दरवाजे पर टक-टक की आवाज होती है। कौन है..अंदर से एक आवाज आती है। बाहर दरवाजा खटखटाने वाला शख्स कहता है मै वोडाफोन से आया हूं। दरवाजा खुलता है । आपसी बातचीत शुरु होती है। जी कहिए...मै वोडाफोन से आया हूं..आपने एक और सिम लेने को कहा था। अंदर वाला शख्स कहता है..जी मैने तो ऐसा कुछ नहीं कहा था। तो आपके साथी ने कहा होगा। आपके साथ कोई और भी रहता है क्या, आप उससे पूछेगे....क्योंकि कंपनी ने मुझे पता तो यहीं का दिया है। अंदर वाला शख्स अपने साथी को आवाज दे कर पूछता है...वोडाफोन वाले को तुमने बुलाया है..कुछ चाहिये । नहीं, मैंने तो कुछ नहीं मंगाया था...यह कहते कहते एक दूसरा शख्स भी दरवाजे तक आ पहुंचता है। लेकिन आ ही गये हो तो कोई नयी स्कीम है तो बता दो जनाब...यह कहते हुये दूसरा शख्स पूछता है...आपको एड्रेस कहां का दिया गया है...दिखाइये।
कमीज और टाई लगाया वोडाफोन वाला शख्स एक कागज निकाल कर दिखाता है ।..हां,एड्रेस तो यहीं का है लेकिन जनाब हो सकता है इस बिल्डिंग में रहने वाले किसी और जनाब ने आपको बुलाया हो। बिल्डिंग में छत्तीस लोग रहते है आप पता कीजिये जरुर कोई होगा । वोडाफोन कंपनी से आया शख्स कहता है...हो सकता है लेकिन पहली मंजिल वाले ने मुझे ऊपर भेज दिया था कि तीसरी मंजिल पर जाइये। वहीं पर कुछ लड़के रहते हैं, जो मोबाइल और कम्यूटर रखते है...खैर मै नीचे देखता हूं आप मुझे एक गिलास पानी पिलायेगे । अरे बिलकुल जनाब..आप अंदर बैठिये । दोनों लडके अंदर जाते है..इसी बीच वोडाफोन से आया शक्स मोबाइल से किसी को फोन करता है और बहुत ही छोटी सी जानकारी देता है...पानी लेकर आने वाले शख्स के पहुंचने से पहले ही बात पूरी कर लेता है। पानी आता है तो पानी पी कर यह कहते हुये जाता है कि वोडाफोन का कोई आइटम चाहिये तो बता दीजिएगा। चलता हूं.....
दरवाजा बंद होता है। लेकिन पांच से सात मिनट के भीतर ही दरवाजे पर फिर टक टक होती है। और इस बार बाहर से कोई जोर जोर से खटखटाते हुये सीधे कहता है ...अबे खोल...खोलता हे कि नहीं ..खोल दरवाजा । अंदर से भी उसी अंदाज में आवाज आती है...अबे खोलता हूं..रुक काहे ठोके जा रहा है । दरवाजा खुलते ही गोलियो की आवाज कौघने लगती है और समूची बिल्डिग में अफरा तफरी । उसके बाद क्या हुआ यह सभी को मालूम है । क्योंकि उसके बाद उस कमरे से मरे लोगो को ही निकलते हमने देखा। एक पुलिस वाला भी खून से लथपथ देखा और टाई पहने उस एक शख्स को भी देखा जो खून से लथपथ पुलिसवाले को सहारा देकर ले जा रहा था । बाद में पता चला टाईवाला भी पुलिस का आदमी है । स्पेशल सेल का । और उसने जिसे मोबाइल से फोन किया खून से लथपथ इंसपेक्टर शर्मा थे..जो सिग्नल का इंतजार कर रहे थे। जिन्होंने दरवाजा खुलते ही गोलियां दागी । और उन लडकों ने भी गोलिया दागीं ।
यह कहानी हो या हकीकत, लेकिन जामिया नगर के बाटला हाउस में जुमे के दिन जो हुआ उसका कच्चा-चिट्टा कुछ इसी तरह सोमवार को सामने आया । बाटला हाउस में जो हुआ उसपर कितनी खामोशी है और कितना खुलापन इसका एहसास जामियानगर में बाहर से अंदर जाते वक्त ही हुआ । वाकई दिल्ली के भीतर एक दूसरी दिल्ली बसी है जामियानगर में। कांलदीकुंज से जामियानगर की तरफ जाते वक्त पहली बार लगा जैसे कश्मीर के शोपांया के इलाके में जा रहे हैं। वहां हर कदम पर सेना का पहरा किसी को भी बेखौफ आंगे बढ़ने नहीं देता । यहां भी पुलिस के बैरीकेट और उसकी मौजूदगी हर सहम कर चलते शख्स को रोक कर पूछताछ करने से नही चूकती।
लेकिन घाटी सेना की मौजूदगी को लेकर अभ्यस्त है, जबकि जामिया नगर की पहचान बेखौफ आवाजाही की है। सुबह हो या रात, लोगो की आवाजाही रात के अंधेरे को भी घना नहीं होने देती । वहां पर दिन में घुमने-टहलने के दौर में खाकी वर्दी की मौजूदगी ने पहली बार उस जामिया की पहचान को तोड़ दिया है, जो दिल्ली के भीतर किसी छोटे शहर की महक देती रही है। नयी दिल्ली में कहीं मुस्लिम की पैठ सबसे ज्यादा है तो जामिया नगर में ही है । जामिया यूनिवर्सिटी का मोह अगर पढ़ने के लिये युवाओं को यहां तक पहुचा देता है तो छोटे छोटे शहर में बढ़ते बाजार की वजह से बेरोजगार हुनरमंदो का भी सराय यही जामियानगर है। जामिया यूनिवर्सिटी से जामिया नगर में घुसते हुये यह एहसास तो साफ छलका कि बाटला की घटना ने हर निगाह में शक पैदा कर दिया है। कोई कुछ कहता नहीं । पूछने पर हिकारत की नजर या फिर खाकी वर्दी को दिल्ली का सच मान कर चुप रहने की हिदायत हर नजर देती है। आम लोग और खाकी के बीच कितनी दूरी है या राज्य और जनता के बीच संवाद कैसे बंद होता है उसका एहसास जामिया नगर में हर क्षण होता है। क्योंकि यहां कोई चाह कर भी अकेले अपने बूते रह नहीं सकता या कहे जी नहीं सकता।
जामिया नगर में लोग अपने गांव या छोटे शहरो से कट कर नहीं पहुंचते बल्कि जड़ों को लेकर यहां पहचते हैं। इसलिये कोई ऐसा है ही नहीं जो दिल्ली की भागम-भाग में खो कर अकेलेपन में जी रहा हो । इसलिये बाटला को लेकर जामिया नगर के एक छोर से दूसरे छोर तक किस्से-कहानी अनेक है, लेकिन सवाल कमोवेश एक से है । जामिया के भीतर जैसे जैसे आप घुसते जाते है खाकी वर्दी कम होती हुए गायब होने लगती है । और लोगो की निगाहो में बसा शक भी धूमिल हो जाता है। बाटला में रहने वाले अगर जुमे यानी शुक्रवार के दिन बाटला की घटना को सिलसिलेवार बताते है तो किसी चक्रव्यू की तरह बसे जामिया नगर में घुसते हुये कई सवाल खड़े होते चले जाते है जिनका ताल्लुक बाटला या जामियानगर से नहीं बल्कि उन शहरो से होता है जहां पलायन हो रहा है। और दिल्ली आने के लिये लोग मजबूर हैं। आजमगढ में सरायमीर भी है और मुबारकपुर भी। आरोपी अबु बशर तो सरायमीर का है, लेकिन मोहम्मद आफताब मुबारकपुर का है। अस्सी के दशक तक इनके परिवार की उगलियां बनारसी साड़ी को कढाई के जरीये एक नयी पहचान देती थी । नब्बे के दशक में यह पहचान सस्ती या नकली बनारसी साडियों के नाम पर मिलने लगी और पिछले एक दशक में मुबारकपुर छोड जामिया में बेहतरीन चाय बनाने की पहचान मिली हुई है। मोहम्मद अफताब का सवाल सीधा है मशीन से तो हमारी हुनरमंदी मात खा गयी लेकिन देश के नये हालातो में क्या जिन्दगी मात खायेगी। वहीं कैफी आजमी के गांव मैहजीन के मोहम्मद आसिफ होटल मैनेजमेंट की पढाई कर रहा है। जायके के शौकिन आसिफ को शारजहा में काम मिल रहा था लेकिन पढ़ने और अपने मुल्क की चाहत में आसिफ मा-बाप के कहने पर भी शारजहां नही गया, जहा मोटी कमायी होती। अब उसका सवाल है..मै कहां लौटूं । चाहता हूं एड्रेस में मुल्क का नाम इंडिया लिखा रहे। लेकिन यहां तो मोहल्ले दर मोहल्ले को ही मुल्क का नहीं माना जा रहा। पिछले 72 घंटो से हर दिन की तरह रात दस बजे लौटता हूं तो पुलिस घर तक साथ आती है। सामान टटोलती है फिर कुछ भी सवाल पूछती है, जिसका जबाब टालने पर अंदर करने की धमकी देती है। आसिफ तल्खी के साथ कहता है कि सवाल भी सुन लीजिये । बिरयानी बनानी आती है तो बम बनाना भी आता होगा। हमें बिरयानी खिलाओगे या बम मारोगे । चूडियां बेचने वाले अखलाख का सवाल कहीं ज्यादा त्रासदी भरा है। अखलाख कम्यूटर साइंस का विघार्थी है । फिरोजपुर का होने की वजह से चूडियो के धंधे से भी जुड़ा है । थोक में चूडियां लाता है और फुटकर विक्रेताओं को बेच देता है । संयोग से चूडिया लेकर वह रविवार के दिन जामियानगर पहुंचा तो सामान देखने के बाद पुलिस को जब उसके कम्पयूटर साइंस की पढ़ाई करने के जानकारी मिली तो पहला सवाल था बाटला की घटना जानने के बाद भी उसने लौटने की हिम्मत कैसे की। तीन घंटे तक पुलिस की निगाह के सामने रहने के दौरान आसिफ की सोलह दर्जन चूडिया टूटीं । मोबाइल के सभी मैसेज को पुलिस ने पढ़ा। घर में रखे कम्पयूटर और टेक्नॉलॉजी के सारे सामान पुलिस ने जांच के लिये अपने पास रख लिये लेकिन जब पता चला कि आसिफ के चाचा कांग्रेस से जुडे नेता है और राहुल गांधी की उत्तरप्रदेश यात्रा को सफल बनाने में लगातार जुटे रहे तो आनन-फानन में आसिफ को छोड दिया गया।
बाटला की घटना पर खामोश रहते हुये आसिफ ने यह जरुर कहा कि दिल्ली और फिरोजपुर की दूरी इस घटना ने जरुर बढा दी है । जामियानगर में सिर्फ उत्तर प्रदेश से ही नहीं बिहार-बंगाल-आंध्र प्रदेश- महाराष्ट्र से लेकर कश्मीर तक के लोग हैं। जो अपने अपने गांव-शहरो की मुश्किलात से जुझने के लिये दिल्ली पहुंचे हैं। पुरानी दिल्ली में कभी भी कोई भी खाकी वर्दी में उन्हे धमका सकता है लेकिन जामिया नगर में खाकी धमकी से उन्हे राहत है। लेकिन नये हालात में नया ठिकाना क्या रखें यह सवाल गुटके की दुकान चलाने वाले खालिद ने भी पूछी और बेकरी के मालिक रजा खान ने भी। करीब पांच घंटों के दौरान जब कोई ऐसा शख्स नहीं मिला जो बाटला के सच को बिना सवाल के कहे तो लौटते हुये दोबारा बाटला हाउस पहुचा और देखा पुलिस का जमघट बढ़ गया है क्योंकि मारे गये आरोपी आंतकवादियों के शव यहां लाए जाने हैं।
संयोग से वही शख्स दोबारा सामने आ गया जो सुबह मिल कर उस दिन की घटना के मिनट्स की जानकारी दे रहा था, इस बार बिना पूछे ही उस शख्स ने मुझे देखकर मुझसे कहना शुरु कर दिया , कैसे कैसे लडके दहशतगर्दी फैला रहे हैं। ब्लास्ट कर दिया और खुद खुशियां मना रहे थे। खुदा इन्हें कभी माफ नहीं करेगा। मै कोई सवाल करता, इससे पहले ही वह एक सांस में यह कहकर चल दिया । मै भौचक था , यह शख्स महज चार घंटो में बदल गया। क्या वाकई इनपर भरोसा नहीं किया जा सकता है...यह सोच कर मैं जैसे ही मुड़ा.. मैंने अपने पीछे पुलिसकर्मियो की टोली को खड़े पाया । अब सवाल मेरे सामने था ....जामियानगर का सच बाटला से निकल कर लोगो के जहन में पैदा होते अविश्वास के इस खौफ और आंतक का तो नहीं है। बांटती राजनीति और संवाद खत्म करती पुलिस की सफलता कहीं आंतकवाद के खिलाफ एक नये आंतक को तो नही परोस रही जो बाटला से कहीं आगे निकल चुकी है। ऐसे में इसे पाटेगा कौन...यह सवाल अनसुलझा है।
Wednesday, September 24, 2008
Thursday, September 18, 2008
बंगाल के मरते किसानों को नहीं ढो पायेगी नैनो
बंगाल का नया संकट बहुसंख्य तबके की राजनीति है,जो एक वर्ग के मुनाफे के बीच पिसने वाली हो चली है। जिस औघोगिकरण को लेकर बुद्ददेव को विकास का खांचा दिख रहा है, उसी वामपंथ ने एक वक्त औघोगिक विकास की खिंची लकीर को मिटाने में समूची ऊर्जा लगा दी थी। लेकिन बीते तीस साल में राजनीति का पहिया कैसे घूम गया, इसका अंदाज अब लगाया जा सकता है। वाम राजनीति की अर्थव्यवस्था की वजह से जूट उघोग ठप हो चुका है। जो उघोग लगे उनमें ज्यादातर बंद हो गए हैं। इसी वजह से 40 हजार एकड़ जमीन इन ठप पड़े उघोगों की चारदीवारी में अभी भी है। यह जमीन दुबारा उघोगों को देने के बदले व्यवसायिक बाजार औऱ रिहायशी इलाको में तब्दील हो रही है। चूंकि बीते दो दशकों में बंगाल के शहर भी फैले हैं तो भू-माफिया और बिल्डरो की नजर इस जमीन पर है।
