tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger3125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-63199875385278060502009-07-30T11:05:00.001+05:302009-07-30T11:05:52.117+05:30अंधेरे दौर में, अंधेरे के गीतआर्थिक तौर पर कमजोर और राजनीतिक तौर पर मजबूत बजट को देश में संकट की परिस्थितियों से जोड़ कर कैसे दिखाया जाए, न्यूज चैनलों के सामने यह एक मुश्किल सवाल है। यह ठीक उसी तरह की मुश्किल है, जैसे देश में बीस फीसदी लोग समझ ही नहीं सकते कि प्रतिदिन 20 रुपये की कमाई से भी जिन्दगी चलती है और उनकी अपनी जेब में बीस रुपये का नोट कोई मायने नहीं रखता है। कह सकते हैं कि न्यूज चैनलों ने यह मान लिया है कि अगर वह बाजार से हटे तो उनकी अपनी इक्नॉमी ठीक वैसे ही गड़बड़ा सकती है, जैसे कोई राजनीतिक दल सत्ता में आने के बाद देश की समस्याओं को सुलझाने में लग जाये। और आखिर में सवाल उसी संसदीय राजनीति पर उठ जाये, जिसके भरोसे वह सत्ता तक पहुंचा है। <br /><br />जाहिर है, ऐसे में न्यूज चैनल कई पैंतरे अपनाएंगे ही । जो खबर और मनोरंजन से लेकर मानसिक दिवालियेपन वाले तक को सुकुन देने का माध्यम बनता चले। सरकार का नजरिया भी इससे कुछ हटकर नहीं है। जनादेश मिलने के बाद पहला बजट इसका उदाहरण है। आम बजट में पहली बार उस मध्यम वर्ग को दरकिनार किया गया, जिसे आम आदमी मान कर आर्थिक सुधार के बाद से बजट बनाया जाता रहा । ऐसे में पहला सवाल यही उठा कि क्या वाकई आर्थिक सुधार का नया चेहरा गांव-किसान पर केंन्द्रित हो रहा है। क्योंकि बजट में ग्रामीण समाज को ज्यादा से ज्यादा धन देने की व्यवस्था की गयी। <br /><br />जब बहस आर्थिक सुधार के नये नजरिये से बजट के जरिये शुरु होगी तो अखबार में आंकड़ों के जरिये ग्रामीण जीवन की जरुरत और बजट की खोखली स्थिति पर लिखा जा सकता है। लेकिन हिन्दी न्यूज चैनलो का संकट यह है, उसे देखने वालो की बड़ी तादाद अक्षर ज्ञान से भी वंचित है। यानी टीवी पढ़ने के लिये नहीं, देखने-सुनने के लिये होता है। बजट में किसान, मजदूर, पिछडा तबका, अल्पसंख्यक समुदाय के हालात को लेकर जिस तरह की चिंता व्यक्त की गयी, उसमें उनके विकास को उसी पूंजी पर टिका दिया गया, जिसके आसरे बाजार किसी भी तबके को समाधान का रास्ता नहीं मिलने नहीं दे रहा है। यानी उच्च या मध्यम वर्ग की कमाई या मुनाफा बढ़ भी जाये तो भी उसकी जरुरते पूरी हो जायेगी, यह सोचना रोमानीपन है। इतना ही नहीं सरकार मुश्किल हालात उसी आर्थिक सुधार के जरीय खड़ा कर रही है, जिस सुधार के आसरे ज्यादा मुनाफा देने की बात कर वह बाजारवाद को बढ़ाती है। यानी ज्यादा से ज्यादा पूंजी किसी भी तबके को इस व्यवस्था में थोडी राहत दे सकती है...बड़ा उपभोक्ता बना सकती है। लेकिन देश का विकास नहीं कर सकती क्योंकि उसका अपना इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है । और सरकार इस इन्फ्रास्ट्रक्चर को बनाने की दिशा में जा नहीं रही है। <br /><br />न्यूज चैनलों का सबसे बडा संकट यही है कि वह सरकार की सोच और ग्रामीण भारत के माहौल को एक साथ पकड़ नहीं पा रहे हैं । साथ ही ग्रामीण जमीन के सच को बजट के सच से जोड़कर सरकार की मंशा को समझा भी नहीं पा रहे हैं। जबकि टीवी पर इस हकीकत को दिखाकर मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था के सतहीपन को उभारा जा सकता है। मसलन बजट को ही लें । बजट में ग्रामीण विकास के लिये अलग अलग क्षेत्र में इस बार खासा धन दिया गया। लेकिन पहला सवाल खडा होगा है कि जो धन बजट के जरीये निकला, वह गांव में आखिरी आदमी तो दूर की बात है, पहले व्यक्ति तक भी पहुंचेगा या नहीं और अगर पहुंचेगा तो कितना पहुंचेगा। यह सवाल इसलिये जरुरी है, क्योंकि कांग्रेस के नेता राजीव गांधी मानते थे और राहुल गांधी यह बात खुलकर मानते है कि केन्द्र से चला एक रुपया योजना तक पहुंचते पहुंचते दस से पन्द्रह पैसा ही बचता है। असल में बजट में अलग अलग योजना के मद में ही साठ फीसदी पूंजी इस बार बांटी गयी है। यानी राहुल गांधी के नजरिये को अगर सही माने तो साठ लाख करोड रुपया, जिसे विकास के लिये ग्रामीण जीवन को बेहतर बनाने के लिये प्रणव मुखर्जी ने दिया है, वह छह से नौ लाख करोड़ तक ही पहुंचेगा । बाकि पचास लाख करोड से ज्यादा की पूंजी दिल्ली से चलते हुये गांवों तक के रास्ते में बिचौलिये और दलालो द्वारा हडप ली जायेगी । इसमें नौकरशाह से लेकर राजनेता और राज्यो के तंत्र से लेकर पंचायत स्तर के बाबूओ का खेल ही रहेगा। सवाल यह है कि अगर सरकार भी इस पैसा हड़प तंत्र से वाकिफ है तो वह वैकल्पिक