tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger7125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-43451507766827003102011-12-02T09:25:00.001+05:302011-12-02T09:26:27.084+05:30देश नहीं, सत्ताधारियों की आजादीपहली बार विदेशी निवेश पर घिरे 'मनमोहनोमिक्स' ने मौका दिया है कि अब बहस इस बात पर भी हो जाये कि देश चलाने का ठेका किसी विदेशी कंपनी को दिया जा सकता है या नही। संसदीय चुनाव व्यवस्था के जरीये लोकतंत्र के जो गीत गाये जाते हैं अगर वह आर्थिक सुधार तले देश की सीमाओं को खत्म कर चुके हैं,और सरकार का मतलब मुनाफा बनाते हुये विकास दर के आंकड़े को ही जिन्दगी का सच मान लिया गया है तो फिर आउट सोर्सिंग या बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जरीये सरकार चलाने की इजाजत अब क्यों नहीं दी जा सकती। अगर 69 करोड़ वोटरों के देश में लोकतंत्र का राग अलापने वाली व्यवस्था में सिर्फ 29 करोड़ [ 2009 के आम चुनाव में पड़े कुल वोट लोग ]वोट ही पड़ते हैं और उन्हीं के आसरे चुनी गई सरकार [ कांग्रेस को 11.5 करोड़ वोट मिले ] यह मान लेती है कि उसे बहुमत है और उसके नीतिगत फैसले नागरिको से ज्यादा उपभोक्ताओं को तरजीह देने में लग जाते हैं तो फिर यह सवाल क्यों नहीं उठना चाहिये कि देश के 40 करोड़ <br />उपभोक्ताओ को जो बहुराष्ट्रीय कंपनी अपने साथ जोड़ने का मंत्र ले आये देश में उसी की सत्ता हो जाये। <br /><br />असल में छोटे और मझोले व्यापारियों से लेकर किसान और परचून की दुकान चलाने वालो को अगर विदेशी कंपनियों के हवाले करने की सोच को सरकार ताल ठोक कर कह रही है तो समझना यह भी होगा कि आखिर आने वाले वक्त में देश चलेगा कैसे और उसे चलाने कौन जा रहा है। और आर्थिक सुधार की हवा में कैसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश दुनिया के सबसे बडे बाजार में बदलता जा रहा है । जिस पर वालमार्ट,आकिया या कारफूर सरीखी वैश्विक खुदरा कंपनियो की चील नजर लगी हुई है। इसमें दो मत नही कि एफडीआई को देश में बडी मात्रा में घुसाने का प्रयास पहली बार 2004 में चुनाव से ऐन पहले बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार ने ही किया। और संसद के भीतर उस वक्त लोकसभा में विपक्ष के नेता प्रियरंजनदास मुंशी और राज्यसभा में प्रतिपक्ष के नेता मनमोहन सिंह ने विरोध करते हुये सरकार को पत्र लिखा। लेकिन 2007 में वही मनमोहन सिंह पहली बार पलटे और उन्होंने एफडीआई की वकालत की और यह मामला जब संसदीय समिति के पास गया तो बीजेपी पलटी और स्टैंडिंग कमेटी के अध्यक्ष के तौर पर मुरली मनमोहर जोशी ने इसका विरोध किया। लेकिन यहां भी सवाल राजनातिक दलों या राजनेताओ की सियासी चालो का नहीं है। <br /><br />असल में देश के भीतर ही देश को बेचने का जो सिलसिला शुरु हुआ है और अब वह लूट सामने आ रही है तो पहली बार प्रशनचिन्ह सरकार चलाने और राजनीति साधने में तालमेल बैठाने पर पड़ा है। मनमोहन सिंह के दौर में अर्थशास्त्र के नियमों ने पहली बार देशी कारपोरेट को बहुराष्ट्रीय कंपनियो में तब्दील कर दिया। देश के टॉप कारपोरेट घरानों ने भारत छोड़ यूरोप और अमेरिका में अपनी जमीन बनानी शुरु की । सिर्फ 2004 से 2009 के दौर के सरकारी आंकडे बताते हैं कि समूचे देश में जो भी योजनायें आई चाहे वह इन्फ्रस्ट्रक्चर के क्षेत्र में हो या पावर के या फिर या फिर शिक्षा,स्वास्थ्य,पीने का पानी या खनन और संचार तकनीक। सारे ठेके निजी कपंनियों के हवाले किये गये और सरकार से सटी निजी कंपनियों को औसतन लाभ इस दौर में तीन सौ फीसदी तक का हुआ। जबकि किसी भी क्षेत्र में काम पूरा हुआ नहीं। पूंजी की जो उगाही इन निजी कंपनियों ने विदेशी बाजार या विदेशी कंपनियो से की संयोग से वह भी इन्हीं निजी कंपनियों की बनायी विदेशी कंपनिया रही। यानी कौडियों के मोल भारत की खनिज संपदा से लेकर जमीन और मजदूरी तक का दोहन कर उसे अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बेचने से लेकर भारत में योजनाओ को पूरा करने के लिये हवाला और मनी-लैडरिंग का जो रास्ता काले को सफेद करता रहा अब उसकी फाइले जब सीबीडीटी और प्रवर्तन निदेशालय में खोली जा रही है तो सरकार के सामने संकट यह है कि आगे देश में किसी भी योजना को कैसे पूरा किया जाये। और अगर योजनाये रुक गयीं तो सरकार के खजाने में पैसा आना रुकेगा। और यह हालात सरकार के लिये जितने मुश्किल भरे हो लेकिन यह राजनीतिक तौर पर कांग्रेस के लिये शह और मात वाली स्थिति है। क्योंकि जब देश में सत्ता का मतलब ही जब राजनीति सौदेबाजी का दायरा बड़ा करना हो तो फिर देसी की जगह विदेशी ही सही, सौदेबाज को अंतर कहां पड़ेगा। इसलिये एफडीआई के आसरे यह तर्क बेकार है कि जहां जहां रिटेल सेक्टर में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पांव पड़े वहा वहा बंटाधार हुआ। क्या यह आंकड़ा सरकार के पास नहीं है कि अमेरिका में इसी खेल के चलते बीते 30 बरस में 75 लाख से ज्यादा रोजगार उत्पादन क्षेत्र में कम हो गये। क्या वाणिज्य मंत्री आंनद शर्मा वाकई नहीं जानते कि दुनिया भर में कैसे किराना कारोबार पर बडी कंपनियों ने कब्जा किया। देश के तमाम मुख्यमंत्रियो को पत्र लिखते वक्त क्या वाकई मंत्री महोदय को उनके किसी बाबू ने नही बताया कि आस्ट्रेलिया, ब्राजील, मैक्सिको, कनाडा, फ्रांस तक में रिटेल बाजार पर कैसे बडी कंपनियों ने कब्जा किया और इस वक्त हर जगह 49 से 78 फीसदी तक के कारोबार पर बडी कंपनियों का कब्जा है। क्या सरकार वाकई मुनाफा बनाती कंपनियों के उस चक्र को नहीं समझती है जिसमें पहले खुद पर निर्भर करना और बाद में निर्भरता के आसरे गुलाम बनाना। यह खेल तो देसी अंदाज में वाइन बनाने वाली कंपनियां नासिक में खूब खेल रही हैं। नासिक में करीब 60 हजार अंगूर उगाने वाले किसानों को वाइन के लिये अंगूर उगाने के बदले तिगुना मुनाफा देने का खेल संयोग से 2004 में ही शुरु हुआ। और 2007-08 में वाइन कंपनियों को खुद को घाटे में बताकर किसानों से अंगूर लेना ही बंद कर दिया। किसानों के सामने संकट आया क्योंकि जमीन दुबारा बाजार में बेचे जाने वाले अंगूर को उगा नहीं सकती थीं और वाइन वाले अंगूर का कोई खरीददार नहीं था। तो जमीन ही वाइन मालिकों को बेचनी पड़ी। अब वहां अपनी ही जमीन पर किसान मजदूर बन कर वाइन के लिये अंगूर की खेती करता है और वाइन इंडस्ट्री मुनाफे में चल रही है। तो क्या देसी बाजार पर कब्जा करने के बाद बहुराष्ट्रीय़ कंपनिया उन्हीं माल का उत्पादन किसान से नहीं चाहेगी <br /><br />जिससे उसे मुनाफा हो। या फिर सरकार यह भी समझ पाती कि जब मुनाफा ही पूरी दुनिया में बाजार व्यवस्था का मंत्र है तो दुनिया के जिस देश या बाजार से माल सस्ता मिलेगा वहीं से माल खरीद कर भारत में भी बेचा जायेगा। यानी कम कीमत पर उत्पादों की सोर्सिंग ही जब रिटेल सेक्टर से मुनाफा बनाने का तरीका होगा तो भारत में समूचे रोजगार का वह 51 फीसदी रोजगर कहां टिकेगा जो अभी स्वरोजगार पर टिका है। क्योंकि नेशनल सैंपल सर्वे के आंकडे बताते हैं कि आजादी के 64 बरस बाद भी देश में महज 16 फीसदी रोजगार ही सरकार चलाने की देन है। बाकि का 84 फीसदी रोजगार देश में आपसी सरोकार और जरुरतो के मुताबिक एक-दूसरे का पेट पालते हैं। जिसमें 33.5 फीसदी तो बहते हुये पानी की तरह है। यानी जहां जरुरत वहां काम या रोजगार। अगर सरकार यह सब समझ रही है तो इसका मतलब है सरकार किसी भी तरह सत्ता में टिके रहने का खेल खेलना चाहती है। क्योंकि उसके सामने बढ़ता हुआ राजकोषीय घाटा है। करीब 56 हजार करोड़ से ज्यादा खर्च हो चुके हैं। घाटे का आंकड़ा बढ़कर 6 लाख करोड़ तक हो रहा है। इन सबके बीच महंगाई चरम पर है। उघोग विकास दर ठहरी हुई है। विनिवेश रुका हुआ है । <br /><br />राजस्व का जुगाड़ जितना होना चाहिये वह हो नहीं पा रहा है। और इन सबके बीच राजनीतिक तौर पर सरकार से कांग्रेस को सौदेबाजी के लिये जो चाहिये वह भी उलट खेल होता जा रहा है। अब सरकार कह रही है कि डी एमके, टीएमसी, यूडीएफ, मुलायम,मायावती,लालू सभी को