tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger7125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-27155276513787353522011-10-21T11:41:00.001+05:302011-10-21T11:41:43.398+05:30सियासी रास्ते की खोज में संघजिस वक्त अन्ना हजारे रालेगण सिद्दी में राजनीतिक लकीर खींच रहे थे, उसी वक्त नागपुर में आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत अन्ना की सफलता के पीछे संघ के स्वयंसेवकों की कदमताल बता रहे थे। जिस वक्त विदर्भ के एक किसान की विधवा कौन बनेगा करोड़पति में शामिल होने के बाद अपनी नयी पहचान को समेटे सोनिया गांधी को पत्र लिखकर अपने जीने के हक का सवाल खड़ा कर रही थी, उस वक्त बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी दिल्ली में विदर्भ की चकौचौंध के गीत दिखाते हुये अपने विकास के पथ पर चलने के गीत गा रहे थे। तो क्या आरएसएस अपने महत्व को बताने के लिये कही भी खुद को खड़ा करने की स्थिति में है और सत्ता पाने के लिये बीजेपी किसी भी स्तर पर अपनी चकाचौंध दिखाने के लिये तैयार है। <br /><br />यानी एक तरफ आरएसएस को यह स्वीकार करने में कोई फर्क नहीं पड़ रहा है कि उसकी धार कुंद हो चली है और वह अन्ना के पीछे खड़े होकर संघ परिवार को अन्ना से जोड़ सकती है। वहीं दूसरी तरफ बीजेपी इस सुरूर में है कि सत्ता के खिलाफ जनता के आक्रोश में अपनी गाथा अपने तरीके से गाते रहना होगा। एक तरफ अन्ना अगर राजनीति रास्ता भी पकड़ें तो भी संघ को यह बर्दाश्त है और विदर्भ की बदहाली के बीच विदर्भ से ही आने वाले नीतिन गडकरी अगर विदर्भ का सच दिल्ली में छुपाकर बताये तो भी चलेगा। दोनो घटनाओं के मर्म को पकड़ें तो पहली बार यह हकीकत भी उभरेगी कि लगातार सामाजिक मुद्दों पर हारता संघ परिवार किसी तरह भी अपनी सफलता दिखाने-बताने को बैचेन है तो दूसरी तरफ बीजेपी के भीतर नेताओ की आपसी कश्मकश अपने अपने कद को बढ़ाने के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार है। तो पहले आरएसएस की बात। मोहन भागवत में स्वयंसेवक बार बारस गेडगेवार की छवि देखना चाहता है। लेकिन हेडगेवार ने कभी किसी दूसरे के संघर्ष को मान्यता नहीं दी। क्योंकि जब आरएसएस संघर्ष के दौर में था। हेडगेवार से होते हुये गुरु गोलवरकर के हाथों की थपकी तले संघ का संगठन सामाजिक तौर पर जिस तरह अपनी पहचान बना रहा था, उस दौर में आरएसएस हिन्दु महासभा से टकराया। या फिर हेडगेवार के सामने जब जब सावरकर आकर खड़े हुये, तब तब संघ ने सावरकर को खारिज किया। उस दौर में भी आरएसएस को सामाजिक शुद्दीकरण के संघर्ष से जोडकर हेडगेवार ने यह सवाल उठाया कि राजनीतिक रास्ता सफलता का रास्ता नहीं है। और वहीं सावरकर लगातार सामाजिक मुद्दों के आसरे राजनीतिक तौर तरीको पर जोर देते रहे। और सफलता का पैमाना हिन्दुत्व के आसरे राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करने की दिशा में बढ़ाते रहे। लेकिन ना तो हेडगेवार इसके लिये कभी तैयार हुये और ना ही गुरु गोलवरकर। इतना ही नहीं जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी नेहरु सरकार से इस्तीफा देकर गुरु गोलवरकर से मिलने पहुंचे तो पहला संवाद भी दोनों के बीच सामाजिक शुद्दीकरण और राष्ट्रवादी राजनीतिक को लेकर हुआ। जिसके बाद 1951 में राष्ट्रवादी राजनीति के नाम पर जनसंघ तो बनी लेकिन राजनीतिक करने वाले स्वयंसेवकों को यह पाठ पढ़ाया गया कि सत्ता हिन्दुत्व समाज के शुद्दीकरण से ही बनेगी। और हर लकीर खुद स्वयंसेवकों को खींचनी होगी। यानी आरएसएस या जनसंघ ने उस वक्त भी कांग्रेस के साफ्ट हिन्दुत्व या सेकुलर राष्ट्रवादी समझ को मान्यता नही दी। <br /><br />अब यहां सवाल संघ के मुखिया मोहन भागवत का खड़ा होता है कि जिस दशहरे की सभा का इंतजार स्वयंसेवक साल भर करते है उस सभा में जब अपने भाषण से आरएसएस की सफलता दिखाने के लिये अन्ना हजारे के आंदोलन को हड़पने की कोशिश होती है तो फिर यह रास्ता जायेगा किधर। क्योंकि संघ के भीतर बीते 85 बरस से मान्यता बनी हुई है दशहरे के दिन संघ के मुखिया अक्सर आने वाले दौर का रास्ता ही स्वयंसेवकों को दिखाते हैं। हिन्दुत्व की बिसात पर सामाजिक शुद्दीकरण की वह चाल चलते है, जिससे राष्ट्रवाद जागे। मोहन भागवत पर सवाल करना इसलिये भी जरुरी है कि जिस दौर में जेपी के जरीये आरएसएस देश में राजनीतिक सत्ता पलटने की कवायद कर रहा था उस दौर में भी दशहरे के दिन तब के संघ के मुखिया गोलवरकर ने कभी जेपी संघर्ष के पीछे खड़े स्वयंसेवकों पर एक लाइन भी नहीं कहा था। ऐसे में अब अन्ना के आंदोलन की सफलता के पीछे अगर स्वयंसेवक का ही संघर्ष हो तो भी उसे इस तरह बताने का मतलब है, संघ के मुखिया भागवत की राजनीतिक चेतना सबसे कमजोर है। या फिर कमजोर होते संघ परिवार में आरएसएस अपनी जरुरत को बनाये रखने में जुटा है। या फिर आरएसएस के भीतर के तौर तरीके इतने लुंज-पुंज हो गये हैं कि उसे एक आधार चाहिये जो उसे मान्यता दिलाये। या सरकार जिस तरह आरएसएस को आतंक के कटघरे में खड़ा कर रही है, उससे बचने के लिये आरएसएस राजनीतिक सत्ता को डिगाने में लगे अन्ना आंदोलन में ही घुसकर अपनी पूंछ बचाना चाहता है। <br /><br />दरअसल, इस सवाल का जवाब बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी के तौर तरीको में भी छुपा है। देश में सबसे त्रासदीदायक क्षेत्र की पहचान विदर्भ की है। जहां बीते दस बरस में सवा लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। लेकिन अन्ना के दोलन की महक से जब बीजेपी को यह समझ में आया कि देश के बहुसंख्यक आम लोगों में सरकार के कामकाज के तरीको को लेकर आक्रोश है तो नरेन्द्र मोदी ने उपवास कर अपने कद को बढ़ाना चाहा। आडवाणी रथयात्रा शुरु कर अपने जुझारु व्यक्तित्व को बताने लगे। और इसी मौके पर नीतिन गडकरी ने अपने भाषणों का संकलन "विकास के पथ पर.. " के जरीये खुद का कद बढ़ाने की मशक्कत शुरु की। दिल्ली के सिरी फोर्ट में किताब के विमोचन के मौके पर नीतिन गडकरी ने संयोग से विदर्भ के उन्हीं जिलो में अपने कामकाज के जरीये विकास की लकीर खींचने का दावा फिल्मी तरीके से किया, जिन जिलो में सबसे ज्यादा बदहाली है। <br /><br />20 मिनट तक कैमरे के जरीये ग्रामीण आदिवासियों को लेकर फिल्माये गयी फिल्म में हर जगह गडकरी की विकास की सोच थी या फिर खुश खुश चेहरे। लेकिन संयोग से 8 अक्टूबर को जब विदर्भ की यह फिल्म दिखायी जा रही थी उसी दिन विदर्भ के ही किसान की विधवा अपर्णा मल्लीकर की चिठ्टी 10 जनपथ पर पहुंची। जिसमें अपर्णा मल्लीकर ने अपने पति संजय की खुदकुशी के बाद अपने जीने के हक और अपने दोनों बेटियों के भविष्य के लिये बिना खौफ का जीवन मांगा था। क्योंकि जिस बेबसी में अपर्णा मल्लिकर रह रही हैं, उसमें पति की खुदकुशी की एवज में मिले सरकारी पैकेज कौन बनेगा करोडपति से जीती छह लाख चालीस हजार की रकम बचाने में ही उसकी जान पर बन आयी है। और पैसे हडपने में अपर्णा की जान के पीछे और कोई नहीं उसका अपने रिश्तेदार और पति के बडे भाई रधुनाथ मल्लीकार पड़े हैं। जो काग्रेस के नेता है और नागपुर के डिप्टी मेयर भी रह चुके हैं। इसलिये अपर्णा के लिये जीने के रास्ते भी बंद होते जा रहे हैं। क्योंकि किसानों की हालत विदर्भ में जितनी दयनीय है, उसमें बीजेपी अपनी विकास गाथा की लकीर खिंच रहे हैं तो कांग्रेस के स्थानीय नेता किसानों के पैकेज में अपना लाभ खोज रहे हैं। <br /><br />ऐसे में कांग्रेस हो या बीजेपी दोनो का नजरिया किसानो को लेकर तभी जागता है, जब उन्हें कोई सियासी फायदा हो। यह खेल राहुल गांधी के कलावती के जरीये विदर्भ के यवतमाल ने पहले ही देखा चखा है। लेकिन सत्ता के विरोध की राजनीति करती बीजेपी का रुख भी जब किसानो के दर्द से इतर अपने चकाचौंघ में लिपट जाये और विदर्भ के केन्द्र नागपुर से खडी आरएसएस भी जब सावरकर के क्षेत्र रालेगण सिद्दी से निकले अन्ना हजारे के पीछे चलने को मजबूर हो, तब यह कहना कहा तक सही होगा कि देश का सबसे बड़ा परिवार देश को रास्ता दिखा सकता है। क्योंकि अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद से बीजेपी के भीतर सत्ता पाने की जो खलबलाहट शुरु हुई है, उसमें पहली बार आरएसएस भी अपनी बिसात बिछा रहा है। संघ को लगने लगा है कि इस बार सत्ता उन्हीं स्वयंसेवकों के हाथ में आये जो संघ परिवार का विस्तार करे। यानी बीजेपी के भीतर के मॉडरेट चेहरे और नरेन्द्र मोदी सरीखे तानाशाह उसे मंजूर नहीं हैं। क्योकि 1998 से 2004 के दौर में संघ के स्वयंसेवकों ने सत्ता जरुर भोगी लेकिन आरएसएस उस दौर में हाशिये पर ही रही। और गुजरात में नरेन्द्र मोदी चाहे मौलाना टोपी ना पहन कर संघ को खुश करना चाहते हों लेकिन अंदरुनी सच यही है कि मोदी ने गुजरात से आरएसएस का ही सूपडा साफ कर दिया है। खास कर मराठी स्वयंसेवको को बाहर का रास्ता दिखा दिया है। प्रांत प्रचारकों में सिर्फ गुजराती बचे हैं जो मोदी के इशारो पर चलने के लिये मजबूर हैं। मधुभाई कुलकर्णी हो या मनमोहन वैघ सरीखे पुराने पीढियो से जुड़े स्वयंसेवक सभी को गुजरात से बाहर का रास्ता रणनीति के तहत ही नरेन्द्र मोदी ने किया। इससे पहले संजय जोशी को भी बाहर का रास्ता मोदी ने ही दिखाया। वहीं दूसरी तरफ बीजेपी के भीतर जिस तरह बड़ा नेता बनने के लिये संघ से दूरी बनाकर सियासत करने की समझ दिल्ली की चौकडी में समायी है, उससे भी आरएसएस सचेत है । और इसीलिये आरएसएस अब अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक छवि को तोड़ते हुये राजनीतिक तौर पर करवट लेते देश में अपनी भूमिका को राजनीतिक तोर पर रखने से कतरा भी नहीं है। <br /><br />इसलिये अब सवाल यह नहीं है कि आडवाणी की रथयात्रा के बाद बीजेपी के भीतर आडवाणी की स्थिति क्या बनेगी । बल्कि सवाल यह है कि क्या इस दौर में आरएसएस अन्ना से लेकर बीजेपी की राजनीतिक पहल को भी अपने तरीके से इसलिये चलाना शुरु कर देगा जिससे कांग्रेस के विकल्प के तौर पर संघ की सोच उभरे। और भ्रष्टाचार से लेकर महंगाई तक के मुद्दो पर हाफंता संघ परिवार आने वाले दौर में एकजुट होकर संघर्ष करता नजर आये।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-82915927969732110952009-10-07T09:36:00.004+05:302009-10-07T11:45:15.280+05:30कहीं सावरकर की लीक पर तो नहीं हैं भागवत !<strong>भोंसले मिलिट्री स्कूल से उठते सवालों के बीच..