क्या होगा तो किशन का जबाब था कि, " इसका प्रभाव मजदूरों,किसानों और मेहनतकश जनसमुदाय समेत समूची जनता पर पड़ेगा । क्योंकि आज तमाम गांधीवादी, बोटबाज और नकली कम्युनिस्ट पार्टियों का जनप्रेमी मुखौटा काफी हद तक उतर चुका है। ऐसी परिस्थिति में जनता भी एक ऐसी पार्टी का इंतजार कर रही है जो उनके मुक्ति संघर्ष को नेतृत्व प्रदान कर सके । और आने वाले दिनो में इसका सकारात्मक प्रभाव नये तरीके से वोटबाज राजनीति में मेहनतकश समुदाय महसूस करेगा। क्योकि गठबंधन के बाद सीपीआई माओवादी क्रांतिकारी वर्ग संघर्ष के साथ साथ कृषि क्रांतिकारी गुरिल्ला युद्द के जरीये भी बदलाव का नया रुप देखेगी"। <br /><br />दरअसल, एमसीसी के महासचिव पांच साल पहले जब यह बात कह रहे थे, उससे पहले एमसीसी की पहल बंगाल में थी जरुर लेकिन वाममोर्चा सरकार के सामने उसने कभी ऐसी चुनौती किसी मुद्दे के आसरे नहीं रखी, जिससे नक्सलबाडी संघर्ष या आम जनता की भागीदारी का कोई एहसास माओवादियो के साथ जागे। लेकिन गठबंधन के बाद जिस तर्ज पर बंगाल में सिंगूर, नंदीग्राम और लालगढ़ में माओवादियो की मौजूदगी नजर आयी और जमीन अधिग्रहण के मुद्दो को खेत मजदूर और आदिवासियो के हक में करने के लिये उसी संसदीय राजनीति को औजार बना लिया, जिसकी नीतियां इसके खिलाफ शुरु से रही, वह गौरतलब हैं। रणनीति के तौर पर बंगाल में पहली बार आंध्र प्रदेश के माओवादियो ने अगुवाई की और उसे सांगठनिक या कहे प्रभावित लोगो को गोलबंद करने में जिस तरह एमसीसी का कैडर जुटा उसने राजनीतिक तौर पर गठबंधन के महत्व को सामने रखा। सिंगूर, नंदीग्राम के बाद लालगढ में पीपुल्स वार के पोलित ब्यूरो सदस्य कोटेश्वर राव जिस तरह मीडिया के सामने खुल कर लाये गये, उसने राजनीतिक दलों के गठबंधन में सत्ता की खिंचतान को ही एक सीख दी कि गठबंधन के जरीये ताकत बढाने का मतलब अपनी जमीन पर साथी को बडे कद में रखना भी होता है। <br /><br />संसदीय राजनीति के गठबंधन में महाराष्ट्र से लेकर बिहार तक में और खासकर बंगाल में कभी अपनी जमीन पर किसी राजनीतिक दल ने अपने सहयोगी को आगे बढ़ने नहीं दिया, उल्टे साथी की राजनीति को भी हड़पने का मंत्र जरुर फूंका । असल में राजनीतिक दलों में जब खुद का कद बड़ा और बड़ा करने और दिखाने की होड़ है, ऐसे वक्त अगर बीते पांच साल के दौर में उसी पीपुल्स वार की पहल को देखे जो उससे पहले के 35 साल में कभी एमएल के वार जोन में माओवादियो को घुसने नहीं देता था और वैचारिक तौर पर संघर्ष से ज्यादा एक-दूसरे के कैडर को खत्म करने की दिशा में ही बढ़ता चला गया । गठबंधन के बाद पीपुल्स वार ने एमसीसी के साथ मिलकर एमएल शब्द छोडकर सिर्फ संगठन का नया नाम सीपीआई माओवादी पर ही सहमति नहीं बनायी बल्कि एमसीसी को गुरिल्ला जोन विकसित करने की जो ट्रेनिग दी, उसी का असर है कि देश का गृहमंत्रालय आंतरिक सुरक्षा के मुद्दे को सबसे गंभीर मान रहा है। क्योंकि रिपोर्ट साफ बतलाती है कि देश में पहली बार गुरिल्ला जोन ना सिर्फ विकसित किये गये हैं, बल्कि रणनीति के तौर पर इस जोन को दो स्तरो पर बांटा गया है, जिसमें आधार क्षेत्र में जन राजनीतिक सत्ता स्थापित करते हुये नये निर्माण क्षेत्र को विकसित करने की दिशा में माओवादी बढ़ रहे हैं। <br /><br />असल में 2004 में पीपुल्स वार के महासचिव गणपति से यही सवाल किया गया था कि जंगल से बाहर माओवादियो की पकड़-पहुंच को लेकर गठबंधन की रणनीति क्या होगी। उस वक्त गणपति ने कहा था , " शत्रु के साथ छोटी झड़पों से बड़ी लड़ाइयों में विकास, छोटे सैन्य रुपों से बडे सैन्य रुपों का निर्माण, थोडी संख्या से बड़ी संख्या बनना, कमान और कमीशनों के रुप से ज्यादा व्यवस्थित ढांचो में विकास और शत्रु से हथियार छिनते हुये स्वयं को सशस्त्र करते में ज्यादा क्षमता। साथ ही आंतरिक पार्टी संघर्षो से बचने के लिये नये तरीके से राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक उत्पीड़न के मुद्दो के लिये कैडर को लगातार संघर्ष से जोडे रखना। " माओवादियो की इस सोच को अगर रेड कॉरिडोर में टटोल कर देखे तो पहली बार कई ऐसी स्थितिया सामने आयेंगी, जिसमें यह साफ लगेगा कि जिस तैयारी में माओवादी पांच साल पहले गठबंधन के जरीये जुटे और इन पांच सालो में छत्तीसगढ़, उड़ीसा,झारखंड और बंगाल में जो चेहरा माओवादियो का उभरा, उसने पहली बार विकास से कोसों दूर होते इलाको में ही विकास की लकीर के जरीये लूटतंत्र का संसदीय चेहरा भी उभार दिया है । इससे पहले के 35 सालों में रेड कॉरिडोर को लेकर यही सवाल सबसे ज्यादा गूंजता था कि नक्सल प्रभावित इलाको में विकास हुआ नहीं है या फिर सरकार की किसी योजना को माओवादी पहुंचने नहीं देते हैं। लेकिन बीते पांच सालो में जिस तेजी से रेडकॉरिडोर में किसान-आदिवासियो की जमीन पर विकास की लकीर खिंचने का प्रयास हुआ और प्राकृतिक संसाधनो की लूट खासकर खनिज पदार्थो को बहुराष्ट्रीय कंपनियो को बेचेने का प्रक्रिया शुरु हुई, उसने सरकार-माओवादी टकराव को एक नया कलेवर दे दिया। क्योंकि नक्सल प्रभावित सवा सौ जिलो के छह सौ गांव की स्थिति सामाजिक-आर्थिक तौर पर आज भी सबसे पिछड़े क्षेत्रों की त्रासदी ही बयान करती है। यह वैसे गांव हैं, जहा प्राथमिक शिक्षा,प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और पीने का पानी तक मुहैया नहीं है। वहीं, अड़तालिस जिले ऐसे हैं, जहां की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियो में आजादी के बाद से इतना ही बदलाव आया है कि अंग्रेजों की जगह स्थानीय जमींदारो और राज्य सत्ता के नुमाइन्दो ने ले ली है। इन क्षेत्रो में नया बदलाव उनकी जमीन पर दखल और खनन है। यहां स्पेशल इकनामी जोन के नाम पर सिर्फ जमीन अधिग्रहण ही नहीं बल्कि उड़ीसा, छत्तीसगढ और झारखंड में खनिज के लिये यूरोप,एशिया और अफ्रीका की दो दर्जन से ज्यादा बहुराष्ट्रीय कंपनियो से देश की टॉप दस कंपनिया इस बात की होड़ कर रही है कि खनिजों की माइनिंग का अधिकार किसे मिलता है। <br /><br />अगर रेडकारिडोर में बंगाल को छोड भी दिया जाये तो भी इस लालगलियारे के छह प्रमुख राज्यों आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र ,मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ,उड़ीसा और झारखंड में करीब अठारह लाख करोड़ की माइनिंग की बोली बीते पांच साल में लगायी गयी। जिसकी कीमत विश्व बाजार में साठ लाख करोड़ से ज्यादा की है । जाहिर है मुनाफे के इतने बडे अंतर का मतलब राज्यों में कमीशन को लेकर भी होड़ होगी। इस होड़ का असर यही है कि जिन इलाको में खनन होना है उन्हीं इलाको में सबसे ज्यादा माओवादियो के प्रभाव को बताया दिखाया गया है और राज्य पुलिस से लेकर अर्द्दसैनिक बलो की जो तैनाती दिखायी जा रही है, वह भी इन्हीं इलाको में केन्द्रित है । इसका असर माओवादियो के लिये दोहरे फायदे वाला भी साबित हुआ है । एक तरफ जिन इलाको में खनन हो रहा है या होना है वहां ग्रामीण-आदिवासी सरकार की नीतियो के खिलाफ एकजूट हुये हैं। इनके बीच माओवादियो की पैठ किस तेजी से बढ़ी है, इसका एहसास इसी से हो सकता है कि आंकडों के लिहाज से माओवादियों के निर्माण कैडर में दो सौ फीसदी तक का इजाफा हुआ है। निर्माण कैडर का मतलब है, जहां माओवादी निर्माण की अवस्था में हैं। वहीं पांच साल पहले जिस रणनीति का जिक्र पीपुल्सवार के महासचिव गणपति कर रहे थे कि उसी घेरे में सरकार घिरने भी आ रही है । क्योंकि उसी दौर में सुरक्षा बलों को सबसे ज्यादा नुकसान माओवादियों के हमले में हुआ है। हथियारों की लूट से लेकर अर्द्धसैनिकों की मौत बारुदी सुरंग के साथ साथ मुठभेढ़ के दौरान हुई है । इसकी एक वजह माओवादियों से ज्यादा खनन में कोई मुश्किल ना आने देने की राज्य सरकारो की सोच भी है। लेकिन माओवादियो को इसका सबसे बडा लाभ उन नये क्षेत्रो में मिल रहा है, जिसे विकास की श्रेणी में रखकर सरकार गांव से शहरो में तब्दील होते हुये देख रही है। <br /><br />इस दौर में रेड कॉरिडोर में ही पचास से ज्यादा नये शहर सरकार के दस्तावेजों में बने हैं। लेकिन आर्थिक नीतियो को लेकर जो तनाव इन क्षेत्रो में पनपा है, उसमें वैचारिक तौर पर माओवादियों को एक बड़ा आधार भी इन्हीं क्षेत्र में बनता जा रहा है । क्योकि माओवादी इन इलाकों में उन मुद्दों को छू रहे हैं, जिससे जनता को हर क्षण दो-चार होना पडता है। मसलन , माओवादियो ने राष्ट्रीयता से लेकर दलित उत्पीडन और महिलाओ से लेकर अल्पसंख्यक समुदायों के उत्पीडन के मुद्दो को लेकर विशिष्ट नीतियां तैयार की हैं। लेकिन गठबंधन के इस दौर में संसदीय राजनीति या माओवादियों से इतर आम लोगो का परिस्थतियों को देखे तो उनके सामने सबसे मुश्किल वक्त है। एक तरफ राज्य की भूमिका ज्यादा से ज्यादा मुनाफा बनाने वाली हो चली हैं और वैसी नीतियों को ही लागू कराने वाली बन चुकी हैं, जिसमें उनका वोट बैक समा जाये। <br /><br />वहीं, माओवादियो का चाहे विस्तार इन इलाको में खूब हो रहा है लेकिन उनके रणनीति अभी भी खुद को बचाते हुये अपनी पकड़ को मजबूत बनाने की है। यानी माओवादी अभी उस स्थिति में नहीं आये हैं, जहां प्रभावित इलाको की आर्थिक परिस्थियों को बदल दें । या फिर जिस सर्वहारा का सवाल जिन इलाको में गूजता है, उन इलाको के लिये कोई वैक्लिपिक ढांचा खड़ा कर सके । वही दूसरी तरफ केन्द्र सरकार का नजरिया माओवादियो को लेकर कितनी सतही समझ वाला है, यह माओवादियो के आत्मसमर्पण और उनके पुनर्वास के लिये जारी सुविधाओ के ऐलान से समझा जा सकता है, जिसके तहत मुआवजे-दर-मुआवजे का जिक्र किया गया है । यानी गठबंधन में जिस तरह छोटे सहयोगी दलो को सत्ता की मलाई चखाकर सत्ता बरकरार रखी जाती है, उसी तर्ज पर माओवादियो की समस्या का समाधान भी देखा जा रहा है । जबकि माओवादियो की पहल बताती है कि संसदीय राजनीति के इसी तौर तरीकों में पिछले चालीस साल में माओवादी न सिर्फ फैलते चले गये हैं बल्कि राजनीतिक दलों से कही ज्यादा प्रयोग कर उन्होंने खुद का खासा मजबूत बना लिया है और गठबंधन उसका नया हथियार है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-28258869496337363322009-09-09T23:31:00.001+05:302009-09-09T23:32:28.086+05:30देश की असल जांच रिपोर्ट के लिए तो कई मजिस्ट्रेट चाहिएसत्तर और अस्सी के दशक को याद कीजिये । इस दौर में पहली बार सिनेमायी पर्दे पर एक ऐसा नायक गढ़ा गया, जो समाज की विसंगतियों से अकेले लड़ता है । नायक के तरीके किसी खलनायक की तरह ही होते थे। लेकिन विसंगतियों का पैमाना इतना बड़ा था कि अमिताभ बच्चन सिल्वर स्क्रीन की जगह देखने वालो के जेहन में नायक की तरह उतरता चला गया । <br /><br />कुछ ऐसी ही परिस्थितियां पिछले एक दशक के दौरान आतंकवाद के जरिए समाज के भीतर भी गढ़ा गया । चूंकि यह कूची सिल्वर स्क्रीन की तरह सलीम-जावेद की नहीं थी, जिसमें किसी अमिताभ बच्चन को महज अपनी अदाकारी दिखानी थी। बल्कि आतंकवाद को परिभाषित करने की कूची सरकारों की थी। लेकिन इस व्यवस्था में जो नायक गढ़ा जा रहा था, उसमें पटकथा लेखन संघ परिवार का था। और जिस नायक को लोगों के दिलो में उतारना था-वह नरेन्द्र मोदी थे। आतंकवाद से लड़ते इस नायक की नकल सिनेमायी पर्दे पर भी हुई । लेकिन इस दौर में नरेन्द्र मोदी को अमिताभ बच्चन की तरह महज एक्टिंग नहीं करनी थी बल्कि डर और भय का एक ऐसा वातावरण उसी समाज के भीतर बनाना था, जिसमें हर समुदाय-संप्रदाय के लोग दुख-दर्द बांटते हुये सहज तरीके से रह रहे हों। <br />हां, अदाकारी इतनी दिखानी थी कि राज्य व्यवस्था के हर तंत्र पर उन्हें पूरा भरोसा है और हर तंत्र अपने अपने घेरे में बिलकुल स्वतंत्र और निष्पक्ष होकर काम कर रहा है। इसलिये जब 15 जून 2004 को सुबह सुबह जब अहमदाबाद के रिपोर्टर ने टेलीफोन पर ब्रेकिंग न्यूज कहते हुये यह खबर दी कि आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तोएबा में लड़कियां भी जुड़ी है और गुजरात पुलिस ने पहली बार लश्कर की ही एक लड़की को एनकांउटर में मार गिराया है तो मेरे जेहन में तस्वीर यही उभरी कि कोई लड़की हथियारो से लैस किसी आतंकवादी की तर्ज पर किसी मिशन पर निकली होगी और रास्ते में पुलिस आ गयी होगी, जिसके बाद एनकाउंटर। लेकिन अहमदाबाद के उस रिपोर्टर ने तुरंत अगली लकीर खुद ही खिंच दी। बॉस, यह एक और फर्जी एनकाउंटर है। लेकिन लड़की। यही तो समझ नहीं आ रहा है कि लडकी को जिस तरह मारा गया है और उसके साथ तीन लड़को को मारा गया है, जबकि इस एनकाउंटर में कहीं नहीं लगता कि गोलिया दोनों तरफ से चली हैं। लेकिन शहर के ठीक बाहर खुली चौड़ी सडक पर चारों शव सड़क पर पड़े हैं। एक लड़के की छाती पर बंदूक है। कार का शीशा छलनी है। अंदर सीट पर कुछ कारतूस के खोखे और एक रिवॉल्वर पड़ी है। और पुलिस कमिश्नर खुद कह रहे हैं कि चारो के ताल्लुकात लश्कर-ए-तोएबा से हैं। <br /><br />घटना स्थल पर पुलिस कमिशनर कौशिक, क्राइम ब्रांच के ज्वाइंट पुलिस कमीशनर पांधे और डीआईजी वंजारा खुद मौजूद है, जो लश्कर का कोई बड़ा गेम प्लान बता रहे हैं। ऐसे में एनकाउंटर को लेकर सवाल खड़ा कौन करे । 6 बजे सुबह से लेकर 10 बजे तक यानी चार घंटो के भीतर ही जिस शोर -हंगामे में लश्कर का नया आंतक और निशाने पर मोदी के साथ हर न्यूज चैनल के स्क्रीन पर आतंकवाद की मनमाफिक परिभाषा गढ़नी शुरु हुई, उसमें रिपोर्टर की पहली टिप्पणी फर्जी एनकाउंटर को कहने या इस तथ्य को टटोलने की जहमत करें कौन, यह सवाल खुद मेरे सामने खड़ा था । क्योंकि लड़की के लश्कर के साथ जुड़े तार को न्यूज चैनलों में जिस तरह भी परोसा जा रहा था, उसमें पहली और आखिरी हकीकत यही थी कि एक सनसनाहट देखने वाले में हो और टीआरपी बढ़ती चली जाये। <br /><br />लेकिन एक खास व्यवस्था में किस तरह हर किसी की जरुरत कमोवेश एक सी होती चली जाती है, और राज्य की ही अगर उसमें भागीदारी हो जाये तो सच और झूठ के बीच की लकीर कितनी महीन हो जाती है, यह इशरत जहां के एनकाउंटर के बाद कई स्तरों पर बार बार साबित होती चली गयी। एनकाउटर के बाद मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब पुलिस प्रशासन की पीठ थपथपायी, तब मोदी राज्य व्सवस्था को आतंकवाद के खिलाफ मजबूती प्रदान करने वाले किसी नायक सरीखे दिखे। लड़की के लश्कर के संबंध को लेकर जब मोदी ने एक खास समुदाय को घेरा तो आंतकवाद के खिलाफ मोदी हिन्दुत्व के नायक सरीखे लगे। इस नायकत्व पर उस वक्त किसी भी राजनीतिक दल ने अंगुली उठाने की हिम्मत नहीं की। क्योंकि जो राजनीति उस वक्त उफान पर थी, उसमें पाकिस्तान या कहें सीमा पार आतंकवाद का नाम ऑक्सीजन का काम कर रहा था। वहीं, आंतकवाद के ब्लास्ट दर ब्लास्ट उसी पुलिस प्रशासन को कुछ भी करके आतंकवाद से जोड़ने का हथियार दे रहे थे, जो किसी भी आतंकवादी को पकड़ना तो दूर, कोई सुराग भी कभी नहीं दे पा रही थी। <br /><br />यह हथियार सत्ताधारियों के लिये हर मुद्दे को अपने अनुकूल बनाने का ऐसा मंत्र साबित हो रहा था जिस पर कोई अंगुली उठाता तो वह खुद आतंकवादी करार दिया जा सकता था। कई मानवाधिकार संगठनों को इस फेरहिस्त में एनडीए के दौर में खड़ा किया भी गया । इसका लाभ कौन कैसे उठाता है, इसकी भी होड़ मची । इसी दौर में नागपुर के संघ मुख्यालय को जिस तरह आतंकवादी हमले से बचाया गया, उसने देशभर में चाहे आतंकवाद के फैलते जाल पर बहस शुरु की, लेकिन नागपुर में संघ मुख्यालय जिस घनी बस्ती में मौजूद है, उसमें उसी बस्ती यानी महाल के लोगो को भी समझ नहीं आया कि कैसे मिसाइल सरीखे हथियार से लैस होकर कोई उनकी बस्ती में घुस गया और इसकी जानकारी उन्हें सुबह न्यूज चैनल चालू करने पर मिली। इस हमले को भी फर्जी कहने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ताओ का पुलिस ने जीना मुहाल कर दिया। सुरेश खैरनार नामक एक कार्यकर्ता तो दिल्ली में तमाम न्यूज चैनलो में हमले की जांच रिपोर्ट को दिखाने की मन्नत करते हुये घूमता रहा लेकिन किसी ने संघ हेडक्वार्टर की रिपोर्ट को फर्जी कहने की हिम्मत नहीं की क्योंकि शायद इसे दिखाने का मतलब एक अलग लकीर खिंचना होता । और उस लकीर पर चलने का मतलब सत्ताधारियो का साथ छोड़ एक ऐसी पत्रकारिता को शुरु करना होता, जहां संघर्ष का पैमाना व्यवसायिकता में अवरोध पैदा कर सकता है। <br /><br />अहमदाबाद में इशरत जहां को जब लश्कर से जोड़ने की बात गुजरात की पुलिस और उसे आधार बनाकर मुख्यमंत्री ने कही तो मेरे जेहन में लश्कर-ए-तोएबा के मुखिया का वह कथन घूमने लगा, जिसका जिक्र लश्कर के चीफ हाफिज सईद ने 2001 में मुझे इंटरव्यू देने से पहले किया था। हाफिज सईद ने इंटरव्यू से पहले मुझसे कहा थी कि मै पहला भारतीय हूं, जिसे वह इंटरव्यू दे रहे हैं। लेकिन भारत से कई और न्यूज चैनलो ने उनसे इंटरव्यू मांगा है । संयोग से कई नाम के बीच बरखा दत्त का नाम भी उसने लिया, लेकिन फिर सीधे कहा खवातिन को तो इंटरव्यू दिया नहीं जा सकता। यानी किसी महिला को लेकर लश्कर का चीफ जब इतना कट्टर है कि वह प्रोफेशनल पत्रकार को भी इंटरव्यू नहीं दे सकता है तो यह सवाल उठना ही था कि अहमदाबाद में पुलिस किस आधार पर कह रही है इशरत जहां के ताल्लुकात लश्कर से हैं । <br /><br />यह सवाल उस दौर में मैंने अपने वरिष्ठों के सामने उठाया भी लेकिन फिर एक नयी धारा की पत्रकारिता करने तक बात जा पहुंची, जिसके लिये या तो संघर्ष की क्षमता होनी चाहिये या फिर पत्रकारिता का एक ऐसा विजन, जिसके जरिए राज्य सत्ता को भी हकीकत बताने का माद्दा हो और उस पर चलते हुये उस वातावरण में भी सेंध लगाने की क्षमता हो जो कार्बनडाइऑक्साइड होते हुये भी राजनीतिक सत्ता के लिये ऑक्सीजन का काम करने लगती है। <br /><br />जाहिर है गुजरात हाईकोर्ट ने कुछ दिनो पहले ही तीन आईएएस अधिकारियो को इस एनकाउंटर का सच जानने की जांच में लगाया है। लेकिन किसी भी घटना के बाद शुरु होने वाली मजिस्ट्रेट जांच की रिपोर्ट ने ही जिस तरह इशरत जहां के एनकाउंटर को ‘पुलिस मेडल पाने के लिये की गयी हत्या’ करार दिया है, उसने एक साथ कई सवालों को खड़ा किया है । अगर मजिस्ट्रेट जांच सही है तो उस दौर में पत्रकारों और मीडिया की भूमिका को किस तरह देखा जाये। खासकर कई रिपोर्ट तो मुबंई के बाहरी क्षेत्र में, जहां इसरत रहती थी, उन इलाको को भी संदेह के घेरे में लाने वाली बनी। उस दौर में मीडिया रिपोर्ट ने ही इशरत की मां और बहन का घर से बाहर निकलता दुश्वार किया। उसको कौन सुधारेगा। फिर 2004 के लोकसभा चुनावों में आतंकवाद का जो डर राजनेताओ ने ऐसे ही मीडिया रिपोर्ट को बताकर दिखाया, अब उनकी भूमिका को किस रुप में देखा जाये । 2004 के लोकसभा चुनाव में हर दल ने जिस तरह गुजरात को आतंकवाद और हिन्दुत्व की प्रयोगशाला करार देकर मोदी के गुजरात की तर्ज पर वहां के पांच करोड़ लोगों को अलग थलग कर दिया, उसने यह भी सवाल खड़ा किया कि समाज का वह हिस्सा जो, इस तरह की प्रयोगशाला का हिस्सा बना दिया जाता है उसकी भूमिका देश के भीतर किस रुप में बचेगी। क्योंकि पांच साल पहले के आतंकवाद को लेकर विसंगतियां अब भी हैं, लेकिन 2009 में उससे लड़ने के तरीके इतने बदल गये हैं कि समाज की विसंगतियों की परिभाषा भी सिल्वर स्क्रीन से लेकर लोगो के जहन तक में बदल चुकी है। नयी परिस्थितियों में समाज से लड़ने के लिये राजनीति में न तो नरेन्द्र मोदी चाहिये, न ही सिल्वर स्क्रीन पर अमिताभ बच्चन। नयी परिस्थितियों में इशरत जहां के एनकाउटर का तरीका भी बदल गया है । अब सामूहिकता का बोध है। सिल्वर स्क्रीन पर कई कद वाले कलाकारो की सामूहिक हंसी-ठठ्टा का ऐसा जाल है, जहां सच को जानना या उसका सामना करना हंसी को ही ठसक के साथ जी लेना है । वहीं समाज में मुनाफा सबसे बडी सत्ता है जो सामूहिक कर्म से ही पायी जा सकती है । और एनकाउटंर के तरीके अब सच से भरोसा नहीं उठाते बल्कि विकास की अनूठी लकीर खींच कर विकसित भारत का सपना संजोते है। <br /><br />सवाल है इसकी मजिस्ट्रेट जांच कब होगी और इसकी रिपोर्ट कब आयेगी। जिसके घेरे में कौन कौन आएगा कहना मुश्किल है लेकिन इसका इंतजार कर फिलहाल इताना तो कह सकते हैं-इशरत हमें माफ कर दो ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-11687515812519301162009-09-08T13:18:00.002+05:302009-09-08T13:20:06.358+05:30क्यों नागपुर से दिल्ली चली संघ एक्सप्रेस6 दिसंबर 1992 को करीब साढे पांच बजे नागपुर में संघ मुख्यालय के बाहर उसी जगह पर सरसंघचालक देवरस की कुर्सी लगायी गयी, जहां अब सुरक्षाकर्मियो का टेंट लगा है। तीन स्वयंसेवकों के सहारे देवरस मुख्यालय से बाहर आये और उन्हे कुर्सी पर बैठाया गया । नागपुर के महाल इलाके में रिहायशी बस्ती के बीच संघ मुख्यालय की मौजूदगी 6 दिसबंर 1992 तक कुछ वैसी ही थी, जैसी रिहायशी इलाके में सामाजिक कार्यो में जुटा कोई संगठन किसी घर को ही अपना अड्डा बना ले। लेकिन 6 दिसंबर 1992 के दिन से अचानक छोटी-छोटी गलियों के बीच बना संघ मुख्यालय अचानक मील के पत्थर में तब्दील हो गया, जहां की पहचान पुलिस-जवानो के डेरे के तौर पर ही होने लगी। महाल के इस संघ मुख्यालय के बाहर का जो खाली प्लाट संघ का नहीं था, वह अचानक संघ से जुड़ गया और उस जमीन पर टेंट की रिहायश बनायी गयी, जिसमें छह जवानों की टोली उसी दिन से बैठा दी गयी, जो आज भी बैठी है। <br /><br />इन 17 सालो में फर्क यही आया कि जवानों के पास आधुनिकतम हथियार और दूरबीन आ गयी और महाल का मतलब संघ का असल मुख्यालय हो गया, जहा सारी शतरंज खेली जाती है। असल इसलिये क्योंकि हेडगेवार ने इसी घर से संघ कार्यालय की शुरुआत की थी। और 1948 के बाद प्रतिबंध का स्वाद 1993 में ही संघ के इस मुख्यालय ने भोगा। इमरजेन्सी के प्रतिबंध का एहसास यहां इसलिये नहीं हुआ, क्योकि तब पूरे देश में एक तरह का प्रतिबंध था। <br /><br />6 दिसबंर 1992 को जब समूचॆ देश में हंगामा मचा हुआ था तो बेहद खामोशी के साथ देवरस को इसी घर में नजरबंद करने के आदेश प्रशासन ने दे दिये । इस दिन से पहले महाल के इसी घर से करीब चार किलोमीटर दूर रेशमबाग के हेडगेवार भवन को ही हर कोई संघ मुख्यालय मानता और समझता था। चूंकि हेडगेवार भवन एकदम खुली सड़क और खुले मैदान से जुड़ा है और हर सुबह- शाम जितनी बड़ी तादाद में यहां शाखा लगती और खुला मैदान होने की वजह से खेल का शोर कुछ इस तरह रहता कि पुराने नागपुर की दिशा में जाने वाला हर किसी शख्स को दूर से ही दिखायी पड़ जाता है। <br /><br />लेकिन नागपुर के मिजाज में संघ की मौजूदगी कभी घुली नहीं । जनसंघ को कभी नागपुर में जीत मिली नहीं और इमरजेन्सी के बाद 1977 के चुनाव में जब समूचे देश में जनता लहर थी तो भी नागपुर समेत समूचे विदर्भ सभी 11 सीटो में से कोई भी जनता पार्टी का उम्मीदवार न जीत सका । उस वक्त देवरस को भी आश्चर्य हुआ था कि उनके राजनीति प्रयोग को जेपी के जरीये जब काग्रेस को मात दी गयी तो नागपुर में संघ समर्थित उम्मीदवार को कांग्रेस ने मात दे दी। यही हाल बाबरी मस्जिद के ढहाने के बाद भी हुआ, जब कांग्रेस जीत गयी । यानी नागपुर में संघ की पहचान कभी राजनीतिक तौर पर निकल कर नहीं आयी, जिससे लगे कि उसकी अपनी जमीन पर राजनीति तो खड़ी हो सकती है।