व्सवस्था क्यों नहीं करती है। और दूसरा सवाल है कि पूंजी के आसरे जब समाधान हो ही नहीं सकता है तो इन्फ्रास्ट्रक्चर पर ही सारा धन लगाने की बात सरकार क्यो नहीं करती है। <br /><br />पहले सवाल का जबाब बेहद साफ है । पैसा हडपने वाले तंत्र में उसी व्यवस्था के लोग है, जिसके आसरे देश की सत्ता या राजनीति चलती है। क्योंकि महानगर से लेकर जिला और गांव स्तर पर राजनीति खुद को इसी आसरे टिकाये रखती है कि अगर उनके समर्थन वाली पार्टी सत्ता में आ जायेगी तो उन्हें सीधा लाभ मिल जायेगा । असल में पैसा हड़पने वाले तंत्र और राज्य के बीच का समझौता ही एक नयी व्यवस्था खडा करता है जो नीतियों के आसरे बिना रोजगार के भी बेरोजगारों को पार्टियो के जरीये रोजगार दे देती है। इसको सरलता से समझने के लिये बंगाल में वामपंथियो की राज्य चलाने की व्यवस्था देखी जा सकती है। वहा कैडर ही सबसे प्रभावशाली होता है। और कोलकत्ता से नीतियो के सहारे जो धन गांव और पंचायत स्तर तक जाते है वह पूरी तरह कैडर के दिशा निर्देश पर ही खर्च होते हैं। यानी कैडर विकास से जुडी पूंजी को भी व्यक्तिगत लाभ और पार्टी के संगठन से जोडकर पार्टी की तानाशाही को इस तरीके से परोसता है, जिससे विकास का मतलब ही पार्टी के कैडर पर आ टिके। लेकिन दिल्ली की राजनीति खुद को इतना पारदर्शी नहीं दिखलाती। क्योंकि उसके लिये कैडर तंत्र के तौर पर विकसित होता है। जो अलग अलग मुद्दों के आसरे अलग अलग संस्थाओ को भी लाभ पहुंचाता है, और संस्थाओं के जरीये अपने राजनीतिक हित भी साधता है। राजनीतिक हित भी अलग अलग राज्यो में या अलग अलग इलाको में अलग अलग तरीके से चलते हैं। जैसे नरेगा का ज्यादा लाभ उन्हीं राज्यो में होगा, जहां केन्द्र और राज्य की सरकार एक ही पार्टी की हो। हो सकता है जवाहर रोजगार योजना से लेकर इन्दिरा अवास योजना के तहत घर बनाने का काम या उसका लाभ भी उन्ही क्षेत्रों में उन्हीं लोगों को हो, जिसके जरीये राजनीति अपना हित साध सकने में सक्षम हो। <br /><br />ऐसा नहीं है कि इस तंत्र को बनाने और अपने उपर निर्भर रखने में सिर्फ कांग्रेस ही सक्षम है । यह स्थिति भाजपा के साथ भी रही है । भाजपा की अगुवायी में एनडीए की सरकार के वक्त वित्त मंत्री यशंवत सिन्हा ने इस काम को बीजेपी के लिये बाखूबी इस्तेमाल किया । खासकर व्यापारियों को लाभ पहुंचाने की जो रणनीति नीतियो के आसरे भाजपा के दौर में अपनायी गयीं, उससे बिचौलिये और दलालो की भूमिका कई स्तर पर बढ़ी। वहीं, कांग्रेस ने उस मध्य वर्ग को अपने उपर आश्रित किया जो उच्च वर्ग में जाने के लिये लालायित रहता है। यह राजनीति का ऐसा चैक एंड बैलेंस का खेल है, जिसमें देश हमेशा संकट में रहेगा और और पार्टी का यह तंत्र इस बात का एहसास अपने अपने घेरे में हर जगह कराता है कि अगर उनके समर्थन वाली पार्टी सत्ता में रहती तो ज्यादा लाभ मिलता या फिर उनकी पार्टी सत्ता में आयी है तो लाभ मिलेगा ही। <br /><br />यहीं से दूसरा सवाल खडा होता है कि आखिर इन्फ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने की दिशा में सरकार की नीतियां क्यों नहीं जा रही है । जबकि इस बार कांग्रेस को जनादेश भी ऐसा मिला है, जिसमें पांच साल सरकार चलाने के बीच में कोई समर्थन खींच कर सरकार पर संकट भी पैदा नहीं कर सकता है । किसानों के स्थायी समाधान की दिशा के बदले सरकार उन्हे तत्काल राहत देकर अगले संकट से निजात दिलाने के लिये अपनी मौजूदगी का एहसास हर चुनाव के मद्देनजर करती है । इस बार किसानों को लेकर बजट में सबसे ज्यादा पांच लाख करोड तक की सीधी व्सयस्था की गयी है। लेकिन सवाल है अगर मानसून नहीं आता है, तो किसान को सरकार के पैकेज पर ही निर्भर रहना पडेगा । जो विदर्भ से लेकर बुदेलखंड तक के किसानो की फितरत बन चुकी है। <br /><br />सवाल है सरकार फसल बीमा की दिशा में आजतक नहीं सोच पायी है, लेकिन मुश्किल कहीं ज्यादा बड़ी यह है कि देश में खेती योग्य जमीन में से सिर्फ दस फीसदी जमीन ही ऐसी है, जिसके लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर की व्यवस्था है । यानी नब्बे फीसदी खेती के लिये सिंचाई तक की व्यवस्था भी देश में नहीं हो पायी है । यही स्थिति बीज और खाद को लेकर भी है। और सबसे खतरनाक स्थिति तो यही है कि अगर अपना पसीना बहाकर किसान अच्छी फसल पैदा कर भी लेता है तो भी फसल की कीमत का तीस से चालीस फीसदी ही उसके हिस्से में आता है, यानी बाकी साठ से सत्तर फिसदी बिचौलिये और दलालों के पास पहुंचता है। यानी बाजार से किसानों को जोड़ने तक की कोई सीधी व्यवस्था सरकार ने आज तक नहीं