Wednesday, January 28, 2009
आतंकवाद का राष्ट्रवादी चेहरा
तो क्या यह माना जाए कि नया न्यायतंत्र आतंक पर टिका है। जिसका आतंक जितना बड़ा होगा, उसे उतनी बडी सत्ता, उतना व्यापक लोकतंत्र और उतना ही बड़ा सौदेबाज माना जायेगा। लोकतंत्र का नया चेहरा सामाजिक आतंक के खिलाफ पूंजी के आतंक की मान्यता है। सिर्फ छह साल पहले ही तो देश के सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को राजधर्म निभाने का पाठ पढ़ाया था। आम आदमी से लेकर पूंजीपति और उघोगपतियो की लंबी फेहरिस्त उस वक्त हर तबके ने मोदी की राजनीति को समाज और देस को बांटने वाला करार दिया था। तब देश के बड़े उघोगपतियों ने मोदी को लोकतंत्र में दाग कहा था।
लेकिन इन छह सालों में क्या कुछ बदला इसका पहला असर तो इसी से समझा जा सकता है कि टाटा-अंबानी-मित्तल सरीखे उद्योगपति मोदी को खुल्लमखुल्ला देश का प्रधानमंत्री बनते हुआ देखना चाहते हैं। इसे कहने से नहीं चूक रहे। सवाल यह नही है कि मोदी ने अपने आपको बदल लिया है या आतंक के खिलाफ मोदी के तेवर आतंक को भी आंतकित कर देते हैं। सवाल यह भी नही है पूंजीपति-उद्योगपति मोदी के साये में खुद को सुरक्षित मान रहे हैं। सवाल है कि आतंक की नयी परिभाषा में आतंक ही उस लोकतंत्र की जगह ले रहा है। संविधान ने देश के हर नागरिक को बराबर अधिकार दिये हैं। तो क्या संविधान मायने नहीं रखता। यकीन जानिये जो स्थिति है उसमें देश के भीतर लोकतंत्र की नहीं आतंक की चौसर बिछायी गयी है । कैसे...कहां खुद देखिये ।
इस पर एक आम सहमति है कि मुबंई में हुये आतंकवादी हमलो के बाद देश में सरकार चलाने वालों के खिलाफ आक्रोष है । राजनेताओं के तौर तरीकों ने लोगो के अंदर गुस्सा भरा है कि उनकी जिन्दगी से खिलवाड़ किया जा रहा है। आतंक पर कोई रोक लगाने में सरकार सक्षम नहीं है । आतंक पर नकेल कसने वाले संस्थानों की ही नकेल खुली हुई है। संसदीय राजनीति के लोकतंत्र के खेल में हर सरकारी संस्थान मनमाफिक तरीके से छुट्टा है। कोई नीति या योजना देश के सामने नहीं है जिसमें देश के नागरिको को भरोसा हो सके कि देश में वाकई कोई लीडर है या सरकार है, जिसपर भरोसा किया जा सकता है कि उसे लोगो की फिक्र है या लोग उसकी मौजूदगी में बेफिक्र हो जाये। असल में आम लोगो का आक्रोष आतंकवाद के मद्देनजर जान गंवाने को लेकर पैदा हुआ है...पहली नजर में यह सही लग सकता है । लेकिन इस पहली नजर का बड़ा आधार आतंकवाद से लोगो में पैदा हुई एकजुटता भी है। जातीय या धार्मिक आधार पर राजनीति को महत्वहीन बनाते हुये आम सहमति भी है। और देशहीत में हाथों में हाथ डाल कर खड़े होने की ताकत भी है। हकीकत में इस एकजुटता भरे माहौल से ही कई सवाल पैदा हुये है, जो बार बार इस सच को हवा में उछाल रहे है कि अगर आतंकवादी घटना न होती तो देश सचेत ना होता। या फिर देश जिस राह पर चल निकला है उसमें आतंकवाद ही असल नकेल है जो देश को जगाये रख सकती है।
अगर आतंकवाद की गिरफ्त में आये देश को 1993 के मुंबई सीरियल ब्लास्ट से ही परखा- देखा जाये और इस दौर में देश की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक स्थितियों को परखे तो उपर उठे दोनो सवालों को टटोला जा सकता है । 15 साल पहले मुंबई व्लास्ट के बाद कंधार विमान अपहरण ने आतंकवाद का सबसे बडा झटका देश को दिया । इसके बाद से चले सिलसिले में ताज-नरीमन पर हमले तक के दौर में देश के अलग अलग हिस्सों में दो सौ से ज्यादा आतंकवादी हमले हुये, जिसकी बड़ी शुरुआत सात साल पहले श्रीनगर विधानसभा के परिसर में विस्फोट से भरी जीप के जरीये तीन दर्जन से ज्यादा लोगो की मौत और सौ से ज्यादा लोगो के साथ हुई। डेढ दशक के दौर में आतंकवादी हिंसा में करीब सोलह हजार से ज्यादा लोगों की मौत हुई । आर्थिक नुकसान का आंकड़ा नब्बे हजार करोड़ के करीब का है। इस त्रासदी से निजात पाने के लिये राजनीतिक दलों में जमकर टकराव हुआ जो सड़क से संसद तक में नजर आया। कड़े कानून की मांग से लेकर गृह मंत्रालय की नाकामी और सुरक्षा एजेंसियों में लगातार लगने वाली सेंघ का मामला बार बार उठा। जिससे लोगों में आक्रोष जमता गया । लेकिन उस परिभाषा के सामानातर इसी दौर में सामाजिक तौर पर साप्रंदायिक हिंसा और क्षेत्रिय अलगाववादी हिंसा भी हुई। जिसको थामने के लिये राजनीतिक दलो ने कभी किसी योजना या कानून की वकालत नहीं की बल्कि राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला जमकर चलता रहा। कमोवेश इसकी शुरुआत भी 15 साल पहले ही हुई। अयोध्या की आग में बाबरी मस्जिद का ढहना मात्र नहीं था बल्कि समाज के बीचो बीच लकीर खिंचना और उसे मिटाने की जगह और गाढ़ा करते जाना देश की राजनीतिक सत्ता की फितरत रही। इस दौर में महज गुजरात ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश , महाराष्ट्र, उडीसा, कर्नाटक, बिहार, पंजाब , हरियाणा, असम समेत 16 राज्य सांप्रदायिक हिंसा की गिरफ्त में आये।
