“आतंकवाद का मतलब सिर्फ बारुद नही है। ये समाज को छिन्न-भिन्न करके भी लाया जा सकता है। खासकर जब सुरक्षा के लिये संबंध टूटने लगें या लोग संबंध तोडंने लगें। सुरक्षा का मतलब पैसा हो जाये..बिजनेस बन जाये। यह सब हमारे चारों तरफ जमकर हो रहा है। मेरी फिल्म देखने वाले मुझे मि.परफेक्शनिस्ट कहते हैं। लेकिन मैं क्या करुं...सिर्फ अदाकारी कर खामोश हो जाऊं। इंतजार करुं की कोई फिल्मकार मुझे किसी फिल्म में किसी चरित्र को जीने का मौका दें। और न दे तो क्या करुंगा...खामोश बैठा इंतजार करता रहूं। मै फिल्म बनाता हूं। उसे बेचने के गुर अपने तरीके से विकसित करता हूं, जिससे अगली फिल्म बना सकूं। आतंकवाद के खिलाफ खुद को कैसे तैयार करना है, इसे हमें आपको भी समझना होगा। सिर्फ सरकार या नेताओं के आसरे सबकुछ कैसे छोड़ा जा सकता है। आतंकवाद समाज को बांट रहा है तो एकजूट समाज को होना होगा...महज राजनीतिक एकजुटता दिखायी देने लगी है तो उससे काम नहीं चलेगा ।" फिल्म गजनी के प्रमोशन के लिये दिल्ली पहुंचे आमिर खान का नजरिया किसी भी फिल्मकार या कलाकार से कैसे बिलकुल अलग है, इसका एहसास इस बात से हुआ कि अपनी ही रिलीज होने वाली फिल्म गजनी से हटकर बात करने पर उन्हें कोई एतराज नहीं था।
ताज-ओबेराय पर हमले के बाद रईसों के चोचले जाग उठे..जो फुटपाथ-बाजार-रेलवे स्टेशन पर आंतकवादी धमको के बाद नही जागते। इस सवाल के पूरा होने से पहले ही आमिर ने बिना शिकन कहा..जी, ऐसा सोचा जा सकता है। मै तो कहता हूं ऐसा सोचा जा रहा है, तभी आप ऐसा सवाल कर रहे हैं। लेकिन यह तो हम सभी को मिलकर सोचना होगा आखिर किसी न किसी की जान तो दोनो जगहों पर जा रही है । संयोग से दोनो को अलग-अलग कर दिया गया है। यह नजरिया कहां से आया। इसे तो कोई आंतकवादी ले कर नही आया। मैं खुद जब घर के ड्राइंग रुम में टेलीविजन पर धधकते ताज होटल की तस्वीरें देख रहा था, उस वक्त मेरे बेटे ने मुझसे कहा, फिल्म सरफरोश आपको फिर से दिखलाने की व्यवस्था करनी चाहिये और अब आप फिल्म में आंतकवादियो से मार नहीं खाना....। अब आप सोचिये कितना असर मुबंई हमलो का बच्चों पर हुआ है। लेकिन उनके अंदर का गुस्सा निकल किस रुप में रहा है।
यह एक रोमांटिग सोच है कि लोग फिल्मों के जरीये समाधान देख रहे है। मैं अभिताभ बच्चन की अदाकारी का मुरीद हूं । लेकिन आप ही मुझे बताये कि जिस आक्रोष की छवि को आपने अमिताभ में देखा...उसमें अपने आप को उनका हर फैन देखता था। लेकिन उससे समाज या व्यवस्था की जटिलता कम नही हो गयी। वह भी बिजनेस था लेकिन तब किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि ऐसे किरदार का सिनेमायी स्क्रीन पर उतारना बिजनेस है। अब वक्त बदल गया है । अब सिर्फ चरित्रों के आसरे बिजनेस नही किया जा सकता। मैंने कई तरह की फिल्में की। फिल्म "दिल चाहता है " की थीम को देखें । उस चरित्र को समाज के भीतर हकीकत में देखा जा सकता है। लेकिन अब के दौर में यह भी समझना होगा कि कोई चरित्र इतना आइडियल नही है कि वह आपको बिजनेस दे दे । उस फिल्म के प्रमोशन के लिये हमने कई अलग अलग प्रयोग किये । वक्त सिर्फ बीतते हुये नही बदला है बल्कि जीने के अंदाज में भी वक्त बदल गया है। जिसे हमारी सरकार या कहे देस चलाने वाले समझ नही पा रहे हैं । और अगर समझ रहे है तो उस दिशा में कोई पॉजेटिव कदम नही उठा रहे है ।
