दूसरा वाकया साठ के दशक का है। लोहिया जब नेहरु को संसद में लगातार घेर रहे थे । तो उसमें नेहरु की रईसी और देश के बदतर हालात को लेकर जनता के सामने तथ्यों को रखते । संसद में प्रति व्यक्ति आय को लेकर हुई बहस में लोहिया ने जब तथ्यों को रखा तो सरकार नहीं मानी । उस वक्त नेहरु के मुताबिक प्रति व्यक्ति आय सोलह आने थी, जबकि लोहिया छह आने प्रति व्यक्ति आय बता रहे थे । संसद में चर्चा के दौर में लोहिया ने नेहरु के पालतू कुत्तों को खिलाये जाने वाले गोश्त से लेकर उनके घो़ड़ों के विलायती चने का जिक्र कर जब तथ्यों को रखा तो सरकार भी झुक गयी और नेहरु ने प्रति व्यक्ति आय को सोलह की जगह ग्यारह आने होने पर सहमति जतायी । उस वक्त लोहिया के लिये बीएचयू के छात्रो की एक टीम लगातार तथ्यों को जुटाने में लगी रहती थी ।
तीसरा वाकया सत्तर के दशक का है । जेपी यानी जयप्रकाश नारायण गुजरात के छात्रों को लेकर जुटे तो बिहार के छात्र उसमें जुड़ते चले गये । और कॉलेज छोड़ कर सत्ता को चुनौती देने छात्र ही सड़क पर उतरे, जिनके सामने इंदिरा गांधी के भी पसीने छूटने लगे । अस्सी के दशक के आखिर में बोफोर्स कांड के जरिए वीपी सिंह ने जिस भ्रष्टाचार के शिगूफे को छेडा उसने बिहार-यूपी में छात्र राजनीति को साथ खड़ा कर लिया । इसने कांग्रेस में सेंध
लगा दी और वीपी सिंह पीएम बन गये । उसके बाद आखिरी संघर्ष मंडल कमीशन की रिपोर्ट पर ही देश ने देखा । लेकिन उसमें आमने- सामने छात्र राजनीति ही थी । जिसकी पीठ पर सवार होकर कई छुटभैया अचानक खद्दरधारी नेता बन गये और कुछ सत्ताधारी हो गये ।
लेकिन, इस दौर में छात्रों के सबसे बडे आंदोलन को महाराष्ट्र ने भी मराठवाडा विश्वविद्यालय में देखा । जब नाम बदलने को लेकर महाराष्ट्र के छात्र एकजूट हुये । औरंगाबाद का लांग मार्च अब भी महाराष्ट्र के छात्रों की आंखों के सामने घूमता है । लेकिन नब्बे के दशक के बाद से देश में किसी मुद्दे पर आंदोलन या संघर्ष का सवाल छात्रों के बीच सिकुड़ता गया है । 1991 में जो नयी अर्थव्यवस्था की लकीर मनमोहन सिंह ने बतौर वित्त मंत्री खींची, उस लीक को तोड़ने की जहमत किसी ने नही उठायी । अचानक देश को विकसित बनाने या कहने की ऐसी होड़ शुरु हुई, जिसके घेरे में सबसे पहले छात्र ही आया । तमाम कॉलेज - यूनिवर्सिटी का आधार मुनाफा हुआ । एक तरफ शिक्षा प्रणाली के तरीके व्यवसायिक शिक्षा को महान बताने लगे तो विश्लेषण छोड ऑब्जेक्टिव सवाल जबाब की परीक्षा ही ज्ञान का नया माप दंड बनने लगी ।
लेकिन, इस दौर में छात्रों के सबसे बडे आंदोलन को महाराष्ट्र ने भी मराठवाडा विश्वविद्यालय में देखा । जब नाम बदलने को लेकर महाराष्ट्र के छात्र एकजूट हुये । औरंगाबाद का लांग मार्च अब भी महाराष्ट्र के छात्रों की आंखों के सामने घूमता है । लेकिन नब्बे के दशक के बाद से देश में किसी मुद्दे पर आंदोलन या संघर्ष का सवाल छात्रों के बीच सिकुड़ता गया है । 1991 में जो नयी अर्थव्यवस्था की लकीर मनमोहन सिंह ने बतौर वित्त मंत्री खींची, उस लीक को तोड़ने की जहमत किसी ने नही उठायी । अचानक देश को विकसित बनाने या कहने की ऐसी होड़ शुरु हुई, जिसके घेरे में सबसे पहले छात्र ही आया । तमाम कॉलेज - यूनिवर्सिटी का आधार मुनाफा हुआ । एक तरफ शिक्षा प्रणाली के तरीके व्यवसायिक शिक्षा को महान बताने लगे तो विश्लेषण छोड ऑब्जेक्टिव सवाल जबाब की परीक्षा ही ज्ञान का नया माप दंड बनने लगी ।