<br /><br />यह नागपुर में हुआ नहीं और भाजपा के लिये संघ की समझनुसार वैसी जमीन बनी नहीं जैसा देश के सार्वजनिक जीवन में हिन्दुत्व का पाठ पढाते हुये संघ, भाजपा को राजनीतिक तौर पर इसका लाभ दिलाता । ऐसा भी नहीं है कि संघ के सामने मौके नहीं आये कि वह नागपुर में अपनी पहचान बना ले। गांधी को लेकर संघ के क्या विचार थे, यह कोई छुपा नहीं है। लेकिन दलितो को लेकर आंबेडकर के साथ भी संघ खड़ा नहीं हुआ क्योकि तब भी संघ हिन्दु राष्ट्र का एक अनोखा सपना पाले हुआ था । नागपुर में दलितो के संघर्ष से लेकर बुनकरो का संघर्ष आजादी के बाद ही शुरु हुआ । लेकिन संघ साथ खड़ा नहीं हुआ । नागपुर में बुनकरो के संघर्ष का प्रतीक गोलीबार चौक भी है, जहां पुलिस की गोली से बुनकर मारे गये थे। वहीं नागपुर में ही अंग्रेजो के दौर में ही सबसे बडी काटन मिल स्थापित हुई। और बड़ी बात यह है कि संघ की ट्रेड यूनियन भारतीय मजदूर संघ यानी बीएमएस ने सबसे पहले इसी काटन मिल में अपनी यूनियन बनायी। <br /><br />लेकिन जब नब्बे दे दशक में जब यह मिल बंद होने का आयी तो बीएमएस ने मजदूरो के हक की लड़ाई में अपना कंधा अलग कर लिया । असल में नागपुर में संघ मुख्यालय होने के बावजूद आरएसएस से ज्यादा हिन्दू महासभा की यादें लोगों के जहन में है । हालांकि संघ का विस्तार हिन्दू महासभा से ज्यादा होता गया, लेकिन सच यह भी है कि पहली बार सावरकर जब नागपुर पहुंचे तो उन्होने काटन मार्केट की एक सभा में संघ के तौर तरीको को किसी मंदिर के पूजा पाठ सरीखा ही माना और राजनीतिक समझ से कोसो दूर बताते हुये खारिज भी किया । उस वक्त हेडगेवार चाहते थे कि सावरकर संघ मुख्यालय आये । लेकिन सावरकर राजनीतिक तौर पर हिन्दुओ को जिस तरह संगठित कर रहे थे, उसमें संघ उनके तरीको को कमजोर कर देता इसलिये संघ मुख्यालय तक नहीं गये। <br /><br />वहीं मुस्लिमो को लेकर संघ की समझ नागपुर में ही 7 दिसबंर 1992 को उभरी थी । 6 दिसबंर को देवरस के नजरबंद होने के बाद बाबरी मस्जिद ढहाने के विरोध में अपने गुस्से का इजहार मुस्लिम बहुल इलाके मोमिनपुरा में हुआ । मोमिनपुरा के लोग रैली की शक्ल में जैसे ही मोमिनपुरा के बाहर सड़क पर निकले, वहां खड़ी पुलिस ने ताबडतोब गोलियां दागनी शुरु कर दी । 9 युवा समेत 13 लोग मारे गये। उसके बाद नागपुर में यह बहस शुरु हुई कि एक तरफ 6 दिसबंर को संघ से जुडे संगठन खुले तौर पर प्रदर्शन करते है, दुर्गा वाहिनी हथियारो का प्रदर्शन करती है और उन्हें कोई रोकता नहीं और सरसंघचालक को नजरबंद कर मामले को वहीं का वहीं खत्म किया जाता है। वहीं, मुस्लिमो के प्रदर्शन मात्र को कानून व्यवस्था के लिये खतरा बता दिया जाता है। हालांकि इस घटना के बाद नागपुर के पुलिस कमीशनर इनामदार का तबादला हुआ लेकिन तीन साल बाद शिवसेना-भाजपा के सत्ता में आने पर इनामदार को पदोन्नति भी मिली । मगर बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद देश में तुरंत कहीं लोग मरे तो वह नागपुर रहा, जहां 13 लोगो की मौत हुई । और इस घटना को भी नागपुर में संघ ने अपनी उस नयी पहचान से जोडने की पहल की जो इससे पहले उसे मिली नहीं थी । यानी अयोध्या पर संघ की इस प्रयोगशाला में हिन्दुत्व के लिये जगह है, बाकियो की अभिव्यक्ति भी बर्दाश्त नहीं है । लेकिन नागपुर ने संघ की इस पहचान को भी नहीं स्वीकारा । ना सामाजिक तौर पर ना राजनीतिक तौर पर । इसका मलाल देवरस को हमेशा रहा । इसलिय 1993 में जब कल्याण सिंह नागपुर पहुचे और संघ मुख्यालय में देवरस से मिलने के लिये बेताब हुये तो उन्हें टाला गया और मिलने का वक्त भी मिनटो में सिमटाया गया । <br /><br />नागपुर की इस नब्ज को टटोलने के लिये जब कल्याण सिंह नागपुर के तिलक पत्रकार भवन पहुंचे । तो उन्हे वहीं समझ में आ गया कि संघ की पकड़ नागपुर में कितनी कम है और जिनके भीतर संघ समाया हुआ है, वह कल्याण सिंह को संघ के सोशल इंजिनियरिंग का एक औजार भर मानते हैं। नागपुर की इन्हीं परिस्थितियो को जानते समझते हुये मोहनराव भागवत सरसंघचालक बने हैं। इसलिये दिल्ली पहुंच कर भागवत का भाजपा को पाठ पढ़ाने के अंदाज को समझना जरुरी है । क्योंकि राजनीतिक तौर पर भागवत हेडगेवार की उसी थ्योरी को समझते है कि जब राजनीति दिशाहीन हो जाये तो सामाजिक तौर पर हिन्दुत्व ही एकमात्र रास्ता बचता है। बदलाव सत्ता के जरीये नहीं बल्कि समाज के जरीये आता है। और सत्ता जोड़तोड़ की माथापच्ची के अलावा और कुछ नहीं है जबकि संघ सामाजिक सांस्कृतिक संगठन, जो समाज में राजनीति से ज्यादा घुसपैठ करता है । कई मौको पर हिन्दु महासभा से टकराव के दौर पर हेडगेवार ने कई जगहो पर इस समझ को रखा । <br /><br />लेकिन सवाल है जो संगठन अपने जड़ में यानी नागपुर में ही बेअसर है, उसका असर दिल्ली में क्यों नजर आता है । जाहिर है दिल्ली में समाज नहीं सिर्फ राजनीति है और राजनीति को पटरी पर लाने के लिये समाज का भय दिखा कर संघ अपना औरा खड़ा कर सकता है । सवाल है क्या मोहन राव भागवत इस भय के सहारे भाजपा को संघ से बांध रहे है या फिर भाजपा संघ के बनाये गये इस भय से अपना राजनीतिक हित साधना चाहती है। अगर संघ की मौजूदगी को राजनीतिक तौर पर देखा परखा जाये तो आजादी के बाद से किसी भी संकट के वक्त संघ का कार्य किसी एनजीओ और सामाजिक संगठन के मिले जुले रुप के तौर पर उभर कर आता है । लेकिन अयोध्या कांड के वक्त पहली बार संघ की भूमिका उसी सावरकर की राजनीतिक समझ के करीब लगी, जिससे संघ हमेशा कतराता रहा । जिस तेजी से भाजपा ने 1992 के बाद राजनीति सत्ता की सीढियों को चढ़ना शुरु किया और संघ की नयी पहचान में वह समाज में घुलने मिलने की जगह कहीं ज्यादा अलग साफ दिखायी पड़ने लगा, उसने वैचारिक तौर पर समूचे संघ परिवार को ट्रासंफार्म के दौर में ला खड़ा किया । क्योंकि जिस संघ में चेहरे से ज्यादा संगठन को महत्वपूर्ण माना गया, वहां अयोध्या के बाद संघ को पहले संघ के ही संगठन और फिर संगठनों के चेहरो में केन्द्रित करने की राजनीति भी शुरु हुई । भागवत इसी चेहरे से कतरा रहे हैं। क्योकि उनकी पूरी ट्रेनिग नागपुर में हुई है, जहां के समाज में संघ का कोई चेहरा मान्य नहीं है। यानी हेडगेवार के बाद से गुरुगोलवरकर हो या देवरस या फिर रज्जू भैया किसी की पहचान इस रुप में नहीं बनी कि जिससे संघ भी चेहरा केन्द्रित लगे । इसका राजनीतिक खामियाजा नागपुर के हर चुनाव में हर बार उभरा । भाजपा का उम्मीदवार अगर खाकी नेकर में नजर आया तो वह संघ का माना गया। जो खाकी नेकर में कभी नजर नहीं आया उसे बाहरी माना गया । संघ का भी जोर भी उसी बात पर रहा कि भाजपा उम्मीदवारो को लेकर समाज के भीतर बहस संघ के काम को लेकर हो और उम्मीदवार उसी सच से जुडे । यह अलग बात है कि संघ का काम नागपुर में ऐसा उभरा नहीं, जिससे भाजपा के उम्मीदवार को राजनीतिक लाभ मिले । लेकिन भागवत इसी सोच के आसरे भाजपा को दिल्ली में ढालना चाहते है। क्योकि इससे संघ पहचाना जाता है और इस पहचान के जरीये अगर राजनीतिक संगठन सत्ता पाता है तो संघ को लगता है कि हिन्दु राष्ट्र के नारे को इससे बल मिला। <br /><br />इसलिये भागवत का जोर एक महत्वपूर्ण चेहेरे की जगह सौ स्वयसेवको को काम पर लगाने की थ्योरी है । संघ की सोच और भागवत की निजी पहल इसीलिये दोहरे स्तर पर काम कर रही है । संघ उस चूक से निकलना चाहता है जिस चूक से धीरे धीरे भाजपा का मतलब लालकृष्ण आडवाणी होता चला गया । वहीं भागवत निजी तौर पर इस संदेश को साफ करना चाहते है कि वह आडवाणी के पीछे नहीं खड़े है जैसा की भागवत के सरसंघचालक बनने के बाद प्रचारित किया गया । भागवत का मानना है कि 2007 से लेकर 2009 तक आडवाणी के विरोध के बावजूद संघ ने स्वयसेवकों को को ना सिर्फ पूरी तरह शांत किया बल्कि चुनाव पूरे होने तक विरोध का हर स्वर भी दबा दिया । लेकिन आडवाणी ने संघ को भाजपा केन्द्रित बनाने की पहल चुनाव में हार के बाद भी जारी रखी। इसीलिये उन्हे दिल्ली में ना सिर्फ तीन दिन तक डेरा डालना पडा बल्कि हर निर्णय में अपने साथ उस पूरी टीम को साथ रखना पडा जो संघ का केन्द्र है। यानी सरकार्यवाह भैयाजी जोशी से लेकर दत्तात्रेय होसबले और मदनदास देवी से लेकर मनमोहन वैघ तक की मौजूदगी दिल्ली के हर बैठक में रही और हर बैठक में एक ही बात स्वयंसेवकों के लिये खुलकर कही गयी कि आडवाणी को जाना होगा । लेकिन खास बात यह भी है कि भागवत को छोडकर हर वरिष्ठ स्वयंसेवक खामोश ही रहा । कैमरे के सामने भी और बातचीत के दौर में भी । संघ के अपने इतिहास में भी यह पहली बार हुआ जब संघ के छह महत्वपूर्ण पदाधिकारी सारे काम छोड कर अपने ही किसी संगठन के झगड़ों को निपटाने के लिये नागपुर से बाहर जुटे। इस जुटान का मतलब भाजपा का बढ़ा कद भी है और संघ का सिकुड़ना भी । इसका मतलब भाजपा के खिलाफ पहल करने के लिये संघ का सबसे कमजोर वक्त का इंतजार करना भी था और भाजपा के भीतर भी स्वयंसेवक और गैर स्वयंसेवकों के युद्द छिड़ने का इंतजार करना भी था । असल में नागपुर में बिना पहचान के 84 साल गुजारने वाले आरएसएस की मान्यता बनाने या पाने की रणनीति का अक्स भाजपा आपरेशन से भी समझा जा सकता है । <br /><br />संघ की पहल भाजपा के खिलाफ तब हुई जब भाजपा के भीतर से ही नहीं बल्कि गैर स्वयंसेवक अरुण शौरी से लेकर भाजपा के समर्थन में खड़े बाहरी लोगों ने भी जब यह कहना शुरु कर दिया संघ को अब भाजपा का टेकओवर कर लेना चाहिये । यानी संघ की मान्यता जैसे ही भाजपा से बड़ी हुई भागवत ने हलाल तरीके से झटका दिया जो गुरु गोलवरकर की जनसंघ को लेकर उस टिप्पणी पर भी भारी पडी कि जनसंघ हमारे लिये गाजर की पूंगी है, बजी तो ठीक है नहीं तो खा जाएंगे । असल में संघ अब भाजपा को जनसंघ ही बनाना चाहता है, जिसमें आडवाणी की विदायी के साथ मई से दिल्ली में बैठे संजय जोशी सरीखे सौ स्वयंसेवक सक्रिय हो जाये और स्वदेशी आंदोलन को ठेगडी के बाद दिशा देने में लगे मुरलीधर राव सरीखे स्वयंसेवक भाजपा नेतृत्व संभाल लें। लेकिन संघ की इस पहल से सिर्फ भाजपा बदलेगी ऐसा भी नहीं है। असर संघ के भीतर बाहर भी है । इसका अक्स अयोध्या कांड के बाद नागपुर में संघ मुख्यालय से सटे खाली प्लाट को लेकर भी समझा जा सकता है । उस वक्त संघ मुख्यालय की सुरक्षा के लिये प्रशासन ने खाली प्लाट को संघ से जोड़ दिया, वही 17 साल बाद संघ को लग रहा है कि भाजपा को संघ में ढालकर वह उस राजनीतिक प्लाट को अपने घेरे में ले आयेगी जहां से टूटते-बिखरते संघ को एक नया जीवन मिलेगा ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-18017064613818132502009-09-01T15:41:00.003+05:302009-09-01T15:42:54.326+05:30जनादेश की हवा में मनमोहन की रफ्तारप्रधानमंत्री दुखी हैं । देश के हालात से नहीं, भाजपा के भीतर मची उठापटक से । शनिवार को बाड़मेर में थे। भाजपा पर पत्रकारों ने प्रतिक्रिया पूछी । मनमोहन सिंह बोले- लोकतंत्र के लिये बेहद जरुरी है राजनीतिक दलो में स्थिरता रहे । संयोग से मनमोहन सिंह का यह दुख ठीक उसी दिन आया, जब सरकार के सौ दिन पूरे हुये । और इन सौ दिने में देश के भीतर जो हुआ सो हुआ, लेकिन मनमोहन सिंह ने भी यह समझा कि नहीं समझा कि लोकतंत्र के लिये देश के भीतर भी स्थिरता रहनी बेहद जरुरी है। ये तो सालों साल तक पता नहीं चलेगा लेकिन जनादेश मिलने के बाद जिस गर्व से सरकार ने लगातार दूसरी बार सत्ता संभाली, उसमें कौन कहां किस रुप में पहुंचा यह समझना जरुरी है। <br /><br />सत्ता सभालते वक्त मनमोहन सिंह ने दो बातों पर खास जोर दिया था। पहला अर्थव्यवस्था और दूसरा आंतरिक सुरक्षा । मंदी को लेकर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का जो सपना विकास दर के आंकडों में देखने-दिखाने की कोशिश की जानी थी, उस सपने को सूखे ने सबसे पहले तोड़ा। विकास दर के आंकडो से लेकर महंगाई दर के आंकड़ों के लिये सरकार की कोई नीति काम करती है, इस पर तो कयास ही लगाये जा सकते है लेकिन सूखा से लड़ने के लिये नीति होनी चाहिये नहीं तो देश डगमगा सकता है, इसका अंदाज सूखे में डगमगाते देश और सरकार से लग गया। मानसून के हवा-हवाई होने के वक्त ही संसद का मानसून सत्र शुरु हुआ था। लेकिन सरकार ने सूखा तो दूर मानसून की कमी को भी नहीं माना। सूखे से देश के सत्तर करोड़ लोग जब सीधे प्रभावित हो रहे थे, तब सरकार शर्म-अल-शेख और बलूचिस्तान को लेकर संसद में उलझी थी। किसी ने हिम्मत नहीं दिखायी कि सूखा और उसके बाद महंगाई से खस्ता होते हालातों को लेकर संसद से कोई पहल हो। <br /><br />संसद का मानसून सत्र बिना मानसून जब आखिरी दौर में पहुचा तो सरकार और सांसदों को लगा कि उन्हें तो अब अपने लोकसभा क्षेत्र में भी जाना होगा तो रस्मअदायगी के लिये मानसून-सूखा-महंगाई का रोना रोया गया । जिसमें बहस के दौरान लोकसभा में कभी भी सौ सासंद भी नजर नहीं आये । सरकार के पहले बजट ने भी जतला दिया कि उसकी नजर वोट बैंक को खुद पर आश्रित किये रखने की है। इसलिये बजट में इन्फ्रास्ट्रक्चर के जरीये देश को मजबूत आधार देने के बदले मंत्रालयों को ग्रामीण समाज के विकास का पाठ पढाते हुये बजट का साठ फीसदी बांटा गया। यानी यह जानते समझते हुये किया गया कि अगर केन्द्र से साठ लाख करोड़ रुपया ग्रामीण विकास के लिये चलेगा तो निचले स्तर तक महज छह से नौ लाख रुपया ही पहुंच पायेगा । बाकि तो उस तंत्र में खप जायेगा जो सरकार के जरिये बीच का आदमी होकर वोटबैक भी बनाता-बनता है और इसी तंत्र को रोजगार मान कर सरकारो की नीतियों पर तालिया पीटता है । <br /><br />राष्ट्रीय रोजगार योजना यानी नरेगा इसी तंत्र में सबसे मजबूत होकर उभरा तो उसको चुनाव की जीत से जोड़ते हुये उस पर करोड़ों लुटाने की नीति बनी । नरेगा के तहत हर महीने साढ़े तीन हजार करोड़ से कुछ ज्यादा और साल भर में 44 हजार करोड का प्रवधान किया गया । लेकिन पहले सौ दिन में 12 हजार करोड़ रुपये नरेगा में देकर सरकार ने क्या किया, इसका कोइ लेखा-जोखा नही है । सिवाय इसके कि किस गांव पंचायत में किस किस नाम के किस ग्रामीण को रोजगार दिया गया । जो दिल्ली में बैठ कर फर्जी बनाया जा सकता है । सवाल है कि इसी नरेगा को किसी इन्फ्रास्ट्रक्चर की योजना से जोड़ा जाता तो नजर में काम भी आता और रोजगार भी। लेकिन यहा सिर्फ रुपया नजर आ रहा है। प्रधानमंत्री कभी दुखी नहीं हुये कि उनके मंत्रालय में कैबिनेट स्तर के कृषि मंत्री ही सूखा और महंगाई को लेकर जमाखोरो और मुनाफाखोरो को लगातार संकेत दे रहे है कि जो कमाना है तो चीनी, दाल, चावल की जमाखोरी कर लो। <br /><br />यह पहली बार हुआ कि कृषि मंत्री शरद पवार ने देश में भरोसा पैदा करने की जगह संसद के परिसर से लेकर कृषि मंत्री की कुर्सी पर बैठ कर कहा कि चावल-चीनी के दाम आने वाले वक्त में बढ़ सकते है । दाल की कमी हो सकती है । इस दौर में कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्य सत्यव्रत चतुर्वेदी ने भी सूखे और महंगाई के मद्देनजर शरद पवार पर देश को गुमराह करने का आरोप लगाया। लेकिन प्रधानमंत्री अपनी टीम के वरिष्ठ मंत्री को लेकर न दुखी हुये न ही उन्होने कोई प्रतिक्रिया दी । बात हवा में उड़ा दी गयी। <br /><br />इसी दौर में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के इलाको को चिन्हित कर बुदेलखंड प्राधिकरण का सवाल राहुल गांधी ने उठाया । प्राधिकरण या कहे राहुल गांधी को लेकर उस राजनीति में भरोसा जरुर उठा जो बुंदेलखंड को संवार कर अपनी राजनीतिक जमीन बनाना चाहते है, लेकिन बुंदेलखंड के लोगो में कोई आस नही जगी । क्योंकि इन सौ दिनो में यहां के पांच लाख से ज्यादा लोगों को रोजी रोटी के लिये घरबार छोड़ना पड़ा। वहीं, इसी दौर में इसी इलाके में खनिज संपादा की लूट में हजारों एकड़ जमीन पर सिर्फ बारुद ही महकता रहे। माइनिंग के जरिये खनिज संपदा को निकालने के प्रक्रिया में तीन हजार से ज्यादा विस्फोट तो इन्हीं सौ दिनो में किये गये । और विश्व बाजार में दस हजार करोड़ से ज्यादा का खनिज यहां से निकाला गया। <br />किसानो को लेकर राहत का सवाल इन सौ दिनो में तीन बार सरकार की तरफ से किया गया, जिसमें दो बार वित्तमंत्री तो एक बार पीएम को ख्याल आया । याद करने के दौरान हर बार कुछ राहत देने की बात कही गयी लेकिन मुश्किल आसान करने की कोई नीति सरकार ने नहीं रखी । इन सौ दिनों में सरकार की तरफ से ऐसी कोई नीति लाने की भी नहीं सोची गयी, जिससे किसाने को कहा जा सके कि 2014 के चुनाव के वक्त कोई किसान आत्महत्या नहीं करेगा, ऐसी नीतिया हम ला रहे हैं। मनमोहन सिंह स्वतंत्रता दिवस के दिन लालकिले से जब देश में दूसरी हरित क्रांति की जरुरत बता रहे थे, तब विदर्भ के पांच किसान खुदकुशी कर रहे थे। 2008 में भी मनमोहन सिंह ने ही लालकिले पर झंडा फहराया था और 2009 में भी । किसानो को लेकर दर्द दोनो मौकों पर उभारा था । लेकिन इस एक साल में देश भर में तीन करोड़ से ज्यादा किसान मजदूर हो गये । संयोग से आजादी के बाद मजदूरों में तब्दील होने का किसानो का यह सिलसिला सबसे तेजी से उभरा है। जिस आंध्र प्रदेश में वायएसआर ने किसानो का ही सवाल उठाकर सत्ता पायी और सौ दिन पहले दूसरी बार सत्ता जीत कर नायडू के इन्फोटेक को मात दी, वही वायएसआर ने भी कैसे किसानों से मुंह मोड़ लिया, यह भी इन्हीं सौ दिनो में नजर आया। सबसे ज्यादा किसानो ने इन्हीं सौ दिनो में खुदकुशी की। आंकड़ा पचास पार कर गया । <br /><br />लेकिन सवाल यह उभरा कि पीएम ने दूसरी हरित क्रांति को लाने के लिये किसे कहा। उनकी खुद की पहल क्या है । यह सवाल मौन है । पंचायती स्तर की राजनीति की वकालत तो पीएम भी करते हैं । लेकिन दिल्ली से महज सौ किलोमीटर की दूरी पर इन्ही सौ दिनो कोई पंचायत छह प्रेमी जोड़ों की हत्या कर दे और राज्य के मुख्यमंत्री से लेकर पीएम तक खामोश रहे , तो क्या इसे महज सामाज की त्रासदी बताकर खामोशी ओढी जा सकती है। हरियाणा में तो वही कांग्रेसी सरकार है जो दुबारा सत्ता पाने के लिये सबकुछ योजनाबद्द तरीके से कर रही है। सोनिया गांधी से मुलाकात कर जल्द चुनाव कराकर सत्ता में दोबारा लौटने का जो बल्यू प्रिंट कांग्रेसी सीएम हुड्डा ने रखा, उसमें वह 8 हजार करोड़ का प्रचार भी था जो विधानसभा भंग करने से पहले न्यूज चैनलों, समाचार पत्रों, एफएम और तमाम हिन्दी-अंग्रेजी की पत्रिकाओं के लिये बुक कर लिये गये थे । अगर यही नीति और पैसा उन पंचायतो को आधुनिक समाज से जोड़ने में लगाया जाता, जहां पुलिस कानून को ठेंगा दिखाकर नौजवान प्रेमियो की हत्या कर दी जाती है तो कुछ बात होती । लेकिन हत्याओ के बाद सीएम का बयान भी यही आया कि समाज को भी देखना पड़ता है । पीएम तो देश का होता है । जब सरकार के ही आंकडे बताते है कि देस में 38 फीसदी गरीबी की रेखा से नीचे है और सत्तर करोड लोग दिन भर में महज बीस रुपये कमा पाते है तो फिर दस सेकेंड के लिये बीस हजार से लेकर नब्बे हजार तक न्यूज चैनलो में अपनी उपल्बधि बताने के लिये कोई कांग्रेसी कैसे लुटा सकता है। <br /><br />अर्थव्यवस्था और आंतरिक सुरक्षा के छेद खुद सरकार भी बताती है । इन्ही सौ दिनो में हजार और पांच सौ रुपये के नकली नोट देश की अर्थव्यवस्था को खोखला करते गये । सरकार के माथे पर भी शिकन साफ दिखायी दी । बडे स्तर पर जांच की तैयारी भी की गयी लेकिन रिजर्व बैक ने जब यह कहा कि हर पांच नोट पर एक नकली नोट हो सकता है तो मामला जांच से आगे जाता है। लेकिन पीएम ने कोई पहल नहीं की। क्या यह संभव नही कि पांच सौ और हजार रुपये तत्काल बंद कर सिर्फ सौ रुपये का ही चलन कर दिया जाता। वैसे भी उन नोटो को रखने वाले देश के बीस फीसदी ही लोग हैं। लेकिन बात तो देश की होनी चाहिये। हां, इसमें काला धन रखने वालो को परेशानी जरुर होती। जो शेयर बाजार से लेकर अर्थव्यवस्था डांवाडोल कर सकते हैं। लेकिन उनके लिये भविष्य में कोई भी अनुकूल नीति बन सकती है। बात को पहले देश बचाने की होनी चाहिये। जहा तक आंतरिक सुरक्षा का सवाल है तो देश में सूखा साढे तीन सौ जिलों में है और माओवादी करीब दो सौ पच्चतर जिलों में । ना तो कांग्रेस और ना ही भाजपा का प्रभाव इतने जिलों में है । बीते सौ दिनो में माओवादियों ने बंगाल के छह नये जिलों को अपने प्रभाव में लिया है। लालगढ में कार्रवाइ के बाद इनके कैडर में करीब पांच हजार लोग जुड़े हैं। सौ दिनों में माओवादियों के दो दर्जन हमले हुये । जिसमें तीन सौ से ज्यादा लोग मारे गये । छत्तीसगढ़ में तो वरिष्ठ पुलिस अधिकारी भी मारे गये । आंकडे के लिहाज से इसी सौ दिनो में सबसे ज्यादा हि्सा माओवादियो के जरीये हुई है, और इन्हीं सौ दिनो में पुलिस प्रशासन सबसे निरीह नजर आया है। <br /><br />इसलिये सवाल भाजपा का नहीं है जिसकी अस्थिरता में लोकतंत्र की कमजोरी टटोली जाये , और दुखी हुआ जाये । कहा यह भी जा सकता है कि कमजोर नीति और मजबूत इरादे अगर सरकार में न हों तो लोकतंत्र कहीं ज्यादा कमजोर पड़ता है, जो सौ दिनो के दौरान नजर आया है। और इससे देश दुखी है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-28917937248258561172009-08-28T08:07:00.002+05:302009-08-28T08:09:03.227+05:30संघ या भाजपा में किसका ज़हर किसे डसेगा ?बीजेपी को कौन ठीक करेगा ? ये कुछ ऐसा ही है जैसे पीसा की झुकती मीनार को कौन सीधा कर देगा। यह टिप्पणी संघ के ही एक बुजुर्ग स्वयंसेवक की है, जो उन्होंने और किसी से नहीं बल्कि जम्मू में सरसंघचालक से कही । इसका जबाब भी सरसंघचालक की तरफ से तुरंत आया कि संघ सांस्कृतिक संगठन है, उसे राजनीतिक से क्या लेना देना। इस पर एक दूसरे स्वयंसेवक ने सवाल उठाया कि राजनीति करने वाले भी अगर स्वयंसेवक है और वह भटक गये हैं तो उन्हें कौन ठीक करेगा। इसपर सरसंघचालक का जबाब आया कि भटकाव की एक उम्र होती है, एक उम्र के बाद भटकाव नहीं निजी स्वार्थ होते हैं। उन्हे दुरस्त करने के लिये किसी भी स्वयंसेवक को पहले अपने आप से जूझना पड़ता है। यह शुद्दीकरण है। <br /><br />जाहिर है यह संवाद लंबा भी चला होगा । लेकिन यह संवाद संघ के संस्थापक और पहले सरसंघचालक हेडगेवार की तरह का है । जब हेडगेवार ने हिन्दू राष्ट्र का सवाल काशी की एक सभा में उठाया तो वक्ताओ में से सवाल उछला कि कौन मूर्ख कहता है कि यह हिन्दू राष्ट्र है । इसपर हेडगेवार ने न सिर्फ हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना को सामने रखा बल्कि हिन्दुओ को लेकर ही उस सवाल का भी जबाब दिया, जिसमें कहा गया कि चार हिन्दू भी कभी एक रास्ते नहीं चलते। जब तक शवयात्रा में शामिल न हों। <br /><br />लेकिन यही सवाल बदले हुये रुप में संघ के सामने 84 साल बाद भी भाजपा को लेकर खड़ा हो गया है। संघ के भीतर भाजपा को लेकर चार हिन्दुओ की कथानुसार सवाल उठने लगे हैं कि सत्ता के मारे भाजपा के चार नेता भी एक दिशा में नहीं चल रहे । और अगर सत्ता होती तो सभी एक दिशा में चल पड़ते । सवाल जबाब के इस सिलसिले में अपने ही राजनीतिक संगठन और अपने ही स्वयंसेवकों को लेकर सरसंघचालक मोहनराव भागवत को भी आठ दशक पुराने उन तर्को को ही सामने रखना पड़ रहा है, जिसको कभी हेडगेवार ने सामने रखा था । भाजपा की उथल-पुथल ने संघ को अंदर से किस तरह हिला दिया है, इसका अंदाज इसी बात से लग सकता है कि नागपुर के हेडगेवार भवन के परिसर में स्वयंसेवकों की सबसे बड़ी टोली जो हर सुबह शाम मिलती है, उसमें बीते रविवार इस बात को लेकर चर्चा शुरु हो गयी कि भाजपा की समूची कार्यप्रणाली सिर्फ राजनीतिक सत्ता की जोड़-तोड़ में ठीक उसी तरह चल रही है जैसे कांग्रेस में चला करती है। इसलिये भाजपा के स्वयंसेवक भी संघ से ज्यादा कांग्रेस से प्रभावित हैं। यानी कांग्रेसीकरण की दिशा को भाजपा ने आत्मसात कर लिया है ।<br /><br />असल में चर्चा इतनी भर ही होती तो भी ठीक है । कुछ पुराने स्वयंसेवको ने भाजपा की त्रासदी का इलाज हेडग्वार की सीख से जोड़ा । चर्चा में बकायदा हेडगेवार के उस प्रकरण को सुनाया गया जो उन्होंने कांग्रेस छोडकर आरएसएस बनाने की दिशा में कदम बढ़ाये । स्वयंसेवकों को जो किस्सा वहां सुनाया गया उसके मुताबिक, <br /><br />" कलकत्ता से मेडिकल की पढ़ाई पूरी करने के बाद डॉक्टर हेडगेवार तीन हजार रुपये की नौकरी छोड़ कर नागपुर आ गये । जहा वह कांग्रेस में भर्ती हो गये। 1920 में नागपुर में काग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ, डा हेडगेवार उसकी व्यवस्था में लगे स्वयंसेवी दल के प्रमुख थे । दिन रात परिश्रम करके उन्होने अधिवेशन को सफल बनाया । नागपुर के युवकों की ओर से पूर्ण स्वतंत्रता प्रप्ति तक अविराम संघर्ष करते रहने का प्रस्ताव भी उन्होंने अधिवेशन में रखवाया । 