अपने राजनीतिक दायरे में लाये। तभी कुछ होगा । और इन सबके बीच मनरेगा और फूड सिक्योरटी बिल को लाकर सोनिया गांधी के राजनीतिक सपने को भी सरकार को ही पूरा करना है। यानी कमाई बंद है और बोझ सहन भी करना है। <br /><br />दरअसल, बड़ा सवाल यहीं से खड़ा हो रहा है कि क्या संसदीय लोकतंत्र की चाहत में अपनी आजादी को गिरवी रखने की स्थिति में तो देश नहीं आ गया। क्योंकि आजादी के बाद दो सवाल महात्मा गांधी ने कांग्रेस से बहुत सीधे किये थे। पहला जब सरकार का गठन हो रहा था तब गांधी ने नेहरु से कहा आजादी देश को मिली है कांग्रेस को नहीं। और दूसरा मौका तब आया जब संविधान के पहले ड्राफ्ट को देखते वक्त महात्मा गांधी ने राजेन्द्र प्रसाद से कहा था कि देखना, आजादी का मतलब अपनी जमीन पर अन्न उपजा कर देश का पेट भरना भी होता है। जाहिर है 1947-48 के दौर से देश बहुत आगे निकल गया है लेकिन समझना यह भी होगा आजादी के वक्त 31 करोड़ लोग थे और आज उस दौर का ढाई भारत यानी 75 करोड़ से ज्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं। और इसी बीपीएल के नाम पर जारी होने वाले 30 हजार करोड़ के अन्न को भी बीच में लूट लिया जाता है। और यह लूट अपने ही देश के नेता,नौकरशाह और राशन दुकानदार करते हैं। फिर विदेशी कंपनिया आयेगी तो क्या करेंगी। यह अगर सरकार नहीं जानती तो वाकई आजादी देश को नहीं सत्ताधारियो को मिली है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-76107771621033549932010-09-09T14:37:00.004+05:302010-09-09T14:47:54.990+05:30माओवादियों के पॉलिटिकल ड्राफ्ट के मायनेकांग्रेस के पास पूंजीवादी राज्य नहीं है और आदिवासी-ग्रामीणों को लेकर जो प्रेम सोनिया गांधी से लेकर राहुल गांधी दिखला रहे हैं, उसके पीछे खनिज संसाधनों से परिपूर्ण राज्यों की सत्ता पर काबिज होने का प्रयास है। कांग्रेस की रणनीति उड़ीसा, छत्तीसगढ,झारखंड,मध्यप्रदेश और कर्नाटक को लेकर है। चूंकि अब राज्यसत्ता का महत्व खनिज और उसके इर्द-गिर्द की जमीन पर कब्जा करना ही रह गया है, इसलिये कांग्रेस की राजनीति अब मनमोहन सरकार की नीतियों को ही खुली चुनौती दे रही है, जिससे इन तमाम राज्यों में बहुसंख्य ग्रामीण-आदिवासियों को यह महसूस हो सके कि भाजपा की सत्ता हो या मनमोहन की इकनॉमिक्स कांग्रेस यानी सोनिया-राहुल इससे इत्तेफाक नहीं रखते।" यह वक्तव्य किसी राजनीतिक पार्टी का नहीं बल्कि सीपीआई (माओवादी) का पॉलिटिकल ड्राफ्ट है। <br /><br />माओवादियों की समूची पहल चाहे सामाजिक आर्थिक मुद्दों को लेकर हो लेकिन पहली बार हर मुद्दे का आंकलन राजनीतिक तौर पर किया गया है। जिसमें खासकर किसान और आदिवासियों के सवाल को अलग-अलग कर राजनीतिक समाधान का जोर ठीक उसी तरह दिया गया है जैसे संविधान में आदिवासियो के हक के सवाल दर्ज हैं। सरकार और राजनीतिक दलों की पहल पर यह कह कर सवालिया निशान लगाया गया है कि जब 5वीं अनुसूची के तहत आदिवासियों के अधिकारों का जिक्र संविधान में ही दर्ज है, तो कोई सत्ता इसे लागू करने से क्यों हिचकिचाती है। इतना ही नहीं किसानों की जमीन और आदिवासियों के जंगल-जमीन पर अलग-अलग नीति बनाते हुये माओवादी अब अपने संघर्ष में परिवर्तन लाने को भी तैयार हैं। और इसकी बडी वजह संसदीय राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों की नयी राजनीतिक प्राथमिकताओं को ही माना गया है । <br /><br /><br />माओवादियों का पॉलिटिकल ड्रॉफ्ट इस मायने में कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है कि संसदीय राजनीति को खारिज करने के बावजूद संसदीय राजनीति के तौर तरीकों पर ही इसमें ज्यादा बहस की गयी है। ड्राफ्ट में माना गया है कि आर्थिक सुधार का जो पैटर्न 1991 में शुरू हुआ अब उसका अगला चरण पिछड़े क्षेत्रों की जमीन और खनिज संसाधनों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार से जोड़ने का है। और चूंकि इस दौर में चुनाव लड़ने से लेकर सत्ता बनाना भी खासा महंगा हो चला है तो हर राजनीतिक दल उन क्षेत्रों में अपनी सत्ता चाहता है जहां उसे सबसे ज्यादा मुनाफा हो सके। आदिवासियों का सवाल इसी वजह से हर राजनीतिक दल की प्राथमिकता बना हुआ है क्योंकि आदिवासी प्रभावित इलाकों में गैर आदिवासी नेताओं की घुसपैठ तभी हो सकती है जब वहां के प्रभावी आदिवासी या तो राजनीतिक दलों के सामने बिक जायें या फिर आदिवासियों को उनके हक दिलाने के लिये कोई पार्टी या नेता आगे आये। <br /><br />माओवादियो का मानना है कि कांग्रेस अगर अभी आदिवासियों के हक का सवाल उठा रही है तो उसकी वजह वहां की सत्ता पर काबिज होने का प्रयास है। क्योंकि उड़ीसा के नियामगिरी के आदिवासियों की तरह वह महाराष्ट्र के आदिवासियों को हक नहीं दिलाती है क्योंकि महाराष्ट्र में उसकी सत्ता बरकरार है। माओवादियों का मानना है कि आर्थिक सुधार के इस दूसरे चरण में सत्ता से उनका टकराव इसलिये तेज हो रहा है क्योंकि राज्य को जो पूंजी अब मुनाफे के लिये चाहिये वह शहरों में नहीं ग्रामीण इलाकों में है। और माओवादियों का समूचा काम ही ग्रामीण इलाकों में है। इसलिये सवाल माओवादियों का सरकार पर हमले का नहीं है बल्कि सत्ता ही लगातार हमले कर रही है। लेकिन इस पॉलीटिकल ड्रॉफ्ट में अगर सरकार की प्राथमिकता ग्रामीण किसान आदिवासी बताये गये हैं तो दूसरी तरफ माओवादियों ने अपनी प्रथामिकता में भी परिवर्तन के संकेत दिये हैं। यानी देहाती क्षेत्रों से इतर शहरी और औद्योगिक क्षेत्रों में अपने प्रभाव को फैलाने की बात कही गयी है। <br /><br />माओवादियों ने माना है कि शहरी क्षेत्रों में मजदूर आंदोलन में उनकी शिरकत नहीं के बराबर है। इसी तरह शहरी मध्य वर्ग की मुश्किलों से भी उसका कोई वास्ता नहीं है। जबकि संसदीय राजनीति के बोझ तले सबसे ज्यादा प्रभावित शहरी मध्य वर्ग ही है। खुद की जमीन को व्यापक बनाने के लिये माओवादी अगर एक तरफ किसान-आदिवासी के सवाल को अलग कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ किसानों से शहरी मजदूरों को जोड़ने पर भी जोर दे रहे हैं। यानी माओवादियों की नजर गांव से पलायन कर रहे उन किसानों पर कहीं ज्यादा है जो जमीन से बेदखल होने के बाद शहरों में बतौर मजदूर जी रहे हैं। महत्वपूर्ण है कि खुद सरकार के आंकड़े बताते हैं कि बीते दस वर्षों में 5 करोड़ से ज्यादा किसान अपनी जमीन से बेदखल हुये हैं। और रेड कोरिडोर के इलाके में जितनी योजनाओं को मंजूरी दी गयी है अगर उन पर काम शुरू हो गया तो 5 करोड़ से ज्यादा ग्रामीण-किसान-आदिवासी अपनी पुश्तैनी जमीन से बेदखल हो जायेंगे । जाहिर है माओवादियों का ड्राफ्ट इन आंकडों के दायरे में सामाजिक-आर्थिक समस्या को भी समझ रहा होगा और राजनीतिक दल भी इस नये शहरी मजदूरों के दायरे में अपनी राजनीतिक नीतियों को भी तौल रहे होंगे । लेकिन, माओवादियों के पॉलीटिकल ड्राफ्ट और राज्य सरकारों की विकास नीतियों के बीच कितनी महीन रेखा है इसका अंदाजा भी शहरीकरण की सोच और शहरी गरीबों की बढ़ती तादाद से समझा जा सकता है। <br /><br /><br />कांग्रेस और भाजपा के मुताबिक महाराष्ट्र, गुजरात दो ऐसे राज्य हैं जहा सबसे ज्यादा नये शहर बने। यानी विकास की असल धारा इन दो राज्यो में दिखायी दी। जबकि बाकी राज्यों में भी बीते एक दशक के दौरान गांवो को शहरों में बदलने की कवायद हर राजनीतिक दल ने की। लेकिन माओवादियों की राजनीतिक थ्योरी इसमें गरीबो की बढ़ती संख्या को माप रही है। माओवादियों के मुताबिक गांव की अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर जिस तरीके से शहरी विकास का खांचा खींचा जा रहा है , उसमें मुनाफा ना सिर्फ चंद हाथो में सिमट रहा है बल्कि इन चंद हाथों के जरिये ही राज्यों में सत्ता निर्धारित हो रही है जिससे गरीबी और मुफलिसी का कारण भी राजनीतिकरण बन चुका है। माओवादियों के इस ड्राफ्ट में बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं पर टिकी येदुरप्पा सरकार का जिक्र उदाहरण दे कर किया गया है। यूं भी संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट भी मानती है कि दुनिया में सबसे ज्यादा शहरी गरीब महाराष्ट्र में है, जिसे कांग्रेस शहरीकरण के दौर में सबसे उपलब्धि भरा राज्य मानती है। खास बात यह है कि माओवादियों के इस पॉलिटिकल ड्राफ्ट में कही भी हिंसा का जिक्र नही किया गया है। उसकी जगह क्रांतिकारी आंदोलन शब्द का जिक्र यह कह कर किया गया है कि साम्राज्यवाद के खिलाफ संशोधनवादी पार्टियां या एनजीओ जो कुछ कर रहे है, वह धोखाधड़़ी के सिवाय और कुछ नहीं है। ऐसे में माओवादी अगर मजदूर-किसान मैत्री की स्थापना पर बल देते हुये धैर्यपूर्वक अपने क्रांतिकारी जन आधार को मजबूत बना पाने में सक्षम हो पायेंगे तो साम्राज्यवाद-फासीवाद दोनों के खिलाफ वास्तविक आंदोलन सही दिशा में चल पायेगा ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-23249887701660626582009-10-27T11:09:00.004+05:302009-10-27T11:13:34.787+05:30नक्सली, युद्धबंदी और सरकारये पहला मौका है जब माओवादी प्रभावित इलाकों में सरकार के खिलाफ लड़ेंगे और मरेंगे की तर्ज पर ग्रामीण आदिवासियों को तैयार किया जा रहा है। लड़ना सरकार से है और मरना सरकार के हाथों ही है। सरकार का मतलब पुलिस-सेना सबकुछ है। क्योंकि नैतिक तौर पर सरकार के किसी नुमाइन्दे में इतनी हिम्मत है नहीं कि वह ग्रामीण इलाकों में आकर ग्रामीण आदिवासियों के हालात देख सकें। जितनी सेना इन इलाको में भरी जा रही है, जितने आधुनिक हथियारों से लैस सुरक्षाकर्मियों की फौज लगातार क्षेत्र में घुल रही है, उसमें ग्रामीण आदिवासी क्या करें। वर्दीधारियों को आदिवासियों की भाषा समझ में आती नहीं है, उनके लिये सफलता का मतलब हर किसी को माओवादी ठहराकर या तो पकड़ना, मारना है या फिर गिरफ्तार करना है। यह समझने के लिये कोई तैयार नहीं है कि ग्रामीण आदिवासियों की रोजी रोटी कैसे चल रही होगी जब जमीन-जंगल सभी को रौंदा जा रहा है। प्राथमिक अस्पतालों में इलाज कराने गये लोगों को माओवादी बताकर अस्पताल के बदले सीधे थाने और जेल भेजा जा रहा है। यह परिस्थितियां युद्ध सरीखी नहीं है तो क्या हैं ?<br /><br />यह जबाब लालगढ़ में माओवादियों की कमान संभाले कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी का है। जिनसे मैंने सीधा सवाल किया था कि अपहर्त सब-इन्सपेक्टर की रिहायी के वक्त उसकी छाती पर पीओडब्ल्यू यानी प्रिजनर आफ वार यानी युद्दबंदी क्यों लिखकर टांगा गया। 26 महिलाओं की रिहायी के बाद क्या यह माओवादियों की रणनीति का हिस्सा बन गया है। नहीं, ऐसा हमने कभी नहीं कहा। लेकिन आपको यह भी समझना होगा कि बुद्ददेव सरकार ने 26 महिलाओं को क्यों छोड़ा।<br /><br />महिलाओं पर सिर्फ पेड़ काट कर रास्ते पर डालने और गड्डा खोदने का आरोप है। लेकिन इस आरोप के साथ माओवादियों को मदद देने और पुलिस कार्रवाई में बाधा पहुचाने का भी आरोप है। अगर आप सत्ता में है तो आरोप किसी भी स्तर पर लगा सकते है, बड़ी बात है कि अगर आदिवासी महिलायें सरकार के लिये इतनी ही घातक होती तो सरकार कभी उन्हें रिहा नहीं करती। अगर आप पुलिसवाले का अपहरण कर उसका सर तलवार की नोंक पर रखते है तो सरकार के पास विकल्प क्या बचेगा। ऐसा होता तो अभी तक सरकार का ध्यान अपनी पुलिस के बचाने में जाता । लेकिन नंदीग्राम से लालगढ़ तक पुलिसवालो को जनता के सामने सरकार ने झोंक दिया। दो दर्जन से ज्यादा पुलिस वाल मारे गये हैं। यहा सवाल युद्धबंदी पुलिसकर्मी का नही था बल्कि बुद्ददेव सरकार समझ रही थी कि अगर महिलाओं को माओवादी करार देकर जेल में बंद रखा गया तो ग्रामीण आदिवासियो में और अंसतोष आ जायेगा। सवाल है इससे पहले भी कई मौको पर नक्सली संगठनों ने पुलिसकर्मियों का अपहरण कर स्थानीय तौर पर प्रशासन-सरकार से सौदेबाजी की है , लेकिन यह पहला मौका है कि युद्धबंदी शब्द का प्रयोग किया गया। अस्सी के दशक में जब पीपुल्स वार के महासचिव सीतीरमैया ने आंध्रप्रदेश के सात विधायकों का अपहरण भी किया था तो उस दौर में भी रिहायी के लिये शर्त्ते रखी गयीं, जो पूरी हुई तो विधायकों को छोड़ दिया गया। उस वक्त सीतीरमैया ने कहा था कि अगर जरुरत हुई तो राजीव गांधी का अपहरण भी कर सकते हैं। उस दौर में पीपुल्स वार ग्रुप आंध्रप्रदेश में सिमटा था। लेकिन अपहरण राजनीतिक तौर पर नक्सलियो की रणनीति का हिस्सा हो सकता है, ऐसा बीते दो दशक में सामने आया नहीं। वहीं बिहार में एमसीसी ने भी कभी किसी का अपहऱण कर सरकार से किसी सौदेबाजी को अपनी रणनीति का हिस्सा नहीं बनाया। दोनों नक्सली संगठन अब एक साथ है और साथ होने के पांच साल पूरे होने के बाद झारखंड में जिस तरह एक पुलिसवाले का सर कलम किया गया और बंगाल में युद्दबंदी बता कर रिहायी की गयी उसने सरकार के सामने बडा सवाल खड़ा किया है कि अगर वाकई युद्द सरीखी कार्रवाई करनी पडी तो रेड कारीडोर का सच भी सामने आयेगा और जो विकास की उस जरजर जमीन को ही सामने रखेगा, जहा अभी भी पाषण काल है । तो क्या माओवादी रणनीति के तहत युद्ध की स्थिति पैदा कर रहे हैं। कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी के मुताबिक युद्द का मतलब किसी आखरी लड़ाई से नहीं है, बल्कि उन परिस्थितियों को दुनिया के सामने लाना है, जिसके तले ग्रामीण आदिवासी जी रहे हैं। लालगढ़ को ही लें। वहां के बत्तीस गांव और उसके अगल-बगल के करीब पचास से ज्यादा गांव में एक भी स्कूल नहीं है। तीन प्राथमिक स्वास्थय केन्द्र हैं। पीने का साफ पानी तो दूर रोजी रोटी के लिये सरकार की कोई योजना इऩ गांवों तक नहीं पहुंची है। वह संयुक्त फोर्स की आवाजाही ने उस जमीन को भी बूटों तले रौंदना शुरु कर दिया है जिसके आसरे थोडी बहुत खेती होती थी । साथ ही मजदूरी के लिये कही भी आवाजाही गांववालो को बंद करनी पड़ी है क्योंकि गांव के भीतर पहुचने के लिये इन्हीं गांववालों को पुलिस हथियार बनाती है ।<br /><br />लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में वामपंथी सरकार ने गांव-गांव का रसद-पानी जिस तरह बंद कर दिया है उसमें माड़-भात और आलू ही जब जीने का एकमात्र जरिया हो और अब उसके भी लाले पड़ने लगे हों , तो यह स्थिति उन शहरी लोगों को देखनी चाहिये जो सबकुछ कानून-व्यवस्था के जरिये ही सुलझाना चाहते हैं। असल में सरकार का संकट यही से शुरु होता क्योंकि एक तरफ गृहमंत्री पी चिदबंरम माओवादियों से आखिरी लडाई के मूड़ में हैं, वहीं राहुल गांधी एक देश में बनते दो देश का जिक्र कर माओवादी प्रभावित इलाको में गवरर्मेंस का संकट उभारते हैं। लेकिन सवाल है 12 राज्यों के 127 जिलों के रेडकारीडोर में कमोवेश हर राजनीतिक जल की सरकारें हैं। मसलन, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार तो कर्नाटक,मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ में भाजपा की सरकार है।<br /><br />वहीं बिहार में जदयू के साथ बीजेपी सत्ता में है तो उड़ीसा में बीजू जनता दल और बंगाल में वामपंथियों की सरकार है । यानी सरकारों के काम अगर वाकई लाल गलियारे तक नहीं पहुंची है तो इसके लिये किसी एक राजनीतिक दल को दोषी ठहराया भी नहीं जा सकता है। झारखंड में तो राष्ट्रपति शासन है यानी सीधे केन्द्र सरकार की निगरानी में है , लेकिन माओवादियो की सबसे बर्बर स्थिति झारखंड में ही उभर रही है । असल में राहुल गांधी की सोच गलत है भी नहीं कि गवर्मेंस फेल हो रहा है । सत्ता शहरों में सिमट गयी है । गरीब या ग्रामीणों को मौका नही मिलता है। लेकिन यह सोच अगर सही है तो सवाल मनमोहन सरकार पर उठेंगे। तब उनकी सोच को लागू करने निकले चिदबंरम की आखिरी लड़ाई भी बेमानी लग सकती है । यूं भी अगर सामाजिक आर्थिक नजरिये से अगर माओवादी प्रभावित इलाकों को देखे तो मुख्यधारा से कितनी दूर है यह , इसका अंदाज प्रतिव्यक्ति आय से भी लग सकता है । देस में प्रतिव्यक्ति आय 2800 रुपये प्रतिमाह है लेकिन लाल गलियारे में औसतन प्रतिव्यक्ति आय 1200 रुपये प्रतिमाह है । करीब तीन करोड़ ग्रामीणों का पलायन बीते एक दशक में इन क्षेत्रों में काम ना मिलने की वजह से हुआ है। यानी रोजी रोटी की तालाश में इतनी बडी तादाद जिला मुख्यालयों या शहरों में चली गयी। तो सरकारी योजनाओ की वजह से करीब दो करोड़ से ज्यादा लोग विस्थापित हो गये। माओवादी प्रभावित क्षेत्र में सरकार की जितनी परियोजनाये निर्धारित है अगर सभी पर काम शुरु हो जाये तो कम से कम 55 जिलों में एक लाख एकड़ से ज्यादा की खेती योग्य भूमि पूरी तरह खत्म हो जायेगी । इन जमीनो पर टिके कितने किसान-मजदूरों के सामने रोजी रोटी के लाले कैसे पड़ जायेंगे इसका अंदाजा भी सरकारी योजनाओ से मिने वाली नौकरियो की तादाद से समझा जा सकता है। औसतन इन 55 जिलों में प्रति सौ एकड खेती की जमीन पर पांच हजार परिवारो का पेट भरता है, वहीं औघोगिक योजनाओ के आने के बाद प्रति सौ एकड़ 40 से 50 परिवार को ही रोजगार मिलेगा ।