tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-87186428559096545622010-01-28T08:49:00.000+05:302010-01-28T08:49:00.489+05:30सवालों ने बेचैन किया तो जिंदगी की तंग गलियां छोड़ जवाब खोजने मओवादी बना एक इंजीनियर<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">चन्द्रपुर इंजीनियरिंग कॉलेज की दीवार पर चिपके पुलिसिया पोस्टर ने झटके में माओवादियों को लेकर सरकार के नजरिये और सरकारी सिस्टम को लेकर एक पूरी बहस मेरी आंखों के सामने ला कर खड़ी कर दी । पोस्टर में काले घेरे में एक युवक की तस्वीर छपी थी । जिसके ऊपर मोटे काले अक्षर में लिखा था-यह माओवादी है। इसने बाईस पुलिसकर्मियों को बारुदी सुरंग से उड़ाया है, जो इसे पकड़वाने में मदद देगा उसे पचास हजार रुपये ईनाम में दिये जायेंगे। तस्वीर के नीचे लिखा था माओवादी कामरेड मिलिन्द। यह कब से कामरेड हो गया </span><span lang="EN-US" style="mso-bidi-font-family:Mangal;mso-ansi-language:EN-US; mso-bidi-language:HI">?</span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI"> चेहरा वही लेकिन नाम कुछ और था। इस लडके का नाम तो मिलिन्द नहीं था। अठारह साल पहले की वह शाम याद आ गयी, जिसमें प्रोफेशनलिज्म और एजुकेशन विषय पर जबरदस्त बहस हुई थी। </span></p><p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI"><br />दिसंबर </span>1991 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">। चन्द्रपुर इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र महोत्सव में शामिल होने नागपुर से चन्द्रपुर पहुंचा था। सोच कर गया था कि नक्सलवाद तेजी से आंध्रप्रदेश से सटे विदर्भ के चन्द्रपुर जिले में भी घुस चुका है और चन्द्रपुर से सटे छत्तीसगढ़, जो उस वक्त मध्यप्रदेश का हिस्सा था, वहां भी दस्तक दे रहा था</span>,<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-font-family:Mangal; mso-bidi-theme-font:minor-bidi;mso-bidi-language:HI"> </span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">तो उस पर अखबार के लिये रिपोर्ट भी तैयार हो जायेगी। साथ ही कालेज के छात्र नक्सलियों को लेकर क्या सोचते-समझते हैं</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-font-family:Mangal;mso-bidi-theme-font:minor-bidi;mso-bidi-language: HI"><span style="mso-spacerun:yes"> </span></span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">इस पर पर रिपोर्ट तैयार होगी। इंजीनियरिंग कॉलेज पहुचा तो खासा जोश छात्रों में था। गेट पर ही छात्रों का एक झुंड स्वागत में खड़ा मिल गया। अठारह से बाईस साल के बीच के ही सभी छात्र थे। सभी ने अपनी फैक्ल्टी बतायी। नाम बताया। फिर हम कार्यक्रम में शरीक होने कालेज के कान्फ्रेन्स हॉल में चल पड़े। कालेज के अंदर जाते वक्त अचानक एक छात्र पीछे से आया और मुझसे हाथ मिलाकर कर बोला भईया आप भी प्रोफेशनल नहीं हैं। छात्र महोत्सव में मैंने ही यह विषय रखवाया है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">प्रोफेशनलिज्म और एजुकेशन। तुम्हारा नाम। वसंत तामतुम्डे। अच्छा विषय है। लेकिन कुछ उलझा हुआ सा लगता है क्योंकि एजुकेशन तो प्रोफेशनलिज्म की तरफ ही ले जाता है। चलिये भईया इसी पर तो चर्चा करनी है। मजा आयेगा। उसने मजा आयेगा कुछ इस तरह कहा जैसे उसे सब पता था कि क्या होगा।