tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-19369278099283967882009-06-22T10:56:00.002+05:302009-06-22T11:00:06.200+05:30"लालगढ को लालगढ तक देखना वैसी ही भूल होगी जैसे माओवादियो को सिर्फ लालगढ में देखना "<strong>माओवादी नेता कामरेड किशनजी से पुण्य प्रसून वाजपेयी की बातचीत<br /></strong><br />लालगढ़ में पुलिस और अर्धसैनिक बलों के आपरेशन शुरु होने के 72 घंटो बाद हालात कितने बदले हैं और माओवादियों की अगली पहल क्या होगी यह सवाल हर किसी के जहन में है। खासकर पहली बार सीपीएम लालगढ़ में माओवादियों के सफाये का सवाल उसी तरह उठा रही है, जैसा कभी नक्सलबाडी में किसानों ने जमींदारो को लेकर उठाया था । जब इन सवालो को मैंने कामरेड किशनजी के सामने रखा तो उनका पहला और सीधा सपाट जबाब यही आया कि "लालगढ को लालगढ तक देखना वैसी ही भूल होगी जैसे माओवादियो को सिर्फ लालगढ में देखना। " कामरेड किशन के इस जबाब के बाद मैने सवाल-दर-सवाल उठाये और जबाब भी बिना किसी लाग लपेट के इस तरह आया जैसे लालगढ युद्द में पुलिस का ऑपरेशन नहीं बल्कि कौई बौद्दिक क्लास चल रही हो।<br /><br /><strong>सवाल- लालगढ को लालगढ तक देखना भूल होगी । इसका मतलब क्या क्या है ।<br /></strong>जबाव- लालगढ पश्चिमी मिदनापुर का हिस्सा है । और इस वक्त मिदनापुर के करीब साढे सोलह हजार गांवो में आदिवासी ग्रामीण सीपीएम सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ने को तैयार है । इन ग्रामीणों की हालत ऐसी है, जहां इनके पास गंवाने के लिये कुछ भी नही है । इन गांवो में खाना या पीने का पानी तक सरकार मुहैया नहीं करा पायी है । सरकारी योजनाओ के तहत मुफ्त अन्न हो या कुएं का पानी । इसके लिये इन्हे सीपीएम काडर पर ही निर्भर रहना पड़ता है । गांव की बदहाली और सीपीएम काडर की खुशहाली देखकर यही लगता है कि इलाके में यह नये दौर के जमींदार है । जिनके पास सबकुछ है। गाड़ी, हथियार, धन-धान्य सबकुछ । लालगढ के कुछ सीपीएम काडर के घरों में तो एयरकंडीशन भी मिला। पानी के बड़े बड़े 20-20 लीटर वाले प्लास्टिक के टैंक मिले । जबकि गांव के कुंओं में इन्होने कैरोसिन तेल डाल दिया जिससे गांववाले पानी ना पी सके । और यह सब कोई आज का किस्सा नहीं है । सालो-साल से यह चला आ रहा है । किसी गांववाले के पास रोजगार का कोई साधन नहीं है । जंगल गांव की तरह यहा के आदिवासी रहते है । यहां अभी भी पैसे से ज्यादा सामानो की अदला-बदली से काम चलाया जाता है । इसलिये सवाल माओवादियों का नहीं है । हमनें तो इन्हे सिर्फ गोलबंद किया है । इनके भीतर इतना आक्रोष भरा हुआ है कि यह पुलिस-सेना की गोली खाने को भी तैयार है । और गांव वालो का यह आक्रोष सिर्फ लालगढ़ तक सीमित नही है ।