वाम सरकार का सबसे बड़ा संकट यही है कि उसके पास आज की तारिख में कोइ उघोग नही है, जहां उत्पादन हो। हिन्दुस्तान मोटर का उत्पादन एक वक्त पूरी तरह ठप हो गया था। हाल में उसे शुरु किया गया लेकिन वहां मैनुफेक्चरिग का काम खानापूर्ति जैसा ही है। डाबर की सबसे बडी इंडस्ट्री हुबली में थी। वहां ताला लग चुका है। एक वक्त था हैवी इलेक्ट्रिकल की इंडिस्ट्री बंगाल में थी । फिलिप्स का कारखाना बंगाल में था। वह भी बंद हो गए । कोलकत्ता शहर में ऊषा का कारखाना था । जहां लाकआउट हुआ और अब उस जमीन पर देश का सबसे बडा मॉल खुल चुका है । जो मध्यम तबके के आकर्षण का नया केन्द्र बन चुका है । लेकिन नयी परिस्थितयों में मॉल आकर्षण का केन्द्र है तो मैनुफेक्तरिग युनिट रोजगार की जरुरत है। बंगाल की राजनीति नैनो को लेकर इसलिये भी हिचकोले खा रही है और किसान की राजनीति को हाशिये पर ले जाने को तैयार है क्योंकि उदारवादी अर्थव्यवस्था के दौर में सर्विस सेक्टर में तो खूब पैसा लगा है। हर राज्य में आईटी सेक्टर सरीखे यूनिट जोर पकड़े हुये हैं लेकिन मैनुफेक्चरिंग यूनिट नैनो के जरिए टाटा पहली बार लेकर आया है जो बंगाल की राजनीति को नयी दिशा भी दे रहा है। नये मिजाज ने ही चार दशक पुरानी वाम राजनीति की दिशा भी बदल दी है।
नयी जमीन जो उघोगों को दी जा रही है, उसके लिये वह इन्फ्रास्ट्रक्चर भी खड़ा किया जा रहा है, जो लोगो के रहते और खेती करते वक्त कभी नही किया गया है। बिजली के खम्बे और पानी की सप्लायी लाइन तक ग्रामीण इलाकों में गायब है लेकिन विकास की लकीर यानी उघोगों के आते ही खिंचने लग रही है। यहां सवाल उन आर्थिक नीतियो का भी है,जो वाम सरकार उठा रही है । बंगाल में 90 फीसद खेती योग्य जमीन इतनी उपजाऊ है कि उसे राज्य से कोई मदद की दरकार नहीं है । यानी निर्धारित एक से तीन फसल को जो जमीन दे सकती है, उसमें कोई अतिरिक्त इन्पफ्रास्ट्रक्चर नही चाहिये । खेत की उपज बडे बाजार तक कैसे पहुंचे या दुसरे राज्यो में अन्न कैसे व्यवस्थित तरीके से व्यापार का हिस्सा बनाया जाये, जिससे किसानों को उचित मूल्य मिल सके इसका भी कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है। जाहिर है किसान उपजाता है और बिचौलिए अपने बूते बांग्लादेश में व्यापार के नाम पर अन्न की स्मगलिंग करते है,जो सबसे ज्यादा मुनाफे वाला व्यापार हो चला है।
जाहिर है नयी परिस्थितयों में यह सवाल अपने आप में एक बड़ा सवाल हो चला है कि किसान चेतना क्या साठ के दशक की तर्ज पर बंगाल में दोबारा खड़ी हो सकती है। हालांकि तब और अब की परिस्थितयां बिलकुल उलट हैं । कांग्रेस की जगह आज वामपंथी है। नक्सलवादियों की लकीर को ममता सरीखे प्रतिक्रियावादी पकड़ना चाह रहे हैं। वामपंथियो को उन नीतियो से परहेज नहीं, जिसमें यह अवधारणा बने कि खेती अब लाभदायक नहीं रही।
तो क्या अब यह माना जा सकता है कि 1964 से 1977 तक सीपीएम ने बंगाल की राजनीति में किसानों के आसरे जिस आंदोलन के माहौल को जन्म दिया और सत्ता में आने के बाद ज्योति बसु ने जिस तरह कैडर को ही सामाजिक सरोकार से जोड़ दिया,अब वह स्थितियां मायने नहीं रखती। क्योंकि ज्योति बसु ने 77 में भूमि सुधार की जो पहल की उसी का परिणाम भी रहा कि कैडर और समाज के बीच की दूरिया मिटीं। कैडर और किसान के बीच की लकीर मिटी। यानी उस दौर में जो नीतियां बनतीं, उसे लागू कराने में कैडर की हिस्सेदारी होती। हिस्सेदारी के दायरे में कैडर अपनी हैसियत के मुताबिक आता गया। जिसका जितना बडा घेरा होता उसकी हैसियत उतनी बड़ी होती जाती । कह सकते है ज्योति बसु ने सामुहिक जिम्मेदारी का एहसास पार्टी कैडर और सत्ता में पैदा किया। वजह भी यही है कि वाम राजनीति को तीस साल में कोई भेद ना सका ।
लेकिन क्या अब यह सवाल उठाया जा सकता है कि सीपीएम ने अगर चार दशक पहले भूमि सुधार की पहल की तो वह किसान चेतना का दबाव था । उस वक्त नक्सली नेता चारु मजूमदार ने नक्सलबाडी का जो खाका तैयार किया और जो संघर्ष सामने आया उसने सत्ता पर कब्जा करनेवाली शक्ति के तौर पर किसान चेतना को परखा । चूंकि उस दौर में किसान संघर्ष जमीन और फसल के लिये नहीं था, बल्कि राजसत्ता के लिये था । सीपीआई के टूटने के बाद इस नब्ज को सीपीएम ने पकड़ा और संसदीय राजनीति को किसान सरोकार में ढाल कर सत्ता तक पहुंचा। और तब से लेकर अभी भी गाहे-बगाहे सीपीएम यह कहने से नही चूकती कि संसदीय राजनीति तो उसके लिये क्रांति का वातावरण बनाने के लिये महज औजार है । लेकिन नयी परिस्थितयों में वाम राजनीति इस औजार के लिये जिस तरह अपने आधार को ही खारिज कर पूंजीवादी नारे को लगाने से नहीं चुक रही है, उसमें क्या यह माना जा सकता है कि किसान के संघर्ष का पैमाना भी मध्यम तबके की जरुरतों के ही दायरे में सिमट रहा है। और जो राजनीति 40 साल पहले किसान चेतना से शुरु हुई थी, वह 180 डिग्री में धुम कर मध्यम वर्ग की बाजार चेतना में बदल चुकी है। और बाजार की नैनो छोटा परिवार सुखी परिवार को तो गाड़ी का सुख दे देगी लेकिन नैनो इतना छोटी है कि वह बंगाल के मरते किसान को श्मशान घाट तक भी नहीं पहुंचा पायेगी। सवाल यही है जब किसान जागेगा तो बुद्ददेव उसे नैनो की सवारी सिखला चुके होगे या एक दूसरा नक्सलबाडी सामने आयेगा ।
दिल्ली ब्लास्ट पर ग्राउड जीरो से बात करेगे शनिवार को.......
वाम सरकार का सबसे बड़ा संकट यही है कि उसके पास आज की तारिख में कोइ उघोग नही है, जहां उत्पादन हो। हिन्दुस्तान मोटर का उत्पादन एक वक्त पूरी तरह ठप हो गया था। हाल में उसे शुरु किया गया लेकिन वहां मैनुफेक्चरिग का काम खानापूर्ति जैसा ही है। डाबर की सबसे बडी इंडस्ट्री हुबली में थी। वहां ताला लग चुका है। एक वक्त था हैवी इलेक्ट्रिकल की इंडिस्ट्री बंगाल में थी । फिलिप्स का कारखाना बंगाल में था। वह भी बंद हो गए । कोलकत्ता शहर में ऊषा का कारखाना था । जहां लाकआउट हुआ और अब उस जमीन पर देश का सबसे बडा मॉल खुल चुका है । जो मध्यम तबके के आकर्षण का नया केन्द्र बन चुका है । लेकिन नयी परिस्थितयों में मॉल आकर्षण का केन्द्र है तो मैनुफेक्तरिग युनिट रोजगार की जरुरत है। बंगाल की राजनीति नैनो को लेकर इसलिये भी हिचकोले खा रही है और किसान की राजनीति को हाशिये पर ले जाने को तैयार है क्योंकि उदारवादी अर्थव्यवस्था के दौर में सर्विस सेक्टर में तो खूब पैसा लगा है। हर राज्य में आईटी सेक्टर सरीखे यूनिट जोर पकड़े हुये हैं लेकिन मैनुफेक्चरिंग यूनिट नैनो के जरिए टाटा पहली बार लेकर आया है जो बंगाल की राजनीति को नयी दिशा भी दे रहा है। नये मिजाज ने ही चार दशक पुरानी वाम राजनीति की दिशा भी बदल दी है।
नयी जमीन जो उघोगों को दी जा रही है, उसके लिये वह इन्फ्रास्ट्रक्चर भी खड़ा किया जा रहा है, जो लोगो के रहते और खेती करते वक्त कभी नही किया गया है। बिजली के खम्बे और पानी की सप्लायी लाइन तक ग्रामीण इलाकों में गायब है लेकिन विकास की लकीर यानी उघोगों के आते ही खिंचने लग रही है। यहां सवाल उन आर्थिक नीतियो का भी है,जो वाम सरकार उठा रही है । बंगाल में 90 फीसद खेती योग्य जमीन इतनी उपजाऊ है कि उसे राज्य से कोई मदद की दरकार नहीं है । यानी निर्धारित एक से तीन फसल को जो जमीन दे सकती है, उसमें कोई अतिरिक्त इन्पफ्रास्ट्रक्चर नही चाहिये । खेत की उपज बडे बाजार तक कैसे पहुंचे या दुसरे राज्यो में अन्न कैसे व्यवस्थित तरीके से व्यापार का हिस्सा बनाया जाये, जिससे किसानों को उचित मूल्य मिल सके इसका भी कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है। जाहिर है किसान उपजाता है और बिचौलिए अपने बूते बांग्लादेश में व्यापार के नाम पर अन्न की स्मगलिंग करते है,जो सबसे ज्यादा मुनाफे वाला व्यापार हो चला है।
जाहिर है नयी परिस्थितयों में यह सवाल अपने आप में एक बड़ा सवाल हो चला है कि किसान चेतना क्या साठ के दशक की तर्ज पर बंगाल में दोबारा खड़ी हो सकती है। हालांकि तब और अब की परिस्थितयां बिलकुल उलट हैं । कांग्रेस की जगह आज वामपंथी है। नक्सलवादियों की लकीर को ममता सरीखे प्रतिक्रियावादी पकड़ना चाह रहे हैं। वामपंथियो को उन नीतियो से परहेज नहीं, जिसमें यह अवधारणा बने कि खेती अब लाभदायक नहीं रही।
तो क्या अब यह माना जा सकता है कि 1964 से 1977 तक सीपीएम ने बंगाल की राजनीति में किसानों के आसरे जिस आंदोलन के माहौल को जन्म दिया और सत्ता में आने के बाद ज्योति बसु ने जिस तरह कैडर को ही सामाजिक सरोकार से जोड़ दिया,अब वह स्थितियां मायने नहीं रखती। क्योंकि ज्योति बसु ने 77 में भूमि सुधार की जो पहल की उसी का परिणाम भी रहा कि कैडर और समाज के बीच की दूरिया मिटीं। कैडर और किसान के बीच की लकीर मिटी। यानी उस दौर में जो नीतियां बनतीं, उसे लागू कराने में कैडर की हिस्सेदारी होती। हिस्सेदारी के दायरे में कैडर अपनी हैसियत के मुताबिक आता गया। जिसका जितना बडा घेरा होता उसकी हैसियत उतनी बड़ी होती जाती । कह सकते है ज्योति बसु ने सामुहिक जिम्मेदारी का एहसास पार्टी कैडर और सत्ता में पैदा किया। वजह भी यही है कि वाम राजनीति को तीस साल में कोई भेद ना सका ।
लेकिन क्या अब यह सवाल उठाया जा सकता है कि सीपीएम ने अगर चार दशक पहले भूमि सुधार की पहल की तो वह किसान चेतना का दबाव था । उस वक्त नक्सली नेता चारु मजूमदार ने नक्सलबाडी का जो खाका तैयार किया और जो संघर्ष सामने आया उसने सत्ता पर कब्जा करनेवाली शक्ति के तौर पर किसान चेतना को परखा । चूंकि उस दौर में किसान संघर्ष जमीन और फसल के लिये नहीं था, बल्कि राजसत्ता के लिये था । सीपीआई के टूटने के बाद इस नब्ज को सीपीएम ने पकड़ा और संसदीय राजनीति को किसान सरोकार में ढाल कर सत्ता तक पहुंचा। और तब से लेकर अभी भी गाहे-बगाहे सीपीएम यह कहने से नही चूकती कि संसदीय राजनीति तो उसके लिये क्रांति का वातावरण बनाने के लिये महज औजार है । लेकिन नयी परिस्थितयों में वाम राजनीति इस औजार के लिये जिस तरह अपने आधार को ही खारिज कर पूंजीवादी नारे को लगाने से नहीं चुक रही है, उसमें क्या यह माना जा सकता है कि किसान के संघर्ष का पैमाना भी मध्यम तबके की जरुरतों के ही दायरे में सिमट रहा है। और जो राजनीति 40 साल पहले किसान चेतना से शुरु हुई थी, वह 180 डिग्री में धुम कर मध्यम वर्ग की बाजार चेतना में बदल चुकी है। और बाजार की नैनो छोटा परिवार सुखी परिवार को तो गाड़ी का सुख दे देगी लेकिन नैनो इतना छोटी है कि वह बंगाल के मरते किसान को श्मशान घाट तक भी नहीं पहुंचा पायेगी। सवाल यही है जब किसान जागेगा तो बुद्ददेव उसे नैनो की सवारी सिखला चुके होगे या एक दूसरा नक्सलबाडी सामने आयेगा ।
दिल्ली ब्लास्ट पर ग्राउड जीरो से बात करेगे शनिवार को.......