गुजरात के पांच लाख घरो को अलग कर दें तो भी देश के सत्तर लाख से ज्यादा परिवारो में सांप्रदायिक हिंसा की आग पहुंची, जिसने इन्हें बरबाद कर दिया। सांप्रदायिक हिंसा में आर्थिक नुकसान भी पचास हजार करोड़ को पार कर गया । लेकिन इस नुकसान को सरकार ने सरकारों के माथे पर ही मढ़ा। राज्य सरकार के मामलो में केन्द्र सरकार दखल देती नहीं है और सांप्रदायिक हिंसा ने हमेशा सत्ता का कंघा टेका। जिसे कभी समाज तो कभी राजनीति की जरुरत बताकर संविधान के हर स्तंभ के आसरे लोकतंत्र का गुणगाण करने वाली संसदीय राजनीति ने पल्ला झाड़ा। जाति और धर्म के आसरे इस हिंसा को क्षेत्रियता ने नया कैनवास दिया। असम से लेकर मुंबई तक में स्थानीय नागरिकों के हक के नाम पर भूमि पुत्रों की राजनीतिक हिंसा में लोगों की मौत का आंकडा तो एक हजार से नीचे का रहा। लेकिन पचास लाख से ज्यादा परिवारों की रोजी-रोटी पर जरुर बन आयी। बाहरी लोगों पर स्थानीय लोगो का हक छीनने का आरोप लगा कर जिस राजनीति ने पंख फैलाये उसने संविधान या कहे कानून के राज की धज्जिया उडायीं लेकिन किसी सरकार की हिम्मत इसे थामने की नहीं हुई।
सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी संसद की जबरदस्त बहस में फुसफुसाहट सरीखा ही लगा । इसी दौर में देश को विकास की लकीर पर चलाने का भी इंतजाम किया गया। 1991 में जिस नयी अर्थव्यवस्था की हिमायती सरकार की नीतियां बनीं, उसने 1992 के बाबरी मस्जिद कांड और 1993 के मुबंई ब्लास्ट से कही ज्यादा समाज को बांटा। कहीं ज्यादा हिंसा को बढ़ाया। कहीं ज्यादा हत्याओं को अंजाम दिया। कहीं ज्यादा देश का संप्रभुता पर आंच पहुचायी। आर्थिक नीतियों के इस घेरे ने आजादी के संघर्ष तक को खारिज कर विकास की ऐसी अनूठी परिभाषा गढ़ी, जिसमें भारत दुनिया के सामने खरीदारो की फौज के तौर पर उभरा। 25 करोड़ उपभोक्ताओं की ताकत को दुनिया के आठ विकसित देशो से भी आगे रख कर भविष्य का खाका आर्थिक तौर पर रखने का मंत्र उसी सत्ता ने दिये, जिसे देश के सौ करोड़ का हिमायती माना जाता है।
लेकिन जो 80 करोड़ उपभोक्ताओं के घेरे में न आ सकें, उन्हें घेरे में आने के लिये छटपटाकर जीने की नीतियों को उन्हीं राजनेताओं ने परोसा जिन पर देश को भरोसा था कि वह सभी को एकसमान देखेंगे। चूंकि नयी आर्थिक नीतियों को नया भगवान करार दिया गया तो नीतियां आम लोगो से बडी होती चली गयी। उसे लागू करने वालों का सीधा वास्ता दस्तावेजों से था । तो सरोकार या आम लोगों की जरुरतों को समझने के लिये भी नीतियों की लकीरों को ही आड़ा-तेड़ा खिंचा गया। देश के वित्त मंत्री से लेकर योजना आयोग तक के अधिकारी और राज्यों में विकास का परचम लहराने का ख्वाब संजोने वाले मंत्री से अधिकारी तक और जिला परिषद से लेकर पंचायत समिति तक के नुमाइंदों तक को आर्थिक विकास का पाठ नयी आर्थिक नीतियों में ही समझ में आया, जहां खरीदने की ताकत के आगे हर सत्ता दम तोड़ दे देती। राज्य और संविधान भी छोटे पड़ने लगते। लोकतंत्र का पैमाना पूंजी के सामने नतमस्तक हो जाता। बाजार अर्थशास्त्र के इस आर्थिक आतंक ने सुरक्षा के नियम भी गढे और राजनीति को नया सरमायेदार भी बनाया।
आर्थिक नीतियों का असर देश पर किस रुप में रहा यह महज साठ हजार किसानों की आत्महत्या से परिभाषित नहीं किया जा सकता। बल्कि इस दौर में देश के ढाई करोड़ लोगों का आसरा छिन गया। विकास परियोजनाओं में एक करोड़ से ज्यादा परिवार बेघर हुये। रोजगार के जो साधन पीढियों से बिना किसी नीति के देश के करोड़ों परिवारो को संभाले हुये है, वह मुनाफा कमा कर विकास की लकीर खिंचने वालो के साथ जुड़ी। जिसपर सरकार का ठप्पा लगा। और देखते देखते देश के करीब ढाई करोड़ लोगों से वह जमीन छिनने की प्रक्रिया शुरु हुई जो बिना किसी इन्फ्रा स्ट्रक्चर की मांग के भी करोड़ों लोगो का पेट भरती। बैकिंग प्रणाली को भी बाजार अर्थव्यवस्था से जोड़ कर राज्य ने संविधान के उस हिस्से को मुनाफे के लिये बेच दिया जो सभी को ना सिर्फ बराबरी का अधिकार देता बल्कि कल्याणकारी राज्य के तहत कमजोर तबके को ज्यादा से ज्यादा राहत देने की बात भी कहता। लेकिन बैंक का मतलब विकास की आधुनिक समझ की लकीर को आगे बढाने के तरीको ने ले लिया। इस दौर में प्रति व्यक्ति आय ढाई हजार रुपये सालाना तक देश की हुई। लेकिन इसी दौर में देश के पचास करोड़ लोगों की सालाना आय एक हजार रुपये तक भी न पहुंच पायी। अरबपति और करोड़पतियों की तादाद देश में सबसे ज्यादा बढ़ी। दुनिया पर छा जाने की विकास की मदहोशी ने पानी-स्वास्थ्य-शिक्षा को भी बाजार और मुनाफे के घेरे को कुछ इस तरह लिया देश के दस करोड़ लोग जितना पैसा पानी पीने के लिये एक साल में देते। इलाज के लिये जितना धन इस तबके पर साल भर में गंवाते। और महज एक डॉक्टर या इंजीनियर, कंप्यूटर या बिसनेस मैनेजमैंट की एक डिग्री के लिये एक करोड़ परिवारों में किसी एक बच्चे पर जितना खर्च होता । उतना देश के पचास करोड़ से ज्यादा लोगों को जीवन भर में नहीं मिलता। जिसमें जीने से जुड़ी हर जरुरत भर के जुगाड का हिसाब-किताब रखा जा सकता है। यानी दस करोड़ बनाम पचास करोड़ के खेल में भारत जैसे समाज में सबकुछ खामोशी से चल सकता है, जहां समाज का ताना-बाना एक चारदीवारी से दूसरी चारदीवारी के बीच बिना दीवार के चलता है।