<br /><br />छात्र महोत्सव के दौरान कालेज के प्रिंसिपल भी मौजूद थे और सभी शिक्षक भी। संयोग से चन्द्रपुर की डीएम को भी आमंत्रित किया गया था। लेकिन डीएम महोदय आखिर में पहुंचे जिसका मलाल उन्हें उस वक्त तो रहा ही मेरे ख्याल से आज भी होगा। खैर एजुकेशन के तौर तरीको को लेकर छात्रों के सवाल खुद ब खुद प्रोफेशनलिज्म से जुड़ते चले गये और जब समूची बहस इस दिशा में जा रही थी कि शिक्षा का मतलब ही छात्रों को प्रोफेशनली ढालना हो चुका है और जिसका मतलब अदद नौकरी पर जा टिका है तो मैंने देखा वसंत ताम्तुबडे ने मंच पर आकर सवाल किया कि प्रोफेशनलिज्म का जिन्दगी से कुछ भी लेना देना नहीं होता और शिक्षा का मतलब जिन्दगी है। और मुझे लगता है कि हम जीवन से अमानवीय परिस्थितियों की दिशा में बढ़ रहे है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">जिसे प्रोफेशनलिज्म कह कर हम साथी बेहद खुश हो रहे हैं। फिर उसने सीधे प्रिंसिपल को संबोधित करते हुये कहा कि आपने कालेज के हर फैक्ल्टी में एक डिजार्टेशन तैयार करने का प्रावधान कर रखा है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">और खास बात यह है कि इस डिजार्टेशन को लेकर सिलेबस में साफ लिखा गया है कि विषय और शोध अगर आम जिन्दगी से जुड़ा हो और उसमें बदलते समाज के बिंब भी हो तो ज्यादा अच्छा रहेगा। मैंने विषय लिया चेंजिंग लाइफस्टाइल आफ ट्राइबल्स</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">विद् स्पेशल रेफरेन्स आफ प्रोबलम आफ नक्सलाइट [ आदिवासियों के जीने के बदलते तरीके</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">नक्सल समस्या के मद्देनजर ]। लेकिन मुझे कहा गया कि आदिवासी और नक्सल को एक साथ ना जोड़ें। डीएम साहब यहां आये नहीं हैं</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">अगर होते तो उनसे पूछंता कि नक्सल शब्द में इतना आतंक क्यों भर दिया गया है। क्यों इस मुद्दे पर कोई चर्चा करने तक से प्रोफेसर घबराते हैं। ऐसे में आदिवासियो के सवाल भी हाशिये पर होते जा रहे हैं। कोई आदिवासियों के मुश्किल जीवन को लेकर चर्चा नहीं करना चाहता। उन्होंने इतना नक्सलाइट के नाम पर आतंक क्यो पैदा कर दिया है कि हमारे प्रोफेसर भी इस विषय पर खामोश रहना चाहते हैं जबकि वह जानते है कि उनके इर्द-गिर्द की परिस्थितियां बदल रही हैं। मेरे ख्याल से डीएम से लेकर प्रोफेसर तक प्रोफेशनल हो चुके हैं। मै जानना चाहता हूं कि मुझे भी इन विषयों को छोडकर प्रोफेशनल होना है या फिर जिस समाज में हमें कालेज से निकलकर काम करना है, उस समाज को जानना भी एजुकेशन है।<br /><br />वसंत के इस सवाल ने अचानक कुछ छात्रों के तेवर बदल दिये । मैकनिकल फैकल्टी के आलोक आर्य ने चन्द्रपुर के औघोगिक विकास और ह्यूमन इंडेक्स के घेरे में प्रोफेशनलिज्म और एजुकेशन का सवाल खड़ा किया। चन्द्पुर के दस टाप उघोगों के बारे में सिलसिलेवार तरीके उसने जानकारी दी। संयोग से सभी उघोगपति देश के भी टॉप टेन में थे । फिर उसने उन गावों के बारे में जानकारी रखी जहां उघोग लगे थे। ग्रामीण आदिवासियों के सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों का जिक्र कर आलोक ने विकास को प्रोफेसनलिज्म से जोड़ते हुये आखिर में यह साबित किया कि अंधी दौड में विकास का मतलब मुनाफा है और समूचा तंत्र इसी विकास को प्रोफेशनलिज्म मान रहा है जबकि करीब चालीस हजार से ज्यादा मुफलिस-पिछडे ग्रामीण आदिवासियों का सवाल</span>, <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin; mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language: HI">जिनके पास दो जून की रोटी नहीं है वह शिक्षा के दायरे में भी नहीं हैं और उनके लिये कोई लकीर खिचने का मतलब है इंजीनियरिंग कालेज में तीन लाख रुपये फीस पर पानी फेरना। क्योंकि इससे कैंपस इंटरव्यू में नौकरी नहीं मिलेगी ।