1921 के असहयोग आंदोलन में वे एक साल के लिये जेल भी गये । वहां उन्होंने देखा कि अपने भाषणो में बड़े-बड़े आदर्शो की बात करने वाले कांग्रेसी नेता जेल में एक गुड के टुकड़ों के लिये कैसे लड़ते हैं। मुस्लिम तुष्टीकरण,अनुशासनहीनता और निजी स्वार्थपरता जैसी कांग्रेस-चरित्र की विशेषताओ को देखकर उनका मन इस ओर से खट्टा हो गया । इसके बाद ही उन्होंने सोचा ही बिना हिन्दू संगठन के भारत का उत्थान संभव नहीं है, क्योकि हिन्दू समाज ही देश का एकमेव समाज है। इसी के बाद 1925 में विजयी दशमी के दिन राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ की स्थापना की।" <br /><br />हेगडेवार की इस कथा के बाद स्वयसेवक इस सवाल से जूझते है कि भाजपा की वजह से क्या संघ को लेकर हेडगेवार की सोच मर जायेगी । चर्चा आगे बढ़ती है तो भाजपा से बेहतर संघ के स्वयंसेवकों को वही काग्रेस भी नजर आने लगती है, जिसके खिलाफ कभी हेडगेवार कडे हुये थे । अनुशासन को लेकर कांग्रेस और भाजपा की तुलना । फिर निजी स्वार्थ को लेकर भाजपा नेताओं पर अंगुली उठाते हुये गिनती कम पड़ना । और फिर सत्ता के लिये गठबंधन की राजनीति को मुस्लिम तुष्टीकरण से कहीं ज्यादा खतरनाक ठहराते हुये यह सवाल करना कि संघ को कहां तक भाजपा को फिर से मथने के लिये जुटना चाहिये। <br />संघ के स्वयसेवको के भाजपा को लेकर यह सवाल सिर्फ नागपुर तक सीमित हो ऐसा भी नहीं है । यह सवाल राजकोट में भी मौजूद हैं और असम में भी । लेकिन संघ के लिये बड़ा सवाल यही से शुरु होता है । क्योंकि इस दौर में संघ अगर भाजपा को देखकर कोई टीका-टिप्पणी ना करे तो संघ की मौजूदगी का एहसास संघ में ही नहीं होता । इसलिये महत्वपूर्ण यह नहीं है कि सरसंघचालक भाजपा से जुडे हर सवाल का जबाब जहां जाते हैं, वहां पत्रकारों को देखकर या कहे कैमरो को देखकर देने लगते हैं। बल्कि पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन भी इसी तरह की प्रतिक्रिया देने लगे हैं । जैसा वह सरसंघचालक रहते हुये किया करते थे और सबसे अलोकप्रिय होते चले गये। स्थिति संघ के लिये इससे आगे बिगड़ रही है । पिछले दस वर्षो में वाजपेयी की अगुवायी में संघ के स्वयंसेवकों ने पांच साल देश जरुर चलाया। लेकिन इसी दौर में संघ अपनी जमीन पर ही परायी होती गयी और उसकी खुद की जमीन भी भाजपा की सत्ता महत्ता को बनाये रकने पर आ टिकी है। भाजपा के संकट ने संघ के सामने 84 साल में पहली बार ऐसी चुनौती रखी है, जहां से खुद का शुद्दीकरण पहले करना है। संघ का कोई संगठन पिछले दस वर्षो में सरोकार से नहीं जुटा। यानी जिस संगठन का जिस क्षेत्र में जो काम है, उसकी विसंगतियो से जूझते हुये हिन्दू समाज की व्यापकता को एकजुट करने की जो सोच हेडगेवार और गोलवरकर से होते हुये देवरस और रज्जू भैया तक फैली, उस पर भाजपा के उफान के दौर में कुछ इस तरह ब्रेक लगी कि संघ भी पिछडता चला गया । <br /><br />सवाल यह नहीं है कि जनसंघ और फिर भाजपा को संघ ने एक ठोस जमीन दी, इसीलिये उसे राजनीतिक सफलता मिली । महत्वपूर्ण है कि लोहिया से लेकर जेपी भी इस तथ्य को समझते रहे कि संघ के तमाम संगठन, जो अलग अलग क्षेत्रो में काम कर रहे हैं, अगर उन्हे साथ जोड़ा जाये तो राजनीतिक सफलता के लिये एक बडे समाजिक कार्य पर जाया होने वाले वक्त को बचाया जा सकता है। वनवासी कल्य़ाण आश्रम, भारतीय किसान संघ, विघा भारती, भारत विकास परिषद, संस्कार भारती, सेवा भारती, प्रज्ञा भारती, लधु उघोग भारती, सहकार भारती, विज्ञान भारती, ग्राहक पंचायत से लेकर हिन्दू जागरण मंच और विश्वहिन्दू परिषद जैसे दो दर्जन से ज्यादा संगठन संघ की छतरी तले देश के तीस करोड़ लोगो के बीच अगर काम रहे हैं तो उसका लाभ किसी भी राजनीतिक दल को मिल सकता है। इसका लाभ 1967 में गैर कांग्रेसवाद के नारे लगाते लोहिया ने भी उठाया और 1977 में जेपी ने जनता पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने में भी उठाया । और यहां यह भी कहा जा सकता है कि 1990 में अयोध्या आंदोलन की अगुवायी करते लालकृष्ण आडवाणी उस मानसिकता के बीच नायक भी बनते चले गये जो चाहे अयोध्या आंदोलन का आडवाणी तरीका पंसद ना करता हो लेकिन संघ के तौर तरीके सो अलग अलग संगठनो के जरीये जुड़ा था। <br /><br />1999 में वाजपेयी की जीत के पीछे महज कारगिल जीत का भावनात्मक प्रचार नहीं था, बल्कि सुदूर गांवो में भी संघ की शाखा इस बात का एहसास करा रही थी कि भाजपा कहीं अलग है । या कहे कांग्रेस से अलग राजनीतिक दल है, जो सरोकार को समझता है । लेकिन इसका एहसास कियी को नहीं था कि भाजपा की सत्ता संघ के लिये धीमे जहर का काम करेगी । यह ज़हर संघ के भीतर बीते दस साल में किस तरह फैलता चला गया इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि 1998 के बाद से सिवाय विश्व हिन्दू परिषद के किसी संघठन की सदस्य सख्या में इजाफा नहीं हुआ। उतना ही नहीं जिन संगठनो ने जो भी मुद्दे उठाये, उन सभी मुद्दों का आंकलन राजनीतिक तौर पर भाजपा के घेरे में पहले हुआ, उसके बाद संघ के सरोकार का सवाल उठा। <br /><br />आदिवासी, मजदूर, किसान , शिक्षा व्यवस्था, स्वदेशी यानी कोई भी मुद्दा भाजपा के लिये घाटे का है या मुनाफे का, इसकी जांच परख पहले हुई । फिर सत्ता में भाजपा के साथ खड़े राजनीतिक दलों की भी अपनी अपनी राजनीतिक जरुरत थी, तो भाजपा की राजनीतिक प्रयोगसाला में आने के बाद किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच, वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती, हिन्दू जागरण मंच सभी कुंद कर दिये गये। क्योंकि इनके मुद्दे सरकार को परेशानी में डाल सकते थे। और जो लकीर आर्थिक सुधार के भाजपा के दौर में भी खींची, उसको इतनी महत्ता दी गयी कि उस वक्त सरसंघचालक सुदर्शन ने अपने से बुजुर्ग और ज्यादा मान्यताप्राप्त दंतोपंत ठेंगडी को भी खामोश करा दिया। <br /><br />नया सवाल इसलिये गहरा है क्योंकि भाजपा के पास सत्ता है नहीं। और संघ के संगठनों की सामाजिक पहल भी भाजपा सरीखी ही हो चुकी है। यानी संघ का कोई संगठन अपने ही मुद्दे को लेकर कोई आंदोलन तो दूर मुद्दों पर सहमति बनाकर अपने क्षेत्र में ही किसी प्रकार का दबाब बना नहीं सकता है। स्थिति कितनी बदतर हो चली है, यह पिछले हफ्ते संघ के संगठनो की पहल से ही समझ लें। संघ के संगठनों ने पिछले हफ्ते जो काम किये, उसमें पर्यावरण को लेकर भोपाल में गोष्ठी है। जिसमें पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन ने कहा कि पश्चिमी देशो के सिद्दांत से ही पर्यावरण संतुलन बिगड़ा है । हिन्दु मंच ने दिल्ली में आतंकवाद मुक्त पखवाड़ा मनाया, सेवा भारती ने उदयपुर में 695 मरीजो को शिविरो में जांचा । विश्वहिन्दू परिषद ने तमिलनाडु में कोडईकनाल के घने जंगलो में 207 वन बंधुओ की स्वधर्म वापसी करायी । नारी रक्षा मंच ने संस्कार को लेकर इंदौर में एक सम्मेलन किया। लखनऊ में स्व अधीश कुमार स्मृति व्याख्यानमाला हुई । आदित्य वाहिनी ने उड़ीसा में सनातन धर्म को बनाया। दुर्गा वाहिनी ने भारत तिब्बत सीमा पर सैनिको को रक्षा सूत्र बांधे। कह सकते हैं कमोवेश हर संगठन की कुछ ऐसी ही पहल बीते हफ्ते रही या कहें भाजपा के राजनीतिक हितो को साधने वाले संघ के तौर तरीको ने तमाम संगठनो को इसी तरह की सामाजिक कार्यो में लगा दिया। जहां सिवाय संबंघ बनाने और सामाजिक समरसता का भाव समाज में फैलाते हुये भरे पेट के साथ आराम तलबी के अलावे कुछ नहीं बचा। <br /><br />संघ की जब यह हालात अपने संगठनो को लेकर है तब सवाल पैदा होता है कि उससे भाजपा को क्या राजनीतिक फायदा हो सकता है और भाजपा संघ को महत्ता क्यो दे। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि संघ के इन्ही संगठनों को जिलाये बगैर भाजपा का भी राजनीतिक भला नहीं हो सकता है क्योकि राजनीति चाहे सरोकार से नहीं सौदेबाजी से चलती है, लेकिन भाजपा के नेताओं को सौदेबाजी के टेबल तक पहुचने के लिये संघ का सरोकार चाहिये ही। नया सवाल है कि इन संगठनों में सरोकार की जान कैसे फूंकी जाये । खासकर जब संगठन से बड़े मुद्दे हो चले हैं और मुद्दो को लेकर कोई राजनीति इस देश में बची नहीं है। यानी एक तरफ जिन मुद्दो के आसरे हेडगेवार हिन्दु राष्ट्र का सपना संजोये थे, वही मुद्दे कही ज्यादा व्यापक हो कर राजनीति और संगठन को ही खत्म कर रहे हैं। तब संकट यह है कि इन मुद्दो को किस तरह उठाया जाये, जिससे संघ की पुरानी हैसियत भी लौटे और भाजपा भी महसूस करे कि उसका राजनातिक लाभ संघ के बगैर हो नहीं सकता । क्योंकि नये तरीके की राजनीति और सरोकार गुजरात की तर्ज पर उठ रहे हैं, जो आतंक की लकीर तले विकास और सत्ता को इस तरह रखता है। राजनीति सिमटती है और विकास से जुड़े मुद्दे धर्म का लेप चढ़ा लेते हैं। इन सब के बीच गठबंधन की सोच सर्व धर्म सम्माव की धज्जिया उड़ाती है और नरेन्द्र मोदी सरीखी मानसिकता संघ से भी बड़ी हो जाती है और सत्ता की सौदेबाजी भी मोदी के आगे छोटी होने लगती है। <br /><br />इन नयी परिस्थितियो में अगर दिखायी देने वाला संकट विचारधारा के घेरे में संघ और भाजपा दोनों एक दूसरे के सामने खड़े हुये हैं । तो संघ परिवार की नयी बैचेनी एक-दूसरे के अंतर्विरोध को ठिकाने लगाकर खुद को खड़े करने की पैदा हो चली है। इसमें मुश्किल यह हो गयी है कि भाजपा के भीतर अगर आडवाणी को चुनौती देने के लिये एक अदना सा कार्यकर्त्ता भी खुद को सक्षम मान रहा है तो संघ में एक अदना सा स्वयंसेवक सरसंघचालक से बेहतर समाधान की बात कहने लगा है । यानी सत्ता की लड़ाई में सत्ताधारी ही महत्वहीन बन गये हैं।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-39707404239366539532009-08-25T00:02:00.001+05:302009-08-25T00:03:51.946+05:30रिंग में आडवाणी-भागवत आमने सामनेसंघ के इतिहास में यह पहला मौका है, जब आरएसएस को अपने ही किसी संगठन से सीधा संघर्ष करना पड़ रहा है। इस संघर्ष का महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि यह सीधा संघर्ष विचारधारा से इतर शीर्ष पर बने रहने की लड़ाई है । जिसमें एक तरफ अगर सरसंघचालक खड़े हैं तो दूसरी तरफ संघ की छांव में बड़े हुये लेकिन सत्ता की जोड़-तोड़ में तपे भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी।<br /><br />सरसंघचालक मोहनराव भागवत अगर संघ परिवार के भीतर कुछ परिवर्तन करना चाहें और वह हो न पाये, ऐसा आरएसएस में कोई सोच नहीं सकता । लेकिन आरएसएस के बाहर अगर अब यब माना जाने लगा है कि आरएसएस का मतलब संघ परिवार नहीं बल्कि भाजपा हो चली है तो यह पहली बार हो रहा है। 1948 में जब तब के सरसंघचालक गुरु गोलवरकर ने देश के गृहमंत्री सरदार पटेल को लिख कर दिया था कि आरएसएस सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन है, उस दौर में संघ ने चाहे सोच लिया होगा कि एक दिन ऐसा जरुर आयेगा जब देश को संघ के स्वयंसेवक ही चलाएंगे। लेकिन संघ ने कभी यह नहीं सोचा होगा कि वहीं स्वयसेवक सत्ता में आने के बाद संघ को ही हाशिये पर ढकेलने लगेगा। वहीं स्वयंसेवक संघ के दर्द पर और नमक छिड़केगा। <br /><br />वाजपेयी के दौर में सत्ता में बैठे स्वयंसेवकों से सबसे बडा झटका आरएसएस को तब लगा जब उत्तर-पूर्वी राज्य में चार स्वसंवकों की हत्या हो गयी और देश के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने नार्थ ब्लाक से सिर्फ पांच किलोमीटर दूर झडेवालान के संघ मुख्यालय जाकर मारे गये स्वयंसेवकों की तस्वीर पर फूल चढ़ा कर श्रद्धांजलि देना तक उचित नहीं समझा। बाकि कोई कार्रवाई की बात तो बेमानी है, चाहे उस वक्त सरसंघचालक सुदर्शन से लेकर भाजपा-संघ के बीच पुल का काम रहे मदनदास देवी ने गृहमंत्री आडवाणी से गुहार लगायी कि उन्हें जांच करानी चाहिये कि हत्या के पीछे कौन है। <br /><br />माना जाता है आरएसएस ने इसका बदला कंघमाल के जरिये भाजपा से लिया । भाजपा उड़ीसा में संघ के नेता की हत्या के बाद नवीन पटनायक को सहलाती-पुचकारती, उससे पहले ही संघ ने कंधमाल को अंजाम दे दिया । जिससे भाजपा को गठबंधन की राजनीति का सबसे बड़ा झटका ऐन चुनाव से पहले लगा । यह संघर्ष बढ़ते-बढ़ते एक -दूसरे के आस्त्वि पर ही सवालिया निशान लगाने तक आ पहुंचा। यह किसी ने सोचा नहीं था , लेकिन अब खुलकर नजर आने लगा है । <br /><br />सवाल यह नहीं है कि भाजपा के चिंतन बैठक से 24 घंटे पहले सरसंघचालक भागवत ने कैमरे पर इटरव्यू दे कर चिंतन बैठक को एक ऐसी दिशा देने की कोशिश की जिसपर निर्णय का मतलब झटके में भाजपा को बीच मझधार में लाकर न सिर्फ खड़ा करना होता बल्कि भाजपा में भी नताओ के सामने संकट आ जाता कि वह राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर खुद की हैसियत को कैसे बरकरार रखते हैं । यह संकट ठीक वैसा ही है, जैसा मोहनराव भागवत के सामने सरसंघचालक बनने के बाद आया है । संयोग से सरसंघचालक भागवत की जितनी उम्र है, उससे ज्यादा उम्र लालकृष्ण आडवाणी ने आरएसएस और पार्टी को दिया है। यह समझा जा सकता है कि जब आडवाणी राजनीति में आये तब भागवत चन्द्रपुर में बच्चो के खेल में भविष्य के तार संजो रहे होंगे। लेकिन ज्यादा दूर न भी जायें तो लालकृष्ण आडवाणी जब देश के सूचना-प्रसारण मंत्री बने तब भागवत बतौर प्रचारक डंडा भांज रहे थे। यह संकट इससे पहले कभी सिर्फ सुदर्शन के सामने आया। क्योकि उम्र और स्वयंसेवक के तौर पर वाजपेयी-आडवाणी से सुदर्शन पांच साल छोटे थे। <br /><br />लेकिन संघ के साथ जुड़ने का सिलसिला इनमें दो साल के फर्क के साथ था। लेकिन वाजपेयी की राजनीतिक समझ के साथ साथ सामाजिक-सांसकृतिक समझ के दायरे में सुदर्शन खासे पीछे थे । इसलिये कई मौके आये जब बतौर सरसंघचालक सुदर्शन ने वाजपेयी को आरएसएस का पाठ पढ़ाने की कोशिश की लेकिन हर पाठ का महापाठ, जो वाजपेयी के पास था, उसका असर यही हुआ कि सुदर्शन को हर सार्वजनिक मौके पर वाजपेयी को खुद से बड़ा मानना पड़ा । और हमेशा लगा कि संघ भाजपा के पीछे खड़ी है । इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि वाजपेयी के पास आडवाणी थे। जिसके जरिये वाजपेयी कभी संघ के लगे नहीं और आडवाणी कभी संघ से अलग दिखे नहीं। बदली परिस्थितियो में सुदर्शन और वाजपेयी मंच से उतर चुके हैं और आमने सामने और कोई नहीं वही भागवत और आडवाणी आ गये है, जो कभी सुदर्शन के सुर से परेशान रहते थे तो कभी वाजपेयी के सेक्यूलरवाद से। <br /><br />लेकिन दोनो के सामने अपने अपने घेरे में ऐसी चुनौतियां है, जो संयोग से एक-दूसरे से टकरा भी रही हैं और दोनो ही अपनी अपनी जगह व्यक्ति से बड़े संगठन के तौर पर जगह बनाये हुये हैं। वाजपेयी के दौर में भाजपा के पीछे खड़ा संघ आज भी वैचारिक तौर पर इतना पीछे खड़ा है कि उसे खुद को स्थापित करने के लिये सबसे पहले भाजपा को ही खारिज करना होगा। इसके लिये सामने आडवाणी खड़े हैं जो खुद को संघ से ज्यादा करीब भाजपा के भीतर हर दौर में बताते भी आये और डिप्टी प्रधानमंत्री बनने का जो खेल खेला, उसमें दिखा भी दिया। ऐसे में भागवत अगर आडवाणी को संघ के नियम-कायदे बताकर बाहर का रास्ता दिखाना चाहते हैं, तो उन्हे हर बार मुंह की इसलिये खानी पड़ेगी क्योकि भागवत का तरीका राजनीति की वही चौसर है, जिसमें आडवाणी माहिर हैं। हिन्दु राष्ट्र की खुली वकालत करते भागवत एक अग्रेजी न्यूज चैनल और अंग्रेजी अखबार को इटरव्यू इसलिये देते हैं, क्योंकि एक तरफ वह देश के प्रभावी अंग्रेजी मिजाज में अपनी हैसियत दिखा सके और दूसरी तरफ दक्षिण में सक्रिय संघ के कार्यकर्ताओ में भाजपा से खुद को बड़ा दिखा सके या संघ की हैसियत का अंदाजा येदुरप्पा की कर्नाटक की सत्ता की मदहोशी में संघ को भुलाते स्वयंसेवकों में जतला सके। <br /><br />वहीं भागवत को भागवत के ही जाल में बिना बोले उलझाना किसी भी राजनेता के लिये मुश्किल नहीं है और आडवाणी इसमें माहिर है, यह कोई भी उनके पचास साल की ससंदीय राजनीति की जोड-तोड से समझ सकता है । खासकर वाजपेयी की शागिर्दगी जिसने की हो, उसके लिये संघ का उग्र चेहरा क्यों मायने रखता है। जब देश की सामाजिक-सांसकृतिक लकीर ही संघ से इतर रास्ता पकड़ रही हो । इसलिये सवाल यह भी नहीं है कि आडवाणी की चाल में संघ फंसकर जसवंत पर सफायी देने में लगा या फिर चिंतन के बाद उन्हीं राजनाथ सिंह को आडवाणी के विपक्ष के नेता पर बने रहने का ऐलान करना पड़ा, जो खुद को संघ के सबसे करीबी मानते हैं, और अध्यक्ष की कुर्सी पाने के पीछे भी संघ का ही आशिर्वाद मानते हैं । बल्कि समझना यह भी होगा कि आडवाणी का भाषण भी उन्हीं सुषमा स्वराज ने पढ़ा, जिसे संघ आडवाणी की जगह लाना चाहता था। यानी जसंवत हटे तो लगे कि संघ नहीं चाहता। सुधीन्द्र कुलकर्णी हटे तो लगे संघ पसंद नहीं करता । तो फिर आडवाणी बने रहे यह कैसे बिना संघ की इजाजत के हो सकता है । असल में आडवाणी धीरे धीरे संघ को उस घेरे में ले आये हैं, जहा संघ की हर पहल उसी तरीके से कट्टर लगे, जैसे वाजपेयी का हर बुरा निर्णय संघ के दबाब वाला लगता था। यानी नरेन्द्र मोदी को लेकर निर्णय ना लेने के पिछे संघ का दबाब था । तो सवाल है जसंवत को हटाने के पीछे भी संघ का ही दबाब था। यानी राजनीतिक तौर पर भाजपा जिस मुहाने पर खड़ी है और संघ खुद को जिस जगह खड़ा पा रहा है, उसमें कोई अंतर बचा नहीं है । क्योकि संघ नियम-कायदे के तहत आडवाणी के हटने का मतलब है कंधमाल से ज्यादा बड़ी राजनीतिक त्रासदी के लिये तैयार रहना। <br /><br />वहीं आडवाणी के ना हटने का मतलब है सरसंघचालक भागवत का अलोकप्रिय होना या कहे संघ का कमजोर दिखना। संघ का संकट यह है कि दोनों स्वयंसेवक संघ परिवार के रिंग में ही आमने सामने खड़े हो गये हैं। इसलिये नागपुर में संघ के मुखपत्र तरुण भारत में अगर एमजी वैघ सीधे आडवाणी को पद छोडने की हिदायत भी देते हैं और दिल्ली में मुखपत्र पांचजन्य में संपादकीय के जरीये पहले जसवंत सिंह के जिन्ना प्रेम पर निशाना साधता है और तीन पन्नो बाद देवेन्द्र स्वरुप के लेख के मार्फत कंधार अपहरण कांड का जिक्र कर जसवंत पर अंगुली उठाते हुये आडवाणी की घेराबंदी करता है। तो इसका मतलब यह भी है कि संघ अपने आस्तित्व के लिये अब भाजपा को खतरा मान रहा है क्योकि नागपुर से लेकर दिल्ली तक में हर पहल संघ को ही कमजोर कर रही है और राजनीति में हारे आडवाणी को कमजोर भाजपा से ज्यादा मजबूत मान रही है । माना जा रहा है सरसंघचालक भागवत संघ परिवार के इस रिंग में आखरी राउंड दिल्ली में ही खेलेंगे । 28-29 अगस्त को दिल्ली में वह कौन से तरकश के तीर निकालेंगे, नजर सभी की इसी पर हैं, और शायद आडवाणी भी इसी राउंड का इंतजार कर रहे हैं क्येकि इसके बाद भागवत अपने सरकार्यवाह भैयाजी जोशी के साथ संघ की जमीन टटोलना चाहते है और आडवाणी अपने उत्तराधिकारी के लिये रास्ता बनाना चाहते हैं।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-8302348056252225802009-08-23T12:27:00.000+05:302009-08-23T12:28:36.528+05:30जसवंत की किताब के बहाने माओवादियों के सवाल20 अगस्त की शाम मोबाइल पर एकदम अनजाना सा नंबर आया तो मैंने फोन को साइलेंट मोड में डाल दिया। लेकिन जब वही नंबर लगातार तीसरी बार मोबाइल पर उभरा तो मेरे हैलो कहने के साथ ही दूसरी तरफ से आवाज आई, अब आप दंगों का इंतजार करें। मैं चौंका...आप कौन बोल रहे हैं। हम बोल रहे हैं। हम कौन...मैंने आपको पहचाना नहीं। हम नक्सली....लालगढ वाले किशनजी । मैं चौका..तो क्या आप लालगढ में दंगों की बात कर रहे हैं। जी नहीं, हम जसवंत सिंह की बात कर रहे हैं। आप तो उसी खबर में लगे होंगे। इसीलिये कह रहा हूं, यह तो बीजेपी का पुराना स्टाइल है। जब कुछ ना बचे तो उग्र हिन्दुत्व की बात कर दो। अयोध्या भी तो इसी तरह उठा था और हाल में कंधमाल में भी आरएसएस ने ऐसा ही किया। कर्नाटक में भी ऐसा ही कुछ हुआ। <br /><br />मुझे झटका लगा कि कोई नक्सली कैसे इस तरह अचानक एकदम अनजान से मुद्दे पर टिप्पणी कर सकता है। कुछ गुस्से में मैने टोका, क्या लालगढ में सीआरपीएफ ने कब्जा कर लिया है। मैने आपको लालगढ पर बात करने के लिये फोन नहीं किया है, लालगढ में तो हमारा कब्जा बरकरार है, आप आ कर देख सकते है। यह भी देख सकते हैं कि कितनी बडी तादाद में इस पूरे इलाके के आदिवासी ग्रामीण हमारे साथ कैडर के तौर पर जुड रहे हैं। सरकार के कहने पर मत जाइयेगा कि उसने लालगढ में कब्जा कर लिया है और माओवादी भाग गए हैं। पुलिस-सीआरपीएफ सिर्फ शहरों तक पहुंचती है, जहां दुकानें होती हैं। दुकानें खुल जाएं...धंधा चलने लगे तो सरकार मान लेती है कि सब पटरी पर आ गया। लेकिन आप गांव में अंदर आकर देखेंगे तो आप समझेंगे कि सरकारी नजरिया किस तरह आदिवासियों को, ग्रामीणो को देखता समझता ही नहीं। मैने फोन इसलिये किया कि जिस तरह लालगढ को आप समझना नहीं चाहते वैसे ही विभाजन के दौर को कोई राजनीतिक दल समझना नहीं चाहता। <br /><br />बातों का सिलसिला बढने के साथ मेरी जिज्ञासा भी बढती गई। मैंने पूछ ही लिया, क्यों, आपने जसवंत सिंह की किताब पढ ली है? लगभग पढ ली है। तो क्या वह लालगढ तक पहुच गई। हम सिर्फ लालगढ तक सीमित नहीं हैं। और पढने-पढाने को हम छोड़ते भी नहीं हैं। हम आपसे कह रहे है कि विभाजन को लेकर सिर्फ जिन्ना-नेहरु-पटेल का खेल तो अब बंद करना चाहिये। देश की जो हालत है उसमें मीडिया को अपनी भूमिका तो समझनी चाहिये। आप तो लगातार उस किताब पर चैनल में प्रोग्राम कर रहे हो, आप ही बताइए कि किताब में 1919 से लेकर 1947 तक के दौर की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का कोई जिक्र है, जिसके आधार पर लीग और कांग्रेस की राजनीति का खांचा खिंचा जा रहा है। सच तो यह है कि इसमें सिर्फ उन राजनीतिक परिस्थितियों को ही अपने तरीके से या यूं कहें कि अभी के परिपेक्ष्य में टटोला गया है जिन्हें़ विभाजन से जोडी जा सके। <br /><br />उसमें नेहरु-पटेल और जिन्ना के साथ साथ वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन को भी किसी फिल्मी कलाकार की तरह सामने रखा गया है। गांधी को भी एक भूमिका में फिट कर दिया गया है जिससे उन पर कोई अंगुली ना उठे। आपको यह समझना चाहिये कि जहां राजनीति पर से लोगों का भरोसा उठ रहा है, वहा राजनेता ही दूसरे माध्यमो में घुस रहे है। जिन्ना पर यह यह किताब ना तो स्कॉलर की लगती है ना ही पॉलिटिशियन की। <br /><br />लेकिन राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में लिखी किताब में आप उस दौर के सामाजिक ढांचे पर बहस क्यो चाहते हैं।...क्योंकि बिना उसके सही संदर्भ गायब हो जाते है। आप ही बताइये, भारत लौटने पर गांधी ने समूचे देश की यात्रा कर क्या देखा। आप एक लाइन में कह सकते हैं कि देश को देखा। लेकिन सच यह नहीं है। गांधी ने उस जमीन को परखा जो भारत को जिलाये हुये है, जो उसकी धमनियों से होकर बहने वाला खून है, उसके फेफडों के अंदर जाने वाली हवा है। किसान मजदूर के बगैर भारत की कल्पऩा नहीं की जा सकती। इसलिये गांधी ने सबसे पहले उसी मर्म को छुआ। <br /><br />जसवंत की किताब में एक जगह लिखा है कि नेहरु-जिन्ना और गांधी तीनो ने पश्चिमी तालीम हासिल की थी । नेहरु-जिन्ना तो पश्चिमी सोच में ही ढले रहे और उसी आधार पर भारत-पाकिस्तान के उत्तराधिकारी बन कर खुद को उबारते चले गये। लेकिन गांधी में भारतीय तत्व था। लेकिन जसवंत सिंह यह नहीं बताते कि यह भारतीय तत्व कौन सा था। वह गांधी ही थे जिन्होंने किसान आंदोलन को दबाया। गांधी शांति की वकालत करते हुये सीधे कहते थे कि , <br />"यदि जमींदार आप पर उत्पीड़न करें तो आपको थोड़ा सह लेना चाहिये। यदि जमींदार आपको परेशान करें तो मै किसान भाई से कहूंगा कि वह लड़ें नहीं बल्कि मैत्रीपूर्ण रुख अपनायें।" गांधी की कथनी-करनी का फर्क जसवंत को रखना चाहिए जो अंग्रेजों के लिये मददगार साबित हो रहा था। चम्पारण, खेडा और बारडोली के किसान आंदोलन इस बात के सबूत हैं कि गांधी किसानों को बंधक बना रहे थे। क्योकि एक तरफ वह ग्राम स्वराज अर्थात परम्परागत हिन्दू ग्रामीण समाज के आत्मनिर्भर ढांचे को जिलाना चाहते थे पर उसके लिए बहुसंख्यक ग्रामीण समाज की आर्थिक और सामाजिक अस्मिता और नेतृत्वकारी शक्तियो को आगे बढाना उन्हे स्वीकार नहीं था। गांधी वाकई भारतीय मूल को ना समझते तो नेहरु-जिन्ना दोनों ही विभाजन के नायक भी ना हो पाते जैसा जसवंत लिख रहे है। लेकिन इस मूल को तो सामने लाना चाहिये...