इस दौर में राज्य कितने बेअसर हुये और लोकतंत्र के नाम पर पूंजी की तानाशाही ने जिस तरह सामाजिक मान्यता से लेकर निजी सुरक्षा तक की व्यवस्था की लकीर खिंची, उसने लोगों को उसी बाजार पर टिका दिया जो उनका नहीं था। जिसे चुने या ना चुने यह लोकतंत्र संसदीय राजनीति ने उन्हें न दिया। वजह भी यही रही कि आत्महत्या-हत्या और हिंसा में पांच से बीस फीसदी तक का इजाफा इस दौर में हुआ । समाज के भीतर तनाव-तल्खी, लोगो में आक्रोष, राजनीतिक हिंसा,लोकसभा-विधानसभा तक में राजनेताओ की जुतम-पैजार सबकुछ इस दौर में बढ़ा। संसदीय राजनीति यही से हारी क्योंकि 1991 की न्यू इकॉनामी, 1992 का अयोध्या कांड, 1993 का मुबंई सीरियल ब्लास्ट के बाद जो पहला लोकसभा चुनाव 1996 में हुआ उसने राजनीतिक सत्ता की भी नयी लकीर खिंची। जनता का भरोसा किसी भी राजनीतिक दल पर नहीं टिका। गठबंधन की राजनीति ने चाहे लोकतंत्र की वकालत की लेकिन हकीकत में विकल्पहीन स्थिति में राजनीति भी उसी बाजार के चौखट पर जा बैठी जिसने नागरिकों को उपभोक्ता में बदला। माल के उत्पादन की जगह माल को बेचने के हुनर ने ले ली। रुपये की जगह डॉलर ने ली। राज्य की जिम्मेदारी बहुसंख्यक जनता से हटकर चंद हाथों में सिमटाकर निजीकरण को बढ़ाया। मुनाफे की थ्योरी सबसे ताकतवर हुई। इस ताकत ने राजनीतिक सत्ता को भी मुनाफे तले लाकर लोकतंत्र की संसदीय समझ को कमाने-खाने का धंधा बना दिया।
जाहिर है पिछले डेढ दशक के दौर में जिस देश को उसकी संस्कृति-सरोकार से हटाकर एक नयी पटरी पर लाने का जो प्रयास किया जा रहा है, उसमें उस आधी आबादी का क्या होगा जो पीढियों से उसी जमीन पर टिकी है, जिसे अब बेचा जा रहा है। आतंक की सही और गलत दिशा की शुरुआत यहीं से होती है । मुबंई के ताज-नरीमन पर हमले से पहले यानी 26 नबंबर को हुये हमले से पहले देश की अलग अलग जगहो पर जितने भी आतंकवादी हमले हुये उसमें स्थानीय लोगों की भागीदारी को लेकर देश के भीतर राजनीति और समाज दोनो पर भरोसे तार-तार हुये। मगर 26 नवंबर के हमले ने देश के उस समाज को डिगा दिया जो सबकुछ खरीदने की ताकत रखता है। जिसके आगे राजनीति भी नतमस्तक है। इसीलिये पहली बार किसी एक तबके से हटकर देश के सामने देश का सवाल उठा है। इसलिये पहली बार यह सवाल भी उठा कि क्या आतंकवादी हिंसा के जरीये ही देश जागेगा। क्योंकि आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान के खिलाफ कड़े तेवर भारत ने जरुर अपनाये हैं, लेकिन देश के भीतर हर व्यवस्था उसी लीक पर चल रही है, जिसे सीमा पार से पाकिस्तान परोस रहा है। समाज के भीतर सत्ता की ताकत का विकेन्द्रीकरण कुछ इस तरह हुआ है कि आतंक के आसरे कोई भी अपनी पैठ राजनीतिक सत्ता में बना सकता है। और संसदीय राजनीति खुद को लोकतंत्र कहलवाने के लिये समाज के भीतर के हर आतंक को लोकतंत्र की चादर में समेट कर यह ऐलान करने से नहीं चुकेगी कि यही लोकतंत्र है। जिसमें चुनाव सबसे बड़ा हथियार है। आप इस गटर को चुनिये या उस गटर को या इस आतंक तले रहिये या उस आतंक तले। और लोकतंत्र के इस सत्तानशीन पाठ को कोई चेता सकता है तो वह सीमापार से आया आतंक होगा जो संसद या ताज-नरीमन की सत्ता को जबतक चुनौती नहीं देगा तबतक देश जागेगा नहीं। और अगर यह सही है तो महसूस कीजिये कहीं आतंकवाद ही राष्ट्रवाद का हथियार तो नहीं बन चुका है।
Saturday, January 24, 2009
स्लमडॉग मिलेनियर : ऑस्कर,अमिताभ,असलियत
पहले समाज की ठोकर फिर समाज को ठोकर मारने की जो रचना दीवार-लावारिस-मुकद्दर का सिकंदर सरीखे किरदार दो से तीन दर्जन से ज्यादा फिल्मों में अमिताभ बच्चन ने जीये कमोवेश उसका आधुनिक तरीका स्लमडॉग का सच है। समाज के भीतर के असमान लिचलिचेपन से जब कोई फिल्म टकराती है तो वह फिल्म महज कलाकारों की या डायरेक्टर की नहीं होती. बल्कि फिल्म आम लोगो की हो जाती हैं।
स्लमडॉग का सच भी कुछ ऐसा ही है। पहले दिन का पहला शो। हाउस फुल सिनेमाघर । उसमें कौन बनेगा करोड़पति के खेल से लेकर स्लम की जिन्दगी जीने का जुनून। और सबकुछ खोते हुये सब कुछ पाने का ख्वाब। यह समझ बॉलीवुड की एक ऐसी हकीकत है, जिसे तीन घंटे की पोयटिक जस्टिस का नाम दिया जाता है और जिसे बच्चन के जरीये सलीम-जावेद ने खूब जीया है और खूब नाम कमाया है। इसी नब्ज को स्लमडॉग के डायरेक्टर डैनी बॉयल ने बेहद बारीकी से पकड़ा। डायलॉग की बारीकी देखने लायक हो। फिल्मी डायलॉग का पहला शब्द मादरचो.... का गूंजता है। इस एक शब्द से देखने वाले स्लमडॉग का सच समझ लें और दर्शकों में से आवाज आती है...यह तो अपनी ही फिल्म है गुरु...संवाद यही नहीं रुकता ....स्लमडॉग पुलिस के कब्जे में है, जिसके ज्ञान को पुलिस फ्राड-चीटर मान रही है।
दूसरा संवाद उभरता है....जब डाक्टर-इंजीनियर-प्रोफेसर और पढ़े-लिखे लाख की रकम से आगे नही जा पाये तो यह स्लमडॉग करोड़ रुपये तक कैसे पहुंच गया और उस पर पुलिसिया थर्ड डिग्री के दर्द को झेलता स्लमडॉग का छोटा सा जबाब... मै हर जबाब जानता हूं......एक ऐसी हुक दर्शको में भरती है, जहां त्वरित कामेंट आता है....अबे किताब पढ़ने से सबकुछ नहीं आता। कौन बनेगा करोड़पति में अनिल कपूर के सवाल दर सवाल और जबाब देने से पहले हर सवाल को जिन्दगी में झेलने वाला स्लमडॉग । इससे ज्यादा खुरदुरी जमीन किसी फिल्म की कैसे हो हो सकती है जो एक तरफ करोड़पति बनने का रोमांच पैदा करे तो दूसरी तरफ मिलेनियर समाज का अंदर के मवाद को रिस रिस कर जख्म दर जख्म दिये जाए। इस तरह का सामंजस्य धारावी और सलाम बाम्बे में भी नही उभर पाया और बच्चन की फिल्मो में सलीम जावेद यहीं चूक जाते थे क्योंकि उन्हें अपने समाज को बेचना था और उसकी कमजोरियो में भी एक रोमाटिज्म पैदा करना भी था। इसलिये अमिताभ की फिल्म खत्म होने के बाद जीत का नशा तो पैदा करती, लेकिन देखने वाले को अकेला छोड़ देती, जहां वह समाज की विसंगतियों में रोमांच पैदा करके जी ले यही बहुत है।
