tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger3125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-12684811904687016712011-11-26T12:34:00.001+05:302011-11-26T12:34:59.363+05:30क्यों नहीं चल रही है संसदअगर आप याद कीजिये कि संसद इस बरस कब एकजुट हुई। कब सामुहिकता का बोध लेकर चली। कब समूचा सदन किसी मुद्दे पर चर्चा कर समाधान के रास्ते निकला। तो यकीनन आम जनता से जुड़े किसी मुद्दे को लेकर ऐसी कोई याद आपकी आंखों के सामने नहीं रेंगेगी। यहां तक कि जिस महंगाई का रोना आज सभी रो रहे हैं, उस महंगाई पर भी पिछले सदन में चर्चा हुई लेकिन अधिकतर सांसद नदारद ही रहे। और खानापूर्ति के लिये चर्चा हुई। लेकिन याद कीजिये अगस्त के महीने में रामदेव की रामलीला को पुलिस ने जब जून में तहस-नहस किया और यह मामला संसद में उठा तो हर सांसद मौजूद था। अन्ना हजारे के अनशन को तुड़वाने के लिये तो समूची संसद ही एकजुट हो गई और लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार से लेकर प्रधानंमत्री तक की अगुवाई में सभी एकजुट दिखे। <br /><br />राज्यसभा में जस्टिस सेन के खिलाफ महाभियोग की कार्रवाई को याद कीजिये। अगस्त की ही घटना है। हर कोई सदन में बैठा नजर आया। तो क्या इसका मतलब यह निकाला जा सकता है जब जब संसद की साख पर सवाल उठे और जब जब सासंदों व राजनेताओं की साख सड़क पर डगमगायी और जब न्यायपालिका को पाठ पढ़ाने का मौका आया तो संसद ने अपना काम किया। यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि पहली बार 22 दिनों के संसद के शीतकालीन सत्र को लेकर सरकार की जेब में 31 पेंडिंग बिल हैं। नये 19 बिल हैं। और इस फेरहिस्त में हर वह बिल है जो आम जनता से लेकर कारपोरेट तक को सुविधा देगा। फुड सेक्युरिटी बिल आ गया तो सस्ते अनाज को बांटने का व्यापक रास्ता भी खुलेगा। और सस्ते अनाज के जरीये जिले और गांव स्तर पर घोटालो का रास्ता भी खुलेगा। खनन और खनिज संपदा को लेकर माइन्स एंड मिनरल डेवलपमेंट और रेगुलेशन बिल 2011 पास हुआ तो सरकार के हाथ में जमीन हथियाने के रास्ते भी खुलेंगे। और निजी कंपनियो को लाभ पहुंचाकर अपने तरीके से योजनाओ को लाने का रास्ता भी खुलेगा। सीड्स बिल 2004 पास हुआ तो बाजार किसानों को अपनी बीन पर नचायेगा और बाजार के जरीये किसान की फसल तय होगी। यानी छोटे किसानों की मुश्किल बढ़ेगी। <br /><br />इसी फेरहिस्त में कंपनी बिल से लेकर मनी लैंडरिंग बिल तक है। जीएसटी को लेकर सरकार कुछ पैसा चाहती है तो हवाला और मनीलैंडरिंग को रोकने के लिये संसद का मंच चाहती है। जाहिर यह सब किसी भी सरकार के लिये जरुरी है। खासकर तब जब सरकार के पास नीतियों के नाम पर विकास का ऐसा आर्थिक मॉडल हो जिसमें निजी हथेलियो को लाभ देते हुये आम जनता की बात की जाये। पहली मुश्किल यही है कि सरकार जो तमगा संसद के चलने से चाहती है वह ना भी मिले तो भी साउथ-नार्थ ब्लॉक से सरकार मजे में चल सकती है। फिर संसद की जरुरत है क्यों और हंगामा मचा हुआ क्यों है। तो हंगामे का पहला मतलब तो यह है कि सरकार चलाना और राजनीति साधना दोनों एक साथ नहीं चल सकते यह पहली बार सरकार भी समझ रही है