क्योकि गांधी परम्परागत ग्रामीण समाज को तोड़ कर उस पर थोपे गए जमीदांरों और साहूकारों के जरिये ही अपनी राजनीति कर रहे थे। <br /><br />मिसाल के लिये बारडोली में चलाये गये गांधीवादी रचनात्मक कार्यक्रम को ही लें। 1929 तक बारह सौ चरखे बारडोली में चलाये जा रहे थे लेकिन सभी धनी पट्टीदार परिवारों में थे। गरीब किसानो के घर एक भी चरखा नहीं था, जबकि चरखा लाया ही गरीब परिवारो के लिए गया था। फिर अस्पृश्यता हटाने के सवाल पर तो इतना ही कहना काफी होगा कि 1936 तक एक भी अछूत छात्र बारडोली क्षेत्र के पट्टीदार मंडल द्रारा चलाये जा रहे आश्रमों और होस्टल में भर्त्ती नहीं हुआ था। गांधी जी का रचनात्मक कार्यक्रम तो पट्टीदारों और बंधुआ मजदूरों के बीच संबंधो में भी कोई अंतर नहीं ला पाया था। <br /><br />लेकिन जसवंत की किताब में मूलत: नेहरु और पटेल पर चोट की गई है। सही कह रहे हैं। किताब में एक जगह लिखा गया है कि नेहरु और पटेल को समझ ही नहीं थी कि विभाजन के बाद देश कैसे चलाना है। हो सकता है बीजेपी इसी से रुठी हो। लेकिन किसान-मजदूर की बात करने वाली बीजेपी को समझना चाहिये कि लौह पुरुष पटेल भी किसानो के हक में खडे नहीं हुए। साहूकार और बंधुआ किसानों को लेकर गांधी के सबसे बडे प्रतिनिधि वल्लभ भाई पटेल ने गरीब किसानो को सलाह दी, "सरकार तुम्हें और साहूकार को अलग अलग करना चाहती है ....यह तो पतिव्रता नारी से अपने पति को छोड देने की मांग जैसा हुआ । " जसवंत को किताब में बताना चाहिये कि पटेल का लोहा किस तरह घनी पट्टीदार और बनियों के लिये बज रहा था। <br /><br />जसवंत तो खुद राजस्थान से आते है। उन्होंने अपनी किताब में गांधी को कैसे क्लीन चीट दे दी। जबकि राजस्थान के राजपूताना इलाकों में मोतीलाल तेजावत ने रियासती जुल्म के खिलाफ जब किसानों को एकजुट किया तो रियासत ने अंग्रेजों के फौज की मदद से भीलों पर गोलियां बरसा दी थी। गांधी जी ने उस वक्त भी इस गोलीकांड की निंदा नहीं की। देखिये किताब इसलिये बेकार है क्योंकि इसमें जनता को जोडा ही नहीं गया है। <br /><br />नेहरु के जरिये कांग्रेस पर अटैक करने से जसवंत को लगता होगा कि उन्होंने अपना राजनीतिक धंधा पूरा कर लिया, जबकि कांग्रेस पर अटैक करना था तो सहजानंद सस्वती का जिक्र करना चाहिये था। चर्चा किसान सभा के संगठन की होनी चाहिए थी। 2 अक्टूबर, 1937 को पटेल ने राजेन्द्र प्रसाद को पत्र लिख कर आगाह किया कि भविष्यि में किसान सभा बहुत बडी बाधा उत्पन्न करेगी, हमें इसके गठन के खिलाफ खड़े होना होगा। इसी के बाद से धीरे-धीरे कांग्रेसियों ने सहजानंद सरस्वती का बायकॉट करना शुरु किया। बंबई में तो गांधी, जमुनालाल बजाज, सरदार पटेल, राजगोपालाचारी और राजेन्द्र प्रसाद ने एक बैढक में सहजानंद को हिंसक , तोड़क और उपद्रवी तक घोषित कर दिया। <br /><br />आपका यह तो नहीं कहना है कि स्थितियां अभी भी नहीं बदली हैं। आप यह माने या ना माने ...हम यह नहीं कहते कि किताब में हिसंक आंदोलन का जिक्र होना चाहिए। सवाल यह है कि नेहरु - जिन्ना सरीखे चरित्र किस तरह खडे हो रहे थे। उन सामाजिक परिस्थितियों का जिक्र अगर किताब में नहीं है तो मीडिया को तो करना चाहिए, क्योंकि आपने ही ठीक सवाल रखा...स्थिति बदली कहां है। सहजानंद सरस्वती किसान सभा में गरीब और मंझोले किसानों का ज्यादा प्रतिनिधित्व चाहते थे। यह मांग हर क्षेत्र में आज भी है। जसवंत सिंह को सिर्फ धर्म के नाम पर आरक्षण दिखाई देता है..वह किताब में लिखते भी हैं कि धार्मिक आरक्षण राजनीति का हथियार बन गया है। जसवंत तो इस्लामिक राष्ट्र को भी बकवास बताते हैं लेकिन हिन्दू राष्ट्र पर खामोश हो जाते हैं, जिसे सावरकर ने ही सबसे पहले उठाया। नेपाल में जब कम्युनिस्ट सत्ता में आये तो बीजेपी को लगा एकमात्र हिन्दू राष्ट्र ध्वस्त हो गया। तो वह लगे विरोध करने। और मीडिया भी उसे तूल देता है, क्योंकि बाकी वर्गों को छूने पर देश में आग लग सकती है। <br /><br />जसवंत सिंह की किताब में विभाजन को लेकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले किरदार खत्म कहां हुए हैं।...वैसे ही किरदार तो अब भी राजनीति और समाज में मौजूद हैं। और उन्हे उसी तरह किताब लिखकर या मीडिया से प्रचारित कर के स्थापित किया जा रहा है। मेरा आपसे सिर्फ यही कहना है कि आप किताब को हर कैनवास में रखकर बताएं। चाहे किताब में कैनवास ना हो, नहीं तो भविष्य में यही बडे नेता हो जाएंगे जो किताब लिखने पर निकाले जा रहे हैं या जो निकाल रहे हैं। <br /><br />तो आप लोग किताब क्यो नहीं लिखते। हम लिखते भी हैं और बताते भी हैं, लेकिन लेखन का धंधा नहीं करते। किस तरह बहुसंख्यक तबके को दरकिनार कर सबकुछ प्रचारित किया जाता है, यह तो आप लालगढ से भी समझ सकते हैं। लालगढ में हमारी ताकत बढी है तो सरकार कह रही है ऑपरेशन सफल हो गया। आप आईये ..देखिये, अंदर गांव में स्थिति क्या है। लेकिन इसी तरह जसवंत की किताब को भी देखिये। यह कह कर किशनजी ने फोन काट दिया।<br /><br />किशन जी वही शख्सन हैं, जिसने लालगढ में आंदोलन खडा किया। असल में किशनजी माओवादी संगठन के पोलित ब्यूरो सदस्य कोटेश्वर राव हैं। यह तथ्य लालगढ में हिंसा के दौर में खुल कर उभरा था। लेकिन सवाल है कि जो तथ्य विभाजन को लेकर नक्सली खींच रहे है, उसपर कोई राजनेता कभी कलम चलायेगा।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-4177597201850054282009-08-18T11:56:00.001+05:302009-08-18T11:58:02.591+05:30संघ के लिये तमाशा है बीजेपी की बैठकजब हेडगेवार और गुरु गोलवरकर के बगैर संघ अपना विस्तार कर सकता है तो वाजपेयी और आडवाणी के बगैर बीजेपी का विस्तार क्यो नहीं हो सकता ? यह सवाल 2005 में आरएसएस की बैठक में एक वरिष्ट्र स्वयंसेवक ने उठाया था । लेकिन चार साल बाद उसी बीजेपी के लिये उसी संघ परिवार का कोई प्रचारक कुछ कहने के लिये खड़ा नहीं हुआ। जब यह सवाल उठा कि बीजेपी को लेकर आरएसएस की दिशा क्या होनी चाहिये । तो क्या नागपुर से डेढ हजार किलोमीटर दूर शिमला में जब बीजेपी अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर चिंतन मनन करेगी तो आरएसएस खामोश ही रहेगी। <br /><br />असल में आरएसएस के भीतर बीजेपी को लेकर जख्म कितने गहरे हो चले हैं, इसका अंदाज इस बात से लग सकता है कि बीजेपी के चिंतन बैठक को लेकर संघ के भीतर एक सहमति बन चुकी है कि यह एक तमाशा है । और अब तमाशे पर आरएसएस अपनी ऊर्जा नहीं खपायेगी । लेकिन तमाशे तक स्थिति पहुंची कैसे और आगे का रास्ता किधर जाता है, इसे लेकर संघ ने पहली बार बीजेपी को लेकर कोई लकीर खिंचने से साफ इंकार कर दिया है। इसलिये यह सवाल जब आरएसएस में कोई मायने नहीं रखता कि लालकृष्ण आडवाणी को सरसंघचालक मोहनराव भागवत ने क्या कहा । तो मोहनराव भागवत के लिये यह कितना महत्वपूर्ण होगा कि वह आडवाणी को कुछ कहें। या कोई निर्देश दें। असल में सरसंघचालक मोहनराव भागवत की पहली जरुरत संघ परिवार का ऐसा विस्तार करना है, जिसमें हर तबके के लोग आरएसएस में अपनी जगह देखें। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि यह रास्ता हिन्दुत्व की जमीन पर रेंगेगा । लेकिन हिन्दुत्व को लेकर मोहनराव भागवत जिस जमीन को बनाना चाहते हैं, उसमें बीजेपी फिट नहीं बैठती। <br /><br />संघ मान रहा है कि हिन्दुत्व की राजनीतिक परिभाषा जिस तरह बीजेपी ने अपने राजनीतिक फायदे के लिये गढ़ी, उससे सबसे ज्यादा नुकसान संघ परिवार का ही हुआ है । बीजेपी ने हिन्दुत्व को एक ऐसा राजनीतिक मुद्दा बना दिया, जिसमें हर तबके के सामने हिन्दुत्व का मतलब बीजेपी के साथ खड़ा होना या ना होना हो गया । यानी जिस हिन्दुत्व को संघ ने सामाजिक जीवन के तौर पर सत्तर साल में बनाया और खुद को स्थापित किया, वहीं हिन्दुत्व अयोध्या आंदोलन के बाद से सत्ता का एक ऐसा केन्द्र बनता चला गया, जिसके आयने में बीजेपी ने संघ को ही उतारने की कोशिश की। बीजेपी की इस राजनीतिक पहल को विश्व हिन्दू परिषद ने भी जमकर हवा दी । विहिप ने झटके में बीजेपी के खिलाफ खड़े होकर संघ परिवार को दोहरा झटका दिया । क्योंकि अयोध्या आंदोलन को लेकर आरएसएस ने ही विहिप को आगे किया लेकिन विहिप के कर्ताधर्ता मोरोपंत ठेंगडी ने पहले आंदोलन को हड़पा फिर राजनीतिक तौर पर बीजेपी और विहिप कुछ उस तरह आमने सामने खड़े हुये, जिससे देश भर में संकेत यही गया कि विहिप की लाइन संघ की लाइन है और बीजेपी संघ के खिलाफ सेक्यूलरइज्म का राग अटल बिहारी वाजपेयी के जरीये गा रही है। <br /><br />उस दौर में सरसंघचालक सुदर्शन थे । जो बीजेपी-विहिप के बीच पुल बनना भी चाहते थे और बीजेपी को राजनीतिक पाठ पढाना भी चाहते थे । इसी पाठ के पहले अध्याय में ही वह वाजपेयी - आडवाणी को रिटायर होने की सलाह दे बैठे । यह तरीका आरएसएस का कभी रहा नहीं है, इसलिये सुदर्शन संघ के इतिहास में सबसे अलोकप्रिय सरसंघचालक साबित हुये । वहीं उस दौर में इन सारी स्थितियों को बारीकी से देख समझ रहे सरकार्यवाह मोहनराव भागवत की हर पहल नागपुर से दिल्ली पहुंचते पहुंचते बीजेपी की गोद में बैठने वाली होती रही, क्योंकि यही वह दौर था जब संघ के स्वयंसेवक देश चला रहे थे। और सरकार चलाते चलाते महसूस करने लगे कि देश आरएसएस से नही बीजेपी से चलेगी। संघ का एक तबका बीजेपी के इस गुरुर के आगे नतमस्तक भी हुआ और संघ-बीजेपी के बीच पुल का काम करने वाले स्वयसेवको को विचारधारा से ज्यादा राजनीतिक सत्ता भाने लगी। ऐसे में हिन्दुत्व का नया पाठ संघ की जगह बीजेपी-विहिप में बंट गया। इसीलिये सरसंघचालक बनने के बाद मोहनराव भागवत ने अपने पहले-दूसरे-तीसरे या कहे अभी तक के एक दर्जन से ज्यादा सार्वजनिक भाषणो में पहली और आखिरी लाईन हिन्दु राष्ट्र को लेकर ही कही। <br /><br />भागवत इस हकीकत को समझ रहे है कि सुदर्शन के दौर में संघ को बीजेपी केन्द्रीयकृत बना दिया गया । इसलिये मोहन भागवत की पहली लड़ाई बीजेपी के राजनीतिक हिन्दुत्व से है, जिसके आइने में पहली बार वह बीजेपी को उतरता हुआ देखना नहीं चाहते है । भागवत हिन्दुत्व का जो पाठ पढाना चाहते हैं उसमें देवरस की समझ भी है और गुरु गोलवरकर का कैनवास भी । हिन्दुत्व के बैनर तले ही देवरस ने वनवासी कल्याण आश्रम की शुरुआत की थी । सही मायने में कांग्रेस के पारंपरिक वोट बैक आदिवासियो में पहली सेंध देवरस की इसी पहल से लगी थी । लेकिन सत्ता में आने के बाद बीजेपी ने कभी जरुरत नहीं समझी कि वह आदिवासियो तो दूर वनवासी कल्याण आश्रम की सुध भी ले। इसी तरीके से हिन्दुत्व के बैनर तले ही 1972 में गुरु गोलवरकर ने ठाणे चितंक बैठक में अन्य पिछडे तबके यानी ओबीसी को संघ के साथ जोड़ने की पहल की। जिसका परिणाम हुआ कि गोपीनाथ मुंडे से लेकर शेवाणकर तक महाराष्ट्र में संघ परिवार से जुडे । और बाद में बीजेपी में । केरल के रंगाहरि को संघपरिवार में कौन नहीं जानता जो केरल से आने वाले ओबीसी ही है । जिन्होने बौघिक प्रमुख की भूमिका को बाखूबी लंबे समय तक निभाया। लेकिन बीजेपी ने राजनीतिक तौर पर ऐसी किसी सोशल इंजिनियरिंग की आहट कभी नहीं दी जिससे यह महसूस हो कि बीजेपी का कैनवास बढ रहा है । <br /><br />दत्तोपंत ठेंगडी ने किसान मंच और स्वदेशी को जिस आंदोलन के साथ खड़ा करने की सोच संघ परिवार के भीतर रखी , संयोग से जब उसमें धार देने का वक्त आया तो बीजेपी की अगुवाई में एनडीए की सरकार सत्ता में आ गयी, जिसने ठेंगडी की समझ को आगे बढाने के बदले आर्थिक सुधार का ट्रैक -2 पकड़ लिया । यशंवत सिन्हा के खिलाफ जब दत्तोपंत खुल कर सामने आए तो सुदर्शन ने ही उन्हे शांत कर दिया। इसी दौर में ट्रेड यूनियन बीएमएस के आर्थिक सुधार के खिलाफ खड़े होने के फैसले को भी संघ ने ही हाशिये पर ढकेल दिया । और सबकुछ पटरी पर लाने की बात कहने वाली बीजेपी ने गठबंधन की मजबूरी दिखा कर खुद को संघ से अलग कर लिया । इसलिये मोहनराव भागवत एक साथ दोहरी चाल चलने से भी नहीं कतरा रहे है । <br /><br />यह पहला मौका है कि सरसंघचालक और सरकार्यवाह दोनो नागपुर से निकले हुये है । दोनो को नागपुर में ही बैठना है । और दोनो की कोई राजनीतिक जरुरत नहीं है । मोहनराव भागवत और भैयाजी जोशी ने संघ परिवार के भीतर अपनी नयी पहल से इसके संकेत दे दिया है कि उनके लिये हिन्दुत्व मायने रखता है लेकिन हिन्दुत्व के आसरे कद बढाने वाली बीजेपी और विहिप मायने नहीं रखती । इसकी पहली पहल नये संगठन हिन्दु धर्म जागरण के जरीये मोहन भागवत ने शुरु की है । असल में धर्म जागरण को खड़ा कर विहिप को ठिकाने लगाने या कहे हाशिये पर ढकेलने का काम आरएसएस ने शुरु किया है । देश के हर हिस्से में संघ के प्रचारको को ही धर्म जागरण का काम आगे बढाने के लिये लगाया गया है । खास बात है कि पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन को भी जो नया काम सौपा गया है उसे भी धर्म जागरण के ही इर्द - गिर्द मथा गया है । मसलन भोपाल में सुदर्शन की नयी जगह निर्धारित की गयी है, जहां से वह देश भर का भ्रमण कर धर्माचार्यो और धर्मावलंबियो से मिलकर आरएसएस के हिन्दुत्व की दिशा में मजबूती देगै और धर्म जागरण के कार्यो में सीधा योगदान देकर इस नये संगठन को सामाजिक मान्यता दिलायेगे । <br /><br />खास बात यह भी है कि संघ धर्म जागरण के जरीये अयोध्या आंदोलन को नये तरीके से परिभाषित करना चाहता है । जिसका पहला निशाना अगर विहिप बनेगा तो दूसरा निशाना बीजेपी की हिन्दुत्व राजनीति पर होगा । क्यो कि संघ का मानना है कि अयोध्या के जरीये विहिप ने उसी उग्र सोच को आगे बढा दिया जिस लकीर पर कभी हिन्दु महासभा चला थी । जबकि बीजेपी ने अयोध्या के जरीये वोट बैंक की ऐसी राजनीति को आगे बढाया जिसमें अयोध्या हिन्दुत्व से ज्यादा सत्ता का प्रतीक बन गया । असल में मोहन भागवत की रणनीति हिन्दुत्व को लेकर एक ऐसी बड़ी लकीर खींचने वाली है, जिसे राजनीतिक तौर पर बीजेपी कभी हथियार ना बना सके । क्योंकि चुनाव से ऐन पहले भी अयोध्या जिस तरह बीजेपी के चुनावी मैनिफेस्टो का हिस्सा बन गया उसके बाद कोई ठोस समझ पूरे चुनाव में आडवाणी के जरीये नहीं उभरी उससे संघ के भीतर इस बात को लेकर ज्यादा कसमसाहट है कि सत्ता का प्यादा बने अयोध्या ने बीजेपी के भीतर संघ के स्वयसेवको को भी सत्ता का केन्द्र बना दिया है । यानी आडवाणी इसीलिये मान्य है क्योकि वह सबसे बुजुर्ग स्वयसेवक है । राजनाथ सिंह इसीलिये अध्यक्ष के तौर पर मान्य है क्योकि वह आडवाणी के खिलाफ संघ के प्यादे के तौर पर खडे है । यानी संघ भी बीजेपी के भीतर सत्ता का केन्द्र बना दिया गया है । <br /><br />ऐसी स्थिति में बीजेपी को लेकर कोई भी सवाल अगर आरएसएस करती है तो उसका लाभ - घाटा भी उन्ही नेताओ के इर्द-गिर्द सिमट जायेगा जो प्रभावी है , लेकिन संघ का नाम जपने के अलावे यह प्रभावी स्वयसेवक कुछ करते नहीं है । बीजेपी को लेकर संघ के भीतर किस तरह की खटास है इसका एहसास इससे भी किया जा सकता है कि नागपुर में स्वयसेवक गुरु गोलवरकर की जनसंघ को लेकर की गयी टिप्पणी को दोहराने लगे है । जनसंघ बनने के बाद जब गोलवरकर के सामने यह सवाल उभारा गया था कि राजनीतिक तौर पर मजबूत जनसंघ के स्वयसेवक के सामने आरएसएस के मुखिया का प्रभाव कितना मायने रखेगा तो गोलवरकर ने सीधा जबाब दिया था कि जनसंघ हमारे लिये गाजर की पूंगी है, बज गयी तो बज गयी..नहीं तो इसे खा जायेगे । नयी परिस्थितियों में यह आवाज संघ के भीतर बीजेपी को लेकर हो सकती है लेकिन सरसंघचालक और सरकार्यवाह यानी मोहन भागवत और भैयाजी का रुख बीजेपी को लेकर बिलकुल अलग है । दोनों के ही करीबी स्वयसेवकों की मानें तो जिन परिस्थितयों में पिछले दस साल के दौर में संघ कमजोर हुआ, वहीं स्थितियां बीजेपी के साथ भी रहीं । पार्टी और संगठन की मजबूती का आधार उसी कमजोर होते संघ को बनाया गया जिसे राजनीतिक सत्ता के लिये स्वयसेवकों ने ही दफन करने की कोशिश की। <br /><br />ऐसे में अगर आरएसएस यह सोच भी ले कि वह पद ना छोडने वाले लालकृष्ण आडवाणी को हटाने में भिड जाये तो आडवाणी के हटने के बाद भी बीजेपी को कौन ढोएगा । तब संघ की समूची ऊर्जा तो बीजेपी को संभालने में ही लग जायेगी । क्योंकि वहा सत्ता महत्वपूर्ण हो गयी है । विचारधारा या संगठन का विस्तार नहीं । इसका असर किस रुप में बीजेपी के भीतर पड़ रहा है, यह बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के जरीये समझा जा सकता है । स्वयसेवकों का मानना है कि संघ के आशिर्वाद से ही राजनाथ सिंह अध्यक्ष बने , यह सच है। लेकिन बतौर अध्यक्ष अगर उनकी मौजूदगी पार्टी में रही ही नहीं , या कहे वे बे-असर हो गये, तो इसमें संघ क्या कर सकता है । लेकिन यही परिस्थितयां बताती हैं कि बीजेपी की अंदरुनी हालत क्या है, इसलिये बीजेपी का चितंन शिविर बीजेपी के लिये नही बल्कि नेताओ को स्थापित करने के लिये है, जो पटरी से फिसल रहे है । <br /><br />चूंकि आलम यह है कि सभी अपनी अपनी राह पकडे हुये है । बीजेपी अध्यक्ष को जो चुनौती दे देता है वह मजबूत लगने लगता है । जो प्रभावी और नीतिगत फैसले लेने वाले है वह अपनी भूमिका पार्टी से हटकर, पार्टी को सत्ता में लाने की जोड-तोड में अगुवा नेता के तौर पर देखते है । यानी एक तरफ जोड-तोड़ की राजनीतिक सत्ता के लिये विचारधारा और पार्टी संगठन को भी सौदेबाजी में लगाते हैं, और दूसरी तरफ परिणाम अनुकूल नहीं होता तो हर जिम्मदारी से बच निकलना भी चाहते है । ऐसे में संघ ने अब बीजेपी को पार्किग जोन में खड़ा कर खुद को मथने का रास्ता अपनी शर्तो पर चुना है, इसलिये शिमला से बीजेपी चाहे कोई भी नारा लेकर निकले लेकिन पहली बार आरएसएस के लिये बीजेपी का चिंतन बैठक तमाशे से ज्यादा कुछ नहीं है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-70483645452473038072009-08-07T13:10:00.000+05:302009-08-07T13:11:37.991+05:30राजपथ से संसद की तस्वीर उतारते चेहरों का सचचना-चबेना यहां नही बेचेंगे तो कहां बेचेंगे । क्यों, पूरी दिल्ली में और कहीं जगह नहीं बची है। लेकिन सर, और कहीं कहां कोई खरीदता है। लेकिन यह वीआईपी इलाका है । यहां खड़े भी नहीं हो सकते। अपना टोकरी-डंडा उठाओ और सीधे इंडिया गेट के पास चले जाओ। दिखायी दे रहा है न इंडिया गेट। लेकिन सर, वहां तो कई हैं बेचने वाले । यहां तो हम अकेले हैं। एक घंटा खड़े रहने दीजिये। फिर चले जायेंगे। अच्छा देख सड़क छोड़कर वह दूर पेड़ के नीचे चला जा...जहां कुछ गोरे लोग फोटो खींच रहे हैं और एक घंटे बाद नजर न आना। <br /><br />संसद के ठीक सामने विजय चौक के किनारे पत्थर पर लिखे 'राजपथ' की ओट में ही पुलिस और चना बेचने वाले के बीच चल रही इस बहस को सुनते हुये मुझे भी आश्चर्य लग रहा था कि संसद के ठीक सामने यह एक ऐसी जगह है, जहां वाकई कोई सड़क पर कुछ भी बेचेने वाला जब खड़ा भी नहीं हो सकता है तो चना वाला अपना सामान बेचने की जिद भी कर रहा है और पुलिस वाला भी पुलिसिया अंदाज के बदले समझाते हुये उसे पेड़ की ओट में चना बेचने की जगह भी दे रहा है। क्योंकि राजपथ लिखे पत्थर के तीर के निशान पर सीधे इंडिया गेट है तो बांयी तरफ संसद भवन का गेट है । वहीं सडक के ठीक दुसरी तरफ राष्ट्रपति भवन है, जिसके दांये बाये नार्थ और साऊथ ब्लॉक है। जिसके बीच में बेहतरीन रायसीना हिल्स। और इस पूरे इलाके की तस्वीर लेने के लिये जनपथ का यही मुहाना सबसे बेहतरीन स्पॉट है। <br /><br />जाहिर है ऐसे में पर्यटकों का हुजूम इसी किनारे जमा होकर कैमरे में खुद के साथ लुटियन की इस विरासत को कैमरे में कैद करता है । लेकिन संसद जब चल रही होती है तो यहां भी आवाजाही बेहद कम कर दी जाती है। ऐसे में चने वाले को देख कर पहली बात मेरे जेहन में यही आयी कि शायद यह यहां हाल फिलहाल में आया है इसलिये इसे इस वीआईपी इलाके के बारे में कोई जानकारी नहीं होगी। उससे बात करने के ख्याल से पेड़ के नीचे जाते चने वाले को मैंने कहा, मेरे लिये दस रुपये के चने बनाओ मैं वहीं आ रहा हूं। <br /><br />फिर पुलिस वाले से न चाहते हुये भी मैंने पूछा कि, उसे वहां क्यो भेज दिया । यहां तो चाय वाले को आप लोग टिकने नहीं देते हैं। आप सही कह रहे हैं। लेकिन किसे कहां भगाये। बेचारा कुछ बेच लेगा तो रोजी-रोटी का इंतजाम हो जायेगा। मैं हैरत में था कि कोई पुलिस वाला इस तरह बोल रहा है। मैंने पूछा...आप कहां के हो । मैं बुलंदशहर का हूं। वहां खेती है क्या । हां...गांव में खेती है । अपनी काफी जमीन है । लेकिन इसबार जमीन खाली है । कौन देखता है खेती। आप यह सब क्यों पूछ रहे हो । ऐसे ही जानना चाह रहा हूं कि आप जमीन से जुड़े होंगे तभी आपने चने वाले को भी नहीं मारा और उसे भी धंधा करने की जगह बता दी । बस इसीलिये । पत्रकार तो नहीं हो। पत्रकार ही हूं। लेकिन मुझे अच्छा लगा जो आपने उसे थप्पड़-लप्पड़ नही मारा। मैं क्या मारु उसे ..इसबार तो उपर वाला ही सबको मार रहा है। पिछले शनिवार ही बुलंदशहर गया था । ताऊजी खेती देखते हैं, और बता रहे थे कि इस बार सारे बीज ही जल गये। दोबारा बीज बोये हैं लेकिन एक चौथाई फसल भी हो जाये तो घरवालों का पेट भरेगा। नहीं तो सरकारी राहत की आस देखनी होगी। आपका इलाका भी तो मायावती ने सूखा करार दिया है। क्या वही राहत गांव गांव पहुंचेगी । अब गांव में जो पहुंचे लेकिन वहा अगर तो आप दलित या पिछड़े हो तब तो आपकी बात अधिकारी सुनते हैं। नहीं तो राहत लेने के लिये इतने कागज-दस्तावेज मांगे जाते हैं, जिन्हें जुगाडने का मतलब है साल बीत जाना। आप पुलिस में हो, तो क्या आपकी भी नहीं चलती। गांव में तैनात पुलिस वालो की ही जब नहीं चलती तो मेरी क्या चलेगी। जाति पर चलता है । पिछडी जाति से तो एसपी भी घबराता है। कोई दलित रपट लिखाने थाने पहुंच जाये तो उसे कुर्सी पर बैठाया जाता है और कोई दूसरा पहुंचे तो उसी के खिलाफ हरिजन एक्ट में मामला दर्ज करने की धमकी देकर सब बात अनसुनी कर दी जाती है। <br /><br />बात आगे बढ़ती, लेकिन उसी बीच चना वाला आवाज देता हुआ आता दिखायी दिया। मैंने पुलिसवाले से फिर मिलने के इरादे से कहा, आपकी बात तो संसद में भी उठनी चाहिये । कोई उठायेगा तो आपको बताऊंगा । वह भी सड़क पार करते करते बोला, लिख लो खेती और गरीबी पर संसद में मामला उठ ही नहीं सकता है। फिर यूपी में तो मायावती और राहुल गांधी में दो दो हाथ हो रहा है । राजनीति हम समझते नहीं...चलते हैं कह कर वह पुलिस कांस्टेबल सड़क पार कर गया। मुड़ा तो चना वाला चना लेकर हाजिर था। मैंने उसे टोकते हुये कहा। वहीं चलो नहीं तो पुलिस वाला तुमको यहां से भी भगा देगा । यह कहकर मैं पेड़ की ओट में रखी उसकी टोकरी की तरफ उसके साथ ही बढ़ चला । सर, दस रुपये दीजिये । अरे जल्दी क्या है ...दे रहा हूं । नाम क्या है तुम्हारा । अशोक । पूरा नाम । अशोक शांडिल्य । अरे वाह...बढ़िया नाम है, कहां से आये हो । बिहार से । बिहार में कहां से । गया से । पुलिस वाला चाहता तो तुम्हे बंद भी कर सकता था, लेकिन वह अच्छा व्यक्ति था। बेटा, इसलिये बच गया तू । अशोक तेवर में बोला..आप इंतजार करो सभी अच्छे हो जायेंगे। मैंने कहा मतलब । मतलब कुछ नहीं । मै एमए पास हूं । मैं जब यहां चने बेच सकता हूं तो दूसरा कोई बुरा होकर भी मेरा क्या बिगाड़ लेगा । पुलिसवला मुझे बंद कर देता तो थाने या जेल में कुछ तो मिलता। मुझे झटके में लगा कि एमए पास एक लड़के में इतना आक्रोष क्यों है। गया में क्या करते थे, मैं कुछ गुस्से में ही उससे पूछ बैठा । आप बिहार कभी गये हो । मैंने कहा, वहीं का हूं । गया तो कई कई बार गया हूं। यह बताओ वहां करते क्या थे। क्या करता था ...