की है। जबकि खेती योग्य जमीन पर जो ढाई सौ से ज्यादा स्पेशल इकनामी जोन बनाने की तैयारी निजी क्षेत्र के जरीये सरकार कर रही है, और उसके लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर का पूरा ढांचा खिंचने के लिये तमाम राज्य सरकारे तैयार हैं। बैंक बिना दस्तावेज देखे लोन देने को तैयार है और बिचौलिये और दलालो का बडा तबका इसके शेयरो में पैसा लगाकर सीधे मुनाफा बनाने को तैयार है। <br /><br />यह स्थिति हर उस क्षेत्र में है जो सामाजिक तौर पर तो मजबूत है लेकिन आर्थिक तौर पर सरकार के रहमो-करम पर टिका है । मसलन जो न्यूनतम जरुरत के सवाल किसी भी आम व्यक्ति से जुडते हैं, उन्हें भी पूरा ना कर सरकार की नीतियों के आसरे उस पूंजी पर टिका दिया गया है, जो सरकारो के बदलने से उनकी मानवीय-अमानवीय होने का तमगा पाती हैं। या कहे आर्थिक सुधार में बाजारवाद का नारा लगा कर खुद को विकसित बनाने का प्रोपोगेंडा करती हैं। शिक्षा के मद्देनजर सभी को मुफ्त शिक्षा देने की बात पर दिल्ली में सरकार मुहर लगा सकती है। लेकिन हर गांव में जब प्राथमिक स्कूल तक नहीं है, तो शिक्षा देगा कौन और लेगा कौन । फिर मुफ्त शिक्षा के नाम पर अगर आंकडे दिखाये जाये और उसके बदले ग्रांट मिल जाये तो एक ही बच्चे की नाम बदल कर छह स्कूलो में दिखाया भी जा सकता है और कोई फ्राड नाम बना कर भी रजिस्ट्र में डाला जा सकता है। इसकी फेहरिस्त कुछ भी हो सकती है। यानी कितने भी बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने का ढिढोरा पिटा जा सकता है । साथ ही चुनावी वायदे के तहत सरकारी टारगेट को पाया जा सकता है। यहां सवाल मोनिटरिंग का खड़ा हो सकता है । लेकिन राजनीतिक तौर पर जो तंत्र खड़ा किया गाया है, उसमें मोनिटरिंग करने वाला शख्स सबसे ज्यादा कमाई करने वाला बन जायेगा। और मोनेटिंग तंत्र एक रुपये में बचे दस पैसे को भी कम कर पांच पैसे ही आखिरी आदमी तक पहुंचने देगा । यह स्थिति शिक्षा के साथ स्वास्थय और पीने के पानी को लेकर भी है । देश का साठ फिसदी क्षेत्र अभी भी जब न्यूनतम की लड़ाई ही लड रहा है तो विकासशील और विकसित होने का कौन सा बजट देश को जहन में रखेगा। <br /><br />जाहिर है देश का संघर्ष यहीं दम तोडता हुआ सा दिखता है । लेकिन यहीं से संसदीय राजनीति का ताना बाना शुरु होता है। संघर्ष का मतलब है हक की बात । अधिकार का सवाल। संसदीय राजनीति इस बात की इजाजत देती नहीं है, सत्ता में आने के लिये पचास फीसदी वोट चाहिये। बल्कि इजाजत इसकी भी नहीं है कि जो पचास फीसदी वोट डलते है, उसके भी पचास फीसदी वोट होने चाहिये तभी सत्ता मिलेगी। यानी देश के कुल वोटरों का पच्चीस फीसदी तो दूर पन्द्रह फीसदी तक भी वोट अपने बूते किसी एक राजनीतिक दल को नहीं मिलता। कांग्रेस जो सबसे पुरानी और राष्ट्रीय पार्टी है, अकेली पार्टी है जिसे देश में दस करोड़ से ज्यादा वोट मिले है। फिर सत्तर करोड़ वोटरों के देश में 35 करोड़ वोटर वोट ही नहीं डालते। फिर भी लोकतंत्र का तमगा उन्हीं राजनीतिक दलों के साथ जुड़ जाता है, जो सत्ता में होती है। लोकतंत्र का मतलब यहां दूसरों के अलोकतांत्रिक कहने का अधिकार है। यानी प्रणव मुखर्जी का बजट अगर देश के चालीस करोड आदिवासियों-किसान-मजदूरों के खाली पेट और न्यूनतम अधिकार की भी पूर्ति नहीं कर सकता है तो भी प्रणव मुखर्जी विशेषाधिकार प्राप्त सांसद मंत्री ही रहेंगे। और उनका बजट राष्ट्रीय बजट ही कहलायोगा। और जिन्हें बतौर नागरिक देश में स्वामिमान से जीने का हक है, अगर वह अपने अधिकारों के लिये संघर्ष का रास्ता अख्तियार करते है तो वह कानून व्यवस्था को तोड़ने वाले अलोकतांत्रिक लोग करार दिये जाते है। 1991 के आर्थिक सुधार के बाद से पिछले 18 साल में करीब पांच लाख से ज्यादा वैसे लोगो के खिलाफ समूचे देश के थानों में मामले दर्ज है, जिन्होंने रोजगार,घर, जमीन और न्यूनतम जरुरतो को लेकर संघर्ष किया। असल में आर्थिक सुधार की जो लकीर 1991 में खिंची, उसके 18 साल बाद यही लकीर इतनी मोटी हो गयी की देश के 20 करोड़ लोगों को विस्थापित उन्हीं योजनाओं से होना पड़ा, जिसे बजट और विकासपरख योजना का नाम देकर हर सत्ता ने हरी झंडी दिखायी। <br /><br />खास बात तो यह है कि विकास की जो लकीर ग्रामीण-आदिवासियों के लिये बनायी जाती है, वही लकीर सबसे पहले ग्रामीण आदिवासी को ही खत्म करती है । यह ठीक उसी तरह है जैसे ग्लोबल वार्मिग या कहे पर्यावरण की मार से बचने के लिये जो एसी..