tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger6125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-36314043051836521202009-04-28T14:01:00.001+05:302009-04-28T14:01:00.733+05:30देश को पीएम नहीं पीएम को देश चाहियेयह सवाल वाकई अबूझ होगा कि प्रधानमंत्री पद के किसी भी दावेदार को पीएम बना दिया जाये तो वह करेगा क्या ? यहां ये सवाल भी महत्वपूर्ण है कि जो मौजूदा पीएम हैं उन्होने ही ऐसा क्या किया, जिससे लगे की उन्हे हटाया न जाए ? मनमोहन सिंह के दौर में जिस न्यू इकनॉमी की पटरी बिछाई गयी, उसमें डिब्बे इतने कम थे कि अस्सी फीसदी लोग प्लेटफार्म पर ही छूट गये। और न्यू इकनॉमी की गाड़ी में सवार लोग इतने आगे निकल गये कि उनके लिये पीछे मुड़कर देखना असभंव हो गया। <br /><br />हालांकि, ये अहसास उस मध्यम तबके में समाया रहा कि मनमोहन की गाड़ी में डिब्बे कम थे, जिस पर उन्होंने सवारी तो की लेकिन उस समाज को ही पीछे छोड़ आये, जिसमें उनकी जड़ है। इसलिये पाप से ग्रसित मध्यम तबके में समाज सेवा का भाव जगा जो रिफॉर्म के जरिये लगातार सामने आता रहा। इसीलिये देश में पचास करोड़ से ज्यादा लोगों की न्यूनतम जरुरत भी चुनावी मेनिफ्स्टो में दिखायी दी। वर्ना कैसे संभव होता कि जिस घोड़े की सवारी मनमोहन सिंह करा रहे थे, उसमें कांग्रेस तीन रुपये चावल-गेंहू देने की बात करती। <br /><br />बतौर पीएम मनमोहन की पहचान पिछले पांच साल की यही न्यू इकनॉमी है, जो अमेरिकी चकाचौंध की लैंपपोस्ट के नीचे भारत की लंबी होती परछाई को ही भारत का सच मान कर देखना चाहती है। लेकिन पीएम इन वेटिंग के पास ऐसा कौन सा एजेंडा है, जिसमें कहा जाये कि जब आडवाणी देश के डिप्टी पीएम या गृह मंत्री रहे तब वे जो चाहते थे, वह काम नही कर पाये। पीएम इन वेटिंग की पहचान उस प्रशासनिक कामकाज के तरीके से रही, जिसमें समाज के भीतर लकीर खिंची गयी। <br /><br />समूचे देश को एक धागे में पिरोने के लिये देश में रहने वाले लोगो के बीच कांट-छांट के तौर तरीको ने एक नयी प्रशासनिक समझ पैदा की। आदर्शवाद की सोच को अपनी अंटी में आडवाणी ने जिस तरह बांधा, वह सिर्फ गुजरात दंगो के बाद ही नहीं उभरा बल्कि बाबरी मस्जिद के बाद पहली बार मुस्लिमों के कमोवेश हर संगठन को लेकर देश की आंखो में संदेह और सवालिया निशान पैदा हुआ। यह शक देश के भीतर ही आर्थिक-सामाजिक सच के तौर पर दिखाया गया, जिससे जान बचाने के लिये जान लेने की एक नयी थ्योरी भारतीय मानस पटल पर खुल कर उभरी। इस लकीर को गाढ़ा करने का काम खोखली नीतियों ने किया। यह एक तरफ कश्मीर के रिसते खून पर दर्द का बाम लगाने से लेकर पडोसी देश पाकिस्तान-बांग्लादेश के घुसपैठ को लेकर भी सामने आया । फिर न्यूनतम की लडाई में जूझते बहुसंख्यक तबके को शाइनिंग इंडिया का वही चेहरा दिखाने की कोशिश की, जिसे मनमोहन सिंह ने ही 1991 में खिंचा था । डिप्टी पीएम बनने के बाद आडवामी तो अपनी ही राजनीतिक जमीन को भुला बैठे। जिस स्वदेशी राजनीति की समझ आरएसएस ने आडवाणी को घुट्टी बनाकर पिलायी, उसे भी अपनी नीतियो तले ना सिर्फ पीस डाला बल्कि स्वदेशी जागरण मंच और किसान संघ से लेकर आरएसएस के चालिसों संगठनो को लगा कि सत्ता में कोई संघी नही बल्कि कांग्रेसी शासन कर रहा है। यहां वाजपेयी को याद कर कोई भी संघी इतना ही कह सकता है कि आडवाणी वाजपेयी से आगे निकल नहीं सकते।<br /><br />तो क्या ये मान लिया जाये कि आडवाणी की अगुवाई देश को अभी के हालात से आगे नही ले जा सकती । लेकिन पीएम बनने की चाहत तो शरद पवार की भी है । उनके पास ऐसा क्या है जो उन्होने अपने दौर में कर ना दिखाया हो । पवार को महाराष्ट्र का सबसे पावरफुल नेता माना जाता है । 6 दिसंबर 1992 के बाद जिस तरह मुंबई और महाराष्ट्र में सांप्रायिक तनाव बढा, इस पर लगाम लगाने के लिये पवार को ही नरसिंह राव ने दिल्ली से मुंबई भेजा था। लेकिन पद संभालने के हफ्ते भर बाद ही देश ने मुंबई में एक ऐसा आंतकवादी हमला देखा, जिसे करने वालो को आजतक पकड़ा नहीं जा सका । 1993 ब्लास्ट के उन्हीं दोषियो को 13 साल बाद सजा मिली, जिन्होने सीरीयल ब्लास्ट की साजिश में हिस्सेदारी की थी । संयोग देखिये ब्लास्ट के आका आज भी पाकिस्तान में है। और दाउद सरीखे आका से पवार के संबंध है, यह आरोप आरएसएस खुल कर लगाता है।<br /><br />पिछले दिनो जब पवार ने मालेगांव ब्लास्ट के पीछे हिन्दुवादी संगठन और आरएसएस का नाम लिया तो आरएसएस ने बिना व्क्त गवाये कहा, पवार के रिश्ते तो दाउद से हैं । लेकिन पवार की पहचान देश के कृषि मंत्री की है । जो पांच साल में सिर्फ तीन बार अपने गृह राज्य के उस विदर्भ में गये, जहां दर दिन औसतन दो से तीन किसान आत्महत्या इन्ही पांच साल में करते रहे । संयोग से 20-20 के विश्वकप में जीत का जश्न जिस दिन मुंबई में मनाया जा रहा था और युवराज को 6 बॉल में 6 छक्के मारने के लिये एक करोड का चेक बतौर बीसीसीआई के तौर पर पवार दे रहे थे, उस दिन यवतमाल,अकोला और अमरावती के छह किसानो ने भी आत्महत्या की । पवार की समूची पहचान हर काम को धंधे में बदल कर पैसे बनाने की ही रही है इसलिये उनका मैनेजमेंट कांग्रेस को भी मात देता है । ऐसे में पवार का पीएम प्रेम एनसीपी को तो राष्ट्रीय दल बना सकता है । कांग्रेस को तोड़ सकता है । लेकिन देश में क्या सुधार सकता है यह सवाल पद्म सम्मान न लेने वाले धोनी और हरभजन पर खामोशी बरतने से समझा जा सकता है। वहीं पीएम की चाहत मायावती में भी है।<br /> <br />लेकिन मायावती ने ऐसा कुछ नहीं छोड़ा है, जिसे वह करना चाहती हो और उत्तर प्रदेश में सत्ता पाने के बाद ना किया हो । अपराध पर नकेल कसने के लिये अपराधियों को पार्टी में जोड़ना। भ्रष्टाचार को फैलने से रोकने के लिये खुद ही हर वसूली से जुडना और मुलायम से इतर भ्रष्ट्राचार की कई खिडकी खोलने की जगह सिर्फ एक खिडकी खोलना। और नाजायज काम को भी जायज तरीके से कर के दिखाना । जिस तबके की नुमाइन्दगी करती है उसकी भावनाओ को कभी देश की मुख्यधारा में शामिल नहीं होने देना। जिससे उसके भीतर यह एहसास जागे कि सत्ता में भागेदारी का मतलब अपनी पहचान को विस्तार देना भी होता है । मायावती की राजनीतिक समझ उनके अपने गांव उत्तर प्रदेश के बादलपुर में भी देखी जा सकती है । जहां विकास की कोई लकीर खिंचना तो दूर उस एहसास में ही मजबूती आयी है कि दलित की बेटी सत्ता में रहेगी तो उंची जाति वाला कोई नजर उठा कर नहीं देख पायेगा। लेकिन बहुजन से सर्वजन की सोशल इंजिनियरिंग ने मायावती की फटी चादर में एक ऐसा मखमली पैबंद लगाया है, जहा हर पैसे वाले और बाहुबल वाले को लगता है राजनीति का विशेषाधिकार उसके साथ जुड़ सकता है अगर वह मायावती के साथ जुड़ गया । तो पीएम बनने की स्थिति में देश की दिशा आर्थिक-वैदेशिक और सुरक्षा के मद्देनजर किस रुप में हो सकती है यह समझ मायावी होगी । <br /><br />लेकिन देश जिस मुहाने पर आ खडा हुआ है । जिसमें