<br /><br />उस दिन बहस में कुछ ज्यादा ही तीखे-तल्ख कमेंट प्रिंसिपल की तरफ से भी आये । जिन्होंने कालेज की बंदिशों को इशारों में समझाया । यह कालेज कांग्रेस के नेता का है। लेकिन छात्रों के सवालो ने इस दिशा में अंगुली उठा दी कि मुद्दों को ना प्रोफेशनल चादर से ढका जा सकता है और ना ही प्रशासन-पुलिस की मुश्किलों को आतंक का जामा पहना कर खामोश रहने से मुद्दे दब जाते हैं।<br /><br />लेकिन इस छात्र महोत्सव के करीब सवा साल बाद यानी </span>1993 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">में एक दिन अचानक एक छात्र नागपुर में मेरे अखबार के दफ्तर में पहुंचा और मिलते ही कहा आपने मुझसे पहचाना नहीं</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">मैं चन्द्रपुर इंजीनियरिंग कालेज का छात्र हूं। लेकिन उसे देखते ही मैंने कहा</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">मुझे आपके सवाल याद हैं</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">जो आपने उस महोत्सव के दौरान उठाये थे । हा भईया </span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">मैकनिकल का आलोक आर्य। बताइये नागपुर में क्या काम है। मुझे आपसे कोई काम नहीं है। मैं सिर्फ एंटी नक्सल कमीश्नर से मिलना चाहता हूं। मुझे भी याद आया कि करीब एक साल पहले ही नागपुर में कमीश्नर रैंक के आईएएस अधिकारी की नियुक्ति नक्सल गतिविधियों को रोकने और इस मुद्दे के सामाजिक-आर्थिक तरीके से समझते हुये रिपोर्ट तैयार करने के लिये हुई है। मैंने पूछा काम क्या है। उसने कहा आज ही मिलवा दिजिये तो अच्छा होगा। नहीं तो कल कालेज में क्लास छूट जायेगा। अगले महीने फाइनल भी है । लेकिन मुझे भी जानकारी होनी चाहिये</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">मैं उन्हें क्या कहूंगा। मैं उन्हें चन्द्रपुर की परिस्थितियों से वाकिफ कराना चाहता हूं। हम कालेज के थर्ड ईयर के छात्रो ने चन्द्रपुर की तीन तहसीलों के सामाजिक-आर्थिक परिवेश का जो आंकलन अपने रिसर्च के लिये किया है, उसमें आदिवासियों की कल्याण योजनाओं की हकीकत मै बताना चाहता हूं। क्यों कल्याण योजनाओ को लेकर आपकी रिसर्च में क्या है। कुछ नहीं हमेशा की तरह कोई योजना लागू नहीं हुई है। करीब एक हजार करोड बीते छह साल में पुलिस-प्रशासन के पास चले गये। लेकिन नयी परिस्थितियां इसलिये ज्यादा खतरनाक हैं क्योंकि पचास से ज्यादा वह आदिवासी पुलिस फाइल में नक्सली करार दिये जा चुके हैं, जिनके गांव में हमने बकायदा दस दिनो तक काम किया। उनकी पूरी प्रोफाइल हमारे पास है। सवाल है जो हमारे डिजार्टेशन में ग्रामीण आदिवासी हैं, वह पुलिस फाइल में नक्सली हैं। मै कमीश्नर को बताना चाहता हूं कि यह परिस्थितियां किस खतरनाक समाज का निर्णाण कर रही हैं।