लेकिन स्लमडॉग जिस रास्ते को पकडती है, उसमें वह राज्य व्यवस्था के हर खांचे पर इतनी खामोशी से उंगली उठाती है कि देखने वाले के भीतर आक्रोष लाचारी के मुलम्मे में चढ़ा हुआ आता है । दंगो में जिन्दा जलते आदमी को देखने के बजाय पुलिस का ताश खेलना। चंद सेकेन्ड का दृश्य है मगर वह दिमाग में आखिर तक रेंगता है। स्लम से निकले जमाल और सलीम वैसे ही दो भाई हैं, जैसे अमिताभ की फिल्म दीवार में विजय और रवि फुटपाथ पर बड़े होते हैं। यहां विजय जिस रास्ते पर चलता है स्लमडॉग में काफी हद तक वही रास्ता सलीम पकड़ता है। दीवार में विजय यानी अमिताभ की मौत की वजह उसका अपना ही भाई रवि बनता है तो स्लमडॉग में सलीम की मौत की वजह भी उसका भाई जमाल बनता है। फिल्म दीवार में उस व्यवस्था के कवच को बचाया जाता है जिसके टूटने का मतलब नायक के हाथों राज्य व्यवस्था का हाशिये पर चले जाना है। इसलिये आदर्श की जीत होती है लेकिन स्लमडॉग किसी कवच को फिल्म में बनने ही नहीं देता उसलिये उसे बचाने का जिम्मा भी उसके कंधे पर नहीं है।
लेकिन अपनों के लिये जीने और मरने का जो जज्बा स्लम में मिलता है, उसे ही फिल्म का पोयटिक जस्टिस बनाया गया। इसलिये सलीम की मौत जमाल के लिये कुर्बानी सरीखे या शहीद होने सरीखे हैं। जबकि विजय की मौत नायक को आदर्शवाद का पाठ पढ़ाने की है। जो जिसे समाज और सत्ता चबाकर आंखों के सामने अपनी सुविधानुसार परिभाषा गढने से नहीं चूक रहे। वहीं स्लमडॉग में झोपड़पट्टी के जीवन के सच के आगे संभ्रात समाज का जीवन इतना खोखला लगता है कि उससे घृणा भी नहीं हो पाती।
अमिताभ बच्चन का दर्द यही है। क्योंकि स्लमडॉग की शुरुआत में जमाल का जुनून अमिताभ की ही तरह अमिताभ को लेकर कैसा है, इसे महज एक दृश्य में जिस तरह फिल्म के निर्देशक डैनी बॉयल ने दिखाया है वह सलीम-जावेद की जोड़ी पटकथा लिखते वक्त कभी सोच भी नहीं सकती थी। और अमिताभ इस दृश्य को सिनेमायी पर्दे पर जी भी नहीं सकते थे। फिल्म में जमाल की अमिताभ को देखने की चाहत पखाने के ढेर में नहला कर भी खुशी दे जाती है। भारतीय सिनेमा में यह दृश्य जुनून और सच की पराकाष्ठा है। संभवत यह दृश्य कोई दलित लेखक ही अपनी पटकथा में लिख सकता है। हांलाकि नामदेख ढसाल सरीखे दलित साहित्यकार भी ऐसे बिम्बो से चुके हैं। इसकी वजह हर आंदोलन के बाद दलित-पिछडे समाज के भीतर भी उसी संभ्रात समाज की तरह विकल्प बनाने की समझ है, जिसके खिलाफ आंदोलन शुरु होता है । यानी संघर्ष या आंदोलन के बाद खुरदुरी जमीन पर भी चकाचौंध दिखाने और जीने का खेल आधुनिक समाजिक आंदोलनों से जुड़ा रहा है। इसलिये दलित पिछडे ही नही बल्कि धारावी सरीके झोपडपट्टी के नेताओं का जीवन तो स्लम से शुरु होता है लेकिन धीरे धीर उसी स्लम को बनाये ऱखकर उसी पायदान को छूने की चाहत में आगे बढता है, जिसके खिलाफ बचपन से लड़ाई लड़ी।
अमिताभ बच्चन का संकट यही है । जिन फिल्मो की कहानियों ने उन्हें महानायक बनाया संयोग से उसी सूत्र को पकडकर स्लमडॉग मिलेनियर ऑस्कर की दौड़ में आ गयी लेकिन इस दौर में अमिताभ का जीवन उस संभ्रात समाज का अक्स हो चुका है जहां संघर्ष या हक की लड़ाई के नायक पर सफल महानायक राज कर रहा है। जो सुविधा-चकाचौंध की हट में सब को डराना चाहता है । डराकर जीतने की चाहत बॉलीवुड का भी सच है। इसलिये बॉलीवुड की फिल्में कहानियों के साथ न्याय नहीं कर पाती। उन बिम्बो को साध नहीं पातीं जो क्रूर हकीकत हैं।
स्लमडॉग में बच्चो से भीख मंगवाने के लिये पहले दर्शन दो घनश्याम.....गीत याद कराना और फिर गर्म चम्मच से आंखे निकाल लेना का दृश्य़ जब कौन बनेगा करोड़पति के सवाल से जुड़ता है और अनिलकपूर जमाल से सवाल करते है कि दर्शन दो घनश्याम...किसका गीत है...तुलसीदास-सूरदास-मीराबाई....और जबाब देने से पहले जमाल की आंखों के सामने उसकी अपनी हकीकत रेंगती है कि..वह बच गया....वरना आज वह भी सूरदास होता ...तो करोड़पति के खेल से भी देखने वाले को घृणा होती है। लेकिन इसे कहने के लिये फिल्म के नायक को अमिताभ की फिल्म की तरह अपनी छाती तान कर कुछ डायलॉग नही बोलने थे बल्कि स्लमडॉग पर मुंबई का चायवाला उपहास सुनते हुये महज सूरदास कहना था। यह बेचारगी ही दर्शको में हिम्मत भरती है। क्योंकि जो मौजूद है उसे बदलने का जज्बा तभी पैदा हो सकता है जब सच बताने और दिखाने पर अलग-अलग तबके और माध्यमों की तो सहमति हो जाये। लेकिन बॉलीवुड की फिल्में सिर्फ नायक में हिम्मत भरती है और देखने वालों को अकेला कर कमजोर करती है क्योकि वह असल जमीन से हटकर सिनेमायी संघर्ष का आगाज होता है।