अर्थव्यवस्था और बाजारवाद हावी है उसमें देश के सामने वैक्लपिक समझ विकसित कौन कर सकता है । खासकर तब, जब बाजार व्यवस्था ढह चुकी है। पूंजी से पूंजी बनाने के संस्थानों का दिवालिया निकल रहा है। आतंकवाद का नया चेहरा देश की कमजोर नसों को पकड़ कर अपने विस्तार को अंजाम दे रहा है। गरीबी-मुफलिसी और सांप्रदायिक आधार पर हाशिये पर ढकेले जा रहे लोग खुद जीने के लिये किसी की भी जान लेने को तैयार हैं। आतंक का तरीका राजनीतिक और सामाजिक तौर पर खुद की पहचान और मान्यता पाने की दिशा में बढ़ चुका है। सीमाओं की सुरक्षा और दूसरे देशो से दोस्ती का आधार भी आतंक के खिलाफ आंतक का नया चेहरा लेकर सामने खड़ा है। ऐसे में पीएम बनने के लिये मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, जयललिता से लेकर बुद्ददेव तक में क्या बचा है, जो देश को पटरी पर लाने की दिशा में कदम उठेगा । पीएम बनने के लिये राहुल गांधी की बैचैनी समझी जा सकती है। क्योकि यह परिवारवाद तले कांग्रेसी संगठन की ट्रेनिंग है। और पीएम बनने के लिये संगठन में सहमति होनी चाहिये । <br /><br />लेकिन राहुल के आसरे देश की मौजूदा परिस्थितियो से निपटने की कला ना तो कांग्रेस के पास है ना ही राहुल खुद गांधी परिवार के ‘ऑरा’ से बाहर निकल पा रहे हैं । देश चलाने की जो भी छविया अतीत के आसरे देखी जा रही हैं, उसमें नरेन्द्र मोदी और प्रियका गांधी का नाम उभर सकता है।<br /><br />लेकिन देश की स्थितियां न तो सरदार पटेल के दौर की हैं, न ही इंदिरा गांधी के वक्त की। देश का विस्तार पहली बार जरुरत और बाजार ने किया है जबकि नेहरु,सरदार पटेल से लेकर इंदिरा तक देश का विस्तार नेताओं के आसरे होता रहा । यानी नेताओं का विजन ही देश को चलाता था, लेकिन नयी परिथितियो में देश के विस्तार के अनुकूल नेताओं का विस्तार न तो हो पाया और ना ही कोई नेता इस विस्तार का हिस्सा बने बगैर देश की नब्ज को पकड़ पाया। उल्टे समूची राजनीति ही देश के विस्तार में छोटी पड़ती गयी क्योंकि लोगो की जरुरत से न नेता जुड़ा न राजनीति बल्कि अपनी जरुरत के लिये लोगो को जोडने की पहल शुरु हुई। इसलिये इसबार पीएम हर कोई बनना चाहता है क्योंकि पीएम बनकर देश चलाना नहीं है बल्कि अपने अंतर्विरोधो से चलते हुये देश में पीएम बनकर निज सुकुन के आतंक तले मरे हुये देश का सबसे बडा टुकड़ा पाना है ।<br /><br />संसदीय लोकतंत्र इससे आगे जाता नही और नेता इससे आगे देश की सोच नहीं सकते।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-17045937875184336322009-03-20T09:24:00.001+05:302009-03-20T09:24:00.184+05:30मिलिनियर मीडियाडॉग-पार्ट 2लेकिन मीडिया का यह पहला चैप्टर है, जो न्यूज रुम से शुरु होता है। दूसरा चैप्टर मीडिया का मतलब बिजनेस और चलाने का मतलब मुनाफा वसूली से जुड़ा है। ये चैप्टर उस न्यू इकॉनमी की देन है, जिसमें न्यूज चैनल के लिये लाइसेंस खरीदने से चौथा पाया होने की शुरुआत होती है। <br /><br />न्यूज चैनल के लिये लाइसेंस का मतलब आपका हाथ-चेहरा । अगला-पिछला सबकुछ सफेद हो । वैचारिक तौर पर सेक्यूलर और लोकतांत्रिक होने की पहचान आपके साथ जुड़ी हो । अपराध या भ्रष्टाचार का तमगा आपकी छाती पर न टंगा हो। जाहिर है यह ऐसी नियमावली है, जिसकी कोई कीमत नहीं लगा सकता और जो लगायेगा वह वसूली भी ऐसी करेगा कि सामने वाले का सबकुछ काला हो, तभी संभव है। तो सरकार के मंत्री से लेकर चढ़ावा लेते बाबूओ की पूरी फौज, एनओसी की मुहर की व्यवस्था आईबी रिपोर्ट से लेकर थाने की रिपोर्ट तक की करा देती है। <br /><br />सवाल है कि किसी के पास न्यूज चैनल का लाइसेंस जब इतने चढ़ावे के बाद आ ही जाता है तो वह अपनी मुनाफा वसूली कैसे करेगा । पहला तरीका है लाइसेंस को एक साल के लिये किसी बेहतरीन पार्टी को बेच देना। कीमत एक करोड़ से लेकर कुछ भी । यानी सामने वाला लाइसेंस लेकर बाजार को किस तरह दुह सकता है....यह उसकी काबिलियत पर है । और अगर लाइसेंस के जरुरतमंद की पहुंच-पकड़ राजनीतिक पूंजी से जुड़ी होगी तो लाइसेंस की कीमत पांच करोड़ तक लगती है। न्यूज चैनल के कई लाइसेंस इस तरह खुले बाजार में लगातार घुम रहे हैं। कुछ खरीदे भी गये और चल भी रहे हैं। लेकिन सवाल है इस हालात में न्यूज रुम को भी करोड़ों के वारे न्यारे करने हैं...और चूकि चैनल का प्रोडक्ट खबर है तो खेल को पूंजी में बदलने का खेल यहीं से शुरु होता है। सबसे पहले खबर को कवर करने वाले पत्रकारों को चैनल का मंच देकर वसूली के नियम कायदे बता दिये जाते हैं। उसके भी दो तरीके हैं। खबरों को दिखाने के बदले सीधे पांच से पचास लाख तक का टारगेट सालाना पूरा करना । या फिर राज्यों के ब्यूरो को पचास लाख से लेकर एक करोड़ तक में बेच देना। यह तरीका सीधे खबरों को बिजनेस में फुटकर तौर पर भी बदलना माना जा सकता है।<br /><br />लेकिन संभ्रात तरीका किसी राजनीतिक दल या किसी राज्य सरकार से सौदेबाजी को मूर्त रुप में ढालना है । यह सौदा चुनाव के वक्त जोर पकड़ता है। जिसमें पांच करोड़ से लेकर पचास करोड़ तक सौदा हो सकता है। राज्यों के चुनाव में यह सौदा राजनीतिक दलों में खूब गूंजता है। पिछले चुनाव में जो पांच राज्यों के चुनाव हुये, उसमें कई चैनलों के वारे न्यारे इसी सौदे से हो गये। चुनाव चाहे लोकतंत्र की पहचान हो लेकिन चुनाव का मतलब लोकतांत्रिक तरीके से पूंजी और मुनाफा वसूली की सौदेबाजी का तंत्र भी है, जो सभी को फलने फूलने का मौका देता है । लेकिन यह तंत्र इतना मजबूत है कि इसके घेरे में समूचा मीडिया घुसने को बेताब रहता है। यानी यहां टीवी या अखबार की लकीर मिट जाती है। लोकतंत्र में चुनाव का मतलब महज यही नहीं है, मायावती टिकटो को बेचती हैं या फिर बीजेपी और कांग्रेस में पहली बार टिकट बेचे गये। असल में चुनाव में खबरों को बेचने का सिलसिला भी शुरु हुआ। इसका मतलब है अखबारों में जो छप रहा है, न्यूज चैनलो में जो दिख रहा है, वह खबरें बिकी हुई हैं। इसके लिये भी रिपोर्टर को टारगेट दिया जाता है। और संस्थान संभ्रात है तो हर सीट पर सीधे चुनाव लड़ने वाले प्रमुख या तीन उम्मीदवार से वसूली कर एडिटोरियल पॉलिसी बना देता है कि खबरो का मिजाज क्या होगा। यह सौदेबाजी प्रति उम्मीदवार अखबार के प्रचार प्रसार और उसकी विश्वसनीयता के आधार पर तय होती है, जो एक लाख से लेकर एक करोड़ तक होती है। मसलन उत्तर प्रदेश के बहुतेरे अखबार इस तैयारी में है कि लोकसभा चुनाव में कम से कम पचास से सौ करोड़ तो बनाये ही जा सकते हैं। बेहद रईस क्षेत्र या वीवीआईपी सीट की सौदेबाजी का आंकलन करना बेवकूफी होती है क्यकि उस सौदेबाजी के इतने हाथ और चेहरे होते हैं कि उसे नंबरो से जोड़कर नहीं आंका जा सकता है। इन परिस्थितियो में खबरों को लिखना सबसे ज्यादा हुनर का काम होता है, क्योंकि खबरों को इस तरह पाठको के सामने परोसना होता है, जिससे वह विज्ञापन भी न लगे और अखबार की विश्वसनीयता भी बरकार रहे। मतलब खबरों के दो