<br /><br /><strong>सवाल- तो माओवादियो ने गांववालो की यह गोलबंदी लालगढ़ से बाहर भी की है । </strong><br />जबाब- हम लगातार प्रयास जरुर कर रहे है कि गांववाले एकजुट हों। वह राजनीतिक दलों के काडर के बहकावे में अब न आये । क्योकि उनकी एकजुटता ही इस पूरे इलाके में कोई राजनीतिक विकल्प दे सकती है । हमारी तरफ से गोलबंदी का मतलब ग्रामीण आदिवासियों में हिम्मत पैदा करना है, जिन्हें लगातार राजनीतिक लाभ के लिये तोड़ा जा रहा था । सीपीएम के काडर का काम इस इलाके में सिर्फ चुनाव में जीत हासिल करना ही होता है। पंचायत स्तर से लेकर लोकसभा चुनाव तक में सिर्फ चुनाव के वक्त गाववालों को थोड़ी राहत वोट डालने को लेकर मिलती क्योकि इलाके में कब्जा दिखाकर काडर को भी उपर से लाभ मिलता । लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में हमने चुनाव का बांयकाट कराकर गाववालो को जोडा और सीपीएम काडर पर निशाना साधा। उससे सीपीएम उम्मीदवार जीता जरुर, लेकिन उनकी पार्टी में साफ मैसेज गया कि मिदनापुर में सीपीएम की पकड खत्म हो चुकी है । जिसका केन्द्र लालगढ़ है ।<br /><strong><br />सवाल--तो क्या ममता बनर्जी अब अपना कब्जा इस इलाके में देख रही हैं । इसीलिये वह आपलोगों को मदद कर रही हैं । </strong><br />जबाब- ममता बनर्जी क्या देख रही है या क्या सोच रही है, यह तो हम नहीं कह सकते । लेकिन ममता ने नंदीग्राम के आंदोलन में जो सवाल उठाये उसपर हमारी सहमति जरुर है । लेकिन लालगढ में आंदोलन ममता को राजनीतिक लाभ पहुचाने के लिये हो रहा है, ऐसा सोचना सही नहीं होगा । ममता को लेकर हमें यह आशा जरुर है कि वह ग्रामीण आदिवासियो की मुश्किलो को समझते हुये अपने ओहदे से सरकार को प्रभावित करेंगी । लेकिन संघर्ष का जो रास्ता यहा के आदिवासियो ने पकड़ा है, उसे राजनीतिक तौर पर हम राजनीतिक विकल्प के तौर पर देख रहे हैं क्योकि बंगाल की स्थितिया इतनी विकट हो चली है कि लालगढ़ आंदोलन को पूरे राज्य में बेहद आशा के साथ देखा जा रहा है । वामपंथी विचारधारा को मानने वाला आम शहरी व्यक्ति इसमें नक्सलबाडी का दौर देख रहा है ।<br /><br /><strong>सवाल---नक्सलबाडी से लालगढ़ को जोड़ना जल्दबाजी नहीं है।<br /></strong>जबाब---जोड़ने का मतलब हुबहू स्थिति का होना नहीं है । जिन हालातों में सीपीएम बनी और जनता ने कांग्रेस को खारिज कर सीपीएम को सत्ता सौपी । चालीस साल बाद ना सिर्फ उसी जनता के सपने टूटे है, बल्कि सीपीएम भी भटक चुकी है । क्योंकि जिस जमीन-किसान के मुद्दे के आसरे वाममोर्चा तीस साल से सत्ता में काबिज है और जमीन पर खडा किसान लहूलुहान हो रहा है तो उसका आक्रोष कहां निकलेगा । क्योंकि इन तीस सालो में भूमिहीन खेत मजदूरो की तादाद 35 लाख से बढकर 74 लाख 18 हजार हो चुकी है । राज्य में 73 लाख 51 हजार भूमिहीन किसान है । इस दौर में चार लाख एकड़ जमीन भूमिहीनो में बांटने के लिये अधिग्रहित भी की गयी । लेकिन अधिग्रहित जमीन का 75 फिसदी कौन डकार गया, इसका लेखा-जोखा आजतक सीपीएम ने जनता के सामने नहीं रखा । छोटी जोत के कारण 90 फिसदी पट्टेदार और 83 फिसद बटाईदार काम के लिये दूसरी जगहो पर जाने के लिये मजबूर हुये । इसमें आधे पट्टेदार और बटाईदारो की हालत नरेगा के तहत