असल में फिल्म में मुंबई को जिस परछायी की तरह दिखाया गया वह स्लम के सामानांतर पांच सितारा अट्टालिकाओं पर भी उपहास करती है। लेकिन लाचारी और बेचारगी के बीच स्लम की जमीन पर बनी-बसी मुबंई की हकीकत का एहसास सलीम के जरीये कराने से नहीं चूकती, जहां वह मुंबई को दुनिया के बीच का शहर और खुद को मुंबई के बीच का केन्द्र मानता है । लेकिन सलीम का तरीका दीवार के विजय सरीखा लाखों की इमारत खरीद कर कराने का नहीं है। असल में अमिताभ बच्चन की सामाजिक ट्रेनिग उनकी फिल्मी सफलता का ग्राफ है जो चमकते-दमकते भारत में घुसने के लिये जोड़-तोड़ को संघर्ष का जामा पहनाता है। इसलिये महानायक बनते बनते उसकी फिल्मे नायक की धार खोकर शिक्षा और आदर्श का मुलम्मा चढाकर प्रगति गीत गाने से नहीं कतराती। सुविधा पर आंच आने या खुलेपन की कीमती चादर ओढकर कुछ भी करने में जरा भी ठेस लगती है तो अमिताभ का आक्रोष फिल्मी तर्ज पर उभरना चाहता है। इसलिये स्लमडॉग का मर्म अमिताभ के नायकत्व को हाशिये पर ले जाने का मर्म है इसलिये पश्चिम का दर्द इस तरह साल रहा है । जो इनका निजी दर्द है। ऑस्कर के दस नॉमिनेशन में से तीन में ए आर रहमान भी ऑस्कर की दौड़ में हैं। फिल्म का गीत ओ रे रिंगा....कमाल का है । हालाकि ऑस्कर की दौड में जय हो.. और ओ साया... है । लेकिन इस फिल्म को देखते वक्त कभी महसूस नहीं होता कि गीत-संगीत कहीं फिल्म को आगे बढा रहा है...बल्कि फिल्म खत्म होने के बाद गीत दिखायी देता है, जिसका ट्रीटमेंट बतलाता है कि स्लमडॉग मिलेनियर महज कहानी है....सच से इतर। लेकिन यही फिल्म की सबसे बडी सफलता है, जहां दर्शक गीत सुनने के लिये सिनमाहाल में यह सोच कर नहीं रुकता कि जिस स्लम के सच को उसने देखा है उसे रोमाटिंक वह कैसे बना ले। असलियत यही है । इसीलिये यह ऑस्कर की दौड़ में है और अमिताभ का रोमाटिज्म यही मात खाता है ।
Monday, January 19, 2009
सेंसर की कवायद : संपादक भी खुश, पीएम भी खुश
कमोवेश सभी नेताओं को दिसंबर का पहला हफ्ता याद है। मुंबई हमलों के बाद दिसंबर में जिस तरह सरकार और नेताओं के खिलाफ मुंबई से लेकर दिल्ली और कोलकाता से लेकर हैदराबाद तक में लोगों का हुजूम सड़कों पर उतरा वह न्यूज चैनलों के जरिए करोड़ों घरों के ड्राइंग और बेड रुम में राजनीति और राजनेताओं के खिलाफ ज़हर उगलता रहा। दिसंबर भर देश भर के नेता और सरकार यही गुहार लगाते नजर आये कि चंद नेताओं के एवज में समूची राजनीति को कैसे खारिज किया जा सकता है। यहां तक की सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री बने उमर अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर की गद्दी संभालते ही जो पहला वाक्य कहा, वह यही था कि एक ही रंग में सभी राजनेताओं को जनता न रंगे और मीडिया न बताये।
दरअसल, उस वक्त न्यूज चैनलों से वो तमाम नेता गुहार लगा रहे थे कि आप इस तरह संसदीय लोकतंत्र को खारिज करने वाली सोच के बहाव में न बहें। लेकिन मामला करोड़ों लोगों की भावनाओं से जुड़ा था तो न्यूज चैनल कैसे चूकते। पत्रकारीय ईमानदारी और बिजनेस टीआरपी दोनो एकसाथ पहली बार उन्हीं न्यूज चैनलों को आम पब्लिक में मान्यता दिला रही थी जो इससे पहले भूत-प्रेत से लेकर बिना ड्राइवर के कार का खेल और भालू-बंदर के सर्कस समेत राखी सांवत और राजू श्रीवास्तव की हथेलियों में झूलते नजर आते थे। और उस समय इसी आम पब्लिक की प्रतिक्रिया खुलकर उभरती थी कि ऐसे चैनलों पर सरकार रोक लगाये।
जाहिर है मुंबई हमलों के बाद के माहौल ने देश को जिस सूत्र में पिरोया, उसमें चैनलों की भूमिका उन भावनाओं के जरिए बिजनेस दे रही थी, जो राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ जाती। असल में राजनीति का धंधा और न्यूज चैनलों का बिजनेस एकसरीखा है । लोगो की भावनाएं अगर नेता या सरकार के साथ है, तो सरकार डरती नहीं है और देखने वाले अगर न्यूज चैनलों को पंसद करते है या अपनी अभिव्यक्ति का आधार मानते है तो न्यूज चैनलों को डर नहीं रहता। लेकिन जिस दौर में न्यूज चैनल भटके अगर उस दौर को परखे तो सरकार भी भटकी हुई थी। सरकार की जो भी नीतियां बनीं उसमें बाजार अर्थव्यवस्था या आर्थिक सुधार का मुलम्मा इस तरह चढ़ा था कि देश के बहुसंख्य्क समाज से उसका कुछ लेना देना नहीं था। उस समय न्यूज चैनल हंसी-ठठ्ठे में इस तरह फंसे थे कि उन्हे चकाचौंध इंडिया में हर कोइ भरे पेट के साथ टीवी पर सपने और सर्कस देखने वाले ही लग रहे थे।
जाहिर है एक खास तबके भर की जरुरत पूरा करती सरकार और खबरों को मनोरंजन के साये में लपेटकर न्यूज बताने का चैनलों का तरीका उस समझ को पारंपरिक मानकर खारिज करने से नहीं चूक रहा था, जिसमें चैनलों पर जनहित के मुद्दों को उठाना या सरकार के कल्याणकारी राज्य होने की दिशा में नीतियों को लागू करना उद्देश्य होता। इसलिये जब न्यूज चैनलों पर सेंसर का सवाल उठा तो उसने अचानक मनोरंजक और भटके चैनलों को लोकतंत्र के चौथे खम्भे होने का एहसास करा दिया। जिसका काम जनता के हित के लिये चैक-एंड बैलैस का होता है। सरकार के सेंसर में इस बात का कहीं जिक्र नहीं है कि अगर कोई न्यूज चैनल खबर के बदले नाच-गाना, अपराध का नाट्य मंचन,और रोमाच पैदा करने से लेकर मनोरंजन पैदा करने वाले प्रोग्राम को दिखायेगा तो सरकार क्या करेगी। इसके उलट सेंसर में उन तथ्यों का जिक्र था, जिसे चैनल दिखाना छोड़ चुके हैं। मसलन हाल के गोहाना सरीखे दंगे से लेकर गुजरात के दंगो को नहीं दिखाया जा सकता है। सांसदों की घूसखोरी हो या अस्पताल में मरीजों की दवाइयों को खुले बाजार में बेचेने का डाक्टरों का रैकेट, इसे नहीं दिखाया जा सकता है। एसईजेड के नाम पर किसानों की जमीन जिस तरह औने-पौने दाम में चंद हाथो को दी रही है, उसे नहीं दिखाया जा सकता है। किसी भी राज्य में पुलिस अगर डंडा बरसाती है या राज्य अपराधियों को ठिकाने लगाने के लिये फर्जी इनकाउंटर करती है तो उसे देशहित में नहीं दिखाया जा सकता है। किसी भी स्टिंग ऑपरेशन को करना या दिखाना देशहित में नहीं होगा यानी हॉकी फेडरेशन के जिस स्टिंग ऑपरेशन से केपीएस गिल का पत्ता कटा और हॉकी का भला हुआ वह भी नहीं दिखाया जा सकता है। एनएसजी के शहीद उन्नीकृष्णन के खिलाफ केरल के मुख्यमंत्री अच्युतानंदन की प्रतिक्रिया को दिखाने से पहल भी सरकार की इजाजत लेनी होगी। यानी वामपंथी सरकार के समर्थन से कहीं सरकार चलेगी तो इजाजत मुश्किल है और कही किसी क्षेत्रीय दल का समर्थन केन्द्र में हुआ तो राज्य में उसके खिलाफ की खबर देशहित से जुडी हो सकती है। यहां इस तरह की खबरों को नही दिखाने का मतलब है, दिखाने से पहले सरकार की इजाजत लेनी होगी। देशहित में क्या है, यह एक ऐसा नौकरशाह परिभाषित करेगा और पत्रकारों के खिलाफ एक ऐसे अधिकारी को कार्रवायी करने का अधिकार होगा जो सरकार पर किसी आंच की संभावना को भी अपराध मानते है।