चेहरे है मगर मकसद एक है। पहला "किस-सीन" सरीखे प्रोग्राम टीआरपी देंगे और समाज को जो लुभायेगा,उसे बिजनेस और मुनाफे में बदला जा सकता है । दुसरा खबर को ही धंधे में बदल दिया जाये, जिससे मुनाफा वसूली के लिये टीआरपी ना देखनी पडी और न्यूज प्रोडक्ट का जामा भी बरकरार रहे । <br /><br />असल में यह परिस्थितियां किसी एक न्यूज चैनल या नेताओं या फिर ब्रांड चमकाने के लिये बाजार से मुनाफा बटोरने भर की नहीं हैं। यह एक पूरा समाज है जो देश को अपने घेरे में लाना चाहता है या फिर अपने घेरे से ही देश की लीक बनाना चाहता है। इन हालात के बीच मीडिया में खबरों के लौटने का मतलब एक ऐसे लोकतंत्र का जाप करना है, जिसमें सत्ता का चेहरा कभी खुरदुरा ना दिखे । क्योंकि चैक एंड बैलेंस की जो थ्योरी संविधान के जरीये लोकतंत्र के हर पाये को एक दूसरे की निगरानी के तहत खड़ा किया गया और अगर साठ साल बाद यही पाये अपने को बचाये रखने के लिये चैक एंड बैलेस का खेल खेल रहे है तो देश की बहुसंख्यक जनता को यह महसूस होता रहेगा कि दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश का वह नागरिक है। और चुनाव के दिन आप वोट नहीं डाल रहे हो तो आप सो रहे हैं का ताना आपको आपकी जिम्मेदारी का एहसास करा कर एक नयी सौदेबाजी में निकल सकता है। वैसे भी खुद को लोकतांत्रिक कहलाने का प्रोगपेंडा सबसे मंहगा सौदा होता है। और इस सौदे के घेरे में जब लोकतंत्र का ही पाया हो तो बात ही क्या है ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-5800351332465535192009-02-04T07:54:00.000+05:302009-02-04T07:54:00.448+05:30संसदीय राजनीति जीने नहीं देगी और लोकतंत्र मरने नहीं देगादुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का तमगा लगाकर जीना आसान काम नहीं है। खासकर लोकतंत्र अगर संसदीय राजनीति की मोहताज हो और संसदीय राजनीति की सत्ता समूचे देश को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाये। लोकतंत्र का मतलब है-हर नागरिक को बराबर अधिकार और सत्ता में भागेदारी के लिये बराबर के अवसर। लोकतंत्र बरकरार रहे, यह देश की संसद और राज्यों की विधानसभा के सदस्यों के कंधों पर सबसे ज्यादा है। जनता अपने जितने नुमाइन्दों को चुनकर संसद और विदानसभा में भेजती है, इनकी संख्या देश की समूची जनसंख्या का दशमलव शून्य शून्य शून्य एक फिसदी से भी कम है।<br />लेकिन इस राजनीतिक लोकतंत्र का विस्तार पंचायत, गांव और जिला स्तर पर चुने जाने वाले करीब अड़तीस लाख सदस्यों तक भी है । संयोग से यह भी देश की जनसंख्या का एक फीसदी नहीं है। लेकिन लोकतंत्र के तमगे का खेल यहीं से शुरु होता है। चुने हुये नुमाइन्दे के घेरे में पहुंचते ही ऐसे विशेषाधिकार मिलते हैं, जो कानून और सुविधा का दायरा एकदम अलग बना देते हैं। इस दायरे में जो एक बार पहुंच गया वह कैसे इस दायरे से अलग हो सकता है। इसलिये कहा भी जाता है कि डाक्टर-इंजीनियर-उघोगपति से लेकर बेरोजगार-अशिक्षित-दलित-पिछड़ा हर कोई राजनेता बन सकता है, लेकिन जो इस राजनीति के घेरे में एकबार आ गया वह कुछ और नहीं कर सकता।<br /><br />जाहिर है लोकतंत्र का पहला पाठ यहीं से शुरु होता है, जिसमें विरासत के जरीये पीढि़यों को सहजने और घर की चारदीवारी में सुरक्षा-सुविधा का ऐसा ताना बाना बुना जाता है जो इस एहसास को खत्म करता है कि सत्ता का मतलब देश और सौ करोड़ लोग हैं। लोकसभा के 545 सदस्यों में से मौजूदा वक्त में पन्द्रह फीसदी सदस्य यानी करीब 80 सदस्य ऐसे हैं, जिनकी पहचान किसी बड़े नेता के बेटे-बेटी या पत्नी-बहू के तौर पर है। संबंधों की फेरहीस्त में संयोग से उन्हीं नेताओं के परिवार के सदस्य अगली कतार में हैं, जिन्होने वाकई सड़क से संसद का रास्ता तय किया। जिन्होंने गांव-खेडे की पगड्डिया समझीं। जिन्होंने देश के मर्म को अपनी धमनियों में दौड़ते देखा।<br /><br />इन नेताओं में से कुछ नेताओं के बच्चे जब बाप की राजनीति के भरोसे सत्ता के दायरे में आ गये तो समझ पैदा हुई लेकिन कईयों ने उस राजनीति को थामा, जिसमें अपना पेट -अपनी जेब के अलावा कुछ समझना मुश्किल हो । अपने अपने घेरे में लोकतंत्र की इस राजशाही का नमूना देखे- गांधी-नेहरु परिवार की नयी पीढी राहुल गांधी, कश्मीर में अब्दु्ल्ला परिवार की नयी विरासत उमर अबदुल्ला । अकाली दल में बादल परिवार के सुखबीर बादल, समाजवादी नेता मुलायम के पुत्र अखिलेश यादव, मराठा नेता शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले । द्रमुक नेता करुणानिधि का बेटा स्टालिन और बेटी कोनीमाझी, हिन्दुओं की सरमायेदार होने का ऐलान करने वाली बीजेपी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह । जनसंघ के जमाने से साईकिल और पैदल लोगों के बीच राजनीति करते हुये देश को अयोध्या की घुट्टी पिलाने वाले कल्याण सिंह के बेटे राजबीर सिंह । जेपी आंदोलन से निकले लालू यादव की पत्नी राबडी देवी । बाबू जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार, हेमवती नंदन बहुगुणा की बेटी रीता बहुगुणा। जसवंत सिंह, मुरली देवडा, पायलट,सिधिया, हुड्डा,शीला दीक्षित सरीखे बडे नेताओं की लंबी फेरहिस्त है जो अपने बच्चों के लिये सत्ता का रास्ता साफ करती हैं।<br /><br />बाला साहेब ठाकरे के राजनीतिक प्रयोग राजशाही अंदाज के विकल्प के तौर पर उभरे लेकिन लोकतंत्र के संसदीय मिजाज ने उन्हें भी अपनी राजनीतिक विरासत बेटे उद्दभ ठाकरे के ही नाम करनी पड़ी। लोकतंत्र की यह समझ पंचायत स्तर तक पहुंचते पहुंचते कैसे एक वर्ग में तब्दील हो जाती है इसका एहसास इसी से हो सकता है कि पिछले दो दशक में गांव-पंचायत-जिले स्तर पर नुमाइन्दे चुने गये उसमें करीब बीस लाख परिवार ऐसे हैं, जिनकी विरासत ही राजनीति को थामे हुये है।<br /><br />दरअसल, तीन स्तरीय संसदीय राजनीति में पंचायत स्तर पर अड़तीस लाख सात सौ के करीब नुमाइन्दे चुने जाते हैं । उपरी तौर पर संसदीय लोकतंत्र की यह समझ सही लग सकती है जिसमें चुनाव लड़ने का रास्ता हर किसी के लिये खुला होता है तो किसी नेता बाप का बेटा भी अगर चुनाव मैदन में हो तो वोट तो जनता को देना होता है । लेकिन संसद या विधानसभा का रास्ता इतना आसान है नहीं, जितना लगता है । राजनीति का महामृत्युंजय जाप सत्ता तक कैसे पहुंचाता है और इसके पीछे की बिसात देश की समूचे शाही तंत्र में किस तरह लोकतंत्र का मुलम्मा चढ़ा कर अपने आप को बचाती है, जरुरी है यह समझना।