</strong><br /><strong></strong><br />नासिक के भोंसले मिलिट्री स्कूल में घुसते ही यह एहसास किसी को भी हो सकता है कि चुनावी राजनीति से देश का भला नहीं हो सकता । चुनाव भ्रष्टाचार करने और अनुशासन तोड़ने वालों के लिये है। मिलिट्री और अनुशासन का पर्याय राजनीति हो नहीं सकती और राजनीति के लिये मिलिट्री और अनुशासन महज एक सुविधा का तंत्र है। यह विचार स्कूल की किसी दीवार पर नहीं लिखे बल्कि राजनीति और मिलिट्री को लेकर यह परिभाषा इसी स्कूल के तीसरे दर्जै के एक छात्र की है। सुबह दस बजे स्कूल की एसेम्बली खत्म होने के बाद स्कूल के मैदान से भागते दौड़ते बच्चों का झुंड जब कैरिडोर में आया तो एक तरफ सरस्वती की प्रतिमा और दीवार की दूसरी तरफ डा. बी.एस.मुंजे की तस्वीर को प्रणाम कर ही हर छात्र को क्लास में जाते हुये देखा। सरस्वती की प्रतिमा नीचे थी तो छोटे छात्र छू कर प्रणाम कर रहे थे तो डा. मुंजे की तस्वीर दीवार पर खासी ऊंची थी तो उन्हें देख कर हाथ जोड़कर छोटे-छोटे छात्र क्लास रुम की तरफ भाग रहे थे।<br /><br />उन्हीं भागते दौड़ते छात्र में तीसरी कक्षा के एक छात्र ने जब रुककर पूछा-आप टेलीविजन पर आते हो न ! और बातचीत में मैने पूछा अब महाराष्ट्र में चुनाव होने वाले है , आपको पता है। इस पर राजनीति को लेकर छात्र की उक्त सटीक टिप्पणी ने मुझे एक साथ कई झटके दे दिये। सबसे पहले तो यही समझा की मिलिट्री स्कूल की ट्रेनिग राजनीति को खारिज करती है। फिर जेहन में आया कि यह वही मिलिट्री स्कूल है, जिसका नाम मालेगांव और नांदेड ब्लास्ट में सामने आया। कट्टर हिन्दुवादी संगठन अभिनव भारत से लेकर आरोपी लें. कर्नल प्रसाद पुरोहित के तार भोंसले मिलिट्री स्कूल से ही शुरुआती दौर में जोड़े गये थे । फिर नासिक के सामाजिक-आर्थिक विकास में राजनीति के हस्तक्षेप और जाति से ज्यादा धर्म के आधार पर टकराव और धर्म की धाराओं को लेकर भी टकराव को इसी नासिक ने राजनीतिक तौर पर भोगा है, यह भी समझा ।<br /><br />स्कूल की दीवार पर डां मुंजे की तस्वीर के नीचे धर्मवीर डां बीएसमुंजे लिखे था । धर्मवीर की पदवी आरएसएस ने डां मुंजे को जीते जी दे दी थी । लेकिन संघ के मुखिया गुरु गोलवरकर के दौर में लिखा जाना शुरु हुआ। असल में डां मुंजे वही शख्स हैं, जिन्होंने हेडगेवार के साथ मिलकर आरएसएस की नींव डाली थी। लेकिन हेडगेवार से ज्यादा डां मुंजे सावरकर से प्रभावित थे। सावरकर का घर भी नासिक शहर से सिर्फ 12 किलोमीटर दूर भगूर में है । इसलिये नासिक सावरकर का पहली प्रयोगशाला रही। लेकिन सावरकर जिस तरह सीधे राजनीति के जरिए हिन्दुत्व और हिन्दू राष्ट्र का सवाल खड़े करते रहे डां मुंजे उससे थोड़े हटकर थे । वह राजनीति को महज रणनीति भर ही मानते और हिन्दू राष्ट्र के लिये हर तरह से अनुशासनबद्ध समाज की परिकल्पना उनके जेहन में थी। इसीलिये आरएसएस बनाने के बाद अगर हेडगेवार देश के भीतर संघ की जड़ों को मजबूत करने में लगे तो सावरकर ने उस दौर में दुनिया के कई देशो समेत इटली की यात्रा कर यह भी देखने का प्रयास किया की मुसोलेनी अपनी सेना को वैचारिक तौर पर राजनीति से आगे कैसे ले जाते हैं।<br /><br />माना जाता है कि मुसोलेनी के वैचारिक प्रयोग से प्रभावित होकर ही डां मुंजे ने 1937 में नासिक में भोंसले मिलिट्री स्कूल की स्थापना की। भगूर में सावरकर की लीक पर चलने वालों की मानें तो आज भी सब यही मानते हैं कि मिलिट्री स्कूल का सपना सावरकर का था। और हेडगेवार सामाजिक शुद्दीकरण के जरिए हिन्दू राष्ट्र की ट्रेनिंग समाज को देना चाहते थे और इन दोनों के बीच पुल की तरह डां मुंजे और उनका यह मिलिट्री स्कूल था। यानी उस दौर में नासिक में यह भावना बेहद प्रबल थी कि हिन्दू महासभा के अनुकूल जब देश निर्माण का स्थिति आ जायेगी तो मिलिट्री स्कूल के जरिए वैचारिक सेना का नायाब प्रयोग भी होगा। जिसमें संघ के स्वयंसेवक सहायक की भूमिका निभायेंगे ।<br /><br />लेकिन मिलिट्री स्कूल बनने के 72 साल बाद भी नासिक की जमीन पर राजनीति के जरिए राष्ट्र निर्माण एक वीभत्स सोच है, यह तीसरे दर्जे के छात्र के कथन से ही नही उभरता बल्कि नये दौर में भी जो राजनीति पसर रही है, उसकी जमीन भी कमोवेश वैसी है। आरएसएस के स्वयंसेवकों में ठीक वैसा ही अंतर्द्वन्द 2009 में भी है जो 1937 में था । अभिनव भारत के गठन को लेकर पहली बैठक नासिक में ही हुई । उसमें हिन्दू महासभा से ज्यादा संघ के स्वयंसेवक इकठ्ठा हुये । नादेंड ब्लास्ट को लेकर जिन दस लोगों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गयी, उसमें आठ के संबंध संघ के संगठन से ही है। लक्ष्मण राजकोंडवार संघ का कार्यकर्ता माना जाता है। उनके दोनों बेटे नरेश और हिमांशु जो बम बनाते वक्त मारे गये, वीएचपी से जुडे थे। महेश पांडे और गुन्नीराज ठाकुर बंजरंग दल से जुड़े थे । मालेगांव और नांदेड ब्लास्ट में आरोपी लें कर्नल प्रसाद पुरोहित को भी बनाया गया । प्रज्ञा ठाकुर को भी शिकंजे में लिया गया। यानी साधु-संत से लेकर संघ और सेना। इसी दौर में भोंसले मिलिट्री स्कूल की भूमिका को लेकर राजनीति में सवाल उठे। लेकिन मालेगांव विस्फोट के बाद नासिक के सामाजिक मिजाज में बडा अंतर भी आ गया । नासिक जिले में ही मालेगांव भी आता है । लेकिन दोनों दो अलग अलग संसदीय सीट भी है । दोनों ही सीटों पर वोट बैंक का ध्रुवीकरण जिस तरीके से होता रहा है, उसमें हिन्दुत्व शैली का राष्ट्रवाद और मुस्लिम तुष्टीकरण का सेक्यूलरवाद कुछ इस तरह घुमड़ता है कि जीत-हार में वोटों का अंतर कभी ज्यादा नहीं हो पाता। यहां सिर्फ वोट हिन्दु और मुस्लिम के नाम पर ही नहीं बंटता बल्कि अभी भी हिन्दुत्व की कौन सी शैली सही है, उसको लेकर बहस होती है।<br /><br />लेकिन यह बहस हिन्दुत्व को लेकर एक बार फिर आजादी से पहले की स्थिति को जिला रही है, यह सावरकर और गोलवरकर के जरिए अभी के सरसंघचालक को घेर रही है। अचानक ऐसी दो किताबे नासिक में दिखायी देने लगी हैं, जिसे संघ ने खारिज कर दिया था । 1920 में सावरकर की लिखी किताब "हिन्दुत्व" अचानक दिखायी देने लगी है । इस किताब को संघ ने कभी मान्यता नहीं दी। क्योंकि हेडगेवार उस दौर में कांग्रेस से जुड़े थे और सावरकर ने किताब में साफ लिखा था कि जिनकी पुण्यभूमि भारत नहीं है, वह हिन्दुत्व के साथ नहीं चल सकते और राष्ट्रीय नहीं हो सकते। यानी हिन्दुओं को छोड़ कर हर किसी की राष्ट्रीयता पर सीधा सवाल उठाया। यह किताब नासिक में हिन्दुत्व मिजाज को अचानक भा रही है। वहीं सावरकर के बड़े भाई बाबा राव सावरकर ने भी एक किताब "वी" लिखी थी, जिसका मराठी,हिन्दी और अंग्रेजी अनुवाद और किसी ने नहीं बल्कि गुरु गोलवरकर ने किया था। गोलवलकर ने 1963 में इस किताब को यह कह कर खारिज किया कि भारतीय समाज अब नये परिवेश में है, इसलिये इस किताब के दोबारा प्रकाशन की जरुरत नही है ।<br /><br />लेकिन जबसे मोहनराव भागवत सरसंघचालक बने है और अपने पहले भाषण से उन्होंने हिन्दु राष्ट्र का नारा लगाना शुरु किया है, उसमें अचानक 46 साल बाद दुबारा यह "वी "नामक किताब भी सतह पर आ गयी है । खास बात यह हा कि "वी" नामक किताब को लेकर दोबारा वही बात कही जा रही है जो 1939 से 1963 तक कही गयी । यानी उस दौर में संघ के स्वयंसेवक मानते थे कि यह किताब गुरु गोलवरकर ने ही लिखी है। जबकि 2005 में गोलवरकर के शताब्दी समारोह में शेषाद्री ने इस किताब को गोलवरकर से अलग करते हुये किताब के मूल लेखक बाबाराव सावरकर के बारे में जानकारी दी थी। असल में मालेगांव और नादेड में हुये विस्फोट के बाद जिस तर्ज पर पुलिस प्रशासन ने कार्रवाई शुरु की और घेरे में कट्टर हिन्दुवादी संगठनों को लिया, उसमें अचानक सावरकर की सोच को संघ की धारा में लपेटकर वर्तमान राजनीति की कमजोरियो को जिस तरह उठाया जा रहा है, उसमें यह बहस भी शुरु हुई है कि भाजपा को भी भविष्य में उसी दिशा को पकड़ना होगा । यह धारा आरएसएस को भी अंदर से कैसे हिला रही है, इसका अंदाज सरसंघचालक को लेकर भी नये सवालो के जरिए उभरा है। सरसंघचालक मोहनराव भागवत छठे नहीं सातवें सरसंघचालक है। यानी पहली बार नासिक,पुणे से होते हुये नागपुर में भी डां परांजपे को याद किया जा रहा है। डां परांजपे एक साल के लिये 1930 में सरसंघचालक बने थे। उस साल डा. हेडगेवार नमक सत्याग्रह की तर्ज पर जंगल सत्याग्रह के आरोप में जेल में बंद थे। हेडगेवार के जेल में होने की वजह से डा. परांजपे को सरसंघचालक बनाया गया था । लेकिन डा. परांजपे हिन्दु महासभा के भी नेता थे और 1937 में संघ और हिन्दु महासभा में खटास इतनी बढ़ी कि इस साल हुये चुनाव में हिन्दु महासभा के खिलाफ आरएसएस ने कांग्रेस का साथ दिया। और इसी के बाद से डा. परांजपे का नाम भी संघ में हर कोई भूल गया । ले्किन 79 साल बाद संघ के भीतर ही अगर डा. पराजंपे को याद कर हिन्दुत्व की उस धारा की तर्ज पर मोहनराव भागवत को देखा जा रहा है, जो धारा सावरकर ने खींची थी तो इसका मतलब सिर्फ इतना नहीं है कि संघ बदल रहा है या फिर संघ के भीतर संघ को लेकर ही नये सवाल खड़े हो रहे हैं।<br /><br />सावरकर ने 1937 में कर्णावती अधिवेशन में पहली बार द्वि-राष्ट्र की बात कही थी और कहीं ज्यादा जोर देकर हिन्दू राष्ट्र की वकालत यह कहते हुये कही थी कि जो यहां है वह खुद को हिन्दू राष्ट्र का हिस्सा माने। अगर मोहनराव भागवत के हर सार्वजनिक भाषण को उनके सरसंघचालक बनने के बाद से सुनें तो सभी में इसी हिन्दू राष्ट्र की प्रतिध्वनि सुनायी देगी । लेकिन दशहरा के दिन अपने नागपुर भाषण में उन्होंने हिन्दू राष्ट्र शब्द का भी प्रयोग नहीं किया । असल में जो आग आरएसएस के भीतर सुलग रही है, उसकी सबसे बड़ी वजह वैचारिक और राजनीतिक तौर पर शून्यता का आ जाना है। इसलिये सवाल भोंसले मिलिट्री स्कूल से निकल रहे हैं और रास्ता भाजपा के बदले आरएसएस के जरिए देखने की कश्मकश हो रही है । मिलिट्री स्कूल के जिस कारिडोर में डा. मुंजे की तस्वीर लगी है, उसके ठीक समानांतर पांच तस्वीरे और भी है । जो इसी स्कूल के छात्र रहे है। इसमें पहली तस्वीर कांग्रेस के नेता वसंत साठे की है। उसके बाद रिटा. मेजर प्रकाश किटकुले, रिटा. लेफ्टि. जनरल वाय डी शहस्त्रबुद्दे, रिटां लेफ्टि.