फ्रिज इस्तेमाल किया जाता है, वही सबसे ज्यादा मौसम बिगाड़ते है । गांवो को खत्म कर सुविधाओं के लिये जिन नये शहरो को बनाया- बसाया जा रहा है, वहां वही न्यूनतम असुविधा खड़ी हो रही हैं, जो गांवो में थी । यानी सीमेंट की अट्टालिकायें गांव से शहर तो किसी भी ग्रामीण को ले आयेंगी, लेकिन जमीन के नीचे के पानी के सूखने से लेकर हर न्यूनतम जरुरत के लिये उसी बाजार के लिये उपभोक्ता बनना ही पड़ेगा, जो सरकार या प्रणव मुखर्जी का बजट बनाना चाहता है। जिसमें आर्थिक सुधार का मतलब धन को अलग अलग मदो में बांटना होता है । लेकिन सरकार की आर्थिक नीतिया कभी किसी को आतंकित नही करतीं। अगर आंतकवाद और नक्सलवाद के सामानातंर आर्थिक आंतक के आंकडो को ही रखें, तो भी बीते 18 वर्षो की स्थिति समझी जा सकती है। बीते इन 18 सालो में अगर आतंकवाद की स्थिति देखें तो करीब 950 घटनाओ में 15 हजार से ज्यादा लोग मारे गये। पांच लाख से ज्यादा लोग उससे प्रभावित हुये और करीब एक हजार करोड़ का सीधा नुकसान आतंकवादी हिंसा से हुआ। वहीं, नक्सलवाद और सांप्रदायिक हिंसा की 1500 से ज्यादा घटनाये हुईं। जिसमें 18 हजार से ज्यादा लोग मारे गये । जबकि प्रभावित लोगों की संख्या बीस करोड तक की है। वही सीधा आर्थिक नुकसान एक लाख करोड़ से ज्यादा का हुआ। वहीं, जिस आर्थिक नीतियों को ट्रेक वन - टू कह कर एनडीए और यूपीए ने चलाया । उसके अंतर्गत दो हजार से ज्यादा घपले-घोटाले देश में हुये । आर्थिक नीतियों की वजह से 65 हजार किसानों ने आत्महत्या कर ली । कुपोषण से सिर्फ विदर्भ में बीस हजार से ज्यादा बच्चे मर गये। जिनकी जमीन , रोजगार, घर छिन गया, उनकी संख्या चालीस करोड़ से ज्यादा की है । आर्थिक तौर पर 50 लाख करोड़ से ज्यादा का नुकसान उन करोडों लोगों को हुआ, जिनकी जीती जागती जिन्दगी खत्म हो गयी । <br /><br />जाहिर है, जितने लोग सरकार की नीतियो की हिंसा की मार से प्रभावित हुये या फिर आतंकवाद से लेकर सांप्रदायिक हिंसा में जिनका सबकुछ स्वाहा हो गया, उनसे ज्यादा वोट 15 वी लोकसभा के लिये भी नहीं पड़े । जो दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र को परतंत्र का आईना भी दिखाता है। लेकिन दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र होने का तमगा और सबसे बड़ा बाजार कहलाने का सुकून ही संसदीय राजनीति का असल सच है, इसलिये जनादेश के बाद बजट का चेहरा पूरी दुनिया को मानवीय लगेगा ही । लेकिन बडा सवाल हैं, घुप्प अंधेरे के दौर में अंधेंरे का ही गीत सरकार-मीडिया क्यों गाते हैं।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-46711997750502876792009-07-23T11:33:00.000+05:302009-07-23T11:34:11.530+05:30कितना खतरनाक है किसान का सचमेरे पास पन्द्रह एकड़ जमीन है । मैं छतरपुर से चालीस किलोमॉीटर दूर विजावर में जसगुआं खुर्द गाव का जमींदार हूं । मैं आपसे पांच रुपये ज्यादा लेकर क्या करुंगा । मामला सिर्फ आम की सूखी लकड़ियों के मोल भाव का था । उसने पैंतीस रुपये मांगे और मैं तीस रुपये देने की बात कर रहा था। बस इसी बात पर वह बुजुर्ग व्यक्ति फूट पड़ा। इस तरह फूटा की उसकी आवाज में आक्रोष था, लेकिन आंखों में आंसू भी थे । आंसुओं में लाचारी कहीं ज्यादा थी। मानसून आया नहीं तो गांव में रह कर क्या करता। जमीन फट रही है। सोयाबिन की फसल जो अब तक जवान हो जाती है, इस बार बुआई तक नहीं हुई। पिछले साल 15 मई तक बुआई का काम पूरा हो गया था लेकिन अब तो जुलाई शुरु हो गया। गांव में जमींदार बनकर ऐसे ही कोई कैसे रह सकता है। खुद का पेट खाली होगा तो गांववालों के हक के लिये आवाज भी नहीं निकलती।<br /><br />सबकुछ एक सांस में जिस तरह लकड़ी बेचेने वाला वह शख्स महज पांच रुपये के सवाल पर कहता चला गया, उसने मुझे एक झटके में अंदर से हिला दिया। मैं आम की लकड़ी लेने निकला था । दिल्ली से सटे गाजियाबाद के वसुंधरा इलाके में पूजा -हवन के लिये आम की लकड़ी खोज रहा था। सड़क किनारे लगे पानवाले से लेकर कबाड़ी और फूल वाले सभी के ठेलो पर गया और पूछा कि आम की लकड़ी कहां मिलेगी। कोई नहीं बता पाया । भटकते भटकते इंदिरापुरम थाने के सामने पहुंच गया तो खाकी वर्दी को देख कर दिमाग में आया कि इसे जरुर पता होगा। पूछा तो एक पुलिस वाले ने अंगुली उठाकर इशारे से बताये कि वह सामने झोपड़ी में चले जाओ....और यही वह बुजुर्ग लकड़ी का कोयला और आम की लकड़ी बेचते मिल गए ।<br /><br />मुझे तीन चार किलोग्राम लकड़ी की जरुरत थी सो उन्होंने तौल दी ...मुझसे कहा पैंतीस रुपये हुये, मैंने तीस रुपये की बात कही तो यह शख्स फूट पड़ा। मै खुद को रोक नहीं पाया और झोपडी में बिछी चारपाई पर ही बैठ गया। बुजुर्ग के हाथ में चालीस रुपये रखते हुये कहा कि मुझे लगा कि खुले पैंतीस रुपये मेरे पास नहीं थे...