तो क्या यह माना जाये जो धंधा करना नहीं जानता है वह आज के दौर में फेल है और आमिर खान उसी लिये मि. परपेक्शनिस्ट है, क्योकि वह धंधा समझते हैं। आप कह सकते है , बिलकुल । लेकिन धंधे का मतलब सिर्फ पैसा कमाना नही है । अब आप इसे ऑफ-द-रिकार्ड मानें या मान ही लें.....पैसे पर सरकार से ज्यादा लोगों का भरोसा हो गया है। यह किसी बिजनेसमैन ने तो देश को नही सिखाया। मैं मुंबई में देखता हूं, या कहे देश के जिस भी हिस्से में फिल्म निर्माण को लेकर जाना होता है, या कहूं मेरा ताल्लुक जिन लोगों से पड़ता है। मै देखता हूं कि पैसा बनाने-कमाने की होड़ सबसे ज्यादा है । और जिसे नुकसान हो रहा होता है वह अपने आप को सबसे ज्यादा असुरक्षित मानता है। बॉलीवुड ही नही किसी भी क्षेत्र में मैंने देखा है कि जिसके पास मनी है वह खुद को सबसे सुरक्षित समझता है । पहले तो ऐसा नहीं था । पहले देश और सरकार भी सुरक्षा का एहसास कराते थे । अब आप ही बताइये यह स्थिति पैदा किसने की । हमने आपने तो नहीं की। लेकिन इन स्थितियों में भी मै फिल्मों को लेकर नये प्रयोग करता हूं । फिल्म "लगान" तो ग्रामीण परिवेश की फिल्म थी । जिसमें भाषा भी हिन्दी नही थी । अवधी सरीखी भाषा थी । उस फिल्म पर महिनों काम करना और बनान रिस्क था या कि शुरुआती दौर में फिल्मकार की या मेरे जैसे कलाकार को देखें तो मूर्खता लगेगी । लेकिन फिल्म बनी और कमाल दिखाया उसने । मै खुद धोती-कमीज पहन कर जगह -जगह गया क्रिकेट खेली । मेरी पूरी टीम ने देश के अलग अलग हिस्सों में बकायदा सिनेमायी परिवेश को सड़क पर उतारा।
जाहिर है यह नया सवाल यहीं से खड़ा होता है कि आमिर खान गजनी के प्रमोशन में दिल्ली आये तो बंगाली मार्केट पहुंच कर अपने फैन के बाल काटने लगे...जबकि पहले दिलीप कुमार हो , राजकपूर हो या देव आन्नद या फिर अभिताभ बच्चन भी, वह आम लोगो के बीच कभी नही जाते थे । आमिर तो मेघा पाटकर से मिलने उनके आंदोलन को समर्थन देने जंतर-मंतर पर भी चले जाते है। सही कहा आपने। लेकिन मैं न्यूज पेपर पढ़ता हूं तो मुझे लगता है कि नेता भी आम लोगों से नहीं मिलते । अब आप क्यों कहोगे । अगर बिजनेस ने लोगों से मिलने की मजबूरी सिखला दी तब तो यह बिजनेस नेताओं को सीखना चाहिये । इससे कम से कम आम लोग क्या सोचते है यह तो पता चल जायेगा। मुझे गुरुदत्त की "प्यासा" शानदार फिल्म लगती है । लेकिन प्यासा का निर्माण क्या बिना आम लोगो के सच को समझे बनाया जा सकता है। हकीकत में इसी तरह की फिल्म करना चाहता हूं । महबूब खान की मदर इंडिया हो या के. आसिफ की मुगले आजम और विमल राय हो या गुरुदत्त साहेब सभी ने अपने अपने तरीके से प्रयोग किये । मै भी कुछ नये की तलाश में हमेशा रहता हूं । मै इस कड़ी को आगे बढ़ाना चाहता हूं।
लेकिन नर्मदा बांध का विरोध करने वालो के साथ खड़े होने पर आपकी फिल्म