जनरल एस सी सरदेशपांडे और रिटां लेफ्टि. जनरल एम एल छिब्बर की है । यानी चार फौजी और एक नेता, वह भी कांग्रेसी । लेकिन भोंसले मिलिट्री स्कूल से लेकर मालेगांव तक राजनीति की जो महीन लकीर विचारधारा के आधार पर राष्ट्र की परिकल्पना किये हुये है, उसमें बंटा हुआ हर तबका इस बात पर एकमत जरुर है कि राजनीति उन्हें चला रही है। उनकी राजनीति में कोई हिस्सेदारी नहीं है। मालेगांव धमाके के बाद इलाके के तीस फीसदी मुसलमानों का अगर ध्रुवीकरण हुआ है तो खानदेशी, मराठा, दलित, माली से लेकर उत्तर भारतीयो की बड़ी तादाद का भी ध्रुवीकरण हो गया है। यानी जो ज्यादा उग्र है, उसके लिये राजनीति के रास्ते दोनों तरफ से खुले हैं। यही हाल नासिक का भी है । इसलिये सवाल सिर्फ भोंसले मिलिट्री स्कूल के तीसरी कक्षा के छात्र का नहीं है जो राजनीतिक पर टिप्पणी कर राजनीति से आगे का रास्ता चाहता है। राजनीति के पारंपरिक सारे सवाल नासिक की युवा पीढ़ी के सामने किस रुप में बेमानी है, इसका अंदाज इसी से मिल सकता है कि सावरकर के मोहल्ले का नीतिन मोरघडे बीएससी का छात्र है लेकिन वह साधु-संत से लेकर संघ-अभिनव भारत और सेना को भी एक ही तश्तरी में रखकर इतना ही कहता है कि यह सभी राजनीति के मोहरे भर हैं। इससे आगे सोच कर राजनीति को जो मोहरा बनायेगा असल बदलाव यहीं होगा। नयी परिस्थितियों में इस पूरे इलाके में यह समझ राजनीतिक तौर पर भी दलों में आयी है। इसलिये शिवसेना से आगे बढ़ते महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के उग्र तेवर युवा पीढ़ी को भा रहे हैं राजनीति में पूंजी का लेप उस पुरानी धारा को भा रहा है जो अभी तक कांग्रेस और भाजपा में अपना अक्स देखते थे। लेकिन मालेगांव विस्फोट के बाद हिन्दुत्व की जिस लड़ी को आरएसएस के भीतर स्वयंसेवक ही सुलगाना चाह रहे है, अगर वह सुलगी तो राष्ट्रीय राजनीति में हिन्दुत्व का तत्व अयोध्या से कहीं आगे का होगा ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-11687515812519301162009-09-08T13:18:00.002+05:302009-09-08T13:20:06.358+05:30क्यों नागपुर से दिल्ली चली संघ एक्सप्रेस6 दिसंबर 1992 को करीब साढे पांच बजे नागपुर में संघ मुख्यालय के बाहर उसी जगह पर सरसंघचालक देवरस की कुर्सी लगायी गयी, जहां अब सुरक्षाकर्मियो का टेंट लगा है। तीन स्वयंसेवकों के सहारे देवरस मुख्यालय से बाहर आये और उन्हे कुर्सी पर बैठाया गया । नागपुर के महाल इलाके में रिहायशी बस्ती के बीच संघ मुख्यालय की मौजूदगी 6 दिसबंर 1992 तक कुछ वैसी ही थी, जैसी रिहायशी इलाके में सामाजिक कार्यो में जुटा कोई संगठन किसी घर को ही अपना अड्डा बना ले। लेकिन 6 दिसंबर 1992 के दिन से अचानक छोटी-छोटी गलियों के बीच बना संघ मुख्यालय अचानक मील के पत्थर में तब्दील हो गया, जहां की पहचान पुलिस-जवानो के डेरे के तौर पर ही होने लगी। महाल के इस संघ मुख्यालय के बाहर का जो खाली प्लाट संघ का नहीं था, वह अचानक संघ से जुड़ गया और उस जमीन पर टेंट की रिहायश बनायी गयी, जिसमें छह जवानों की टोली उसी दिन से बैठा दी गयी, जो आज भी बैठी है। <br /><br />इन 17 सालो में फर्क यही आया कि जवानों के पास आधुनिकतम हथियार और दूरबीन आ गयी और महाल का मतलब संघ का असल मुख्यालय हो गया, जहा सारी शतरंज खेली जाती है। असल इसलिये क्योंकि हेडगेवार ने इसी घर से संघ कार्यालय की शुरुआत की थी। और 1948 के बाद प्रतिबंध का स्वाद 1993 में ही संघ के इस मुख्यालय ने भोगा। इमरजेन्सी के प्रतिबंध का एहसास यहां इसलिये नहीं हुआ, क्योकि तब पूरे देश में एक तरह का प्रतिबंध था। <br /><br />6 दिसबंर 1992 को जब समूचॆ देश में हंगामा मचा हुआ था तो बेहद खामोशी के साथ देवरस को इसी घर में नजरबंद करने के आदेश प्रशासन ने दे दिये । इस दिन से पहले महाल के इसी घर से करीब चार किलोमीटर दूर रेशमबाग के हेडगेवार भवन को ही हर कोई संघ मुख्यालय मानता और समझता था। चूंकि हेडगेवार भवन एकदम खुली सड़क और खुले मैदान से जुड़ा है और हर सुबह- शाम जितनी बड़ी तादाद में यहां शाखा लगती और खुला मैदान होने की वजह से खेल का शोर कुछ इस तरह रहता कि पुराने नागपुर की दिशा में जाने वाला हर किसी शख्स को दूर से ही दिखायी पड़ जाता है। <br /><br />लेकिन नागपुर के मिजाज में संघ की मौजूदगी कभी घुली नहीं । जनसंघ को कभी नागपुर में जीत मिली नहीं और इमरजेन्सी के बाद 1977 के चुनाव में जब समूचे देश में जनता लहर थी तो भी नागपुर समेत समूचे विदर्भ सभी 11 सीटो में से कोई भी जनता पार्टी का उम्मीदवार न जीत सका । उस वक्त देवरस को भी आश्चर्य हुआ था कि उनके राजनीति प्रयोग को जेपी के जरीये जब काग्रेस को मात दी गयी तो नागपुर में संघ समर्थित उम्मीदवार को कांग्रेस ने मात दे दी। यही हाल बाबरी मस्जिद के ढहाने के बाद भी हुआ, जब कांग्रेस जीत गयी । यानी नागपुर में संघ की पहचान कभी राजनीतिक तौर पर निकल कर नहीं आयी, जिससे लगे कि उसकी अपनी जमीन पर राजनीति तो खड़ी हो सकती है।<br /><br />यह नागपुर में हुआ नहीं और भाजपा के लिये संघ की समझनुसार वैसी जमीन बनी नहीं जैसा देश के सार्वजनिक जीवन में हिन्दुत्व का पाठ पढाते हुये संघ, भाजपा को राजनीतिक तौर पर इसका लाभ दिलाता । ऐसा भी नहीं है कि संघ के सामने मौके नहीं आये कि वह नागपुर में अपनी पहचान बना ले। गांधी को लेकर संघ के क्या विचार थे, यह कोई छुपा नहीं है। लेकिन दलितो को लेकर आंबेडकर के साथ भी संघ खड़ा नहीं हुआ क्योकि तब भी संघ हिन्दु राष्ट्र का एक अनोखा सपना पाले हुआ था । नागपुर में दलितो के संघर्ष से लेकर बुनकरो का संघर्ष आजादी के बाद ही शुरु हुआ । लेकिन संघ साथ खड़ा नहीं हुआ । नागपुर में बुनकरो के संघर्ष का प्रतीक गोलीबार चौक भी है, जहां पुलिस की गोली से बुनकर मारे गये थे। वहीं नागपुर में ही अंग्रेजो के दौर में ही सबसे बडी काटन मिल स्थापित हुई। और बड़ी बात यह है कि संघ की ट्रेड यूनियन भारतीय मजदूर संघ यानी बीएमएस ने सबसे पहले इसी काटन मिल में अपनी यूनियन बनायी। <br /><br />लेकिन जब नब्बे दे दशक में जब यह मिल बंद होने का आयी तो बीएमएस ने मजदूरो के हक की लड़ाई में अपना कंधा अलग कर लिया । असल में नागपुर में संघ मुख्यालय होने के बावजूद आरएसएस से ज्यादा हिन्दू महासभा की यादें लोगों के जहन में है । हालांकि संघ का विस्तार हिन्दू महासभा से ज्यादा होता गया, लेकिन सच यह भी है कि पहली बार सावरकर जब नागपुर पहुंचे तो उन्होने काटन मार्केट की एक सभा में संघ के तौर तरीको को किसी मंदिर के पूजा पाठ सरीखा ही माना और राजनीतिक समझ से कोसो दूर बताते हुये खारिज भी किया । उस वक्त हेडगेवार चाहते थे कि सावरकर संघ मुख्यालय आये । लेकिन सावरकर राजनीतिक तौर पर हिन्दुओ को जिस तरह संगठित कर रहे थे, उसमें संघ उनके तरीको को कमजोर कर देता इसलिये संघ मुख्यालय तक नहीं गये। <br /><br />वहीं मुस्लिमो को लेकर संघ की समझ नागपुर में ही 7 दिसबंर 1992 को उभरी थी । 6 दिसबंर को देवरस के नजरबंद होने के बाद बाबरी मस्जिद ढहाने के विरोध में अपने गुस्से का इजहार मुस्लिम बहुल इलाके मोमिनपुरा में हुआ । मोमिनपुरा के लोग रैली की शक्ल में जैसे ही मोमिनपुरा के बाहर सड़क पर निकले, वहां खड़ी पुलिस ने ताबडतोब गोलियां दागनी शुरु कर दी । 9 युवा समेत 13 लोग मारे गये। उसके बाद नागपुर में यह बहस शुरु हुई कि एक तरफ 6 दिसबंर को संघ से जुडे संगठन खुले तौर पर प्रदर्शन करते है, दुर्गा वाहिनी हथियारो का प्रदर्शन करती है और उन्हें कोई रोकता नहीं और सरसंघचालक को नजरबंद कर मामले को वहीं का वहीं खत्म किया जाता है। वहीं, मुस्लिमो के प्रदर्शन मात्र को कानून व्यवस्था के लिये खतरा बता दिया जाता है। हालांकि इस घटना के बाद नागपुर के पुलिस कमीशनर इनामदार का तबादला हुआ लेकिन तीन साल बाद शिवसेना-भाजपा के सत्ता में आने पर इनामदार को पदोन्नति भी मिली । मगर बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद देश में तुरंत कहीं लोग मरे तो वह नागपुर रहा, जहां 13 लोगो की मौत हुई । और इस घटना को भी नागपुर में संघ ने अपनी उस नयी पहचान से जोडने की पहल की जो इससे पहले उसे मिली नहीं थी । यानी अयोध्या पर संघ की इस प्रयोगशाला में हिन्दुत्व के लिये जगह है, बाकियो की अभिव्यक्ति भी बर्दाश्त नहीं है । लेकिन नागपुर ने संघ की इस पहचान को भी नहीं स्वीकारा । ना सामाजिक तौर पर ना राजनीतिक तौर पर । इसका मलाल देवरस को हमेशा रहा । इसलिय 1993 में जब कल्याण सिंह नागपुर पहुचे और संघ मुख्यालय में देवरस से मिलने के लिये बेताब हुये तो उन्हें टाला गया और मिलने का वक्त भी मिनटो में सिमटाया गया । <br /><br />नागपुर की इस नब्ज को टटोलने के लिये जब कल्याण सिंह नागपुर के तिलक पत्रकार भवन पहुंचे । तो उन्हे वहीं समझ में आ गया कि संघ की पकड़ नागपुर में कितनी कम है और जिनके भीतर संघ समाया हुआ है, वह कल्याण सिंह को संघ के सोशल इंजिनियरिंग का एक औजार भर मानते हैं। नागपुर की इन्हीं परिस्थितियो को जानते समझते हुये मोहनराव भागवत सरसंघचालक बने हैं। इसलिये दिल्ली पहुंच कर भागवत का भाजपा को पाठ पढ़ाने के अंदाज को समझना जरुरी है । क्योंकि राजनीतिक तौर पर भागवत हेडगेवार की उसी थ्योरी को समझते है कि जब राजनीति दिशाहीन हो जाये तो सामाजिक तौर पर हिन्दुत्व ही एकमात्र रास्ता बचता है। बदलाव सत्ता के जरीये नहीं बल्कि समाज के जरीये आता है। और सत्ता जोड़तोड़ की माथापच्ची के अलावा और कुछ नहीं है जबकि संघ सामाजिक सांस्कृतिक संगठन, जो समाज में राजनीति से ज्यादा घुसपैठ करता है । कई मौको पर हिन्दु महासभा से टकराव के दौर पर हेडगेवार ने कई जगहो पर इस समझ को रखा । <br /><br />लेकिन सवाल है जो संगठन अपने जड़ में यानी नागपुर में ही बेअसर है, उसका असर दिल्ली में क्यों नजर आता है । जाहिर है दिल्ली में समाज नहीं सिर्फ राजनीति है और राजनीति को पटरी पर लाने के लिये समाज का भय दिखा कर संघ अपना औरा खड़ा कर सकता है । सवाल है क्या मोहन राव भागवत इस भय के सहारे भाजपा को संघ से बांध रहे है या फिर भाजपा संघ के बनाये गये इस भय से अपना राजनीतिक हित साधना चाहती है। अगर संघ की मौजूदगी को राजनीतिक तौर पर देखा परखा जाये तो आजादी के बाद से किसी भी संकट के वक्त संघ का कार्य किसी एनजीओ और सामाजिक संगठन के मिले जुले रुप के तौर पर उभर कर आता है । लेकिन अयोध्या कांड के वक्त पहली बार संघ की भूमिका उसी सावरकर की राजनीतिक समझ के करीब लगी, जिससे संघ हमेशा कतराता रहा । जिस तेजी से भाजपा ने 1992 के बाद राजनीति सत्ता की सीढियों को चढ़ना शुरु किया और संघ की नयी पहचान में वह समाज में घुलने मिलने की जगह कहीं ज्यादा अलग साफ दिखायी पड़ने लगा, उसने वैचारिक तौर पर समूचे संघ परिवार को ट्रासंफार्म के दौर में ला खड़ा किया । क्योंकि जिस संघ में चेहरे से ज्यादा संगठन को