और विपक्ष भी। लेकिन विपक्ष के हाथ में डोर इसलिये है क्योंकि मनमोहन सिंह के सबसे मजबूत सिपहसलार चिदंबरम फंसे हैं। जो उड़ान चिदंबरम ने यूपीए-1 के दौर में बतौर वित्त मंत्री रहते हुये भरी उसपर इतनी जल्दी ब्रेक लगाना पड़ेगा, यह ना तो प्रधानमंत्री ने सोचा और ना ही सरकार की नीतियों से आसमान में कुलांचे मारते कारपोरेट ने। चिदंबरम के आसरे मनमोहन सरकार की जो नीतियों 2004 से 2008 तक चली, चाहे वह पावर सेक्टर हो या खनन या फिर इन्फ्रस्ट्रचर, बंदरगाह या एसईजेड। <br /><br />अगर ध्यान दिजिये तो सरकार के साथ उस दौर में जो निजी कंपनिया सरकारी लाइसेंस का लाभ उठा रही थीं, संयोग से वही सब यूपीए-2 के दौर में घेरे में है। और बीजेपी का खेल अब यही से शुरु हो रहा। बीजेपी के लिये चिदंबरम का मतलब सिर्फ संघ परिवार को भगवा आतंकवाद के नाम पर घेरना भर नहीं है। उसके लिये चिदंबरम का मतलब 2 जी घोटाले में सरकार से बाहर कर उन कारपोरेट घरानो को डरा कर अपने साथ खड़ा भी करना है जिनके आसरे मनमोहन इक्नामिक्स अभी तक चलती रही । इसीलिये अनिल अंबानी के रिलायंस के तीन अधिकारी हो या यूनिटेक के संजय चन्द्र या पिर स्वान के डायरेक्टर जो तिहाड से जमानत पर छह महीने बाद निकले। उन सभी के हालात के पीछे चिदबरंम की खुली बाजार में खुली राजनीति रही और अब सरकार के साथ सटने से लाभ कम घाटा ज्यादा होगा, यही पाठ बीजेपी निजी सेक्टर को पढ़ाना चाहती है। और चूंकि शेयर बाजार से लेकर निवेश का रास्ते इस दौर में उलझे हैं। साथ ही आम आदमी की न्यूनतम जरुरतों से लेकर कारपोरेट का मुनाफा तंत्र भी डगमगाया है तो संसद ना चलने देने के सामानांतर बड़ी सियासत इस बात को लेकर भी चल रही है कि आने वाले वक्त में निजी कंपनियां या कारपोरेट घराने कांग्रेस का साथ छोड बीजेपी के साथ आते है या नहीं। <br /><br />दरअसल बीजेपी के इस सियासी समझ के पीछे सरकार के भीतर के टकराव भी है। जहां पहली बार आरएसएस को खारिज करने वाली मनमोहन सरकार के वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी तमाम नेताओं से मिलते हुये संघ के लाडले बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी का भी दरवाजा खटखटाते हैं। यानी एक तरफ चिदंबरम की संघ को घेरने की मशक्कत और दूसरी तरफ प्रणव मुखर्जी की संघ के दरवाजे पर दस्तक। और इस खेल में बीजेपी चिदंबरम की मात चाहती है। जाहिर है इसी मात के दस्तावेजों को सुब्रमण्यम स्वामी समेटे हुये हैं। लेकिन सरकार के भीतर का सच यह है कि चिदंबरम की मात का मतलब मनमोहन सिंह को प्रणव मुखर्जी की शह मिलना भी होगा, जो मनमोहन बिलकुल नहीं चाहेंगे। और इस सियासी गणित में दिग्विजय सिंह सरीखे नेता आरएसएस की ताकत उभारकर काग्रेस के वैचारिक बिसात को बिछाना चाहेंगे। यानी इस पूरे चकव्यूह को तोड़ेगा कौन और कैसे संसद शुरु होगी यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है। लेकिन संसद की जरुरत इस दौर में है किसे और संसद सजेगी किस दिन संयोग से यह सवाल भी संसद को चुनौती देने वाले उसी जनलोकपाल आंदोलन से जुडी है जिसे संसद के पटल पर भी इसी सत्र में रखा जाना है। तो य़कीन जानिये दिसबंर के पहले हफ्ते में जिस दिन सरकार ऐलान करेगी कि आज लोकपाल बिल रखेंगे। उस दिन सभी पार्टिया सदन में जरुर नजर आयेंगी। क्योंकि वहां सवाल संसद के जरीये राजनीति का नहीं बल्कि सड़क के आंदोलन से डर का होगा।