<br /><br />असल में रेडकारिडोर का सवाल सिर्फ विकास होने या करने से ही नहीं जुडा है । जो नयी राजनीतिक परिस्थितियां बन रही हैं, उसमें युद्धबंदी की राजनीति का मतलब एक ऐसे टकराव का पैदा होना है, जिसमें करोड़ों ग्रामीण आदिवासियों को झोंकना होगा। युद्धबंदी का सवाल सिर्फ विकास की सही स्थिति भर की नक्सली रणनीति भर से नहीं जुड़ा है। इसका दूसरा सच यह भी है कि देश के भीतर दो देश के आगे एक दूसरे के खिलाफ खड़े होने की स्थिति भी युद्ध की तर्ज पर की जा रही है ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-18017064613818132502009-09-01T15:41:00.003+05:302009-09-01T15:42:54.326+05:30जनादेश की हवा में मनमोहन की रफ्तारप्रधानमंत्री दुखी हैं । देश के हालात से नहीं, भाजपा के भीतर मची उठापटक से । शनिवार को बाड़मेर में थे। भाजपा पर पत्रकारों ने प्रतिक्रिया पूछी । मनमोहन सिंह बोले- लोकतंत्र के लिये बेहद जरुरी है राजनीतिक दलो में स्थिरता रहे । संयोग से मनमोहन सिंह का यह दुख ठीक उसी दिन आया, जब सरकार के सौ दिन पूरे हुये । और इन सौ दिने में देश के भीतर जो हुआ सो हुआ, लेकिन मनमोहन सिंह ने भी यह समझा कि नहीं समझा कि लोकतंत्र के लिये देश के भीतर भी स्थिरता रहनी बेहद जरुरी है। ये तो सालों साल तक पता नहीं चलेगा लेकिन जनादेश मिलने के बाद जिस गर्व से सरकार ने लगातार दूसरी बार सत्ता संभाली, उसमें कौन कहां किस रुप में पहुंचा यह समझना जरुरी है। <br /><br />सत्ता सभालते वक्त मनमोहन सिंह ने दो बातों पर खास जोर दिया था। पहला अर्थव्यवस्था और दूसरा आंतरिक सुरक्षा । मंदी को लेकर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का जो सपना विकास दर के आंकडों में देखने-दिखाने की कोशिश की जानी थी, उस सपने को सूखे ने सबसे पहले तोड़ा। विकास दर के आंकडो से लेकर महंगाई दर के आंकड़ों के लिये सरकार की कोई नीति काम करती है, इस पर तो कयास ही लगाये जा सकते है लेकिन सूखा से लड़ने के लिये नीति होनी चाहिये नहीं तो देश डगमगा सकता है, इसका अंदाज सूखे में डगमगाते देश और सरकार से लग गया। मानसून के हवा-हवाई होने के वक्त ही संसद का मानसून सत्र शुरु हुआ था। लेकिन सरकार ने सूखा तो दूर मानसून की कमी को भी नहीं माना। सूखे से देश के सत्तर करोड़ लोग जब सीधे प्रभावित हो रहे थे, तब सरकार शर्म-अल-शेख और बलूचिस्तान को लेकर संसद में उलझी थी। किसी ने हिम्मत नहीं दिखायी कि सूखा और उसके बाद महंगाई से खस्ता होते हालातों को लेकर संसद से कोई पहल हो। <br /><br />संसद का मानसून सत्र बिना मानसून जब आखिरी दौर में पहुचा तो सरकार और सांसदों को लगा कि उन्हें तो अब अपने लोकसभा क्षेत्र में भी जाना होगा तो रस्मअदायगी के लिये मानसून-सूखा-महंगाई का रोना रोया गया । जिसमें बहस के दौरान लोकसभा में कभी भी सौ सासंद भी नजर नहीं आये । सरकार के पहले बजट ने भी जतला दिया कि उसकी नजर वोट बैंक को खुद पर आश्रित किये रखने की है। इसलिये बजट में इन्फ्रास्ट्रक्चर के जरीये देश को मजबूत आधार देने के बदले मंत्रालयों को ग्रामीण समाज के विकास का पाठ पढाते हुये बजट का साठ फीसदी बांटा गया। यानी यह जानते समझते हुये किया गया कि अगर केन्द्र से साठ लाख करोड़ रुपया ग्रामीण विकास के लिये चलेगा तो निचले स्तर तक महज छह से नौ लाख रुपया ही पहुंच पायेगा । बाकि तो उस तंत्र में खप जायेगा जो सरकार के जरिये बीच का आदमी होकर वोटबैक भी बनाता-बनता है और इसी तंत्र को रोजगार मान कर सरकारो की नीतियों पर तालिया पीटता है । <br /><br />राष्ट्रीय रोजगार योजना यानी नरेगा इसी तंत्र में सबसे मजबूत होकर उभरा तो उसको चुनाव की जीत से जोड़ते हुये उस पर करोड़ों लुटाने की नीति बनी । नरेगा के तहत हर महीने साढ़े तीन हजार करोड़ से कुछ ज्यादा और साल भर में 44 हजार करोड का प्रवधान किया गया । लेकिन पहले सौ दिन में 12 हजार करोड़ रुपये नरेगा में देकर सरकार ने क्या किया, इसका कोइ लेखा-जोखा नही है । सिवाय इसके कि किस गांव पंचायत में किस किस नाम के किस ग्रामीण को रोजगार दिया गया । जो दिल्ली में बैठ कर फर्जी बनाया जा सकता है । सवाल है कि इसी नरेगा को किसी इन्फ्रास्ट्रक्चर की योजना से जोड़ा जाता तो नजर में काम भी आता और रोजगार भी। लेकिन यहा सिर्फ रुपया नजर आ रहा है। प्रधानमंत्री कभी दुखी नहीं हुये कि उनके मंत्रालय में कैबिनेट स्तर के कृषि मंत्री ही सूखा और महंगाई को लेकर जमाखोरो और मुनाफाखोरो को लगातार संकेत दे रहे है कि जो कमाना है तो चीनी, दाल, चावल की जमाखोरी कर लो। <br /><br />यह पहली बार हुआ कि कृषि मंत्री शरद पवार ने देश में भरोसा पैदा करने की जगह संसद के परिसर से लेकर कृषि मंत्री की कुर्सी पर बैठ कर कहा कि चावल-चीनी के दाम आने वाले वक्त में बढ़ सकते है । दाल की कमी हो सकती है । इस दौर में कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्य सत्यव्रत चतुर्वेदी ने भी सूखे और महंगाई के मद्देनजर शरद पवार पर देश को गुमराह करने का आरोप लगाया। लेकिन प्रधानमंत्री अपनी टीम के वरिष्ठ मंत्री को लेकर न दुखी हुये न ही उन्होने कोई प्रतिक्रिया दी । बात हवा में उड़ा दी गयी। <br /><br />इसी दौर में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के इलाको को चिन्हित कर बुदेलखंड प्राधिकरण का सवाल राहुल गांधी ने उठाया । प्राधिकरण या कहे राहुल गांधी को लेकर उस राजनीति में भरोसा जरुर उठा जो बुंदेलखंड को संवार कर अपनी राजनीतिक जमीन बनाना चाहते है, लेकिन बुंदेलखंड के लोगो में कोई आस नही जगी । क्योंकि इन सौ दिनो में यहां के पांच लाख से ज्यादा लोगों को रोजी रोटी के लिये घरबार छोड़ना पड़ा। वहीं, इसी दौर में इसी इलाके में खनिज संपादा की लूट में हजारों एकड़ जमीन पर सिर्फ बारुद ही महकता रहे। माइनिंग के जरिये खनिज संपदा को निकालने के प्रक्रिया में तीन हजार से ज्यादा विस्फोट तो इन्हीं सौ दिनो में किये गये । और विश्व बाजार में दस हजार करोड़ से ज्यादा का खनिज यहां से निकाला गया। <br />किसानो को लेकर राहत का सवाल इन सौ दिनो में तीन बार सरकार की तरफ से किया गया, जिसमें दो बार वित्तमंत्री तो एक बार पीएम को ख्याल आया । याद करने के दौरान हर बार कुछ राहत देने की बात कही गयी लेकिन मुश्किल आसान करने की कोई नीति सरकार ने नहीं रखी । इन सौ दिनों में सरकार की तरफ से ऐसी कोई नीति लाने की भी नहीं सोची गयी, जिससे किसाने को कहा जा सके कि 2014 के चुनाव के वक्त कोई किसान आत्महत्या नहीं करेगा, ऐसी नीतिया हम ला रहे हैं। मनमोहन सिंह स्वतंत्रता दिवस के दिन लालकिले से जब देश में दूसरी हरित क्रांति की जरुरत बता रहे थे, तब विदर्भ के पांच किसान खुदकुशी कर रहे थे। 