सर पढ़ता था । फिर दिल्ली क्यों आ गये। क्या करता घरवालों को मरते हुये देखता । खाने के लाले पड़े हुये हैं वहां पर । पानी है नहीं। खेत में तो दूर पीने का पानी तक नहीं है। बिजली की कोई व्यवस्था नहीं है। रोजगार है नहीं। अब आप ही बताओ गया में रहूं या घर छोड़कर कहीं भागना अच्छा है। तो दिल्ली आ गया हूं । वहां पीने का पानी भी नहीं है। <br /><br />फिर, अशोक ने बिना सोचे सीधा सौदा किया। अगर दस रुपये का चना और लोगे तो रुक कर बताऊंगा नही तो मैं चला। मैंने तुरंत हामी भरी। और अशोक ने जो कहा उससे मैं अंदर से हिल गया। गया के टेकरी थाना में मेरा घर है। मेरे परिवार के खिलाफ थाने में पुलिस ने मामला दर्ज कर खेत में पड़े पंप को इसलिये जब्त कर लिया क्योंकि खेत में पंप चलाने से जमीन के नीचे का पानी और नीचे चला जाता है। जिससे पूरे इलाके में हैंडपंप ने काम करना बंद कर दिया है । जिनके पास खेत नहीं है , उन्होंने थाने में शिकायत की । और जिनके पास खेत हैं यानी रोजी-रोटी खेत पर ही टिकी है, वह क्या करें । करीब 25 लोगो के खेत पंप जब्त कर लिये गये और मामला पानी सोकने का दर्ज कर लिया गया । अशोक के मुताबिक उसने थाने में जाकर माना कि पहली जरुरत पीने के पानी की है लेकिन कोई रास्ता तो बताये कि वह लोग खेती कैसे करें। एमए पास अशोक के मुताबिक पहले जमीन के नीचे 50 फीट में पानी निकल जाता था । लेकिन जिस तरह क्रंक्रीट के मकान बने हैं और पेड़-हरियाली खत्म की गयी है, उससे जमीन के नीचे पानी 200 फीट तक चला गया गया है। वहीं सरकार ने पानी बचाने की पुरानी सारी व्यवस्था घ्वस्त कर दी है । या कहें कोई नयी व्यवस्था वाटर कन्जरवेशन की है नहीं । इसलिये पानी नालों में ही बहता है । ताल-तलाब-पोखर सरीखे पानी रोकने के पारंपरिक तरीके ध्वस्त हो चुके है । खेती होगी कैसे इसका एकमात्र तरीका पंप से जमीन के नीचे का पानी खिंचना भर है। और पंप चलाने के लिये डीजल चाहिये । जिसके लिये पूंजी होनी चाहिये। लेकिन नीतिश कुमार तो शहरो की बिजली काट कर गांव में सप्लायी कर रहे हैं। तो पंप तो उससे भी चल सकते हैं। आप क्या बोल रहे हैं। आपने खेत में कहीं बिजली का खंभा देखा है क्या। खेत तक बिजली पहुंचेगी कैसे । और जिनके खेत गांव से एकदम सटे हुये हैं, वहां भी सिंगल फेस ही है। जिसमें मोटर पंप चल ही नहीं सकता। नीतिश कुमार के गांव प्रेम से जरुर हुआ है कि गांव में कुछ देऱ पंखे की हवा मिलने लगी है। लेकिन इससे खेती का कोई भला नहीं हो रहा है। फिर खेती की हर योजना तो फेल है। डीजल महंगा है । यहा सब्सिडी का डीजल लेने के लिये जो दस्तावेज बाबूओं को चाहिये, उसमें सभी का कमीशन ही कुछ इस तरह जुड़ा रहता है कि सस्ते में डीजल मिल ही नही सकता इसलिये सरकार का आंकडा आप चेक कर लिजिये गया में डीजल की सब्सिडी का नब्बे फिसदी वापस हो गया। सरकार ने एक मिलियन सेलो ट्यूबवेल स्कीम निकाली । जिसमें ट्यूबवेल किरासन से चलता । लेकिन किरासन तेल तो सिर्फ गरीबी रेखा के नीचे वालों को ही मिलता है। तो यह भी गांव में पहुंचते पहुंचते फेल हो गया। क्योंकि बीपीएल होने के लिये जो कमीशन देने पहंचा और उसके बाद किरासन तेल मिलता तो उसकी किमत डीजल से महंगी पडने लगी। ऐसे में लोग लोन लेकर डीजल से पंप चलाने लगे तो मामला सरकारी हैडपंप को बर्बाद करने का और पीने का पानी खत्म करने का आरोप लगने लगा। <br /><br />अब आप ही बचाइये गया में रहकर क्या करता । मैं खामोश रह कर संसद की तरफ बढ़ने लगा । लेकिन विजय चौक पर खडे पत्रकार साथी ने बता दिया कि अंबानी भाइयों के गैस मामले में महंगाई का मुद्दा रफूचक्कर हो चुका है और अब सीधे शर्म-अल-शेख में जारी साझा बयान पर चर्चा होगी, जिसमें बलूचिस्तान का जिक्र है । मुझे लगा राजपथ पर खड़े होकर संसद की तस्वीर उतारते किसी भी पर्यटक की आंखों में जब बुलंदशहर या गया का दर्द दिखायी नही देता है तो संसद के भीतर खेत-किसान-महंगाई का दर्द कौन देखेगा। संसद को तो गैस का बिजनेस और बलूचिस्तान का खौफ ही डरा रहा है। ऐसे में, राजपथ पर मानवीय पुलिसवाले और एमए पास चने वाले की क्या औकात कि वह संसद को आइना दिखा दे ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com18tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-84967328736346976682009-08-05T09:10:00.000+05:302009-08-05T09:11:40.276+05:30रेड कॉरिडोर में लाल क्रांति का सपना (पार्ट 2)चार राज्यों का रेड कॉरीडोर मध्य प्रदेश से निकले छत्तीसगढ से होते हुये झारखंड, बिहार और बंगाल को भी अपने में समेट लिया । हालांकि इन राज्यों में रेड कॉरीडोर ने उस तरह पांव नही पसारे जैसे पुराने चार राज्यों में हुआ । लेकिन आर्थिक सुधार की असल आधुनिक मार के निशान योजनाओं के जरीये या फिर समाज में बढ़ती खाई के जरीये जमकर उभरे । कह सकते हैं कि राजनीतिक शून्यता ने योजनाओं के सामानांतर विरोध की एक ऐसी लकीर भी खींची, जिसे कोई राजनीतिक मंच नहीं मिला तो वह कानून व्यवस्था के दायरे में लाकर माओवादी सोच तले ढाल दिया गया । <br /><br />बिहार में यह मिजाज सामाजिक तौर पर उभरा, जहां जातीय राजनीति ने दो दशक में अपना चक्र पूरा किया तो उसके सामने राजनीतिक पहचान का संकट आया । वहीं बाजार में मुनाफे की थ्योरी ने वर्ग भाव इस तरह जगाया जो वर्ग संघर्ष से हटकर भारत और इंडिया में खो गया । लेकिन 2008-09 का सामाजिक सच रेडकॉरीडोर को लेकर महज इतना नहीं है, माओवाद ने पैर पसारे और सरकार ने उन्हें आतंकवादी करार दिया। असल में वह पीढी, जिसने 1991 के बाद सुनहरे भारत में खुद को सुविधाओ से लैस करने के लिये सरकार की नीतियों का खुला समर्थन किया था और बैंकों से कर्ज लेकर या जमीन गिरवी रखकर ऊंची डिग्रिया हासिल की...वहीं 2009 में अपने गांव लौटकर सरकार की नीतियों का विकल्प विकास के लिये तलाशने पर भिड़ा है। <br /><br />उड़ीसा, छत्तीसगढ, झारखंड और विदर्भ के रेडकॉरीडोर मे तीन दर्जन से ज्यादा स्वतंत्र एनजीओ सरीखे संगठन उन ग्रामिण आदिवासियों के बीच जाकर खेती से लेकर पानी संग्रहण और फसल को बाजार से जोडने की विधा पर भी काम कर रहे है । साथ ही जिन इलाको में एसईजेड लाने का प्रस्ताव है , वहां के जमीन मालिकों को एकजुट कर मुआवजे के बदले जमीन पर जोत के जरीये ज्यादा बेहतर मुनाफे की बात खड़ा कर रहा है। अपने बूते काम करने की यह हिम्मत अधिकतर उन लडको के जरिये तैयार की गयी हैं, जो मंदी की मार में बेरोजगार हो गये । इनमें कंम्प्यूटर साइंस , इंजीनियर से लेकर प्रबंधन की डिग्री पाये उन युवको की जमात है, जो देश विदेश में कई बरस तक नौकरी कर चुके हैं । अमेरिका से लौटे कंम्प्यूटर इंजीनियर मनीष देव के मुताबिक आर्थिक मंदी में नौकरी जाने के बाद उसने अमेरिका में जो देखा, उसे देखकर पहली समझ उसके भीतर यही आयी कि भारत में भी विकास की जो लकीर खिंची जी रही है, वह उसकी जमीन के प्रतिकूल है । इसलिये उडीसा के जिन इलाकों में खनन का काम तेजी से चल रहा है, वहां आदिवासियों के हक को जुबान देते हुये प्राकृतिक अवस्था कैसे बैलेंस रखी जा सकती है, इस पर मनीष कटक के अपने दोस्त माइनिंग इंजीनियर पुष्पेन्द्र के साथ मिल कर काम कर रहा है। <br /><br />जिला प्रशासन के अधिकारियों के साथ लगातार उसकी पहल ने अभी तक पुलिस को मौका नहीं दिया है कि वह उन्हें माओवादी करार दे । लेकिन पुलिस के भीतर भी माओवादी प्रभावित इलाकों में सामाजिक -आर्थिक स्थितियों को लेकर कैसी बैचेनी रहती है, यह छत्तीसगढ के एक पुलिस अधीक्षक के जरीये भी समझा जा सकता है । राजनांदगांव के एसपी वीके चौबे ने तीन महिने पहले मुलाकात में ऑफ-द-रिकॉर्ड यह बात कही थी कि जो हालात छत्तीसगढ के सीमावर्ती जिलों के हैं, उनमें आजादी के साठ साल बाद भी आजादी शब्द से नफरत हो सकती है। गांव में शिक्षा, स्वास्थय केन्द्र तो दूर हर दिन गांववाले खाना क्या खायेंगे, जब इस तकलीफ को आप देखेंगे तो कानून व्यवस्था के जरीये किसे पकडेंगे या किसे छोड़ेंगे। <br /><br />बातचीत में इस पुलिस अधिक्षक ने माना था कि माओवाद प्रभावित इलाकों में सफलता दिखाना जितना आसान है, उतना ही मुश्किल सफलता पाना है। क्योंकि सफलता कागज पर दिखायी जाती है, ऐसे में माओवादी किसी को भी ठहरा देना कोई मुश्किल काम इन इलाको में होता नहीं है। लेकिन सफलता-असफलता सीधे राजनीति से जुड़े होते हैं, इसलिये हर पुलिसवाला टारगेट सफलता से भी आगे बढ़कर सफल हो जाता है। क्योंकि इससे राजनीति खुश हो जाती है। लेकिन संयोग है कि 12 जुलाई को वीके चौबे माओवादियो के हमले में मारे गये। पुलिस कोई चेहरा लिये रेडकॉरीडोर में तैनात नहीं रहती है। चेहरा सिर्फ नेता या राजनीति का होता है । यह बात विदर्भ के गढचिरोली में तैनात एसपी राजवर्धन ने लेखक से उस वक्त कही थी, जब नक्सली गतिविधियां इस पूरे उलाके में चरम पर थीं। एसपी का तबादला अब मुबंई हो चुका है लेकिन उन्होंने खुले तौर पर माना था कि इन आदिवासी बहुल इलाकों को लेकर सामाजिक आर्थिक दायरे में लाना जरुरी है। सिर्फ कानून व्यवस्था के जरीये सफलता दिखायी तो जा सकती है लेकिन इलाज नहीं किया जा सकता। <br /><br />इस एसपी की जीप को माओवादियों ने बारुदी सुरंग से उड़ा दिया था । जीप बीस फिट तक उछली...लेकिन एसपी बच गये । और बचाने वाला भी एक आदिवासी हवलदार ही था । लेकिन एसपी के सामाजिक प्रयोग को कभी चेहरा नहीं मिला जबकि राजनीति और नेताओं के चेहरे ने माओवादियों पर नकेल कसने के लिये अपना चेहरा भी दिखाया और राजनीतिक कद भी बढाया। इसी जिले से सटे नक्सल प्रभावित चन्द्रपुर जिले में तैनात पुणे के एक सब-इस्पेक्टर ने बातचीत में बताया कि राजनीति ने नक्सलप्रभावित इलाकों में पुलिस तैनाती को यातनागृह में तब्दील कर रखा है। किसी भी उलाके में कोई भी राजनीतिज्ञ किसी भी पुलिस वाले को कभी भी धमकाता है कि अगर उसकी ना मानी गयी तो नक्सली इलाके में भेज देगे या भिजवा देंगे। उस सब इंस्पेक्टर के मुताबिक जब तक बीस पच्चीस पुलिस वाले किसी नक्सली हमले में मारे नहीं जाते, तब तक राजनेता भी घटनास्थल पर जाते नहीं और मारे गये पुलिसकर्मियो के परिवार तक कोई राहत पहुंचती नहीं। अब पुलिस की इस भावना को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है कि रेडकॉरीडोर की समस्या को राजनीति तौर पर नजरअंदाज करने से ज्यादा राजनीतिक तौर पर बढ़ाया और विकसित किया गया है। क्योकि कानून व्यवस्था के दायरे में पुलिस और माओवादियों की स्थिति कमोवेश देश की सीमा सरीखी ही मान ली गयी है। यानि पहले जिसने जिसको मार दिया उसी का वर्चस्व। <br /><br />वहीं, ग्रामिण आदिवासियो की सामाजिक-आर्थिक समस्या राजनीति की जरुरत है । क्योंकि इसके बगैर विकास की मोटी लकीर पतली हो जा सकती है । लेकिन 2009 में इस पूरी समझ को बंगाल से एक नयी दिशा मिली है, इसे नकारा भी नहीं जा सकता । पहली बार शहर और गांव की दूरी वामपंथी राज्य में ना सिर्फ दूर हुई बल्कि राजनीतिक तौर पर जो मुद्दे पहवे नक्सली और फिर माओवादियों का प्रभाव कह कर दबा दिये जाते थे। उन्हें राजनीतिक जुबान उसी संसदीय राजनीतिक चुनाव में मिली जिसे रेडकॉरीडोर में बहिष्कार के तौर पर देखा समझा जाता रहा । बंगाल के जिन इलाकों में जमीन और जंगल का मुद्दा उछला वहा वामपंथी राजनीति चालीस साल से हैं। जबकि पहली बार मुद्दा 1995-96 में उछला । और यहां माओवादी 2005 में पहुंचे। कह सकते है कि अगर यह इलाका भी लेफ्ट नहीं राइट की राजनीतिक सत्ता का होता तो डेढ दशक पहले ही इस पूरे इलाके को रेड कॉरीडोर से जोड़ते हुये कानून व्यवस्था के दायरे में ले जाने से सत्ता नहीं चूकती और यह सवाल अनसुलझा रहता कि जमीन और जंगल से बहुतायत को बेदखल करके चंद हाथो में मुनाफा और सुविधा जुटाने का मतलब विकास कैसे हो सकता है। <br /><br />संयोग यह भी है कि वामपंथी राजनीति जिन वजहो से सिमटी, उसकी बड़ी वजह वही आर्थिक नीतियां हैं, जिसे राइट ने उभारा और सत्ता की खातिर लेफ्ट भी हामी भरता चला गया। माओवादियों ने अगर नंदीग्राम और लालगढ़ को लेकर वाम राजनीति की परिस्थितियों पर जिस तरह से सवाल उठाये उससे गांव के सवाल को शहर से जोड़ने का एक रास्ता भी निकला। क्योंकि रेडकॉरीडोर के दूसरे राज्यो में शहर और जंगल-गांव को बिलकुल दो अलग ध्रुव पर रखा गया है। लालगढ में माओवादियों ने समूचे बंगाल से जोड़कर जमीन का सवाल आदिवासियो से आगे बढ़ते हुये किसान और मजदूरो से जोड़ा। बंगाल को लेकर सवाल उठा कि जिन हालातो में सीपीएम बनी और जनता ने कांग्रेस को खारिज कर सीपीएम को सत्ता सौपी। चालीस साल बाद ना सिर्फ उसी जनता के सपने टूटे है बल्कि सीपीएम भी भटक चुकी है। क्योंकि जिस जमीन-किसान के मुद्दे के आसरे वाममोर्चा तीस साल से सत्ता में काबिज है और जमीन पर खड़ा किसान लहुलुहान हो रहा है तो उसका आक्रेष कहां निकलेगा। क्योकि इन तीस सालो में भूमिहीन खेत मजदूरो की तादाद 35 लाख से बढकर 74 लाख 18 हजार हो चुकी है । राज्य में 73 लाख 51 हजार भूमिहीन किसान है । इस दौर में चार लाख एकड़ जमीन भूमिहीनो में बांटने के लिये अधिग्रहित भी की गयी । लेकिन अधिग्रहित जमीन का 75 फिसदी कौन डकार गया, इसका लेखा-जोखा आजतक सीपीएम ने जनता के सामने नहीं रखा । छोटी जोत के कारण 90 फीसदी पट्टेदार और 83 फीसदी बटाईदार काम के लिये दूसरी जगहो पर जाने के लिये मजबूर हुये । इसमें आधे पट्टेदार और बटाईदारो की हालत नरेगा के तहत काम मिलने वालो से भी बदतर है । इन्हें रोजाना के तीस रुपये तक नहीं मिल पाते । लेकिन नया सवाल कहीं ज्यादा गहरा है, क्योकि एक तरफ राज्य में 11 लाख 75 हजार ऐसी वन भूमि है, जिस पर खेती हो नहीं सकती। और कंगाल होकर बंद हो चुके उगोगो की 40 हजार एकड़ जमीन फालतू पड़ी है। वहीं किसानी ही जब एकमात्र रोजगार और जीने का आधार है तो इनका निवाला छिनकर सरकार खेती योग्य जमीन में ही अपने आर्थिक विकास को क्यों देख रही हैं। <br /><br />अगर इस परिस्थिति को देश के दूसरे इलाको से जोड़कर देखा जाये तो हर राज्य में इस तरह के सवाल खड़े हो सकते हैं। आधुनिक स्थिति में सबसे विकसित शहरों में एक पुणे के किसानो ने सरकार के एसईजेड के विकल्प के तौर पर अपना एसईजेड रखा। जो कागज पर कही ज्यादा समझदारी वाला और भारतीय परिस्थियों में को-ओपरेटिव को आगे बढ़ाने वाला लगता है। लेकिन राजनीतिक तंत्र बाजार के मुनाफे के आधार को ही खारिज नही कर सकते, यह हर जनादेश के बाद सत्ता 1991 के बाद से खुलकर कहने से कतरा भी नही रही है । इसीलिये रेडकारीडोर पहली बार देश की राजनीति में बहस की गुंजाइश पैदा कर रहा है । क्योंकि जंगल में नया सवाल ग्रामीण आदिवासियों से आगे बढ़ते हुये उस नब्ज को पकड़ना चाह रहा है, जो देश में गांव-शहर की लकीर को ठीक उसी तरह मिटा रही है, जिस तरह विकास की लकीर शहर-गांव को बंट रही है। <br /><br />इस दौर में नये अक्स वही चुनावी राजनीत भी उभार रही है, जिसे माओवादी समाधान नहीं मानते। खासकर संसदीय राजनीति को लेकर आम वोटर जब सवाल कर रहा है और राजनेताओ को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है तब माओवादियो की पहल किस तरह होनी चाहिये। क्योंकि बढ़ते आंतकवादी हिंसा के दौरान हर तरह की हिंसा को जब एक ही दायरे में रखा जा रहा है, तब कौन से तरीके होने चाहिये जो विकल्प का सवाल भी उठाये और विचारधारा के साथ राजनीति को भी जोड़े । माओवादियो के सामने वैचारिक तौर पर आर्थिक नीतियो को भी लेकर संकट उभरा है । पिछले डेढ दशक के दौरान आर्थिक सुधार को लेकर सरकार पर हमला करने की रणनीति लगातार माओवादियों ने अपनायी । वामपंथी जब यूपीए सरकार में शामिल हुये तो बंगाल में ही माओवादियों ने अपनी जमीन मजबूत की । निशाना आर्थिक नीतियों को लेकर ही रहा । लेकिन आर्थिक नीतियो को लेकर जो फुग्गा या कहे जो सपना दिखाया गया, बाजार व्यवस्था के ढहने से वह तो फूटा लेकिन माओवादियों के सामने बडा सवाल यही है कि आर्थिक नीतियों ने उन्हे आम जनता के बीच पहुंचने के लिये एक हथियार तो दिया... लेकिन अब विकल्प की नीतियों को सामने लाना सबसे बडी चुनौती है। और इसका कोई मजमून माओवादियों के पास नहीं है। खासकर जिन इलाको में माओवादियों ने अपना प्रभाव बनाया भी है, वहां किसी तरह का कोई आर्थिक प्रयोग ऐसा नहीं उभरा है, जिससे बाजार अर्थव्यवस्था के सामानांतर देसी अर्थव्यवस्था अपनाने का सवाल उठा हो। यानी खुद पर निर्भर होकर किसी एक क्षेत्र को कैसे चलाया जा सकता है, इसका कोई प्रयोग सामने नहीं आया है। <br /><br />नया संकट यह भी है कि अंतर्राष्ट्रीय तौर पर माओवादी आंदोलनों की कोई रुपरेखा ऐसी बची नही है जो कोई नया कॉरिडोर बनाये । नेपाल में माओवादियों के राजनीतिक प्रयोग को लेकर असहमति की एक बडी रेखा भी माओवादियों के बीच उभरी है। लेकिन सामाजिक तौर पर माओवादियों के सामने बड़ा संकट उन परिस्थितियों में अपनी पैठ बरकरार है, जहां राजनीतिक तौर उन्हें खारिज किया जा रहा है। संसदीय राजनीति से इतर किस तरह की व्यवस्था बहुसंख्यक तबके के लिये अनुकुल होगी माओवादियों के सामने यह भी अनसुलझा सवाल ही बना हुआ है। इसीलिये जो चुनौती सामने है, उसमें बड़ा सवाल यह भी उभर रहा है कि दो दशक पहले जिस आर्थिक सुधार ने देश को सपना दिखाया 2009 में अगर वह टूटता दिख रहा है तो शहरो को भी गांव से कैसे जोड़ा जाये । इसलिये पहली बार इस असफलता को भी माना जा रहा है , कि राजनीतिक क्षेत्र में ट्रेड यूनियन के खत्म होने ने बाजार व्यवस्था के ढहने के बाद शून्यता पैदा हो गयी है। <br /><br />मजदूरो को लेकर एक समूची व्यवस्था जो वामपंथी मिजाज के साथ बरकरार रहती और राज्य व्यवस्था को चुनौती देकर बहुसंख्य्क जनता को साथ जोड़ती इस बार उसी की अभाव है । पहली बार ग्रामीण और शहरी दोनो स्तर पर राज्य को लेकर आक्रोष है । पहली बार अशिक्षित समाज और उच्च शिक्षित वर्ग भी विकल्प खोज रहा है । खास कर अपनी परिस्थितियों में उसके अनुकूल नौकरी से लेकर आर्थिक सहूलियत का कोई माहौल नहीं बच पा रहा तो भी वामपंथी और माओवादियों दोनो इसका लाभ उठाने में चूक रहे हैं। माओवादियों के भीतर पहली बार इस बात को लेकर कसमसाहट कहीं ज्यादा है कि देश का बहुसंख्यक तबका विकल्प तलाश रहा है और दशकों से विकल्प का सवाल उठाने वालो के पास ही मौका पड़ने पर कोई विकल्प देने के लिये नहीं है । सिवाय इसके की शहर जंगल से ज्यादा बदतर हो चले हैं और मरने के लिये जंगल अब भी शहरो से ज्यादा हसीन है ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-57468976961917402202009-08-03T10:05:00.003+05:302009-08-03T10:06:08.122+05:30रेडकॉरिडोर में लाल क्रांति का सपनाकामरेड अब आगे आप क्या करेगे । वापस जंगल लौट जाऊंगा । कम से कम मरुंगा तो अपनों के बीच । मां के इलाज के लिये भूमिगत जीवन छोड़ कर शहर पहुंचे कामरेड की मां की मौत के बाद कामरेड के इस जबाब ने मुझे अंदर से हिला दिया । क्या वाकई जंगल इतना हसीन है कि उसकी आगोश में मौत भी आ जाये तो वह शहरी जिन्दगी से बेहतर है । फिर जंगल का मतलब है क्या । क्या यह माओवादियों की भाषा में दण्डकारण्य और सरकार की नजर में वही रेड कॉरीडोर है, जो आतंक का पर्याय बना हुआ है। <br /><br />एक-दो नही बल्कि तेरह राज्यों यानी तमिलनाडु से लेकर बंगाल तक के बीच खींची इस लाल लकीर के भीतर का सच क्या महज इतना ही है कि यहां विकास की कोई लकीर नहीं पहुंची और इसीलिए माओवाद यहां पहुंच गया। या फिर प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर इन इलाकों में विकास के नाम पर ही लूट मची है, इसलिये मुनाफे की थ्योरी में बाजार का आतंक ही राज्य के आतंक में तब्दील होकर ग्रामीण-आदिवासियों को भी आतंकवादी करार देने से नहीं कतरा रहा। और ऐसे में समूचे रेड कॉरीडोर का जीवन चक्र सिवाय संघर्ष के बचा नही है, और माओवाद इसी में क्राति के सपने बुनने को तैयार है। <br /><br />सपने कहां किस रुप में मौजूद हैं, जिसे अमली जामा पहनाने के लिये जंगल जिन्दगी की हकीकत बनी हुई है, यह महज बंदूक उठाये पांच से सात हजार माओवादियों के जरीये नहीं समझा जा सकता है । किसके सपने किस रुप में एक बेहतर जीवन के लिये हर संघर्ष के लिये तैयार हैं, इसके दो चेहरे पिछले दो अलग अलग दौर में उभरे हैं। पहला दौर 1991 का है जब आर्थिक सुधार ने प्रकृतिक संपदा से भरपूर जमीन हथिया कर विकास की लकीर खिंचने का रोमांच फैलाना शुरु किया। इस दौर ने शहरी जीवन की समझ में सीधी लकीर खींच कर समझदारो को बांट दिया। एक रास्ता विकास के बाजार में मुनाफा कमाने के घेरे में आने को बेताब हुआ तो दूसरा रास्ता मानवाधिकार के सवालों को लेकर जंगल-जमीन और शहरी जीवन में तारतम्य बैठाने की जद्दोजहद में आर्थिक सुधार को खारिज करने के लिये खड़ा हुआ। <br /><br />वहीं दूसरा दौर उस मंदी का है, जो 2008 में आया और वही तबका जंगल-जमीन के सवाल को उठाने के लिये बैचेन हुआ, जिसने 1991 की लहर में मुनाफा कमाने के घेरे में जाने के लिये हर तरह की जद्दोजहद शुरु की थी। नब्बे के दौर में रेड कॉरीडोर के चार राज्य आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और उडीसा के सीमान्त पर स्थित पर्वतीय औरजंगलात का इलाका सरकार और नक्सली आंदोलन के विकास और राजनीतिक प्रयोग का आखाडा बना। इस क्षेत्र में महाराष्ट्र के गढचिरोली, चन्द्रपुर, और भण्डारा जिले, आन्ध्र प्रदेश के आदिलाबाद, खम्मम, पूर्व गोदावरी, विसाखापत्तनम जिले , उडीसा का मलकानगिरी जो पुराने कोरापुट के नाम से भी जाना जाता है और मध्य प्रदेश का बस्तर, राजानांदगांव, बालाधाट और मण्डला जिला आते है । असल में 1991 से पहले इस क्षेत्र में अंधेरा जरुर था लेकिन प्रकृतिक संपदा और सौन्दर्य ने ग्रामीण आदिवासियो को जिलाये रखा था। लेकिन 1991 के बाद से देशी-विदेशी कंपनियों की सांठगांठ में विकास का जो चेहरा खड़ा करने की कोशिश इस इलाके में शुरु हुई उसने उन्हीं आदिवासियों को उसी जंगल-जमीन से बेदखल करना शुरु किया, जिनकी जिन्दगी का आधार ही वही था। प्रकृतिक संपदा की लूट या ग्रामीण आदिवासियों के सवाल से इतर इन चारों राज्यो में सरकारो की पहल ने ही शहरी जीवन में एक नयी बहस शुरु की, जिसमें राज्य की भूमिका को लेकर सवाल उठने लगे। <br /><br />क्योंकि संपदा की लूट को संरक्षण देते हुये राज्य व्यवस्था का एक ऐसा खाका खड़ा हुआ, जिसके खिलाफ जाने का मतलब लोकतांत्रिक मूल्यो के खिलाफ जाना था । संविधान को ना मानने वाला यानी कानून-व्यवस्था के खिलाफ पहल करने वाला होना था । यानी 1991 से पहले किसी भी राज्य में संविधान और कानून के दायरे में मानवाधिकार के सवाल शहरो में उठते थे तो कल्याणकारी राज्य की भूमिका को राजनीतिक दल भी आड़े ले लेते थे । जिससे राज्य की गलत पहल के खिलाफ आवाज उठाने का एक वातावरण बना रहता था । जिससे राज्य सत्ता पर एक तरह से दबाब बना रहता कि वह मनमर्जी न करे । लेकिन आर्थिक सुधार ने इसे नये तरीके से परिभाषित किया। जिसमें पुलिस प्रशासन और सत्ताधारी की भूमिका बदल गयी। क्योंकि विकास का जो खाका खड़ा किया गया, वह उस राजनीति पर भी भारी पड़ा जिसके जरिये लोकतांत्रिक मूल्यों का सवाल चुनावी राजानीति में किसी को सत्ता पर बैठाता था तो किसी को बेदखल कर देता था। <br /><br />1991 के आम चुनाव में देश का करीब आठ सौ करोड खर्च हुआ और रेड कॉरीडोर के इन चारों राज्यो के विधानसभा चुनाव में करीब साढे तीन सौ करोड रुपये का सरकारी आंकड़ा दिया गया । अगर सरकार की बतायी रकम से ज्यादा भी रकम मान ली जाये तो दुगुनी राशि यानी लोकसभा में सोलह सौ करोड़ और राज्यों में सात सौ करोड़ से ज्यादा का खर्च नही हुआ होगा । लेकिन 1991 से लेकर 1996 तक के दौर में आर्थिक सुधार की लकीर खींचने के लिये इन चार राज्यो के नक्सल प्रभावित इलाको में पचास हजार करोड से ज्यादा की रकम राजनीति के खाते में गयी । जिसमें सत्ता और विपक्ष दोनो की राजनीति और राजनेता शामिल थे। जिस संपत्ति की लूट इन इलाको में शुरु हुई, उसकी अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कीमत पचास लाख करोड़ से ज्यादा की थी । देस के दस टॉप उघोगपतियो का डेरा उसी दौर में लगा, जो अब प्राकृतिक संपदा का भरपूर लाभ उठाते हुये बदस्तूर जारी है। जंगल में उघोगपतियो के लाभ को महज इस उदाहरण से भी समझा जा सकता है कि उस वक्त एक पेड़ की कीमत उघोगपती के लिये तीन पैसे थी, जो अब बढ़ते बढ़ते नौ पैसे हो गयी है। <br /><br />वहीं बाजार में उस वक्त उस कटे हुये पेड़ की कीमत एक हजार थी, जो अब बढ़कर नौ हजार हो चुकी है । यह स्थित कमोवेश हर संपदा और मजदूरी से जुड़ा है या कहें लूट और मुनाफे का यह अर्थशास्त्र हर वस्तु के साथ जुड़ा था और है , लेकिन विकास से इतर बड़ा सवाल उस राज्य का था जिसकी भूमिका को लेकर जंगल नही शहर परेशान था । पुलिस-प्रशासन के जरीये विकास की इस लकीर को अंजाम देने के लिये जो बजट राज्यो द्रारा बनाया गया वह राज्य के समूचे बजट से बडा हुआ । महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश में तो नक्सल प्रभावित इलाको के लिये राज्य बजट से इतर एक दूसरा बजट बनाया गया । जो करीब ढाई गुना ज्यादा था । वहीं उडीसा के जिस बस्तर के आदिवासियों की न्यूनतम जरुरतों को लेकर भी पानी,शिक्षा, स्वास्थ्य और खाने को लेकर कोई योजना आजादी के बाद भी नहीं पहुची, वही संपदा की लूट को संरक्षण देती हुई पुलिस और अधिकारी इस इलाके में लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर बकायदी योजनाओ के साथ जरुर पहुंचे। इनके पीछे भी अंतर्राष्ट्रीय बाजार में माल पहुंचाने की एवज में राज्य का पैसा ही था जो कमीशन से मिला था । उडीसा में बतौर कमीशन सबसे ज्यादा धन गया। करीब पांच हजार करोड तक । लेकिन इस दौर में नया सवाल राजनीतिक शून्यता का उभरा और लोकतांत्रिक मूल्यों के तहत मानवाधिकार को नये तरीके से परिभाषित करने की राजनीतिक थ्योरी का उभरा । इस प्रक्रिया के विरोध का मतलब व्यवस्था का विरोध था । जिसे राज्य बर्दाश्त नहीं करता । इसका असर प्रभावित राज्यो में दोतरफा दिखा । एक तरफ कॉलेज से निकल रहे छात्रों के सामने फैलते बाजार का हिस्सा बनकर हर सुविधा को भोगना था तो दूसरी तरफ कॉलेज से काफी पहले निकल कर नौकरी करता हुआ वह तबका था जो अर्थव्यव्स्था के इस बाजारी चक्र में मानवीयता और राज्य के कल्याणकारी होने के सबब को जगाना चाहता था। <br /><br />इन चारो राज्यो में राजनीतिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक संगठनो से जुड़े करीब साढ़े तीन लाख से ज्यादा शहरी व्यक्तियों को सरकारी तंत्र ने उन मामलो में घेरा जो जंगल जमीन के मद्देनजर सरकार की नीतियों का विरोध करने अलग अलग जगहों पर सडक पर उतरे । मसलन नागपुर से करीब सवा सौ किलोमीटर दूर तोतलाडोह के मेलघाट में टाइगर प्रोजेक्ट 1993 में लाया गया । पूरा इलाका रिजर्व फारेस्ट में ले आया गया । जहा पेड़ की एक डाली काटने का मतलब था पचास रुपये का चालान और नदी में एक मछली पकडने का मतलब था सौ रुपये का जुर्माना । संकट जंगल में रहने वाले आदिवासियो और मधुआरो पर आया । करीब बीस हजार ग्रामीण आदिवासी जाये कहा और उनकी रोजी रोटी कैसे चलेगी इसपर जब महाराष्ट्र सरकार के खिलाफ शहर के सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनो से जुडे लोग सडको पर उतरे तो उनपर नकेल कसने के लिये प्रशासन ने पहले इलाके को नक्सली प्रभावित वाला करार दिया। फिर सभी पर उस दौर में आतंकवादी निरोधक कानून टाडा लगाने की प्रक्रिया शुरु कर दी । इसके साथ ही जब टाइगर प्रोजेक्ट से नक्सल शब्द जुड़ा तो नक्सल उन्मूलन के बजट का बडा हिस्सा भी यहां पहुंचा। 