Monday, September 15, 2008
नैनो ने बदल दी बंगाल की राजनीतिक जमीन
" हमनें ज़मीन से जुड़ी ज़िन्दगी बचाने के लिये विरोध किया।" सिंगुर के कुछ किसानों से की गई बातचीत का यही लब्बोलुआब निकला, जो ममता के साथ हैं और पुलिस उन्हें गैरकानूनी तरीके से सिंगुर की घेराबंदी करने के आरोप में गिरफ्तार कर ले गयी । इस तेवर ने चार दशक पहले के नक्सलबाडी की याद दिला दी। उस वक्त विद्रोही किसानों ने गिरफ्तारी के बाद कहा था "हमने ताजा हवा में सांस लेने के लिये विद्रोह किया।"
उदारवादी अर्थव्यवस्था को अपनाये जाने के बाद से यह पहला मौका आया है. जब विकास की लकीर को वही राजनीति खारिज कर रही है, जिसने अपनी राजनीति में इसे आगे बढ़ाने की वकालत की। बंगाल का राजनीति में पहला मौका है जब किसान-मजदूर उसी राजनीति में खारिज हो रहा है, जिसके आसरे राजनीति ने वाम को संसदीय दायरे में भी विकल्प की आस को बरकरार रखा। सिंगूर में टाटा के कार प्लांट और नंदीग्राम में इंडोनेशिया के सलीम ग्रुप के कैमिकल हब के खिलाफ किसान-मजदूर के साथ खडे होकर भी ना सिर्फ राजनीति की जा सकती है , बल्कि सत्ताधारी को भी पुरानी राजनीति पर लौटने को मजबूर किया जा सकता है, यह 1991 के बाद से पहली बार खुल कर नजर आया है। दरअसल, उदारवादी अर्थव्यवस्था के आसरे देश में जो विकास का ढांचा खडा किया जा रहा है, उसमें वर्ग विशेष का हित साधते हुये बहुसंख्यक तबके को भी लगातार तोड़ने का प्रयास हुआ है, जिससे समाज के भीतर यह संवाद लगातार बना रहे कि विकास सभी का हो रहा है। यानी बहुसंख्य तबके के भीतर भी कई खांचो को बनाने का प्रयास हुआ है।
सिंगुर में चार हजार लोगो को नौकरी मिली । इनमें एक हजार उन किसान परिवार के सदस्य हैं, जिन्होंने अपनी जमीन मुआवजा लेकर कार प्लांट के लिये दी । जाहिर है नंदीग्राम को लेकर भी सीपीएम ने शुरुआती दौर में यही सवाल खड़ा किया था कि करीब दस हजार लोगो को कैमिकल हब बनने से रोजगार मिल जायेगा । लेकिन सिंगुर में जमीन पर टिकी जिन्दगियों की तादाद दस हजार से ज्यादा है तो नंदीग्राम में पच्चीस हजार से ज्यादा। लेकिन तीस साल के वाम शासन ने संसदीय राजनीति को जिस तरह आत्मसात किया है, उसमें संघर्ष की ट्रेनिग में ही जंग लग चुका है ।
लेकिन सिंगुर के बाद बंगाल में राजनीति को लेकर यह कयास लगाये जा रहे हैं कि चुनावी राजनीति में मध्य वर्गीय विकास मायने रखेगा या चार दशक पुरानी किसान की राजनीति सत्ता उलट-पलट सकती है। हालांकि, बंगाल में आंदोलन की राजनीति पहली बार संसदीय राजनीति से टकराने के लिए जिस तरह तैयार हो रही है, उसमें यह सवाल भी उठने लगा है कि खेतिहर जमीन पर उघोगों को लगाने का जो सिलसिला शुरु हुआ है और अलग अलग राज्यों में किसान-मजदूर-आदिवासियों का विरोध जिस तरह हो रहा है क्या वह विकास के बनते खांचे को तोड़ देगा या संसदीय राजनीति में यह वैकल्पिक राजनीति के साथ खड़ा होगा।
बंगाल में राजनीति के संकेत शुरु से ही सरोकार वाले रहे है। वजह भी यही है कि वामपंथी तीन दशको से सत्ता में है। लेकिन पिछले चार वर्षो में बुद्धदेव भट्टाचार्य ने नीतिगत फैसलो के तहत औघोगिक विकास को राज्य के लिये जरुरी बनाया और खेतीहर संकट पर खामोशी बरती। इसने कई सवाल खडे किये । सवाल उठा कि जिस जमीन-किसान के मुद्दे के सहारे वाममोर्चा 30 साल से सत्ता पर काबिज है,वही जमीन पर पडा किसान लहुलुहान हो रहा है तो उसके संघर्ष का रास्ता कहां से निकलेगा । क्योंकि तीस साल के शासन में वामपंथियों ने ही किसानों को संघर्ष का पाठ पढ़ाया औऱ इन तीस सालों में भूमिहीन खेत मजदूरो की तादाद 35 लाख से बढकर 74 लाख 18 हजार हो चुकी है। फिलहाल राज्य में सवा करोड से ज्यादा किसान है । इसमें सीमांत किसान शामिल नहीं है। इसमे महज 56 लाख 13 हजार किसान ही ऐसे है जिनके पास अपनी जमीन है यानी वह जमीन के मालिक है या कहे बटाईदार हैं। जबकि करीब 75 लाख किसान भूमिहीन है। वहीं किसानो के संकट को उदारवादी अर्थव्यवस्था ने और ज्यादा हवा दे दी है। बड़ी तादाद में खेती योग्य जमीन दूसरे धंधो में दी जा रही है । जो धंधे हैं, उनमें मुनाफा और रोजगार दोनो सीमित हैं । यानी चंद हाथो में ही धंधे का लाभ पहुंच रहा है। जबकि जो जमीन छीनी जा रही है उस पर औसतन पचास से सौ गुना का अंतर है । यानी सौ किसानो का काम छिनने पर एक व्यक्ति को लाभ होता है । पं. बंगाल के भूमिसुधार मंत्री अब्दुल रज्जाक खुद मानते है कि हर साल 20 हजार एकड़ खेती योग्य भूमि दूसरे उपयोग में हस्तांतरित की जा रही है ।
खेती के विकास को लेकर राज्य सरकार का जो नजरिया है, उसकी वजह से अनुसूचित जाति -जनजाति और पिछडी जातियों के किसान-मजदूर सामाजिक-आर्थिक तौर पर और ज्यादा मुश्किलो से जुझ रहे हैं। छोटी जोत के कारण नब्बे फिसदी पट्टेदार, 83 फिसदी बटाईदार काम के लिये दूसरी जगहो पर जाने के लिये मजबूर हैं । इनमें 36 फिसदी पट्टेदार और 26 फिसदी बटाईदारो की कमाई पूरे महीने हजार रुपये भी नहीं है। रोजाना तीस रुपये की मजदूरी भी इन्हे नहीं मिलती । सवाल इसलिये भी गहराए हैं क्योंकि जो जमीन औघोगिकरण के नाम पर चंद हाथों में रेवडी के भाव दी जा रही है, वह खेती की है। जबकि राज्य के पास 11 लाख 75 हजार एकड़ वन भूमि है, जो ऐसे ही पडी है । 40 हजार एकड़ जमीन खाली पडी है, जिसपर कल तक उघोग चलते थे लेकिन बंद उघोगो की जमीन को लेकर भी कोई सकारात्मक नीति सरकार की नहीं है । राज्य सरकार के तर्क है कि इन जमीनों को लेकर वह कोई निर्णय सीधे नहीं ले सकती। कहीं वन कानून है तो कहीं प्राधिकरण बीच में आयेगा । जबकि यह वही सीपीएम है, जिसने साठ के दशक में कांग्रेस की खेतीहर जमीन को लेकर अपनायी जा रही नीतियो पर सीधे उंगली उठायी थी । 1964-67 के दौर में सीपीएम ने जो कहा वह गौरतलब है। तब कहा गया, अंग्रेजों के जमाने में 1894 में बना भूमि अधिग्रहण कानून आज भी ढोया जा रहा है । इसमें जनहित के कोई स्पष्ट कानूनी मानदंड नहीं है ना ही साफ व्याख्या है । निजी मालिको को उपजाऊ जमीन उघोगो के लिये देना जनहित मान लिया जा रहा है । इतना ही नही उस दौर में औघोगिकरण को लेकर वामपंथियो ने साफ कहा था कि जो जमीन उपजाऊ नहीं है जो क्षेत्र विकसित नहीं है, उन्ही इलाको में उघोग लगाने चाहिये तभी औघोगिक विकास का कोई मतलब है अन्यथा जमीन हडपो की संस्कृति ज्यादा है।
लेकिन बीते तीस साल में राजनीति का पहिया कैसे घूम गया, इसका अंदाज इस बात से अब लगाया जा सकता है कि नैनो का कारखाना सिंगुर में जिस नेशनल हाईवे के किनारे बना है, उस सड़क की दूसरी तरफ की जमीन भू-माफिया अपने कब्जे में ले चुके है। और यही भू-माफिया सीपीएम-टीएमसी के कैडर भी हैं और समझौता हो जाये इसके लिये जोर भी डाल रहे है । बुद्ददेव समझ रहे है कि नैनो का सच भी पूंजीवादी मुनाफे का रुप है , इसलिये वह पूंजीवाद की वकालत से घबराते नहीं हैं।
उदारवादी अर्थव्यवस्था को अपनाये जाने के बाद से यह पहला मौका आया है. जब विकास की लकीर को वही राजनीति खारिज कर रही है, जिसने अपनी राजनीति में इसे आगे बढ़ाने की वकालत की। बंगाल का राजनीति में पहला मौका है जब किसान-मजदूर उसी राजनीति में खारिज हो रहा है, जिसके आसरे राजनीति ने वाम को संसदीय दायरे में भी विकल्प की आस को बरकरार रखा। सिंगूर में टाटा के कार प्लांट और नंदीग्राम में इंडोनेशिया के सलीम ग्रुप के कैमिकल हब के खिलाफ किसान-मजदूर के साथ खडे होकर भी ना सिर्फ राजनीति की जा सकती है , बल्कि सत्ताधारी को भी पुरानी राजनीति पर लौटने को मजबूर किया जा सकता है, यह 1991 के बाद से पहली बार खुल कर नजर आया है। दरअसल, उदारवादी अर्थव्यवस्था के आसरे देश में जो विकास का ढांचा खडा किया जा रहा है, उसमें वर्ग विशेष का हित साधते हुये बहुसंख्यक तबके को भी लगातार तोड़ने का प्रयास हुआ है, जिससे समाज के भीतर यह संवाद लगातार बना रहे कि विकास सभी का हो रहा है। यानी बहुसंख्य तबके के भीतर भी कई खांचो को बनाने का प्रयास हुआ है।
सिंगुर में चार हजार लोगो को नौकरी मिली । इनमें एक हजार उन किसान परिवार के सदस्य हैं, जिन्होंने अपनी जमीन मुआवजा लेकर कार प्लांट के लिये दी । जाहिर है नंदीग्राम को लेकर भी सीपीएम ने शुरुआती दौर में यही सवाल खड़ा किया था कि करीब दस हजार लोगो को कैमिकल हब बनने से रोजगार मिल जायेगा । लेकिन सिंगुर में जमीन पर टिकी जिन्दगियों की तादाद दस हजार से ज्यादा है तो नंदीग्राम में पच्चीस हजार से ज्यादा। लेकिन तीस साल के वाम शासन ने संसदीय राजनीति को जिस तरह आत्मसात किया है, उसमें संघर्ष की ट्रेनिग में ही जंग लग चुका है ।
लेकिन सिंगुर के बाद बंगाल में राजनीति को लेकर यह कयास लगाये जा रहे हैं कि चुनावी राजनीति में मध्य वर्गीय विकास मायने रखेगा या चार दशक पुरानी किसान की राजनीति सत्ता उलट-पलट सकती है। हालांकि, बंगाल में आंदोलन की राजनीति पहली बार संसदीय राजनीति से टकराने के लिए जिस तरह तैयार हो रही है, उसमें यह सवाल भी उठने लगा है कि खेतिहर जमीन पर उघोगों को लगाने का जो सिलसिला शुरु हुआ है और अलग अलग राज्यों में किसान-मजदूर-आदिवासियों का विरोध जिस तरह हो रहा है क्या वह विकास के बनते खांचे को तोड़ देगा या संसदीय राजनीति में यह वैकल्पिक राजनीति के साथ खड़ा होगा।
बंगाल में राजनीति के संकेत शुरु से ही सरोकार वाले रहे है। वजह भी यही है कि वामपंथी तीन दशको से सत्ता में है। लेकिन पिछले चार वर्षो में बुद्धदेव भट्टाचार्य ने नीतिगत फैसलो के तहत औघोगिक विकास को राज्य के लिये जरुरी बनाया और खेतीहर संकट पर खामोशी बरती। इसने कई सवाल खडे किये । सवाल उठा कि जिस जमीन-किसान के मुद्दे के सहारे वाममोर्चा 30 साल से सत्ता पर काबिज है,वही जमीन पर पडा किसान लहुलुहान हो रहा है तो उसके संघर्ष का रास्ता कहां से निकलेगा । क्योंकि तीस साल के शासन में वामपंथियों ने ही किसानों को संघर्ष का पाठ पढ़ाया औऱ इन तीस सालों में भूमिहीन खेत मजदूरो की तादाद 35 लाख से बढकर 74 लाख 18 हजार हो चुकी है। फिलहाल राज्य में सवा करोड से ज्यादा किसान है । इसमें सीमांत किसान शामिल नहीं है। इसमे महज 56 लाख 13 हजार किसान ही ऐसे है जिनके पास अपनी जमीन है यानी वह जमीन के मालिक है या कहे बटाईदार हैं। जबकि करीब 75 लाख किसान भूमिहीन है। वहीं किसानो के संकट को उदारवादी अर्थव्यवस्था ने और ज्यादा हवा दे दी है। बड़ी तादाद में खेती योग्य जमीन दूसरे धंधो में दी जा रही है । जो धंधे हैं, उनमें मुनाफा और रोजगार दोनो सीमित हैं । यानी चंद हाथो में ही धंधे का लाभ पहुंच रहा है। जबकि जो जमीन छीनी जा रही है उस पर औसतन पचास से सौ गुना का अंतर है । यानी सौ किसानो का काम छिनने पर एक व्यक्ति को लाभ होता है । पं. बंगाल के भूमिसुधार मंत्री अब्दुल रज्जाक खुद मानते है कि हर साल 20 हजार एकड़ खेती योग्य भूमि दूसरे उपयोग में हस्तांतरित की जा रही है ।
खेती के विकास को लेकर राज्य सरकार का जो नजरिया है, उसकी वजह से अनुसूचित जाति -जनजाति और पिछडी जातियों के किसान-मजदूर सामाजिक-आर्थिक तौर पर और ज्यादा मुश्किलो से जुझ रहे हैं। छोटी जोत के कारण नब्बे फिसदी पट्टेदार, 83 फिसदी बटाईदार काम के लिये दूसरी जगहो पर जाने के लिये मजबूर हैं । इनमें 36 फिसदी पट्टेदार और 26 फिसदी बटाईदारो की कमाई पूरे महीने हजार रुपये भी नहीं है। रोजाना तीस रुपये की मजदूरी भी इन्हे नहीं मिलती । सवाल इसलिये भी गहराए हैं क्योंकि जो जमीन औघोगिकरण के नाम पर चंद हाथों में रेवडी के भाव दी जा रही है, वह खेती की है। जबकि राज्य के पास 11 लाख 75 हजार एकड़ वन भूमि है, जो ऐसे ही पडी है । 40 हजार एकड़ जमीन खाली पडी है, जिसपर कल तक उघोग चलते थे लेकिन बंद उघोगो की जमीन को लेकर भी कोई सकारात्मक नीति सरकार की नहीं है । राज्य सरकार के तर्क है कि इन जमीनों को लेकर वह कोई निर्णय सीधे नहीं ले सकती। कहीं वन कानून है तो कहीं प्राधिकरण बीच में आयेगा । जबकि यह वही सीपीएम है, जिसने साठ के दशक में कांग्रेस की खेतीहर जमीन को लेकर अपनायी जा रही नीतियो पर सीधे उंगली उठायी थी । 1964-67 के दौर में सीपीएम ने जो कहा वह गौरतलब है। तब कहा गया, अंग्रेजों के जमाने में 1894 में बना भूमि अधिग्रहण कानून आज भी ढोया जा रहा है । इसमें जनहित के कोई स्पष्ट कानूनी मानदंड नहीं है ना ही साफ व्याख्या है । निजी मालिको को उपजाऊ जमीन उघोगो के लिये देना जनहित मान लिया जा रहा है । इतना ही नही उस दौर में औघोगिकरण को लेकर वामपंथियो ने साफ कहा था कि जो जमीन उपजाऊ नहीं है जो क्षेत्र विकसित नहीं है, उन्ही इलाको में उघोग लगाने चाहिये तभी औघोगिक विकास का कोई मतलब है अन्यथा जमीन हडपो की संस्कृति ज्यादा है।
लेकिन बीते तीस साल में राजनीति का पहिया कैसे घूम गया, इसका अंदाज इस बात से अब लगाया जा सकता है कि नैनो का कारखाना सिंगुर में जिस नेशनल हाईवे के किनारे बना है, उस सड़क की दूसरी तरफ की जमीन भू-माफिया अपने कब्जे में ले चुके है। और यही भू-माफिया सीपीएम-टीएमसी के कैडर भी हैं और समझौता हो जाये इसके लिये जोर भी डाल रहे है । बुद्ददेव समझ रहे है कि नैनो का सच भी पूंजीवादी मुनाफे का रुप है , इसलिये वह पूंजीवाद की वकालत से घबराते नहीं हैं।
Friday, September 12, 2008
लोकतंत्र थांबा !
जोअपराधी नहीं होगे मारे जाएंगे। लोकतंत्र की यह बिसात कितनी मासूम है, जहां सबकुछ पारदर्शी हो जाता है तो लोकतंत्र ही नदारद हो जाता है। महाराष्ट्र की राजनीति में मराठी मानुष शब्द ने कुछ ऐसी ही पारदर्शिता ला दी है, जहां थाबां लोकतंत्र कहने से पहले मराठी मानुष ‘पाढा’ और फिर किसी भी भारतीय को ‘पुढे चला’ की इजाजत है । सूमचे महाराष्ट्र में हर लाल बत्ती पर सड़क पर या सड़क किनारे बोर्ड पर ट्रैफिक नियमो के लिये यही लिखा होता है ...थांबा-पाढा-पुढे चला।
राज ठाकरे की राजनीति को चंद मिनटो में कोई भी सरकार मटियामेट कर सकती है । बाल ठाकरे के सामना में संपादकीय के जरिए चेताने और पाठ पढ़ाने को तो कानून के तहत उस इलाके का थानेदार भी रोक सकता है। अभिताभ बच्चन अगर ताल ठोंक ले कि मराठी मानुष की राजनीति से सड़क पर आकर दो-दो हाथ करने है तो राज की राजनीति की हवा तुंरत निकल सकती है। लेकिन थांबा-पाढा-पुढे चला जारी है। यह समझते हुए जारी है की देश में एक संविधान है, जिसके आसरे कानून का राज है। जनता की चुनी सरकार के पास कानून के आसरे वह सब अधिकार है, जो कानून तोड़ने वालों के खिलाफ कार्रवाई के लिये काफी है। लेकिन, कहे कौन कि वह लोकतांत्रिक देश का नागरिक है, जहां किसी की तानाशाही नहीं चल सकती। बच्चन इसे कहने से क्यों घबराते हैं और सरकार कोई कार्रवाई करने से क्यों कतराती है?