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-90692094916199207082011-06-27T11:24:00.005+05:302011-06-27T11:48:06.778+05:30सूचना और तकनीक से आगे थी एसपी की पत्रकारिता<strong>एसपी की पुण्यतिथि - 27 जून</strong><br /> <br />जब सड़क के आंदोलन सरकार को चेता रहे हों और सरकार संसद की दुहाई दे कर सामानांतर सत्ता खड़ी ना हो, इसका रोना रो रही है तब लोकतंत्र के चौथे पाये की भूमिका क्या हो। यह सवाल अगर चौदह बरस पहले कोई एसपी सिंह से पूछता, तो जवाब यही आता कि इसमें खबर कहां है। 1995 में आज तक शुरू करने वाले एसपी सिंह ने माना जो कैमरा पकडे वह तकनीक है, जो नेता कहे वह सूचना है और इन दोनों के पीछे की जो कहानी पत्रकार कहे- वह खबर है। तो क्या इस दौर में खबर गायब है और सिर्फ सूचना या तकनीक ही रेंग रही है। अगर ईमानदारी की जमीन बनाने में भिड़े अहं के आंदोलन के दौर को परखें तो एसपी के मिजाज में अब के न्यूज चैनल क्या-क्या कर सकते हैं, यह तस्वीर घुघंली ही सही उभर तो सकती है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि अन्ना के आंदोलन की जमीन आम आदमी के आक्रोश से बनी और फैल रही है। जिसमें संसद, सरकार की नाकामी है। जिसमें मंत्रियों के कामकाज के सरोकार आम आदमी से ना जुड़ कर कारपोरेट और निजी कंपनियो से जुड़ रहे हैं। <br /><br />तो फिर मीडिया क्या करे। संसद में जनता के उठते मुद्दों को लेकर राजनीतिक दलों का टकराव चरम पर पहुंचता है, तो न्यूज चैनलों को टीआरपी दिखायी देती है। टकराव खत्म होता है तो किसी दूसरे टकराव की खोज में मीडिया निकल पड़ता है या फिर राजनेता भी मीडिया की टीआरपी की सोच के अनुसार टकराव भरे वक्तव्य देकर खुद की अहमियत बनाये रखने का स्कीनिंग बोल बोलते है। तो मीडिया उसे जश्न के साथ दिखाता है। नेता खुश होता है, क्योंकि उसकी खिंची लकीर पर मीडिया चल पडता है और उन्माद के दो पल राजनीति को जगाये रखते है। हर पार्टी का नेता हर सुबह उठकर अखबार यही सोच कर टटोलता है कि शाम होते-होते कितने न्यूज चैनलों के माइक उसके मुंह में ठूंसे होंगे और रात के प्राईम टाइम में किस पार्टी के कौन से नेता या प्रवक्ता की बात गूंजेगी। कह सकते हैं मीडिया यहीं आकर ठहर गया है और राजनेता इसी ठहरी हुयी स्क्रीन में एक-एक कंकड़ फेंक कर अपनी हलचल का मजा लेने से नहीं कतराते है। अगर अन्ना के आंदोलन से ठीक पहले महंगाई और भ्रष्टाचार के सवालो को लेकर संसद, नेता और मीडिया की पहल देखें, तो अब उस दौर की हर आवाज जश्न में डूबी हुई सी लगती है। <br /><br />पहले महंगाई के दर्द ने ही टीस दी। संसद में पांच दिन तक महंगाई का रोना रोया गया। कृषि मंत्री शरद पवार निशाने पर आये। कांग्रेस ने राजनीति साधी। लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने तो पवार के हंसने को आम आदमी के दर्द पर नमक डालना तक कहा। और मीडिया ने बखूबी हर शब्द पर हेंडिग बनायी। इसे नीतियों का फेल