<br /><br />किसी राजनीतिक दल से चुनावी टिकट की चाहत किसी को भी इसलिये लुभाती है क्योकि राजनीतिक दल के पास संगठन होता है य़ानी इतने लोग होते है जो वोटिग के दिन पोलिंग बूथ पर मौजूद रह कर हर जरुरी काम निपटा सकता है। और लोकसभा चुनाव में हर सीट पर कम से कम चार से पांच हजार का कैडर उम्मीदवार के पास होना ही चाहिये। कैडर इसलिये क्योंकि चुनाव के दिन इन चार से पांच हजार लोगों के सामने दूसरे राजनीतिक दल से सौदेबाजी करने का सबसे ज्यादा मौका होता है। इसलिये प्रतिबद्ध लोग चाहिये ही। किसी भी युवा को आज की तारीख में राजनीति में आने के लिये इस तरह प्रतिबद्द लोगों की फेरहिस्त बनाने में कम से कम दस साल जरुर लगेंगे। यानी जबतक दो आपसी विरोधियों को जनता बारी बारी से चुने और फिर एक ही थैले के चट्टे बट्टे के तौर पर ना देखे। लेकिन समाधान इससे भी नही होता। अब के दौर में पूंजी और मुनाफे के भरोसे सत्ता-राजनीति ने जिस तरह जनता से पल्ला झाडा है उसमें हर चुनावी क्षेत्र में पार्टियों के उम्मीदवार के ऐलान के साथ ही व्यापारी-उघोगपति-दलालपतियों की पोटलिया चुनावी मदद के नाम पर खुल जाती हैं। इसलिये राजनीतिक दल भी अब चुनाव की तारीख के ऐलान से पहले ही उम्मीदवार का ऐलान कर देते हैं, जिससे धन जुगाड़ने में कोई परेशानी ना हो और कौन कौन उनकी पार्टी और उम्मीदवार के नाम पर पोटली खोल सकता है, यह साफ होने लगे।<br /><br />फिर राजनीतिक दल उन्हीं सौदेबाजों के लिये नीतियां गढने और सत्ता की लकीर बनाने में जुटते हैं। चुनावी फंड का व्यापारी-उघोगपति-दलालपतियों से आना और उसे आम वोटरों में लुटने का खेल चुनावी साइकिल की तरह चलता है। जिसे आज की तारीख में देखे तो यह अभी से शुरु हो चुका है। इसमें सत्ताधारियों के उम्मीदवारों को लाभ भी मिलने लगता हैं क्योकि चुनाव की तारीख के ऐलान के बाद से चुनाव आचार संहिता लागू होती है तो उससे पहले ही जीत का चक्रव्यू का सत्ता द्वारा बनाने का खेल चलने लगता है । अगर जनता की भावना सत्ताधारी के खिलाफ तो विपक्षी दल के उम्मीदवार के वारे न्यारे होने लगते हैं। क्योकि राजनीति के उगते सूरज को पूंजी की पोटली से सलाम करने वालो की होड़ लगती है। चूंकि सत्ता संम्भालते वक्त राज्य के लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण पाठ यही होता है कि किसी भी तरह उसकी सत्ता बरकरार रहे। और सत्ता पाने का तरीका पूंजी और मुनाफे की थ्योरी की गलियों से होकर निकलता है, तो समूची कवायद उसी को लेकर होती है।<br /><br />असल में लोकतंत्र की जागरुकता मुनाफे के इर्द-गिर्द किस तरह जा टिकी है, यह बाजार के मुनाफे की समझ और जातियों की राजनीतिक जागरुकता से भी उभरा है। मान जाता था पहले गांव के लोगों में राजनीतिक जागरुकता नहीं थी तो वह अपना वोट बेच देते थे। लेकिन आधुनिक दौर में वोट नही सरकार और सत्ता बिकती है । देश में कौन सी नीति किस औघोगिक घराने को लाभ पहुंचा सकती है, शुरुआती समझ यही से बढ़ी। लेकिन लोकतंत्र में हर किसी की बराबरी की भागेदारी ने हर तबके-जाति में अब उस सौदेबाजी के लंबे मुनाफे के तंत्र को विकसित कर दिया, जिसमें मामला सिर्फ एक बार वोट बेचने से नही चलता बल्कि पांच साल तक सत्ता को दुहने का खेल चलता रहता है। यानी चुनावी लोकतंत्र का मतलब चंद लोगो के लिये नीतियों के जरीये मुनाफे का ब्लैंक चैक है तो एक बडे वोट बैंक के लिये पांच साल तक का रोजगार है।<br /><br />यानी राजनीतिक चुनाव का एक ऐसा तंत्र समाज के मिजाज में ही बना दिया गया है, जिसमें बिछी बिसात पर पांसे तो कोई भी फैंक सकता है लेकिन पांसा उसी का चलता है जिसके हाथ से ज्यादा आस्तीन में पांसे हो। लोकतंत्र के इस चुनावी खेल में सहमति-असहमति मायने नहीं रखती। हर स्तम्भ के लिये खुद को सत्ता की तर्ज पर बनाये और टिकाये रखते हुये अपनी जरुरत बताने का खेल सबसे ज्यादा होता है। आर्थिक नीतियों के फेल होने से लेकर देश की सुरक्षा में लगातार सेंध लगने पर आम जनता के निशाने पर राज्य और राजनीति आयी तो उसे बचाने के लिये न्यायपालिका और मीडिया ही सक्रिय हुआ। कड़े कानून के जरीये काम ना करने की मानसिकता का ढाप लिया गया । शहीदों के परिवारों को नेताओं के हाथों सम्मान दिलवाने के कार्यक्रम के जरीये जनता के आक्रोष को थामने का काम मीडिया ने ही किया। इसको सफल बनाने में औघोगिक घरानों ने कोई कसर नहीं छोडी । विज्ञापन और प्रयोजक खूब नजर आये । आर्थिक नीतियों तले करीब एक करोड़ लोगों के रोजगार जा चुके हैं, लेकिन विधायिका और कार्यपालिका ने न्यायपालिका का आसरा लेकर बेलआउट की व्यूहरचना कुछ इस तरह की, जिससे बाजार व्यवस्था चाहे ढह रही हो लेकिन कमजोर ना दिखे । इसी के प्रयास में कम होते मुनाफे को घाटा और घाटे को बेलआउट में बदलने की थ्योरी परोसी जा रही है।<br /><span class=""></span><br />लेकिन जहां दो जून की रोटी रोजगार छिनने से जा जुड़ी है, उसे विश्वव्यापी मंदी से जोड़कर आंख फेरने की राज्यनीति भी बखूबी चल रही है । इसलिये कोई एक स्तम्भ अगर जनता के निशाने पर आता है तो बाकी सक्रिय होकर उसे बचाते है, जिससे लोतकंत्र का खेल चलता रहे । इन परिस्थितियों में विकल्प का सवाल महज सवाल बनकर ही क्यों रहेगा, इसका जबाब इसी गोरखधंधे में छिपा है कि सभी के लिये एक बराबर खेलने का मैदान नहीं है। लोकतंत्र हर किसी के बराबरी का नारा तो लगाता है लेकिन गैरबराबरी का अनूठा चक्रव्यूह बनाकर। चक्रव्यू का मतलब लोकतंत्र के संसदीय विकल्प को खारिज करते हुये हर किसी को संसदीय राजनीति के घेरे में लाकर हमाम में खड़ा बतलाना से कहीं ज्यादा है । इसीलिये ओबामा के जरीये सपना जगाने की राजनीति तो लोकतंत्र कर सकता है लेकिन कोई ओबामा इस चक्रव्यू को तोड़ पाये इसकी इजाजत संसदीय राजनीति नहीं देती। इसीलिये ओबामा का मतलब या उसको परिभाषित करने का मंत्र महज युवा होने पर आ टिकता है। जो नेताओ की विरासत में राहुल-प्रियंका से लेकर मोदी-मायावती पर ही जा टिकता है। यह राजनीति भूल जाती है कि राष्ट्रपति बनने से पहले तक ओबामा अपनी पढाई के लिये लिये गये कर्ज तक को नहीं चुका पाया था । जो जीने की जद्दोजहद में ही घर-परिवार-समाज-देश हर त्रासदी से रुबरु हो रहा था। और जब दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश के लोगों पर संकट गहराया तो उन्हे ओबामा के संघर्ष में अपनी जीत नजर आयी।<br /><br />लेकिन भारत की संसदीय राजनीति तो अभी भी दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र होने का तमगा छाती में लगाये हुये है इसलिये हर विकल्प का संघर्ष उस संसदीय राजनीति के खिलाफ जायेगा जिसकी चादर में लोकतंत्र को लपेट कर सत्ता बरकरार रखी जा रही है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-86200882687470544242009-01-02T09:39:00.000+05:302009-01-02T09:39:00.902+05:30नये साल में फिर लगाएं नारा – लोकतंत्र ज़िंदाबादसाल नया है, उम्मीद भी नयी होगी। लेकिन जब देश के माथे पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहलाने का तमगा लगा हो तो चुनाव से बड़ा लोकतंत्र कुछ हो नही सकता और इसे बरकरार रखने में दुनिया के सामने सबसे बडी राजनीतिक तानाशाही भी होती होगी। क्योंकि लोकतंत्र के उलट तानाशाही होती है।