काम मिलने वालों से भी बदतर हालत है। इन्हें रोजाना के तीस रुपये तक नहीं मिल पाते। लेकिन नया सवाल कही ज्यादा गहरा है, क्योकि एक तरफ राज्य में 11 लाख 75 हजार ऐसी वन भूमि है, जिसपर खेती हो नहीं सकती। और कंगाल होकर बंद हो चुके उद्योगों की 40 हजार एकड जमीन फालतू पड़ी है । वहीं किसानी ही जब एकमात्र रोजगार और जीने का आधार है तो इनका निवाला छीनकर सरकार खेती योग्य जमीन में ही अपने आर्थिक विकास को क्यों देख रही है । यही हालात तो नक्सलबाडी के दौर में थे ।<br /><br /><strong>सवाल- लेकिन बुद्ददेव सरकार अब माओवादियो पर प्रतिबंध लगाकर कुचलने के मूड में है ।<br /></strong>जबाव- आपको यह समझना होगा कि सीपीएम का यह दोहरा खेल है । बंगाल में माओवादियों के खिलाफ सीपीएम सरकार का रुख दूसरे राज्यों से भी कड़ा है । हमारे काडर को चुन चुन कर मारा गया है । तीस से ज्यादा माओवादी बंगाल के जेलों में बंद है । अदालत ले जाते वक्त इनका चेहरा काले कपडे से ढक कर लाया-ले जाया जाता है ...जैसा किसी खूखांर अपराधी के साथ होता है । दमदम जेल में बंद माओवादी हिमाद्री सेन राय उर्फ शोमेन इसका एक उदाहरण है । प्रतिबंध लगाना राजनीतिक तौर पर सीपीएम के लिये घाटे का सौदा है क्योकि लालगढ सरीखी जगहों पर गांव के गांव माओवादी हैं। क्या प्रतिबंध लगाकर बारह हजार गांववालो को जेल में बंद किया जा सकता है । लेकिन चुनाव के वक्त चुनावी सौदेबाजी में यह गांववाले सीपीएम को भी वोट दे देते है क्योकि हम चुनाव लड़ते नहीं है । अगर प्रतिबंध लगता है तो गांव के गांव जेल में बंद तो कर नहीं सकते लेकिन पुलिस को अत्याचार करने का एक हथियार जरुर दे सकते है । जिससे सीपीएम के प्रति राजनीतिक तौर पर गांववालो में और ज्यादा विरोध होगा ही । अभी तो आंदोलन के वक्त ही पुलिस अत्याचार होता है । नंदीग्राम में भी हुआ और लालगढ में भी हो रहा है । महिलाओ के साथ बलात्कार की कई धटनाये सामने आयी है । लेकिन प्रतिबंध लगने के बाद पुलिस की तानाशाही हो जायेगी इससे इंकार नहीं किया जा सकता है ।<br /><br /><strong>सवाल- लेकिन काफी गांववाले माओवादियों से भी परेशान है, वह पलायन कर रहे हैं।</strong><br />जबाब- हो सकता है...क्योकि पलायन तो गांव से हो रहा है । लालगढ़ में जिस तरह सीपीएम और माओवादियो के बीच गांववाले बंटे हैं, उसमें पुलिस आपरेशन शुरु होने के बाद सीपीएम समर्थक गांववालो का पलायन हो रहा है...इससे इंकार नहीं किया जा सकता । लेकिन इसकी वजह हमारा दबाब नही है बल्कि पुलिस कार्रवायी सीपीएम कैडर की तर्ज पर हो रही है । जिसमें गांव के सीपीएम समर्थको के इशारे पर माओवादी समर्थकों पर पुलिस अत्याचार हो रहा है । इसलिये अब गांव के भीतर ही सीपीएम समर्थक ग्रमीणो का विरोध हो रहा है । उन्हें गांव छोडने के लिये मजबूर किया जा रहा है । जो गांव छोड रहे हैं, उनसे दस रुपये और एक किलोग्राम चावल भी गांव में बचे लोग ले रहे है । जिससे संघर्ष लंबे वक्त तक चल सके ।