इसे समझने से पहले तानाशाही के अंदाज की ठाकरे परिवार की राजनीति का मिजाज समझना होगा जो राज ठाकरे से नहीं बाला साहेब की चार दशक की राजनीति की जमीन है ।
बाला साहेब ठाकरे ने बेहद महीन तरीके से उस राजनीति को साठ के दशक में अपनी राजनीति का केन्द्र बना दिया जो नेहरु के कास्मोपोलिटन शैली के खिलाफ आजादी के तुरंत बाद महाराष्ट्र में जागी थी । नेहरु क्षेत्रियता और भाषाई संघवाद के खिलाफ थे। लेकिन क्षेत्रियता का भाव महाराष्ट्र में तेलुगूभाषी आंध्र, पंजाबीभाषी पंजाब और गुजरातीभाषी गुजरात से कहीं ज्यादा था । और इसकी सबसे बडी वजह मराठीभाषियों की स्मृति में दो बातें बार बार हिचकोले मारती । पहली, शिवाजी का शानदार मराठा साम्राज्य, जिसने मुगलों और अग्रेंजों के खिलाफ बहादुरी से लड़ने वाले पराक्रमी जाति के रुप में मराठो को गौरान्वित किया और दूसरा तिलक, गोखले और जस्टिस रानाडे की स्वतंत्रता आंदोलन में भूमिका, जो आजादी के लाभों में मराठी को अपने हिस्से का दावा करने का हक देती थी। इन स्थितियों को बाला साहेब ठाकरे ने शिवसेना के जरिए जमकर उभारा। इसे संयुक्त महाराष्ट्र आदोलन और साठ के दशक में नेहरु की अर्थनीति की नाकामी से बल मिला। जो राजनीतिक सोच उस दौर में महाराष्ट् में जगह बना रही थी, उसमें लोकतंत्र के प्रति अविश्वास, संसदीय राजनीति के प्रति उपहास, राजनीतिक प्रणाली के प्रति घृणा, प्रांतीय सकीर्णता, प्रांतीय सांप्रदायिकता, शिवाजी के मराठपन, हिन्दू पदपादशाही और हिटलर के प्रति लगाव । बाल ठाकरे ने इस मिजाज को समझा और अपनाया। ठाकरे ने लोकतंत्र को कभी तरजीह नहीं दी और तरीका हिटलर के अंदाज में रखा। दरअसल, मुबंई के उस सच को ही अपनी राजनीति का आधार बाल ठाकरे ने बना लिया जो उनके खिलाफ था। साठ के दशक मे मुंबई की हकीकत यही थी कि व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में गुजराती छाये हुये थे । दूध के व्यापार पर उत्तर प्रदेश के लोगो का कब्जा था । टैक्सी और स्पेयर पार्टस के व्यापार पर पंजाबियों का कब्जा था । लिखायी -पढ़ायी के पेशो में दक्षिण भारतीयों की भारी मांग थी । भोजनालयो में उड्डपी यानी कन्नडवासी और ईरानियो का रुतबा था । भवन निर्माण में सिधियो का बोलबाला था और इमारती काम में ज्यादातर लोग कम्मा यानी आंध्र के थे । ऐसे में मुबंई का मूल निवासी दावा तो करता था
"आमची मुबंई आहे 'लेकिन मुंबई में वह कहीं नहीं था। इस वजह से मुबंई के बाहर से आने वाले गुजराती,पारसी, दक्षिण भारतीयो और उत्तर भारतीयो के लिये मराठी सीखना जरुरी नही था । हिन्दी-अग्रेजी से काम चल सकता था । उनके लिये मुबंई के धरती पुत्रो के सामाजिक-सांस्कृतिक जगत में कोई रिश्ता जोड़ना भी जरुरी नहीं था । ठाकरे ने इसके खिलाफ जो राजनीतिक जमीन बनानी शुरु कि उसमें मुसलमान और दक्षिण भारतीय सबसे पहले टारगेट हुए । अपने अखबार मार्मिक में कार्टून और लेख के जरिए मराठियो में किस तरीके की बैचेनी है, इसे ठाकरे ने अपने विलक्षण अंदाज में पेश किया--"सभी लुंगी वाले अपराधी, जुआरी,अवैध शराब खिंचने वाले, दलाल, गुंडे, भिखारी और कम्युनिस्ट है.......मै चाहता हूं कि शराब खींचने वाला भी महाराष्ट्रीयन हो और मवाली भी महाराष्ट्रीयन हो । " इस भाषा और तेवर ने 1967 में संसदीय निर्वाचन में एक प्रेशर गुट के रुप में ठाकरे ने अपनी उपयोगिता साबित कर दी । और 1968 में नगर निगम चुनाव में लगभग अकेले दम पर सबसे ज्यादा वोट पा कर दिखा दिया। दरअसल, यही वह समझ और राजनीति है, जिसे चालीस साल बाद राजठाकरे की जुबान उगल रही है । बीते चालीस साल में इसी राजनीति को करते हुये बाल ठाकरे सत्ता तक भी पहुचे और लोकतांत्रिक संसदीय जुबान बोलने पर सत्ता हाथ से गयी भी । जो राजनीतिक जमीन बाल ठाकरे ने शिवसेना के जरिए बनायी, संयोग से वह जमीन और मुद्दे तो वही रह गये...शिवसेना और बाल ठाकरे उससे इतना आगे निकल गये कि उनका लौटना मुश्किल है । इसलिये जिस दौर में शिवसेना अपनी ही बनायी राजनीतिक जमीन खो रही थी उसे कुछ अंतराल के लिये नारायण राणे ने संभाला । नारायण राणे का तरीका भी बाल ठाकरे वाला ही था । और इसी तरीके ने नारायम राणे को कोंकण से आगे महाराष्ट्र की राजनीति में स्थापित किया । कांग्रेस के चश्मे से यह वहीं लुंपेन राजनीति थी, जिसे बाल ठाकरे साठ के दशक में कर रहे थे और राजनीतिज्ञ शिवसेना को जज्बाती राजनीति की देन और आधुनिक राष्ट्रवाद के विकास के लिये खतरा बता कर खामोश हो रहे थे। शिवसेना इसी राजनीति को अब पूंछ से पकड कर युवा बालासाहेब की याद अपने वोटरो को दिला कर धमकाती भी रहती है । लेकिन राजठाकरे के पास उसी तरह खोने के लिये कुछ नहीं है जैसे बाला साहेब के पास चालीस साल पहले खोने के लिये कुछ नही था। ऐसे में चालीस साल बाद राजठाकरे का समाज विरोधी आंदोलन भी राजनीतिक लाभ की जमीन बनता जा रहा है।
लेकिन इस राजनीति का दूसरा सच कहीं ज्यादा बड़ा है । रोजगार और क्षेत्रियता का जो संकट अलग अलग साठ के दशक में था, दरअसल 2008 में वही क्षेत्रियता अब रोजगार को भी साथ जोड़ चुकी है । शिवेसना की लुंपेन राजनीति ने सत्ता सुकुन पाते ही जैसे ही साथ छोड़ा, वैसे ही उस रोजगार पर भी संकट आ गया जो शिवसैनिकों को भष्ट्र होते तंत्र में लाभ के बंदरबांट में मिल जाती थी। चूंकि इस दौर में महाराष्ट्र का खासा आर्थिक विकास हुआ लेकिन सत्ता और एक वर्ग विशेष के गठजोड़ ने सबकुछ समेटा इसलिये वह तबका, जिसे न्यूनतम के जुगाड के लिये रोजगार चाहिये था वह ना तो बाजार या तंत्र से मिला और शिवसेना जो इस गठजोड के मुनाफे में हिस्सेदारी के लिये लगातार राजनीति कर रही थी, जब उसने भी लीक बदली तो शिवसैनिको के सामने कुछ नहीं था। मिलो के बंद होने और जिले दर जिले महाराष्ट्र औघोगिक विकास निगमो में लगे उघोगो के बंद होने से जहां रोजगार गायब होते गये वहीं भू-माफिया राजनीति के नये औजार के तौर पर उभरा। इस नये धंधे में काग्रेस-बीजेपी-शिवसेना और राजठाकरे की भी हिस्सेदारी थी तो इसका मुनाफा भी उस बहुसंख्यक मराठी तबके के पास नहीं पहुचा जिसकी ट्रेनिग शिवसेना के जरीये हुई थी । इस बडे तबके को कैसे सडक पर उतार कर उसकी भावनाओ को हथियार बनाना है, यह राजठाकरे ने अपने चाचा बाल ठाकरे की छत्रछाया में चालीस साल में बखुबी सीखा । लेकिन ठाकरे परिवार की राजनीति के सामानातातर दो सवाल थाबां लोकतंत्र के नाम पर खडे होते है कि ऐसे में जनता की चुनी सरकार कहां है? विलासराव देशमुख सरकार के सत्ता में बने रहने के लिये लोकतंत्र थांबा कहना मजबूरी है । कांग्रेस के बंटने या टूटने के बाद कांग्रेस को भी इसका एहसास है और नेशनलिस्ट काग्रेस पार्ट्री के लिये भी कि वह मराठी मानुष को ना छेड़े । क्योंकि वोटरों की फेरहिस्त में मराठी मानुष की भावनाओं को कोई राजनीतिक दल अपने साथ तभी कर सकती है, जब उनकी न्यूनतम जरुरतो को भी सरकार की विकास की रेखा पूरी कर दे। यह सवाल उठ सकता है कि आखिर क्यों मराठी मानुष सरीखे मुद्दे पर राजनीति उस राज्य में की जा रही है, जहां किसान सबसे ज्यादा खुदकुशी कर रहा है । जहां सबसे ज्यादा बिजली संकट हो चला है । जहां किसी भी राज्य से ज्यादा विकास की विसंगतियां है । जहां का प्रभु वर्ग सात सितारा जीवन जी रहा है तो बहुसंख्य तबका न्यूनतम की जद्दोजहद में जान गंवा रहा है । हकीकत में राजठाकरे के लिये यही समस्याये ही आक्सीजन का काम कर रही हैं और सरकार के सामने टुकुर टुकुर ताकने के अलावे कोई दूसरा चारा नहीं है ।
अब सवाल है कि सदी के महानायक अमिताभ बच्चन को ऐसे में माफी मांगने की जरुरत क्या है । दरअसल, सवाल मुबंई या महाराष्ट्र का नहीं है कि अमिताभ यहा रहे और महानायक बने है तो उन्हें उस जमीन का गुणगान करना चाहिये । सवाल है कि अमिताभ जिस माध्यम के सहारे महानायक बने है, वह माध्यम विकसित होता गया है । उससे जुड़े लोगों ने भरपूर मुनाफा कमाया है । लेकिन सुख-सुविधा की इस जमीन के बनने के बाद ही अमिताभ का संकट शुरु होता है । दरअसल, अमिताभ के महानायक बनने के पीछे भी उसी तबके का आक्रोष है, जिसे फिल्मो के जरीये अमिताभ ने कमाया है और राजठाकरे अब कमाना चाह रहे है । अमिताभ की फिल्मो ने गुस्साये लोगो को सरोकार की भाषा भी बतायी और जुल्म के खिलाफ लड़ने की हिम्मत भी दी । लेकिन अमिताभ एक्टिग करते हैं । और तीस साल से कलाकारी के जरीये वह शिवसेना के उस शिवसैनिक को भी वही घुट्टी पिलाते आ रहे है जो राजठाकरे के नवनिर्माण सैनिक अलग अलग परिवेश में रह कर पीते आये है । इस सफलता ने अमिताभ को दुनिया से तो जोड़ा लेकिन अपने ही समाज से काट दिया है । समाज के आक्रोष-तनाव को एक्टिंग की अफीम पिला कर अगर बॉलीवुड का कोई कलाकार मुनाफा कमाता है तो भवनात्मक मुद्दा बनने पर अगर वही समाज उसे निशाना बनाने लगेगा तो माफी की परिभाषा को समझना होगा । अमिताभ की माफी राजठाकरे से नहीं अपने आप से है, जो लोगो से कटकर लोगों की बात करते हुये उन्होने खुद को महानायक बनाया है । ठीक उसी तरह जिस तरह सरकार की खामोशी अपने आप के लिये है । ठीक उसी तरह जिस तरह बाल ठाकरे की अमिताभ की बढाई करना अपने लिये संसदीय मुखौटे को बरकरार रखना है। ठीक उसी तरह जिस तरह राज ठाकरे का मराठी मानुष अपने लिये किसी तरह सत्ता में दस्तक देना चाहता है । इसीलिये अभी लोकतंत्र थांबा है।
राज ठाकरे की राजनीति को चंद मिनटो में कोई भी सरकार मटियामेट कर सकती है । बाल ठाकरे के सामना में संपादकीय के जरिए चेताने और पाठ पढ़ाने को तो कानून के तहत उस इलाके का थानेदार भी रोक सकता है। अभिताभ बच्चन अगर ताल ठोंक ले कि मराठी मानुष की राजनीति से सड़क पर आकर दो-दो हाथ करने है तो राज की राजनीति की हवा तुंरत निकल सकती है। लेकिन थांबा-पाढा-पुढे चला जारी है। यह समझते हुए जारी है की देश में एक संविधान है, जिसके आसरे कानून का राज है। जनता की चुनी सरकार के पास कानून के आसरे वह सब अधिकार है, जो कानून तोड़ने वालों के खिलाफ कार्रवाई के लिये काफी है। लेकिन, कहे कौन कि वह लोकतांत्रिक देश का नागरिक है, जहां किसी की तानाशाही नहीं चल सकती। बच्चन इसे कहने से क्यों घबराते हैं और सरकार कोई कार्रवाई करने से क्यों कतराती है?