महत्वपूर्ण माना गया, वहां अयोध्या के बाद संघ को पहले संघ के ही संगठन और फिर संगठनों के चेहरो में केन्द्रित करने की राजनीति भी शुरु हुई । भागवत इसी चेहरे से कतरा रहे हैं। क्योकि उनकी पूरी ट्रेनिग नागपुर में हुई है, जहां के समाज में संघ का कोई चेहरा मान्य नहीं है। यानी हेडगेवार के बाद से गुरुगोलवरकर हो या देवरस या फिर रज्जू भैया किसी की पहचान इस रुप में नहीं बनी कि जिससे संघ भी चेहरा केन्द्रित लगे । इसका राजनीतिक खामियाजा नागपुर के हर चुनाव में हर बार उभरा । भाजपा का उम्मीदवार अगर खाकी नेकर में नजर आया तो वह संघ का माना गया। जो खाकी नेकर में कभी नजर नहीं आया उसे बाहरी माना गया । संघ का भी जोर भी उसी बात पर रहा कि भाजपा उम्मीदवारो को लेकर समाज के भीतर बहस संघ के काम को लेकर हो और उम्मीदवार उसी सच से जुडे । यह अलग बात है कि संघ का काम नागपुर में ऐसा उभरा नहीं, जिससे भाजपा के उम्मीदवार को राजनीतिक लाभ मिले । लेकिन भागवत इसी सोच के आसरे भाजपा को दिल्ली में ढालना चाहते है। क्योकि इससे संघ पहचाना जाता है और इस पहचान के जरीये अगर राजनीतिक संगठन सत्ता पाता है तो संघ को लगता है कि हिन्दु राष्ट्र के नारे को इससे बल मिला। <br /><br />इसलिये भागवत का जोर एक महत्वपूर्ण चेहेरे की जगह सौ स्वयसेवको को काम पर लगाने की थ्योरी है । संघ की सोच और भागवत की निजी पहल इसीलिये दोहरे स्तर पर काम कर रही है । संघ उस चूक से निकलना चाहता है जिस चूक से धीरे धीरे भाजपा का मतलब लालकृष्ण आडवाणी होता चला गया । वहीं भागवत निजी तौर पर इस संदेश को साफ करना चाहते है कि वह आडवाणी के पीछे नहीं खड़े है जैसा की भागवत के सरसंघचालक बनने के बाद प्रचारित किया गया । भागवत का मानना है कि 2007 से लेकर 2009 तक आडवाणी के विरोध के बावजूद संघ ने स्वयसेवकों को को ना सिर्फ पूरी तरह शांत किया बल्कि चुनाव पूरे होने तक विरोध का हर स्वर भी दबा दिया । लेकिन आडवाणी ने संघ को भाजपा केन्द्रित बनाने की पहल चुनाव में हार के बाद भी जारी रखी। इसीलिये उन्हे दिल्ली में ना सिर्फ तीन दिन तक डेरा डालना पडा बल्कि हर निर्णय में अपने साथ उस पूरी टीम को साथ रखना पडा जो संघ का केन्द्र है। यानी सरकार्यवाह भैयाजी जोशी से लेकर दत्तात्रेय होसबले और मदनदास देवी से लेकर मनमोहन वैघ तक की मौजूदगी दिल्ली के हर बैठक में रही और हर बैठक में एक ही बात स्वयंसेवकों के लिये खुलकर कही गयी कि आडवाणी को जाना होगा । लेकिन खास बात यह भी है कि भागवत को छोडकर हर वरिष्ठ स्वयंसेवक खामोश ही रहा । कैमरे के सामने भी और बातचीत के दौर में भी । संघ के अपने इतिहास में भी यह पहली बार हुआ जब संघ के छह महत्वपूर्ण पदाधिकारी सारे काम छोड कर अपने ही किसी संगठन के झगड़ों को निपटाने के लिये नागपुर से बाहर जुटे। इस जुटान का मतलब भाजपा का बढ़ा कद भी है और संघ का सिकुड़ना भी । इसका मतलब भाजपा के खिलाफ पहल करने के लिये संघ का सबसे कमजोर वक्त का इंतजार करना भी था और भाजपा के भीतर भी स्वयंसेवक और गैर स्वयंसेवकों के युद्द छिड़ने का इंतजार करना भी था । असल में नागपुर में बिना पहचान के 84 साल गुजारने वाले आरएसएस की मान्यता बनाने या पाने की रणनीति का अक्स भाजपा आपरेशन से भी समझा जा सकता है । <br /><br />संघ की पहल भाजपा के खिलाफ तब हुई जब भाजपा के भीतर से ही नहीं बल्कि गैर स्वयंसेवक अरुण शौरी से लेकर भाजपा के समर्थन में खड़े बाहरी लोगों ने भी जब यह कहना शुरु कर दिया संघ को अब भाजपा का टेकओवर कर लेना चाहिये । यानी संघ की मान्यता जैसे ही भाजपा से बड़ी हुई भागवत ने हलाल तरीके से झटका दिया जो गुरु गोलवरकर की जनसंघ को लेकर उस टिप्पणी पर भी भारी पडी कि जनसंघ हमारे लिये गाजर की पूंगी है, बजी तो ठीक है नहीं तो खा जाएंगे । असल में संघ अब भाजपा को जनसंघ ही बनाना चाहता है, जिसमें आडवाणी की विदायी के साथ मई से दिल्ली में बैठे संजय जोशी सरीखे सौ स्वयंसेवक सक्रिय हो जाये और स्वदेशी आंदोलन को ठेगडी के बाद दिशा देने में लगे मुरलीधर राव सरीखे स्वयंसेवक भाजपा नेतृत्व संभाल लें। लेकिन संघ की इस पहल से सिर्फ भाजपा बदलेगी ऐसा भी नहीं है। असर संघ के भीतर बाहर भी है । इसका अक्स अयोध्या कांड के बाद नागपुर में संघ मुख्यालय से सटे खाली प्लाट को लेकर भी समझा जा सकता है । उस वक्त संघ मुख्यालय की सुरक्षा के लिये प्रशासन ने खाली प्लाट को संघ से जोड़ दिया, वही 17 साल बाद संघ को लग रहा है कि भाजपा को संघ में ढालकर वह उस राजनीतिक प्लाट को अपने घेरे में ले आयेगी जहां से टूटते-बिखरते संघ को एक नया जीवन मिलेगा ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-28917937248258561172009-08-28T08:07:00.002+05:302009-08-28T08:09:03.227+05:30संघ या भाजपा में किसका ज़हर किसे डसेगा ?बीजेपी को कौन ठीक करेगा ? ये कुछ ऐसा ही है जैसे पीसा की झुकती मीनार को कौन सीधा कर देगा। यह टिप्पणी संघ के ही एक बुजुर्ग स्वयंसेवक की है, जो उन्होंने और किसी से नहीं बल्कि जम्मू में सरसंघचालक से कही । इसका जबाब भी सरसंघचालक की तरफ से तुरंत आया कि संघ सांस्कृतिक संगठन है, उसे राजनीतिक से क्या लेना देना। इस पर एक दूसरे स्वयंसेवक ने सवाल उठाया कि राजनीति करने वाले भी अगर स्वयंसेवक है और वह भटक गये हैं तो उन्हें कौन ठीक करेगा। इसपर सरसंघचालक का जबाब आया कि भटकाव की एक उम्र होती है, एक उम्र के बाद भटकाव नहीं निजी स्वार्थ होते हैं। उन्हे दुरस्त करने के लिये किसी भी स्वयंसेवक को पहले अपने आप से जूझना पड़ता है। यह शुद्दीकरण है। <br /><br />जाहिर है यह संवाद लंबा भी चला होगा । लेकिन यह संवाद संघ के संस्थापक और पहले सरसंघचालक हेडगेवार की तरह का है । जब हेडगेवार ने हिन्दू राष्ट्र का सवाल काशी की एक सभा में उठाया तो वक्ताओ में से सवाल उछला कि कौन मूर्ख कहता है कि यह हिन्दू राष्ट्र है । इसपर हेडगेवार ने न सिर्फ हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना को सामने रखा बल्कि हिन्दुओ को लेकर ही उस सवाल का भी जबाब दिया, जिसमें कहा गया कि चार हिन्दू भी कभी एक रास्ते नहीं चलते। जब तक शवयात्रा में शामिल न हों। <br /><br />लेकिन यही सवाल बदले हुये रुप में संघ के सामने 84 साल बाद भी भाजपा को लेकर खड़ा हो गया है। संघ के भीतर भाजपा को लेकर चार हिन्दुओ की कथानुसार सवाल उठने लगे हैं कि सत्ता के मारे भाजपा के चार नेता भी एक दिशा में नहीं चल रहे । और अगर सत्ता होती तो सभी एक दिशा में चल पड़ते । सवाल जबाब के इस सिलसिले में अपने ही राजनीतिक संगठन और अपने ही स्वयंसेवकों को लेकर सरसंघचालक मोहनराव भागवत को भी आठ दशक पुराने उन तर्को को ही सामने रखना पड़ रहा है, जिसको कभी हेडगेवार ने सामने रखा था । भाजपा की उथल-पुथल ने संघ को अंदर से किस तरह हिला दिया है, इसका अंदाज इसी बात से लग सकता है कि नागपुर के हेडगेवार भवन के परिसर में स्वयंसेवकों की सबसे बड़ी टोली जो हर सुबह शाम मिलती है, उसमें बीते रविवार इस बात को लेकर चर्चा शुरु हो गयी कि भाजपा की समूची कार्यप्रणाली सिर्फ राजनीतिक सत्ता की जोड़-तोड़ में ठीक उसी तरह चल रही है जैसे कांग्रेस में चला करती है। इसलिये भाजपा के स्वयंसेवक भी संघ से ज्यादा कांग्रेस से प्रभावित हैं। यानी कांग्रेसीकरण की दिशा को भाजपा ने आत्मसात कर लिया है ।<br /><br />असल में चर्चा इतनी भर ही होती तो भी ठीक है । कुछ पुराने स्वयंसेवको ने भाजपा की त्रासदी का इलाज हेडग्वार की सीख से जोड़ा । चर्चा में बकायदा हेडगेवार के उस प्रकरण को सुनाया गया जो उन्होंने कांग्रेस छोडकर आरएसएस बनाने की दिशा में कदम बढ़ाये । स्वयंसेवकों को जो किस्सा वहां सुनाया गया उसके मुताबिक, <br /><br />" कलकत्ता से मेडिकल की पढ़ाई पूरी करने के बाद डॉक्टर हेडगेवार तीन हजार रुपये की नौकरी छोड़ कर नागपुर आ गये । जहा वह कांग्रेस में भर्ती हो गये। 1920 में नागपुर में काग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ, डा हेडगेवार उसकी व्यवस्था में लगे स्वयंसेवी दल के प्रमुख थे । दिन रात परिश्रम करके उन्होने अधिवेशन को सफल बनाया । नागपुर के युवकों की ओर से पूर्ण स्वतंत्रता प्रप्ति तक अविराम संघर्ष करते रहने का प्रस्ताव भी उन्होंने अधिवेशन में रखवाया । 1921 के असहयोग आंदोलन में वे एक साल के लिये जेल भी गये । वहां उन्होंने देखा कि अपने भाषणो में बड़े-बड़े आदर्शो की बात करने वाले कांग्रेसी नेता जेल में एक गुड के टुकड़ों के लिये कैसे लड़ते हैं। मुस्लिम तुष्टीकरण,अनुशासनहीनता और निजी स्वार्थपरता जैसी कांग्रेस-चरित्र की विशेषताओ को देखकर उनका मन इस ओर से खट्टा हो गया । इसके बाद ही उन्होंने सोचा ही बिना हिन्दू संगठन के भारत का उत्थान संभव नहीं है, क्योकि हिन्दू समाज ही देश का एकमेव समाज है। इसी के बाद 1925 में विजयी दशमी के दिन राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ की स्थापना की।" <br /><br />हेगडेवार की इस कथा के बाद स्वयसेवक इस सवाल से जूझते है कि भाजपा की वजह से क्या संघ को लेकर हेडगेवार की सोच मर जायेगी । चर्चा आगे बढ़ती है तो भाजपा से बेहतर संघ के स्वयंसेवकों को वही काग्रेस भी नजर आने लगती है, जिसके खिलाफ कभी हेडगेवार कडे हुये थे । अनुशासन को लेकर कांग्रेस और भाजपा की तुलना । फिर निजी स्वार्थ को लेकर भाजपा नेताओं पर अंगुली उठाते हुये गिनती कम पड़ना । और फिर सत्ता के लिये गठबंधन की राजनीति को मुस्लिम तुष्टीकरण से कहीं ज्यादा खतरनाक ठहराते हुये यह सवाल करना कि संघ को कहां तक भाजपा को फिर से मथने के लिये जुटना चाहिये। <br />संघ के स्वयसेवको के भाजपा को लेकर यह सवाल सिर्फ नागपुर तक सीमित हो ऐसा भी नहीं है । यह सवाल राजकोट में भी मौजूद हैं और असम में भी । लेकिन संघ के लिये बड़ा सवाल यही से शुरु होता है । क्योंकि इस दौर में संघ अगर भाजपा को देखकर कोई टीका-टिप्पणी ना करे तो संघ की मौजूदगी का एहसास संघ में ही नहीं होता । इसलिये महत्वपूर्ण यह नहीं है कि सरसंघचालक भाजपा से जुडे हर सवाल का जबाब जहां जाते हैं, वहां पत्रकारों को देखकर या कहे कैमरो को देखकर देने लगते हैं। बल्कि पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन भी इसी तरह की प्रतिक्रिया देने लगे हैं । जैसा वह सरसंघचालक रहते हुये किया करते थे और सबसे अलोकप्रिय होते चले गये। स्थिति संघ के लिये इससे आगे बिगड़ रही है । पिछले दस वर्षो में वाजपेयी की अगुवायी में संघ के