<br /><br /><strong>सवाल--आप ग्राउंड जीरो पर है । हालात क्या है लालगढ़ के ।<br /></strong>जबाब-- लालगढ टाउन पर पुलिस सीआरपीएफ ने कैप जरुर लगा लिये हैं । लेकिन गांवो में किसी के आने की हिमम्त नहीं है । आदिवासी महिलाए-पुरुष बच्चे सभी तो लड़ने मरने के लिये तैयार हैं । लेकिन हम खुद नही चाहते कोई आदिवासी - ग्रामीण मारा जाये । इसलिये यह सरकारी प्रचार है कि हमने गांववालो को मानव ढाल बना रखा है । पहली बात तो यह कि गांववाले और माओवादी कोई अलग नही हैं। माओवादी बाहर से आकर यहा नही लड़ रहे । बल्कि पिछले पांच साल में लालगढ में गांववाले सरकार की नीतियो के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं । फिर हमारी तैयारी ऐसी है कि पुलिस चाह कर भी गांव तक पहुंच नहीं सकती है। जंगल में गुरिल्ला युद्द की समझ हमे पुलिस से ज्यादा है । इसलिये पुलिस वहीं तक पहुच सकी है, जहा तक बख्तरबंद गाडियां जा सकती है । उसके आगे पुलिस को अपने पैरो पर चल कर आना होगा ।<br /><br /><strong>आखिरी सवाल- कभी यह अतिवाम सीपीएम में ही थी, अब आमने सामने आ जाने की वजह ।<br /></strong>जबाव--अच्छा किया जो यह सवाल आपने आज पूछ लिया । क्योंकि आज 21 जून को ही बत्तीस साल पहले 1977 में ज्योति बाबू मुख्यमंत्री बने थे । पहली बार जब 1967 मे संयुक्त मोर्चे की सरकार में ज्योति बसु उपमुख्यमंत्री बने । लेकिन 1964 में जो सवाल भूमि को लेकर वाम आंदोलन खडा कर रहा था उसे संयुक्त मोर्चा की सरकार ने जब सत्ता में आने के बाद टाला तो अतिवाम ने सीपीएम के खिलाफ आंदोलन की पहल की । उस वक्त जमीन के मुद्दे पर ज्योति बसु सरकार ने सीपीआई एमएल पर या आरोप लगाया था कि उन्हें अतिवाम धारा ने नीतियो को लागू कराने का वक्त नहीं दिया । अब हमारा सवाल यही है कि जिन बातों को ज्योति बसु ने 42 साल पहले कहा था जब आजतक वही पूरे नहीं हो पाये तो अब और कितना वक्त दिया जाना चाहिये ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-30543404055634883362009-06-18T07:01:00.002+05:302009-06-18T17:11:26.616+05:30लालगढ़ के राजनीतिक प्रयोग में ममता प्यादा भर हैंकिसने हमारे कुंओं में कैरोसिन तेल डाला?...... नये जमींदार ने। किसने चावल में जहर भरी दवाई मिला दी? .. नये जमींदार ने। किसने हमें हमारी जमीन से उजाड़ा?... नये जमींदार ने। पुलिस किसकी है.? नये जमींदार की। सेना किसके लिये है?... नये जमींदार के लिये। तो अब लड़ाई किससे है ?.. नये जमींदार से। यह नारे लालगढ के हैं । 16 जून को लालगढ़ टाउन के बीच मैदान में करीब छह सौ गांव के पन्द्रह हजार से ज्यादा लोग जमा हुये तो मंच से यही नारे लग रहे थे। मंच से आवाज आती... नये जमींदार पर निशाना है और हजारो की तादाद में जमा लोग इस आवाज को आगे बढाते हुये कहते.... या खुद निशाना बन जाना है।