यानी उस वक्त इस आंच का कैनवास ठीक उसी तरह खबरो को घेरे में लेगा जैसा करीब तेरह-चौदह साल पहले दूरदर्शन और मेट्रो पर बीस मिनट का "आजतक" , आधे घंटे का" द वर्ल्ड दिस वीक "और पैतालिस मिनट का "द फर्स्ट एडिशन" दिखाया जाता था । हर खबर और फुटेज की मॉनेटरिंग होती थी । एनओसी सर्टीफिकेट मिलने के बाद ही इन्हे प्रसारित किया जाता। लेकिन उस दौर और अभी में अंतर यह आया कि तब न्यूज विद व्यूज के मद्देनजर नौकरशाह न्यूज पर नजर रखते...कि कहीं न्यूज को तोड़-मरोड़ कर व्यूज के अनुकूल तो कोई नहीं कर रहा। सरकार से इतर विपक्ष या किसी दूसरे राजनीतिक दल को न्यूज कार्यक्रम के जरिए मदद तो नहीं दी जा रही । या सरकार के खिलाफ कुछ ऐसा तो नहीं जा रहा जो इसकी इमेज को खलनायक सरीखा बना दें।
हालांकि जब प्रसार बारती के सीइओ केपीएस गिल बने तो उन्होंने एक मीटिंगं में सिर्फ इतना कहा कि यह कैसे परिभाषित होगा कि मैं आजतक बनाने वाले अरुण पुरी से ज्यादा बडा देशभक्त हूं। या उनकी देश भक्ति पर उंगली उठाने वाला मैं कौन होता हूं। बस उस दिन से एनओसी सर्ट्रिफेकेट का सिलसिला खत्म हो गया। उस समय दूरदर्शन समय बेचा करता था और न्यूज प्रोग्राम बनाने वाले अपने खर्चे विज्ञापन जुगाड़ कर पूरा करते। यानी कार्यक्रम बनाने वाले पर सरकार की नजर रहती और सरकार कहीं ज्यादा तो नहीं मांग रही इसपर मीडिया की नजर रहती।
लेकिन आर्थिक सुधार ने जब मुनाफे को ही समूची नीतियों का मूलमंत्र बना दिया । तो न्यूज चैनल क्या दिखाये और कैसे दिखाये इसपर कोई मॉनेटरिग नहीं हुई क्योकि सरकार की नीतियों ने भी इस दौर में कल्याणकारी राज्य की जगह एक तबके को मुनाफा देने और खुद पूंजी बटोरने की नीतियो को ही अमल किया। नागरिकों को लेकर कोई जिम्मेदारी राज्य की बची तो वह गरीबी की रेखा से नीचे वालो को दो जून की रोटी का जुगाड़ करवाना या राशन कार्ड-टैक्स कार्ड या वीजा देना था। सरकार ने शिक्षा-स्वास्थ्य-साफ पानी-नौकरी-घर-सुरक्षा सभी कुछ निजी हाथो में सौपकर मुक्ति पा ली।
तो जाहिर है आम लोगों की रुचि भी सरकार और नेताओं में खत्म होती गयी। इस मर्म को न्यूज चैनलों ने पकड़ा। बिजनेस के लिये दिखाया वही जा सकता है जिसे लोग-बाग देखना चाहते है। खबरों का मतलब कहीं ना कहीं जिम्मेदारी को निभाना है....लेकिन जब राज्य नीति ही किसी भी जिम्मेदारी से मुक्ति पा कर मुनाफा कमाने की थ्योरी को विकास माने तो न्यूज चैनलों की क्या बिसात की वह मिशन पत्रकारिता करने लगे। आम लोगो के दर्द को समझने लगे।
ऐसे में यह बात भी उभरी कि अगर सेंसर लग जाये तो ज्योतिषशास्त्र से लेकर भूत-प्रेत दिखाने की चांदी हो सकती है। बंदर और कुत्ते की यारी से लेकर अंडरवर्ल्ड का नाम लेकर कोई भी दशको पुराना टेप हो या सनसनाहट पैदा करता अपराध हो या फिर प्रेम के सपनीले किस्से का नाट्य रुपातरंण सबकुछ खबरों के नाम पर दिखाया जा सकता है, इसके लिये सरकार की इजाजत की जरुरत नहीं होगी क्योंकि यह देशहित के खिलाफ नहीं है।
आपके दिमाग में भी यहां सवाल यही उभरेगा कि अगर सेंसर इन स्थितियों पर रोक नहीं लगाता तो न्यूज चैनलों को दर्द किस बात का था । क्योकि सेंसर यह तो कह नहीं रहा कि आप खबर ही दिखाये। इसका पहला जबाव तो यही है कि जिस तरह सभी राजनेताओं को एक रंग में नहीं रंगा जा सकता, ठीक उसी तरह सभी न्यूज चैनलों को भी एक तरह नहीं देखा जा सकता । और दूसरा जबाब यह है कि जो संसदीय राजनीति आर्थिक सुधार की गलियों में खोकर देश के बहुसख्यक तबके का भरोसा खो चुकी हैं और राजनेता जनता के निशाने पर है , उसी तरह मुनाफे के मंत्र में मीडिया भी लोकतंत्र के चौथे खम्भे होने का भरोसा न खो दे और जनता के निशाने पर संपादक ना आ जाये। और अगर मीडिया पर से जनता का भरोसा टूटा तो राजनीति किस माध्यम से खुद को लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण औजार कह पायेगी । जाहिर है 16 जनवरी की मुलाकात के बाद संपादकों की खुशी और प्रधानमंत्री की कहीं ज्यादा खुशी के पीछे का सच यही लगा कि सेंसर के बहाने ही सही अगर चैनलों के संपादको को लगा कि वह पत्रकार है तो मनमोहन सिंह को भी लगा कि वह भी पॉलिटीशियन हैं। इसीलिये दोनो खुश हैं।
Tuesday, January 13, 2009
स्लमडॉग मिलेनियर से मार्केटडॉग मिलेनियर तक