<br /><br />मुझे याद है सारी जानकारी एंटी नक्सल कमीश्नर को आलोक आर्य ने बतायी थी करीब तीन घंटे तक। आलोक ने अपना रिसर्च पेपर भी अधिकारियो को सौपा था। जिसके कुछ हिस्से और नक्सल बताकर बंद किये गये आदिवासियो की फेरहिस्त भी हमने अखबार में छापी। लेकिन ठीक </span>18 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">साल बाद जब उसी लडके की तस्वीर बतौर माओवादी उसी कालेज के दीवार पर चस्पां देखी तो इस बारे में और जानकारी के लिये स्थानीय अखबार देशोन्नती की फाइलों को देखा और आदिवासी और नक्सलियो की स्टोरी करने वाले रिपोर्टर सुरेश से बातचीत की। मिलिन्द के बारे जानकारी मिली कि फिलहाल वहीं एरिया कमांडर है और चन्द्रपुर से लेकर दांतेवाडा तक के दो दर्जन से ज्यादा दलम उसके साथ काम करते हैं। मिलिन्द के बारे में और जानकारी तो रिपोर्टर से नहीं मिली लेकिन चन्द्रपुर इंजीनियरिंग कालेज के प्रोफेसर ने इसकी जानकारी जरुर दी कि मिलिन्द और कोई नहीं आलोक ही है। </span>1994-95 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">में कैपंस इंटरव्यू में ही उसे लार्सन एंड ट्रूब्रो में नौकरी मिल गयी थी। लेकिन मिलिन्द ने यह नौकरी एक साल में ही छोड़ दी। उसके बाद चन्द्रपुर में होने वाली माईनिंग को लेकर उसने उस दौर में मजदूरों के सवालों को उठाया। उसी दौर में नक्सली संगठन पीपुल्सवार के संपर्क में आया और मजदूरों को लेकर महाराष्ट्र कामगार किसान-मजदूर संगठन के बैनर तले काम करना भी शुरु किया। लेकिन </span>1997 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">से लेकर </span>2007 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">तक यानी करीब दस साल तक आलोक क्या करता रहा इसकी जानकारी कभी किसी को मिली नहीं लेकिन आलोक से मिलिन्द बनने को लेकर चन्द्रपुर इंजीनियरिंग कालेज के परिसर में किस्सागोई जरुर जारी रही। जिस दौर में नंदीग्राम में माओवादियों की गतिविधियां सामने आयीं, उसी दौर में कई बडी बारुदी सुरंग से पुलिस पर हमले भी हुये और उनके पीछे मिलिन्द का नाम ही आया लेकिन सितंबर </span>2009 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">में जब </span>22 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">पुलिसकर्मियों की मौत चन्द्रपुर-गढचिरोली की सीमा पर हुई तो पहली बार पुलिस ने पोस्टर निकाला और मिलिन्द को पकड़ने वाले को </span>50 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">हजार रुपये ईनाम देने का एलान किया। जानकारी यह भी मिली कि आलोक के बैच के दो और छात्र भी मिलिन्द के साथ हैं। मेरे दिमाग में वसंत ताम्तुमडे का चेहरा रेंग गया । हालांकि उसकी किसी ने पुष्टी नहीं की लेकिन </span>1990-94 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">के बैच को लेकर कालेज के प्रोफेसरो ने भी माना उस वक्त छात्रो ने जो सवाल खडे किये थे, उसके जवाब तो आजतक नहीं मिले लेकिन वह समस्या इस रुप में बड़ी हो सकती है, इसका अंदेशा छात्रो ने जरुर दिया था। यह अलग सवाल है कि किसी ने यह नहीं सोचा था कि कालेज के छात्र ही निकल कर इस धारा में बह जायेंगे।