होना बताया। चिल्ला-चिल्ला कर महंगाई पर लोगों के दर्द को शब्दों में घोलकर न्यूज चैनलो ने पिलाया। लेकिन हुआ क्या। वित्त मंत्री तो छोडि़ये प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक ने महंगाई थमने का टारगेट पांच बार तय किया। सितंबर 2010. फिर नवंबर 2010. फिर दिसंबर 2010, फिर फरवरी 2011 फिर मार्च 2011। प्रधानमंत्री ने जो कहा, वो हेडलाइन बना। तीन बार तो टारगेट संसद में तय किया। तो क्या मीडिया ने यह सवाल उठाया कि संसद की जिम्मेदारी क्या होनी चाहिये। यानी मनमोहन सिंह ने देश को बतौर प्रधानमंत्री धोखा दे दिया यह कहने की हिम्मत तो दूर मीडिया मार्च के बाद यह भी नहीं कह पायी कि प्रधानमंत्री कीमतें बढ़ाकर किन-किन कारपोरेट सेक्टर की हथेली पर मुनाफा मुनाफा समेटा। गैस के मामले पर कैग की रिपोर्ट ने रिलायंस को घेरा और पीएमओ ने मुकेश अंबानी पर अंगुली उठाने की बजाये तुरंत मिलने का वक्त दे दिया। क्या मीडिया ने यह सवाल उठाया कि जिस पर आरोप लगे हैं उससे पीएम की मुलाकात का मतलब क्या है। जबकि एक वक्त राजीव गांधी ने पीएमओ का दरवाजा धीरुभाई अंबानी के लिये इसलिये बंद कर दिया था, कि सरकार पाक-साफ दिखायी दे। तब मीडिया ने कारपोरेट की लड़ाई और सरकार के भीतर बैठे मंत्रियों के कच्चे-चिट्ठे भी जमकर छापे थे। लेकिन अब मीडिया यह हिम्मत क्यो नहीं दिखा पाता है। <br /><br />याद कीजिये संसद में भ्रष्टाचार के खिलाफ पहली आवाज आईपीएल को लेकर ही उठी। क्या-क्या संसद में नहीं कहा गया। लेकिन हुआ क्या। आईपीएल को कामनवेल्थ घोटाला यानी सीडब्ल्यूजी निगल गया। सीडब्ल्यूजी को आदर्श घोटाला निगल गया। आदर्श को येदुयरप्पा के घोटाले निगल गये। और इन घोटालों ने महंगाई की टीस को ही दबा दिया। लेकिन हर घोटाले के साथ मीडिया सोये हुये शेर की तरह जागा। उसने अखबारों के पन्नों से लेकर न्यूज स्क्रीन तक रंग दिये। लेकिन लोकतंत्र का प्रहरी है कौन, यह सवाल हर उठती-बैठती खबर के साथ उसी जनता के दिमाग में कौंधा, जिसने नेताओं को संसद पहुंचाया और जिसने मीडिया को टीआरपी दे रखी है। क्योंकि हर आवाज से बड़ी आवाज लगाने वाले सामने आते गये। देश के इतिहास में पहली बार कोई चीफ जस्टिस घोटाले के घेरे में भी आया और सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार किसी घोटाले में केबिनेट मंत्री, सांसद, नौकरशाह, कारपोरेट कंपनी के कर्त्ता-धर्त्ताओं को जेल भी भेजा। मीडिया ने हर पहल को खबर माना और हंगामे के साथ उसके रंग में भी रेंग गयी। लेकिन, इस पूरे दौर में यह सवाल कभी नहीं खड़ा हुआ कि संसद चूक रही है। प्रधानमंत्री का पद गरिमा खो रहा है। लोकतंत्र के तीनों पाये चैक-एंड-बैलेंस खोकर एक दूसरे को संभालने में लगे हैं। और ऐसे में चौथा पाया क्या करे। <br /><br />असल में अन्ना हजारे के आंदोलन को कवर करते मीडिया के सामने यही चुनौती है कि वह कैसे लोकतंत्र के पायों पर निगरानी भी करे और आंदोलन की जमीन को भी उभारे, जहां ऐसे सवाल दबे हुये हैं जिनका जवाब सरकार या राजनेता यह सोच कर देना नहीं चाहेंगे कि संसद मूल्यहीन ना ठहरा दी जाये। और सिविल सोसायटी यह सोच कर टकराव नहीं लेगी कि कहीं उसे