मुझे लगा आपके पास भी नहीं होगे इसलिये तीस रुपये की बात कह दी। मेरे चारपाई पर बैठते ही उस बुजुर्ग का आक्रोष थमा...लोकिन सख्त तेवर में बोला पांच रुपये का मतलब शहर में नहीं होता लेकिन गांव में पांच रुपये आज भी बड़ी रकम है । लेकिन आपने बताया आप जमींदार हैं..तो इस तरह यहा आकर लकड़ी बेच कर क्या कमाई हो जाती होगी.....<br /><br />सवाल कमाई का नहीं पेट पालने का है । कमाई मुनाफे को कहते हैं। हम यहां मुनाफा बनाने नहीं आये हैं। बस अपना पेट पाल रहे हैं । सूखे ने पूरे परिवार को ही अलग थलग कर दिया है । मेरे चार बेटे हैं । पानी होता तो सभी किसानी करते । लेकिन सूखा है तो चारो बेटे भी रोजगार की तालाश में कही ना कही निकल पड़े । क्या बेटों के बारे में कोई जानकारी नहीं कि कौन कहां है । कैसे जानकारी होगी । हमी यहां लक्कड़ बेच रहे हैं, इसकी जानकारी गांव में किसे होगी । अब चारों बेटे कहा क्या कर रहे हैं, यह तो दशहरा में गांव लौटने पर ही पता चलेगा । लेकिन गांव में तो सरकार की भी कई योजना हैं। वहां रह कर भी तो कमाया खाया जा सकता है । बड़ी मुश्किल है । जैसे दिये में तेल ना डालो तो बुझ जाता है, वैसा ही सरकार की योजना का है। बाबुओं को तेल चाहिये। अब समूचे गांव में किसान के पास कुछ नगद है ही नहीं तो वह बाबुओ को दे क्या ।<br /><br />लेकिन सरपंच व्यवस्था के जरीये भी तो काम हो रहा है । सरपंच का मतलब है पैसे के बंटवारे का पंच। कोई योजना में कितना भी पैसा आये लेकिन सरपंच तभी केस बनाता है, जब उसे पचास फीसदी कमीशन मिल जाये । हमारे यहां नरेगा भी आया था। हर परिवार में एक व्यक्ति को काम मिलेगा, यह पोस्टर गांव गांव में चिपकाया गया। हमने भी सोचा कि छोटा बेटा, जिसकी शादी नहीं हुई है, वह गांव में ही रहे इसलिये उसी का नाम नरेगा के लिये दिया। लेकिन सरपंच को उसमे केस बनाने के लिये पचास फीसदी चाहिये। और बाबू को पन्द्रह फीसदी अलग। अब दिन भर मेहनत करके सौ रुपये के बदले पैतीस रुपया कमाने से क्या होगा। रजिस्ट्रर पर दस्खख्त कराता है सौ रुपया का और मिलता है पैतीस रुपया। कुछ गांव में तो पन्द्रह रुपया में भी गांव वालों ने काम किया है । क्योकि सरपंच तक पहुंच कर केस बनवाने में ही बीस-तीस रुपया खर्च हो जाता है।<br /><br />केस बनवाने का मतलब क्या है । केस का मतलब है, जिसको सरकार की योजना का लाभ मिल सकता है। इसपर सरपंच और बाबू बैठा रहता है । वह नाम लिखेगा ही नहीं तो काम मिलेगा ही नहीं। हां , अगर केस बना देगा कि इसको काम मिलना चाहिये तो मिल जायेगा। तो क्या आपको किसान राहत का भी कोई पैसा नहीं मिला । एक बार हल्ला हुआ था कि बैंक से जो पैसा लिये थे, वह भी माफ हो गया और बैक बिना कमीशन खेती के लिये कर्ज देगा। लेकिन पिछले साल तीन महीने बैंक का चक्कर जब गांव का जमींदार होकर हमीं लगाते रहे तो गांव वालों का क्या हाल हुआ होगा जरा सोचिये। हमनें बैंक से 18 हजार रुपया लिया था, लेकिन यहां आने से पहले बैंक को पूरा इक्कीस हजार लौटाये। कौन सा बैक था । ग्रामीण विकास बैंक । तीन बाबू बैठता है वहां । लेकिन कर्ज माफी तो दूर राहत सिर्फ इतना दिया कि कमीशन नहीं लिया । नहीं तो कई गांव में तो सरपंच के जरीये ही कर्ज लिये किसानों को धमकाया जाता कि अगर कर्ज का पैसा नहीं लौटाया तो कानूनी कार्रवाई होगी और जमीन जब्त हो जायेगी । इसीलिये वहा महाजनी जोर-शोर से चलता है। जिसके पास पैसा है, वह राजा है, जो किसान है, वह रंक है ।<br /><br />तो क्या खेती सिर्फ बारिश पर टिकी है । बारिश पर या कहें पैसे पर । क्योकि सिचाई की कोई व्यवस्था है नहीं। बिजली रहती नहीं है । जो मोटर पंप लगा रखे हैं उन्हें चलाने के लिये डीजल चाहिये । अगर पंप के भरोसे ही खेती करनी है तो हर महिने कम से कम दो हजार रुपया पास में रहना चाहिये। फिर बीज और खाद की जो व्यवस्था सरकार ने कम दाम पर कर रखी है, वह तभी मिल सकता है, जब पास में चार पांच सौ रुपये कमीशन देने या केस बनाने के हो। यहां भी केस बनता है। हां, अगर एकदम गरीब किसान है तो सरपंच के लिखने पर बीज बहुत ही कम कीमत पर भी मिल सकता है। तो बीज कम कीमत में तो मिल जाता है, लेकिन उसकी एवज पर आधा बीज मुफ्त में सरपंच अपने पास में रख लेता है। यह सिर्फ आपके इलाके में है या समूचे क्षेत्र में। यह न तो इलाके में है, न क्षेत्र में बल्कि पूरे राज्य में या कहे पूरे देश में ग्रामीण इलाको का यही हाल है ।