<br /><br />मैकनिकल का छात्र बतौर माओवादी किस तरह का आदिवासियों के मुद्दो को लेकर प्रयोग या हिंसा को अंजाम दे रहा है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">यह भी स्थानीय लोगों से बातचीत में सामने आया । खासकर आदिवासी युवक-युवतियों को बडी तादाद में इस पूरे इलाके में अपने साथ माओवादियो ने जोड़ा है। उसमें भी युवतियों को हाथ में अधिकतर दलम की कमान है। महाराष्ट्र पुलिस के मुताबिक महिलाओं की भूमिका महाराष्ट्र - छत्तीसगढ़ सीमा के दलमो में सबसे ज्यादा बढ़ी है । करीब अस्सी फीसदी दलम की कमान महिलाओं के हाथ में है। क्योंकि यहां धारणा यही है कि आदिवासी समुदायों में महिलाओ की जो स्थिति है उसमें उनके सामने संकट गांव में रहने के दौरान ज्यादा है क्योंकि नयी आदिवासी पीढी से लेकर क्षेत्र में तैनात पुलिस कास्टेबल से लेकर बडे अधिकारियो की हवस का शिकार आदिवासी लडकियां होती हैं। और माओवादियो ने उनके हाथ में बंदूक थमा दी है। ऐसे में करीब नौ सौ से लेकर दो हजार तक ऐसी लडकियां माओवादियों के साथ बंदूक थामे हुये हैं, जो अपनी सुरक्षा के साथ साथ अपने बुजुर्ग मां-बाप की सुरक्षा भी बंदूक तले देख रही हैं। इससे इन क्षेत्रों में अपराध भी कम हुए हैं । आदिवासी लडके भी माओवादियो ते साथ इसलिये जुड़ रहे हैं क्योकि उनके सामने जीने का कोई दूसरा चेहरा नहीं है। समूचे इलाके में रोजगार है नहीं। जो उघोग काम रहे हैं, चाहे वह पेपर मिल हो या सीमेंट फैक्टरी या कोयला खनन</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">सभी में मजदूरो को दूसरे क्षेत्रो से लाने की परंपरा शुरु हो चुकी है। क्योंकि अकुशल मजदूरों का काम ठेके पर नीलाम होता है। कमोवेश सारे ठेकेदार दूसरे प्रांतो के हैं तो मजदूर भी दूसरे प्रांतो से लाये जाते हैं। जिससे किसी तरह से मजदूरी को लेकर कोई कानूनी अड़चन ना आये या किसी तरह का कोई आंदोलन ना खड़ा हो जाये। हर नौ-दस महिनो के बाद मजदूरों को भी बदल दिया जाता है।<br /><br />ऐसे वातावरण में आदिवासी युवकों को अपने साथ जोडने की पहल दो-तरफा हुई है । एक तो सीधे बंदूक उठाकर जंगल जाने को तैयार है और दूसरे गांव में रहकर ही स्वावलंबन की परिस्थितियों को आगे बढ़ाने में लगे हैं। खास कर खेती और बंबू के जरीये कुटीर उघोग का चलन इन क्षेत्रो में शुरु किया गया है। जिसका पैसा बैंको से नहीं तेंदू पत्ता को खरीदने वाले ठेकेदार देता है। क्योकि इन ठेकेदारो पर दलम की बंदूक सटी होती है। इसी तरह से आदिवासी जंगल पदार्थो से जो कुछ भी बाजार में बिकने लायक बनाते हैं, उसके लिये धन का मुहैया इसी स्तर पर उघोगों से लेकर ठेकेदारों तक से माओवादी ही करते हैं। चन्द्रपुर कालेज के प्रो रानाडे और एडवोकेट सालवे के मुताबिक करीब चलीस हजार अदिवासी ग्रामीणों की रोजी रोटी इसे से चलती है। चन्द्पुर के एडवोकेट सालवे के मुताबिक माओवादियों को लेकर पुलिस और अर्द्दसैनिक बलो की नयी पहल ने एक मुश्किल जरुर खडी कर दी है कि माओवादी अपने साथ किसी भी आदिवासी को साथ लेने से पहले जो स्थानीय मुद्दो से दो-चार करवाते थे और एक लंबी ट्रेनिग होती थी</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">उस पर रोक लग गयी है क्योंकि पुलिस ऐसे किसी भी संगठन को अब काम करने की ना तो इजाजत देती है और कोई किसी भी स्तर पर मानवाधिकार से लेकर मजदूरी या रोजगार का सवाल उठाता भी है तो पहले ही राउंड में वह माओवादी करार देकर जेल में बंद कर दिया जाता है। ऐसे में बिना कोई ट्रेनिंग ही बंदूक उठाने की आदिवासी पहल ने बड़ी तादाद में हिंसा को भी बढ़ावा दिया है और खासे आदिवासी मारे भी जा रहे हैं। और यह पूरा इलाके उसी माओवादी कामरेड मिलिन्द के इलाके में आता है जहां उसे पकड़वाने का इनाम पचास हजार रुपये है।