दूसरी तरफ कॉलेज का वही प्रचार्य और यूनिलर्सिटी का वही वीसी सबसे सफल माना गया जो कॉलेज - विश्वविद्यालय को आर्थिक मुनाफे में ले आये । छात्र चुनाव बेमानी हुये तो चुनाव में रुचि रखने वाले छात्र लुंपन राजनीति के सबसे धारदार हथियार बन गये । इस माहोल में पाने की होड़ ने छात्रों को ही छात्रों के सामने भी खड़ा किया । और ना पाने की स्थिति में समाज के सबसे निचली पायदान पर खिसकते जाने का आंतक भी छात्रों में भर दिया । क्योंकि इस दौर में राज्य की परिभाषा भी बदल गयी । 1950 का कल्याणकारी राज्य अब प्राइवेट मुनाफा कमाने और बनाने का नाम हो गया । राज्य का मतलब गरीबो के लिये राशन कार्ड और रईसो के लिये पासपोर्ट या पैन कार्ड से बनाने की जरुरत से ज्यादा कुछ नही बचा ।
ऐसे दौर में जब सवाल मराठी मानुष का उभरा है और खतरा देश को बांट कर सत्ता तक पहुचने का साफ दिखायी दे रहा है तो बात क्या राजनीति के जरिए सुनी जा सकती है । या कहे राजनीति इसका हल चाहेगी । यह बात इसलिये सीधे कहनी होगी क्योंकि पांच से दस सांसदों का आंकडा दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र को झटके में जब मजाक बना सकता है कि उसके समर्थन भर से सरकार गिर या बन सकती है तो यह सवाल उठना जायज है कि राजनीति समाधान कर रही है या छात्रो को बांटकर अपने कुर्सी संभाल रही है ।
ऐसे दौर में जब सवाल मराठी मानुष का उभरा है और खतरा देश को बांट कर सत्ता तक पहुचने का साफ दिखायी दे रहा है तो बात क्या राजनीति के जरिए सुनी जा सकती है । या कहे राजनीति इसका हल चाहेगी । यह बात इसलिये सीधे कहनी होगी क्योंकि पांच से दस सांसदों का आंकडा दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र को झटके में जब मजाक बना सकता है कि उसके समर्थन भर से सरकार गिर या बन सकती है तो यह सवाल उठना जायज है कि राजनीति समाधान कर रही है या छात्रो को बांटकर अपने कुर्सी संभाल रही है ।
1948 में गृहमंत्री सरदार पटेल ने सबसे पहले अपने ही राज्य गुजरात के जूनागढ रियासत के खिलाफ सैनिक कार्रवाई की थी, जब उसने पाकिस्तान की शह पर भारत में शामिल होने से इंकार किया था । उसके बाद हैदराबाद के निजाम के खिलाफ भी इसी तरह की सैनिक कार्रवाई की थी । लेकिन अब के गृहमंत्री शिवराज पाटिल उसी राज्य से आते हैं, जहां मराठी मानुष की आग की चपेट में उत्तर भारतीय आ रहे हैं । सवाल यह नहीं है कि पाटिल कुछ नहीं कर पा रहे हैं । सवाल यह भी नहीं है कि लालु-मुलायम-पासवान सरकार को चेता रहे है कि वह कुछ करे । अगर राजनीति समझनी है तो बिहार-यूपी की जमीन पर खडे होकर जो आक्रोष लालू-पासवान-मुलायम-मायावती में आप देख रहे हैं, वही दर्द आपको महाराष्ट्र की जमीन पर खडे होकर विलासराव देशमुख-शरद पवार-उद्दव ठकरे-आरआर पाटिल में नजर आयेगा । सत्ता की राजनीति में या तो दोनो गलत है या दोनों सही है । किसी एक को गलत ठहरा कर एक-दुसरे का राजनीतिक गणित मजबूत करना ही होगा । इसलिये सवाल राजनीति का नहीं आंदोलन का है । खड़े तो छात्रो को ही होना होगा...वह भी एकजूटता के साथ ।
यकीन जानिये अगर छात्र आंदोलन इस राजनीतिक शून्यता में खडा हो गया तो अभी के नेता रिटायर हो जाएंगे । देखें पहली आवाज कहां से उठती है।