"फना "को गुजरात के थियेटर में लगने नहीं दिया गया,इससे बिजनेस नही डगमगाता । मै एक बात कहूं...अगर किसी फिल्म में भी इस दृश्य को दिखलाना होता तो भी कोई स्टोरी राइटर या स्क्रिप्ट राइटर भी इस तरीके को ना अपनाता। क्योंकि इससे मेरी ज्वेनअननेस ही सामने आती है । फिर आप जिस दौर में जी रहे है उसमें तो हर चीज नफे-नुकसान में देखी-समझी जाती है। आप पता कीजिये उससे राजनीतिक घाटा गुजरात में नेताओं को ही हुआ होगा। क्योंकि लोग बेवकूफ नही रहे। तमाम सूचना माध्यम हर तरह की जानकारी लोगों को दे देते है। और मेरी क्रेडिबेलिटी यही है कि लोग मेरी फिल्मो के साथ जुड़ते हैं...जब मै उनके साथ खड़ा होता हूं। मेरी पूरी यूनिट "तारे जमी पर " फिल्म को लेकर शंका में थी । उन्हे लगता था कि यह फिल्म तो चल ही नही सकती। लेकिन मुझे भरोसा था । मैं बच्चो की स्थिति स्कूल में, टूटते संयुक्त परिवार में, जहा सिर्फ नौकरी पेशा वाले मां-बाप होते है, को समझता हूं । क्योंकि लोगो से लगातार मिलता रहता हूं, इसलिये इस फिल्म की कहानी सुनते ही मैंने तुरंत हामी भर दी। और मै आज यकीन से कहता हूं कि मेरे बीस साल के कैरियर की चौंतीस फिल्मो में यह श्रेष्ट फिल्म है।
जब इतना भरोसा आपको अपने उपर है तो शाहरुख से दिल्लगी करके आप क्या जतलाते है। सही कहा आपने यह दिल्लगी ही है। हम दोनों हमउम्र है । वह पर्दे पर रोमांटिक है। मैं जिन्दगी में । लेकिन यकीन कीजिये यह दिल्लगी बिजनेस नहीं है ।
लेकिन आमिर जब तमाम संस्थान कमजोर हो रहे हो..तब बॉलीवुड कैसे बचेगा । आप खुद आंतकवाद के खिलाफ सड़क पर नहीं आये बल्कि ब्लॉग के जरीये अपना विरोध जतला दिया। ना..ना यह कोइ जरुरी नहीं है कि हर बात के लिये सड़क पर आया जाये । मैंने आतंकवाद के खिलाफ अपनी बात कही । हां ...यह सही है कि जब कुछ ना बचेगा तो बॉलीवुड कहा बचेगा। लेकिन आतंकवाद जैसे संकटों से बॉलीवुड या फिल्में निजात नही दिला सकती । इसके लिये देश को कड़े निर्णय लेने होंगे। आतंकवादियो के सामने झुकना नही होगा। आतंकवादियो को यह मैसेज देना जरुरी है कि वो विमान अपहरण करें या पांच सितारा होटल में गोलाबारी करके लोगों को होस्टेज बना लें, लेकिन उनकी मांगो को नही माना जायेगा। किसी भी तरह समझौते का रास्ता धीरे धीरे सौदेबाजी की तरफ ले जाता है। इससे बचना होगा । इसके लिये सबकुछ सरकार पर नही छोड़ा जा सकता । सभी को एकजुट होना ही होगा । नहीं तो बंट-बंट कर हम आतंकवाद को मजबूत कर देंगे। आखिर में यह कह दूं कि हर कोई अगर मि. या मिसेज परफेक्शनिस्ट हो जाये तो न्याय के लिये इंडिया गेट पर मोमबत्ती जलाने या गेट-वे-आफ-इंडिया पर ह्यूमन चेन बनाने की जरुरत नही पड़ेगी।
कुछ साल पहले शकेस्पिएर की एक कविता पढ़ी थी "I am the people, mob" कविता तो याद नहीं बस ये याद है कि पब्लिक कि यादाशत बहुत कमजोर होती है. मुझे कोई अचरज नहीं होगा जब लोग मुंबई हमले को भी भूल जायेंगे, क्या हुआ कारगिल का, बनारस के संकटा मोचन मंदिर का, पर्लेयामेंट हमले का ........लिस्ट काफी लम्बी है . हम फिर सरकार पर दोष डाल कर सो जायेंगे, आज सब हाथ में हाथ डाले मानव चेन बनायेंग, शपथ लेंगे, कल फिर वही आपनी बनाई खोल में लौट जायेंगे .