</span></p>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com34tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-18311859869892855682009-11-11T12:14:00.000+05:302009-11-11T12:15:35.421+05:30विकल्प देते देते प्रधानमंत्री विकल्प क्यों तालाश रहे हैंनक्सलियों के हिमायतियों ने भी ग्रामीण-आदिवासियों के विकास का कोई वैकल्पिक समाधान नहीं दिया है। यह बात और किसी ने नहीं बल्कि देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कही है। दिल्ली में आदिवासियों के मसले पर जुटे राज्यों के मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों को विकास और कल्याण का पाठ पढ़ाते हुये पहली बार प्रधानमंत्री फिसले और माओवादियों के खिलाफ आखिरी लड़ाई का फरमान सुनाने वाले वित्त मंत्री की बनायी लीक छोड़ते हुये उन्होंने आदिवासियों के सवाल पर सरकार को घेरने वाले और माओवादियो के खिलाफ सरकार की कार्रवाई का विरोध करने वालों पर निशाना साधते हुये कहा कि आदिवासियों के लिये वैकल्पिक अर्थव्यवस्था या सामाजिक लीक किस तरह की होनी चाहिये इसे भी तो कोई सुझाये। <br /><br />जाहिर है, इस वक्तव्य को आसानी से पचाना मुश्किल है क्योंकि आदिवासियो के लेकर बीते साठ वर्षों में हर सरकार दावा करती रही है कि उसकी समझ आदिवासियो को लेकर ना सिर्फ संवेदनशील है बल्कि जो नीतियां वह बना रही है, उससे आदिवासी मुख्यधारा से जुड़ जायेंगे । नेहरु का पहला प्रयास और मनमोहन का अभी का प्रयास आदिवासियों को आधुनिक ड्राईंग रुम में टेबल पर रखकर चिंतन वाला ही रहा है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। 1991 से पहले तक आदिवासियों को लेकर बनायी जाने वाली हर योजना में आदिवासियों को जंगल से जोड़कर ऱखा गया । जंगल गांव की परिभाषा भी तभी तक जीवित रही। <br /><br />लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री के दौर में जब आर्थिक सुधार की बयार बही तो पहली बार 1991 में ही जंगल गांव की मौजूदगी पर सवाल उठे। टाइगर परियोजना से लेकर एसईजेड तक के दो दशक के सफर में जमीन से आदिवासियो को बेदखल करने की योजना और कहीं नहीं बनी बल्कि उसी नार्थ-साउथ ब्लॉक में पेपर तैयार हुआ, जहां आदिवासियों के कल्याण के लिये प्रधानमंत्री के भाषण का पर्चा 4 नवबंर 2009 के लिये तैयार किया गया। यानी बीते 18 सालों में करीब पांच करोड़ आदिवासियों के पलायन या कहे अपनी जमीन छोड़ बेदखल होने के दर्द को प्रधानमंत्री कार्यालय ने कितना समझा, इस पर सवाल उठाना वाजिब नही होगा बनिस्पत प्रधानमंत्री की पीठ थपथपाना कि 4 नवबंर 2009 को उन्हें पहली बार लगा कि विकल्प भी कोई सोच होती है। <br /><br />यह अलग मसला है कि इस दौर में परियोजनाओं पर सत्तर हजार करोड़ खर्च हो गये और आदिवासी कल्याण के लिये महज सत्तर करोड़ ही सरकार को पोटली से निकले। जिस रौ में मनमोहन सरकार आर्थिक सुधार की हवा बहाने को लेकर लगातार बैचेन रही है उसमें विकल्प शब्द भी बेमानी सा लगने लगा। क्योंकि विकास की जो लकीर आर्थिक सुधार तले खिंची गयी उसी का परिणाम है कि गरीब और दलित के घर रात बिताकर राहुल गांधी बार बार देश के सच से कांग्रेस को जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं। राहुल गांधी का कोई भी बयान जो ग्रामीण-आदिवासियों से लेकर गरीब-दलितों को लेकर दिया गया हो, अगर उसके आईने में आर्थिक सुधार की नीतियों को रख लें तो समझा जा सकता है कि अचानक प्रधानमंत्री के जेहन में विकल्प शब्द क्यों आ गया। <br /><br />अभी तक चिदंबरम-मोटेक सिंह अहलूवालिया और मनमोहन