1995 में पहुंचे बीस करोड का क्या हुआ, इसकी जानकारी राजनीति ने ही ठंडे बस्ते में डाल दी। यह इलाका अब के कांग्रेसी सांसद मुकुल वासनिक के इलाके में आता है । लेकिन उस दौर में शहर के करीब तीन हजार लोगो पर पुलिस ने अलग अलग अलग धाराये लगायी और 75 आदिवासियों पर टाडा की धारायें लगाकर जेल में बंद कर दिया । शहर के आंदोलनकारियों को समझ नही आया कि वह आदिवासियों के हक का सवाल कैसे उठायें। <br /><br />वहीं आदिवासियो को समझ नहीं आया कि अपने हक के लिये खड़े होते ही उन्हे नक्सली मान कर जेल में ठूंस दिया गया तो उनके सामने रास्ता क्या है । लेकिन टाइगर प्रोजेक्ट पर सरकार की इस नायाब पहल ने प्रोजेक्ट को कितना आगे बढाया यह 2009 में केन्द्र सरकार की रिपोर्ट से समझा जा सकता है कि मेलघाट टाइगर परियोजना में एक भी टाइगर नहीं है। वहीं इस क्षेत्र के दस आदिवासी अभी भी टाडा के तहत जेल में बंद है और 25 आदिवासी टाडा की धाराओं का जबाब देने के लिये हर महीने अदालत की चक्कर लगाते रहते है । दरअसल, यह स्थिति अलग अलग परियोजनाओं के तहत हर इलाके में आयी। पावर प्रोजेक्ट से लेकर सीमेंट-स्टील फैक्टरी और कागज फैक्टी से लेकर खनन परियोजनाओ के तहत भी आदिवासियों पर बंदिशे लगायी गयीं। ऐसे में आदिवासियो के विरोध को आदिवासियो तक ही सिमटाया जाता तो मानवाधिकार के मामले के तहत सरकारें फंस सकती थी । लेकिन इनके हक में सांसकृतिक संगठन दलित रंगभूमि से लेकर आह्वान नाट्य मंच तक के कलाकारो को पहले इन इलाको में आदिवासियो की आवाज उठाने के लिये उसी राजनीति ने प्रेरित किया, जिसने बाद में आपसी गठबंधन कर सभी को नक्सली मान कर पुलिसिया कार्रवाई को उचित ठहराया। <br /><br />यानी एक पूरा तंत्र इस बात को साबित करने में लगा कि हर वह जगह जहां योजनाये पहुंच रही हैं, वहां नक्सली पहले पहुंचते है और योजनाओ को रोक देते हैं । इसलिये लड़ाई विकास और विकास विरोधी सोच की है । लोकिन 1991 में खींची यह लकीर 2008 में मंदी के साथ कैसे बदली यह भी इन इलाको के विस्तार के साथ समझा जा सकता है । <br />(जारी............)Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-63199875385278060502009-07-30T11:05:00.001+05:302009-07-30T11:05:52.117+05:30अंधेरे दौर में, अंधेरे के गीतआर्थिक तौर पर कमजोर और राजनीतिक तौर पर मजबूत बजट को देश में संकट की परिस्थितियों से जोड़ कर कैसे दिखाया जाए, न्यूज चैनलों के सामने यह एक मुश्किल सवाल है। यह ठीक उसी तरह की मुश्किल है, जैसे देश में बीस फीसदी लोग समझ ही नहीं सकते कि प्रतिदिन 20 रुपये की कमाई से भी जिन्दगी चलती है और उनकी अपनी जेब में बीस रुपये का नोट कोई मायने नहीं रखता है। कह सकते हैं कि न्यूज चैनलों ने यह मान लिया है कि अगर वह बाजार से हटे तो उनकी अपनी इक्नॉमी ठीक वैसे ही गड़बड़ा सकती है, जैसे कोई राजनीतिक दल सत्ता में आने के बाद देश की समस्याओं को सुलझाने में लग जाये। और आखिर में सवाल उसी संसदीय राजनीति पर उठ जाये, जिसके भरोसे वह सत्ता तक पहुंचा है। <br /><br />जाहिर है, ऐसे में न्यूज चैनल कई पैंतरे अपनाएंगे ही । जो खबर और मनोरंजन से लेकर मानसिक दिवालियेपन वाले तक को सुकुन देने का माध्यम बनता चले। सरकार का नजरिया भी इससे कुछ हटकर नहीं है। जनादेश मिलने के बाद पहला बजट इसका उदाहरण है। आम बजट में पहली बार उस मध्यम वर्ग को दरकिनार किया गया, जिसे आम आदमी मान कर आर्थिक सुधार के बाद से बजट बनाया जाता रहा । ऐसे में पहला सवाल यही उठा कि क्या वाकई आर्थिक सुधार का नया चेहरा गांव-किसान पर केंन्द्रित हो रहा है। क्योंकि बजट में ग्रामीण समाज को ज्यादा से ज्यादा धन देने की व्यवस्था की गयी। <br /><br />जब बहस आर्थिक सुधार के नये नजरिये से बजट के जरिये शुरु होगी तो अखबार में आंकड़ों के जरिये ग्रामीण जीवन की जरुरत और बजट की खोखली स्थिति पर लिखा जा सकता है। लेकिन हिन्दी न्यूज चैनलो का संकट यह है, उसे देखने वालो की बड़ी तादाद अक्षर ज्ञान से भी वंचित है। यानी टीवी पढ़ने के लिये नहीं, देखने-सुनने के लिये होता है। बजट में किसान, मजदूर, पिछडा तबका, अल्पसंख्यक समुदाय के हालात को लेकर जिस तरह की चिंता व्यक्त की गयी, उसमें उनके विकास को उसी पूंजी पर टिका दिया गया, जिसके आसरे बाजार किसी भी तबके को समाधान का रास्ता नहीं मिलने नहीं दे रहा है। यानी उच्च या मध्यम वर्ग की कमाई या मुनाफा बढ़ भी जाये तो भी उसकी जरुरते पूरी हो जायेगी, यह सोचना रोमानीपन है। इतना ही नहीं सरकार मुश्किल हालात उसी आर्थिक सुधार के जरीय खड़ा कर रही है, जिस सुधार के आसरे ज्यादा मुनाफा देने की बात कर वह बाजारवाद को बढ़ाती है। यानी ज्यादा से ज्यादा पूंजी किसी भी तबके को इस व्यवस्था में थोडी राहत दे सकती है...बड़ा उपभोक्ता बना सकती है। लेकिन देश का विकास नहीं कर सकती क्योंकि उसका अपना इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है । और सरकार इस इन्फ्रास्ट्रक्चर को बनाने की दिशा में जा नहीं रही है। <br /><br />न्यूज चैनलों का सबसे बडा संकट यही है कि वह सरकार की सोच और ग्रामीण भारत के माहौल को एक साथ पकड़ नहीं पा रहे हैं । साथ ही ग्रामीण जमीन के सच को बजट के सच से जोड़कर सरकार की मंशा को समझा भी नहीं पा रहे हैं। जबकि टीवी पर इस हकीकत को दिखाकर मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था के सतहीपन को उभारा जा सकता है। मसलन बजट को ही लें । बजट में ग्रामीण विकास के लिये अलग अलग क्षेत्र में इस बार खासा धन दिया गया। लेकिन पहला सवाल खडा होगा है कि जो धन बजट के जरीये निकला, वह गांव में आखिरी आदमी तो दूर की बात है, पहले व्यक्ति तक भी पहुंचेगा या नहीं और अगर पहुंचेगा तो कितना पहुंचेगा। यह सवाल इसलिये जरुरी है, क्योंकि कांग्रेस के नेता राजीव गांधी मानते थे और राहुल गांधी यह बात खुलकर मानते है कि केन्द्र से चला एक रुपया योजना तक पहुंचते पहुंचते दस से पन्द्रह पैसा ही बचता है। असल में बजट में अलग अलग योजना के मद में ही साठ फीसदी पूंजी इस बार बांटी गयी है। यानी राहुल गांधी के नजरिये को अगर सही माने तो साठ लाख करोड रुपया, जिसे विकास के लिये ग्रामीण जीवन को बेहतर बनाने के लिये प्रणव मुखर्जी ने दिया है, वह छह से नौ लाख करोड़ तक ही पहुंचेगा । बाकि पचास लाख करोड से ज्यादा की पूंजी दिल्ली से चलते हुये गांवों तक के रास्ते में बिचौलिये और दलालो द्वारा हडप ली जायेगी । इसमें नौकरशाह से लेकर राजनेता और राज्यो के तंत्र से लेकर पंचायत स्तर के बाबूओ का खेल ही रहेगा। सवाल यह है कि अगर सरकार भी इस पैसा हड़प तंत्र से वाकिफ है तो वह वैकल्पिक व्सवस्था क्यों नहीं करती है। और दूसरा सवाल है कि पूंजी के आसरे जब समाधान हो ही नहीं सकता है तो इन्फ्रास्ट्रक्चर पर ही सारा धन लगाने की बात सरकार क्यो नहीं करती है। <br /><br />पहले सवाल का जबाब बेहद साफ है । पैसा हडपने वाले तंत्र में उसी व्यवस्था के लोग है, जिसके आसरे देश की सत्ता या राजनीति चलती है। क्योंकि महानगर से लेकर जिला और गांव स्तर पर राजनीति खुद को इसी आसरे टिकाये रखती है कि अगर उनके समर्थन वाली पार्टी सत्ता में आ जायेगी तो उन्हें सीधा लाभ मिल जायेगा । असल में पैसा हड़पने वाले तंत्र और राज्य के बीच का समझौता ही एक नयी व्यवस्था खडा करता है जो नीतियों के आसरे बिना रोजगार के भी बेरोजगारों को पार्टियो के जरीये रोजगार दे देती है। इसको सरलता से समझने के लिये बंगाल में वामपंथियो की राज्य चलाने की व्यवस्था देखी जा सकती है। वहा कैडर ही सबसे प्रभावशाली होता है। और कोलकत्ता से नीतियो के सहारे जो धन गांव और पंचायत स्तर तक जाते है वह पूरी तरह कैडर के दिशा निर्देश पर ही खर्च होते हैं। यानी कैडर विकास से जुडी पूंजी को भी व्यक्तिगत लाभ और पार्टी के संगठन से जोडकर पार्टी की तानाशाही को इस तरीके से परोसता है, जिससे विकास का मतलब ही पार्टी के कैडर पर आ टिके। लेकिन दिल्ली की राजनीति खुद को इतना पारदर्शी नहीं दिखलाती। क्योंकि उसके लिये कैडर तंत्र के तौर पर विकसित होता है। जो अलग अलग मुद्दों के आसरे अलग अलग संस्थाओ को भी लाभ पहुंचाता है, और संस्थाओं के जरीये अपने राजनीतिक हित भी साधता है। राजनीतिक हित भी अलग अलग राज्यो में या अलग अलग इलाको में अलग अलग तरीके से चलते हैं। जैसे नरेगा का ज्यादा लाभ उन्हीं राज्यो में होगा, जहां केन्द्र और राज्य की सरकार एक ही पार्टी की हो। हो सकता है जवाहर रोजगार योजना से लेकर इन्दिरा अवास योजना के तहत घर बनाने का काम या उसका लाभ भी उन्ही क्षेत्रों में उन्हीं लोगों को हो, जिसके जरीये राजनीति अपना हित साध सकने में सक्षम हो। <br /><br />ऐसा नहीं है कि इस तंत्र को बनाने और अपने उपर निर्भर रखने में सिर्फ कांग्रेस ही सक्षम है । यह स्थिति भाजपा के साथ भी रही है । भाजपा की अगुवायी में एनडीए की सरकार के वक्त वित्त मंत्री यशंवत सिन्हा ने इस काम को बीजेपी के लिये बाखूबी इस्तेमाल किया । खासकर व्यापारियों को लाभ पहुंचाने की जो रणनीति नीतियो के आसरे भाजपा के दौर में अपनायी गयीं, उससे बिचौलिये और दलालो की भूमिका कई स्तर पर बढ़ी। वहीं, कांग्रेस ने उस मध्य वर्ग को अपने उपर आश्रित किया जो उच्च वर्ग में जाने के लिये लालायित रहता है। यह राजनीति का ऐसा चैक एंड बैलेंस का खेल है, जिसमें देश हमेशा संकट में रहेगा और और पार्टी का यह तंत्र इस बात का एहसास अपने अपने घेरे में हर जगह कराता है कि अगर उनके समर्थन वाली पार्टी सत्ता में रहती तो ज्यादा लाभ मिलता या फिर उनकी पार्टी सत्ता में आयी है तो लाभ मिलेगा ही। <br /><br />यहीं से दूसरा सवाल खडा होता है कि आखिर इन्फ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने की दिशा में सरकार की नीतियां क्यों नहीं जा रही है । जबकि इस बार कांग्रेस को जनादेश भी ऐसा मिला है, जिसमें पांच साल सरकार चलाने के बीच में कोई समर्थन खींच कर सरकार पर संकट भी पैदा नहीं कर सकता है । किसानों के स्थायी समाधान की दिशा के बदले सरकार उन्हे तत्काल राहत देकर अगले संकट से निजात दिलाने के लिये अपनी मौजूदगी का एहसास हर चुनाव के मद्देनजर करती है । इस बार किसानों को लेकर बजट में सबसे ज्यादा पांच लाख करोड तक की सीधी व्सयस्था की गयी है। लेकिन सवाल है अगर मानसून नहीं आता है, तो किसान को सरकार के पैकेज पर ही निर्भर रहना पडेगा । जो विदर्भ से लेकर बुदेलखंड तक के किसानो की फितरत बन चुकी है। <br /><br />सवाल है सरकार फसल बीमा की दिशा में आजतक नहीं सोच पायी है, लेकिन मुश्किल कहीं ज्यादा बड़ी यह है कि देश में खेती योग्य जमीन में से सिर्फ दस फीसदी जमीन ही ऐसी है, जिसके लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर की व्यवस्था है । यानी नब्बे फीसदी खेती के लिये सिंचाई तक की व्यवस्था भी देश में नहीं हो पायी है । यही स्थिति बीज और खाद को लेकर भी है। और सबसे खतरनाक स्थिति तो यही है कि अगर अपना पसीना बहाकर किसान अच्छी फसल पैदा कर भी लेता है तो भी फसल की कीमत का तीस से चालीस फीसदी ही उसके हिस्से में आता है, यानी बाकी साठ से सत्तर फिसदी बिचौलिये और दलालों के पास पहुंचता है। यानी बाजार से किसानों को जोड़ने तक की कोई सीधी व्यवस्था सरकार ने आज तक नहीं की है। जबकि खेती योग्य जमीन पर जो ढाई सौ से ज्यादा स्पेशल इकनामी जोन बनाने की तैयारी निजी क्षेत्र के जरीये सरकार कर रही है, और उसके लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर का पूरा ढांचा खिंचने के लिये तमाम राज्य सरकारे तैयार हैं। बैंक बिना दस्तावेज देखे लोन देने को तैयार है और बिचौलिये और दलालो का बडा तबका इसके शेयरो में पैसा लगाकर सीधे मुनाफा बनाने को तैयार है। <br /><br />यह स्थिति हर उस क्षेत्र में है जो सामाजिक तौर पर तो मजबूत है लेकिन आर्थिक तौर पर सरकार के रहमो-करम पर टिका है । मसलन जो न्यूनतम जरुरत के सवाल किसी भी आम व्यक्ति से जुडते हैं, उन्हें भी पूरा ना कर सरकार की नीतियों के आसरे उस पूंजी पर टिका दिया गया है, जो सरकारो के बदलने से उनकी मानवीय-अमानवीय होने का तमगा पाती हैं। या कहे आर्थिक सुधार में बाजारवाद का नारा लगा कर खुद को विकसित बनाने का प्रोपोगेंडा करती हैं। शिक्षा के मद्देनजर सभी को मुफ्त शिक्षा देने की बात पर दिल्ली में सरकार मुहर लगा सकती है। लेकिन हर गांव में जब प्राथमिक स्कूल तक नहीं है, तो शिक्षा देगा कौन और लेगा कौन । फिर मुफ्त शिक्षा के नाम पर अगर आंकडे दिखाये जाये और उसके बदले ग्रांट मिल जाये तो एक ही बच्चे की नाम बदल कर छह स्कूलो में दिखाया भी जा सकता है और कोई फ्राड नाम बना कर भी रजिस्ट्र में डाला जा सकता है। इसकी फेहरिस्त कुछ भी हो सकती है। यानी कितने भी बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने का ढिढोरा पिटा जा सकता है । साथ ही चुनावी वायदे के तहत सरकारी टारगेट को पाया जा सकता है। यहां सवाल मोनिटरिंग का खड़ा हो सकता है । लेकिन राजनीतिक तौर पर जो तंत्र खड़ा किया गाया है, उसमें मोनिटरिंग करने वाला शख्स सबसे ज्यादा कमाई करने वाला बन जायेगा। और मोनेटिंग तंत्र एक रुपये में बचे दस पैसे को भी कम कर पांच पैसे ही आखिरी आदमी तक पहुंचने देगा । यह स्थिति शिक्षा के साथ स्वास्थय और पीने के पानी को लेकर भी है । देश का साठ फिसदी क्षेत्र अभी भी जब न्यूनतम की लड़ाई ही लड रहा है तो विकासशील और विकसित होने का कौन सा बजट देश को जहन में रखेगा। <br /><br />जाहिर है देश का संघर्ष यहीं दम तोडता हुआ सा दिखता है । लेकिन यहीं से संसदीय राजनीति का ताना बाना शुरु होता है। संघर्ष का मतलब है हक की बात । अधिकार का सवाल। संसदीय राजनीति इस बात की इजाजत देती नहीं है, सत्ता में आने के लिये पचास फीसदी वोट चाहिये। बल्कि इजाजत इसकी भी नहीं है कि जो पचास फीसदी वोट डलते है, उसके भी पचास फीसदी वोट होने चाहिये तभी सत्ता मिलेगी। यानी देश के कुल वोटरों का पच्चीस फीसदी तो दूर पन्द्रह फीसदी तक भी वोट अपने बूते किसी एक राजनीतिक दल को नहीं मिलता। कांग्रेस जो सबसे पुरानी और राष्ट्रीय पार्टी है, अकेली पार्टी है जिसे देश में दस करोड़ से ज्यादा वोट मिले है। फिर सत्तर करोड़ वोटरों के देश में 35 करोड़ वोटर वोट ही नहीं डालते। फिर भी लोकतंत्र का तमगा उन्हीं राजनीतिक दलों के साथ जुड़ जाता है, जो सत्ता में होती है। लोकतंत्र का मतलब यहां दूसरों के अलोकतांत्रिक कहने का अधिकार है। यानी प्रणव मुखर्जी का बजट अगर देश के चालीस करोड आदिवासियों-किसान-मजदूरों के खाली पेट और न्यूनतम अधिकार की भी पूर्ति नहीं कर सकता है तो भी प्रणव मुखर्जी विशेषाधिकार प्राप्त सांसद मंत्री ही रहेंगे। और उनका बजट राष्ट्रीय बजट ही कहलायोगा। और जिन्हें बतौर नागरिक देश में स्वामिमान से जीने का हक है, अगर वह अपने अधिकारों के लिये संघर्ष का रास्ता अख्तियार करते है तो वह कानून व्यवस्था को तोड़ने वाले अलोकतांत्रिक लोग करार दिये जाते है। 1991 के आर्थिक सुधार के बाद से पिछले 18 साल में करीब पांच लाख से ज्यादा वैसे लोगो के खिलाफ समूचे देश के थानों में मामले दर्ज है, जिन्होंने रोजगार,घर, जमीन और न्यूनतम जरुरतो को लेकर संघर्ष किया। असल में आर्थिक सुधार की जो लकीर 1991 में खिंची, उसके 18 साल बाद यही लकीर इतनी मोटी हो गयी की देश के 20 करोड़ लोगों को विस्थापित उन्हीं योजनाओं से होना पड़ा, जिसे बजट और विकासपरख योजना का नाम देकर हर सत्ता ने हरी झंडी दिखायी। <br /><br />खास बात तो यह है कि विकास की जो लकीर ग्रामीण-आदिवासियों के लिये बनायी जाती है, वही लकीर सबसे पहले ग्रामीण आदिवासी को ही खत्म करती है । यह ठीक उसी तरह है जैसे ग्लोबल वार्मिग या कहे पर्यावरण की मार से बचने के लिये जो एसी..फ्रिज इस्तेमाल किया जाता है, वही सबसे ज्यादा मौसम बिगाड़ते है । गांवो को खत्म कर सुविधाओं के लिये जिन नये शहरो को बनाया- बसाया जा रहा है, वहां वही न्यूनतम असुविधा खड़ी हो रही हैं, जो गांवो में थी । यानी सीमेंट की अट्टालिकायें गांव से शहर तो किसी भी ग्रामीण को ले आयेंगी, लेकिन जमीन के नीचे के पानी के सूखने से लेकर हर न्यूनतम जरुरत के लिये उसी बाजार के लिये उपभोक्ता बनना ही पड़ेगा, जो सरकार या प्रणव मुखर्जी का बजट बनाना चाहता है। जिसमें आर्थिक सुधार का मतलब धन को अलग अलग मदो में बांटना होता है । लेकिन सरकार की आर्थिक नीतिया कभी किसी को आतंकित नही करतीं। अगर आंतकवाद और नक्सलवाद के सामानातंर आर्थिक आंतक के आंकडो को ही रखें, तो भी बीते 18 वर्षो की स्थिति समझी जा सकती है। बीते इन 18 सालो में अगर आतंकवाद की स्थिति देखें तो करीब 950 घटनाओ में 15 हजार से ज्यादा लोग मारे गये। पांच लाख से ज्यादा लोग उससे प्रभावित हुये और करीब एक हजार करोड़ का सीधा नुकसान आतंकवादी हिंसा से हुआ। वहीं, नक्सलवाद और सांप्रदायिक हिंसा की 1500 से ज्यादा घटनाये हुईं। जिसमें 18 हजार से ज्यादा लोग मारे गये । जबकि प्रभावित लोगों की संख्या बीस करोड तक की है। वही सीधा आर्थिक नुकसान एक लाख करोड़ से ज्यादा का हुआ। वहीं, जिस आर्थिक नीतियों को ट्रेक वन - टू कह कर एनडीए और यूपीए ने चलाया । उसके अंतर्गत दो हजार से ज्यादा घपले-घोटाले देश में हुये । आर्थिक नीतियों की वजह से 65 हजार किसानों ने आत्महत्या कर ली । कुपोषण से सिर्फ विदर्भ में बीस हजार से ज्यादा बच्चे मर गये। जिनकी जमीन , रोजगार, घर छिन गया, उनकी संख्या चालीस करोड़ से ज्यादा की है । आर्थिक तौर पर 50 लाख करोड़ से ज्यादा का नुकसान उन करोडों लोगों को हुआ, जिनकी जीती जागती जिन्दगी खत्म हो गयी । <br /><br />जाहिर है, जितने लोग सरकार की नीतियो की हिंसा की मार से प्रभावित हुये या फिर आतंकवाद से लेकर सांप्रदायिक हिंसा में जिनका सबकुछ स्वाहा हो गया, उनसे ज्यादा वोट 15 वी लोकसभा के लिये भी नहीं पड़े । जो दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र को परतंत्र का आईना भी दिखाता है। लेकिन दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र होने का तमगा और सबसे बड़ा बाजार कहलाने का सुकून ही संसदीय राजनीति का असल सच है, इसलिये जनादेश के बाद बजट का चेहरा पूरी दुनिया को मानवीय लगेगा ही । लेकिन बडा सवाल हैं, घुप्प अंधेरे के दौर में अंधेंरे का ही गीत सरकार-मीडिया क्यों गाते हैं।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-30735288354901635922009-07-26T11:15:00.002+05:302009-07-27T21:05:07.794+05:30मीडिया, राजनीति और नौकरशाही का कॉकटेलमीडिया को अपने होने पर संदेह है । उसकी मौजूदगी डराती है । उसका कहा-लिखा किसी भी कहे लिखे से आगे जाता नहीं। कोई भी मीडिया से उसी तरह डर जाता है जैसे नेता....गुंडे या बलवा करने वाले से कोई डरता हो। लेकिन राजनीति और मीडिया आमने-सामने हो तो मुश्किल हो जाता है कि किसे मान्यता दें या किसे खारिज करें। रोना-हंसना, दुत्काराना-पुचकारना, सहलाना-चिकोटी काटना ही मीडिया-राजनीति का नया सच है। मीडिया के भीतर राजनीति के चश्मे से या राजनीति के भीतर मीडिया के चश्मे से झांक कर देखने पर कोई अलग राग दोनो में नजर नहीं आयेगा। लेकिन दोनों प्रोडेक्ट का मिजाज अलग है, इसलिये बाजार में दोनों एक दूसरे की जरुरत बनाये रखने के लिये एक दूसरे को बेहतरीन प्रोडक्ट बताने से भी नहीं चूकते। यह यारी लोकतंत्र की धज्जिया उड़ाकर लोकतंत्र के कसीदे भी गढ़ती है और भष्ट्राचार में गोते लगाकर भष्ट्राचार को संस्थान में बदलने से भी नही हिचकती।<br /><br />मौजूद राजनेताओं की फेरहिस्त में मीडिया से निकले लोगो की मौजूदगी कमोवेश हर राजनीतिक दलो में है । अस्सी के दशक तक नेता अपनी इमेज साफ करने के लिये एक बार पत्रकार होने की चादर को ओढ़ ही लेता था, जिससे नैतिक तौर पर उसे भी समाज का पहरुआ मान लिया जाये। जागरुक नेता के तौर पर ...बुद्दिजीवी होने का तमगा पाने के तौर पर, पढ़े-लिखों के बीच मान्यता मिलने के तौर पर नेता का पत्रकार होना उसके कैरियर का स्वर्णिम हथियार होता, जिसे बतौर नेता मीडिया के घेरे में फंसने पर बिना हिचक वह उसे भांजता हुआ निकल जाता।<br /><br />नेहरु से लेकर वाजपेयी तक के दौर में कई प्रधानमंत्रियो और वरिष्ठ नेताओं ने खुलकर कहा कि वह पत्रकार भी रह चुके हैं। आई के गुजराल और वीपी सिंह भी कई मौकों पर कहते थे कि एक वक्त पत्रकार तो वह भी रहे हैं । लेकिन नया सवाल एकदम उलट है। एक पत्रकार की पुण्यतिथि पर कबिना मंत्री मंच से खुलकर कहता है कि उन्हें मीडिया की फ्रिक्र नहीं है कि वह क्या लिखते हैं क्योकि पत्रकार और पत्रकारिता अब मुनाफा बनाने के लिये किसी भी स्तर तक जा पहुंची है। अखबार के एक ही पन्ने पर एक ही व्यक्ति से जुड़ी दो खबरें छपती हैं, जो एक दूसरे को काटती हैं। राजनेता की यह सोच ख्याली कह कर टाली नहीं जा सकती है । हकीकत है कि इस तरह की पत्रकारिता हो रही है ।