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteआमिर से आपके सवाल सटीक थे। वो इंटरव्यू मैनें देखा था। आमिर एक बिजनेसमैन और ह्यूमैनिटेरियन व्यू से बिल्कुल सही थे। जहां तक सवाल है आतंक पर हो रही राजनीतिक एकजुटता का,तो वो नाकाफी है। बड़ा मौजूं कहा आपने कि धनाढ्य वर्ग पर आतंकी हमले ने एक जनून पैदा किया। ताज और ऑबरॉय में लौटती जिंदगी हम सबने लाइव दिखाई, लेकिन सीएसटी पर तो जिंदगी दो दिन बाद ही लौट आई थी। उसका गुणगान न हमने किया न आपने, क्योंकि टीआरपी की जंग में वो मजबूत मोहरा न थी। आम आदमी और खास आदमी की ज़िंदगी को हम ही तो दो चश्मों से देखते हैं। अमीरों पर हुए हमलों को तो ताज और ऑबरॉय ने लगे हाथ भुना लिया। इसी को बिजनेसमैन कहते हैं। त्रासदी पर अस्मिता और जीवट का मुलम्मा चढ़ाकर दोनों पांच सितारा होटल नए साल पर मुनाफे की जंग लड़ रहे होंगे। क्या फर्क पड़ता है अगर सीएसटी पर मारे गए किसी परिवार का चूल्हा अभी भी ठंडा पड़ा हो।
ReplyDeleteजय माता दी ,
ReplyDeleteआपके ब्लॉग का मजमून इस तरह का होता है की न चाहतें हुए भी हमें आपकी हर बात सर हिलाना परता ह
आमिर के सवाल-जबाब से संबंधित आपके ये लेख स्पष्ट है । लेकिन आतंकवाद के नाम पर इस देश में क्या हो रहा है कहना मुश्किल है । आमिर खान ने भी इस आतंकी धटना को लेकर जो सवाल उठाए है वह सही है । लेकिन सवाल यह खड़ा होता है कि आमिर ने जो कहा है वह हमारे देश की सरकार करने को तैयार होगी । उस समय के गृह मंत्री के यह बात दोहरायी है कि अगर भविष्य में इस तरह की घटना होगी तो वो ऐसा ही करेंगे । फिर आमिर के इस सवाल पर इस देश में क्या होनेवाला है
ReplyDeletePrasoon ji,
ReplyDeleteapke blog par Amir Khan ji ke sakshatkar ke madhyam se kai aham saval,aur mudde uthaye gaye hain jin par ham sabhee ko soachne kee jaroorat hai.Maslan desh men atankvadee gatividhiyon par lagam ,is kam men hamaree sarkar dvara kee jane valee karyavahee vagairah.
Lekin in sab ke sath hee amir ji ne ek aur ullekhneeya saval uthaya hai ki kya filmon ke kirdaron ko dekh kar bhee samaj men badlav aa sakta hai?
Is sandarbha men main Amir ji se kahna chahoonga ki jab Tare Jameen Par dekh kar hamare desh ke shikshashastree,shiksha vibhag ke bade adhikaree,is film ko primaree skool ke teachers ko bar bar dekhne ke liye kahte hain.To nishchit roop se ve is film ke teacher kee tarah hee doosare adhyapkon se bhee apne teaching method men badlav lene kee ummeed karte hain.
Jis tarah Amir Khan Ji kee ye film hamare teachers ke liye adarsh ban saktee hai ,vaise hee anya filmen bhee nishchit roop se samaj kee disha ,soach ko badalne men aham bhoomika nibha saktee hain.
Hemant Kumar