वहीं "मार्केटडॉग मिलेनियर" का सच उस हकीकत से रुबरु होना है, जिसमें सबकुछ पाने के लिये समाज-देश किसी को भी बेचा जा सकता है। चकाचौंध की आगोश में खोया जा सकता है और राज्य नीतियों के तहत "मार्केटडॉग" जगह बनाता है। "स्लमडॉग मिलेनियर "का खेल कौन बनेगा करोड़पति के खेल से शुरु होता है, जिसमें संयोग से मुबंई का एक चायवाला जमाल करोड़पति बनने की कुर्सी पर आ गया है। अनिल कपूर खेल के नियम समझा कर सवाल पूछने का सिलसिला शुरु करते हैं और हर सवाल 18 साल के चायवाले को उसकी बीती जिन्दगी में ले जाता है। जहां से उसे हर सवाल का जवाब मिलता है। लेकिन इस खेल में चायवाले को आखिरी सवाल का जबाब देने से पहले की रात और उससे पहले पूछे गये सवालो के दिन के बीच पुलिस थाने में थर्ड डिग्री झेलते हुये हर सही जबाब देने की कहानी पुलिस वाले को बतानी पड़ती है, जिससे पुलिस को भरोसा हो जाये कि झोपड़पट्टी से निकला चायवाला बिना किसी गड़बड़ी के दो करोड़ जीत रहा है।
लेकिन इस फिल्म को जानने से पहले "मार्केटडॉग मिलेनियर "यानी सत्यम के पूर्व चेयरमैन रामालिंगा राजू के खेल को समझना चाहिये । सत्यम का डूबना और उसके चेयरमैन रामलिंगा राजू का खेल बाजार अर्थव्यवस्था का अक्स है । 70-80 के दशक के जिस दौर में आंध्रप्रदेश के खेत-खलिहान में नक्सलवाद पनप रहा था, उस दौर में राजू के पिता आंध्र के पूर्वी गोदावरी के एक छोटे से गांव में खेती-किसानी के जरिए समूचे गांव का पेट भर रहे थे। नक्सलियों की नजर में राजू का परिवार जमींदार था जिनसे इलाके के मजदूरों के लिये नक्सली वसूली करते थे। राजू इसी माहौल को देखते हुये निकला। इसलिये पढ़ाई पूरी करने के बाद राजू ने गांव और खेती को पूरी तरह खारिज कर दिया। राजू ने जब शहरी धंधों के जरीये जिन्दगी को आगे बढ़ाने की सोची, उस दौर में धंधे के तौर पर खेती बाजार भाव से भी और राजनीति से भी चूकने लगी थी। पिता की मौत के बाद गांव में पिता की एक आदमकद मूर्ति लगवाकर राजू ने गांव की जमीन को बेच कर अपनी साख बाजार में बनायी। वैसे, गांव के कुछ लोग इसका उलट भी कहते है कि शहर में साख जमी तो पिता की आदमकद मूर्ति गांव में लगी। लेकिन ट्रैक्टर बेचने से लेकर इंवेट प्लानिंग तक का काम नहीं चला। या कहें खेती ने राजू के परिवार को जो मान्यता गांव में दिलायी थी, उस मान्यता पाने जैसा का भी कोई धंधा नहीं चला। आंध्र की राजनीति में एनटी रामाराव ने जब तेलांगना में सक्रिय नक्सलियों को अन्ना कहा तो संयोग से पूर्वी गोदावरी और करीमनगर ही दो ऐसे जिले थे जो सबसे ज्यादा नक्सलियों के प्रभाव में आये। करीमनगर में ही पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव का घर है। उसी दौर में राजू का नाता अपने गांव से टूटा । या कहे गांव में नक्सलियों की पैठ और राजनीतिक मान्यता ने राजू को राजनीति का महत्व समझा दिया। इस समझ ने राजू को धंधा चमकाने में भी राजनीति की शिरकत समझा दी। यहां से राजू का "मार्केटडॉग मिलेनियर" का खेल शुरु होता है।
वहीं दूसरी तरफ फिल्म स्लमडॉग मिलेनियर में करोड़पति बनने की कुर्सी पर बैठे जमाल की कहानी मुंबई की उस झोपडपट्टी से शुरु होती है जो छत्रपति अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से सटा है । और गेंद-बल्ला खेलने तक के लिये हवाई अड्डे की जमीन पर ही जाना पडता है। इस जीवन को जीता जमाल और उसका भाई सलीम महज चार-पांच साल की उम्र में ही जिन्दगी के हर दर्द को देखते भोगते है । रोजमर्रा की न्यूनतम जरुरतों से लेकर सपने संजोने तक की त्रासदी को देखते-समझते हुये जमाल-सलीम दंगों में अपनी मां की मौत और फिर बिना मां-बाप के जीने की खुरदुरी जमीन को भोगते हैं । जिसमें भीख मंगवाने के लिये आंखे निकालने के माफिया से लेकर दो-चार रुपये के धंधे का बोझ शामिल है। लेकिन जिन्दगी के एक मोड़ पर जब दुबारा सामने आंख निकाल कर भीख मंगवाने वाले माफिया से सामना होता है तो सलीम उसकी हत्या कर जब अपनी,अपने भाई और उसकी बचपन की साथी लतिका का जीवन बचाता है, जिसने बचपन में दंगो में मां-बाप को खो दिया था तो सलीम का जन्म "स्लमडॉग मिलेनियर" के तौर पर होता है क्योकि अब उसकी पहचान माफियाओं के बीच एक पहचान के साथ हुई थी । और माफिया का खेल उसे कैसे आगे बढा सकता है इसे सलीम बाखूबी समझता है।
वहीं "मार्केटडॉग मिलेनियर" यानी रामलिंगा राजू 1987 में साफ्टवेयर का धंधा सत्यम कम्पयूटर के नाम से खोलता है । राजनीति से पहली करीबी उसकी सत्यम को खोलते वक्त ही होती है । उसी साल नक्सली संगठन पीडब्लुजी आंध्र के सात विधायको का अपहरण कर अपनी पकड़ मजबूत बनाता है । अपहर्त विधायकों में पूर्वी गोदावरी का भी एक विधायक शामिल था। रामालिंगा राजू सत्यम के जरीये पहली बार सरकार को सर्विस देने का कंसल्टमेंट हासिल करते है । संयोग से भारतीय राजनीति में राजीव गांधी की आकस्मिक मौत के बाद आंध्रप्रदेश के पीवी नरसिंह राव प्रधानमंत्री बनते हैं। देश में आर्थिक सुधार का दौर शुरु होता है। पूंजी को लेकर सीमा टूटनी शुरु होती है तो बाजार को लेकर भारतीय घंघेबाजों के लिये सुनहरा दौर शुरु होता है। तकनीक और कम्प्यूटर की दस्तक भारतीय बाजार में इसी दौर में होती है और सत्यम कम्पयूटर के लिये अमेरिका का बाजार सर्विस देने के नाम पर खुलता है । जिसमें अचानक पंख तब लगते है, आर्थिक सुधार के नाम पर ट्रैक-1 और ट्रैक-2 के जरीये दिल्ली की हर सरकार मान्यता देती चली जाती है और कम्पयूटर सेवी चन्द्रबाबू नायडू के जरीये हैदराबाद इस सेक्टर का अड्डा बन जाता है। राजू इस बढ़ते बाजार के असल राही साबित होते है । चन्द्रबाबू के प्रिय हो चुके राजू एकमात्र प्रोफेशनल के तौर पर बिल गेट्स के साथ हैदराबाद के मंच पर भी नजर आते हैं । फैलते सत्यम के करोबार में जमीन का नया धंधा राजू ही शुरु करते हैं । राजनीति से यारी उन्हें जमीन खरीदने में मदद करती है। इसी दौर में हैदराबाद की कीमत जमीन के जरीये दिन दुगुनी रात चौगुनी बढ़ती है। मुनाफे में मुख्यमंत्री तक की हिस्सेदारी और जमीन के जरीये नयी राजनीति की शुरुआत चन्द्रबाबू नायडू से शुरु होती है तो सत्ता बदलने के बाद भी नहीं रुक पाती। कांग्रेस के वाय एस आर रेड्डी के दरबार में नायडू के यारों की आवाजाही रुकती है लेकिन राजू यानी सत्यम के लिये दरवाजे खुले रहते हैं । इसकी एवज में राजू का कौन सा सौदा वायएसआर तक पहुचा, यह आंध्र की राजनीति में आज भी सस्पेंस है ।