राजनीतिक तौर पर ना ठहरा दिया जाये। और आखिर में संसद के भीतर के संघर्ष की तर्ज पर सड़क का संघर्ष भी धूमिल ना हो जाये। न्यूज चैनलों की पत्रकारिता के इस मोड़ पर 14 बरस पहले के एसपी सिंह के प्रयोग सीख दे सकते है। जो चल रहा है वह सूचना है, लेकिन वह खबर नहीं है। अब के न्यूज चैनल को देखकर कोई भी कह सकता है कि जो चल रहा है वही खबर है। दिग्विजय सिंह का तोतारंटत हो या या फिर सरकार का संसद की दुहाई देने का मंत्र। विपक्ष के तौर पर बीजेपी की सियासी चाल। जो अयोध्या मुद्दे पर फैसला सड़क पर चाहती है, लेकिन लोकपाल के घेरे में प्रधानमंत्री आये या नहीं इस पर संसद के सत्र का इंतजार करना चाहती है। <br /><br />महंगाई और भ्रष्टाचार पर ममता के तेवर भी मनमोहन सिंह के दरवाजे पर अब नतमस्तक हो जाते हैं। करुणानिधि भी बेटी के गम में यूपीए-2 की बैठक में नहीं जाते हैं। शरद पवार मदमस्त रहते है। और अन्ना की टीम इस दौर में सिर्फ एक गुहार लगाती है कि संसद अपना काम करने लगे। सभी मंत्री इमानदार हो जायें। न्यायापालिका भ्रष्ट रास्ते पर ना जाये, नौकरशाही और मंत्री की सांठगांठ खत्म हो और प्रधानमंत्री भी जो संसद में कहें कम से कम उस पर तो टिकें। संसद ठप हो तो प्रधानमंत्री विदेश यात्रा करने की जगह देश के मुद्दों को सुलझाने में तो लगें। क्या इन परिस्थितियों को टटोलना खबर नहीं है। यानी सत्ता जो बात कहती है, उसका पोस्टमार्टम करने से मीडिया अब परहेज क्यों करने लगा है। सरकार का कोई मंत्री कैग जैसी संवैधानिक संस्था पर भी अंगुली उठाता है और सिविल सोसायटी से टकराने के लिये संविधान की दुहाई भी देता है। फिर भी वह सरकार के लिये सबसे महत्वपूर्ण बना रह जाता है।<br /><br />दरअसल 1995 में एसपी सिंह ने जब सरकार की नाक तले ही आज तक शुरु किया, उस वक्त भी साथी पत्रकारों को पहला पाठ यही दिया, सरकार जो कह रही है वह खबर नहीं हो सकती। और हमें खबर पकड़नी है। खबर पकड़ने के इस हुनर ने ही एसपी को घर-घर का चहेता बनाया। एसपी उस वक्त भी यह कहने से नहीं चूकते थे कि टीवी से ज्यादा सशक्त माध्यम हो नहीं सकता। लेकिन तकनीक पर चलने वाले रोबोट की जगह उसमें खबर डालकर ही तकनीक से ज्यादा पत्रकारिता को सशक्त बनाया जा सकता है। और अगर सूचना या तकनीक के सहारे ही रिपोर्टर ने खुद को पत्रकार मान लिया, तो यह फैशन करने सरीखा है। तो क्या अब न्यूज चैनल इससे चूक रहे हैं और इसलिये अन्ना की सादगी और केजरीवाल की तल्खी भी सिब्बल और दिग्विजय की सियासी चालों में खो जाती है। और संपादक असल खबर को पकड़ना नहीं चाहता और रिपोर्टर झटके में कैमरे को लेकर भागता या माईक थामे फैशन कर हाफंता ही नजर आता है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-70483645452473038072009-08-07T13:10:00.000+05:302009-08-07T13:11:37.991+05:30राजपथ से संसद की तस्वीर उतारते चेहरों का सचचना-चबेना यहां नही बेचेंगे तो कहां बेचेंगे । क्यों, पूरी दिल्ली में और कहीं जगह नहीं बची है। लेकिन सर, और कहीं कहां कोई खरीदता है। लेकिन यह वीआईपी इलाका है । यहां खड़े भी नहीं हो सकते। अपना टोकरी-डंडा उठाओ और सीधे इंडिया गेट के पास चले जाओ। दिखायी दे रहा है न इंडिया गेट। लेकिन सर, वहां तो कई हैं बेचने वाले । यहां तो हम अकेले हैं। एक घंटा खड़े रहने दीजिये। फिर चले जायेंगे। अच्छा देख सड़क छोड़कर वह दूर पेड़ के नीचे चला जा...