स्वयंसेवकों ने पांच साल देश जरुर चलाया। लेकिन इसी दौर में संघ अपनी जमीन पर ही परायी होती गयी और उसकी खुद की जमीन भी भाजपा की सत्ता महत्ता को बनाये रकने पर आ टिकी है। भाजपा के संकट ने संघ के सामने 84 साल में पहली बार ऐसी चुनौती रखी है, जहां से खुद का शुद्दीकरण पहले करना है। संघ का कोई संगठन पिछले दस वर्षो में सरोकार से नहीं जुटा। यानी जिस संगठन का जिस क्षेत्र में जो काम है, उसकी विसंगतियो से जूझते हुये हिन्दू समाज की व्यापकता को एकजुट करने की जो सोच हेडगेवार और गोलवरकर से होते हुये देवरस और रज्जू भैया तक फैली, उस पर भाजपा के उफान के दौर में कुछ इस तरह ब्रेक लगी कि संघ भी पिछडता चला गया । <br /><br />सवाल यह नहीं है कि जनसंघ और फिर भाजपा को संघ ने एक ठोस जमीन दी, इसीलिये उसे राजनीतिक सफलता मिली । महत्वपूर्ण है कि लोहिया से लेकर जेपी भी इस तथ्य को समझते रहे कि संघ के तमाम संगठन, जो अलग अलग क्षेत्रो में काम कर रहे हैं, अगर उन्हे साथ जोड़ा जाये तो राजनीतिक सफलता के लिये एक बडे समाजिक कार्य पर जाया होने वाले वक्त को बचाया जा सकता है। वनवासी कल्य़ाण आश्रम, भारतीय किसान संघ, विघा भारती, भारत विकास परिषद, संस्कार भारती, सेवा भारती, प्रज्ञा भारती, लधु उघोग भारती, सहकार भारती, विज्ञान भारती, ग्राहक पंचायत से लेकर हिन्दू जागरण मंच और विश्वहिन्दू परिषद जैसे दो दर्जन से ज्यादा संगठन संघ की छतरी तले देश के तीस करोड़ लोगो के बीच अगर काम रहे हैं तो उसका लाभ किसी भी राजनीतिक दल को मिल सकता है। इसका लाभ 1967 में गैर कांग्रेसवाद के नारे लगाते लोहिया ने भी उठाया और 1977 में जेपी ने जनता पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने में भी उठाया । और यहां यह भी कहा जा सकता है कि 1990 में अयोध्या आंदोलन की अगुवायी करते लालकृष्ण आडवाणी उस मानसिकता के बीच नायक भी बनते चले गये जो चाहे अयोध्या आंदोलन का आडवाणी तरीका पंसद ना करता हो लेकिन संघ के तौर तरीके सो अलग अलग संगठनो के जरीये जुड़ा था। <br /><br />1999 में वाजपेयी की जीत के पीछे महज कारगिल जीत का भावनात्मक प्रचार नहीं था, बल्कि सुदूर गांवो में भी संघ की शाखा इस बात का एहसास करा रही थी कि भाजपा कहीं अलग है । या कहे कांग्रेस से अलग राजनीतिक दल है, जो सरोकार को समझता है । लेकिन इसका एहसास कियी को नहीं था कि भाजपा की सत्ता संघ के लिये धीमे जहर का काम करेगी । यह ज़हर संघ के भीतर बीते दस साल में किस तरह फैलता चला गया इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि 1998 के बाद से सिवाय विश्व हिन्दू परिषद के किसी संघठन की सदस्य सख्या में इजाफा नहीं हुआ। उतना ही नहीं जिन संगठनो ने जो भी मुद्दे उठाये, उन सभी मुद्दों का आंकलन राजनीतिक तौर पर भाजपा के घेरे में पहले हुआ, उसके बाद संघ के सरोकार का सवाल उठा। <br /><br />आदिवासी, मजदूर, किसान , शिक्षा व्यवस्था, स्वदेशी यानी कोई भी मुद्दा भाजपा के लिये घाटे का है या मुनाफे का, इसकी जांच परख पहले हुई । फिर सत्ता में भाजपा के साथ खड़े राजनीतिक दलों की भी अपनी अपनी राजनीतिक जरुरत थी, तो भाजपा की राजनीतिक प्रयोगसाला में आने के बाद किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच, वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती, हिन्दू जागरण मंच सभी कुंद कर दिये गये। क्योंकि इनके मुद्दे सरकार को परेशानी में डाल सकते थे। और जो लकीर आर्थिक सुधार के भाजपा के दौर में भी खींची, उसको इतनी महत्ता दी गयी कि उस वक्त सरसंघचालक सुदर्शन ने अपने से बुजुर्ग और ज्यादा मान्यताप्राप्त दंतोपंत ठेंगडी को भी खामोश करा दिया। <br /><br />नया सवाल इसलिये गहरा है क्योंकि भाजपा के पास सत्ता है नहीं। और संघ के संगठनों की सामाजिक पहल भी भाजपा सरीखी ही हो चुकी है। यानी संघ का कोई संगठन अपने ही मुद्दे को लेकर कोई आंदोलन तो दूर मुद्दों पर सहमति बनाकर अपने क्षेत्र में ही किसी प्रकार का दबाब बना नहीं सकता है। स्थिति कितनी बदतर हो चली है, यह पिछले हफ्ते संघ के संगठनो की पहल से ही समझ लें। संघ के संगठनों ने पिछले हफ्ते जो काम किये, उसमें पर्यावरण को लेकर भोपाल में गोष्ठी है। जिसमें पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन ने कहा कि पश्चिमी देशो के सिद्दांत से ही पर्यावरण संतुलन बिगड़ा है । हिन्दु मंच ने दिल्ली में आतंकवाद मुक्त पखवाड़ा मनाया, सेवा भारती ने उदयपुर में 695 मरीजो को शिविरो में जांचा । विश्वहिन्दू परिषद ने तमिलनाडु में कोडईकनाल के घने जंगलो में 207 वन बंधुओ की स्वधर्म वापसी करायी । नारी रक्षा मंच ने संस्कार को लेकर इंदौर में एक सम्मेलन किया। लखनऊ में स्व अधीश कुमार स्मृति व्याख्यानमाला हुई । आदित्य वाहिनी ने उड़ीसा में सनातन धर्म को बनाया। दुर्गा वाहिनी ने भारत तिब्बत सीमा पर सैनिको को रक्षा सूत्र बांधे। कह सकते हैं कमोवेश हर संगठन की कुछ ऐसी ही पहल बीते हफ्ते रही या कहें भाजपा के राजनीतिक हितो को साधने वाले संघ के तौर तरीको ने तमाम संगठनो को इसी तरह की सामाजिक कार्यो में लगा दिया। जहां सिवाय संबंघ बनाने और सामाजिक समरसता का भाव समाज में फैलाते हुये भरे पेट के साथ आराम तलबी के अलावे कुछ नहीं बचा। <br /><br />संघ की जब यह हालात अपने संगठनो को लेकर है तब सवाल पैदा होता है कि उससे भाजपा को क्या राजनीतिक फायदा हो सकता है और भाजपा संघ को महत्ता क्यो दे। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि संघ के इन्ही संगठनों को जिलाये बगैर भाजपा का भी राजनीतिक भला नहीं हो सकता है क्योकि राजनीति चाहे सरोकार से नहीं सौदेबाजी से चलती है, लेकिन भाजपा के नेताओं को सौदेबाजी के टेबल तक पहुचने के लिये संघ का सरोकार चाहिये ही। नया सवाल है कि इन संगठनों में सरोकार की जान कैसे फूंकी जाये । खासकर जब संगठन से बड़े मुद्दे हो चले हैं और मुद्दो को लेकर कोई राजनीति इस देश में बची नहीं है। यानी एक तरफ जिन मुद्दो के आसरे हेडगेवार हिन्दु राष्ट्र का सपना संजोये थे, वही मुद्दे कही ज्यादा व्यापक हो कर राजनीति और संगठन को ही खत्म कर रहे हैं। तब संकट यह है कि इन मुद्दो को किस तरह उठाया जाये, जिससे संघ की पुरानी हैसियत भी लौटे और भाजपा भी महसूस करे कि उसका राजनातिक लाभ संघ के बगैर हो नहीं सकता । क्योंकि नये तरीके की राजनीति और सरोकार गुजरात की तर्ज पर उठ रहे हैं, जो आतंक की लकीर तले विकास और सत्ता को इस तरह रखता है। राजनीति सिमटती है और विकास से जुड़े मुद्दे धर्म का लेप चढ़ा लेते हैं। इन सब के बीच गठबंधन की सोच सर्व धर्म सम्माव की धज्जिया उड़ाती है और नरेन्द्र मोदी सरीखी मानसिकता संघ से भी बड़ी हो जाती है और सत्ता की सौदेबाजी भी मोदी के आगे छोटी होने लगती है। <br /><br />इन नयी परिस्थितियो में अगर दिखायी देने वाला संकट विचारधारा के घेरे में संघ और भाजपा दोनों एक दूसरे के सामने खड़े हुये हैं । तो संघ परिवार की नयी बैचेनी एक-दूसरे के अंतर्विरोध को ठिकाने लगाकर खुद को खड़े करने की पैदा हो चली है। इसमें मुश्किल यह हो गयी है कि भाजपा के भीतर अगर आडवाणी को चुनौती देने के लिये एक अदना सा कार्यकर्त्ता भी खुद को सक्षम मान रहा है तो संघ में एक अदना सा स्वयंसेवक सरसंघचालक से बेहतर समाधान की बात कहने लगा है । यानी सत्ता की लड़ाई में सत्ताधारी ही महत्वहीन बन गये हैं।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-39707404239366539532009-08-25T00:02:00.001+05:302009-08-25T00:03:51.946+05:30रिंग में आडवाणी-भागवत आमने सामनेसंघ के इतिहास में यह पहला मौका है, जब आरएसएस को अपने ही किसी संगठन से सीधा संघर्ष करना पड़ रहा है। इस संघर्ष का महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि यह सीधा संघर्ष विचारधारा से इतर शीर्ष पर बने रहने की लड़ाई है । जिसमें एक तरफ अगर सरसंघचालक खड़े हैं तो दूसरी तरफ संघ की छांव में बड़े हुये लेकिन सत्ता की जोड़-तोड़ में तपे भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी।<br /><br />सरसंघचालक मोहनराव भागवत अगर संघ परिवार के भीतर कुछ परिवर्तन करना चाहें और वह हो न पाये, ऐसा आरएसएस में कोई सोच नहीं सकता । लेकिन आरएसएस के बाहर अगर अब यब माना जाने लगा है कि आरएसएस का मतलब संघ परिवार नहीं बल्कि भाजपा हो चली है तो यह पहली बार हो रहा है। 1948 में जब तब के सरसंघचालक गुरु गोलवरकर ने देश के गृहमंत्री सरदार पटेल को लिख कर दिया था कि आरएसएस सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन है, उस दौर में संघ ने चाहे सोच लिया होगा कि एक दिन ऐसा जरुर आयेगा जब देश को संघ के स्वयंसेवक ही चलाएंगे। लेकिन संघ ने कभी यह नहीं सोचा होगा कि वहीं स्वयसेवक सत्ता में आने के बाद संघ को ही हाशिये पर ढकेलने लगेगा। वहीं स्वयंसेवक संघ के दर्द पर और नमक छिड़केगा। <br /><br />वाजपेयी के दौर में सत्ता में बैठे स्वयंसेवकों से सबसे बडा झटका आरएसएस को तब लगा जब उत्तर-पूर्वी राज्य में चार स्वसंवकों की हत्या हो गयी और देश के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने नार्थ ब्लाक से सिर्फ पांच किलोमीटर दूर झडेवालान के संघ मुख्यालय जाकर मारे गये स्वयंसेवकों की तस्वीर पर फूल चढ़ा कर श्रद्धांजलि देना तक उचित नहीं समझा। बाकि कोई कार्रवाई की बात तो बेमानी है, चाहे उस वक्त सरसंघचालक सुदर्शन से लेकर भाजपा-संघ के बीच पुल का काम रहे मदनदास देवी ने गृहमंत्री आडवाणी से गुहार लगायी कि उन्हें जांच करानी चाहिये कि हत्या के पीछे कौन है। <br /><br />माना जाता है आरएसएस ने इसका बदला कंघमाल के जरिये भाजपा से लिया । भाजपा उड़ीसा में संघ के नेता की हत्या के बाद नवीन पटनायक को सहलाती-पुचकारती, उससे पहले ही संघ ने कंधमाल को अंजाम दे दिया । जिससे भाजपा को गठबंधन की राजनीति का सबसे बड़ा झटका ऐन चुनाव से पहले लगा । यह संघर्ष बढ़ते-बढ़ते एक -दूसरे के आस्त्वि पर ही सवालिया निशान लगाने तक आ पहुंचा। यह किसी ने सोचा नहीं था , लेकिन अब खुलकर नजर आने लगा है । <br /><br />सवाल यह नहीं है कि भाजपा के चिंतन बैठक से 24 घंटे पहले सरसंघचालक भागवत ने कैमरे पर इटरव्यू दे कर चिंतन बैठक को एक ऐसी दिशा देने की कोशिश की जिसपर निर्णय का मतलब झटके में भाजपा को बीच मझधार में लाकर न सिर्फ खड़ा करना होता बल्कि भाजपा में भी नताओ के सामने संकट आ जाता कि वह राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर खुद की हैसियत को कैसे बरकरार रखते हैं । यह संकट ठीक वैसा ही है, जैसा मोहनराव भागवत के सामने सरसंघचालक बनने के बाद आया है । संयोग से सरसंघचालक भागवत की जितनी उम्र है, उससे ज्यादा उम्र लालकृष्ण आडवाणी ने आरएसएस और पार्टी को दिया है। यह समझा जा सकता है कि जब आडवाणी राजनीति में आये तब भागवत चन्द्रपुर में बच्चो के खेल में भविष्य के तार संजो रहे होंगे। लेकिन ज्यादा दूर न भी जायें तो लालकृष्ण आडवाणी जब देश के सूचना-प्रसारण मंत्री बने तब भागवत बतौर प्रचारक डंडा भांज रहे थे। यह संकट इससे पहले कभी सिर्फ सुदर्शन के सामने आया। क्योकि उम्र और स्वयंसेवक के तौर पर वाजपेयी-आडवाणी से सुदर्शन पांच साल छोटे थे। <br /><br />लेकिन संघ के साथ जुड़ने का सिलसिला इनमें दो साल के फर्क के साथ था। लेकिन वाजपेयी की राजनीतिक समझ के साथ साथ सामाजिक-सांसकृतिक समझ के दायरे में सुदर्शन खासे पीछे थे । इसलिये कई मौके आये जब बतौर सरसंघचालक सुदर्शन ने वाजपेयी को आरएसएस का पाठ पढ़ाने की कोशिश की लेकिन हर पाठ का महापाठ, जो वाजपेयी के पास था, उसका असर यही हुआ कि सुदर्शन को हर सार्वजनिक मौके पर वाजपेयी को खुद से बड़ा मानना पड़ा । और हमेशा लगा कि संघ भाजपा के पीछे खड़ी है । इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि वाजपेयी के पास आडवाणी थे। जिसके जरिये वाजपेयी कभी संघ के लगे नहीं और आडवाणी कभी संघ से अलग दिखे नहीं। बदली परिस्थितियो में सुदर्शन और वाजपेयी मंच से उतर चुके हैं और आमने सामने और कोई नहीं वही भागवत और आडवाणी आ गये है, जो कभी सुदर्शन के सुर से परेशान रहते थे तो कभी वाजपेयी के सेक्यूलरवाद से। <br /><br />लेकिन दोनो के सामने अपने अपने घेरे में ऐसी चुनौतियां है, जो संयोग से एक-दूसरे से टकरा भी रही हैं और दोनो ही अपनी अपनी जगह व्यक्ति से बड़े संगठन के तौर पर जगह बनाये हुये हैं। वाजपेयी के दौर में भाजपा के पीछे खड़ा संघ आज भी वैचारिक तौर पर इतना पीछे खड़ा है कि उसे खुद को स्थापित करने के लिये सबसे पहले भाजपा को ही खारिज करना होगा। इसके लिये सामने आडवाणी खड़े हैं जो खुद को संघ से ज्यादा करीब भाजपा के भीतर हर दौर में बताते भी आये और डिप्टी प्रधानमंत्री बनने का जो खेल खेला, उसमें दिखा भी दिया। ऐसे में भागवत अगर आडवाणी को संघ के नियम-कायदे बताकर बाहर का रास्ता दिखाना चाहते हैं, तो उन्हे हर बार मुंह की इसलिये खानी पड़ेगी क्योकि भागवत का तरीका राजनीति की वही चौसर है, जिसमें आडवाणी माहिर हैं। हिन्दु राष्ट्र की खुली वकालत करते भागवत एक अग्रेजी न्यूज चैनल और अंग्रेजी अखबार को इटरव्यू इसलिये देते हैं, क्योंकि एक तरफ वह देश के प्रभावी अंग्रेजी मिजाज में अपनी हैसियत दिखा सके और दूसरी तरफ दक्षिण में सक्रिय संघ के कार्यकर्ताओ में भाजपा से खुद को बड़ा दिखा सके या संघ की हैसियत का अंदाजा येदुरप्पा की कर्नाटक की सत्ता की मदहोशी में संघ को भुलाते स्वयंसेवकों में जतला सके। <br /><br />वहीं भागवत को भागवत के ही जाल में बिना बोले उलझाना किसी भी राजनेता के लिये मुश्किल नहीं है और आडवाणी इसमें माहिर है, यह कोई भी उनके पचास साल की ससंदीय राजनीति की जोड-तोड से समझ सकता है । खासकर वाजपेयी की शागिर्दगी जिसने की हो, उसके लिये संघ का उग्र चेहरा क्यों मायने रखता है। जब देश की सामाजिक-सांसकृतिक लकीर ही संघ से इतर रास्ता पकड़ रही हो । इसलिये सवाल यह भी नहीं है कि आडवाणी की चाल में संघ फंसकर जसवंत पर सफायी देने में लगा या फिर चिंतन के बाद उन्हीं राजनाथ सिंह को आडवाणी के विपक्ष के नेता पर बने रहने का ऐलान करना पड़ा, जो खुद को संघ के सबसे करीबी मानते हैं, और अध्यक्ष की कुर्सी पाने के पीछे भी संघ का ही आशिर्वाद मानते हैं । बल्कि समझना यह भी होगा कि आडवाणी का भाषण भी उन्हीं सुषमा स्वराज ने पढ़ा, जिसे संघ आडवाणी की जगह लाना चाहता था। यानी जसंवत हटे तो लगे कि संघ नहीं चाहता। सुधीन्द्र कुलकर्णी हटे तो लगे संघ पसंद नहीं करता । तो फिर आडवाणी बने रहे यह कैसे बिना संघ की इजाजत के हो सकता है । असल में आडवाणी धीरे धीरे संघ को उस घेरे में ले आये हैं, जहा संघ की हर पहल उसी तरीके से कट्टर लगे, जैसे वाजपेयी का हर बुरा निर्णय संघ के दबाब वाला लगता था। यानी नरेन्द्र मोदी को लेकर निर्णय ना लेने के पिछे संघ का दबाब था । तो सवाल है जसंवत को हटाने के पीछे भी संघ का ही दबाब था। यानी राजनीतिक तौर पर भाजपा जिस मुहाने पर खड़ी है और संघ खुद को जिस जगह खड़ा पा रहा है, उसमें कोई अंतर बचा नहीं है । क्योकि संघ नियम-कायदे के तहत आडवाणी के हटने का मतलब है कंधमाल से ज्यादा बड़ी राजनीतिक त्रासदी के लिये तैयार रहना। <br /><br />वहीं आडवाणी के ना हटने का मतलब है सरसंघचालक भागवत का अलोकप्रिय होना या कहे संघ का कमजोर दिखना। संघ का संकट यह है कि दोनों स्वयंसेवक संघ परिवार के रिंग में ही आमने सामने खड़े हो गये हैं। इसलिये नागपुर में संघ के मुखपत्र तरुण भारत में अगर एमजी वैघ सीधे आडवाणी को पद छोडने की हिदायत भी देते हैं और दिल्ली में मुखपत्र पांचजन्य में संपादकीय के जरीये पहले जसवंत सिंह के जिन्ना प्रेम पर निशाना साधता है और तीन पन्नो बाद देवेन्द्र स्वरुप के लेख के मार्फत कंधार अपहरण कांड का जिक्र कर जसवंत पर अंगुली उठाते हुये आडवाणी की घेराबंदी करता है। तो इसका मतलब यह भी है कि संघ अपने आस्तित्व के लिये अब भाजपा को खतरा मान रहा है क्योकि नागपुर से लेकर दिल्ली तक में हर पहल संघ को ही कमजोर कर रही है और राजनीति में हारे आडवाणी को कमजोर भाजपा से ज्यादा मजबूत मान रही है । माना जा रहा है सरसंघचालक भागवत संघ परिवार के इस रिंग में आखरी राउंड दिल्ली में ही खेलेंगे । 28-29 अगस्त को दिल्ली में वह कौन से तरकश के तीर निकालेंगे, नजर सभी की इसी पर हैं, और शायद आडवाणी भी इसी राउंड का इंतजार कर रहे हैं क्येकि इसके बाद भागवत अपने सरकार्यवाह भैयाजी जोशी के साथ संघ की जमीन टटोलना चाहते है और आडवाणी अपने उत्तराधिकारी के लिये रास्ता बनाना चाहते हैं।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-4177597201850054282009-08-18T11:56:00.001+05:302009-08-18T11:58:02.591+05:30संघ के लिये तमाशा है बीजेपी की बैठकजब हेडगेवार और गुरु गोलवरकर के बगैर संघ अपना विस्तार कर सकता है तो वाजपेयी और आडवाणी के बगैर बीजेपी का विस्तार क्यो नहीं हो सकता ? यह सवाल 2005 में आरएसएस की बैठक में एक वरिष्ट्र स्वयंसेवक ने उठाया था । लेकिन चार साल बाद उसी बीजेपी के लिये उसी संघ परिवार का कोई प्रचारक कुछ कहने के लिये खड़ा नहीं हुआ। जब यह सवाल उठा कि बीजेपी को लेकर आरएसएस की दिशा क्या होनी चाहिये । तो क्या नागपुर से डेढ हजार किलोमीटर दूर शिमला में जब बीजेपी अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर चिंतन मनन करेगी तो आरएसएस खामोश ही रहेगी। <br /><br />असल में आरएसएस के भीतर बीजेपी को लेकर जख्म कितने गहरे हो चले हैं, इसका अंदाज इस बात से लग सकता है कि बीजेपी के चिंतन बैठक को लेकर संघ के भीतर एक सहमति बन चुकी है कि यह एक तमाशा है । और अब तमाशे पर आरएसएस अपनी ऊर्जा नहीं खपायेगी । लेकिन तमाशे तक स्थिति पहुंची कैसे और आगे का रास्ता किधर जाता है, इसे लेकर संघ ने पहली बार बीजेपी को लेकर कोई लकीर खिंचने से साफ इंकार कर दिया है। इसलिये यह सवाल जब आरएसएस में कोई मायने नहीं रखता कि लालकृष्ण आडवाणी को सरसंघचालक मोहनराव भागवत ने क्या कहा । तो मोहनराव भागवत के लिये यह कितना महत्वपूर्ण होगा कि वह आडवाणी को कुछ कहें। या कोई निर्देश दें। असल में सरसंघचालक मोहनराव भागवत की पहली जरुरत संघ परिवार का ऐसा विस्तार करना है, जिसमें हर तबके के लोग आरएसएस में अपनी जगह देखें। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि यह रास्ता हिन्दुत्व की जमीन पर रेंगेगा । लेकिन हिन्दुत्व को लेकर मोहनराव भागवत जिस जमीन को बनाना चाहते हैं, उसमें बीजेपी फिट नहीं बैठती। <br /><br />संघ मान रहा है कि हिन्दुत्व की राजनीतिक परिभाषा जिस तरह बीजेपी ने अपने राजनीतिक फायदे के लिये गढ़ी, उससे सबसे ज्यादा नुकसान संघ परिवार का ही हुआ है । बीजेपी ने हिन्दुत्व को एक ऐसा राजनीतिक मुद्दा बना दिया, जिसमें हर तबके के सामने हिन्दुत्व का मतलब बीजेपी के साथ खड़ा होना या ना होना हो गया । यानी जिस हिन्दुत्व को संघ ने सामाजिक जीवन के तौर पर सत्तर साल में बनाया और खुद को स्थापित किया, वहीं हिन्दुत्व अयोध्या आंदोलन के बाद से सत्ता का एक ऐसा केन्द्र बनता चला गया, जिसके आयने में बीजेपी ने संघ को ही उतारने की कोशिश की। बीजेपी की इस राजनीतिक पहल को विश्व हिन्दू परिषद ने भी जमकर हवा दी । विहिप ने झटके में बीजेपी के खिलाफ खड़े होकर संघ परिवार को दोहरा झटका दिया । क्योंकि अयोध्या आंदोलन को लेकर आरएसएस ने ही विहिप को आगे किया लेकिन विहिप के कर्ताधर्ता मोरोपंत ठेंगडी ने पहले आंदोलन को हड़पा फिर राजनीतिक तौर पर बीजेपी और विहिप कुछ उस तरह आमने सामने खड़े हुये, जिससे देश भर में संकेत यही गया कि विहिप की लाइन संघ की लाइन है और बीजेपी संघ के खिलाफ सेक्यूलरइज्म का राग अटल बिहारी वाजपेयी के जरीये गा रही है। <br /><br />उस दौर में सरसंघचालक सुदर्शन थे । जो बीजेपी-विहिप के बीच पुल बनना भी चाहते थे और बीजेपी को राजनीतिक पाठ पढाना भी चाहते थे । इसी पाठ के पहले अध्याय में ही वह वाजपेयी - आडवाणी को रिटायर होने की सलाह दे बैठे । यह तरीका आरएसएस का कभी रहा नहीं है, इसलिये सुदर्शन संघ के इतिहास में सबसे अलोकप्रिय सरसंघचालक साबित हुये । वहीं उस दौर में इन सारी स्थितियों को बारीकी से देख समझ रहे सरकार्यवाह मोहनराव भागवत की हर पहल नागपुर से दिल्ली पहुंचते पहुंचते बीजेपी की गोद में बैठने वाली होती रही, क्योंकि यही वह दौर था जब संघ के स्वयंसेवक देश चला रहे थे। और सरकार चलाते चलाते महसूस करने लगे कि देश आरएसएस से नही बीजेपी से चलेगी। संघ का एक तबका बीजेपी के इस गुरुर के आगे नतमस्तक भी हुआ और संघ-बीजेपी के बीच पुल का काम करने वाले स्वयसेवको को विचारधारा से ज्यादा राजनीतिक सत्ता भाने लगी। ऐसे में हिन्दुत्व का नया पाठ संघ की जगह बीजेपी-विहिप में बंट गया। इसीलिये सरसंघचालक बनने के बाद मोहनराव भागवत ने अपने पहले-दूसरे-तीसरे या कहे अभी तक के एक दर्जन से ज्यादा सार्वजनिक भाषणो में पहली और आखिरी लाईन हिन्दु राष्ट्र को लेकर ही कही। <br /><br />भागवत इस हकीकत को समझ रहे है कि सुदर्शन के दौर में संघ को बीजेपी केन्द्रीयकृत बना दिया गया । इसलिये मोहन भागवत की पहली लड़ाई बीजेपी के राजनीतिक हिन्दुत्व से है, जिसके आइने में पहली बार वह बीजेपी को उतरता हुआ देखना नहीं चाहते है । भागवत हिन्दुत्व का जो पाठ पढाना चाहते हैं उसमें देवरस की समझ भी है और गुरु गोलवरकर का कैनवास भी । हिन्दुत्व के बैनर तले ही देवरस ने वनवासी कल्याण आश्रम की शुरुआत की थी । सही मायने में कांग्रेस के पारंपरिक वोट बैक आदिवासियो में पहली सेंध देवरस की इसी पहल से लगी थी । लेकिन सत्ता में आने के बाद बीजेपी ने कभी जरुरत नहीं समझी कि वह आदिवासियो तो दूर वनवासी कल्याण आश्रम की सुध भी ले। इसी तरीके से हिन्दुत्व के बैनर तले ही 1972 में गुरु गोलवरकर ने ठाणे चितंक बैठक में अन्य पिछडे तबके यानी ओबीसी को संघ के साथ जोड़ने की पहल की। जिसका परिणाम हुआ कि गोपीनाथ मुंडे से लेकर शेवाणकर तक महाराष्ट्र में संघ परिवार से जुडे । और बाद में बीजेपी में । केरल के रंगाहरि को संघपरिवार में कौन नहीं जानता जो केरल से आने वाले ओबीसी ही है । जिन्होने बौघिक प्रमुख की भूमिका को बाखूबी लंबे समय तक निभाया। लेकिन बीजेपी ने राजनीतिक तौर पर ऐसी किसी सोशल इंजिनियरिंग की आहट कभी नहीं दी जिससे यह महसूस हो कि बीजेपी का कैनवास बढ रहा है । <br /><br />दत्तोपंत ठेंगडी ने किसान मंच और स्वदेशी को जिस आंदोलन के साथ खड़ा करने की सोच संघ परिवार के भीतर रखी , संयोग से जब उसमें धार देने का वक्त आया तो बीजेपी की अगुवाई में एनडीए की सरकार सत्ता में आ गयी, जिसने ठेंगडी की समझ को आगे बढाने के बदले आर्थिक सुधार का ट्रैक -2 पकड़ लिया । यशंवत सिन्हा के खिलाफ जब दत्तोपंत खुल कर सामने आए तो सुदर्शन ने ही उन्हे शांत कर दिया। इसी दौर में ट्रेड यूनियन बीएमएस के आर्थिक सुधार के खिलाफ खड़े होने के फैसले को भी संघ ने ही हाशिये पर ढकेल दिया । और सबकुछ पटरी पर लाने की बात कहने वाली बीजेपी ने गठबंधन की मजबूरी दिखा कर खुद को संघ से अलग कर लिया । इसलिये मोहनराव भागवत एक साथ दोहरी चाल चलने से भी नहीं कतरा रहे है । <br /><br />यह पहला मौका है कि सरसंघचालक और सरकार्यवाह दोनो नागपुर से निकले हुये है । दोनो को नागपुर में ही बैठना है । और दोनो की कोई राजनीतिक जरुरत नहीं है । मोहनराव भागवत और भैयाजी जोशी ने संघ परिवार के भीतर अपनी नयी पहल से इसके संकेत दे दिया है कि उनके लिये हिन्दुत्व मायने रखता है लेकिन हिन्दुत्व के आसरे कद बढाने वाली बीजेपी और विहिप मायने नहीं रखती । इसकी पहली पहल नये संगठन हिन्दु धर्म जागरण के जरीये मोहन भागवत ने शुरु की है । असल में धर्म जागरण को खड़ा कर विहिप को ठिकाने लगाने या कहे हाशिये पर ढकेलने का काम आरएसएस ने शुरु किया है । देश के हर हिस्से में संघ के प्रचारको को ही धर्म जागरण का काम आगे बढाने के लिये लगाया गया है । खास बात है कि पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन को भी जो नया काम सौपा गया है उसे भी धर्म जागरण के ही इर्द - गिर्द मथा गया है । मसलन भोपाल में सुदर्शन की नयी जगह निर्धारित की गयी है, जहां से वह देश भर का भ्रमण कर धर्माचार्यो और धर्मावलंबियो से मिलकर आरएसएस के हिन्दुत्व की दिशा में मजबूती देगै और धर्म जागरण के कार्यो में सीधा योगदान देकर इस नये संगठन को सामाजिक मान्यता दिलायेगे । <br /><br />खास बात यह भी है कि संघ धर्म जागरण के जरीये अयोध्या आंदोलन को नये तरीके से परिभाषित करना चाहता है । जिसका पहला निशाना अगर विहिप बनेगा तो दूसरा निशाना बीजेपी की हिन्दुत्व राजनीति पर होगा । क्यो कि संघ का मानना है कि अयोध्या के जरीये विहिप ने उसी उग्र सोच को आगे बढा दिया जिस लकीर पर कभी हिन्दु महासभा चला थी । जबकि बीजेपी ने अयोध्या के जरीये वोट बैंक की ऐसी राजनीति को आगे बढाया जिसमें अयोध्या हिन्दुत्व से ज्यादा सत्ता का प्रतीक बन गया । असल में मोहन भागवत की रणनीति हिन्दुत्व को लेकर एक ऐसी बड़ी लकीर खींचने वाली है, जिसे राजनीतिक तौर पर बीजेपी कभी हथियार ना बना सके । क्योंकि चुनाव से ऐन पहले भी अयोध्या जिस तरह बीजेपी के चुनावी मैनिफेस्टो का हिस्सा बन गया उसके बाद कोई ठोस समझ पूरे चुनाव में आडवाणी के जरीये नहीं उभरी उससे संघ के भीतर इस बात को लेकर ज्यादा कसमसाहट है कि सत्ता का प्यादा बने अयोध्या ने बीजेपी के भीतर संघ के स्वयसेवको को भी सत्ता का केन्द्र बना दिया है । यानी आडवाणी इसीलिये मान्य है क्योकि वह सबसे बुजुर्ग स्वयसेवक है । राजनाथ सिंह इसीलिये अध्यक्ष के तौर पर मान्य है क्योकि वह आडवाणी के खिलाफ संघ के प्यादे के तौर पर खडे है । यानी संघ भी बीजेपी के भीतर सत्ता का केन्द्र बना दिया गया है । <br /><br />ऐसी स्थिति में बीजेपी को लेकर कोई भी सवाल अगर आरएसएस करती है तो उसका लाभ - घाटा भी उन्ही नेताओ के इर्द-गिर्द सिमट जायेगा जो प्रभावी है , लेकिन संघ का नाम जपने के अलावे यह प्रभावी स्वयसेवक कुछ करते नहीं है । बीजेपी को लेकर संघ के भीतर किस तरह की खटास है इसका एहसास इससे भी किया जा सकता है कि नागपुर में स्वयसेवक गुरु गोलवरकर की जनसंघ को लेकर की गयी टिप्पणी को दोहराने लगे है । जनसंघ बनने के बाद जब गोलवरकर के सामने यह सवाल उभारा गया था कि राजनीतिक तौर पर मजबूत जनसंघ के स्वयसेवक के सामने आरएसएस के मुखिया का प्रभाव कितना मायने रखेगा तो गोलवरकर ने सीधा जबाब दिया था कि जनसंघ हमारे लिये गाजर की पूंगी है, बज गयी तो बज गयी..नहीं तो इसे खा जायेगे । नयी परिस्थितियों में यह आवाज संघ के भीतर बीजेपी को लेकर हो सकती है लेकिन सरसंघचालक और सरकार्यवाह यानी मोहन भागवत और भैयाजी का रुख बीजेपी को लेकर बिलकुल अलग है । दोनों के ही करीबी स्वयसेवकों की मानें तो जिन परिस्थितयों में पिछले दस साल के दौर में संघ कमजोर हुआ, वहीं स्थितियां बीजेपी के साथ भी रहीं । पार्टी और संगठन की मजबूती का आधार उसी कमजोर होते संघ को बनाया गया जिसे राजनीतिक सत्ता के लिये स्वयसेवकों ने ही दफन करने की कोशिश की। <br /><br />ऐसे में अगर आरएसएस यह सोच भी ले कि वह पद ना छोडने वाले लालकृष्ण आडवाणी को हटाने में भिड जाये तो आडवाणी के हटने के बाद भी बीजेपी को कौन ढोएगा । तब संघ की समूची ऊर्जा तो बीजेपी को संभालने में ही लग जायेगी । क्योंकि वहा सत्ता महत्वपूर्ण हो गयी है । विचारधारा या संगठन का विस्तार नहीं । इसका असर किस रुप में बीजेपी के भीतर पड़ रहा है, यह बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के जरीये समझा जा सकता है । स्वयसेवकों का मानना है कि संघ के आशिर्वाद से ही राजनाथ सिंह अध्यक्ष बने , यह सच है। लेकिन बतौर अध्यक्ष अगर उनकी मौजूदगी पार्टी में रही ही नहीं , या कहे वे बे-असर हो गये, तो इसमें संघ क्या कर सकता है । लेकिन यही परिस्थितयां बताती हैं कि बीजेपी की अंदरुनी हालत क्या है, इसलिये बीजेपी का चितंन शिविर बीजेपी के लिये नही बल्कि नेताओ को स्थापित करने के लिये है, जो पटरी से फिसल रहे है । <br /><br />चूंकि आलम यह है कि सभी अपनी अपनी राह पकडे हुये है । बीजेपी अध्यक्ष को जो चुनौती दे देता है वह मजबूत लगने लगता है । जो प्रभावी और नीतिगत फैसले लेने वाले है वह अपनी भूमिका पार्टी से हटकर, पार्टी को सत्ता में लाने की जोड-तोड में अगुवा नेता के तौर पर देखते है । यानी एक तरफ जोड-तोड़ की राजनीतिक सत्ता के लिये विचारधारा और पार्टी संगठन को भी सौदेबाजी में लगाते हैं, और दूसरी तरफ परिणाम अनुकूल नहीं होता तो हर जिम्मदारी से बच निकलना भी चाहते है । ऐसे में संघ ने अब बीजेपी को पार्किग जोन में खड़ा कर खुद को मथने का रास्ता अपनी शर्तो पर चुना है, इसलिये शिमला से बीजेपी चाहे कोई भी नारा लेकर निकले लेकिन पहली बार आरएसएस के लिये बीजेपी का चिंतन बैठक तमाशे से ज्यादा कुछ नहीं है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-8488641497576893892009-06-24T11:24:00.001+05:302009-06-24T11:27:16.062+05:30कैसे हुआ भाजपा का बंटाधार"जो लोग कल तक संघ की सभा और बैठकों में भौतिक इंतजाम करते थे। स्वंयसेवकों को भोजन कराकर, अपने घर में ठहराकर खुद को धन्य समझते थे । अब वही शीर्ष पर पहुंच गये हैं। भौतिक इंतजाम करना-करवाना पहले सरोकार की राजनीति करने वालो के प्रति श्रद्दा रखने समान था । अब भौतिक इंतजाम करवा पाना राजनीति का मूल मंत्र बन चुका है। पहले संघ की वैचारिक समझ के आसरे जनसंघ और फिर भाजपा की राजनीतिक जमीन बनाने की बात होती रही, अब भाजपा की राजनीतिक जमीन पर ही संघ की जगह नहीं बची है । सरोकार नहीं सुविधा के आसरे राजनीति खरीदी और बेची जा रही है,ऐसे में हम जैसे पुराने स्वसंसेवकों को तो नये मंत्रियो से मुलाकात का भी वक्त नहीं मिल पाता है।"<br /><br />यह वक्तव्य गुजरात के स्वास्थ्य मंत्री से मुलाकात का इंतजार कर रहे गुरु गोलवरकर के दौर में प्रचारक की हैसियत से जुडे संघ के बुजुर्ग स्वयंसेवक का दर्द है। लेकिन यह दर्द सिर्फ मोहन भाई तक सिमटा हो ऐसा भी नहीं है। भाजपा ही नहीं संघ के भीतर भी जो पीढ़ी और जो सोच वाजपेयी सरकार के दौर में चूकती चली गयी और खामोश रहना उसकी फितरत बन गयी 2009 के जनादेश ने अचानक उन्हें जुबान दे दी है। सौराष्ट्र से लेकर नागपुर तक के बीच एक हजार किलोमीटर की लंबी पट्टी पर जनसंघ या भाजपा से लेकर संघ तक का वर्तमान का कोई ऐसा प्रमुख कार्यकर्त्ता या नेता या फिर स्वयंसेवक नही होगा, जिसने उस इलाके में काम नहीं किया हो।<br /><br />लेकिन इस पूरे इलाके में संघ के स्वयसेवकों और भाजपा के कार्यकर्त्ताओं के भीतर झांकने पर साफ लगता है कि संघ ने जो राजनीतिक जमीन भाजपा के लिये दशकों की मेहनत से बनायी, उसे नेताओ के सत्ता प्रेम में ना सिर्फ गंवाया गया बल्कि संघ के भीतर भी नेता सरीखी एक नयी लीक तैयार हो गयी जो संघर्ष नही सुविधा टटोलने लगी। नागपुर के मनसुख भाई की मानें को भाजपा का मतलब मुद्दों को उठाकर भावनात्मक तौर पर संघ की सामाजिक जमीन पर राजनीतिक लाभ उठाना जरुर है लेकिन भाजपा में मुद्दों में बडे नेता हो गये और नेताओ के सामने संघ के स्वयंसेवक नकारे वोट बैंक भी नही बन पाये ।