2008 में भी मनमोहन सिंह ने ही लालकिले पर झंडा फहराया था और 2009 में भी । किसानो को लेकर दर्द दोनो मौकों पर उभारा था । लेकिन इस एक साल में देश भर में तीन करोड़ से ज्यादा किसान मजदूर हो गये । संयोग से आजादी के बाद मजदूरों में तब्दील होने का किसानो का यह सिलसिला सबसे तेजी से उभरा है। जिस आंध्र प्रदेश में वायएसआर ने किसानो का ही सवाल उठाकर सत्ता पायी और सौ दिन पहले दूसरी बार सत्ता जीत कर नायडू के इन्फोटेक को मात दी, वही वायएसआर ने भी कैसे किसानों से मुंह मोड़ लिया, यह भी इन्हीं सौ दिनो में नजर आया। सबसे ज्यादा किसानो ने इन्हीं सौ दिनो में खुदकुशी की। आंकड़ा पचास पार कर गया । <br /><br />लेकिन सवाल यह उभरा कि पीएम ने दूसरी हरित क्रांति को लाने के लिये किसे कहा। उनकी खुद की पहल क्या है । यह सवाल मौन है । पंचायती स्तर की राजनीति की वकालत तो पीएम भी करते हैं । लेकिन दिल्ली से महज सौ किलोमीटर की दूरी पर इन्ही सौ दिनो कोई पंचायत छह प्रेमी जोड़ों की हत्या कर दे और राज्य के मुख्यमंत्री से लेकर पीएम तक खामोश रहे , तो क्या इसे महज सामाज की त्रासदी बताकर खामोशी ओढी जा सकती है। हरियाणा में तो वही कांग्रेसी सरकार है जो दुबारा सत्ता पाने के लिये सबकुछ योजनाबद्द तरीके से कर रही है। सोनिया गांधी से मुलाकात कर जल्द चुनाव कराकर सत्ता में दोबारा लौटने का जो बल्यू प्रिंट कांग्रेसी सीएम हुड्डा ने रखा, उसमें वह 8 हजार करोड़ का प्रचार भी था जो विधानसभा भंग करने से पहले न्यूज चैनलों, समाचार पत्रों, एफएम और तमाम हिन्दी-अंग्रेजी की पत्रिकाओं के लिये बुक कर लिये गये थे । अगर यही नीति और पैसा उन पंचायतो को आधुनिक समाज से जोड़ने में लगाया जाता, जहां पुलिस कानून को ठेंगा दिखाकर नौजवान प्रेमियो की हत्या कर दी जाती है तो कुछ बात होती । लेकिन हत्याओ के बाद सीएम का बयान भी यही आया कि समाज को भी देखना पड़ता है । पीएम तो देश का होता है । जब सरकार के ही आंकडे बताते है कि देस में 38 फीसदी गरीबी की रेखा से नीचे है और सत्तर करोड लोग दिन भर में महज बीस रुपये कमा पाते है तो फिर दस सेकेंड के लिये बीस हजार से लेकर नब्बे हजार तक न्यूज चैनलो में अपनी उपल्बधि बताने के लिये कोई कांग्रेसी कैसे लुटा सकता है। <br /><br />अर्थव्यवस्था और आंतरिक सुरक्षा के छेद खुद सरकार भी बताती है । इन्ही सौ दिनो में हजार और पांच सौ रुपये के नकली नोट देश की अर्थव्यवस्था को खोखला करते गये । सरकार के माथे पर भी शिकन साफ दिखायी दी । बडे स्तर पर जांच की तैयारी भी की गयी लेकिन रिजर्व बैक ने जब यह कहा कि हर पांच नोट पर एक नकली नोट हो सकता है तो मामला जांच से आगे जाता है। लेकिन पीएम ने कोई पहल नहीं की। क्या यह संभव नही कि पांच सौ और हजार रुपये तत्काल बंद कर सिर्फ सौ रुपये का ही चलन कर दिया जाता। वैसे भी उन नोटो को रखने वाले देश के बीस फीसदी ही लोग हैं। लेकिन बात तो देश की होनी चाहिये। हां, इसमें काला धन रखने वालो को परेशानी जरुर होती। जो शेयर बाजार से लेकर अर्थव्यवस्था डांवाडोल कर सकते हैं। लेकिन उनके लिये भविष्य में कोई भी अनुकूल नीति बन सकती है। बात को पहले देश बचाने की होनी चाहिये। जहा तक आंतरिक सुरक्षा का सवाल है तो देश में सूखा साढे तीन सौ जिलों में है और माओवादी करीब दो सौ पच्चतर जिलों में । ना तो कांग्रेस और ना ही भाजपा का प्रभाव इतने जिलों में है । बीते सौ दिनो में माओवादियों ने बंगाल के छह नये जिलों को अपने प्रभाव में लिया है। लालगढ में कार्रवाइ के बाद इनके कैडर में करीब पांच हजार लोग जुड़े हैं। सौ दिनों में माओवादियों के दो दर्जन हमले हुये । जिसमें तीन सौ से ज्यादा लोग मारे गये । छत्तीसगढ़ में तो वरिष्ठ पुलिस अधिकारी भी मारे गये । आंकडे के लिहाज से इसी सौ दिनो में सबसे ज्यादा हि्सा माओवादियो के जरीये हुई है, और इन्हीं सौ दिनो में पुलिस प्रशासन सबसे निरीह नजर आया है। <br /><br />इसलिये सवाल भाजपा का नहीं है जिसकी अस्थिरता में लोकतंत्र की कमजोरी टटोली जाये , और दुखी हुआ जाये । कहा यह भी जा सकता है कि कमजोर नीति और मजबूत इरादे अगर सरकार में न हों तो लोकतंत्र कहीं ज्यादा कमजोर पड़ता है, जो सौ दिनो के दौरान नजर आया है। और इससे देश दुखी है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-22001801239782690362009-06-08T13:42:00.000+05:302009-06-08T13:43:28.631+05:30भरोसे की बात है मनमोहन जीराष्ट्रपति भवन के अशोका हाल में उस शख्स के लिये कुर्सी नहीं थी, जिसने बीते तीन महिने के दौरान देश-दुनिया में हर माध्यम से इस बात का प्रचार किया कि भारत की सबसे महत्वपूर्ण और ऊंची कुर्सी के वही दावेदार हैं। पीएम-इन-वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी ने सोचा भी न होगा कि प्रधानमंत्री के शपथ लेते वक्त उनके लिये कोई प्रोटोकॉल अधिकारी कुर्सी उठाये हुये पहुंचेगा और पहले दूसरी फिर पहली कतार में लगाकर आग्रह करेगा कि आप इस कुर्सी पर बैठकर अपने कहे के मुताबिक देश के सबसे कमजोर प्रधानमंत्री को दोबारा प्रधानमंत्री बनते हुये देखिये। <br /><br />जनादेश के बाद हर स्थिति कैसे बड़े बड़े नेताओं को खामोश कर देती है, यह उसका नजारा था। लेकिन जिस राजनीति का हवाला देकर मनमोहन सत्ता में लोटे या फिर जिस राजनीति के आसरे आडवाणी सत्ता चाहते थे, दोनों का रिश्ता आम आदमी से कितना जुड़ा हुआ था, यह बात कहने के लिये किसी तर्क-वितर्क की जरुरत नही है बल्कि देश के सामाजिक-आर्थिक हालात खुद ही सबकुछ बयान कर देते हैं। किसान-मजदूर-छोटे व्यापारी-नौकरी पेशा तबका, रोजगार की तालाश में भटकता युवा वर्ग, उच्च शिक्षा लेने के बाद भी बेरोजगारी का दर्द यानी किसी भी तबके के भीतर झांक कर कोई भी देख सकता है कि स्थिति बद से बदतर हुई है। हर तबके के भीतर यूरोप के कई देश समा सकते है जो न्यूनतम जरुरत की लड़ाई लगातार लड़ रहे हैं। लेकिन यह मनमोहन की इक्नॉमिक्स का ही खेल है कि भारत में सिर्फ एक ही तरह का यूरोप देखा गया, जो उपभोक्तावादी है। और उसी आसरे विकसित होने का सपना भी देश ने रचना शुरु किया। और नयी परिस्थितियों में तो नया मंत्र उभरा कि सरकार के बदले पूंजी पर टिक कर जीवन चलाया जा सकता है। यानी निजीकरण से उपजी मुनाफे की थ्योरी ने इस मंत्र को हर आम आदमी के कान में फूंक दिया कि सरकार का मतलब कुछ भी नहीं है अगर आपकी जेब और तिजोरी भरी हुई है। <br /><br />असल में पैसे से पैसा बनाने के आर्थिक सुधार का जो खेल मनमोहन सिंह ने शुरु किया और पिछले पांच साल के दौरान इस खेल में जितनी पारदर्शिता लायी गयी उसने ही जनता को प्रेरित भी किया कि बिना प्रोटोकाल के पीएम की कुर्सी मनमोहन सिंह के लिये रख दे। आम चुनाव में कोई प्रोटोकाल नही होता इसलिये वह भावनाओ के आसरे चलता है। आडवाणी भी भावनाओ के आसरे चुनाव का खेल खेल रहे थे और मनमोहन सिंह भी भावनाओ को उभार रहे थे। अंतर सिर्फ इतना था कि आडवाणी की भावनाये मन और दिल के इर्द-गिर्द रची जा रही थी, जिसका भूख-रोटी-रोजगार से लेकर शिक्षा-स्वास्थ्य-पीने के पानी तक से कोई सरोकार नहीं था और मनमोहन सिंह सीधे भावनात्मक आर्थिक थ्योरी के जरीये नश्वर शरीर में ही भावना भरके उसे ही साधे हुये थे। जहां सबकुछ गंवाने का डर था, सुविधा का बंसी और मुनाफे का नगाड़ा खत्म होने का भय था। आर्थिक सुरक्षा के खतरे में पड़ने का भय था लेकिन यहां नैतिकता और कल्याणकारी राज्य कोई मायने नही रखते पा रहे थे। <br /><br />सवाल यह नही है कि अयोध्या की नगरी वाले राज्य में ही मंदिर की भावना ही चूक गयीं। सवाल यह भी नहीं है कि जातीय तौर पर सुरक्षा और सुविधा की राजनीति भी चूक गयी । बड़ा सवाल यह है कि जिस भावना को मनमोहन ने जगाया है और राहुल गांधी उसे नये तरीके से परिभाषित करने में लगे है अब वह रास्ता सिर्फ कांग्रेस की राजनीतिक लीक बनायेगा या फिर देश को नये सिरे से जोड़ेगा। यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि राहुल गांधी ने संसद में जिस कलावती का नाम लेकर चेताया था, उसी लोकसभा सीट पर कांग्रेस की नहीं चली। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह विदर्भ के जिस इलाके में जाकर खुदकुशी करते किसानो के लिये राहत पैकेज का ऐलान करते हैं, वहां भी कांग्रेस हार गयी। सोनिया गांधी खुदकुशी करते परिवार को सातंवना देने जिस बस्ती में गयीं, वहा भी कांग्रेस नहीं जीती। विदर्भ की दस में पांच सीटो पर कांग्रेस-एनसीपी हारी है। मनमोहन सिंह का पैकेज विदर्भ के जिन 31 ताल्लुका को केन्द्रित में रख कर बांटा गया, उसमें से 28 ताल्लुका में कांग्रेस को हार मिली है। यहां सवाल यह नहीं है कि इन सीटो पर बीजेपी या शिवसेना जीत गयी। आगे का रास्ता बिना प्रोटोकॉल के पीएम की उस कुर्सी की दिशा में ही जाता है, जो मनमोहन को मिली है। कुर्सी न मिलने से आडवाणी इतने निराश है कि वह राष्ट्पति भवन में प्रोटोकाल अधिकारी को डपट भी न सके, जो उनकी विपक्ष के नेता की कुर्सी से भी खेल खेल रहा था। ऐसे में आम आदमी अब आडवाणी से गुहार कैसे लगायेगा । लेकिन जनादेश लेकर सत्ता संभाले पीएम या गांधी परिवार की पहल अब क्या होगी । खासकर जब पीएम के सामने कोई कामन मिनिमम प्रोग्राम का डर नहीं है और गांधी परिवार के बच्चे भी अब लोकप्रिय हो चुके हैं। मनमोहन सिंह अभी तक टारगेट पूरा करने का ही शासन चलाते आये हैं। जाहिर है आंकडो की बाजीगरी टारगेट पूरा तो करा सकती है लेकिन पथरीली जमीन को उर्जावान नहीं बना सकती। <br /><br />मनमोहन की इकनॉमी किसानों को एग्रेसिव फार्मिंग की दिशा में ले जा रही है। रोटी के लिये नगदी फसल की दिशा में बढ़ते किसानो को पता है कि उनका जीवन मौसम पर टिका है जो जरा सा इधर उधर हुआ तो सबकुछ तहस नहस हो जायेगा । क्या मनमोहन सिंह सादी खेती यानी अनाज की खेती को राहत दिलाने के पक्ष में है । क्या उन्हे बढ़ावा देने के लिये कोई व्यवस्था की जा सकती है। नाबार्ड के पास किसान की जरुरत मुताबिक बजट नही है । बैंक का कर्जा चुटकी भर काम कर रहा है । दो लाख का कर्ज चाहने वाले किसान को बैंक से बीस हजार से ज्यादा मिलते नहीं । बाकि एक लाख अस्सी हजार लेने वह किसी ना किसी बनिये के पास जाता ही है और खेती के लिये सरकारी इन्फ्रास्ट्रक्चर ऐसा है कि खेती बाजार तक पहुंचते पहुंचते उसे खुदकुशी की दिशा में ले जाती है। ग्रामीण रोजगार तो दूर की बात है खेती के लिये समुचित पानी और बिजली तक की व्यवस्था नही है। ग्रामीण इलाकों के शहरीकरण का रास्ता तो मनमोहनी व्यवस्था ने दिखाया है, लेकिन इन्हीं इलाकों में सबसे ज्यादा सामाजिक तनाव है। नरेन्द्र मोदी जिस गुजरात में सबसे ज्यादा शहरों को बनाने की बात कहते हैं, इन्हें वहीं चुनावी जीत नहीं मिल पाती। सबसे विकसित शहरो में अव्वल सूरत शहर में डायमंड वर्कर बेरोजगार होने पर आत्महत्या करता है तो अहमदाबाद से लेकर दिल्ली तक की कोई आर्थिक नीति उसे राहत नहीं दिला पाती। यानी आर्थिक नीतियो ने कहीं यह साबित नहीं किया है कि वह मंदी में रास्ता कैसे निकालेगी। वहीं मनमोहनी अर्थव्यवस्था की पीठ इसलिये भी ठोंकनी चाहिये कि उसने पांच साल तक जब खेती और किसानी को देखा ही नहीं तो मौसम और जमीन के बूते खडी कृर्षि अर्थव्यवस्था से जुडे करोडों लोगो भी जमीन से ही जुड़े रहे और बाजार में उपभोक्ता नहीं बन पाये । और मंदी में जब इसी खेती ने देश का पेट भरे रखा और अराजकता को देश में आने से रोका तो यूरोपीय अर्थशास्त्रियों ने भारतीय अर्थ-गणित की पीठ ठोंकी । लेकिन इस दौर में खेती को खत्म करने की अर्थव्यवस्था ने खेती पर टिके व्यापारियो की भी कमर तोड़ी और खेती पर टिके सौहार्दपूर्ण समाज में भी पहले तनाव फिर हिंसा पैदा की । महाराष्ट्र एक अच्छा उदाहरण है, जहां ग्रामीण इलाकों का शहरीकरण हो रहा है। शहरों को बनाने के लिये खेती की जमीन पर कंक्रीट के जंगल बिछ रहे हैं। विकास का खांचा औघोगिक नगरो को बनाना चाह रहा है तो बैंक से लेकर हर सरकारी संस्थान के लिये चक्कर लगाती अर्थनीति में शरीक होना महत्वपूर्ण हो गया है। क्षेत्रों का असमान विकास बिजली और पानी की धोखाधडी से नहीं चूक रहे हैं। विदर्भ की बिजली पिंपरी-पूना चली जा रही है तो मराठवाडा का पानी पशिचमी इलाकों को तर कर रहा है । सरकार की तमाम योजनाएं अधूरी हैं। कागजों पर खानापूर्ती का खेल खुला है। इसलिये जांच और इनक्वायरी कमेटियां भी बैठी हुई हैं। इंदिरा आवास योजना से लेकर अंत्योदय योजनाओं तक में घपला है और राजनीतिक पटल पर यह राजनीति का औजार बना हुआ है। पूरी व्यवस्था में मॉनिटरिंग ही गायब है। यानी सरकार देश में योजनाओ के जरीये हर तबके को रोजी-रोटी और घर देने के लिये प्रतिबद्द है, यह संवाद पीएमओ या दस जनपथ से कुछ इस तरह स्वच्छंद होकर निकलता है कि योजना का नाम है..बस यही काफी है । पूरा हो रहा है या नहीं इसे देखनेवाला या इसकी फिक्र किसे है। प्रियंका के तेवर इंदिरा गांधी सरीखे हैं या सोनिया गांधी ने भी इंदिरा की तर्ज पर लगातार दो चुनाव जीत लिये, यह सच बार बार कहा तो जा सकता है लेकिन इंदिरा ने जिस तरह कभी बैंको को हड़काया था । या फिर योजनाओं के पूरा न होने पर नौकरशाही की नकेल कसी थी, यहा तक की मुख्यमंत्रियों को भी सीधे योजनाओ के क्रियान्वयन से जोड़ा था। वह तेवर फिलहाल गांधी परिवार में नदारद है। <br /><br />इसकी वजह सरकार में परोक्ष हस्तक्षेप का ना होना भी हो सकता है लेकिन दस जनपथ का प्रेम और राहुल की रणनीति जब एरे-गैरे को मंत्री बना सकती है तो योजनाओं और नीतिगत कार्यक्रम के पूरा न होने पर किसी मंत्री को डपट क्यो नहीं सकती । राहुल गांधी के तरीके युवाओ को भा सकते है लेकिन पथरीली जमीन पर वह कितने तार तार हैं, इसका एहसास तो आंध्र प्रदेश के चुनावी नतीजो में ही छुपा है । राहुल गांधी जिस चन्द्रबाबू नायडू को बेहतर बताते हैं, उसी नायडू को कांग्रेस के ही वाय एस आर रेड्डी चुनाव में पछाड़ कर दोबारा सत्ता में लौट आते है । नायडू ने सीमित दायरे में जो भी काम किया हो, लेकिन वाय एस आर अपने दौर में खेत-खलिहान की पगडंडियो पर नंगे पांव चले और समूचा आंध्र नापा । इस वजह से 2004 में उन्होंने अगर नायडू को पटखनी दी तो 2009 में वही वाय एस आर गरीबी की रेखा से नीचे खड़े लोगो की हर योजना को पूरा करते दिखे। इंदिरा आवास योजना का टारगेट ही पूरा नहीं किया बल्कि टारगेट से आगे जाकर उन लोगों को भी घर दिलवाया जिनके नाम बीपीएल में नहीं थे । मॉनिटरिंग खुद की और हर जिला अधिकारी को जिम्मेदारी दी । यही काम चन्द्रबाबू नायडू टेलीकान्फ्रन्सिंग के जरीये किये करते थे और वाहवाही या जिक्र काम का नही तकनीक का होता था। <br /><br />राहुल गांधी केन्द्र से चले जिस पैसे को निचली पायदान तक पहुंचाने की बात करते है , वह दूर की गोटी है । क्योंकि सरकार का नजरिया उसी ग्लोबलाइजेशन की इकनॉमी में देश का सार टटोल रहा है जो मनमोहन ने समझायी है या फिर जनादेश की सफलता का पैमाना उसे ही बनाया गया। हो सकता है कि कांग्रेस इस बार जनादेश से डरी हुई भी हो क्योंकि मनमोहन सिंह ने पहले दिन से यह संकेत दिये है कि इसबार उनकी जिम्मदारी कहीं बड़ी है । लेकिन मंत्री पद संभालने के बाद देश के वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी जब मंदी से लेकर ग्लोबल इकनॉमी में देश का अक्स खोजने की बात कह रहे हो फिर बड़ा सवाल यही होगा राहुल को आने वाले पांच सालो में या हर रात किसी झोपडी में गुजार कर सरकार पर दबाब बनाना होगा या फिर मनमोहन अपनी इकनॉमी को 180 डिग्री में उलट कर सीधे देश के उस खाद्दान्न और न्यूनतम जरुरत पर केन्द्रित कर दे, जहां रोटी और घर का फलसफा अभी भी अटका पड़ा है । या फिर उस भरोसे को अपनी पहल से जीवित कर दे कि देश के सत्तर करोड लोगों को लगे कि देश में सरकार है । क्योंकि पहली बार यह देश यह भी महसूस करने लगा है कि सार्वजनिक जीवन में रहते हुये जो राजनेता कभी आदर्श हो जाया करते थे अब वही खलनायक बन रहे हैं। इसलिये मनमोहन की पहली चुनौती मंदी से निपटना नहीं भरोसे को पैदा करना है, जिसके लिये दिल में देश को बसाना होगा। अन्यथा राष्ट्रपति भवन में आडवाणी की कुर्सी से खेलते प्रोटोकाल अधिकारी की तरह जनता भी कुर्सी खींच कर कोई नया खेल शुरु कर देगी।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-64153510572942827302009-06-02T16:28:00.001+05:302009-06-02T16:29:29.549+05:30क्या करे मनमोहन सरकार ?