<br /><br />तो साल नया है। उम्मीदे चाहें जो हो लेकिन नज़रे सभी की आम चुनाव पर ही हैं। क्योंकि चुनाव का मतलब देश में रोजगार का सबसे बड़े धंधे का खेल है। जिसमें अरबों के वारे-न्यारे झटके में हो जाते है और देश नारा लगाता है चुनावी लोकतंत्र जिन्दाबाद। क्योंकि चुनावी राजनीति में जीत ही अगर देश के लोकतंत्र और संविधान की जीत है तो पांच राज्यों के चुनाव परिणाम में लोकतंत्र की राजनीतिक तानाशाही का अक्स छुपा है, यह भी अब खुलकर उभर रहा है। यह माना गया कि आतंकवाद को लेकर बीजेपी की राजनीति कांग्रेस के कुछ ना करने के सामने हार गयी। यह माना गया कि विकास का ढिढोरा न्यूनतम जरुरतों के सामने हार गया। यह माना गया कि महंगाई का दर्द नेताओ के लाभ भरे भरोसे के सामने हार गया। अगर यह सब हुआ है तो चुनावी लोकतंत्र को पूंछ से नही सूंड से पकड़ें।<br /><br />छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा माना जाता है। लेकिन यहां विकास की परिभाषा की लकीर इतनी छोटी है कि तीन रुपये चावल उपलब्ध कराने का ऐलान कर जीत के लिये चावल वाले बाबा का शब्द ‘मुख्यमंत्री’ पर भारी पड़ गया । जिन इलाको में तीन रुपये चावल करीब चालीस लाख परिवारों को मिलने का दावा किया गया है वह इलाका खनिज संपदा से भरा पड़ा है। अगर विकास की लकीर यहां जनता के अनुकूल खींच दी जाये तो समूचे इलाके में यानी करीब सात जिलो में चावल दस रुपये किलो बेच कर राज्य के खजाने पर बिना कोई बोझ डाले हुये भी इन्हीं चालीस लाख परिवारो को रोजगार और पैसा दोनों दिलाया जा सकता है। यानी किसी भी राज्य को चलाने की जो आर्थिक व्यवस्था होती है, उसे लागू किया जा सकता है।<br /><br />लेकिन यहां की बीस से पच्चीस हजार करोड़ से ज्यादा की खनिज संपदा कौडियों के मोल देशी विदेशी उधोगपतियों को दी गयी, जिसकी एवज में राजनीतिक सत्ता को मुनाफे के तौर पर दस से बारह फीसदी मिले और राज्य के खजाने में गये महज तीन फीसदी। अगर यहां विकास की सही लकीर मुनाफे की जगह कल्याणकारी राज्य की समझ के मुताबिक खींची जाये तो अनुमान के मुताबिक पचास हजार करोड़ से ज्यादा का मुनाफा राज्य के खजाने को सिर्फ प्रकृतिक संपदा के जरीये हो सकती है ।<br />लेकिन चुनावी लोकतंत्र में पांच सौ करोड़ का चावल सब पर भारी पड़ जाता है । चुनावी जीत का मतलब सलवा जुडुम को ना सिर्फ मान्यता मिलना है बल्कि नक्सली हिंसा से प्रभावित आदिवासियों के हाथो में हथियार थमाना भी सही है। चुनावी लोकतंत्र में सुरक्षा के लिये खुद ही हथियार लेने की थ्योरी उस राज्य व्यवस्था को ही खारिज कर रही है, जो बताती है कि कानून के दायरे में हथियार से मुकाबला करना राज्य पुलिस और सुरक्षाकर्मियो का काम है।<br /><br />जाहिर है कोई सत्ता सुरक्षा न देने के नाम पर खुद सुरक्षा के लिये हथियार उठाने का नायाब प्रयोग कर अपना वोटबैक बनाकर चुनाव जीत सकती है। यह चुनावी लोकतंत्र की जीत है। दुनिया भर के पच्चीस नोबल विजेताओं की नक्सलियो के हिमायती विनायक सेन को जेल से बाहर निकालने की मांग भी चुनावी लोकतंत्र के आगे हार गयी। राजनीति का पाठ तो यही कहता है कि विनायक मानवाधिकार कार्यकर्त्ता होते तो सत्ताधारियों को हार मिलती। तब तो संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को फांसी देने की मांग बेमानी है । दिल्ली में जब चुनाव प्रचार का आखरी दिन था, उस वक्त मुंबई आंतकवादी हमलों से लहूलुहान थी। 27 नबंवर को दिल्ली के तमाम अखबारो में बीजेपी ने कांग्रेस पर आतंकवाद के सामने नतमस्तक होने का आरोप जड़ा और अफजल गुरु को फांसी तक न दे पाने की सोच को कांग्रेस का राजनीतिक परिहास करार दिया। दिल्ली की हर बड़ी सभा में बीजेपी के तमाम बड़े नेताओं ने अफजल का मामला उठाया। मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार वीके मल्होत्रा ने तो हर सभा में अफजल को लेकर ही बात शुरु की। लेकिन चुनावी लोकतंत्र के आगे संसद पर हमले के दोषी की फांसी की मांग हार गयी।<br /><br />तो क्या अब बीजेपी यह मांग नहीं करेगी। रौशनी की चकाचौंध और फ्लाई-ओवर से लेकर पांच सितारा होटलों की जिंदगी को राहत देती दिल्ली में यमुनापार का नरकीय जीवन हार गया तो क्या पूर्वी दिल्ली की सात सीटों के छह लाख परिवार की न्यूनतम की जुगाड़ की मांग मायने नहीं रखेगी। बटला हाउस एनकाउंटर को लेकर कांग्रेस की कसमसाहट और शहीद पुलिसकर्मी को लेकर सवालो का घेरा सही है, तो क्या मान लिया जाये कि डेक्कन मुजाहिद्दिन का जुमला पुलिस ने गढ़ा। आजमगढ़ के सेक्यूलरवाद को घायल करने का काम एक सोची समझी रणनीति के तहत किया गया। बीजेपी ने समाज के ताने बाने को तार तार करने के लिये चुनाव के ठीक पहले राजनीतिक जुमले गढ़े। जिसकी हार हुई । दक्षिण दिल्ली में गाड़ीवालो की रफ्तार कम कर बीआरटी कारिडोर के जरिये आमलोगो की सार्वजनिक सवारी बस की रफ्तार को बढाने की जो थ्योरी शीली दीक्षित ने परोसी, क्या वह सही है। एक तरफ दिल्ली का मतलब रफ्तार और दूसरी तरफ न्यूनतम की लड़ाई । चुनावी लोकतंत्र का यह कौन सा समाजवाद है, जिसमें बीजेपी कॉरिडोर का विरोध करती है और यमुनापार के दर्द को उबारती है। वहीं कांग्रेस बीआरटी के साथ खड़ी होती है और मगज बीस लाख लोगों के लिये दिल्ली को पांच सितारा में बदलने का ख्वाब भी परोसती है। दिल्ली में लोगो की सुरक्षा दिल्ली सरकार नही कर सकती है इसलिये पूर्ण राज्य का दर्जा की मांग ही बेमानी है। इसे दस साल से सत्ता में बैठी शीला दीक्षित ने माना और लोगों ने हाथो हाथ ले लिया। जबकि, बीजेपी ने उलट राग दिया कि जो केन्द्र किसी को सुरक्षा नहीं दे सकता उसके पास दिल्लीवालो की सुरक्षा कैसे छोड़ी जा सकती है। बीजेपी ने पूर्ण राज्य की मांग चुनावी मैनिफेस्टो में रखा। वह चुनाव हार गयी। तो सुरक्षा केन्द्र ही देगा। लेकिन जहां राज्य ने सुरक्षा के बदले गोली दी उसका क्या होगा ।<br /><br />राजस्थान में गुर्जरो पर आरक्षण की मांग को लेकर नौ बार गोलियां चलीं। सौ से ज्यादा परिवारों में मातम मना। किसी का बच्चा मरा, किसी का पति । लेकिन चुनावी लोकतंत्र के सामने गोली का दर्द मलहम में बदल गया। गुर्जर बहुल इलाकों में अस्सी फीसदी सीटों पर उसी महारानी को जीत मिली जो आंदोलन के दौर में बातचीत करने तक से तकराती रही। आंदोलन की हिंसा में रेलवे को सौ करोड़ से ज्यादा का चूना लगा और देश को दो हजार करोड़ से ज्यादा का । हांलाकि महारानी गद्दी गंवा बैठी लेकिन उसकी वजह कांग्रेस का लोकहित का नारा या खालीपेट को भरने के लिये कोई शिगूफा काम नही किया बल्कि चुनावी लोकतंत्र में जीत के लिये संगठन और साथी-प्रभावी नेता का दगा देना ही रहा। भैरोसिंह शेखावत से लेकर महेशप्रसाद तक और आरएसएस के संगठन का रुठना ज्यादा मायने रहा। राज्य के करीब छह दर्जन योजनाओ को पांच साल के दौर में अमली जामा पहनाने का जिम्मा महारानी ने उठाया। पूरा कोई नहीं हुआ । इन पर पचास लाख करोड़ का खर्च आंका गया। कितना खर्च हुआ वह तो पांच साल के बजट में भी उभर नहीं पाया लेकिन कांग्रेस की माने तो पांच हजार करोड़ से ज्यादा का घपला हुआ। यानी अलग अलग योजनाओं में भ्रष्टाचार की यह कीमत कांग्रेस ने लगायी। लेकिन यहां समझना ये भी होगा कि पांच साल पहले हुये चुनाव में कांग्रेस की सरकार पर बीजेपी ने कमोवेश इतने ही रुपये का घपला करने का आरोप उसके शासनकाल में लगाया था । तब सत्ता बदली और अब भी सत्ता बदली। इस इधर उधर के खेल में तीन साल पहले आयी बाढ़ का मुद्दा चुनावी लोकतंत्र तले दब गया। रेत के टीलो पर जिन्दगी बचाने वाले हजारों राजस्थानी परिवार यह समझ ही नही पाये कि अगर फिर पानी आ जाये तो बचने का उपाय क्या है।