इसे समझने से पहले तानाशाही के अंदाज की ठाकरे परिवार की राजनीति का मिजाज समझना होगा जो राज ठाकरे से नहीं बाला साहेब की चार दशक की राजनीति की जमीन है ।
बाला साहेब ठाकरे ने बेहद महीन तरीके से उस राजनीति को साठ के दशक में अपनी राजनीति का केन्द्र बना दिया जो नेहरु के कास्मोपोलिटन शैली के खिलाफ आजादी के तुरंत बाद महाराष्ट्र में जागी थी । नेहरु क्षेत्रियता और भाषाई संघवाद के खिलाफ थे। लेकिन क्षेत्रियता का भाव महाराष्ट्र में तेलुगूभाषी आंध्र, पंजाबीभाषी पंजाब और गुजरातीभाषी गुजरात से कहीं ज्यादा था । और इसकी सबसे बडी वजह मराठीभाषियों की स्मृति में दो बातें बार बार हिचकोले मारती । पहली, शिवाजी का शानदार मराठा साम्राज्य, जिसने मुगलों और अग्रेंजों के खिलाफ बहादुरी से लड़ने वाले पराक्रमी जाति के रुप में मराठो को गौरान्वित किया और दूसरा तिलक, गोखले और जस्टिस रानाडे की स्वतंत्रता आंदोलन में भूमिका, जो आजादी के लाभों में मराठी को अपने हिस्से का दावा करने का हक देती थी। इन स्थितियों को बाला साहेब ठाकरे ने शिवसेना के जरिए जमकर उभारा। इसे संयुक्त महाराष्ट्र आदोलन और साठ के दशक में नेहरु की अर्थनीति की नाकामी से बल मिला। जो राजनीतिक सोच उस दौर में महाराष्ट् में जगह बना रही थी, उसमें लोकतंत्र के प्रति अविश्वास, संसदीय राजनीति के प्रति उपहास, राजनीतिक प्रणाली के प्रति घृणा, प्रांतीय सकीर्णता, प्रांतीय सांप्रदायिकता, शिवाजी के मराठपन, हिन्दू पदपादशाही और हिटलर के प्रति लगाव । बाल ठाकरे ने इस मिजाज को समझा और अपनाया। ठाकरे ने लोकतंत्र को कभी तरजीह नहीं दी और तरीका हिटलर के अंदाज में रखा। दरअसल, मुबंई के उस सच को ही अपनी राजनीति का आधार बाल ठाकरे ने बना लिया जो उनके खिलाफ था। साठ के दशक मे मुंबई की हकीकत यही थी कि व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में गुजराती छाये हुये थे । दूध के व्यापार पर उत्तर प्रदेश के लोगो का कब्जा था । टैक्सी और स्पेयर पार्टस के व्यापार पर पंजाबियों का कब्जा था । लिखायी -पढ़ायी के पेशो में दक्षिण भारतीयों की भारी मांग थी । भोजनालयो में उड्डपी यानी कन्नडवासी और ईरानियो का रुतबा था । भवन निर्माण में सिधियो का बोलबाला था और इमारती काम में ज्यादातर लोग कम्मा यानी आंध्र के थे । ऐसे में मुबंई का मूल निवासी दावा तो करता था
"आमची मुबंई आहे 'लेकिन मुंबई में वह कहीं नहीं था। इस वजह से मुबंई के बाहर से आने वाले गुजराती,पारसी, दक्षिण भारतीयो और उत्तर भारतीयो के लिये मराठी सीखना जरुरी नही था । हिन्दी-अग्रेजी से काम चल सकता था । उनके लिये मुबंई के धरती पुत्रो के सामाजिक-सांस्कृतिक जगत में कोई रिश्ता जोड़ना भी जरुरी नहीं था । ठाकरे ने इसके खिलाफ जो राजनीतिक जमीन बनानी शुरु कि उसमें मुसलमान और दक्षिण भारतीय सबसे पहले टारगेट हुए । अपने अखबार मार्मिक में कार्टून और लेख के जरिए मराठियो में किस तरीके की बैचेनी है, इसे ठाकरे ने अपने विलक्षण अंदाज में पेश किया--"सभी लुंगी वाले अपराधी, जुआरी,अवैध शराब खिंचने वाले, दलाल, गुंडे, भिखारी और कम्युनिस्ट है.......मै चाहता हूं कि शराब खींचने वाला भी महाराष्ट्रीयन हो और मवाली भी महाराष्ट्रीयन हो । " इस भाषा और तेवर ने 1967 में संसदीय निर्वाचन में एक प्रेशर गुट के रुप में ठाकरे ने अपनी उपयोगिता साबित कर दी । और 1968 में नगर निगम चुनाव में लगभग अकेले दम पर सबसे ज्यादा वोट पा कर दिखा दिया। दरअसल, यही वह समझ और राजनीति है, जिसे चालीस साल बाद राजठाकरे की जुबान उगल रही है । बीते चालीस साल में इसी राजनीति को करते हुये बाल ठाकरे सत्ता तक भी पहुचे और लोकतांत्रिक संसदीय जुबान बोलने पर सत्ता हाथ से गयी भी । जो राजनीतिक जमीन बाल ठाकरे ने शिवसेना के जरिए बनायी, संयोग से वह जमीन और मुद्दे तो वही रह गये...शिवसेना और बाल ठाकरे उससे इतना आगे निकल गये कि उनका लौटना मुश्किल है । इसलिये जिस दौर में शिवसेना अपनी ही बनायी राजनीतिक जमीन खो रही थी उसे कुछ अंतराल के लिये नारायण राणे ने संभाला । नारायण राणे का तरीका भी बाल ठाकरे वाला ही था । और इसी तरीके ने नारायम राणे को कोंकण से आगे महाराष्ट्र की राजनीति में स्थापित किया । कांग्रेस के चश्मे से यह वहीं लुंपेन राजनीति थी, जिसे बाल ठाकरे साठ के दशक में कर रहे थे और राजनीतिज्ञ शिवसेना को जज्बाती राजनीति की देन और आधुनिक राष्ट्रवाद के विकास के लिये खतरा बता कर खामोश हो रहे थे। शिवसेना इसी राजनीति को अब पूंछ से पकड कर युवा बालासाहेब की याद अपने वोटरो को दिला कर धमकाती भी रहती है । लेकिन राजठाकरे के पास उसी तरह खोने के लिये कुछ नहीं है जैसे बाला साहेब के पास चालीस साल पहले खोने के लिये कुछ नही था। ऐसे में चालीस साल बाद राजठाकरे का समाज विरोधी आंदोलन भी राजनीतिक लाभ की जमीन बनता जा रहा है।
लेकिन इस राजनीति का दूसरा सच कहीं ज्यादा बड़ा है । रोजगार और क्षेत्रियता का जो संकट अलग अलग साठ के दशक में था, दरअसल 2008 में वही क्षेत्रियता अब रोजगार को भी साथ जोड़ चुकी है । शिवेसना की लुंपेन राजनीति ने सत्ता सुकुन पाते ही जैसे ही साथ छोड़ा, वैसे ही उस रोजगार पर भी संकट आ गया जो शिवसैनिकों को भष्ट्र होते तंत्र में लाभ के बंदरबांट में मिल जाती थी। चूंकि इस दौर में महाराष्ट्र का खासा आर्थिक विकास हुआ लेकिन सत्ता और एक वर्ग विशेष के गठजोड़ ने सबकुछ समेटा इसलिये वह तबका, जिसे न्यूनतम के जुगाड के लिये रोजगार चाहिये था वह ना तो बाजार या तंत्र से मिला और शिवसेना जो इस गठजोड के मुनाफे में हिस्सेदारी के लिये लगातार राजनीति कर रही थी, जब उसने भी लीक बदली तो शिवसैनिको के सामने कुछ नहीं था। मिलो के बंद होने और जिले दर जिले महाराष्ट्र औघोगिक विकास निगमो में लगे उघोगो के बंद होने से जहां रोजगार गायब होते गये वहीं भू-माफिया राजनीति के नये औजार के तौर पर उभरा। इस नये धंधे में काग्रेस-बीजेपी-शिवसेना और राजठाकरे की भी हिस्सेदारी थी तो इसका मुनाफा भी उस बहुसंख्यक मराठी तबके के पास नहीं पहुचा जिसकी ट्रेनिग शिवसेना के जरीये हुई थी । इस बडे तबके को कैसे सडक पर उतार कर उसकी भावनाओ को हथियार बनाना है, यह राजठाकरे ने अपने चाचा बाल ठाकरे की छत्रछाया में चालीस साल में बखुबी सीखा । लेकिन ठाकरे परिवार की राजनीति के सामानातातर दो सवाल थाबां लोकतंत्र के नाम पर खडे होते है कि ऐसे में जनता की चुनी सरकार कहां है? विलासराव देशमुख सरकार के सत्ता में बने रहने के लिये लोकतंत्र थांबा कहना मजबूरी है । कांग्रेस के बंटने या टूटने के बाद कांग्रेस को भी इसका एहसास है और नेशनलिस्ट काग्रेस पार्ट्री के लिये भी कि वह मराठी मानुष को ना छेड़े । क्योंकि वोटरों की फेरहिस्त में मराठी मानुष की भावनाओं को कोई राजनीतिक दल अपने साथ तभी कर सकती है, जब उनकी न्यूनतम जरुरतो को भी सरकार की विकास की रेखा पूरी कर दे। यह सवाल उठ सकता है कि आखिर क्यों मराठी मानुष सरीखे मुद्दे पर राजनीति उस राज्य में की जा रही है, जहां किसान सबसे ज्यादा खुदकुशी कर रहा है । जहां सबसे ज्यादा बिजली संकट हो चला है । जहां किसी भी राज्य से ज्यादा विकास की विसंगतियां है । जहां का प्रभु वर्ग सात सितारा जीवन जी रहा है तो बहुसंख्य तबका न्यूनतम की जद्दोजहद में जान गंवा रहा है । हकीकत में राजठाकरे के लिये यही समस्याये ही आक्सीजन का काम कर रही हैं और सरकार के सामने टुकुर टुकुर ताकने के अलावे कोई दूसरा चारा नहीं है ।
अब सवाल है कि सदी के महानायक अमिताभ बच्चन को ऐसे में माफी मांगने की जरुरत क्या है । दरअसल, सवाल मुबंई या महाराष्ट्र का नहीं है कि अमिताभ यहा रहे और महानायक बने है तो उन्हें उस जमीन का गुणगान करना चाहिये । सवाल है कि अमिताभ जिस माध्यम के सहारे महानायक बने है, वह माध्यम विकसित होता गया है । उससे जुड़े लोगों ने भरपूर मुनाफा कमाया है । लेकिन सुख-सुविधा की इस जमीन के बनने के बाद ही अमिताभ का संकट शुरु होता है । दरअसल, अमिताभ के महानायक बनने के पीछे भी उसी तबके का आक्रोष है, जिसे फिल्मो के जरीये अमिताभ ने कमाया है और राजठाकरे अब कमाना चाह रहे है । अमिताभ की फिल्मो ने गुस्साये लोगो को सरोकार की भाषा भी बतायी और जुल्म के खिलाफ लड़ने की हिम्मत भी दी । लेकिन अमिताभ एक्टिग करते हैं । और तीस साल से कलाकारी के जरीये वह शिवसेना के उस शिवसैनिक को भी वही घुट्टी पिलाते आ रहे है जो राजठाकरे के नवनिर्माण सैनिक अलग अलग परिवेश में रह कर पीते आये है । इस सफलता ने अमिताभ को दुनिया से तो जोड़ा लेकिन अपने ही समाज से काट दिया है । समाज के आक्रोष-तनाव को एक्टिंग की अफीम पिला कर अगर बॉलीवुड का कोई कलाकार मुनाफा कमाता है तो भवनात्मक मुद्दा बनने पर अगर वही समाज उसे निशाना बनाने लगेगा तो माफी की परिभाषा को समझना होगा । अमिताभ की माफी राजठाकरे से नहीं अपने आप से है, जो लोगो से कटकर लोगों की बात करते हुये उन्होने खुद को महानायक बनाया है । ठीक उसी तरह जिस तरह सरकार की खामोशी अपने आप के लिये है । ठीक उसी तरह जिस तरह बाल ठाकरे की अमिताभ की बढाई करना अपने लिये संसदीय मुखौटे को बरकरार रखना है। ठीक उसी तरह जिस तरह राज ठाकरे का मराठी मानुष अपने लिये किसी तरह सत्ता में दस्तक देना चाहता है । इसीलिये अभी लोकतंत्र थांबा है।
Tuesday, September 9, 2008
बालीवुड की नजर में फेल हो चुके है राज्य
ये किताब रुसी लेखक अलेक्जेन्डर बुश्किन की है...बहुत शानदार लिखा है..सुनो....और वक्त तुर्कमानी घोड़ों की तरह भागता चला गया.........."
"चमकू " फिल्म का यह संवाद नक्सली नेता का एक बच्चे से है । यह उस बच्चे की ट्रेनिंग है, जो फिल्म का नायक बनेगा। एसेंस की तरह नक्सलवाद को छू कर बाजारु होने की दिशा में बढती फिल्म राज्य की हर उस पहल पर सवाल उठाती है , जो हिंसा को खत्म करने के लिये प्रतिहिंसा का आसरा लेती है। एक दूसरी फिल्म "मुखबिर" भी हिंसा को खत्म करने के लिये राज्य की हिंसक पहल के लिए राज्य को ही कटघरे में खडा करती है । फिल्म "वेडनस-डे" भी आंतकवाद के खिलाफ राज्य की हिंसक कार्रवायी को लेकर एक ऐसा सवाल खडा करती है, जहां आम आदमी असहाय और विकल्पहीन नजर आता है।
दरअसल, बॉलीवुड की हाल की फिल्मो में यह साफ उभारा जा रहा है कि नायक की खलनायकी के पीछे राज्य की खलनायक पहल है। और खलनायक होते हुये भी नायक का चरित्र बरकरार रहता है लेकिन राज्य की खलनायकी का चेहरा और ज्यादा विकृत होते जाता है । लेकिन तीन नयी फिल्म चमकू, मुखबिर और वेडनसडे में बेहद महीन तरीके से मानवाधिकार संगठनो की उस आवाज को बुलंदी दी गयी है, जिसमें बार बार नक्सलवाद, आंतकवाद और कट्टरपंथी हिंसा के नाम पर राज्य की पहल किस तरह आंतकवादी या हिंसात्मक हो जाती है, और जिसे स्टेट टेरर के नाम से बार बार उठाया जाता है।
समाज में हिंसा की वजह राज्य की नाकाम नीतियां है । नाकाम नीतियों की वजह से उसके भुक्तभोगियों के सामने प्रतिहिंसा के अलावे कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता । और इस प्रतिहिंसा का लाभ राज्य कैसे उठाता है और स्टेट टेरर का साधन इन प्रतिहिंसा करने वालो को कैसे बनाता है, बॉलीवुड की इन तीनो नयी फिल्मों में बखूबी नज़र आता है।
दरअसल, पुलिस महकमा नाकाम हो चुका है , यह सिनेमायी पर्दे पर सत्तर के दशक में नजर आने लगा । लेकिन पुलिस के साथ साथ प्रशासन भी भष्ट्र और नाकाम हो रहा है, यह नब्बे के दशक में उभरा । लेकिन बीते डेढ़ दशक में आंतकवाद और नक्सलवाद को लेकर राज्य ने सुरक्षा की जो पहल की उसमें राजनेता और खुफिया विभाग के अलावा एक विशेष एजेंसी का जिक्र हर बार आया । लेकिन, आतंकवाद और नक्सलवाद से निपटने के जो तरीके राज्य ने अपनाये और दोनो की हिंसा या प्रसार में जो तेजी इसी दौर में हुई उसने राज्य की पहल को लेकर यूं भी समाज के भीतर एक बहस तो छेड ही रखी है। नक्सलवाद को लेकर छत्तीसगढ सरकार का सलवाजुडुम का प्रयोग अब बॉलीबुड का मसाला बन चुका है । सलवाजुडुम में वही आदिवासी बंदूक उठाये हुये हैं, जिनके लिये नक्सलवाद लड़ने का ऐलान करता है । लेकिन नक्सलवाद की बंदूक राज्य के खिलाफ है और सलवाजुडुम में शामिल आदिवासियों की बंदूक राज्य की लाइसेंसी बंदूक है। सवाल है कि सलवाजुडुम को लेकर जब सुप्रीमकोर्ट यह सवाल खड़ा करता है कि राज्य किसी को भी बंदूक कैसे थमा सकता है, और राज्य सरकार जबाब देती है कि इन आदिवासियो की सुरक्षा की उसे चिंता है और आदिवासी आत्मसुरक्षा को लेकर राज्य से गुहार लगा रहे है तो राज्य के सामने भी कोई दूसरा विकल्प नहीं है।
सवाल है कि यहां राज्य से सुप्रीमकोर्ट यह सवाल नही करता कि नक्सलवाद की वजह क्या है या फिर पुलिस महकमा क्या पुरी तरह नाकाम हो गया है। लेकिन बॉलीवुड इस सच को पकड़ता है और बॉलीवुड पहुंचते-पहुंचते सुप्रीमकोर्ट का यह सवाल बिलकुल नये कलेवर के साथ सामने आता है। जहां नक्सलवादियों से मानवीयता की ट्रेनिग पाया "चमकू"का नायक नक्सलवादियों के राज्य की गोलियों से खत्म होने के बाद राज्य के लिये सबसे बेहतरीन खुफिया सुरक्षाकर्मी साबित होता है। चूंकि ट्रेनिंग नक्सलवाद की है तो राज्य का खुफिया अधिकारी यह कहने से नहीं घबराता कि राजनीतिक समझ चमकू की बेहद उम्दा है । जिन परिस्थितयों में जंगलों में रहना पड़ता है, उसमें राज्य के अधिकारी यह मानने से नहीं कतराते की किसी भी पुलिसकर्मी या सुरक्षाकर्मी से ज्याद तेज-फुर्तीला चमकू है । इतना ही नहीं हर कट्टरपंथी हिंसा और आंतकवाद को भेदने के लिये चमकू सरीखा नायक उनके पास नहीं है । लेकिन चमकू इन परिस्थितयो में जिन वजहों से आया वह राज्य की ही कमजोर नीतियों का नतीजा है , इसपर जहां जहां सवाल उठने की गुंजाइश बनती है वहां वहां राज्य खामोशी की चादर ओढ लेता है । चालीस साल में छह जिलों से देश के सवा सौ जिलों में नक्सलवाद फैल गया, इसकी वजहो पर कभी गृहमंत्रालय की रिपोर्ट तैयार नही हुई। आदिवासी-ग्रामीण इलाकों में विकास की लकीर ना खिंचने की जो वजहें रही, उसको उभारने की हिम्मत देश की किसी सरकार ने नहीं की । चमकू के पिता का हत्यारा और उसे मौत के मुंह में पहुचाने वाला शख्स राज्य की व्यव्स्था का हिस्सा बनकर सट्टेबाजी का किंग बन चुका है और उसे मारना नामुमकिन है, सेंसरबोर्ड चमकू में यह बताने की इजाजत तो दे देता है लेकिन जो हिंसा नक्सलवाद और आंतकवांद के नाम पर हो रही है उनके पीछे राज्य का कितना आंतक है, यह सवाल आते ही मंत्री या देशभक्ति का एसा जज्बा जगाया जाता है कि हर कोई लाचार हो जाता है । यह लाचारी किस हद तक समाज के भीतर या कहे राज्य के सिस्टम में मौजूद है इसे "मुखबिर" में कई स्तर पर उठाया गया है।