जहां कुछ गोरे लोग फोटो खींच रहे हैं और एक घंटे बाद नजर न आना। <br /><br />संसद के ठीक सामने विजय चौक के किनारे पत्थर पर लिखे 'राजपथ' की ओट में ही पुलिस और चना बेचने वाले के बीच चल रही इस बहस को सुनते हुये मुझे भी आश्चर्य लग रहा था कि संसद के ठीक सामने यह एक ऐसी जगह है, जहां वाकई कोई सड़क पर कुछ भी बेचेने वाला जब खड़ा भी नहीं हो सकता है तो चना वाला अपना सामान बेचने की जिद भी कर रहा है और पुलिस वाला भी पुलिसिया अंदाज के बदले समझाते हुये उसे पेड़ की ओट में चना बेचने की जगह भी दे रहा है। क्योंकि राजपथ लिखे पत्थर के तीर के निशान पर सीधे इंडिया गेट है तो बांयी तरफ संसद भवन का गेट है । वहीं सडक के ठीक दुसरी तरफ राष्ट्रपति भवन है, जिसके दांये बाये नार्थ और साऊथ ब्लॉक है। जिसके बीच में बेहतरीन रायसीना हिल्स। और इस पूरे इलाके की तस्वीर लेने के लिये जनपथ का यही मुहाना सबसे बेहतरीन स्पॉट है। <br /><br />जाहिर है ऐसे में पर्यटकों का हुजूम इसी किनारे जमा होकर कैमरे में खुद के साथ लुटियन की इस विरासत को कैमरे में कैद करता है । लेकिन संसद जब चल रही होती है तो यहां भी आवाजाही बेहद कम कर दी जाती है। ऐसे में चने वाले को देख कर पहली बात मेरे जेहन में यही आयी कि शायद यह यहां हाल फिलहाल में आया है इसलिये इसे इस वीआईपी इलाके के बारे में कोई जानकारी नहीं होगी। उससे बात करने के ख्याल से पेड़ के नीचे जाते चने वाले को मैंने कहा, मेरे लिये दस रुपये के चने बनाओ मैं वहीं आ रहा हूं। <br /><br />फिर पुलिस वाले से न चाहते हुये भी मैंने पूछा कि, उसे वहां क्यो भेज दिया । यहां तो चाय वाले को आप लोग टिकने नहीं देते हैं। आप सही कह रहे हैं। लेकिन किसे कहां भगाये। बेचारा कुछ बेच लेगा तो रोजी-रोटी का इंतजाम हो जायेगा। मैं हैरत में था कि कोई पुलिस वाला इस तरह बोल रहा है। मैंने पूछा...आप कहां के हो । मैं बुलंदशहर का हूं। वहां खेती है क्या । हां...गांव में खेती है । अपनी काफी जमीन है । लेकिन इसबार जमीन खाली है । कौन देखता है खेती। आप यह सब क्यों पूछ रहे हो । ऐसे ही जानना चाह रहा हूं कि आप जमीन से जुड़े होंगे तभी आपने चने वाले को भी नहीं मारा और उसे भी धंधा करने की जगह बता दी । बस इसीलिये । पत्रकार तो नहीं हो। पत्रकार ही हूं। लेकिन मुझे अच्छा लगा जो आपने उसे थप्पड़-लप्पड़ नही मारा। मैं क्या मारु उसे ..इसबार तो उपर वाला ही सबको मार रहा है। पिछले शनिवार ही बुलंदशहर गया था । ताऊजी खेती देखते हैं, और बता रहे थे कि इस बार सारे बीज ही जल गये। दोबारा बीज बोये हैं लेकिन एक चौथाई फसल भी हो जाये तो घरवालों का पेट भरेगा। नहीं तो सरकारी राहत की आस देखनी होगी। आपका इलाका भी तो मायावती ने सूखा करार दिया है। क्या वही राहत गांव गांव पहुंचेगी । अब गांव में जो पहुंचे लेकिन वहा अगर तो आप दलित या पिछड़े हो तब तो आपकी बात अधिकारी सुनते हैं। नहीं तो राहत लेने के लिये इतने