<br /><br />राजनीतिक सहमति की डोर कैसे जिन्दगी लीलती है, यह जैसलमेर सरीखे जगहों पर बीजेपी-कांग्रेस के भाषणो में दिखा जो बताने को तैयार नही थे कि फिर बाढ आयेगी तो उससे बचने के उपाय वह पहले से कर देंगे। दोनो ने कहा भगवान ही जमीन पर आ जाये तो कोई क्या करे। रेगिस्तान की सरलता चुनावी लोकतंत्र तले कैसे हारी यह रोजगार मुहैया ना करा पाने और सत्ता में लौटने पर भी ना कर पाने की डोर में बीते दो दशक में बार बार उभरा । जातियो का दर्द कैसे लोगों को जुटा देता है और सबसे बडी सुरक्षा जातीय सुरक्षा होती है, जिसपर सत्ता का लेप चढ़ जाये तो मुनाफे के वारे-न्यारे किये जा सकते हैं, यह पाठ राजस्थान के चुनावी लोकतंत्र ने जतला दिया। लेकिन जातीय राजनीति का पाठ धर्म के आगे नतमस्तक हो तो क्या भी चुनावी लोकतंत्र की जीत होगी।<br /><br />मध्य प्रदेश ने यह पाठ नये तरीके से पढ़ाया । पांच साल पहले बीजेपी की जो नेता भगवा पहन कर बीजेपी को सत्ता में लेकर आयी, पांच साल बाद वही उमा भारती खुद हार गयी। तो क्या पार्टी से बड़ा कोई नही होता है । अगर ऐसा हो तो इस चुनाव में दर्जनो निर्दलीय कैसे जीत गये। या फिर जिस राजधर्म का पाठ उमा भारती पढ़ा रही थीं, उसमें पांच साल में ही जंग लग गयी। इतना ही नही, उमा भारती के दौर में जो सीटें बीजेपी ने जीती थीं, उसमें से तीन दर्जन सीट शिवराज सिंह चौहान गंवा बैठे । लेकिन डेढ़ दर्जन कांग्रेस से उस दौर की झटक लीं, जो भगवा चादर ओढ कर उमा के साथ पांच साल जाने को बिलकुल तैयार नही थे। अब अगर चुनावी लोकतंत्र में नेता मायने रखता है तो मध्यप्रदेश में कभी दस साल तक कांग्रेस की कमान संभालने वाले दिग्गिविजय सिंह रायगढ की छह सीटे भी कांग्रेस की झोली में ना डलवा सके । कमलनाथ-सिंधिया-पचौरी का भी यही हाल अपने अपने जिले छिंदवाडा-ग्वालियर-भोपाल में हुआ। अर्जुन सिंह सरीखा शख्स भी अपने जिले की सिर्फ तीन सीटों पर ही कांग्रेस को जितवा सका। मध्यप्रदेश में पिछले पांच साल के दौर में ना सिर्फ प्रतिव्यकित आय में कमी आयी बल्कि देश के उन पिछड़े राज्यों की फेरहिस्त में आ गया, जहां पूरा भोजन सभी को नहीं मिलता। रोजगार के साधनों में बारह फीसदी तक की कमी आयी। आदिवासी बहुल छह जिलो में साफ पानी,पूरा खाना और काम तीनो से राज्य सरकार मुंह मोड़े हुये है। कुल बारह योजनाये इन इलाको के लिये बनी लेकिन पूरा होना तो दूर किसी योजना का असर आदिवासियों के जीवन पर नहीं है। उल्टे रोजमर्रा का जीवन और कमजोर हुआ है लेकिन वहां शिवराज ने चुनावी जीत हासिल की।<br /><br />जाहिर है यह सवाल मिजोरम को लेकर भी उठ सकता है कि क्षेत्रिय समझ को खारिज कर कांग्रेस को जिता कर मिजोरम मुख्यधारा से जुड़ना चाहता है। आंदोलन के जरीये समाधान मुश्किल है। चुनावी लोकतंत्र के आगे मिजो आंदोलन बेमानी साबित हो गया है तो अब आंदोलन खत्म हो जाना चाहिये। जाहिर है चुनावी लोकतंत्र में जीत का मतलब सत्ता है और हार का मतलब कुछ भी नहीं। तो कुछ भी नहीं के सामने विकल्प क्या होंगे और सत्ता को कुछ भी करने की जरुरत क्या है। यह सवाल इसलिये जरुरी है कि महज नब्बे दिनो के बाद इसी तरह के मुद्दे समूचे देश के सामने तमाम राजनीतिक दल फिर उठा रहे होंगे। आम चुनाव लोकतंत्र का फाइनल होता है । तो नेता और मुद्दे भी आखिरी लड़ाई लड़ रहे होते हैं। यह माना जाता है कि उस वक्त की जीत देश की धारा तय करती है, लेकिन जब चुनावी लोकतंत्र ही देश की धारा से न जुड़ी हो तो क्या हम नारा लगा सकते है लोकतंत्र जिंदाबाद। लेकिन नये साल में सिर्फ और सिर्फ आपको यही कहना होगा चुनावी लोकतंत्र जिन्दाबाद।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-90445284745713425412008-11-16T10:08:00.003+05:302008-11-16T10:14:56.543+05:30मस्त लोगों के मरे हुये मन<p>नोट-आज 16 नवंबर, प्रेस दिवस है। ये लेख उसी उपलक्ष्य में लिखा गया है।<br /> </p><p>6 जून 1981 को बिहार की बागमती नदी में समस्तीपुर-वनमंखी पैसेंजर गाड़ी के सात डिब्बे टूट कर गिर गये । उस समय दिनमान के संपादक रघुवीर सहाय ने अपने संपादकीय में लिखा-<br />" रेल दुर्घटना की खबर ने उन्हे छोड़, जिन के अपने सगे उस गाडी में थे, किसी को विचलित नहीं किया।" संपादक के नाम एक ऐसे पत्र को दिनमान की कवर स्टोरी का हिस्सा बनाया, जिसमें इस घटना को एक भयानक राष्ट्रीय विपत्ति बताया गया था। यह वाकया इसलिये याद आ गया दो महीने पहले बिहार में ही कोसी नदी ने जब अपनी धारा बदली तो सात जिलो के दो लाख लोगो को लील लिया। लेकिन किसी अखबार-पत्रिका या न्यूज चैनल की कवर या मुख्य स्टोरी यह तब तक नहीं बन पायी जब तक प्रधानमंत्री ने इसे राष्ट्रीय विपदा नही बताया।<br /><br />दिल्ली के किसी समाचार-पत्र को पढ़ कर बिहार के हालात की जानकारी किसी को नही मिल सकती थी । न्यूज चैनलों ने भी एक हफ्ते तक प्राइम टाइम में इस खबर को छूने की हिम्मत नही दिखायी। उन्हें इसकी टीआरपी न मिलने का डर था। यानी 1981 के बाद देश के विकास और मीडिया के आधुनिकीकरण में लगे 27 सालो में हर शख्स अकेला ही होता जा रहा है। 27 साल पहले हजारों अकेले आदमियों की मौत हुई थी और 2008 में लाखों अकेले आदमी मरे नहीं लेकिन इस या उस दौर में सरोकार का मीडिया, मुनाफे के मीडिया में बदल गया।<br /><br />दरअसल खुले बाजार ने महज मुनाफे की थ्योरी को समाज और आर्थिक तौर पर ही नही परोसा बल्कि राजनीति और मीडिया को एक साथ सरोकार की भाषा छुड़वाने की स्थितियां बना दीं। इस दौरान मीडिया सबसे रईस होकर उभरा तो उसके भीतर सत्ता के करीब होने की ललक बढ़ी। लेकिन बाजार व्यवस्था का प्रभाव महज बिजनेस के रुप में मीडिया पर पड़ा, ऐसा भी नही है । लोकतंत्र का जो पाठ संसदीय राजनीति ने नीतियों के जरीये देश के सामने रखा, उसमें निजी शब्द हावी होता चला गया। खासकर निजी का मुनाफा ही निजी की सुरक्षा हो गयी । सत्ता के सामने अपने हक की लड़ाई के मायने तक बदलने लगे। जब आम आदमी का विकास एक दूसरे के हक को छीनकर परिभाषित होने लगा तो जिसका पेट भरा था या जो मुनाफे की पायदान पर सबसे ऊपर खड़ा था, उसने अपने आपको लोगो से काटकर सत्ता के अनुकुल करना ही बेहतर समझा। हकीकत मे लोकतंत्र की यह परिभाषा राज्य ने ही गढ़ी जिसने अपनी भूमिका एजेंट भर की रखी तो मीडिया भी इससे हटकर नही सोच पाया ।