अगर राज्य की नीतिया राज्यहीत के ही खिलाफ है , तो कोई न्याय की गुहार कहां करेगा । खास कर जो राज्य व्यवस्था के चक्रव्यू में फंस जाये और एक तरफ राज्य को एहसास हो कि उसने गलत तो किया है लेकिन गलती मानने का मतलब अपने उपर सीधे सवाल खडा करना हो तो ऐसे में कुछ मासूम जिंन्दगियों से खिलवाड़ में फर्क क्या पडता है । यह सवाल फिल्म " वेडनेसडे " उठाती है । लेकिन हर विकल्प और समाधान का रास्ता किस तरह हिंसा की गिरफ्त में जा रहा है, इसे अगर राष्ट्रीय मानवाधिकार रिपोर्ट में राज्य की हिंसा के बढते आंकडे से समझा जा सकता है तो फिल्म में राज्य का अपने ही नागरिको को लेकर संवाद की हर स्थिति खत्म करने की पहल और न्याय के बंद होते रास्तों से समझा जा सकता है।
मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक देश में पिछले दो दशको में करीब पचास हजार निर्दोष आदमी को जेल की सलाखो के पीछे पहुचना पड़ा । करीब एक लाख से ज्यादा मामले है, जिसमें राज्य की भूमिका पर उंगली उठी है और हर साल समूचे देश में हर राज्य में करीब सौ से ज्यादा मामले होते ही है, जिसमें राजनेताओं को संसदीय राजनीति के अधिकार में छूट मिल जाती है या दंबगई से छूट ले लेते है । खासबात यह है कि उस सच को राज्य भी सूंड से पकडने से घबराता है और बॉलीवुड अपनी कला के जरीये पूंछ से ही मुद्दे को पकड़ कर सूंघ दिखाने का प्रयास कर रहा है । आंतकवादी हिंसा की प्लानिंग करने वाले मुखिया को लेकर अभी राज्य ने बहस शुरु नहीं की है लेकिन सिनेमाई पर्दे पर इसका सच सामने आने लगा है । राज्य की खुफिया एंजेंसी आंकतवादी हिंसा को आंजाम देने वाले प्यादो को लेकर तो छोटे और पिछडे गरीब शहरो की तरफ अपनी रिपोर्ट में लगातार उंगली उठा रही है, और उस तबके पर भी नजर रखने की दिशा में राज्य को हिदायत दे रही है, जिन्हें आईएसआई अपना औजार बना रही है। जो बतौर नौकरी या रोजगार के तौर पर आंतकवादी हिंसा को अंजाम देने से नहीं चुक रहे है। राज्य का तंत्र जिस रुप में काम कर रहा है उसमें राज्य एक खास तबके का होकर रह जा रहा है और बहुसंख्य तबके के साथ राज्य का संवाद खत्म होता जा रहा है । संवाद खत्म होने की स्थिति में फिल्म"वेनसडे" में अगर नसीररुद्दीन के सामने आंतकवादी हिंसा के जरीये अपनी बात कहने के अलावे कोइ दूसरा रास्ता नहीं बचता तो फिल्म"मुखबिर"में इस तरह की आंतकवादी हिंसा को नाकाम करने के लिये राज्य की हिंसा का औजार भी कैसे वही मासूम-निर्दोष आम शख्स बन जाता है, इसे बखूबी दिखाया गया है । आतंकवादी हिंसा के पीछे जो लोग है वह किन मनोस्थितियों में से लगातार गुजर रहे है और आंतकवाद को खत्म करने के लिये राज्य की पहल किन मनोस्तियों में कैसे महज रिपोर्ट और प्रमोशन के ही इर्द-गिर्द घुमने लगी है , और राजनीति सत्ता को बरकरार रखने या सत्ता बनाने का कैसा खेल खेलने लगती है अब यह भी सिनेमायी पर्दे पर उभरने लगा है । खास बात यह भी है कि की जिन मुद्दों पर बहस करने से राज्य बच रहा है , उस और बॉलीवुड की नजर है । अलग अलग जगहो पर हिंसक घटनाओं पर हुई राजनीति से समाज के भीतर खटास पैदा हुई है और आंतकवाद को लेकर राजनीतिक दल ना सिर्फ एक दूसरे पर निशाना साध रहे है बल्कि केन्द्र सरकार को भी कटधरे में यह कहते हुये खड़ा किया किया जा रहा है कि उसकी मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति की वजह से आंतकवाद की घटनाएं बढ़ी हैं, ऐसे में फिल्म"वेनेसडे"में आंतकवादी का नाम और मजबह तक ना बताना उस सकारात्मक समाधान की तरफ ले जाता है, जिससे राज्य लगातार बचता रहा है। और हाल के दौर में जानबूझकर बचना भी चाहता है।
इतना ही नहीं फिल्म"वेडनसडे" आंतकंवादी को बिना सजा दिलाये, जिस मोड़ पर खत्म हो जाती है, वह राज्य के फेल होने की उस दास्तां को उभार देती है, जिसमें हर बार किसी भी आंतकवादी घटना के बाद किसी को भी पकड़ कर उसे सजा दिलाने की जद्दोजहद में पुलिस-खुफिया एजेंसी जुट जाती है । खुद को सफल बताने के लिये नयी कहानी गढती है लेकिन अदालत की चौखट पर सबकुछ फेल हो जाता है और एक वक्त के बाद आरोपी छूट जाता है और लोग भी भूल जाते है कि कौन सा आरोपी किस घटना का जिम्मेदार था, जिसे सजा मिली या नहीं । लेकिन फिल्मों को देखने के बाद यह सवाल आपके भीतर बार बार उभरेगा कि नक्सलवाद-आंतकवाद और कट्टरपंथियो की हिंसा की काट राज्य की प्रतिहिंसा हो चली है । जिसमें जान मासूम और निर्दोष की ही जायेगी क्योकि इस सिस्टम में आम आदमी के पास कोई विकल्प नही बचा है ।
खैर पश्चिम बंगाल के वामपंथ के पूंजीवादी चेहरे पर चर्चा अगली बार।
"चमकू " फिल्म का यह संवाद नक्सली नेता का एक बच्चे से है । यह उस बच्चे की ट्रेनिंग है, जो फिल्म का नायक बनेगा। एसेंस की तरह नक्सलवाद को छू कर बाजारु होने की दिशा में बढती फिल्म राज्य की हर उस पहल पर सवाल उठाती है , जो हिंसा को खत्म करने के लिये प्रतिहिंसा का आसरा लेती है। एक दूसरी फिल्म "मुखबिर" भी हिंसा को खत्म करने के लिये राज्य की हिंसक पहल के लिए राज्य को ही कटघरे में खडा करती है । फिल्म "वेडनस-डे" भी आंतकवाद के खिलाफ राज्य की हिंसक कार्रवायी को लेकर एक ऐसा सवाल खडा करती है, जहां आम आदमी असहाय और विकल्पहीन नजर आता है।
दरअसल, बॉलीवुड की हाल की फिल्मो में यह साफ उभारा जा रहा है कि नायक की खलनायकी के पीछे राज्य की खलनायक पहल है। और खलनायक होते हुये भी नायक का चरित्र बरकरार रहता है लेकिन राज्य की खलनायकी का चेहरा और ज्यादा विकृत होते जाता है । लेकिन तीन नयी फिल्म चमकू, मुखबिर और वेडनसडे में बेहद महीन तरीके से मानवाधिकार संगठनो की उस आवाज को बुलंदी दी गयी है, जिसमें बार बार नक्सलवाद, आंतकवाद और कट्टरपंथी हिंसा के नाम पर राज्य की पहल किस तरह आंतकवादी या हिंसात्मक हो जाती है, और जिसे स्टेट टेरर के नाम से बार बार उठाया जाता है।
समाज में हिंसा की वजह राज्य की नाकाम नीतियां है । नाकाम नीतियों की वजह से उसके भुक्तभोगियों के सामने प्रतिहिंसा के अलावे कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता । और इस प्रतिहिंसा का लाभ राज्य कैसे उठाता है और स्टेट टेरर का साधन इन प्रतिहिंसा करने वालो को कैसे बनाता है, बॉलीवुड की इन तीनो नयी फिल्मों में बखूबी नज़र आता है।
दरअसल, पुलिस महकमा नाकाम हो चुका है , यह सिनेमायी पर्दे पर सत्तर के दशक में नजर आने लगा । लेकिन पुलिस के साथ साथ प्रशासन भी भष्ट्र और नाकाम हो रहा है, यह नब्बे के दशक में उभरा । लेकिन बीते डेढ़ दशक में आंतकवाद और नक्सलवाद को लेकर राज्य ने सुरक्षा की जो पहल की उसमें राजनेता और खुफिया विभाग के अलावा एक विशेष एजेंसी का जिक्र हर बार आया । लेकिन, आतंकवाद और नक्सलवाद से निपटने के जो तरीके राज्य ने अपनाये और दोनो की हिंसा या प्रसार में जो तेजी इसी दौर में हुई उसने राज्य की पहल को लेकर यूं भी समाज के भीतर एक बहस तो छेड ही रखी है। नक्सलवाद को लेकर छत्तीसगढ सरकार का सलवाजुडुम का प्रयोग अब बॉलीबुड का मसाला बन चुका है । सलवाजुडुम में वही आदिवासी बंदूक उठाये हुये हैं, जिनके लिये नक्सलवाद लड़ने का ऐलान करता है । लेकिन नक्सलवाद की बंदूक राज्य के खिलाफ है और सलवाजुडुम में शामिल आदिवासियों की बंदूक राज्य की लाइसेंसी बंदूक है। सवाल है कि सलवाजुडुम को लेकर जब सुप्रीमकोर्ट यह सवाल खड़ा करता है कि राज्य किसी को भी बंदूक कैसे थमा सकता है, और राज्य सरकार जबाब देती है कि इन आदिवासियो की सुरक्षा की उसे चिंता है और आदिवासी आत्मसुरक्षा को लेकर राज्य से गुहार लगा रहे है तो राज्य के सामने भी कोई दूसरा विकल्प नहीं है।
सवाल है कि यहां राज्य से सुप्रीमकोर्ट यह सवाल नही करता कि नक्सलवाद की वजह क्या है या फिर पुलिस महकमा क्या पुरी तरह नाकाम हो गया है। लेकिन बॉलीवुड इस सच को पकड़ता है और बॉलीवुड पहुंचते-पहुंचते सुप्रीमकोर्ट का यह सवाल बिलकुल नये कलेवर के साथ सामने आता है। जहां नक्सलवादियों से मानवीयता की ट्रेनिग पाया "चमकू"का नायक नक्सलवादियों के राज्य की गोलियों से खत्म होने के बाद राज्य के लिये सबसे बेहतरीन खुफिया सुरक्षाकर्मी साबित होता है। चूंकि ट्रेनिंग नक्सलवाद की है तो राज्य का खुफिया अधिकारी यह कहने से नहीं घबराता कि राजनीतिक समझ चमकू की बेहद उम्दा है । जिन परिस्थितयों में जंगलों में रहना पड़ता है, उसमें राज्य के अधिकारी यह मानने से नहीं कतराते की किसी भी पुलिसकर्मी या सुरक्षाकर्मी से ज्याद तेज-फुर्तीला चमकू है । इतना ही नहीं हर कट्टरपंथी हिंसा और आंतकवाद को भेदने के लिये चमकू सरीखा नायक उनके पास नहीं है । लेकिन चमकू इन परिस्थितयो में जिन वजहों से आया वह राज्य की ही कमजोर नीतियों का नतीजा है , इसपर जहां जहां सवाल उठने की गुंजाइश बनती है वहां वहां राज्य खामोशी की चादर ओढ लेता है । चालीस साल में छह जिलों से देश के सवा सौ जिलों में नक्सलवाद फैल गया, इसकी वजहो पर कभी गृहमंत्रालय की रिपोर्ट तैयार नही हुई। आदिवासी-ग्रामीण इलाकों में विकास की लकीर ना खिंचने की जो वजहें रही, उसको उभारने की हिम्मत देश की किसी सरकार ने नहीं की । चमकू के पिता का हत्यारा और उसे मौत के मुंह में पहुचाने वाला शख्स राज्य की व्यव्स्था का हिस्सा बनकर सट्टेबाजी का किंग बन चुका है और उसे मारना नामुमकिन है, सेंसरबोर्ड चमकू में यह बताने की इजाजत तो दे देता है लेकिन जो हिंसा नक्सलवाद और आंतकवांद के नाम पर हो रही है उनके पीछे राज्य का कितना आंतक है, यह सवाल आते ही मंत्री या देशभक्ति का एसा जज्बा जगाया जाता है कि हर कोई लाचार हो जाता है । यह लाचारी किस हद तक समाज के भीतर या कहे राज्य के सिस्टम में मौजूद है इसे "मुखबिर" में कई स्तर पर उठाया गया है।
अगर राज्य की नीतिया राज्यहीत के ही खिलाफ है , तो कोई न्याय की गुहार कहां करेगा । खास कर जो राज्य व्यवस्था के चक्रव्यू में फंस जाये और एक तरफ राज्य को एहसास हो कि उसने गलत तो किया है लेकिन गलती मानने का मतलब अपने उपर सीधे सवाल खडा करना हो तो ऐसे में कुछ मासूम जिंन्दगियों से खिलवाड़ में फर्क क्या पडता है । यह सवाल फिल्म " वेडनेसडे " उठाती है । लेकिन हर विकल्प और समाधान का रास्ता किस तरह हिंसा की गिरफ्त में जा रहा है, इसे अगर राष्ट्रीय मानवाधिकार रिपोर्ट में राज्य की हिंसा के बढते आंकडे से समझा जा सकता है तो फिल्म में राज्य का अपने ही नागरिको को लेकर संवाद की हर स्थिति खत्म करने की पहल और न्याय के बंद होते रास्तों से समझा जा सकता है।
मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक देश में पिछले दो दशको में करीब पचास हजार निर्दोष आदमी को जेल की सलाखो के पीछे पहुचना पड़ा । करीब एक लाख से ज्यादा मामले है, जिसमें राज्य की भूमिका पर उंगली उठी है और हर साल समूचे देश में हर राज्य में करीब सौ से ज्यादा मामले होते ही है, जिसमें राजनेताओं को संसदीय राजनीति के अधिकार में छूट मिल जाती है या दंबगई से छूट ले लेते है । खासबात यह है कि उस सच को राज्य भी सूंड से पकडने से घबराता है और बॉलीवुड अपनी कला के जरीये पूंछ से ही मुद्दे को पकड़ कर सूंघ दिखाने का प्रयास कर रहा है । आंतकवादी हिंसा की प्लानिंग करने वाले मुखिया को लेकर अभी राज्य ने बहस शुरु नहीं की है लेकिन सिनेमाई पर्दे पर इसका सच सामने आने लगा है । राज्य की खुफिया एंजेंसी आंकतवादी हिंसा को आंजाम देने वाले प्यादो को लेकर तो छोटे और पिछडे गरीब शहरो की तरफ अपनी रिपोर्ट में लगातार उंगली उठा रही है, और उस तबके पर भी नजर रखने की दिशा में राज्य को हिदायत दे रही है, जिन्हें आईएसआई अपना औजार बना रही है। जो बतौर नौकरी या रोजगार के तौर पर आंतकवादी हिंसा को अंजाम देने से नहीं चुक रहे है। राज्य का तंत्र जिस रुप में काम कर रहा है उसमें राज्य एक खास तबके का होकर रह जा रहा है और बहुसंख्य तबके के साथ राज्य का संवाद खत्म होता जा रहा है । संवाद खत्म होने की स्थिति में फिल्म"वेनसडे" में अगर नसीररुद्दीन के सामने आंतकवादी हिंसा के जरीये अपनी बात कहने के अलावे कोइ दूसरा रास्ता नहीं बचता तो फिल्म"मुखबिर"में इस तरह की आंतकवादी हिंसा को नाकाम करने के लिये राज्य की हिंसा का औजार भी कैसे वही मासूम-निर्दोष आम शख्स बन जाता है, इसे बखूबी दिखाया गया है । आतंकवादी हिंसा के पीछे जो लोग है वह किन मनोस्थितियों में से लगातार गुजर रहे है और आंतकवाद को खत्म करने के लिये राज्य की पहल किन मनोस्तियों में कैसे महज रिपोर्ट और प्रमोशन के ही इर्द-गिर्द घुमने लगी है , और राजनीति सत्ता को बरकरार रखने या सत्ता बनाने का कैसा खेल खेलने लगती है अब यह भी सिनेमायी पर्दे पर उभरने लगा है । खास बात यह भी है कि की जिन मुद्दों पर बहस करने से राज्य बच रहा है , उस और बॉलीवुड की नजर है । अलग अलग जगहो पर हिंसक घटनाओं पर हुई राजनीति से समाज के भीतर खटास पैदा हुई है और आंतकवाद को लेकर राजनीतिक दल ना सिर्फ एक दूसरे पर निशाना साध रहे है बल्कि केन्द्र सरकार को भी कटधरे में यह कहते हुये खड़ा किया किया जा रहा है कि उसकी मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति की वजह से आंतकवाद की घटनाएं बढ़ी हैं, ऐसे में फिल्म"वेनेसडे"में आंतकवादी का नाम और मजबह तक ना बताना उस सकारात्मक समाधान की तरफ ले जाता है, जिससे राज्य लगातार बचता रहा है। और हाल के दौर में जानबूझकर बचना भी चाहता है।
इतना ही नहीं फिल्म"वेडनसडे" आंतकंवादी को बिना सजा दिलाये, जिस मोड़ पर खत्म हो जाती है, वह राज्य के फेल होने की उस दास्तां को उभार देती है, जिसमें हर बार किसी भी आंतकवादी घटना के बाद किसी को भी पकड़ कर उसे सजा दिलाने की जद्दोजहद में पुलिस-खुफिया एजेंसी जुट जाती है । खुद को सफल बताने के लिये नयी कहानी गढती है लेकिन अदालत की चौखट पर सबकुछ फेल हो जाता है और एक वक्त के बाद आरोपी छूट जाता है और लोग भी भूल जाते है कि कौन सा आरोपी किस घटना का जिम्मेदार था, जिसे सजा मिली या नहीं । लेकिन फिल्मों को देखने के बाद यह सवाल आपके भीतर बार बार उभरेगा कि नक्सलवाद-आंतकवाद और कट्टरपंथियो की हिंसा की काट राज्य की प्रतिहिंसा हो चली है । जिसमें जान मासूम और निर्दोष की ही जायेगी क्योकि इस सिस्टम में आम आदमी के पास कोई विकल्प नही बचा है ।
खैर पश्चिम बंगाल के वामपंथ के पूंजीवादी चेहरे पर चर्चा अगली बार।
Sunday, September 7, 2008
कश्मीर के बहाने एक नया सवाल
बंधु...