<br /><br />मध्य प्रदेश से सटा विदर्भ का इलाका है । पहले यह मध्य भारत का ही हिस्सा था । हमारे बड़े बेटे की शादी वहीं हुई है । अकोला में । वहां भी हमारा जाना अक्सर होता । बेटा तो जाता ही रहता है । वहां के किसानों के सामने भी सबसे बडा संकट यही है कि बीज-खाद और डीजल का पैसा किसी के पास है नहीं । ग्रामीण बैक किसानों को उनका हक देता नहीं। वहां भी महाजनी ही किसानो को चलाती है। इतनी लंबी बहस के बाद जब मैने उन बुजुर्ग का नाम पूछा तो उल्टे हंसते हुये मुझी से मेरा नाम पूछ लिया। फिर कहा, हम ब्राह्ममण हैं। मेरा नाम जगदीश प्रसाद तिवारी है। इसलिये हम आम की लकड़ी यहां बेच रहे हैं। क्योंकि इस उम्र में कोई दूसरा काम कर नहीं सकते और धर्म कोई दूसरा काम करने का मन बनने नहीं देता। किसान शुरु से ही थे । कई पीढियों से किसानी चली आ रही है । लेकिन यह कभी नहीं सोचे थे कि जमीन रहने के बाद भी किसानी नहीं कर पायेगे। और जमीन रहने के बाद भी परिवार बिखर जायेगा।<br /><br />मेरे लिये कल्पना से परे था कि लकड़ी बेचता यह शख्स परिवार के बारे में बताते बताते रो पड़ेगा और कहने लगा कि मुझे पता ही नहीं है कि मेरा छोटा बेटा कहा कमाने खाने निकला। मैं तो यहां लकड़ी बेचने इसलिये पहुंच गया कि गांव के रामप्रसाद का बेटा यहां हवलदार है। मैंने उसके घर में तब पूजा करायी थी, जब उसके बेटे को नौकरी लगी थी । उसने मेरी व्यवस्था तो यहां करा दी । लेकिन छोटका होगा कहां........मैंने कहा मै आपसे इसीलिये बात कर रहा थी कि पत्रकार हूं । आपकी बात अखबार में लिखूंगा । मैंने उनके कंधे पर हाथ रखा तो उस बुजुर्ग ने मुझे ही संभालते हुये कहा...घर में पूजा है क्या । हां.....तो जाओ पंडित जी इंतजार कर रहे होंगे फिर मुझे पांच रुपये लौटाते हुये कहा कि पैतीस रुपये हुये ...यह आपके पांच रुपये । मैं पांच रुपये जेब में डालने के लिये उठा तो वह बुजुर्ग कह उठा इस पांच रुपये को कम ना आंको। गांव में कईयो की जिन्दगी इसी में चलती है। और देश में शहर से ज्यादा गांव हैं। मुझे लगा मनमोहन सिंह हर गांव में शहर देखना चाहते है और राहुल गांधी हर गांव को अपने सपने से जोड़ना चाहते है । ऐसे में किसान का सच कितना खतरनाक है ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-5800351332465535192009-02-04T07:54:00.000+05:302009-02-04T07:54:00.448+05:30संसदीय राजनीति जीने नहीं देगी और लोकतंत्र मरने नहीं देगादुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का तमगा लगाकर जीना आसान काम नहीं है। खासकर लोकतंत्र अगर संसदीय राजनीति की मोहताज हो और संसदीय राजनीति की सत्ता समूचे देश को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाये। लोकतंत्र का मतलब है-हर नागरिक को बराबर अधिकार और सत्ता में भागेदारी के लिये बराबर के अवसर। लोकतंत्र बरकरार रहे, यह देश की संसद और राज्यों की विधानसभा के सदस्यों के कंधों पर सबसे ज्यादा है। जनता अपने जितने नुमाइन्दों को चुनकर संसद और विदानसभा में भेजती है, इनकी संख्या देश की समूची जनसंख्या का दशमलव शून्य शून्य शून्य एक फिसदी से भी कम है।<br />लेकिन इस राजनीतिक लोकतंत्र का विस्तार पंचायत, गांव और जिला स्तर पर चुने जाने वाले करीब अड़तीस लाख सदस्यों तक भी है । संयोग से यह भी देश की जनसंख्या का एक फीसदी नहीं है। लेकिन लोकतंत्र के तमगे का खेल यहीं से शुरु होता है। चुने हुये नुमाइन्दे के घेरे में पहुंचते ही ऐसे विशेषाधिकार मिलते हैं, जो कानून और सुविधा का दायरा एकदम अलग बना देते हैं। इस दायरे में जो एक बार पहुंच गया वह कैसे इस दायरे से अलग हो सकता है। इसलिये कहा भी जाता है कि डाक्टर-इंजीनियर-उघोगपति से लेकर बेरोजगार-अशिक्षित-दलित-पिछड़ा हर कोई राजनेता बन सकता है, लेकिन जो इस राजनीति के घेरे में एकबार आ गया वह कुछ और नहीं कर सकता।<br /><br />जाहिर है लोकतंत्र का पहला पाठ यहीं से शुरु होता है, जिसमें विरासत के जरीये पीढि़यों को सहजने और घर की चारदीवारी में सुरक्षा-सुविधा का ऐसा ताना बाना बुना जाता है जो इस एहसास को खत्म करता है कि सत्ता का मतलब देश और सौ करोड़ लोग हैं। लोकसभा के 545 सदस्यों में से मौजूदा वक्त में पन्द्रह फीसदी सदस्य यानी करीब 80 सदस्य ऐसे हैं, जिनकी पहचान किसी बड़े नेता के बेटे-बेटी या पत्नी-बहू के तौर पर है। संबंधों की फेरहीस्त में संयोग से उन्हीं नेताओं के परिवार के सदस्य अगली कतार में हैं, जिन्होने वाकई सड़क से संसद का रास्ता तय किया। जिन्होंने गांव-खेडे की पगड्डिया समझीं। जिन्होंने देश के मर्म को अपनी धमनियों में दौड़ते देखा।