<br /><br />नागपुर से सटे छिंदवाडा के राजन ने तो देवरस के उस प्रयोग को बेहद करीब से देखा जो जेपी के जरिये 1974 में रचा गया । लेकिन किसी चुनावी राजनीति को पहली और आखिरी बार सुन्दरलाल पटवा के साथ छिंदवाडा में देखा जब कांग्रेस की कभी न हारने वाली सीट पर भाजपा के पटवा कांग्रेस के कमलनाथ की पत्नी अलका कमलनाथ को चुनौती देने पहुंचे थे। पटवा जब छिंदवाडा में उतरे तो उनके पीछे चावल-गेंहू-आलू-प्याज से लदा एक ट्रक भी आया। दो महीने चुनावी मशक्क्त पटवा ने संघ के प्रचारको और सामूहिक सरोकार की राजनीति के जरीये छिदंवाडा में कुछ इस तरह रची कि जो भी पटवा के प्रचार मुख्यालय में पहुंचता, वहां लंगर में खाने का इंतजाम हर किसी के लिये हमेशा रहता। इस दौर में विचारों का आदान-प्रदान होता और सामाजिक संगठन बनाने की संघ की सोच को मूर्त रुप में कैसे लाया जा सकता है, इस पर हर किसी से पटवा चर्चा करने से नहीं चूकते । प्रचार की कमान पूरी तरह संघ के अलग अलग संगठनों ने संभाल रखी थी । राजन के मुताबिक चुनाव प्रचार में करीब ढाई लाख रुपये खर्च हुये, जिसमें लंगर का खाना भी शामिल था। जिसका खर्च सबसे ज्यादा डेढ़ लाख तक का था । लेकिन पटवा की जीत के बावजूद अगले ही चुनाव में छिंदवाडा में टिकट उसी को दिया गया जो कमलनाथ की पूंजी की सत्ता से टकरा सकता था।<br /><br />जाहिर है कांग्रेस के तौर तरीको की राजनीति को भाजपा ने अपनाया, लेकिन संघ का साथ छूटता गया । असल में भाजपा ने चुनाव की राजनीति के जो तौर तरीके को अपनाया, उसमें संघ के तरीके फिट बैठ भी नहीं सकते थे । क्योंकि संघ का जोर संगठन के जरिये सामाजिक शुद्दीकरण के उस मिजाज को पकड़ना था, जिससे वोट डालने के साथ वैचारिक भागेदारी का सवाल भी वोटर में समाये। लेकिन भाजपा ने वोटर को सत्ता की मलायी से जोड़ने की राजनीतिक पहल न सिर्फ उम्मीदवारो के चयन को लेकर की बल्कि चुनावी घोषणापत्र से लेकर चुनाव प्रचार के दौरान वोटरों को लुभाने की ही जोर-आजमाइश की।<br /><br />संघ के स्वयसेवको के मुताबिक चूंकि भाजपा को कोई भी वोटर संघ से इतर देखता नहीं तो सत्ता की मलाई का प्रचार संघ के भीतर भी समाया। यानी यह बात सामाजिक तौर पर बहस का हिस्सा बनी की भाजपा की सत्ता का मतलब संघ के लिये सुविधाओ की पोटली खुलना है। इससे संघ के प्रति आम लोगो का नजरिया भी बदला । सेवक भाव के बहले सुविधा भाव नये स्वयंसेवको में ज्यादा है। पुणे के बुजुर्ग रविन्द्र मानाटे के मुताबिक आरएसएस के आठ दशक के दौर की सामाजिक समझ को वाजपेयी सरकार के दौर में सबसे ज्यादा झटका लगा, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। भाजपा के भीतर नेताओ की कतार की तरह संघ के भीतर भी नेताओं की कतार सत्ता से जुडने से नहीं चूकी। ऐसे में वह स्वयंसेवक हाशिये पर चले गये जो एक ऐसी राजनीतिक जमीन लगातार बना रहे थे, जिसका लाभ भाजपा को लगातार मिलता रहा ।<br /><br />भाजपा ने काग्रेस की तर्ज पर जिस तरह की राजकरण व्यवस्था को अपनाते हुये नीतियो को अपनाया, उसका सबसे बडा झटका संघ को ही लगा। नयी आर्थिक नीतियो को लेकर भाजपा जिस तरह कारपोरेट घरानो का हित देखने लगी और विश्व बैक के निर्देशो का लागू कराने में कांग्रेस से कहीं ज्यादा तेजी दिखाने लगी उससे अचानक संघ के वह सभी संगठन भोथरे साबित होने लगे, जिनके भरोसे भाजपा की कभी पहचान बनी। किसान मंच, स्वदेशी जागरण मंच से लेकर आदिवासी कल्याण मंच सरीखे दर्जन भर से ज्यादा आरएसएस के संगठन पहले बेकार हुये और फिर बीमार। राजनीतिक तौर पर भाजपा और संघ के बीच नीतियों को लेकर टकराव इन्हीं संगठनों के जरीये ही उभरा । यानी जनता के बीच यह संवाद कभी नहीं गया कि भाजपा की नीतियो को संघ नहीं मानता। उल्टे स्वदेशी जागरण मंच के दत्तोपंत ठेंगडी ने जब भाजपा की आर्थिक नीतियों पर चोट की या फिर किसान संघ ने कृषि अर्थव्यवस्था को लेकर भाजपा की अनदेखी पर निशाना साधा तो आरएसएस रेफरी की भूमिका में ही आयी। आदिवासी कल्याण संघ ने भी जब आदिवासियो की जमीन और जंगल खत्म करने की बात उठा कर भाजपा पर हमला बोला तो आरएसएस बीच-बचाव की मुद्रा में ही नजर आयी । इससे आरएसएस को लेकर भी उस राजनीतिक जमीन के लोगों में उहापोह की स्थिति बनी, जो संघ के जरीये भाजपा को देखते थे। पुणे के किसानों ने जब एसइजेड को लेकर वैकल्पिक एसइजेड का फार्मूला खुद ही विकसित करने का आवेदन सरकार को दिया तो स्वदेशी जागरण मंच और किसान संघ तक को समझ नहीं आया कि उसकी भूमिका अब क्या होनी चाहिये।<br /><br />स्वयंसेवक रविन्द्र के मुताबिक जो किसान पहले नयी आर्थिक नीतियों से परेशान होकर संघ की छांव में आते थे, नयी परिस्थितियों में वह संघ पर ही कसीदे गढ़ने लगे। नया असर यही है कि महाराष्ट्र में किसान राजनीतिक तौर पर भाजपा के साथ नहीं है और सामाजिक तौर पर आरएसएस को जगह नहीं देते। यहा तक की विदर्भ में शिवसेना की पहल को किसानो ने ज्यादा मान्यता दी है। चुनाव से ऐन पहले जब राजनाथ सिंह ने विदर्भ से किसान यात्रा शुरु की तो उसमें किसान की जगह भाजपा के शहरी कार्यकर्त्ता और किसानो को कर्ज देकर मुनाफा कमाने वाले भाजपायी ज्यादा थे । यवतमाल के नानाजी वैघ की उम्र 73 साल है । विश्व हिन्दू परिषद के गठन के वक्त ही संघ से वास्ता पड़ा लेकिन मंदिर मुद्दे पर जिस तरह का रुख वाजपेयी सरकार ने अपनाया और विहिप के विरोध के बावजूद आरएसएस ने महज रेफरी की भूमिका जिस तरह अपनायी, उससे आजिज आकर वैघ साहब ने संघ से रिटायरमेंट ले लिया । पूछने पर साफ कहने से नहीं चूकते कि संघर्ष सत्ता के लिये नहीं बेहतर समाज के लिये था। लेकिन अब सत्ता और नेता ही केन्द्र में हैं तो उसमें उनका क्या काम। राहुल गांधी यवतमाल के ही जालका गांव में जब कलावती से मिलने पहुचे थे, तो वैघ साहब वहीं मौजूद थे । नानजी वैघ के मुताबिक राहुल की यह राजनीतिक तिकडम हो सकती है कि वह कलावती का नाम लेकर खुद को देश के सुदूर हिस्सों से जोड़ रहे हों। लेकिन इससे सरोकार तो बना। संघ ने तो शुरुआत ही सरोकार से की थी और आठ दशकों से सरोकार की राजनीति को ही महत्व दिया। लेकिन भाजपा की सत्ता की मलाई की चाहत ने सभी नेताओ को कमरे में कैद कर दिया और दिल्ली में खूंटा गाढ़ दिया। वैघ का मानना है कि भाजपा कुछ न भी करे लेकिन उसके नेता लोगो से सरोकार तो बनाते, राजकरण में भाजपा ने सरोकार तो छोडा ही संघ को भी सरोकार की समझ के बदले बैठक और चिंतन से जोड दिया।<br /><br />खास बात यह है कि सौराष्ट्र से नागपुर की पट्टी में जितने सवाल संघ के भीतर भाजपा को लेकर है, उतने ही सवाल भाजपा के कार्यकर्ताओ में संघ को लेकर भी है । नागपुर में संघ का मुख्यालय जरुर है लेकिन यहां भाजपा लोकसभा चुनाव जीत नही पाती है। और तो और जब इमरजेन्सी में सरसंघचालक देवरस नागपुर में बैठकर जेपी के जरीये राष्ट्रीय प्रयोग कर रहे थे तो उसके बाद हुये चुनाव में चाहे जनता पार्टी को दो तिहायी बहुमत मिल गया हो लेकिन नागपुर ही नहीं विदर्भ की सभी ग्यारह सीटों पर कांग्रेस जीत गयी थी। उस वक्त देवरस का इन्टरव्यू नागपुर से प्रकाशित तरुण भारत में छपा था। जिसमें उन्होंने विदर्भ में कांग्रेस की जीत पर यही कहा था कि संघ के सरोकार विदर्भ से नहीं जुड़ पाये हैं तो इसकी बडी वजह दलित राजनीति है। और आंबेडकर की राजनीतिक ट्रेनिंग है। लेकिन भाजपा के भीतर गोविन्दाचार्य की सोशल इंजीनियरिंग की वजह से कल्य़ाण सिंह का कद बढ़ना देखा गया और उत्तर प्रदेश में एक वक्त भाजपा की राजनीतिक सफलता को भी कल्याण सिंह से जोड़ा गया लेकिन वही कल्याण सिंह बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद 1993 में जब पहली बार नागपुर आये थे तो संघ मुख्यालय में वह सिर्फ पांच मिनट ही रह पाये थे। इतनी छोटी मुलाकात के पीछे आरएसएस का ब्राह्माणवाद या दलित-पिछडा राजनीति को जगह ना देना भी माना गया। लेकिन संघ को लेकर कार्यकर्त्ताओ में कुलबुलाहट इतनी भर ही नही है कि संघ की राजनीतिक जमीन में भाजपा सत्ता पा नहीं सकती ।<br /><br />बडा संकट यह है कि भाजपा में अपना आस्तितिव बनाने के लिये नेता संघ की चौखट पर माथा टेकता है और संघ में खुद को बड़ा दिखाने के लिये वरिष्ठ संघी भाजपा को राजनीतिक हिदायत देता है । ऐसे में बंटाधार दोनो का हुआ । उमा भारती खुल्लमखुल्ला आडवाणी से गाली गलौच कर संघ मुख्यालय पहुंच कर राम माधव के साथ ही तस्वीर खिंचवाती हैं, और संघ भी उन्हें पुचकार कर सेक्यूलर रेफरी बन जाता है। ऐसे में सत्ता की सहूलियत ने संघ को भी सरोकार से डिगाया और संघ के भीतर भाजपा सरीखा पतन भी हुआ । कभी वाजपेयी-आडवाणी को उम्र की दुहायी देकर रिटायर होने की बात कही गयी। तो जिन्ना मसले पर आडवाणी से इस्तीफा भी मांगा गया और प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाने पर हरी झंडी भी दी गयी। यानी रेफरी की ही भूमिका आरएसएस की बढ़ती रही। संघ के भीतर एक तबके ने ठीक उसी तरह राजनीतिक मान्यता ली जैसी मान्यता संघ को खारिज कर पैसे वाले उन समर्थको को मिली , जो एक दशक पहले संघ या भाजपा की बैठको में भौतिक जरुरतो का इंतजाम अपने पैसे से करते थे। यानी पैसे वाले समर्थक चुनावी टिकट पाकर नेता बन गये तो संघ के वरिष्ठ और प्रभावी राजनीतिज्ञ बनने लगे। सत्ता ने किस तरह भाजपा को सिमटाया है, इसका अंदाजा भाजपा के मुख्यमंत्रियो को देखकर भी लगाया जा सकता है । छत्तीसगढ में रमन सिंह और मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान जब मुख्यमंत्री बने थे तो उन्हें कोई पहचानाता नहीं था। लेकिन अब इन दोनो के अलावे दोनो राज्य में कोई और भाजपा नेता का नाम जुबान पर आता नहीं है। कमोवेश यही स्थिति राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया की है और तमिलनाडु में येदुरप्पा की है । यानी दूसरी लाइन किसी नेता ने बनने ही नही दी। गुजरात में नरेन्द्र मोदी ने तो दूसरी-तीसरी किसी लकीर पर नेताओं को नहीं रखा है। जबकि, मुख्यमंत्री बनने से पहले अहमदाबाद या राजकोट के सर्किट हाउस का अदना अधिकारी भी मोदी को ग्राउंड फ्लोर का वीवीआईपी कमरा नहीं देते हुये हड़का देता था। कहा जा सकता है यही संकट भाजपा के केन्दिय नेताओ का भी है। 2004 में हार के बावजूद बाजपेयी ने आडवाणी के लिये रास्ता नहीं खोला था। 2009 में आडवाणी हार के बावजूद किसी दूसरे के लिये रास्ता नहीं खोल रहे हैं। माना जाता है सरसंघचालक मोहन राव भागवत के लिये पिछले एक साल से सुदर्शन जी भी रास्ता नहीं खोल रहे थे । लेकिन भागवत ने रास्ता बना ही लिया । लेकिन राजनीतिक तौर पर सवाल अनसुलझा है कि संघ परिवार में जब अपनों के लिये ही रास्ता नहीं बनाया जाता तो जनता इस परिवार के लिये रास्ता कैसे बनायेगी।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com11