<br /> </p><p>1991 से लेकर 2008 तक के दौरान आर्थिक सुधार को लेकर जो भी नीतियां राज्य ने अलग अलग सरकारों के दौर में रखीं, उसे बिजनेस मीडिया {आर्थिक अखबार-बिजेनेस चैनल } ने कभी खारिज नही किया । मीडिया भी नीतिगत तौर पर सत्ता के करीब ही हुआ क्योंकि लोकतंत्र की परिभाषा बदली थी तो चौथे स्तभं को लेकर भी नयी व्याख्या सरकार के नजरिये से नजर मिला कर चलने की ज्यादा हो गयी। मीडिया को आर्थिक तौर पर चलाते हुये मुनाफा बनाना पूरी तरह सत्ता पर टिका क्योंकि मीडिया इस डेढ़ दशक में सरोकार के सूचना तंत्र से ज्यादा सूचना तंत्र का बिजनेस बन गया ।<br /><br />इसकी सुरक्षा मीडिया को मुनाफे के तौर पर मिली यह भी सच है। यह समझ ठीक उसी तरह विकसित हुई, जैसे थोड़ी से भी सुरक्षा पाते ही एक भारतीय आदमी अपने को इतना अधिक सत्ता के नजदीक समझने लगा है कि उसका सोचने का ढंग उसी तरह मानव विरोधी और निर्मम हो जाता है, जैसा शासक वर्ग का है। इस के पीछे कही ना कही यह विचारधारा भी काम कर रही है कि देश की सामाजिक व्यवस्था को न्याय के पक्ष में बदलने में आम नागरिको का कोई हाथ हो नही सकता । वह तो केवल सत्ता के शीर्ष स्थानों पर बैठे लोगो द्रारा बदली जायेगी। जो लोग समाज को बनाने में अपने मौलिक अधिकारो को छोड़ चुके हैं, वे सह्हदय भी नही हो सकते । यही होंगे तो केवल अपनी इकाइयों के साझीदार के लिये, जाति के लिये, संप्रदाय के लिये या परिवार के लिये होगे।<br /><br /> मीडिया इस समझ से अछूता है ऐसा भी नही है। इसलिये इस दौर में जिस तरह की खबरों को परोसा जा रहा है या जिस तरह से परोसा जा रहा है वह निजी मुनाफे और सत्तानूकुल बने रहने के सच से हटकर कतई नहीं है। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि राष्ट्र की संपत्ति से लेकर औघोगिक और सामरिक समृद्दि तक में देश के लोगों की और संस्थाओ की भागेदारी गायब हो रही है। वह खुले बाजार की तरह सीमापार की करेंसी तक पर जा टिकी है। मीडिया भी इससे अछूता नही है। एफडीआई का कितना फीसदी मीडिया के विस्तार में लगाया जा सकता है, यह सरकार और मीडिया के बीच समझौते का नया पहलू है।<br /><br />शायद इसीलिये किसानों की आत्महत्या से लेकर आंतकवाद छाया और उस पर सांप्रदायिक राजनीति के आसरे सत्ता चमकाने के तथ्यों को नजरअंदाज कर बाजार की शानोशौकत से लेकर हंसी ठठा का खेल अखबारों से लेकर न्यूज चैनलो में नजर आता है। उसमे यह कहने से गुरेज नही किया जा सकता कि मीडिया के मन में समाज और राष्ट्र की वह कल्पना मर चुकी है, जिसमें यह संभव हो की सत्ता के संवेदनहीन होने पर मीडिया की खबर समूचे देश को सचेत कर दे।<br /></p>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com21tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-7081048984973240832008-10-20T08:20:00.003+05:302008-10-20T08:25:11.815+05:30अमेरिका में बाजार हारा है, भारत में लोकतंत्रआर्थिक मंदी को लेकर दुनिया की नामी गिरामी कंपनिया दिवालिया होने की राह पर हैं। असर अमेरिका से भारत तक में नज़र आ रहा है। यह सवाल भी उठ रहा है कि कल तक जो फार्मूले वित्तीय इंजीनियरिंग का कमाल थे, आज वही खलनायक साबित हो चुके हैं। हीरो का खलनायक में बदलना उस व्यवस्था को कैसे बर्दाश्त हो सकता है जो खुद खलनायकी के अंदाज में हीरो की भूमिका में जी रही हो। इसलिये सवाल यह नहीं है कि बुश से लेकर मनमोहन सिंह तक उसी फार्मूले को जिलाने में लगे हैं, जो बाजार व्यवस्था को चलाते हुये खुद फेल हो रहा है। असल में संकट विचारधारा की शून्यता का पैदा होना है।<br /><br />समाजवादी थ्योरी चल नहीं सकती, सर्वहारा की तानाशाही का रुसी अंदाज बाजार व्यवस्था के आगे घुटने टेक चुका है और अब बाजार व्यवस्था की थ्योरी फेल हो रही है। इसलिये संकट मंदी से कहीं आगे का है। नया सवाल उस राजनीतिक व्यवस्था का है, जिसमें विचारधारा को परोस कर लोकतंत्र की दुहायी दी जायेगी। यह विचारधारा कौन सी होगी? <br /><br />अगर भारतीय राजनीति को इस बात पर गर्व है कि अमेरिकी व्यवस्था से हटकर भारतीय व्यवस्था है , तो फिर भारतीय व्यवस्था के आधारों को भी समझना होगा जो अमेरिकी परिपेक्ष्य में फिट नहीं बैठती हैं। लेकिन अपने अपने घेरे में दोनों का संकट एक सा है। मंदी का असर अमेरिकी समाज पर आत्महत्या को लेकर सामने आया है और भारत में कृषि अर्थव्यवस्था को बाजार के अनुकुल पटरी पर लाने के दौर में आत्महत्या का सिलसिला सालों साल से जारी है। <br /><br />दरअसल, जो बैकिंग प्रणाली ब्रिटेन और अमेरिका में फेल हुई है या खराब कर्जदारों के जरिए फेल नज़र आ रही है , कमोवेश खेती से लेकर इंडस्ट्री विकास के नाम पर भारत में यह खेल 1991 के बाद से शुरु हो चुका है। देश के सबसे विकसित राज्यों में महाराष्ट्र आता है, जहां उघोगो को आगे बढ़ाने के लिये अस्सी के दशक से जिले दर जिले एमआईडीसी के नाम पर नये प्रयोग किये गये। इसी दौर में किसान के लिये बैकिग का इन्फ्रास्ट्रक्चर आत्महत्या की दिशा में ले जाने वाला साबित हुआ।<br /><br />अमेरिका की बिगडी अर्थव्यवस्था से वहां के समाज के भीतर का संकट जिस तरह अमेरिकियो को डरा रहा है, कमोवेश यही डर महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके के किसानों में उसी दौर में बढ़ा है, जिस दौर में भारत और अमेरिकी व्यवस्था एकदूसरे के करीब आए। दोनों देशों का आर्थिक घेरा अलग अलग है, समझ एक जैसी ही रही। <br /><br />बीते दस साल में विदर्भ के बाइस हजार से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है । लेकिन इसी दौर में विदर्भ में उघोगपतियो की फेरहिस्त में सौ गुना की बढोतरी हुई है । इसकी सबसे बडी वजह उघोगों का दिवालिया होना रहा है । लेकिन फेल या दिवालिया होना उघोगपतियो के लिये मुनाफे का सौदा है। नागपुर शहर से महज अठारह किलोमिटर दुर हिगंना में अस्सी के दशक में महाराष्ट्र औघौगिक विकास निगम यानी एमआईडीसी वनाया गया। छोटे-बडे करीब दो सौ उघोगो को सस्ते में जमीन समेत इन्फ्रास्ट्रक्चर की सुविधा दी गयी। नब्बे का दशक बीतते बीतते करीब नब्बे फिसदी उधोगों ने खुद को फेल करार दिया। उघोगो के बीमार होने पर कर्ज देने वाले बैको ने मुहर लगा दी। बैक अधिकारियो के साथ सांठ-गांठ ने करोड़ों के वारे न्यारे झटके में कर दिये। दिवालिया होने का ऐलान करने वाले किसी भी उघोगपति ने आत्महत्या नहीं की। उल्टे सभी की चमक में तेजी आयी और सरकार भी नही रुकी।<br /><br />नब्बे के दशक के आखिरी होते होते नागपुर से 25 किलोमीटर दूर इक नयी जगह एमआईडीसी के लिये तैयार की । बुटीबोरी नाम की इस जगह में इस बार करीब साढे चार सौ उघोगो को जमीन दी गयी । हिगना की जमीन पर अब बिल्डरो का कब्जा है । 40 फीसदी उघोगपति खुद बिल्डर हो गये तो 60 फीसदी उघोगपतियों ने अपने अपने मुनाफे को देखते हुये जमीन की उपयोग खूब किया । हिगना की जमीन पर पहले खेती होती थी । फिर औघोगिक विकास के नाम पर किसानों से जमीन ली गयी । अब वहीं कंक्रीट के जंगलो का बनना देखा जा सकता है। यही स्थिति नये एमआईडीसी की है। बुटीबोरी का इलाका खेती के लिये ना सिर्फ अर्से से पहचान वाला रहा बल्कि संतरे के बगान के तौर पर इस इलाके की पहचान रही । वहीं अब यहां उघोग कुकुरमुत्ते की तर्ज पर उगने को तैयार है।