<br /><br />इन नेताओं में से कुछ नेताओं के बच्चे जब बाप की राजनीति के भरोसे सत्ता के दायरे में आ गये तो समझ पैदा हुई लेकिन कईयों ने उस राजनीति को थामा, जिसमें अपना पेट -अपनी जेब के अलावा कुछ समझना मुश्किल हो । अपने अपने घेरे में लोकतंत्र की इस राजशाही का नमूना देखे- गांधी-नेहरु परिवार की नयी पीढी राहुल गांधी, कश्मीर में अब्दु्ल्ला परिवार की नयी विरासत उमर अबदुल्ला । अकाली दल में बादल परिवार के सुखबीर बादल, समाजवादी नेता मुलायम के पुत्र अखिलेश यादव, मराठा नेता शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले । द्रमुक नेता करुणानिधि का बेटा स्टालिन और बेटी कोनीमाझी, हिन्दुओं की सरमायेदार होने का ऐलान करने वाली बीजेपी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह । जनसंघ के जमाने से साईकिल और पैदल लोगों के बीच राजनीति करते हुये देश को अयोध्या की घुट्टी पिलाने वाले कल्याण सिंह के बेटे राजबीर सिंह । जेपी आंदोलन से निकले लालू यादव की पत्नी राबडी देवी । बाबू जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार, हेमवती नंदन बहुगुणा की बेटी रीता बहुगुणा। जसवंत सिंह, मुरली देवडा, पायलट,सिधिया, हुड्डा,शीला दीक्षित सरीखे बडे नेताओं की लंबी फेरहिस्त है जो अपने बच्चों के लिये सत्ता का रास्ता साफ करती हैं।<br /><br />बाला साहेब ठाकरे के राजनीतिक प्रयोग राजशाही अंदाज के विकल्प के तौर पर उभरे लेकिन लोकतंत्र के संसदीय मिजाज ने उन्हें भी अपनी राजनीतिक विरासत बेटे उद्दभ ठाकरे के ही नाम करनी पड़ी। लोकतंत्र की यह समझ पंचायत स्तर तक पहुंचते पहुंचते कैसे एक वर्ग में तब्दील हो जाती है इसका एहसास इसी से हो सकता है कि पिछले दो दशक में गांव-पंचायत-जिले स्तर पर नुमाइन्दे चुने गये उसमें करीब बीस लाख परिवार ऐसे हैं, जिनकी विरासत ही राजनीति को थामे हुये है।<br /><br />दरअसल, तीन स्तरीय संसदीय राजनीति में पंचायत स्तर पर अड़तीस लाख सात सौ के करीब नुमाइन्दे चुने जाते हैं । उपरी तौर पर संसदीय लोकतंत्र की यह समझ सही लग सकती है जिसमें चुनाव लड़ने का रास्ता हर किसी के लिये खुला होता है तो किसी नेता बाप का बेटा भी अगर चुनाव मैदन में हो तो वोट तो जनता को देना होता है । लेकिन संसद या विधानसभा का रास्ता इतना आसान है नहीं, जितना लगता है । राजनीति का महामृत्युंजय जाप सत्ता तक कैसे पहुंचाता है और इसके पीछे की बिसात देश की समूचे शाही तंत्र में किस तरह लोकतंत्र का मुलम्मा चढ़ा कर अपने आप को बचाती है, जरुरी है यह समझना।<br /><br />किसी राजनीतिक दल से चुनावी टिकट की चाहत किसी को भी इसलिये लुभाती है क्योकि राजनीतिक दल के पास संगठन होता है य़ानी इतने लोग होते है जो वोटिग के दिन पोलिंग बूथ पर मौजूद रह कर हर जरुरी काम निपटा सकता है। और लोकसभा चुनाव में हर सीट पर कम से कम चार से पांच हजार का कैडर उम्मीदवार के पास होना ही चाहिये। कैडर इसलिये क्योंकि चुनाव के दिन इन चार से पांच हजार लोगों के सामने दूसरे राजनीतिक दल से सौदेबाजी करने का सबसे ज्यादा मौका होता है। इसलिये प्रतिबद्ध लोग चाहिये ही। किसी भी युवा को आज की तारीख में राजनीति में आने के लिये इस तरह प्रतिबद्द लोगों की फेरहिस्त बनाने में कम से कम दस साल जरुर लगेंगे। यानी जबतक दो आपसी विरोधियों को जनता बारी बारी से चुने और फिर एक ही थैले के चट्टे बट्टे के तौर पर ना देखे। लेकिन समाधान इससे भी नही होता। अब के दौर में पूंजी और मुनाफे के भरोसे सत्ता-राजनीति ने जिस तरह जनता से पल्ला झाडा है उसमें हर चुनावी क्षेत्र में पार्टियों के उम्मीदवार के ऐलान के साथ ही व्यापारी-उघोगपति-दलालपतियों की पोटलिया चुनावी मदद के नाम पर खुल जाती हैं। इसलिये राजनीतिक दल भी अब चुनाव की तारीख के ऐलान से पहले ही उम्मीदवार का ऐलान कर देते हैं, जिससे धन जुगाड़ने में कोई परेशानी ना हो और कौन कौन उनकी पार्टी और उम्मीदवार के नाम पर पोटली खोल सकता है, यह साफ होने लगे।<br /><br />फिर राजनीतिक दल उन्हीं सौदेबाजों के लिये नीतियां गढने और सत्ता की लकीर बनाने में जुटते हैं। चुनावी फंड का व्यापारी-उघोगपति-दलालपतियों से आना और उसे आम वोटरों में लुटने का खेल चुनावी साइकिल की तरह चलता है। जिसे आज की तारीख में देखे तो यह अभी से शुरु हो चुका है। इसमें सत्ताधारियों के उम्मीदवारों को लाभ भी मिलने लगता हैं क्योकि चुनाव की तारीख के ऐलान के बाद से चुनाव आचार संहिता लागू होती है तो उससे पहले ही जीत का चक्रव्यू का सत्ता द्वारा बनाने का खेल चलने लगता है । अगर जनता की भावना सत्ताधारी के खिलाफ तो विपक्षी दल के उम्मीदवार के वारे न्यारे होने लगते हैं। क्योकि राजनीति के उगते सूरज को पूंजी की पोटली से सलाम करने वालो की होड़ लगती है। चूंकि सत्ता संम्भालते वक्त राज्य के लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण पाठ यही होता है कि किसी भी तरह उसकी सत्ता बरकरार रहे। और सत्ता पाने का तरीका पूंजी और मुनाफे की थ्योरी की गलियों से होकर निकलता है, तो समूची कवायद उसी को लेकर होती है।