<br /><br />लेकिन यहां सवाल उस राजनीति का है, जो खुद कटघरे में है। सत्ता तक पहुंचने के जिसके रास्ते में कई स्तर की पत्रकारिता की बलि भी वह खुद चढ़ाता है और जो खुद मुनाफे की अर्थव्यवस्था को ही लोकहित का बतलाती है। लेकिन लोकहित किस तरह राज्य ने हाशिये पर ढकेला है यह कोई दूर की गोटी नहीं है लेकिन यहां सवाल मीडिया का है। यानी उस पत्रकारिता का सवाल है, जिस पत्रकारिता को पहरुआ होना है, पर वह पहरुआ होने का कमीशन मांगने लगी है और जिस राजनीति को कल्य़ाणकारी होना है, वह मुनाफा कमा कर सत्ता पर बरकरार रहने की जोड़तोड़ को राष्ट्रीय नीति बनाने और बतलाने से नही चूक रही है। तो पत्रकार को याद करने के लिये मंच पर नेता चाहिये, यह सोच भी पत्रकारो की ही है और नेता अगर पत्रकारो के मंच से ही पत्रकारिता को जमीन दिखा दे तो यह भी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है।<br /><br />लेकिन पत्रकारिता के घालमेल का असल खेल यहीं से शुरु होता है । मीडिया को लेकर पिछले एक दशक में जितनी बहस मीडिया में ही हुई उतनी आजादी के बाद से नहीं हुई है। पहली बार मीडिया को देखने, समझने या उसे परोसने को लेकर सही रास्ता बताने की होड मीडियाकर्मियों में ही जिस तेजी से बढ़ी है, उसका एक मतलब तो साफ है कि पत्रकारो में वर्तमान स्थिति को लेकर बैचैनी है। लेकिन बैचैनी किस तरह हर रास्ते को एक नये चौराहे पर ले जाकर ना सिर्फ छोड़ती है, बल्कि मीडिया का मूल कर्म ही बहस से गायब हो चला है, इसका एहसास उसी सभा में हुआ, जिसमें संपादक स्तर के पत्रकार जुटे थे।<br /><br />उदयन शर्मा की पुण्यतिथि के मौके पर जो सवाल उस सभा में मंच या मंच के नीचे से उठे, वह गौर करने वाले इसलिये हैं, क्योंकि इससे हटकर व्यवसायिक मीडिया में कुछ होता नही और राजनीति भी कमोवेश अपने आत्ममंथन में इसी तरह के सवाल अपने घेरे में उठाती है और सत्ता मिलने के बाद उसी तरह खामोश हो जाती है, जैसे कोई पत्रकार संपादक का पद मिलने के बाद खुद को कॉरपोरेट का हिस्सा मान लेता है। मीडिया अगर प्रोडक्ट है तो पाठक उपभोक्ता हैं। और उपभोक्ता के भी कुछ अधिकार होते हैं। अगर वह माल खरीद रहा है तो उसे जो माल दिया जा रहा है उसकी क्वालिटी और माप में गड़बड़ी होने पर उपभोक्ता शिकायत कर भरपायी कर सकता है। लेकिन मीडिया अगर खबरों की जगहो पर मनोरंजन या सनसनाहट पैदा करने वाले तंत्र-मंत्र को दिखाये या छापे तो उपभोक्ता कहां शिकायत करें। यह मामला चारसौबीसी का बनता है । इस तरह के मापदंड मीडिया को पटरी पर लाने के लिये अपनाये जाने चाहिये। प्रिंट के पत्रकार की यह टिप्पणी खासी क्रांतिकारी लगती है।<br /><br />लेकिन मीडिया को लेकर पत्रकारों के बीच की बहस बार बार इसका एहसास कराने से नहीं चूकती कि पत्रकारिता और प्रोडक्ट में अंतर कुछ भी नही है । असल में खबरों को किसी प्रोडक्ट की तरह परखें तो इसमें न्यूज चैनल के पत्रकार की टिप्पणी भी जोड़ी जा सकती है, जिनके मुताबिक देश की नब्ज न पकड़ पाने की वजह कमरे में बैठकर रिपोर्टिग करना है। और आर्थिक मंदी ने न्यूज चैनलों के पत्रकारो को कमरे में बंद कर दिया है, ऐसे में स्पॉट पर जाकर नब्ज पकडने के बदले जब रिपोर्टर दिल्ली में बैठकर समूचे देश के चुनावी तापमान को मांपना चाहेगा तो गलती तो होगी ही।<br /><br />जाहिर है यह दो अलग अलग तथ्य मीडिया के उस सरोकार की तरफ अंगुली उठाते हैं जो प्रोडक्ट से हटकर पत्रकारिता को पैरों पर खड़ा करने की जद्दोजहद से निकली है । इसमें दो मत नहीं कि समाज की नब्ज पकड़ने के लिये समाज के बीच पत्रकार को रहना होगा लेकिन मीडिया में यह अपने तरह की अलग बहस है कि पत्रकारिता समाज से भी सरोकार तभी रखेगी, जब कोई घटना होगी या चुनाव होंगे या नब्ज पकडने की वास्तव में कोई जरुरत होगी। यानी मीडिया कोई प्रोडक्ट न होकर उसमें काम करने वाले पत्रकार प्रोडक्ट हो चुके हैं, जो किसी घटना को लेकर रिपोर्टिंग तभी कर पायेंगे जब मीडिया हाउस उसे भेजेगा।<br /><br />अब सवाल पहले पत्रकार का जो उपभोक्ताओ को खबरें न परोस कर चारसौबीसी कर रहा है। तो पत्रकार के सामने तर्क है कि वह बताये कि आखिर शहर में दंगे के दिन वह किसी फिल्म का प्रीमियर देख रहा था तो खबर तो फिल्म की ही कवर करेगा । या फिर फिल्म करोड़ों लोगों तक पहुंचेगी और दंगे तो सिर्फ एक लाख लोगो को ही प्रभावित कर रहे हैं, तो वह अपना प्रोडक्ट ज्यादा बड़े बाजार के लिये बनायेगा। यानी देश में सांप्रदायिक दंगो को राजनीति हवा दे रही है और उसी दौर में फिल्म अवॉर्ड समारोह या कोई मनोरंजक बालीवुड का प्रोग्राम हो रहा है और कोई चैनल उसे ही दिखाये। य़ा फिर अवार्ड समारोह की ही खबर किसी अखबार के पन्ने पर चटकारे लेकर छपी रहे तो कोई उपभोक्ता क्या कर सकता है। जैसे ही पत्रकारिता प्रोडक्ट में तब्दील की जायेगी, उसे समाज की नहीं बाजार की जरुरत पड़ेगी। पत्रकारिता का संकट यह नहीं है कि वह खबरों से इतर चमकदमक को खबर बना कर परोसने लगी है।<br /><br />मुश्किल है पत्रकारिता के बदलते परिवेश में मीडिया ने अपना पहला बाजार राजनीति को ही माना। संपादक से आगे क्या। यह सवाल पदों के आसरे पहचान बनाने वाले पत्रकारों से लेकर खांटी जमीन की पत्रकारिता करने वालो को भी राजनीति के उसी दायरे में ले गया, जिस पर पत्रकारिता को ही निगरानी रखते हुये जमीनी मुद्दों को उठाये रखना है। संयोग से उदयन की इस सभा में एनसीपी के नेता डीपी त्रिपाठी ने कहा कि राजनीति का यह सबसे मुश्किल भरा वक्त इसलिये है क्योकि वाम राजनीति इस लोकसभा चुनाव में चूक गयी। वाम राजनीति रहती तो सत्ता मनमानी नहीं कर सकती थी। वहीं कपिल सिब्बल ने कहा कि उदयन सरीखे पत्रकार होते तो पत्रकारिता चूकती नही, जो लगातार चूक रही है । लेकिन मंच के नीचे से यह सवाल भी उठा कि उदयन को भी आखिर राजनीति क्यों रास आयी । क्यो पत्रकारिता में इतना स्पेस नहीं है कि पत्रकार की जिजिविशा को जिलाये रख सके। उदयन जिस दौर में कांग्रेस में गये या कहें कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़े, उस दौर में देश में सांप्रदायिकता तेजी से सर उठा रही थी । और उदयन की पहचान सांप्रदायिकता के खिलाफ पत्रकारिता को धार देने वाली रिपोर्ट करने में ही थी। सवाल सिर्फ उदयन का ही नहीं है। अरुण शौरी जिस संस्थान से निकले, उसे चलाने वाले गोयनका राजनीति में अरुण शौरी से मीलो आगे रहे। लेकिन गोयनका ने कभी पिछले दरवाजे से संसद पहुचने की मंशा नहीं जतायी। चाहते तो कोई रुकावट उनके रास्ते में आती नहीं । गोयनका को पॉलिटिकल एक्टिविस्ट के तौर पर देखा समझा जा सकता है। लेकिन उसी इंडियन एक्सप्रेस में जब कुलदीप नैयर का सवाल आता है और इंदिरा गांधी के दबाब में कुलदीप नैयर से और कोई नहीं गोयनका ही इस्तीफा लेते है तो पत्रकारिता के उस घेरे को अब के संपादक समझ सकते है कि मीडिया की ताकत क्या हो सकती है, अगर उसे बनाया जाये तो।<br /><br />लेकिन कमजोर पड़ते मीडिया में अच्छे पत्रकारो के सामने क्या सिर्फ राजनीति इसीलिये रास्ता हो सकती है क्योकि उनका पहला बाजार राजनीति ही रहा और खुद को बेचने वह दूसरी जगह कैसे जा सकते हैं। स्वप्न दास हो या पायोनियर के संपादक चंदन मित्रा या फिर एम जे अकबर । इनकी पत्रकारिता पर उस तरह सवाल उठ ही नहीं सकते हैं, जैसे अब के संपादक या पत्रकारो के राजनीति से रिश्ते को लेकर उठते हैं। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि राजनीति में गये इन पत्रकारों की हैसियत राजनीतिक मंच पर क्या हो सकती है या क्या है, जरा इस स्थिति को भी समझना चाहिये।<br /><br />राजनीतिक गलियारे में माना जाता है कि उड़ीसा में नवीन पटनायक से बातचीत करने के लिये अगर चंदन मित्रा की जगह किसी भी नेता को भेजा जाता तो बीजू जनता दल और भाजपा में टूट नहीं होती। इसी तरह चुनाव के वक्त वरुण गांधी के समाज बांटने वाले तेवर को लेकर बलबीर पूंज ही भाजपा के लिये खेतवार बने। बलवीर पुंज भी एक वक्त पत्रकार ही थे । और वह गर्व भी करते है कि पत्रकारिता के बेहतरीन दौर में बतौर पत्रकार उन्होने काम किया है। लेकिन राजनीति के घेरे में इन पत्रकारो की हैसियत खुद को वाजपेयी-आडवाणी का हनुमान कहने वाले विनय कटियार से ज्यादा नहीं हो सकती है। तो क्या माना जा सकता है कि पत्रकारिय दौर में भी यह पत्रकार पत्रकारिता ना करके राजनीतिक मंशा को ही अंजाम देते रहे। और जैसे ही राजनीति में जाने की सौदेबाजी का मौका मिला यह तुरंत राजनीति के मैदान में कूद गये।<br /><br />पत्रकार का नेता बनने का यह पिछले दरवाजे से घुसना कहा जा सकता है,क्योकि राजनीति जिस तरह का सार्वजनिक जीवन मांगती है, पत्रकार उसे चाहकर भी नहीं जी पाता। पॉलिटिक्स और मीडिया को लेकर यहां से एक समान लकीर भी खिंची जा सकती है। दोनों पेशे में समाज के बीच जीवन गुजरता है। यह अलग बात है कि पत्रकारों को राजनीतिज्ञो के बीच भी वक्त गुजारना पड़ता है और नेता भी मीडिया के जरीये समाज की नब्ज टटोलने की कोशिश करता रहता है। लेकिन संयोग से दोनो जिस संकट पर पहुचे है, उसका जबाब भी इन्ही दोनों पेशे की तरफ से उदयन को याद करने वाली सभा में उभरा।<br /><br />राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक के एक ब्यूरो चीफ ने सभा में साफ कहा कि पत्रकारिता का सबसे बडा संकट तत्काल को जीना है। इसमें भी बडा संकट गहरा रहा है क्योकि आने वाली पीढ़ी तो उस गलती को भी नहीं समझ पा रही है, जिसे अभी के संपादक किये जा रहे हैं। यानी जो मीडिया में सत्तासीन हैं, उन्हे तमाम गलतियों के बावजूद पद छोडना नहीं है या उन्हे हटाने की बात करना सही नहीं है क्योकि उनके हटने के बाद जो पीढी आयेगी, वह तो और दिवालिया है।<br /><br />जाहिर है यह समझ खुद को बचाने वाली भी हो सकती है और आने वाली पीढ़ी की हरकतो को देखकर वाकई का डर भी। लेकिन पत्रकारिता में संकट के दौर में यह एक अनूठी समझ भी है, जिसमें उस दौर को मान्यता दी जा रही है जो बाजार के जरीये मीडिया को पूरी तरह मुनाफापरस्त बना चुकी है। लेकिन इस मुनाफापरस्त वक्त की पीढी की पत्रकारिता को कोई बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है य़ा फिर उसके मिजाज को पत्रकारिय चिंतन से इतर देख रहा है। यह घालमेल राजनीति में किस हद तक समा चुका है, इसे सीपीएम नेता सीताराम येचुरी के ही वक्तव्य से समझा जा सकता है। संयोग से उदयन की सभा के दिन सीपीएम सेन्ट्रल कमेटी की बैठक भी दिल्ली में हो रही थी, जिसमें चुनाव में मिली हार की समीक्षा की जा रही थी। और सीताराम येचुरी दिये गये वादे के मुताबिक बैठक के बीच में उदयन की सभा में पहुंचे, जिसमें उन्होंने माना कि वामपंथियों की हार की बड़ी वजह उन आम वोटरों को अपनी भावनाओं से वाकिफ न करा पाना था, जिससे उन्हें वोट मिलते। यानी सीपीएम के दिमाग में जो राजनीति तमाम मुद्दों को लेकर चल रही थी, उसके उलट लोग सोच रहे होगे, इसलिये सीपीएम हार गयी। लेकिन क्या सिर्फ यही वजह रही होगी। हालाकि सीपीएम के मुखपत्र में कैडर में फैलते भष्ट्राचार से लेकर कैडर और आम वोटरो के बीच बढ़ती दूरियो का भी बच बचाकर जिक्र किया गया। लेकिन सीताराम येचुरी के कथन ने उस दिशा को हवा दी, जहा राजनीति अपने हिसाब से जोड़-तोड़ कर सत्ता में आने की रणनीति अपनाती है लेकिन जनता के दिमाग में कुछ और होता है।<br /><br />यहां सवाल है कि राजनीति को जनता की जरुरतो को समझना है या फिर राजनीति अपने मुताबिक जनता को समझा कर जीत हासिल कर सकती है। भाजपा ने भी लोकसभा चुनाव में वहीं गलती कि जहां उसे लगा कि उसकी राजनीति को जनता समझ जायेगी और जो मुद्दे जनता से जुड़े हैं अगर उसमें आंतकवाद और सांप्रदायिकता का लेप चढ़ा दिया जाये तो भावनात्मक तौर पर उसके अनुकुल चुनावी परिणाम आ जायेगे। हालांकि भाजपा एक कदम और आगे बढ़ी और उसने हिन्दुत्व को भी मुद्दे सरीखा ही आडवाणी के चश्मे से देखना शुरु किया। हिन्दुत्व कांग्रेस के लिये मुद्दा हो सकता है लेकिन भाजपा की जो अपनी पूरी ट्रेनिंग है, उसमें हिन्दुत्व जीवनशैली होगी। चूंकि आरएसएस की यह पूरी समझ ही भाजपा के लिये एक वोट बैक बनाती है, इसलिये अपने आधार को खारिज कर भाजपा को कैसे चुनाव में जीत मिल सकती है, यह भाजपा को समझना है।<br /><br />यही समझ वामपंथियो में भी आयी, जहां वह वाम राजनीति से इतर सामाजिक-आर्थिक इंजिनियरिंग का ऐसा लेप तैयार करने में जुट गयी जिसमें वह काग्रेस का विकल्प बनने को भी तैयार हो गयी और जातीय राजनीति से निकले क्षेत्रिय दलों की अगुवाई करते हुये भी खुद को वाम राजनीति करने वाला मानने लगी। इस बैकल्पिक राजनीति की उसकी समझ को उसी की ट्रेनिग वाले वाम प्रदेश में ही उसे सबसे घातक झटका लगा क्योकि उसने अपने उन्हीं आधारो को छोड़ा, जिसके जरीये उसे राजनीतिक मान्यता मिली थी।<br /><br />जाहिर है यहां सवाल मीडिया का भी उभरा कि क्या उसने भी अपने उन आधारो को छोड़ दिया है, जिसके आसरे पत्रकारिता की बात होती थी । या फिर वाकई वक्त इतना आगे निकल चुका है कि पत्रकारिता के पुराने मापदंडों से अब के मीडिया को आंकना भारी भूल होगी । लेकिन इसके सामानांतर बड़ा सवाल भी इसी सभा में उठा कि मीडिया का तकनीकि विस्तार तो खासा हुआ है लेकिन पत्रकारो का विस्तार उतना नहीं हो पाया है, जितना एक दशक पहले तक पत्रकारो का होता था और उसमें उदयन-एसपी सिंह या फिर राजेन्द्र माथुर या सर्वेश्वरदयाल सक्सेना सरीखो का हुआ। मीडिया को लेकर नौकरशाह चुनाव आयुक्त एस एम कुरैशी ने भी अपनी लताड़ जानते समझते हुये लगा दी कि चुनाव को लेकर जीत-हार का सिलसिला रोक कर चुनाव आयोग ने कितने कमाल का काम किया है। एक तरफ कुरैशी साहब यह बोलने से नहीं चूके की मीडिया सर्वे के जरीये राजनीतिक दलों को लाभ पहुंचा देती है क्योंकि सर्वे का कोई बड़ा आधार नहीं होता। दूसरी तरफ राजनीति के प्रति लोगो में अविश्वास न जागे, इसके लिये मीडिया को भी मदद करने की अपील भी यह कहते हुये कि राजनेता लोकतंत्र की सबसे बड़ी पहचान है । कुरैशी साहब के मुताबिक चुनाव आयोग जिस तरह चुनावों को इतने बडे पैमाने पर सफल बनाता है, असल लोकतंत्र का रंग यही है । हालांकि मंच के नीचे से यह सवाल भी उठा कि सत्तर करोड़ मतदाताओं में से जब पैंतिस करोड़ वोट डालते ही नही तो लोकतंत्र का मतलब क्या होगा। 15 वीं लोकसभा चुनाव में भी तीस करोड से ज्यादा वोटरो ने वोट डालने में रुचि दिखायी ही नही । और वोट ना डालने वालो की यह तादाद राष्ट्रीय पार्टियो को मिले कुल वोट से भी ज्यादा है या कहे कांग्रेस की अगुवाई में जो सरकार बनी है, उससे दुगुना वोट पड़ा ही नहीं।<br /><br />लेकिन मीडिया का संकट इतना भर नहीं है कि पत्रकार शब्द समाज में किसी को भी डरा दे। राजनीति या नौकरशाही इसके सामने ताल ठोंककर उसे खारिज कर निकल भी सकती है । उस सभा के अध्यक्ष जनता दल यूनाइटेड के अध्यक्ष शरद यादव ने आखिर में जब अभी के सभी पत्रकारो को खारिज कर पुराने पत्रकारो को याद किया तो भी पत्रकारो की इस सभा में खामोशी ही रही। शरद यादव ने बडे प्यार से प्रभाष जोशी को भी खारिज करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उन्होंने कहा कि अभी के पत्रकारो में एकमात्र प्रभाष जोशी हैं, जो सबसे ज्यादा लिखते है लेकिन वह भी रौ में बह जाते हैं। जबकि शरद यादव जी के तीस मिनट के भाषण के बाद मंच के नीचे बैठे हास्य कवि सुरेन्द्र शर्मा ने टिप्पणी की- कोई समझा दे कि शरद जी ने कहा क्या तो उसे एक करोड़ का इनाम मिलेगा। असल में मीडिया की गत पत्रकारों ने क्या बना दी है यह 11 जुलायी को उदयन की पुण्यतिथि पर रखी इस सभा में मंच पर बैठे एक मंत्री,चार नेता और एक नौकरशाह और मंच के नीचे बैठे पत्रकारो की फेरहिस्त में कुलदीप नैयर से लेकर एक दर्जन संपादको से भी समझी जा सकती है। दरअसल, इस सभा में जो भी बहस हुई, इससे इतर मंच और मंच के बैठे नीचे लोगें से भी अंदाज लगाया जा सकता है कि एतक पत्रकारों को याद करने के लिए पत्रकारों द्वारा आयोजित सभी में ही किसे ज्यादा तरजीह मिलेग।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-63114062433699465952009-07-13T13:19:00.002+05:302009-07-13T13:20:18.903+05:30कांशीराम का चमचा युग और मायावती का मिशनसैनिक स्कूल में शिक्षा पाये डां आंबेडकर जीवनभर कहते रहे, बगैर शिक्षा के सारी लड़ाई बेमानी है। आंबेडकर को भी शिक्षा इसीलिये मिल गयी क्योंकि वह एक सैनिक के बेटे थे। और ईस्ट इंडिया कंपनी का यह नियम था कि सेना से जुड़ा कोई अधिकारी हो या कर्मचारी उनके बच्चों को अनिवार्य रुप से सैनिक स्कूल में शिक्षा दी जायेगी। आंबेडकर के पिता रामजी सकपाल सैनिक स्कूल में हेडमास्टर थे और रामजी सकपाल के पिता मालोंजी सकपाल सेना में थे। हालांकि 1892 में महारो के सेना में शामिल होने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। लेकिन इस कडी में आंबेडकर तो शिक्षा पा गये मगर दलित संघर्ष में शिक्षा प्रेम की यह लड़ाई मायावती तक पहुंचते पहुंचते कांशीराम के उस चमचा युग को ही जीने लगी है, जिसमें दलित ही सत्ता का चमचा हो जाये और दलित संघर्ष ही कमजोर हो।<br /><br />आंबेडकर से मायावती वाया कांशीराम का यह रास्ता करीब सत्तर साल बाद दलित को उसी मीनार पर बैठाने पर आमादा है, जिस पर हिन्दुओं को बैठ देखकर आंबेडकर संघर्ष की राह पर चल पड़े थे। सत्ता कैसे चमचा बनाती है और कैसे किसे औजार बनाती है, इसे मायावती की सत्ता के अक्स में ही देखने से पहले औजार और चमचा की थ्योरी को समझना भी जरुरी है।<br /><br />डा. आंबेडकर की पूना पैक्ट पर प्रतिक्रिया थी, यदि चिर-परिचित मुहावरों में कहना हो तो हिन्दुओं के लिहाज से संयुक्त निर्वाचक मंडल "एक सडा गला उपनगर" है, जिसमें हिन्दुओं को किसी अछूत को नामांकित करने का ऐसा अधिकार मिला हुआ है, जिसमें उसे अछूतों का प्रतिनिधि तो नाममात्र के लिये बनाये लेकिन असलियत में उसे हिन्दुओ का औजार बना सके। वहीं कांशीराम ने आंबेडकर की इसी प्रतिक्रिया को चमचा युग से जोड़ा । कांशीराम के मुताबिक , "चमचा एक देशी शब्द है जो ऐसे व्यक्ति के लिये प्रयुक्त किया जाता है जो अपने आप क्रियाशील नहीं हो पाता बल्कि उसे सक्रिय करने के लिये किसी अन्य व्यक्ति की आवश्यक्ता पड़ती है। वह अन्य व्यक्ति चमचे को सदैव अपने व्यक्तिगत उपयोग और हित में अथवा अपनी जाति की भलाई में इस्तेमाल करता है। जो स्वयं चमचे की जाति के लिये हमेशा नुकसानदेह होता है।"<br /><br />मायावती इस सच को ना समझती हो ऐसा हो नही सकता । लेकिन बहुजन के संघर्ष से सर्वजन की सोशल इंजिनियरिंग का खेल मायावती की सत्ता कैसे औजार और चमचो में सिमटी है यह समझना जरुरी है । मायावती सत्ता चलाने में दक्ष है इसलिये अपने हर कदम को राज्य के निर्णय से जोड़कर चलती है । बुत या प्रतिमा प्रेम मायावती का नहीं राज्य का निर्णय है, इसलिये सुप्रीम कोर्ट भी मायावती की प्रतिमाओ को लगाने से नहीं रोक सकता । चूंकि आंबेडकर-कांशीराम-मायावती के बुत समूचे राज्य में अभी तक जितने लगे है, अगर उनकी जगहो पर आंबेडकर की शिक्षा पर जोर देने वाले सच के दलित उत्थान को पकड़ा जाता तो संयोग से राज्य में उच्च शिक्षा के लिये अंतर्राष्ट्रीय स्तर की तीन यूनिवर्सिटी और राज्य के हर गांव में एक प्राथमिक स्कूल खुल सकता था। लेकिन बुत लगाना कैबिनेट का निर्णय है और कैबिनेट राज्य की जरुरत को सबसे ज्यादा समझती है, क्योंकि जनता ने ही इस सरकार को चुना है, जिसकी कैबिनेट निर्णय ले रही है तो सुप्रीम कोर्ट क्या कर सकता है ।<br /><br />लेकिन कैबिनेट का निर्णय अगर इतनी मोटी लकीर खिंचता है तो इसे मिटाने वाले के साथ सौदेबाजी का दायरा कितना बड़ा हो सकता है। मायावती की कैबिनेट ने ही राज्य के स्कूलो में फीस न बढ़ाने का निर्णय लेते हुये हर निजी स्कूल को चेताया की अगर उसने फीस बढ़ायी तो इसे लोकहित के खिलाफ और राज्य के निर्णय के खिलाफ उठाया गया कदम माना जायेगा। लेकिन देश के सबसे अव्वल निजी शिक्षा संस्थान होने का दावा करने वाले ऐमेटी इंटरनेशनल से लेकर करीब दर्जन भर निजी शिक्षा संस्थानों ने कैबिनेट के निर्णय को ताक पर रखकर ना सिर्फ फीस वसूलनी जारी रखी है, बल्कि उसमें वह एरियर भी जोड़ दिया जिसपर दिल्ली तक में रोक लगायी जा चुकी है।<br /><br />सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट कैबिनेट के निर्णय पर हाथ खड़े कर देता है और निजी शिक्षा संस्थान कैबिनेट के निर्णय को ढेंगा दिखा देते है । असल में मायावती का यही सलिका कांशीराम के दलित संघर्ष के तौर तरीको को ढेंगा दिखाते हुये सत्ता के लिये राजनीतिक चमचो से होते हुये सत्ता चलाने के लिये नौकरशाही चमचे तक पर जा सिमटा है। कांशीराम कहते है, कोई औजार,दलाल,पिठ्टू अथवा चमचा इसलिये बनाया जाता है ताकि उससे वास्तविक और सच्चे संघर्षकर्ता का विरोध कराया जा सके । बीसवीं शताब्दी की शुरुआत से ही दलित वर्ग छुआछुत और अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़ा हुआ था। शुरुआत मे उनकी उपेक्षा की गयी किन्तु बाद में जब दलित वर्गो का सच्चा नेतृत्व प्रबल और शक्तिसंपन्न हो गया तो उनकी उपेक्षा नहीं की जी सकती थी। इस मुकाम पर उच्च जातीय हिन्दुओं को दलित वर्गो के विरुद्द चमचों को उभारने की जरुरत महसूस हुई। मायावती ने कांशीराम के इस थ्योरी को बहुजन से सर्वजन के तौर पर उभार कर अपने बूते सत्ता पा कर दिखाला दी। लेकिन यहां कांशीराम की गढी राजनीतिक मायावती भी बूत ही निकली। क्योंकि मायावती ने कांशीराम के चमचा थ्योरी को अपनाया तो जरुर लेकिन दलितों का भला करने के लिये नहीं बल्कि अपने राजनीतिक कद को चमचों के बीच ऊंचा करने के लिये, जिसमें बिना चमचों के कद मायने नहीं रखेगा इस एहसास को मायावती ने दिल - दिमाग दोनो में समा लिया । इसलिये राजनीतिक तौर पर अगर चमचा भी नेता और नेता भी चमचा लगने लगा तो मायावती ने इसे अपनी पहली जीत मान ली । लेकिन सत्ता चलाने के तौर तरीको में मायावती नेता की जगह व्यवस्था बन गयी । यानी जिस मायावती को सत्ता में आने व्यवस्था को एक राजनीतिक दिशा देनी थी वही मायावती चमचो के धालमेल की तरह व्यवस्था और नेता के घालमेल में भी जा उलझी ।<br /><br />समझ यही बनी जब मायावती का निर्णय कैबिनेट का निर्णय है तो मायावती सरीखा निर्णय ही राज्य का निर्णय है। इसलिये फीस बढोतरी रोकने के लिये कैबिनेट के निर्णय को लागू कराने का अधिकार हर जिला अधिकारी को सौपा गया । लेकिन जिला अधिकारी के टालमटोल रवैये से यह भी झलका कि इस निर्णय का मतलब निजी स्कूलो से धन की उगाही है। तो उसने कैबिनेट के निर्णय को खाली पोटली को भरने वाला मान लिया जाये। हालांकि ‘कार्रवाई होनी चाहिये’ वाला भाव जिला अधिकारी का भी रहा । शिक्षा निदेशक ने इसे कैबिनेट का निर्णय बताकर खामोश रहना ही बेहतर समझा । लेकिन जब कैबिनेट का निर्णय लागू होना चाहिये का सवाल उभरा तो शिक्षा निदेशक ने मायावती का आदेश ना मानने की गुस्ताखी करने वाले के खिलाफ मायावती के ही दरवाजे पर दस्तक देने की अपील की। जब यही सवाल माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के मंत्री रंगनाथ मिश्रा से पूछा गया कि कैबिनेट के निर्णय का उल्लंघन कोई कैसे कर सकता है और उल्लंघन करने वाले के खिलाफ कार्रवाई कौन करेगा तो फिर सवाल उभरा कि यह तो मायावती का फैसला है । इसका उल्लघंन कोई कैसे कर सकता है। फिर जिलाधिकारी को तो तत्काल कार्रवाई करनी चाहिये। लेकिन आखिर में मंत्री के माध्यम से भी मामला बैठक और दिशा-निर्देश में ही खो गया।<br /><br />सवाल है कि कैबिनेट का निर्णय भी मायावती का और लागू ना होने पर कार्रवाई भी मायावती ही करे...