<br /><br />वाममोर्चा के तीस साल के शासन में पहली बार माओवादियो का रुख वामपंथियो के खिलाफ ठीक उसी तरह है, जैसे चालीस साल पहले कांग्रेस के खिलाफ वामपंथियो ने हथियार उठाकर कांग्रेस को जमींदार और फासिस्ट करार दिया था। वहीं चालीस साल बाद अब संघर्ष से निकल कर सत्ता में पहुची सीपीएम को फासिस्ट और जमींदार का तमगा माओवादी दे रहे है। पश्चिम बंगाल में वाम राजनीति का चक्का एक सौ अस्सी डिग्री में किस तरह घूम चुका है, इसका अंदाजा सीपीआई माओवादी की सीधी पहल से समझा जा सकता है।<br /><br />16 जून को लालगढ़ टाउन के मैदान की सभा को संबोधित करने और कोई नहीं, उसी आंदोलन से निकले नेता पहुंचे थे, जिन्होंने साठ के दशक में नक्सलबाडी में हथियार उठाकर कांग्रेस के शासन के खिलाफ बिगुल फूंका था । और आंदोलन की आग उस वक्त इतनी तेज हुई थी कि सीपीआई में दो फाड़ हो गया था। और तीन साल बाद यानी 1967 में ही पहली बार गैर कांग्रेसी संयुक्त मोर्चा सरकार बनी, जिसमें ज्योति बसु उप-मुख्यमंत्री थे। लेकिन साठ के दशक में नक्सलबाडी की आग ने वामपंथियो को यह सीख जरुर दे दी की बंगाल की जमीन वामपंथियो के भटकाव को भी बर्दाश्त नहीं करेगी। उस वक्त वजह भी यही रही कि सीपीआई के भटकाव से टूट कर निकली सीपीएम ने जंगल-जमीन से जुड़े मुद्दो को ही अपनी राजनीति का पहला आधार बनाया। नक्सलबाडी की इस आग ने संसदीय राजनीति में चाहे सीपीएम को सफलता दे दी लेकिन आंदोलन की कमान उस दौर जिन एमएल और एमसीसी संगठनों ने थाम रखी थी, पहली बार यही दोनो धारायें एक साथ सीपीएम के खिलाफ बंगाल में हथियार उठाये हुये हैं।<br /><br />राजनीतिक तौर पर सीपीआई एमएल पीपुल्स वार और एमसीसीआई 2004 में एक साथ हुये। लेकिन विलय के बाद बने सीपीआई माओवादी के लिये बीते पांच साल में यह पहला मौका है, जब राजनीतिक तौर पर वह सीधे सीपीएम को जमींदार और फासिस्ट करार दे कर हथियारबंद संघर्ष के जरीये चुनौती देने को तैयार है । जाहिर है सीधे राज्य के खिलाफ इस तरह हथियारबंद संघर्ष नक्सलबाडी के बाद प्रयोग के तौर पर कहीं हुआ तो वह आंध्र-प्रदेश है । जहां नक्सली संगठन पीपुल्स वार ने राज्य को चुनौती दी तो संसदीय राजनीति में कांग्रेस से लेकर एनटीआर और 2004 में तेलगंनाराष्ट्वादी पार्टी ने चुनावी लाभ भी उठाया । लेकिन बंगाल की स्थिति इस बार सबसे ज्यादा जटील है। नंदीग्राम की आग को राजनीतिक तौर पर ममता बनर्जी ने सीधे किसी सोच के तहत ढाल नहीं बनाया। बल्कि पिछले चालीस साल की जो राजनीतिक ट्रेनिग बंगाल में सत्ताधारी वामपंथियो ने ही जनता को दी है, उसका असर यही हुआ कि जब वाममोर्चा सरकार जंगल-जमीन से जुडे मुद्दो को बिना सुलझाये ही आगे बढी तो सुलगते नंदीग्राम का राजनीतिक असर वामपंथी जनता में खुद-ब-खुद हुआ। और ममता बनर्जी को इसका चुनावी लाभ मिला। लेकिन ममता बनर्जी की राजनीतिक ट्रेनिंग वाम राजनीति के जरीये नहीं हुई है, इसलिये लालगढ़ की हिंसा के बीच जब ममता बनर्जी बंगाल में इस बात का ऐलान करती है कि हिंसा के जरीये समाधान नहीं हो सकता है और लालगढ में हथियार नहीं उठाये जाने चाहिये तो प्रतिक्रिया में कहीं ज्यादा हिंसा इस बात का भी संकेत दे रही है कि माओवादी ममता के जरीये वाममोर्चा के खिलाफ अपनी राजनीतिक लडाई को महज ढाल बनाना चाहते है न कि ममता के अनुकूल राजनीतिक परिस्थितियों की लड़ाई लडना चाहते हैं । वही ममता बनर्जी उस राजनीतिक माहौल को तो सूंघ पा रही है, जिसमें सीपीएम के खिलाफ ग्रामीण इलाको में तेजी से आक्रोष उभर रहा है मगर उस आक्रोष को कोई राजनीतिक जामा नहीं पहना पा रही है।