आपके कई जवाबों ने मेरे दिमाग में एक नया सवाल पैदा कर दिया है कि अगर देश को कश्मीर चाहिए और कश्मीरी नहीं तो क्या वाकई उदारवादी अर्थव्यवस्था ने जो चाहा उसे मिल गया है ? क्योंकि, न्यू इकॉनमी के दौर में ही यह बात दुनिया भर में उठती रही है कि कैसे आदमी एक प्रोडक्ट में तब्दील हो जायेगा । उसकी जरुरत उसके इर्द-गिर्द के वातावरण के हिसाब से तय होगी। उसके इर्द-गिर्द का वातावरण राज्य के एक तबके के बिजनेस के हिसाब से बनेगा । इस वर्ग या छोटे से तबके के बिजनेस का मूलमंत्र मुनाफा है तो बहुसंख्य तबके की जरुरत भी उसके व्यकितगत मुनाफे के हिसाब से ही तय होगी।
अगर इस प्रभावी छोटे से तबके को लगता है कि देश में अब बच्चो के लिये पार्क-मैदान नहीं होने चाहिये तो नहीं होगे । सिर्फ रिहायशी क्षेत्र होंगे । बच्चों के लिये जिम होंगे,कंप्यूटर होंगे । ऐसी तकनीक होगी, जिस पर बच्चो की उंगलिया रेंगे और बैठे बैठे बच्चे को महसूस हो कि दुनिया उसके सामने है। दुनिया की समूची समझ उसके अंदर है। उसे पता है कि कहां पर कौन किस रुप में मौजूद है। कौन कैसे काम करता है। कैसे जीता है । अच्छा कौन है -बुरा कौन है। उसे सब पता है । इतना ही नहीं उसके अपने स्कूल के बारे में दूसरों की कैसी राय है, वैसी ही राय उसकी भी हो । यानी हर दिन स्कूल में जाने के बावजूद--हर दिन पढ़ने के बावजूद , जो हो सकता है उसे अच्छा न लगता हो या कहें अच्छा लगता हो , लेकिन सूचना तकनीक का प्रचार-प्रसार अगर बच्चे की समझ के उलट बताता है, तो क्या होगा? यानी बच्चे को अच्छा न लगने वाला स्कूल अगर एक ब्रांड है। उसमें पढना सामाजिक हैसियत को बढाता है, तो बच्चा तो वहीं पढेगा ।
मुझे लगता है, हम सूचना तकनीक पर ठीक उसी तरह आश्रित हो गये हैं जैसे बाजार का कोई उत्पाद बेचने के लिये उसके प्रचार प्रसार में लगी कंपनी । सवाल है जो कंधमाल में हो रहा है । जो गुजरात में हुआ । जो कश्मीर में जारी है । जो उत्तर-पूर्वी राज्यो में हो रहा है । जिस हालात से बिहार का कोसी प्रभावित क्षेत्र दो -चार हो रहा है, इन सभी के बारे में सिर्फ पहला शब्द गूगल में लिखे तो समूची सूचना आपके पास आ जायेगी । अब आप इसे सूचना मानते है या जानकारी , हमें तय यही करना है। अगर यह सूचना है तो हमारा काम यही से शुरु होता है..जिसमे इस सूचना की भी एक रिपोर्ट तैयार करना है । यानी सूचना को समूची जानकारी नहीं माना जा सकता । सूचना एक इन्टरपेटेशन है । क्योकि जहां के बारे में सूचना कंप्यूटर देता है, वह उसकी पहुंच के दायरे में सिमटा है । मसलन अगर इंडिया के बारे में गूगल की मदद ली जाये तो आपको परेशानी हो सकती है कि आप किस देश में है । यह अब भी सांप-सपेरे-जादूगर-पंडितों का देश दिखायी देगा। तो तकनीक एक माध्यम है कोई ज्ञान नही है।
ज्ञानी मनुष्य है, जिसे अपने नजरिए से लोगों से सरोकार करते हुये समझ बांटनी है । और किसी भी नजरिए को स्पेस देना है । जिससे एक स्वस्थ वातावरण बन सके । जाहिर यह वातावरण बाजार को नही चाहिए । उस छोटे से तबके को नहीं चाहिये जो बाजार के नजरिए से राज्य को चलाना चाह रहा है और चलाने भी लगा है । उस तबके को अपने मुनाफे के आसरे एक ऐसा वातावरण चाहिये, जहां सूचना को ही अंतिम सत्य माना जाये और नया विश्व उसी के अनुसार चले । ब्लॉग भी एक माध्यम है । यह कोई ज्ञान का संसार नहीं है । सच तो कमरे से बाहर निकल कर आपस में मिलने और लोगो के साथ वक्त गुजारने पर ही पता चलेगा । सिर्फ तर्कों के आसरे जिन्दगी नहीं चलती है, यह आप भी जानते हैं मै भी समझता हूं......। लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि बिना किसी आंतक के इस देश में बहस की गुजाइश बच रही है या वह खत्म हो गयी है । क्योंकि प्रतिक्रिया अगर इस तरीके की हो जो सामने वाले को चेताए कि या तो मेरी सुनो नहीं तो मारे जाओगे-यह खतरनाक है।
खैर अगली चर्चा बंगाल पर।चार दशक पहले किसान चेतना को जगाने वाली वामपंथी राजनीति को अब पूंजीवाद क्यों भा रहा है।
आपके कई जवाबों ने मेरे दिमाग में एक नया सवाल पैदा कर दिया है कि अगर देश को कश्मीर चाहिए और कश्मीरी नहीं तो क्या वाकई उदारवादी अर्थव्यवस्था ने जो चाहा उसे मिल गया है ? क्योंकि, न्यू इकॉनमी के दौर में ही यह बात दुनिया भर में उठती रही है कि कैसे आदमी एक प्रोडक्ट में तब्दील हो जायेगा । उसकी जरुरत उसके इर्द-गिर्द के वातावरण के हिसाब से तय होगी। उसके इर्द-गिर्द का वातावरण राज्य के एक तबके के बिजनेस के हिसाब से बनेगा । इस वर्ग या छोटे से तबके के बिजनेस का मूलमंत्र मुनाफा है तो बहुसंख्य तबके की जरुरत भी उसके व्यकितगत मुनाफे के हिसाब से ही तय होगी।
अगर इस प्रभावी छोटे से तबके को लगता है कि देश में अब बच्चो के लिये पार्क-मैदान नहीं होने चाहिये तो नहीं होगे । सिर्फ रिहायशी क्षेत्र होंगे । बच्चों के लिये जिम होंगे,कंप्यूटर होंगे । ऐसी तकनीक होगी, जिस पर बच्चो की उंगलिया रेंगे और बैठे बैठे बच्चे को महसूस हो कि दुनिया उसके सामने है। दुनिया की समूची समझ उसके अंदर है। उसे पता है कि कहां पर कौन किस रुप में मौजूद है। कौन कैसे काम करता है। कैसे जीता है । अच्छा कौन है -बुरा कौन है। उसे सब पता है । इतना ही नहीं उसके अपने स्कूल के बारे में दूसरों की कैसी राय है, वैसी ही राय उसकी भी हो । यानी हर दिन स्कूल में जाने के बावजूद--हर दिन पढ़ने के बावजूद , जो हो सकता है उसे अच्छा न लगता हो या कहें अच्छा लगता हो , लेकिन सूचना तकनीक का प्रचार-प्रसार अगर बच्चे की समझ के उलट बताता है, तो क्या होगा? यानी बच्चे को अच्छा न लगने वाला स्कूल अगर एक ब्रांड है। उसमें पढना सामाजिक हैसियत को बढाता है, तो बच्चा तो वहीं पढेगा ।
मुझे लगता है, हम सूचना तकनीक पर ठीक उसी तरह आश्रित हो गये हैं जैसे बाजार का कोई उत्पाद बेचने के लिये उसके प्रचार प्रसार में लगी कंपनी । सवाल है जो कंधमाल में हो रहा है । जो गुजरात में हुआ । जो कश्मीर में जारी है । जो उत्तर-पूर्वी राज्यो में हो रहा है । जिस हालात से बिहार का कोसी प्रभावित क्षेत्र दो -चार हो रहा है, इन सभी के बारे में सिर्फ पहला शब्द गूगल में लिखे तो समूची सूचना आपके पास आ जायेगी । अब आप इसे सूचना मानते है या जानकारी , हमें तय यही करना है। अगर यह सूचना है तो हमारा काम यही से शुरु होता है..जिसमे इस सूचना की भी एक रिपोर्ट तैयार करना है । यानी सूचना को समूची जानकारी नहीं माना जा सकता । सूचना एक इन्टरपेटेशन है । क्योकि जहां के बारे में सूचना कंप्यूटर देता है, वह उसकी पहुंच के दायरे में सिमटा है । मसलन अगर इंडिया के बारे में गूगल की मदद ली जाये तो आपको परेशानी हो सकती है कि आप किस देश में है । यह अब भी सांप-सपेरे-जादूगर-पंडितों का देश दिखायी देगा। तो तकनीक एक माध्यम है कोई ज्ञान नही है।
ज्ञानी मनुष्य है, जिसे अपने नजरिए से लोगों से सरोकार करते हुये समझ बांटनी है । और किसी भी नजरिए को स्पेस देना है । जिससे एक स्वस्थ वातावरण बन सके । जाहिर यह वातावरण बाजार को नही चाहिए । उस छोटे से तबके को नहीं चाहिये जो बाजार के नजरिए से राज्य को चलाना चाह रहा है और चलाने भी लगा है । उस तबके को अपने मुनाफे के आसरे एक ऐसा वातावरण चाहिये, जहां सूचना को ही अंतिम सत्य माना जाये और नया विश्व उसी के अनुसार चले । ब्लॉग भी एक माध्यम है । यह कोई ज्ञान का संसार नहीं है । सच तो कमरे से बाहर निकल कर आपस में मिलने और लोगो के साथ वक्त गुजारने पर ही पता चलेगा । सिर्फ तर्कों के आसरे जिन्दगी नहीं चलती है, यह आप भी जानते हैं मै भी समझता हूं......। लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि बिना किसी आंतक के इस देश में बहस की गुजाइश बच रही है या वह खत्म हो गयी है । क्योंकि प्रतिक्रिया अगर इस तरीके की हो जो सामने वाले को चेताए कि या तो मेरी सुनो नहीं तो मारे जाओगे-यह खतरनाक है।
खैर अगली चर्चा बंगाल पर।चार दशक पहले किसान चेतना को जगाने वाली वामपंथी राजनीति को अब पूंजीवाद क्यों भा रहा है।
Wednesday, September 3, 2008
कश्मीर पर क्या यह हिन्दुत्व का डंका है !
दर्जनों सवाल इस तरह उठे, जैसे हम कश्मीर के हिमायती हैं और देश की नहीं सोच रहे हैं। और आप सभी में ज्यादातर को देश का दर्द है। चलिए, अब बतौर राष्ट्रवादी होकर ही ज़मीन पर हुए समझौते का जवाब दे दीजिए।
बंधु...