<br /><br />लेकिन विदर्भ में ही उघोगो को लेकर कैसे कैसे सपने संजोये जा सकते है, यह खेती के फेल होने से नही समझा जा सकता । विदर्भ में उघोगों के फेल होने का मतलब है करोड़ों का कर्ज झटके में साफ। मसलन हरिगंगा एलाय एंड स्टील लिंमेटेड ने साढे बारह करोड़ आज तक नही चुकाये। प्रभु स्टील इंडस्ट्री लिमिटेड ने 9.69 करोड रुपये नही चुकाये । रविन्द्र स्टील इंडस्ट्री लिमिटेड ने 26.31 करोड रुपये नही चुकाये । अगर विदर्भ के उघोगपतियो की फेरहिस्त देखे तो 75 उघोगों पर बैको का करीब तीन सौ करोड का कर्ज है। यह कर्ज 31 मार्च 2001 तक का है । बीते सात साल में इसमे दो सौ गुना की बढोतरी हुई है। उघोगो के लिये कर्ज लेने वाले कर्जदारो को लेकर रिजर्व बैक की सूची ही कयामत ढाने वाली है। जिसके मुताबिक सिर्फ राष्ट्रीयकृत बैकों से दस लाख करोड से ज्यादा का चूना देश के उघोगपति लगा चुके है । जिसमे महाराष्ट्र का सबसे ज्यादा 90 हजार करोड रुपये का कर्ज उघोगपतियो पर है। लेकिन किसी भी उघोगपति ने उस एक दशक में आत्महत्या नही की, जिस दौर में महाराष्ट्र के 42 हजार किसानो ने आत्महत्या की । <br /><br />इसी दौर में नागपुर को ही अंतर्राष्ट्रीय कारगो के लिये चुना गया। इसके लिये भी जो जमीन विकास के नाम पर ली गयी वह भी खेतीयोग्य जमीन ही है। करीब पांच सौ एकड खेती वाली जमीन कारगो हब के लिये घेरी जा चुकी है। कुल दो हजार परिवार झटके में खेत मजदूर से अकुशल मजदूर में तब्दील हो चुके है । शहर से 15 किलोमीटर बाहर इस पूरे इलाके की जमीन की कीमत दिन-दुगुनी रात चौगुनी की रफ्तार से बढ रही है। नागपुर शहर देश के पहले पांच सबसे तेजी से विकसित होते शहरो में से है। कारगो हब ने इलाके के किसानो में एक नयी उम्मीद पैदा की है, किसानों को लगने लगा है परियोजनाये और भी आयोगी। वह किसान खुश हैं, जिनकी जमीन कारगो के साथ हवाईअड्डे को भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बनाने-बढाने के घेरे में आ रही है। आंदोलन का नया चेहरा भी नजर आ रहा है। किसान मुआवजे की रकम बढाने के लिये एकजुट हैं। कल तक की पच्चतर हजार की जमीन की कीमत बाजार भाव में पच्चीस लाख तक पहुच चुकी है । अलग अलग योजनाओ के बीच किमत पचास लाख एकड़ तक जा रही है । ऐसे में किसानो की आत्महत्या रुकेगी या टलेगी इसे किसान ही यह जानते-समझते हुये कयास लगाने लगे है कि देश में किसानी का युग बीत रहा है। नया युग मुआवजे और राहत में सौदेबाजी कर जीवन काटने का ही है, क्योकि इन इलाको में घूम कर आप इस बात का एहसास कर सकते है कि देश का प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री कौन है हर किसान जानता है और किसान आत्महत्या करते रहे इसके लिये जमीन तैयार करने वाले कर्मचारी-अधिकारी-नौकरशाह-नेता-पुलिस हर कोई बात बात में मनमोहन सिंह और चिदंबरम का नाम यह कह कर लेने से नहीं चुकते की यह तो उन्ही का आर्थिक सुधार है । इतने प्रचारित पीएम और वित्त मंत्री पहले कहां हुये है। जहां घर-घर में किसान आत्महत्या की तरफ बढे तो उसके पूरे परिवार ही नही समूचे गांव में चर्चा चिदबंरम और मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था की हो।<br /><br />दरअसल, मनमोहन और चिदबंरम महज अमेरिकी सोच के प्रतीक नहीं है । भारतीय समाज के भीतर एक दूसरा समाज बनाकर छलने का मंत्र भी नयी आर्थिक व्यवस्था ने दिया है । चूंकि संसदीय राजनीति सर्वहारा की तानाशाही को लोकतंत्र के खिलाफ मानती है, लेकिन राजनेताओ की तानाशाही को संसदीय व्यवस्था में प्रजातंत्र करार देती है तो आर्थिक संकट में मुनाफा कमाने की थ्योरी भी राजनेताओ के ही पास है । बैकिंग प्रणाली का साथ लेकर उघोगपतियो की फेरहिस्त अगर देश को चूना लगाती है तो राजनेता एकसाथ बैक और ब्रोकर बन कर किसानो की जान से खेलते है। विदर्भ में कांग्रेस-बीजेपी से जुडे नौ राजनेता ऐसे है, जो कर्ज देने के अपने फार्मूले गढ़ते हैं जिससे मुनाफा भी बढे, साथ ही किसान कर्ज संकट से उबरने के लिये उनकी चमकती राजनीति का सबसे बडा औजार बन जाये। जो सरकार आईसीआईसीआई बैंक के बेलआउट को लेकर परेशान हो गयी । निजी बैंक को सुरक्षा देने के लिये वित्तमंत्री से लेकर रिजर्व बैंक तक सामने आ गये वही सार्वजनिक बैंक प्रणाली को राजनीति का दास बनाने से लेकर नेताऔ की सामानातंर व्यवस्था को कैसे बढाते हैं, यह ढहती अमेरिकी व्यवस्था से कही ज्यादा घातक है, लेकिन सरकार आंखे मूंदे है। विदर्भ के 22 ग्रामीण बैंक और 16 सरकारी सहकारी बैंक इलाके के नेताओ के प्रभाव पर चलते है । ग्रामीण इलाको के 25 से ज्यादा सार्वजनिक बैको के ब्रांच में उघोगो को कर्ज देने और कर्ज दिये उघोगो के दिवालिया होने का खाका भी विधायक और सासंदो की मिलीभगत से बैंक ही खिचते है । विकास का अनूठा प्रभाव इस क्षेत्र में बढते उघोगों से सरकार लगाती है । बैंक कर्ज देने और उघोगो को जन्म देने से खुद को जोड़ते हैं । इलाके के विधायक-सांसद-नेता इस गोरखधंधे में अपने कमीशन से राजनीति को आगे बढाते है । और जिनके नाम पर बैकिंग प्रणाली यहा चलती है उनको सुविधा मिलनी तो दूर, उनकी राहत के लिये प्रधानमंत्री राहत कोष से चला पैसा भी उन्ही प्रभावी तबको में बंदरबांट हो जाता है । सरकार ने दिल्ली में तो यह ऐलान करने में देर नही लगायी कि बैक में जमा खाताधारियो और निवेशको का पैसा सुरक्षित है, <br /><br />लेकिन, किसानो को दी गयी राहत रकम किसानो तक पहुंची भी या नहीं इसको लेकर सरकार ने कभी चिंता ना जतायी। सौ करोड से ज्यादा की पूंजी विदर्भ के बैकों में राहत के लिये पहुची लेकिन जिले-दर जिले यह तेजी से दस्तावेजों में बंटती भी चली गयी । सिर्फ बुलढाणा जिले के लिये आये करीब चौदह करोड़ का लाभ लेने के लिये ढाई लाख किसान अब भी बैको के चक्कर लगाते हैं, लेकिन बैको का जबाब है कि राहत पैकेज बंट चुका है। कागजों पर धन लेने वालो के दस्तख्त हैं। हकीकत में जिनके पास किसान क्रेडिट कार्ड हैं, उन्हे रकम मिली है, लेकिन यह कार्ड महज दस फीसदी किसानों के पास है । विकास की इस अनूठी व्यवस्था की वजह से किसानों की आत्महत्या रोकने के लिये केन्द्र सरकार के राहत पैकेज के रिलिज होने के बाद किसानो की हर महीने आत्महत्या 46 से बढकर 58 हो चुकी है । साल भर में विदर्भ के छोटे बडे सवा सौ उघोग दिवालिया हुये है लेकिन इन दिवालिया उघोगो के मालिको की चमक और बढ़ी है । इस चमक ने बैकों को ढाई सौ करोड़ से ज्यादा का चूना लगाया है। <br /><br />सवाल है मनमोहन और चिदंबरम का यह न्यूइक्नामिक्स माडल जो लोकतंत्र का मात दे रहा है वह अमेरिकी मंदी से मात कैसे खा सकता है ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com10