<br /><br />इस लडाई में ममता का संकट दोहरा है। एक तरफ वैचारिक तौर पर तृणमूल कांग्रेस की कोई पहचान नहीं है, सिवाय कांग्रेस के टूट कर दल बनाने से और दूसरी तरफ ममता ने उसी कांग्रेस का हाथ थाम रखा है, जिसके साथ सीपीएम से फूटा गुस्सा जा नहीं सकता है। यानी पहले नंदीग्राम और अब लालगढ से निकले मुद्दे ममता की राजनीति को साध रहे है । ममता भी राजनीतिक भाषा में वाम लहजे का इस्तेमाल कर रही हैं, जो जमीन-जंगल से जुडे किसान-मजदूर-आदिवासी और गांववालों को अछ्छी लग रही है। लेकिन बंगाल की जमीन पर वाम और अतिवाम की लडाई में ममता महज प्यादा हैं, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है । क्योंकि सीपीएम जिस नयी पीढी का सवाल उठाकर आर्थिक सुधार की दिशा में कदम बढा रही है, वह पीढी मंदी के दौर में देश में रोजगार छिनने वाले माहौल को बकायदा देख रही है। बंगाल की इस युवा पीढी का लालन-पालन भी वामसमझ वाले परिवार और माहौल में हुआ है । इसलिये बंगाल में नये सवाल देश के दूसरे हिस्सो की तुलना में कहीं तेजी से उठते हैं। खासकर मुद्दों को अगर राजनीतिक पंख लग जाये तो बंगाल की एकजुट समझ भी खुल कर सडकों पर ही निकलती है । इसका असर सामाजिक तौर पर किस तेजी से हो रहा है, यह लालगढ के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। जहां सीआरपीएफ के बासठ कैंप गांव और जंगल में चुनाव के बाद से ही लगा दिये गये थे । लेकिन जब नारे लगे की पुलिस -सेना जमींदार के लिये है तो गांव से सुरक्षाकर्मियों को 12 कैंप इसलिये समेटने पड़े क्योंकि गांववालों ने खाना-पानी बंद देना और कैंप तक पहुंचने देना भी बंद कर दिया । इसका असर शहर में भी दिखायी दिया खासकर उन जिलो में जहा राशनिंग लूट हुई थी। सीआरपीएफ को देख कर शहरों में यह सवाल तेजी से घुमड़ने लगा कि अगर वाममोर्चा विकास के नाम पर खेत और जमीन को खत्म कर देगे तो मुश्किल और बढेगी । वहीं किसान-मजदूर अगर मारा जायेगा तो खेती करेगा कौन।<br /><br />राज्य के सत्रह जिले ऐसे हैं, जहां खेती न हो तो जिन्दगी की गाड़ी चल नहीं सकती है । इन जिलों में गरीबों की तादाद का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि साठ फिसद घरों में बीपीएल कार्ड है और निन्यानवे फिसद परिवारो के घर राशन का ही चावल-गेंहू आता है । और सत्ताधारी वामपंथियो के लिये कैडर बनाने और जुटाने की सौदेबाजी का आधार भी पेट भरने के साधन जुटाने पर आ टिकता है। यानी बीपीएल कार्ड सीपीएम कैडर के पास होगा ही । राशन की लूट में उसी कैडर को अन्न मिलेगा जो सत्ता के लिये काम कर