कागज-दस्तावेज मांगे जाते हैं, जिन्हें जुगाडने का मतलब है साल बीत जाना। आप पुलिस में हो, तो क्या आपकी भी नहीं चलती। गांव में तैनात पुलिस वालो की ही जब नहीं चलती तो मेरी क्या चलेगी। जाति पर चलता है । पिछडी जाति से तो एसपी भी घबराता है। कोई दलित रपट लिखाने थाने पहुंच जाये तो उसे कुर्सी पर बैठाया जाता है और कोई दूसरा पहुंचे तो उसी के खिलाफ हरिजन एक्ट में मामला दर्ज करने की धमकी देकर सब बात अनसुनी कर दी जाती है। <br /><br />बात आगे बढ़ती, लेकिन उसी बीच चना वाला आवाज देता हुआ आता दिखायी दिया। मैंने पुलिसवाले से फिर मिलने के इरादे से कहा, आपकी बात तो संसद में भी उठनी चाहिये । कोई उठायेगा तो आपको बताऊंगा । वह भी सड़क पार करते करते बोला, लिख लो खेती और गरीबी पर संसद में मामला उठ ही नहीं सकता है। फिर यूपी में तो मायावती और राहुल गांधी में दो दो हाथ हो रहा है । राजनीति हम समझते नहीं...चलते हैं कह कर वह पुलिस कांस्टेबल सड़क पार कर गया। मुड़ा तो चना वाला चना लेकर हाजिर था। मैंने उसे टोकते हुये कहा। वहीं चलो नहीं तो पुलिस वाला तुमको यहां से भी भगा देगा । यह कहकर मैं पेड़ की ओट में रखी उसकी टोकरी की तरफ उसके साथ ही बढ़ चला । सर, दस रुपये दीजिये । अरे जल्दी क्या है ...दे रहा हूं । नाम क्या है तुम्हारा । अशोक । पूरा नाम । अशोक शांडिल्य । अरे वाह...बढ़िया नाम है, कहां से आये हो । बिहार से । बिहार में कहां से । गया से । पुलिस वाला चाहता तो तुम्हे बंद भी कर सकता था, लेकिन वह अच्छा व्यक्ति था। बेटा, इसलिये बच गया तू । अशोक तेवर में बोला..आप इंतजार करो सभी अच्छे हो जायेंगे। मैंने कहा मतलब । मतलब कुछ नहीं । मै एमए पास हूं । मैं जब यहां चने बेच सकता हूं तो दूसरा कोई बुरा होकर भी मेरा क्या बिगाड़ लेगा । पुलिसवला मुझे बंद कर देता तो थाने या जेल में कुछ तो मिलता। मुझे झटके में लगा कि एमए पास एक लड़के में इतना आक्रोष क्यों है। गया में क्या करते थे, मैं कुछ गुस्से में ही उससे पूछ बैठा । आप बिहार कभी गये हो । मैंने कहा, वहीं का हूं । गया तो कई कई बार गया हूं। यह बताओ वहां करते क्या थे। क्या करता था ...सर पढ़ता था । फिर दिल्ली क्यों आ गये। क्या करता घरवालों को मरते हुये देखता । खाने के लाले पड़े हुये हैं वहां पर । पानी है नहीं। खेत में तो दूर पीने का पानी तक नहीं है। बिजली की कोई व्यवस्था नहीं है। रोजगार है नहीं। अब आप ही बताओ गया में रहूं या घर छोड़कर कहीं भागना अच्छा है। तो दिल्ली आ गया हूं । वहां पीने का पानी भी नहीं है। <br /><br />फिर, अशोक ने बिना सोचे सीधा सौदा किया। अगर दस रुपये का चना और लोगे तो रुक कर बताऊंगा नही तो मैं चला। मैंने तुरंत हामी भरी। और अशोक ने जो कहा उससे मैं अंदर से हिल गया। गया के टेकरी थाना में मेरा घर है। मेरे परिवार के खिलाफ थाने में पुलिस ने मामला दर्ज कर खेत में पड़े पंप को इसलिये जब्त कर लिया क्योंकि खेत में पंप चलाने से जमीन के नीचे का पानी और नीचे चला जाता है। जिससे पूरे इलाके में हैंडपंप ने काम करना बंद कर दिया है । जिनके पास खेत नहीं है , उन्होंने थाने में शिकायत की । और जिनके पास खेत हैं यानी