सिंह की तिकड़ी ने उन्हीं आर्थिक नीतियों को विकल्प माना, जिसके विकल्प देने का चैलेंज वह नक्सलियों के हिमायतियो से कर रहे हैं। इसका एक मतलब तो साफ है कि जो नीतियां परोसी जा रही हैं, वह बहुसंख्यक समाज के लिये विकल्प नहीं है बल्कि त्रासदी ज्यादा हैं। और इसका दूसरा मतलब यही है कि सरकार के पास विकल्प की अर्थव्यस्था का कोई खाका नहीं है। जो अचानक नक्सली समस्या के साथ जरुरत बनती जा रही है। लेकिन आर्थिक सुधार के दौर में योजना आयोग से लेकर पीएमओ तक में बैठे अर्थशास्त्री कैसे आंखों पर सेंसेक्स और औघोगिक विकास की पट्टी बांध कर काम करते रहे, यह उस किसी से नहीं छुपा है जो बजट से पहले या फिर गाहे-बगाहे सुझावो के साथ नार्थ-साउथ ब्लाक में आमंत्रित किये जाते रहे हैं। <br />"जो सुझाव आप दे रहे है वह तो ठीक है लेकिन इसे लागू कैसे किया जाये यह तो आप बताईये। " हर वैकल्पिक सुझाव के बाद पीएमओ में बैठे अर्थशास्त्रियों या नौकरशाहों की यही आवाज गूंजती है । किसानों की त्रासदी से लेकर बुंदेलखंड की बदहाली और औघोगिक विकास को जन भागीदारी के साथ जोड़ने से लेकर पंचायत स्तर पर स्वरोजगार का सवाल कमोवेश हर बजट से पहले और बाद में लाल पत्थरों के नार्थ-साउथ ब्लाक में हर साल अलग अलग खेमो और अलग अलग विचारधारा के तहत काम करने वाले लोगो ने उठाये। लेकिन इस दौर में हर सवाल का स्वागत कर जब बड़ा सवाल सामने रखा गया कि आपके विचार तो जायज है और सुझाव का भी स्वागत लेकिन इसे लागू कैसे किया जाये तब हर विकल्प छोड़ा पड जाता है कि सरकार का संकट जब लागू तक ना करा पाने का है तो विकल्प शब्द का मतलब क्या है। वाकई बाजार और मुनाफे की थ्योरी में विकल्प शब्द ना सिर्फ गौण हुआ बल्कि धीरे धीरे विकल्प का सुझाव देने वालो की तादाद भी सरकार के दरबार में घटती चली गयी। इसलिये जो सवाल राहुल गांधी उठाने लगे अचानक देश को वही विकल्प भी लगने लगे। दो देश में बंटता देश। ग्रामीण आदिवासियों और गरीब दलितों को मौका ना मिलना। यह बयान राहुल गांधी के हैं, जो इंगित करते हैं कि आर्थिक सुधार की नीतियों से देश का बंटाधार हुआ है।<br /><br />लेकिन इसका विकल्प क्या है यह सवाल प्रधानमंत्री को राहुल गांधी से भी पूछना चाहिये कि आपने भी तो कोई विकल्प बताया नहीं फिर देश के बदतर हालात पर अंगुली उठा कर प्रधाननमंत्री पद की गरिमा को क्यों मिटा रहे हैं। पीएमओ की दीवारों में इतनी ताकत है नहीं कि राहुल से विकल्प का सवाल उठा लें ऐसे में खुद लोग कैसे कैसे विकल्प पैदा कर रहे हैं, जिसपर नजर पीएमओ की भी नहीं होगी वह गौरतलब है । संयोग से जिस वक्त प्रधानमंत्री ग्रामीण-आदिवासियों के समाधान के लिये विकल्प का सवाल उठाकर नक्सलियो के हिमायितियों पर उंगली उटा रहे थे, उसी वक्त विदर्भ में छह किसान आत्महत्या की तैयारी कर रहे थे। और किसानों की खुदकुशी के बाद अब किसानों की विधवाओ ने मदद के लिये अपना विकल्प खुद तैयार किया है कि वह 11 नवबंर से अनिश्चितकालिन भूख-हडताल करेंगी जिससे कोई राहत उनतक पहुंच सके। यानी जिस भूख ने उन्हें विधवा बना दिया उसी भूख को वे जीने का विकल्प बना रही हैं। क्योकि सरकार को यही परिभाषा समझ में आती है । तो विकल्प का मतलब ही जिस व्यवस्था में जान जाना या जान बचाना भर हो, वहां पहले विकल्प की बात होगी या जान बचाने की इसे प्रधानमंत्री समझेंगे यह आस तो लगायी ही जा सकती है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com7