जम्मू में खुशी है समझौता हो गया है । अस्थायी ही सही 40 हेक्टेअर जमीन श्राईन बोर्ड को दे दी जायेगी, जब अमरनाथ यात्रा शुरु होगी । रंग-अबीर-गुलाल हवा में उड़ाये गए । दो महिने का संघर्ष रंग लाया । लेकिन यह खुशी किसकी है...कौन खुश हो रहा है । क्या वाकई वह हिन्दु खुश है जो सवाल खड़ा कर रहा था कि देश भर में जब मस्जिद-मकबरों को जमीन दी जा सकती है तो बाबा भोले के लिये 800 कनाल ज़मीन क्यों नहीं दी जा सकती है। क्या कश्मीरी पंडित खुश हैं जो दो दशकों के अपने दर्द को भोलेनाथ के नाम पर दी जाने वाली जमीन के आंदोलन के आसरे पहली बार सड़क पर कश्मीरी मुसलमानों के खिलाफ नारे लगा रहा था, जो जमीन दी गयी वह तो निर्धारित जमीन से आधी भी नहीं है।
और 800 कनाल ज़मीन देने पर पर राज्य सरकार की कैबिनेट ने मुहर लगायी थी। वो लागू भी हो गया था । बवाल सिर्फ दो वजहों से हुआ था । पहला, जो जमीन दी गयी थी उस पर स्थायी स्ट्रक्चर बनाया जा रहा था। दूसरा, सरकार को समर्थन दे रही पीडीपी समझ चुकी थी कि कांग्रेस सरकार की अगुवाई में चुनाव हुए तो वह निपट जायेगी । सौदेबाजी के तहत तीन साल की सत्ता पीडीपी भोग चुकी थी । अब जनता के सामने चुनाव में वह किस मुंह से जाती, यह सवाल उसे अंदर से खाए जा रहा था।
अपनी ही सहमति को उसने झटके में कश्मीर की अस्मिता का मुद्दा बना कर सरकार गिरा दी। दिल्ली में ऐसी राजनीति खूब खेली जाती रही है । हां, तो मामला है कि देश तो नब्बे करोड़ हिन्दुओं का है तो फिर 800 कनाल जमीन को लेकर सौदेबाजी की जरुरत क्यों आ गयी । और जो समझौता हुआ वह तो देश के हिन्दुओं के लिये नाक कटाने जैसा है। फिर 40 हेक्टेअर पर सहमति क्यों बना ली गयी। और अगर प्रधानमंत्री पद के दावेदार लालकृष्ण आडवाणी की माने तो लड़ाई तो राष्ट्रवाद और अलगाववाद में है। अडवाणी जी के मुताबिक प्रधामनंत्री मनमोहन सिंह भी इस बात से सहमत है कि वाकई राष्ट्रवाद के खिलाफ अलगाववाद सामने खड़ा है। अगर सहमति देश की है तो फिर समझौते की जरुरत क्या है।
मुझे नहीं लगता इस समझौते से कोइ हिन्दू खुश है । कोई कश्मीरी पंडित खुश है । बात तो आर-पार की होनी थी फिर समझौता किसने कर लिया। जम्मू में दो महिने के आंदोलन में व्यापारियो को सौ करोड़ से ज्यादा का चुना लगा गया। जम्मू में जो व्यापारी हैं, और कश्मीर में जो बिचौलिये व्यापारी है, उनमे सिखों की तादाद भी खासी है। सिख समुदाय का दबाब पंजाब सरकार पर भी काम कर रहा था कि समझौता जल्द कराये। अन्यथा उनका व्यापार ठप होता जा रहा है। पंजाब में अकाली सरकार का भाजपा से समझौता है। भाजपा जिस तेवर के साथ आरएसएस कैडर के साथ खड़े होने की कोशिश जम्मू में कर रही थी, वही भाजपा की राजनीति और उसका व्यापार उसे चेता रहा था कि एक हद से आगे आंदोलन ले जाने की गलती वह न करे। भाजपा को चुनाव बाद सत्ता दिखायी दे रही है । भाजपा सत्ता में रहती है तो आरएसएस की महत्ता देश में कैसी बढ़ती है, यह वाजपेयी सरकार के दौर में समूचे देश ने महसूस किया। आरएसएस भी अपनी पुरानी थ्योरी जम्मू-कश्मीर-लद्दाख को अलग अलग राज्य बनाने के मुद्दे पर खामोश रही। यानी अमरनाथ की यात्रा में हर बरस शामिल होने वाले लाखों भक्तों की भावनाओं को भी समझौते में दफ्न कर दिया गया । सवाल यही से खड़ा होता है कि जिस जमीन की राजनीति की शुरुआत कश्मीर की राजनीतिक जरुरत से शुरु हुई उसका पटाक्षेप जम्मू की राजनीतिक जरुरत से हो गया। कश्मीर में आजादी ने नारे ने जम्मू को भड़काया और जम्मू के बंद व्यापार ने कश्मीर को भड़काया। जम्मू से कश्मीर जाने वाले हर रास्ते को बंद कर घाटी को देश से अलग-थलग कर यह बताने का प्रयास भी हुआ कि जम्मू के बगैर कश्मीर जन्नत रह नहीं सकती और कश्मीर ने आजादी का नारा लगा कर इस एहसास को भी उभार दिया कि उन हालातों में रास्ता जम्मू के बदले मुज्जफराबाद जाता है।
संयोग से सत्ता के मुनाफे पर टिकी राजनीति को भी अब बाजार के मुनाफे में ज्यादा उम्दा राजनीति दिखायी देने लगी है । इसी वजह से आर-पार के राष्ट्रवादी आंदोलन को खारिज कर सौदेबाजी की राजनीति को अपनाया गया। 40 हेक्टेअर जमीन का समझौता उस राजनीति का सच है, जिसमे समाज को बांट कर सुधार के उपाय वही संसदीय राजनीति अपनी जेब में रखना चाहती है जो अमरनाथ के जरीये राष्ट्रवाद को उभारती है...जो आजादी के नारे में अलगाववाद का उभरना देखती है।
अब आप इस सवाल को उठा सकते है कि समझौता हुआ तो शांति तो हुई। क्या समझौता न करके हालात बद से बदतर होने दिये जाते । यकीकन यह संभव नही है । लेकिन अगर आपको लगता है कि कश्मीरियों को पाठ पढ़ाना चाहिये...अगर आपको लगता है कश्मीर के लोग आंतकवादियों को पनाह देते है ..अगर लगता है कि कश्मीरियो का दिल पाकिस्तान में है ...अगर लगता है कि महबूबा मुप्ती सरीखी नेता देश की नहीं पाकिस्तानियों-आंतकवादियों की हिमायती है..तो फिर 40 हेक्टेअर जमीन का संमझौता क्यों । यह कैसे संभव है कि कश्मीर को लेकर हम एकबार पाकिस्तान का राग आलापे और दूसरी बार समझौते करके जीत का जश्न मना लें।
यकीन जानिये अमरनाथ यात्रा की जमीन को लेकर किसी दल-संगठन की भावना हिचकोले नही मार रही थी और आप जो उसमे हिन्दुस्तान का बिगड़ता नक्शा देख रहे हैं, उन्हे समझना होगा कि धर्म और राज्य एक साथ नही चल सकते। इतिहास टटोलिये भारत का नक्शा सबसे बड़ा-मजबूत कब था । मुगल काल में औरगंजेब और मौर्य काल में अशोक के दौर में । इन दोनो कालों में इनसे बड़ा शासक कोई दूसरा नही था । लेकिन दोनो का पतन तभी हुआ जब दोनों धर्म के प्रचार प्रसार में लग गये । एक इस्लाम के तो दुसरा बौद्द धर्म के प्रचार-प्रसार में । धर्म और राजनीति के आसरे देश को न समझे तो ज्यादा अच्छा है।
आतंकवाद से कश्मीर और मुसलमान को जिस तरह जो़ड़ कर देखने का माहौल बनाया जा रहा है, उस आंतक की काट आपसी रिश्तों से ही होगी । अन्यथा तथ्यों को समझिये कि देश में किसी राजनीतिक दल को 15 करोड़ वोट नही मिल पाते हैं । सबसे ज्यादा वोट भी किसी राष्ट्रीय राजनीतिक दल को मिलता है तो वह भी 13-14 करोड पार नहीं कर पाता । तो उसे बहुमत के पैमाने पर कैसे मापा जा सकता है। छोड़िए, मै एक और तथ्य सामने रखता हूं.....अमरनाथ मामले पर समझौता इस वक्त इसलिये हुआ क्योकि रमजान का महिना शुरु हो रहा था और इस महिने कश्मीर में खामोशी रहती है और जम्मू के लोग भी नहीं चाहते थे कि रमजान के दौर में आंदोलन-हिंसा का दौर जारी रहे ।
बंधु...
जम्मू में खुशी है समझौता हो गया है । अस्थायी ही सही 40 हेक्टेअर जमीन श्राईन बोर्ड को दे दी जायेगी, जब अमरनाथ यात्रा शुरु होगी । रंग-अबीर-गुलाल हवा में उड़ाये गए । दो महिने का संघर्ष रंग लाया । लेकिन यह खुशी किसकी है...कौन खुश हो रहा है । क्या वाकई वह हिन्दु खुश है जो सवाल खड़ा कर रहा था कि देश भर में जब मस्जिद-मकबरों को जमीन दी जा सकती है तो बाबा भोले के लिये 800 कनाल ज़मीन क्यों नहीं दी जा सकती है। क्या कश्मीरी पंडित खुश हैं जो दो दशकों के अपने दर्द को भोलेनाथ के नाम पर दी जाने वाली जमीन के आंदोलन के आसरे पहली बार सड़क पर कश्मीरी मुसलमानों के खिलाफ नारे लगा रहा था, जो जमीन दी गयी वह तो निर्धारित जमीन से आधी भी नहीं है।
और 800 कनाल ज़मीन देने पर पर राज्य सरकार की कैबिनेट ने मुहर लगायी थी। वो लागू भी हो गया था । बवाल सिर्फ दो वजहों से हुआ था । पहला, जो जमीन दी गयी थी उस पर स्थायी स्ट्रक्चर बनाया जा रहा था। दूसरा, सरकार को समर्थन दे रही पीडीपी समझ चुकी थी कि कांग्रेस सरकार की अगुवाई में चुनाव हुए तो वह निपट जायेगी । सौदेबाजी के तहत तीन साल की सत्ता पीडीपी भोग चुकी थी । अब जनता के सामने चुनाव में वह किस मुंह से जाती, यह सवाल उसे अंदर से खाए जा रहा था।
अपनी ही सहमति को उसने झटके में कश्मीर की अस्मिता का मुद्दा बना कर सरकार गिरा दी। दिल्ली में ऐसी राजनीति खूब खेली जाती रही है । हां, तो मामला है कि देश तो नब्बे करोड़ हिन्दुओं का है तो फिर 800 कनाल जमीन को लेकर सौदेबाजी की जरुरत क्यों आ गयी । और जो समझौता हुआ वह तो देश के हिन्दुओं के लिये नाक कटाने जैसा है। फिर 40 हेक्टेअर पर सहमति क्यों बना ली गयी। और अगर प्रधानमंत्री पद के दावेदार लालकृष्ण आडवाणी की माने तो लड़ाई तो राष्ट्रवाद और अलगाववाद में है। अडवाणी जी के मुताबिक प्रधामनंत्री मनमोहन सिंह भी इस बात से सहमत है कि वाकई राष्ट्रवाद के खिलाफ अलगाववाद सामने खड़ा है। अगर सहमति देश की है तो फिर समझौते की जरुरत क्या है।
मुझे नहीं लगता इस समझौते से कोइ हिन्दू खुश है । कोई कश्मीरी पंडित खुश है । बात तो आर-पार की होनी थी फिर समझौता किसने कर लिया। जम्मू में दो महिने के आंदोलन में व्यापारियो को सौ करोड़ से ज्यादा का चुना लगा गया। जम्मू में जो व्यापारी हैं, और कश्मीर में जो बिचौलिये व्यापारी है, उनमे सिखों की तादाद भी खासी है। सिख समुदाय का दबाब पंजाब सरकार पर भी काम कर रहा था कि समझौता जल्द कराये। अन्यथा उनका व्यापार ठप होता जा रहा है। पंजाब में अकाली सरकार का भाजपा से समझौता है। भाजपा जिस तेवर के साथ आरएसएस कैडर के साथ खड़े होने की कोशिश जम्मू में कर रही थी, वही भाजपा की राजनीति और उसका व्यापार उसे चेता रहा था कि एक हद से आगे आंदोलन ले जाने की गलती वह न करे। भाजपा को चुनाव बाद सत्ता दिखायी दे रही है । भाजपा सत्ता में रहती है तो आरएसएस की महत्ता देश में कैसी बढ़ती है, यह वाजपेयी सरकार के दौर में समूचे देश ने महसूस किया। आरएसएस भी अपनी पुरानी थ्योरी जम्मू-कश्मीर-लद्दाख को अलग अलग राज्य बनाने के मुद्दे पर खामोश रही। यानी अमरनाथ की यात्रा में हर बरस शामिल होने वाले लाखों भक्तों की भावनाओं को भी समझौते में दफ्न कर दिया गया । सवाल यही से खड़ा होता है कि जिस जमीन की राजनीति की शुरुआत कश्मीर की राजनीतिक जरुरत से शुरु हुई उसका पटाक्षेप जम्मू की राजनीतिक जरुरत से हो गया। कश्मीर में आजादी ने नारे ने जम्मू को भड़काया और जम्मू के बंद व्यापार ने कश्मीर को भड़काया। जम्मू से कश्मीर जाने वाले हर रास्ते को बंद कर घाटी को देश से अलग-थलग कर यह बताने का प्रयास भी हुआ कि जम्मू के बगैर कश्मीर जन्नत रह नहीं सकती और कश्मीर ने आजादी का नारा लगा कर इस एहसास को भी उभार दिया कि उन हालातों में रास्ता जम्मू के बदले मुज्जफराबाद जाता है।
संयोग से सत्ता के मुनाफे पर टिकी राजनीति को भी अब बाजार के मुनाफे में ज्यादा उम्दा राजनीति दिखायी देने लगी है । इसी वजह से आर-पार के राष्ट्रवादी आंदोलन को खारिज कर सौदेबाजी की राजनीति को अपनाया गया। 40 हेक्टेअर जमीन का समझौता उस राजनीति का सच है, जिसमे समाज को बांट कर सुधार के उपाय वही संसदीय राजनीति अपनी जेब में रखना चाहती है जो अमरनाथ के जरीये राष्ट्रवाद को उभारती है...जो आजादी के नारे में अलगाववाद का उभरना देखती है।
अब आप इस सवाल को उठा सकते है कि समझौता हुआ तो शांति तो हुई। क्या समझौता न करके हालात बद से बदतर होने दिये जाते । यकीकन यह संभव नही है । लेकिन अगर आपको लगता है कि कश्मीरियों को पाठ पढ़ाना चाहिये...अगर आपको लगता है कश्मीर के लोग आंतकवादियों को पनाह देते है ..अगर लगता है कि कश्मीरियो का दिल पाकिस्तान में है ...अगर लगता है कि महबूबा मुप्ती सरीखी नेता देश की नहीं पाकिस्तानियों-आंतकवादियों की हिमायती है..तो फिर 40 हेक्टेअर जमीन का संमझौता क्यों । यह कैसे संभव है कि कश्मीर को लेकर हम एकबार पाकिस्तान का राग आलापे और दूसरी बार समझौते करके जीत का जश्न मना लें।
यकीन जानिये अमरनाथ यात्रा की जमीन को लेकर किसी दल-संगठन की भावना हिचकोले नही मार रही थी और आप जो उसमे हिन्दुस्तान का बिगड़ता नक्शा देख रहे हैं, उन्हे समझना होगा कि धर्म और राज्य एक साथ नही चल सकते। इतिहास टटोलिये भारत का नक्शा सबसे बड़ा-मजबूत कब था । मुगल काल में औरगंजेब और मौर्य काल में अशोक के दौर में । इन दोनो कालों में इनसे बड़ा शासक कोई दूसरा नही था । लेकिन दोनो का पतन तभी हुआ जब दोनों धर्म के प्रचार प्रसार में लग गये । एक इस्लाम के तो दुसरा बौद्द धर्म के प्रचार-प्रसार में । धर्म और राजनीति के आसरे देश को न समझे तो ज्यादा अच्छा है।
आतंकवाद से कश्मीर और मुसलमान को जिस तरह जो़ड़ कर देखने का माहौल बनाया जा रहा है, उस आंतक की काट आपसी रिश्तों से ही होगी । अन्यथा तथ्यों को समझिये कि देश में किसी राजनीतिक दल को 15 करोड़ वोट नही मिल पाते हैं । सबसे ज्यादा वोट भी किसी राष्ट्रीय राजनीतिक दल को मिलता है तो वह भी 13-14 करोड पार नहीं कर पाता । तो उसे बहुमत के पैमाने पर कैसे मापा जा सकता है। छोड़िए, मै एक और तथ्य सामने रखता हूं.....अमरनाथ मामले पर समझौता इस वक्त इसलिये हुआ क्योकि रमजान का महिना शुरु हो रहा था और इस महिने कश्मीर में खामोशी रहती है और जम्मू के लोग भी नहीं चाहते थे कि रमजान के दौर में आंदोलन-हिंसा का दौर जारी रहे ।