तो मायावती हैं कहां । मायावती ही व्यवस्था हैं,मायावती ही राज्य है । फिर राज्य चला कौन रहा है और कांशीराम ने जिस मायावती को गढ़ा वह मिशनरी है कांशीराम के चमचा युग की प्रतीक । क्योंकि दोनो का अंतर कांशीराम ने यह कहते हुये साफ किया था कि , " कुछ लोग मिशनरी व्यक्तियों को चमचा समझने की भूल कर बैठते हैं। जबकि दोनो विपरित ध्रुवों के होते है। किसी चमचे को उसके समुदाय के विरुद्द प्रयोग किया जाता है। जबकि किसी मिशनरी को उसके अपने समुदाय की भलाई के लिये प्रयोग किया जाता है। कह सकते है चमचा अपने समुदाय के सच्चे और वास्तविक नेता को कमजोर करता है और मिशनरी अपने समुदाय के सच्चे नेता को मजबूत करता है। "<br /><br />जाहिर है कांशीराम के चमचा युग की थ्योरी तले मायावती का मिशन राजनीति की नयी विधा है यह सही है या गलत यह निर्णय उसी जनता को करना है जिसने मायावती को सत्ता तक पहुंचाया। क्योंकि सिर्फ दलित संघर्ष से जोडकर मायावती को देखने का मतलब है कैबिनेट का कोई ना कोई निर्णय जो कही हजारों करोडं रुपयों के बुत में उलझेगा या फिर करोडों रुपयों के जरीये कैबिनेट को ही खारिज करेगा ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-69938619753643587452009-07-08T10:53:00.001+05:302009-07-08T10:54:59.683+05:30वैकल्पिक राजनीति को खड़ा करता ममता का रेल बजटमाओवादियों को केन्द्र सरकार आतंकवादी करार दे चुकी है। जिन माओवादी प्रभावित इलाको में चार राज्यों में चार अलग अलग राजनीतिक दलों की सरकारें पहुंच नहीं पाती हैं और चारों सरकारें माओवादियों को विकास विरोधी करार दे रही हैं, वहां ममता बनर्जी के रेल बजट में पावर प्रोजेक्ट से लेकर रेलवे लाईन बिछाने और आदर्श रेलवे स्टेशन बनाने के ऐलान का मतलब क्या है?<br /><br />ममता ने रेल बजट के जरीये माओवादी प्रभावित इलाको को लेकर एक ऐसा तुरुप का पत्ता फेंका है जो सफल हो गया तो संसदीय राजनीति की उस सत्ता को आईना दिखा सकता है जो विकास और बाजार अर्थव्यवस्था के नाम पर लाल गलियारे को लगातार आतंक का पर्याय बनाये हुये है। राजनीतिक तौर पर आंध्रप्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड और पं बंगाल में राजनीतिक दलों ने सत्ता के लिये माओवादियों से चुनावी समझौते किये लेकिन माओवाद प्रभावित इलाको में न्यूनतम के जुगाड़ को भी बेहद मुश्किल करार दिया। और इसको लिये माओवादियो को विकास विरोधी करार देने से सरकारें नहीं चूकीं।<br /><br />झारखंड में माओवादियों से चुनावी समझौते करने के आरोप कांग्रेस-भाजपा और झमुमो विधायकों पर लगा । उसी का नया चेहरा इस बार लोकसभा में नजर आया जब माओवादी नेता बैठा चुनाव लड़कर सांसद बन गये। लेकिन नया सवाल ममता की उस राजनीति का है, जो सिंगुर से निकली है और वाममोर्चा को उसी की राजनीति तले सत्ता से बाहर करने की रणनीति को लगातार आगे बढ़ा रही है। वहीं कांग्रेस ममता को थामकर इस अंतर्विरोध का लाभ उठाकर विकास के अपने अंतर्विरोध को छुपाना चाह रही है। ममता के सिंगुर में टाटा की नैनो को बोरिया-बिस्तर समेटने के लिये मजबूर करने के आंदोलन और नंदीग्राम में इंडोनेशिया के कैमिकल हब को ना लगने देने के संघर्ष को बुद्ददेव सरकार ने कभी एक सरीखा नहीं माना।<br /><br />वाम मोर्चा सरकार ने सिंगूर को विकास विरोधी तो नंदीग्राम को माओवादियो की बंदूक का आंतक बताकर खारिज भी किया। लेकिन ममता बनर्जी ने सिंगूर से लेकर नंदीग्राम और फिर लालगढ़ को भी उसी कडी का हिस्सा उस रेल बजट के जरीये बना दिया, जिसको लेकर कयास लगाये जा रहे थे कि बंगाल की राजनीति को ममता बतौर रेलमंत्री कैसे साध पायेगी। रेल बजट में ममता ने न सिर्फ सिंगूर से नंदीग्राम तक रेल लाइन बिछाने का ऐलान किया बल्कि लालगढ़ के उन इलाकों में जहां सेना को अभी भी जाने में मुश्किल का सामना करना पड़ रहा है, वहां भी रेल लाइन बिछाने का ऐलान किया। यानी अपनी राजनीतिक जमीन को पटरी दे दी है। रेल बजट में सालबोनी,झारग्राम और उस बेलपहाडी को भी रेलवे से जोड़ने का ऐलान किया गया जो झारखंड और बंगाल की सीमा पर माओवादियो का गढ़ माना जाता है और बुद्ददेव भट्टाचार्य मानते है कि माओवादियों की वहा सामानातंर सरकार चलती है। यह वही इलाका है, जहा बुद्ददेव को बारुदी सुरंग से उडाने की कोशिश इसी साल माओवादियों ने की थी। बंगाल की राजनीति को बिलकुल नये मुद्दे के आसरे अपनी राजनीतिक जमीन बनाने की जो पहल ममता बनर्जी कर रही है, उसमें राज्य के बारह जिलो के वह ग्रामीण पिछडे इलाके हैं, जहां विकास का मतलब आज भी सीपीएम कैडर से लाभ की दो रोटी का मिलना है। ममता इस हकीकत को समझ रही है कि राज्य के चालीस फिसदी इलाके ऐसे है, जहां वाम मोर्च्रा के तीन दशक के शासन के बाद भी जिन्दगी का मतलब दो जून की रोटी से आगे बढ़ नहीं पाया है इसलिये रेल बजट में इन चालीस फिसदी क्षेत्रों को रेलवे स्टेसनो के जरीये घेरने में ममता जुटी है। बजट में देश के जिन 309 रेलवे स्टेशन को आदर्श रेलवे स्टेशन बनाने की बता कही गयी है उसमें 142 सिर्फ बंगाल के है । आदर्श रेलवे स्टेशन का मतलब है, एक ऐसा इन्फ्रास्ट्रक्चर स्टेशन पर मौजूद रहना जो किसी भी इलाके के लोगों की जिन्दगी को संभाल सके। यानी रोजगार से लेकर न्यूनतम जरुरत का ढांचा रेलवे स्टेशन पर जरुर मौजूद रहेगा। इस कड़ी में ममता ने लालगढ़ स्टेशन को भी आदर्श स्टेशन बनाने के साथ इस इलाके में पावर प्लांट लगाने का ऐलान कर सीपीएम की उस कर उस रणनीति को सिर्फ पशिचमी मिदनापुर ही नहीं बल्कि बांकुडा, पुरुलिया, बीरभूम समेत आठ जिलों के उन ग्रामीण इलाकों को खुली हवा का एहसास कराया है, जिन्हें आज भी लगता है कि कैडर के साथ खडे हुये बगैर कुछ भी मिल नहीं सकता है।<br /><br />असल में ममता जिस राह पर है वह एक वैकल्पिक राजनीति की दिशा भी है। क्योंकि सवाल सिर्फ बंगाल का नहीं है। छत्तीसगढ़ में जहां राज्य सरकार माओवादियों को आतंकवादी मानकर ग्रामीण आदिवासियो के जरीये ग्रामीण समाज का नया चेहरा बनाने में लगी है, वहां अभी भी विकास तो दूर न्यूनतम के लिये भी पहले माओवादियों के खिलाफ नारा लगाना पडता है। खासकर दांतेवाडा और मलकानगिरी के इलाके में पीने का पानी, प्राथमिक शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थय केन्द्र से लेकर आवाजाही के लिये परिवहन व्यवस्था का कोई खांका आज तक खडा नहीं किया गया है । पूरा इलाका प्रकृतिक संसाधनो पर निर्भर है। यहां तक कि जल के स्रोत भी प्राकृतिक है। भाजपा की रमन सरकार के मुताबिक इस इलाके में सुरक्षा बल भी जब जाने से घबराते है तो विकास का कौन सा काम यहा जा सकता है। लेकिन ममता ने इस इलाके में रेलवे लाइन बिछाने का निर्णय लिया है। वहीं उड़ीसा का सम्बलपुर-बेहरामपुर और तेलागंना का मेडक-अक्कानापेट वह इलाका है, जहां माओवादियों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियो के खिलाफ आंदोलन भी शुरु किया है और एक दौर में नक्सलियों का गढ़ भी रहा है।<br /><br />आंध्रप्रदेश का अक्कानापेट में ही पहली बार एनटीआर ने अपनी राजनीतिक सभा में नक्सलियों को अन्ना यानी बड़ा भाई कहा था, जिसके बाद एनटीआर को समूचे तेलागंना के नक्सल प्रभावित इलाकों में दो तिहाइ सीटों पर जीत मिली थी। लेकिन उस इलाके में विकास की लकीर खिंचने की हिम्मत ना एनटीआर ने की न ही चन्द्रबाबू नायडू कर पाये, न ही अभी के कांग्रेसी मुख्यमंत्री वाय एसआर कर पा रहे हैं ।<br /><br />हालांकि तेलागंना राष्ट्रवादी ने यहां के विकास का मुद्दा जरुर उठाया। लेकिन पहली बार वहा रेलवे लाइन बिछगी तो इसका असर यहा किस रुप में पड़ सकता है, इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि इस पूरे इलाके में जंगल झांड, तेंदू पत्ता , और गड्डे खोदने वाली जवाहर रोजगार योजना ही जीने का आधार है । जबकि पूरा इलाका साल के जंगल से भरा पड़ा है। वहीं उड़ीसा के जिन इलाको में रेल लाइन बिछेगी वहां के प्रकृतिक संसाधनो पर बहुराष्ट्रीय कंपनियां दोहने के लिये सरकार से नो आब्जेक्शन सर्टीफिकेट ले चुकी है। यानी करीब पचास हजार करोड डॉलर से ज्यादा की परियोजनाओ को लेकर इन इलाको में सौदा सरकारी तौर पर किया जा चुका है। इन इलाकों के आदिवासियो ने अपने पारंपरिक हथियार उठाकर आंदोलन की शुरुआत यहां इसलिये कि क्योकि प्रकृति से हटकर उनके जीने का कोई दूसरा साधन पूरे इलाके में है नहीं। पहली बार किसी रेल मंत्री ने इस इलाके को भी मुख्यधारा से सीधे जोड़ने की सोची है। वहीं झांरखंड के संथाल परगना इलाके में माओवादियों ने खासी तेजी से दस्तक दी है। बंगाल की सीमा से सटे होने की वजह से भी यहा माओवादियो ने खुद को खड़ा किया है। जबकि दूसरी वजह यहां खादान और प्रकृतिक संसाधनों का होना है, जिसपर मुंडा की नजर मुख्यमंत्री रहने के दौरान सबसे ज्यादा लगी रहीं। संथाल आदिवासियो की बहुतायत वाल इस इलाके मे विकास का कोई सवाल राज्य बनने के बाद किसी भी मुख्यमंत्री ने नहीं किया । बाबूलाल मंराडी ने जबतक सड़के ठीक करायीं, उनकी गद्दी चली गयी । अर्जुन मुंडा ने देशी टाटा से लेकर कोरियाई कंपनी समेत एक दर्जन देशी विदेशी कंपनियो के साथ अलग अलग परियोजनाओ को लेकर की शुरुआती सौदेबाजी भी की । करीब पांच लाख करोड़ के जरीये पचास लाख करोड़ के प्रकृतिक संसाधनो की लूट का लाइसेंस भी इन कंपनियो को दे दिया । नंदीग्राम के आंदोलन के दौर में यहां के आदिवासी खुद खड़े हुये और सरकारी धंधे का खुला विरोध झंरखंड के नंदीग्राम से करने से नहीं चूके।<br /><br />ममता इस इलाके में भी रेलवे के जरीये विकास की पहली रेखा खिंचने को तैयार है । ऐसे में सवाल यह नहीं है कि ममता माओवादी प्रभावित इलाको में रेलवे लाइन बिछाकर या फिर परियोजनाओ के जरीये ग्रामीण आदिवासियो को विकास के ढांचे से जोडते हुये वाम राजनीति का विकल्प बनना चाह रही है।<br /><br />बड़ा सवाल यह है कि तमाम राजनीतिक दलो ने जिस तरह माओवाद को कानून व्यवस्था का सवाल मान लिया है, और उसके घेरे में करोड़ों ग्रामीण आदिवासियों को माओवादियों का हिमायती मानकर उनके खिलाफ कार्रवायी के जरीये अपनी सफलता दिखा रही है । ऐसे में आदिवासी जीवन बद से बदतर किया जा रहा है । सास्कृतिक आधारों को खत्म किया जा रहा है । गांवों को शहर बनाने के लिये विकास को चंद हाथों के मुनाफे के जरीये लुटाया जा रहा है। बाजार और सत्ता का संतुलन बनाने के लिये विकास और आंतक को अपने अनुकूल परिभाषित करने से ना राष्ट्रीय राजनीतिक दल कतरा रहे है, न ही क्षेत्रिय दल। जबकि अर्थव्यवस्था की हकीकत यही है कि जिन इलाको में ममता का रेल बजट असर दिखाने वाला है, अगर वहां माओवादियो पर नकेल कसने के नाम पर खर्च की गयी पूंजी को क्षेत्र के ग्रामीण-आदिवासियों के नाम मनीआर्डर भी कर दिया जाता तो हर आदिवासी परिवार दिल्ली में घर खरीद कर सहूलियत से रह सकता था । इतनी बड़ी तादाद में माओवाद प्रभावित इलाकों में केन्द्र और राज्य सरकारो ने खर्च किया है। वहीं ममता बनर्जी जब लालगढ़ में सुरक्षा बलो की जगह भोजन-पानी भिजवाने का सवाल खड़ा करती है तो कांग्रेस-वाम दोनो इसे ममता की नादानी बताते है । जाहिर है माओवाद प्रभावित रेड कारिडोर को लेकर राइट-लेफ्ट दोनो की राजनीति से इतर ममता का रेलबजट है । अगर यह सिर्फ बजट है तो इसका लाभ आखिरकार उसी राजनीति को मिलेगा जो विकास को बाजार से जोड़ रही है और अगर यह ममता की राजनीति है, तो यकीनन वैकल्पिक राजनीति की पहली मोटी लकीर है जो भविष्य का रास्ता तैयार कर रही है, बस इंतजार करना होगा ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-14702142211652200882009-07-06T10:01:00.002+05:302009-07-06T10:02:41.763+05:30फिल्म "न्यूयॉर्क" से रेड-कॉरिडोर तकअमेरिका में 9/11 के बाद करीब तीन हजार लोगों को संदेह के आधार पर एफबीआई ने पकड़ा। जिसमें अस्सी फीसदी से ज्यादा मुस्लिम थे। इनमें से किसी के भी खिलाफ आंतकवादी होने का कोई सबूत एफबीआई को नहीं मिला। लेकिन जिन्हें भी पकड़ कर पूछताछ की गयी, रिहायी के बाद अधिकतर मानसिक तौर पर विक्षप्त सरीखे हो गये। ओबामा ने सत्ता में आने के बाद पहला काम यही किया कि यातना गृह ग्वातामालो को बंद करा दिया। फिल्म न्यूयार्क के आखरी सीन में जब स्क्रीन पर यह बयान छपे हुये उभरते हैं तो लगता है फिल्मकार जार्ज बुश के दौर की काली यादों को ओबामा के जनादेश से भुलाना चाह रहा है।<br /><br />ओबामा जिस तरह मुस्लिम समाज के घावों पर मरहम लगा रहे हैं और दोस्ती का हाथ बढ़ा रहे हैं, उससे यह सवाल फिल्म न्यूयार्क के अंत को देखकर लगता है कि 9/11 के बाद आंतकवाद के खिलाफ जार्ज बुश की हर पहल आंतकवाद पर नकेल कसने की जगह आंतकवादियो की एक नयी खेप तैयार कर रही थी। जिनके जहन में अमेरिका की दादागिरी का आक्रोष इस हद तक बढ़ा कि बदले की भावना में वह आंतकवाद के हाथ में खिलौना होना ज्यादा पंसद करने लगे। यातना गृह से निकलने के बाद इनकी जिन्दगी का मकसद सिर्फ अपने खिलाफ हुये अत्याचार को याद रखना भर नहीं था बल्कि परेशानी का सबब यही था कि जिस राज्य के भरोसे उन्हें अपने होने का गुमान था उसी राज्य के आंतक के सामने वो अपाहिज हो गये।<br /><br />जाहिर है ऐसे में जीने का कौन सा रास्ता चुना जाये, यह सवाल अगर 9/11 के बाद कोई मुस्लिम अमेरिकी नागरिक भी महसूस कर रहा था, तो यही सवाल भारत में माओवादी प्रभावित इलाकों में ग्रामीण-आदिवासियों के सामने हैं। सौ से ज्यादा जिलों के एक करोड से ज्यादा ग्रामीण आदिवासियों के सामने सबसे बडा संकट यही है कि उनकी भाषा, सस्कृति और जरुरतो को सरकार समझती नहीं है। जबकि उनकी जमीन पर पूंजी के माध्यम से कब्जा करने वालो के साथ सरकार की नीतिया खड़ी है। यह ग्रामीण अपने हक के लिये और जीने के लिये भी विरोध करते हैं तो इन्हे माओवादी मान लिया जाता है । वहीं माओवादी अपनी विचारधारा को जिस रुप में इन ग्रामीणों के सामने रखते है, उसमें ग्रामीणो के हक की बात होती है। शुरुआती दौर में माओवादी या तो बाहर से आते हैं या फिर ग्रामीणो के विरोध की क्षमता उन्हें बनी बनायी जमीन दे देती है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन धीरे धीरे यह ग्रामीण और फिर इलाके ही माओवादी करार देने में सरकार भी देर नही लगाती। क्योंकि यहीं से नीतियों के आंतक को ढक कर राज्य मानवीय चेहरा देना शुरु करते है। नीतियों का आंतक माओवादियों के आंतक तले ना सिर्फ दब सकता है बल्कि सभ्य समाज में बंदूक की थ्योरी के सामने हर नीति विकासपरख लगेगी, इससे कोई इंकार भी नहीं कर सकता है। लेकिन माओवादी प्रभावित इलाको में ग्रामीण आदिवासियो के नजरिये से अगर सामाजिक-आर्थिक हालात पर गौर पर करे तो राहुल गांधी के दो देश का नजरिया सामने आ सकता है। आंध्रप्रदेश के तेलागंना से लेकर बंगाल के मिदनापुर,बांकुडा,पुरुलिया तक के बीच महाराष्ट्र का विदर्भ,छत्तीसगढ का बस्तर,मध्यप्रदेश और उडिसा के बारह सीमायी जिलो में प्रतिव्यक्ति आय तीन हजार रुपये सालाना भी नहीं है जबकि देश के प्रतिव्यक्ति आय का आंकडा सरकारी तौर पर करीब तीन हजार रुपये महिने का है।<br /><br />माओवादी प्रभावित इलाको में न्यूनतम जरुरत की लड़ाई कितनी पैनी है, इसका अंदाजा विकास की लकीर तो दूर जीने की पहली जरुरत की उपलब्धता से समझा जा सकता है। इन इलाकों में पीने का साफ पानी महज चार फीसदी उपलब्ध हैं। जबकि सरकारी तौर पर देश में यह आंकडा 35 फीसदी का है। शिक्षा के मद्देनजर प्राथमिक शिक्षा की स्थिति उन इलाकों में 17 फीसदी है, जो राष्ट्रीय तौर पर 58 फीसदी है । वहीं उच्च शिक्षा इन इलाको में सिर्फ 2 फीसदी है, जबकि पूरे देश का सरकारी आंकडा 41 फीसदी का है। हालात स्वास्थय सेवा को लेकर क्या है यह इस बात से समझा जा सकता है कि माओवादी प्रभावित इलाको में अगर एनजीओ का कामकाज को हटा दिया जाये तो सरकारी स्वास्थ्य सेवा दशमलव में आ जायेगी यानी एक फिसदी से भी कम।<br /><br />लेकिन मुश्किल यह नहीं है कि न्यूनतम भी मुहैया अभी तक सरकार इन इलाकों में नहीं कर पायी है । मुश्किल सरकार का अपना नागरिकों को लेकर जीने देने के नजरिये का है । सरकार विकास की जो लकीर इन इलाको में खींचने को तैयार हो उससे न तो वह उसी जंगल-जमीन को खत्म कर देने पर आमादा है, जिसके भरोसे ग्रामीण-आदिवासी न्यूनतम न मिलने के बावजूद जीये जा रहे है । लेकिन माओवादी प्रभावित रेड-कारिडोर को लेकर पिछले दो दशको में यानी 1991 में आर्थिक सुधार की लकीर देश में खिंचने के बाद से नब्बे लाख करोड डॉलर से ज्यादा की पूंजी कई योजनाओ के जरीये लगाने के लिये बेताब है। जिसमें से सत्तर लाख करोड डॉलर का मामला निजी क्षेत्र का है । लेकिन इन योजनाओ का मतलब प्रकृतिक संपदा की ऐसी लूट है जिससे जंगल खत्म होगे । प्रकृतिक पानी के स्रोत सूख जायेगे । खेती से लेकर हर वह आधार खत्म हो जायेगे जो रोजगार ना मिलने के बाबजूद करोडों ग्रामिण-आदिवासियो को पीढियों से जिलाये हुये है । लेकिन सरकार की योजनाओं को अर्थव्यवस्था के जरीये राष्ट्हीत के नजरिये से भी परखे तो वह राष्ट्रविरोधी ही लगता है । क्योंकि एक आंकलन के मुताबिक नब्बे लाख करोड डॉलर की योजनाये जो पावर प्लांट से लेकर स्टील,सिमेंट, माइनिंग लेकर एसइजेड का खाका तैयार करेगी उसमें इन इलाको में मौजूद जो प्रकृतिक संसाधन लगेगे या नष्ट्र होगे , अंतर्राष्ट्रीय बाजार में उसकी कीमत कम से कम नब्बे लाख करोड डालर से दुगुनी होगी । वही यह माल योजनाओ के लिये कौडियो के मोल यानी 40 से 50 लाख डालर ही आंकी जा रही है । चूंकि रेड-कारिडोर को लेकर सरकारे पार्टियो से लेकर मंत्रालयो तक में बंटी हुई है इसलिये नीजि कंपनियो को सरकार को चूना लगाने में कोई दिक्कत भी नहीं आती । छत्तिसगढ,मध्यप्रदेश,बिहार,बंगाल में जिन पार्टियो की सरकारे हैं, वह केन्द्र सरकार से मेल नही खाती हैं। फिर केन्द्र के ही छह मंत्रालय जो रेड कारिडोर में विकास का खंचा खिंचने के लिये किसी को भी लाइसेंस देगे उनमें तालमेल नहीं है। पर्यावरण, खनन, उघोग, वाणिज्य, आदिवासी कल्याण मंत्रालय की समझ ही जब रेड-कारीडोर को लेकर अलग-अलग है नीतियों के लागू ना हो पाने का अंत कानून-व्यवस्था के दायरे में ही होगा । और आखिरी में गृह मंत्रालय की नीतिया यही से योजनाओ को मानवीय जामा पहनाने की पहल शुरु करती है । जिसमें रेड-कारीडोर में रहने वाला कोइ भी शख्स अगर अपने हक का सवाल खड़ा करता है तो वह पहले माओवादी करार दिया जाता था और अब आंतकवादी करार दिया जायेगा।<br /><br />चूंकि गृह मंत्रालय की समझ रेड-कारीडोर को लेकर माओवाद और सत्ता बंदूक की नली से निकलती है कि थ्योरी को ही समझते हुये शुरु होती है तो इन इलाको में किसी भी योजना को अमली जामा पहनाने की पहली और आखरी पहल अर्धसैनिक बल से लेकर सेना के फ्लैग मार्च तक पर ही जा कर टिकती है । इसलिये सरकार योजनाओ के पूरा ना होने को ही रेड-कारीडोर के पिछडेपन से जोडती है । जबकि गौर करने वाली बात यह भी है कि बारह राज्यो से लेकर केन्द्र सरकार ने 1991 के बाद से लेकर अभी तक माओवादियो पर नकेल कसने के लिये सत्रह लाख करोड से ज्यादा का सीधा खर्च कर चुकी है । जो सुरक्षाबलो के आधुनिकी करण से जुडी है । लेकिन इसी दौर में गृहमंत्रालय की ही रिपोर्ट कहती है कि माओवादियों के प्रभावित उलाके में पचास फीसदी तक की बढोतरी हुई और तीस फीसदी ग्रमीण आदिवासियों ने हथियार उठाये। आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ की सीमा से सटे महाराष्ट्र के माओवादी प्रभावित चन्द्रपुर,गढचिरोली जिले को लेकर सरकार का नजरिया देखने लायक है। नक्सलियों पर नकेल कसने के लिये 80 और नब्बे के दशक में यहां के पांच सौ से ज्यादा आदिवासियो पर आंतकवादी कानून टाडा लगा दिया गया। इन्हें नक्सलियों का हिमायती बताया गया। जिनपर टाडा लगाया गया उसमें 7 साल की बच्ची से लेकर 80 साल तक के बुजुर्ग आदिवासी तक भी शामिल थे । 1995 में टाडा कानून निरस्त होने का बाद जब इन आदिवासियों के केस अदालतो में पहुंचे तो किसी में कोई सबूत पुलिस विशेष अदालतो में नहीं रख पायी।<br /><br />हालांकि 69 आदिवासियो पर अब भी टाडा के 80 केस चल रहे हैं, लेकिन पांच से पन्द्रह साल तक जेल में गुजारने के बाद जब यह आदिवासी जेल से निकले तो माओवादी प्रभाव पूरे इलाके में इस कदर बढ चुका था कि नक्सल निरोधी अभियान के तहत कोई भी पुलिसवाला इस इलाके में आया तो उसने सबसे पहले नक्सलियो की मुखबिरी करने के लिये उन्ही आदिवासियो को फुसलाया जो पुलिस की ही गलत पहल की वजह से सालो साल जेल में रह चुके थे । नक्सलियो की मुखबरी ना करने पर दोबारा माओवादी करार देकर ठीक उसी तरह जेल में बंद करने की घमकी जी जाती है जैसे फिल्म न्यूयार्क में नील मुकेश को आंतकवादी जान अब्राहम के बारे में जानकारी हासिल करने के लिये यह कहते हुये धमकाया जाता है कि ना करने पर उसे आंतकवादी करार दिया जायेगा । और सारी जिन्दगी उसे जेल के अंधेरे बंद कमरे में यातना सहते हुये काटनी होगी ।<br /><br />छत्तीसगढ में सलवा-जुडुम आंतक के खिलाफ आंतक की एक नयी परिभाषा भी है । लेकिन वहा भी संकट उसी ग्रामीण आदिवासी का है कि अगर वह सलवा-जुडुम का हिस्सा बनने से इंकार कर दे तो वह माओवादी करार दिया जायोगा और उसे एनकाउंटर में मरना ही होगा । अपनी कमजोरियों की वजह से सरकार आदिवासियों की जिन्दगी से किस तरह खिलवाड़ कर रही है, यह आदिवासी इलाकों में माओवादियों से निपटने के नाम पर आदिवासियो की पूरा जिन्दगी चक्र बदलना भी है । यूं ग्रामीण आदिवासियों को माओवादियों की मुखबरी अब सरकारी तौर पर आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ में सुविधा की पोटली दे कर भी उकसाया जाता है तो छत्तीसगढ,महाराष्ट्र,मध्यप्रदेश,उडिसा और झारखंड में आदिवासियो को बंदूक की नोंक पर रखकर माओवादियों के बारे में जानकारी लेने जबरदस्ती की जाती है। अगर बहुत पहले की स्थिति को छोड़ भी दे, तो नंदीग्राम और लालगढ़ का प्रयोग सामने है। शुरुआती दौर में नंदीग्राम को पुलिस और सुरक्षाबलों ने जिस तरह यातना गृह में तब्दील किया उसका असर लालगढ़ में आदिवासियों के हथियार उठाने से तो दिखा ही । वहीं नंदीग्राम में बलात्कार की शिकार महिलाओं ने लालगढ़ में जाकर महिलाओं को नंदीग्राम में जो हुआ जब उसे बताना शुरु किया तो वहां की महिलाओं के सामने संघर्ष के अलावे कोई दुसरा रास्ता नहीं बचा।<br /><br />14 से 16 जून को लालगढ की कई सार्वजनिक सभाओ में नंदीग्राम की सकीना और नसीफा {नाम बदला हुआ } 6-7 नबंबर 2008 को उनके साथ जो हुआ उसे मंच से खुलकर कहा । नसीफा के ने जो कहा,वह इस तरह था , ''मै उन लोगो को अच्छा तरह पहचान सकती हूं,..वो लोग सीपीआईएम के हौरमण वाहिणी के लोग थे । और इसी गांव के लड़के है । मैं नाम भी बता सकती हूं...उनके नाम बच्चू, कानू है । मुझे रेप किया बच्चू ने और मेरी मझली बेटी को रेप किया कानू ने...और दूसरी बेटी को रेप किया कोनाबारी ने ..अब्दुल भी साथ था । '' कुछ इसी तरह से अपने साथ हुये हादसे को सकीना ने भी बताया । लेकिन हर सभा में यही सवाल उठा कि बलात्कार और लूटपाट की अधिकतर घटना पुलिस की मौजूदगी में हुई और सात महिने बाद भी सजा किसी को नहीं हुई है तो न्याय कैसे मिलेगा । वहीं नंदीग्राम के सीपीएम समर्थक ग्रामीणो को पुलिस कैडर और पुलिस दोनो ने उकसाया कि लह लालगढ जाकर वहा की मुखबरी करे । असल सवाल राज्य को लेकर यही से खडा होता है । माओवाद के नाम पर करोडो लोगो के अपने तरीके से जीने के हक को कैसे छिना जा सकता है । और राज्य की भूमिका ही जब माओवादियो के खिलाफ ग्रामिण-आदिवासियो को अपना प्यादा बनाकर आंशाका पैदा करने वाली हो तब आम ग्रामिण-आदिवासी क्या करें । सबसे बडी मुश्किल यही हो चली है कि रेड कारीडोर में रहने वालो को ढकेलते ढकेलते उस दीवार से सटा दिया गया है, जहां से और पीछे जाया नहीं जा सकता है और आगे बढने पर पहले उसे माओवादी कहा जाता अब आंतकवादी माना जायेगा । ऐसे में किस रास्ते इस ग्रामिण आदिवासी को जाना चाहिये जहां वह सम्मान के साथ जिन्दा रह सके । इसका रास्ता ना तो सरकार बता रही है ना ही माओवादियो का संघर्ष रास्ता बना पा रहा है ।<br /><br />फिल्म न्यूयार्क के आखिरी डायलाग जब नील मुकेश एफबीआई अधिकारी को जब यह कहता है कि जान अब्राहम गलत नहीं था । तो एफबीआई अधिकारी कहता है , सभी सही थे...शायद वक्त गलत था । जिसमें मुल्क ने भी गलत रास्ता चुना । लेकिन अब हालात बदल चुके है । वहां बदले हालात से मतलब ओबामा के सत्ता में आने का था । तो क्या भारतीय परिस्थितयो में भी रेड-कारिडोर फिल्म तभी बन पायेगी, जब यहां भी कोई ओबामा सत्ता में आ जायेगा। और फिल्म में नायक यह कहने की हिम्मत जुटा पायेगा कि शायद वह वक्त गलत था, जिसमें मुल्क भी गलत रास्ते पर था।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com5