जंबो मंत्रिमंडल ने रन-वे पर दौड़ना शुरु कर दिया है। इससे पहले की वह उड़ान भरे और आसमान से समूचा देश एक सरीखा ही लगे, उससे पहले देश के भीतर बन चुके दो देश और जमीनी हालत पर अपनी ताकत का एहसास पायलट को होना चाहिये। यह एहसास रेल और आम बजट को पेश करने से पहले होना जरुरी है। देश के जो हालात हैं, उसमें मनोहारी बजट से लुभाने के बदले एक ऐसा विजन होना जरुरी है, जो लागू करा सकने वाली नीतियो के आसरे असल ताकत का एहसास करा सके। चूंकि सरकार पर असल सरकार की भी नजर है, जो जनादेश को भरोसा दिला रही है कि इस बार आर्थिक-सामाजिक तौर पर बंट रहे देश को पाटा जायेगा इसलिए रन-वे पर दौड़ती सरकार को पहली बार शहरी नहीं गांव का चश्मा पहनना होगा। इस चश्मे से वो शेयर बाजार या कारपोरेट थ्योरी से इतर इन्फ्रास्ट्रक्चर को देखेगा। <br /><br />सरकार का टारगेट सीधा और साफ होना चाहिये और प्रयोग एकदम नया। देश की मिट्टी में अभी भी इतनी उर्जा है कि मंदी के भयानक दौर में भी वह सौ करोड़ लोगों का पेट भर सकती है। ऐसे में सवाल सरकार के नजरिये का है । काम के तरीको का है। और अपनी जमीन पर अपने संसाधनों के जरिए उस अर्थव्यवस्था को विकसित करना होगा, जो गांव और पिछड़े इलाकों से लोगो का पलायन रोके। हर को अपने घेरे में एहसास कराये कि वह देश की मुख्यधारा से जुड़ा है। यानी इलाको को लेकर सामाजिक-आर्थिक तौर पर असमानता न हो।<br /> <br />यहां से सरकार का टारगेट शुरु होता है। उसे सबसे पहले शिक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार को टारगेट करते हुये एक देश में बने दो देशो की दूरी को पाटने का नजरिया अपनाना होगा । जिन इलाको में न खेती है, न रोजगार, वहां विश्वविधालय खोलने की नीति सरकार को अपनानी होगी। यह क्षेत्र जमीन की खोजबीन और उस पर होने वाली बहस से सरकार को बचा देंगे। मसलन बुंदेलखंड सरीखे इलाके में अगर विश्वविधालय खोला जाता है, जो वह इलाका मुख्यधारा के इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़ेगा ही। इसमें तीस फीसदी एडमिशन स्थानीय यानी अगल-बगल के चार पांच जिलो के बच्चों के लिये आरक्षित करना होगा, जिससे इन इलाको से दिल्ली-लखनऊ या भोपाल पलायन करने वाली युवा पीढी को भी रोका जा सके। इस दिशा में फायदे वाले मंत्रालयों को जोड़ना । मसलन रेलवे अपनी जमीन पर रेलवे कर्मचारियो के बच्चो के लिये यूनिवर्सिटी खोले। यह यूनिवर्सिटी विदर्भ में कलावती के जिले अमरावती में भी खुल सकती है या ऐसे ही किसी इलाके में। इसमें स्थानीय लोगों के लिये कुछ सीटों का आरक्षण हो। यह काम ओएनजीसी या फायदे और जरुरत वाले हर सेक्टर में भी किया जा सकता है । इनके शिक्षा संस्थान ट्रेनिग सेंटर सरीखे होगे । जिसमें से निकलने वाले छात्रों को टेक्निकल फील्ड में खापाया जा सकता है। <br /><br />चूंकि देश की जरुरत के हिसाब से देखे तो टेक्निकल संस्थान न के बराबर हैं। जाहिर है इस क्षेत्र में मुनाफा भी इतना है कि निजी क्षेत्र इससे जुडने के लिये खदबदा रहा है । उन्हें जितनी सुविधा सरकार देती है, अगर उसका आधी सुविधा देते हुये भी फायदे वाले सार्वजिक उपक्रमो को इस क्षेत्र में लगाया जाये तो इसका दो-तरफा लाभ देश को मिल सकता है । एक तरफ कर्मचारियो का जुड़ाव अपने बच्चों की शिक्षा को लेकर सार्वजिक उपक्रम से जुड़ेगा तो दूसरी तरफ ट्रेड युवाओं की मौजूदगी सेक्टर को पैर पसारने में मदद करेगा। यह प्रयोग बैकिंग सेक्टर में कहीं ज्यादा व्यापक हो सकता है । चूंकि बैकिंग सेवा को सिर्फ कम्प्यूटर से ही समूचे देश को जोड़ने के लिये और हर क्षेत्र में इसकी सेवा की व्यापक जरुरत के मद्देनजर इतनी बडी तादाद में लोगो की जरुरत होगी, जिसे सार्वजनिक उपक्रम के बैक खुद के ही तकनीकी शिक्षा संस्थान के जरीये पूरा कर सकते है। फिर बैकिंग ट्रेनिग संस्थान से निकले छात्रों को नेशनल सेक्यूरिटी एजेंसी से जोड़ा जा सकता है । जो आंतकवाद पर नकेल कसने में मददगार बने । क्योंकि इकनॉमिक ऑफेन्स को पकड़ने का तकनीकी ज्ञान अभी भी खासा कम है । बैंकिग की जानकारी वाला शख्स नाजायज ट्रांजेक्शन को पकड़ेगा तो आंतकी खुद पकड़ में आ जायेगा । जबकि अभी तक सरकार आतंकवादी के पीछे भागती है। ऐसे में आंतकवादी के मरने के बावजूद उसका स्ट्रक्चर बरकरार रहता है । सरहदों को लांघते आतंक को पकड़ने में बैकिंग तकनीक खासी सहायक होगी। <br /><br />दूसरा क्षेत्र टेलीकॉम का है। टेलीकॉम का उपयोग देश के भीतर करने की स्थितियों को पैदा करना होगा। इनकी जरुरत इतनी ज्यादा है कि हर क्षेत्र अछूता है। सिर्फ देशी कंपनी विप्रो-इनफोसिस-टीसीएस-टेक महेन्द्रा को हर सेक्टर से जोडकर तकनीकी तौर पर मजबूत बनाने की पहल करनी होगी। जैसे---लॉ रिफार्म के लिये जरुरी है निचली अदालतो से लेकर हाईकोर्ट तक का कम्प्यूटरीकरण । इसकी बिडिंग कराके तत्काल देशी कंपनियो को काम सौंपने चाहिये। मुकदमों को लेकर जितने मामले हर दिन अदालतों में पहुंचते हैं और उसमें जितना पैसा एक स्टाम्प लगाने से लेकर दस्तावेज जमा करने में किसी भी गांव वाले से लेकर शहरी का होता है, अगर उसे अदालतों के सुधार से जोड़ दिया जाये तो धन की उगाही अदालतो के जरीये भी की जा सकती है । <br /><br />राज्यों को भी इससे जोड़ा जा सकता है । खासकर भूमि सुधार और निचली दीवानी अदालतो के कामकाज को लेकर । यह काम देशी कंपनियो से कराने की बात इसलिये क्योंकि पिछली सकार में ही देसी कंपनी को दरकिनार कर अमेरिका कंपनी आईबीएन को एक मामले में तरजीह दे गयी, जबकि अमेरिका में आईबीएन की जगह उसी भारतीय कंपनी को तरजीह दी गयी, जिसे मनमोहन सरकार के दौर में खारिज कर दिया गया। फिर विप्रो सरीखी कंपनियो के जरीये तो ग्रामीण इलाकों में नये विश्वविद्यालय के साथ ट्रेनिंग सेंटर भी खुल सकते है। और नारायणमूर्ति तो खुद इसके हिमायती हैं।<br /> <br />तीसरा सवाल कॉरपोरेट सेक्टर को देश से जोड़ना जरुरी है। बड़े कॉरपोरेट सेक्टर की पूंजी देश के भीतर के इन्फ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने के लिये निकलवाना जरुरी है। जब कॉरपोरेट घराने क्रिकेट टीम खरीद कर मुनाफा कमा सकते है तो देश के भीतर उन इलाको में स्टेडियम क्यो नही बनाये जा सकते जहां कोई दूसरा काम नहीं होता । उन्हे चमक-दमक की मुख्यधारा से जोड़ना होगा। जैसे----महाराष्ट्र में इन्टरनल पर्यटन जबरदस्त है। रेलवे को निजी हाथो के जरिए पर्यटन से जोड़ना चाहिये। सड़क और हवाई यात्रा के बाद देश के भीतर रेलवे में यह प्रयोग अभी तक हुआ ही नहीं है। <br /><br />चौथा सबसे महत्वपूर्ण तथ्य जो जंबो मंत्रिमंडल को उडान भरने के बाद आसमान से दिखायी देगी ही नहीं, वह खेती का है । कृषि अर्थव्यवस्था को सरकार बोझ माने हुये है।<br /><br />वजह सरकार का नजरिया है जो टारगेट ओरियेन्ट्ड है, जबकि मॉनेटिरिंग है ही नहीं । हर पैकेज और राहत के साथ पंचायती स्तर को मॉनेटरिंग के साथ जोड़ना होगा । ब्लाक डेवलपमेंट आफिसर से लेकर मुख्यमंत्री तक की जिम्मेदारी तय करनी होगी । जिसे इंदिरा गांधी ने अपने दौर में बखूबी किया। राहत और पैकेज को नाबार्ड और बैंक से इस निर्देश के सहारे जोड़ना होगा कि किसान की जमीन की जरुरत पूरी हो सके। फिलहाल बैक चुटकी भर मदद करते है तो किसान को असल मदद के लिये सूदखोरो और बनियो पर ही आश्रित रहना पडता है। इस चक्र को तोड़ना होगा। खेती को उघोग सरीखा तो मनमोहन सरकार ने बनाया नहीं उल्टे उसे उस बाजार से जोड़ दिया जहां एक ही शब्द की तूती बोलती है वह है मुनाफा। इस चक्कर में कैश क्रॉप में किसान हाथ जलाने निकल पड़े है। सरकार को सादी खेती या कहें अन्न उपजाने वाले किसानों को इन्सेन्टिव देना होगा। जिससे उनका मनोबल न टूटे और देश का पेट भरने की उनकी क्षमता भी बरकरार रहे। इस घेरे में एसआईजेड को भी लाना होगा। ग्रामीण इलाको में एसईजेड बने तो रोजगार के साथ साथ गरीब-ग्रामीण-पिछड़ों के रहने की व्यवस्था भी करे। पांच फीसदी जमीन पर इस तबके के लिये घरों को बनाना जरुरी करना होगा । जिसमें लगने वाला लोहा-सीमेंट-स्टील सरकार टैक्स फ्री दे, जिससे इस तरह की योजना शुरु होने पर गांव के गांव खाली ना होने लगे और शहर दर शहर की संख्या में इजाफा कर सरकार मनोहारी व्यवस्था का खाका खडा कर खुश ना होने लगे । <br /><br />और पांचवा सवाल स्वास्थ्य सेवा का है। हेल्थ सेक्टर को सीधे पिछड़े और ग्रामीण इलाको से जोड़ना जरुरी है । प्राइवेट हेल्थ सेंटरो को भी इसमें शरीक करना होगा । शुरुआत तुरंत हो इसके लिये रेलवे को भी भागीदार बनाया जा सकता है। क्योंकि रेलवे की जमीन और रेलवे की व्सवस्था ऐसी है, जहा लोग आसानी से पहुंच भी सकते हैं। हालांकि अस्पताल देश के किसी भी सुदुर इलाके में भी खुले तो भी वहां मरीज पहुंचेगा ही। लेकिन वह बेहतर होगा क्योकि मरने से पहले व्यक्ति शहर या गांव नहीं बल्कि बेहतर इलाज चाहता है और उसके लिये कहीं भी जाने को तैयार होता है । इसलिये सवाल सिर्फ अस्पताल का नहीं है कि वह शहर से दूर ग्रामीण इलाको में खोलने चाहिये। बल्कि हर सेक्टर को ग्रामीण इलाकों से जोड़ना इसलिये जरुरी है क्योकि यह स्थानीय इकनामी का पूरा केन्द्र बन जाते हैं। और पलायन भी रुकता है और युवा तबका मुख्यधारा के प्रयोग अपने इलाको में करने से नहीं चूकता । तो रन-वे पर दौडते जंबो मंत्रिमंडल के उडान से पहले पायलट मनमोहन सिंह जमीन की हकीकत समझ ले तो बेहतर है अन्यथा आसमान से तो देश एर सरीखा लगेगा लेकिन जब दोबारा जमीन पर जंबो को उतरना होगा तो रन-वे बचा भी नहीं होगा ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-30675242761889688692008-10-06T07:47:00.005+05:302008-10-06T07:57:36.123+05:30सौम्या की हत्या से ज्यादा खतरनाक क्यों है शीला दीक्षित का बयानबीस बाईस साल की एक लड़की अचानक मेरे कुर्सी के पास आयी। उसने सीधा सवाल किया-" बिना किसी आरोप के पुलिस-अदालत-सरकार किसी को भी बारह साल तक जेल में कैसे बंद रख सकती है।" मैंने भी कहा- "बिलकुल...असंभव है।" इस पर उस लडकी का मासूम सा जबाब था –"दैन वाट्स द मिनिंग आफ गवर्नमेंट।" मैंने कहा- "सवाल सरकार के होते हुये भी न होने का नहीं है, बल्कि नयी परिस्थितियां तो सराकार के होने पर सवाल खड़ा कर रही है । यानी सरकार है तो स्थिति खराब है..... । जी, मैंने कहा... स्थितियां इससे भी बदतर हो रही है..हम दिल्ली में रहते है ...काम करते हैं, इसलिये अंदाज नहीं लगा पाते कि सरकार का होना भी कितना खतरनाक होता जा रहा है।" सॉरी सर ..बट आई डांट थिंक लाइक दिस...मुझे लगता है कि सरकार है तो सुरक्षा है...एक सिस्टम है...नहीं तो कुछ नहीं बचेगा । ऐसा ही हम सभी को सोचना चाहिये.....ओके सर कांगरेट्स..गोयनका अवार्ड के लिये....मैं हेडलाइंस टुडे में हूं । आई एम सौम्या विश्वानाथन । <br />18 अप्रैल 2005 में रात नौ बजे के आसपास का वक्त था..जब मैं "आजतक" में 'दस तक' की तैयारी में था। आंतकवादी कानून टाडा के तहत विदर्भ के सैकडों आदिवासियों को सालों साल जेल में बंद किया गया था और मैंने उन्हीं आदिवासियों पर रिपोर्ट की थी, जिस पर इंडियन एक्सप्रेस का अवार्ड मिला था। उसमे एक आदिवासी को बारह साल जेल में गुजारने पड़े थे, जिसकी रिपोर्ट दिखायी गई तो अदालत और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की पहल के बाद उसे छोडा गया था। <br /><br /> संयोग से 18 अप्रैल 2005 को वह आदिवासी भी नागपुर से हमारे प्रोग्राम में जुड़ा। जिस पर "हेडलाइन्स टुडे" की उस लडकी ने सवाल उठाया था । वहीं सौम्या का पहला परिचय मेरे लिये था। सामान्यता "हेडलाइन्स टुडे" की कोई लड़की आजतक वालों से खबरो को लेकर बातचीत करते मैंने न कभी देखा था, न ही किया था। इसलिये मेरे लिये भी यह एक आश्चर्य की बात थी। जिसका जिक्र मैंने उस वक्त हेडलाइन्स को हेड कर रहे श्रीनिवासन को बधाई देते हुये किया था – "लगता है आपकी मेहनत रंग ला रही है जो खबरो को लेकर हेडलाइन्स की लडकियां बातचीत करने लगी है।"<br /><br /> सौम्या का यह पहला संवाद एक झटके मेरे दिमाग में घुमड गया 30 सितबंर 2008 को। सुबह सुबह हरपाल को मैसेज आया...."जस्ट गॉट ए कॉल फ्रॉम राशिम, सौम्या विश्वानाथन पास्ड् एवे लेट लास्ट नाइट आफ्टर ए कार एक्सीडेंट.. हर क्रिमिनेशन विल टेक प्लेस एट 3 पीएम एट लोधी क्रिमिटोरियम ।" यह मैसेज मेरे लिये विश्वास करने वाला नहीं था। क्योंकि मेरे दिमाग में सौम्या की हर वह तस्वीर घुमड़ रही थी, जो इस भरोसे को डिगा रही थी कि सौम्या चाहती तो भी उसकी उम्र..उसकी समझ...उसके अंदर की कुलबुलाहट...उसकी सरलता..उसकी सादगी उसे मरने नहीं देती । क्योंकि मेरे आंखो के सामने पहली मुलाकात के अगले ही दिन 19 अप्रैल 2005 की सौम्या की वह तस्वीर भी आ गयी, जब वह अचानक सामने आकर खड़ी हो गयी और कहने लगी.. "सर कल जो मैंने कहा आप उससे नाराज तो नहीं है।" मै आश्चर्य में आता..इससे पहले ही वह कह पड़ी "सिस्टम है तो ही सब चल रहा है । इसे नकारा कैसे जा सकता है।" मुझे लगा यह लड़की किसी को नाराज या दुखी करना तो दूर, , इस सोच से भी घबराती है कि कोई उसकी बात से कहीं दुखी या नाराज तो नहीं हो गया । मुझे लगा भी कि जिस तरह की व्यवस्था देश में बनती जा रही है और पत्रकारिता भी जिस लीक पर चल पडी है, उसमें इतना संवेदनशील होना किस हद तक सही है।<br /><br />ऐसे में जब शाम ढलते ढलते यह खबर मिली कि सौम्या की मौत एक्सीडेंट से नहीं गोली लगने से हुई है तो एकसाथ सौम्या की मौत की वजह और सौम्या की सरलता दिमाग में घुमने लगी। करीब दो साल के दौर की कोई घटना मुझे याद नहीं आ रही थी, जिससे सौम्या को लेकर यह लकीर खींची जा सकती हो कि सौम्या को गोली मारने वालो ने इस या उस वजह से मारा हो। या फिर मारने वालों को सौम्या ने किसी तरह उकसाया भी होगा। इन सब के बीच मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बयान ने कई सवाल खड़े कर दिये। शीला दीक्षित ने कैमरे के सामने भी ये कहने से नहीं हिचकिचायीं कि "इतनी रात में सौम्या को इतना एडवेंचर्स होने की क्या ज़रुरत थी।" सवाल ये कि क्या रात में लड़कियो के अकेले निकलने का मतलब उनके साथ कुछ भी होने की स्थिति है और उसके बाद राज्य पल्ला झाड लेगा ? या फिर रात में किसी लड़की को राज्य सुरक्षा देने की स्थिति में नहीं है , उसके साथ छेड़-छाड़ होती है...बलात्कार होता है ....गोली मार दी जाती है ...यानी कुछ भी हो सकता है इसकी समझ हर लड़की को अपने अंदर पैदा कर लेनी चाहिये। <br /><br /> मेरे सामने सवाल है कि सौम्या खुले आसमान तले घर से बाहर अपने पैरो पर जब से निकली ..दिल्ली की सत्ता शीला दीक्षित के ही हाथ में है। तो शीला दीक्षित लड़कियो को लेकर जो सौम्या की मौत पर सबको समझाना चाहती है, वह सौम्या जीते जी क्यों न समझ सकी। जब दिल्ली में सीलिंग का हंगामा था तो गुडगांव रोड के फैशनस्ट्रीट की दुकानों को तोड़े जाने पर उच्च वर्ग की महिलाओ की आंखों से आंसू गिरने को दिखाए जाने के दौरान सौम्या भी भावुक थी । उस समय हेडलाइन्स टुडे के हरपाल ने मुझे बताया कि उसके यहां की लड़किया सीलिंग को लेकर भावुक हैं मगर सभी सरकार के रुख का समर्थन भी कर रही हैं। दिल्ली को दिल्ली की तरह सभी देखना चाहते हैं। तो जिस सिस्टम की बात सौम्या ने एक आदिवासी के 12 साल बेवजह जेल में बंद होने पर उठाया था, लेकिन उसके बावजूद सरकार पर भरोसा उसका था और सिस्टम खत्म नहीं हुआ है, इसे वह मानती थी, तो माना जा सकता है युवा तबके के भीतर आस बरकरार है। लेकिन सौम्या की हत्या के हालात ने यह सवाल तो पैदा कर ही दिया कि न्यूज-चैनलों के भीतर का समाज और खुले आसमान के नीचे का समाज अलग अलग है। इस पर युवा पीढी जिस बाजार व्यवस्था को देखकर विकसित भारत का सपना संजोये हुये है, उसमें पहला खतरा ही जान जाने का है । क्योंकि देश - राजनीति- या समाज में कहीं ज्यादा खुरदरापन उसी दौर में आया है, जिस दौर में एक तबके के भीतर चकाचौध आयी है।<br /><br />सौम्या को न्याय दिलाने की मांग लिये शनिवार को प्रेस क्लब में जब पत्रकार और उसके संगी साथी जमा हुये और एक लड़की ने जब यह बताया कि हेडलाइन्स टुडे की उस कुर्सी पर कोई बैठने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है, जिस पर सौम्या बैठती थी। तो मुझे लगा समाज के भीतर बनते दो समाज की अगली लड़ाई भरोसे के टूटने की होगी। और युवा पीढी का भरोसा अगर सिस्टम को लेकर टूटा तो अंधेरा कहीं ज्यादा घना होगा।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com18