रहा होगा। जाहिर है जब वाम राजनीति पेट की परिभाषा पर टिकी होगी तो जिसमें बल होगा वहीं असल वामपंथी भी हो जायेगा। चूंकि राज्य की सत्ता की ताकत के सामने हर कोई बौना है और राज्य के आंतक के सामने हर आंतक छोटा है तो ऐसे में सत्ताधारी अगर कमजोर होगा तो पेट की जरुरत वैचारिक आधार बदलने में कितनी देर लगायेगी । असल में नंदीग्राम और लालगढ की राजनीति से बंगाल की सामाजिक-आर्थिक स्थिति सीधे जुड़ी हुई है । इसलिये चुनाव में जैसे ममता बनर्जी मजबूत हुई हैं, सीपीएम का कैडर ममता के साथ हथियार लेकर खड़ा होने से नहीं कतरा रहा है। वहीं ममता की यही जीत सीपीएम को कमजोर करने से ज्यादा माओवादियो को मजबूत कर रही है, क्योकि बंदूक तले वह राज्य की पुलिस से दो दो हाथ कर रहे है और जिले-दर-जिले ममता के साथ जुड़ने वाला सीपीएम कैडर प्रमोशन पाकर पेट के लिये कहीं ज्यादा लाभ समेट रहा है। वाममोर्चा के कैडर के चक्रव्यू को भेंदते हुये लालगढ से माओवादी कोलकत्ता तक अब नक्सलबाडी की तर्ज पर उस राजनीति को हवा देने में लग गये हैं, जहां राज्य मान ले कि हथियार जनता ने उठा लिये हैं।<br /><br />चूंकि गांव समिति से लेकर जिला कमेटी तक के स्तर पर कामकाज देखने वाले कैडर के पास हथियार रहते हैं और चुनाव से पहले इलाको के कब्जे की राजनीति इसी हथियार के भरोसे चलती है, इसे हर राजनीतिक दल का कैडर जानता सतझता है । चूकि सत्ताधारी सीपीएम कैडर के पास सबसे ज्यादा हथियार हो सकते है, इसी आधार पर माओवादियो ने अपनी रणनीति के तहत गांव वालों को उकसाना भी शुरु किया है जिससे सीपीएम दफ्तरों और नेताओं के घरो में आग लगा कर हथियार समेटे जा रहे है । लालगढ के इलाके में अगर सीपीएम कैडर का पूरी तरह सफाया हुआ है तो उसकी बडी वजह उनके हाथों से हथियारों का जाना भी है और ग्रामीणो का हाथ में हथियार उठाकर माओवादियो की सभा में नारा लगाना भी।<br /><br />ऐसे में सवाल सिर्फ लालगढ के जरीय माओवादियो के हथियारबंध संघर्ष के नारे भर का नहीं है। बल्कि मुश्किल परिस्थितयाँ उस आने वाले टकराव को लेकर बन रहे राजनीतिक माहौल की हैं, जो प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर इलाकों में लूट के लिये बड़े कारपोरेट घरानों को लाइसेंस दे रही हैं और चार फसली खेती योग्य जमीन पर उद्योग लगा कर रोजगार पैदा करने का स्वांग रच रही हैं। जबकि बंगाल का सच यही है कि वहां वो नारे भी दम तोड चुके हैं, जिसके भरोसे कांग्रेस रोजगार क्रांति का सपना संजोये है। क्या ऐसे में बंगाल में वामपंथियों और माओवादियों का संघर्ष देश की राजनीति को साध पायेगा, यह नया सवाल बंगाल की जमीन पर वाम राजनीति को समझने वाला बौद्धिक तबका खड़ा कर रहा है क्योंकि उसे लगने लगा है जब प्रतिक्रियावादी ममता बनर्जी की सलाहकार नक्सली महाश्वेता देवी हो सकती हैं, तो भविष्य में नयी राजनीतिक जमीन माओवादियो के लिये कुछ नयी परिस्थितियाँ पैदा भी कर सकती है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com7