<br /><br />असल में लोकतंत्र की जागरुकता मुनाफे के इर्द-गिर्द किस तरह जा टिकी है, यह बाजार के मुनाफे की समझ और जातियों की राजनीतिक जागरुकता से भी उभरा है। मान जाता था पहले गांव के लोगों में राजनीतिक जागरुकता नहीं थी तो वह अपना वोट बेच देते थे। लेकिन आधुनिक दौर में वोट नही सरकार और सत्ता बिकती है । देश में कौन सी नीति किस औघोगिक घराने को लाभ पहुंचा सकती है, शुरुआती समझ यही से बढ़ी। लेकिन लोकतंत्र में हर किसी की बराबरी की भागेदारी ने हर तबके-जाति में अब उस सौदेबाजी के लंबे मुनाफे के तंत्र को विकसित कर दिया, जिसमें मामला सिर्फ एक बार वोट बेचने से नही चलता बल्कि पांच साल तक सत्ता को दुहने का खेल चलता रहता है। यानी चुनावी लोकतंत्र का मतलब चंद लोगो के लिये नीतियों के जरीये मुनाफे का ब्लैंक चैक है तो एक बडे वोट बैंक के लिये पांच साल तक का रोजगार है।<br /><br />यानी राजनीतिक चुनाव का एक ऐसा तंत्र समाज के मिजाज में ही बना दिया गया है, जिसमें बिछी बिसात पर पांसे तो कोई भी फैंक सकता है लेकिन पांसा उसी का चलता है जिसके हाथ से ज्यादा आस्तीन में पांसे हो। लोकतंत्र के इस चुनावी खेल में सहमति-असहमति मायने नहीं रखती। हर स्तम्भ के लिये खुद को सत्ता की तर्ज पर बनाये और टिकाये रखते हुये अपनी जरुरत बताने का खेल सबसे ज्यादा होता है। आर्थिक नीतियों के फेल होने से लेकर देश की सुरक्षा में लगातार सेंध लगने पर आम जनता के निशाने पर राज्य और राजनीति आयी तो उसे बचाने के लिये न्यायपालिका और मीडिया ही सक्रिय हुआ। कड़े कानून के जरीये काम ना करने की मानसिकता का ढाप लिया गया । शहीदों के परिवारों को नेताओं के हाथों सम्मान दिलवाने के कार्यक्रम के जरीये जनता के आक्रोष को थामने का काम मीडिया ने ही किया। इसको सफल बनाने में औघोगिक घरानों ने कोई कसर नहीं छोडी । विज्ञापन और प्रयोजक खूब नजर आये । आर्थिक नीतियों तले करीब एक करोड़ लोगों के रोजगार जा चुके हैं, लेकिन विधायिका और कार्यपालिका ने न्यायपालिका का आसरा लेकर बेलआउट की व्यूहरचना कुछ इस तरह की, जिससे बाजार व्यवस्था चाहे ढह रही हो लेकिन कमजोर ना दिखे । इसी के प्रयास में कम होते मुनाफे को घाटा और घाटे को बेलआउट में बदलने की थ्योरी परोसी जा रही है।<br /><span class=""></span><br />लेकिन जहां दो जून की रोटी रोजगार छिनने से जा जुड़ी है, उसे विश्वव्यापी मंदी से जोड़कर आंख फेरने की राज्यनीति भी बखूबी चल रही है । इसलिये कोई एक स्तम्भ अगर जनता के निशाने पर आता है तो बाकी सक्रिय होकर उसे बचाते है, जिससे लोतकंत्र का खेल चलता रहे । इन परिस्थितियों में विकल्प का सवाल महज सवाल बनकर ही क्यों रहेगा, इसका जबाब इसी गोरखधंधे में छिपा है कि सभी के लिये एक बराबर खेलने का मैदान नहीं है। लोकतंत्र हर किसी के बराबरी का नारा तो लगाता है लेकिन गैरबराबरी का अनूठा चक्रव्यूह बनाकर। चक्रव्यू का मतलब लोकतंत्र के संसदीय विकल्प को खारिज करते हुये हर किसी को संसदीय राजनीति के घेरे में लाकर हमाम में खड़ा बतलाना से कहीं ज्यादा है । इसीलिये ओबामा के जरीये सपना जगाने की राजनीति तो लोकतंत्र कर सकता है लेकिन कोई ओबामा इस चक्रव्यू को तोड़ पाये इसकी इजाजत संसदीय राजनीति नहीं देती। इसीलिये ओबामा का मतलब या उसको परिभाषित करने का मंत्र महज युवा होने पर आ टिकता है। जो नेताओ की विरासत में राहुल-प्रियंका से लेकर मोदी-मायावती पर ही जा टिकता है। यह राजनीति भूल जाती है कि राष्ट्रपति बनने से पहले तक ओबामा अपनी पढाई के लिये लिये गये कर्ज तक को नहीं चुका पाया था । जो जीने की जद्दोजहद में ही घर-परिवार-समाज-देश हर त्रासदी से रुबरु हो रहा था। और जब दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश के लोगों पर संकट गहराया तो उन्हे ओबामा के संघर्ष में अपनी जीत नजर आयी।<br /><br />लेकिन भारत की संसदीय राजनीति तो अभी भी दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र होने का तमगा छाती में लगाये हुये है इसलिये हर विकल्प का संघर्ष उस संसदीय राजनीति के खिलाफ जायेगा जिसकी चादर में लोकतंत्र को लपेट कर सत्ता बरकरार रखी जा रही है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com6