रोजी-रोटी खेत पर ही टिकी है, वह क्या करें । करीब 25 लोगो के खेत पंप जब्त कर लिये गये और मामला पानी सोकने का दर्ज कर लिया गया । अशोक के मुताबिक उसने थाने में जाकर माना कि पहली जरुरत पीने के पानी की है लेकिन कोई रास्ता तो बताये कि वह लोग खेती कैसे करें। एमए पास अशोक के मुताबिक पहले जमीन के नीचे 50 फीट में पानी निकल जाता था । लेकिन जिस तरह क्रंक्रीट के मकान बने हैं और पेड़-हरियाली खत्म की गयी है, उससे जमीन के नीचे पानी 200 फीट तक चला गया गया है। वहीं सरकार ने पानी बचाने की पुरानी सारी व्यवस्था घ्वस्त कर दी है । या कहें कोई नयी व्यवस्था वाटर कन्जरवेशन की है नहीं । इसलिये पानी नालों में ही बहता है । ताल-तलाब-पोखर सरीखे पानी रोकने के पारंपरिक तरीके ध्वस्त हो चुके है । खेती होगी कैसे इसका एकमात्र तरीका पंप से जमीन के नीचे का पानी खिंचना भर है। और पंप चलाने के लिये डीजल चाहिये । जिसके लिये पूंजी होनी चाहिये। लेकिन नीतिश कुमार तो शहरो की बिजली काट कर गांव में सप्लायी कर रहे हैं। तो पंप तो उससे भी चल सकते हैं। आप क्या बोल रहे हैं। आपने खेत में कहीं बिजली का खंभा देखा है क्या। खेत तक बिजली पहुंचेगी कैसे । और जिनके खेत गांव से एकदम सटे हुये हैं, वहां भी सिंगल फेस ही है। जिसमें मोटर पंप चल ही नहीं सकता। नीतिश कुमार के गांव प्रेम से जरुर हुआ है कि गांव में कुछ देऱ पंखे की हवा मिलने लगी है। लेकिन इससे खेती का कोई भला नहीं हो रहा है। फिर खेती की हर योजना तो फेल है। डीजल महंगा है । यहा सब्सिडी का डीजल लेने के लिये जो दस्तावेज बाबूओं को चाहिये, उसमें सभी का कमीशन ही कुछ इस तरह जुड़ा रहता है कि सस्ते में डीजल मिल ही नही सकता इसलिये सरकार का आंकडा आप चेक कर लिजिये गया में डीजल की सब्सिडी का नब्बे फिसदी वापस हो गया। सरकार ने एक मिलियन सेलो ट्यूबवेल स्कीम निकाली । जिसमें ट्यूबवेल किरासन से चलता । लेकिन किरासन तेल तो सिर्फ गरीबी रेखा के नीचे वालों को ही मिलता है। तो यह भी गांव में पहुंचते पहुंचते फेल हो गया। क्योंकि बीपीएल होने के लिये जो कमीशन देने पहंचा और उसके बाद किरासन तेल मिलता तो उसकी किमत डीजल से महंगी पडने लगी। ऐसे में लोग लोन लेकर डीजल से पंप चलाने लगे तो मामला सरकारी हैडपंप को बर्बाद करने का और पीने का पानी खत्म करने का आरोप लगने लगा। <br /><br />अब आप ही बचाइये गया में रहकर क्या करता । मैं खामोश रह कर संसद की तरफ बढ़ने लगा । लेकिन विजय चौक पर खडे पत्रकार साथी ने बता दिया कि अंबानी भाइयों के गैस मामले में महंगाई का मुद्दा रफूचक्कर हो चुका है और अब सीधे शर्म-अल-शेख में जारी साझा बयान पर चर्चा होगी, जिसमें बलूचिस्तान का जिक्र है । मुझे लगा राजपथ पर खड़े होकर संसद की तस्वीर उतारते किसी भी पर्यटक की आंखों में जब बुलंदशहर या गया का दर्द दिखायी नही देता है तो संसद के भीतर खेत-किसान-महंगाई का दर्द कौन देखेगा। संसद को तो गैस का बिजनेस और बलूचिस्तान का खौफ ही डरा रहा है। ऐसे में, राजपथ पर मानवीय पुलिसवाले और एमए पास चने वाले की क्या औकात कि वह संसद को आइना दिखा दे ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com18