इस दौर में देश - दुनिया के सामने रामालिंगा राजू यानी सत्यम कारपोरेट जगत का कोहिनूर साबित होता है । 2002 से लेकर 2008 तक के दौरान जहां राजू की डेवलपमेंट कंपनी मारयेट्स के पास राज्य की सबसे ज्यादा जमीन पर मालिकाना हक होता है वहीं इस दौर पर कारपोरेट जगत के हर सम्मान से राजू और सत्यम को नवाजा जाता है। वहीं दूसरी तरफ फिल्म स्लमडॉग मिलेनियर में सलीम माफियाओं के बीच पहचान बनाता है। करोडों का मालिक होता है, वहीं जमाल अपने भाई से अलग होकर एक बीपीओ कंपनी वालो के बीच चाय बेचता है। संयोग से एक दिन झटके में एक टेलिफोन ऑपरेटर कुछ देर के लिये उसे बैठा बाहर जाता है। उसी वक्त जमाल जहां अपने भाई सलीम को फोन पर खोज निकालता है वहीं उसकी लाईन मिलेनियर के खेल से जुड़ जाती है और जमाल जा पहुंचता है करोडपति बनाने वाली कुर्सी पर। लेकिन, यहीं से हर खेल पलटता है। सलीम के साथ रह रही लतिका की चाहत मन में लिए जमाल माफियाओं के बीच पहुंच जाता है जबकि "मार्केटडॉग मिलेनियर" रामालिंगा राजू के सबकुछ पाने की चाहत गलत तरीके से उसे हैदराबाद की मेट्रो योजना का टेंडर दिला देती है। लेकिन टेंडर को लेकर इतना बवाल मचता है कि मेट्रो के चीफ श्रीधरन हैदराबाद योजना को लेने से साफ इंकार कर देते हैं। "मार्केटडॉग मिलेनियर "राजू के लिये यह सबसे बडा झटका साबित होता है । एक तरफ पैसा जमीन में फंसा है तो दूसरी तरफ साढे बारह हजार करोड़ की मेट्रो योजना अधर में लटकती है । वहीं इसी वक्त सत्यम को अमेरिका ब्लैक लिस्टेड कर देती है । जबकि "स्लमडॉग मिलेनियर" सलीम इसी वक्त अपने भाई का साथ देता है और माफियाओं के चंगुल से छुडाकर लतिका को जमाल के पास भेज देता है।
यह वही लतिका है जिसको पनाह जमाल-सलीम यह कह कर अपने घर में देते हैं कि वे दो से तीन मस्केटियर हो जायेंगे। तीन मस्केटियर का किस्सा स्कूल में जमाल ने पढ़ा था और संयोग से फिल्म में अनिल कपूर भी आखिरी सवाल तीन मस्केटीयर को लेकर ही पूछते हैं, जिसे सुनते ही सलीम के चेहरे पर हंसी की एक पतली सी लकीर उभरती है। और वह जान जाता है कि "स्लमडॉग मिलेनियर" बन चुका है। लेकिन, वह अपने भाई सलीम से बात करने के लिये फोनो फ्रेंड का रास्ता चुनता है। उधर इसी वक्त शुरु से बना "स्लमडॉग मिलेनियर" सलीम का अंत उन्हीं नोटो के बीच होता है, जिस रास्ते पर चल वह माफिया बना । दूसरे माफिया उसे गोलियों से भून डालते हैं। इधर जमाल तीन मस्केटियर का जबाब देकर "स्लमडॉग मिलेनियर" बनता है । और संयोग से "मार्केटडॉग मिलेनियर" रामालिंगा राजू का अंत उसके अपने उस ऐलान से होता है जहां वह खुद को फ्रॉड कहने से नहीं चूकता। असल में "मार्केटडॉग मिलेनियर" राजू की यहां से नयी शुरुआत हो रही है क्योकि वह उस व्यवस्था का प्रतीक है, जिसे राज्य ने अपना माना है । और खुद की असफलता छुपाने के लिये राजू को न्यायिक हिरासत में भेजकर सत्यम को फिर से उबारने का काम भी वहीं राज्य कर रहा है ।
फिल्म "स्लमडॉग मिलेनियर "हिट है । अमेरिका में चार गोल्डन ग्लोब अवार्ड जीते हैं । फिल्म आस्कर की दौड़ में है । स्लमडॉग मिलेनियर मुबंई में रहने वाले एक डिप्लोमेट के उपन्यास पर आधारित फिल्म है जबकि मार्केटडॉग मिलेनियर अमेरिकी बाजारवाद पर मनमोहन सिंह की लगी मुहर है। इसलिये "मार्केटडॉग मिलेनियर" का खेल जारी है, क्योकि यह फिल्म नही हकीकत है। अब तय आप किजिये "स्लमडॉग मिलेनियर" फिल्म देखियगा या "मार्केटडॉग मिलेनियर" बनियेगा।
Friday, January 9, 2009
किससे लड़ें - पाकिस्तानी आतंकवाद से या देशी राजनीतिक आतंकवाद से
इंदिरा गांधी होतीं तो पाकिस्तान के आतंकवादी कैपों पर 28 नवबंर को ही हमला बोल देतीं। मुंबई हमलों में आतंवादियों को मार गिराये जाने की खबर के साथ ही दुनिया तब पाकिस्तान के खिलाफ भारत की सैनिक कार्रवाई की खबर सुनता। लेकिन देश में लीडरशीप है नहीं तो घुडकी का अंदाज भारत की कूटनीति का हिस्सा बना हुआ है। समूची कूटनीति का आधार देश के भीतर बार बार यही संकेत दे रहा है कि चुनाव होने है...उससे पहले सरकार बांह चढाकर आम वोटरों की भावनाओं में राष्ट्रप्रेम का चुनावी संगीत भरना चाहती है...समूची कवायद इसी को लेकर हो रही है।
करगिल के जरिए जो काम एनडीए सरकार कर सत्ता में बनी रही, वैसा ही कुछ यूपीए सरकार भी करके सत्ता में बने रहने के उपाय ही करना चाह रही है। दरअसल, यह सारी सोच आम जनता के बीच चर्चाओं में जमकर घुमड़ रही है। पहली बार देशहित या राष्ट्रप्रेम को भी चुनावी रणनीति में लपेट कर कूटनीति का जो खेल खेला जा रहा है, उससे यह तो साफ लगने लगा है कि राजनीति अपने सत्ता प्रेम को पारदर्शी बनाने से भी नही कतराती। और जनता हाथों में हाथ थाम कर या मोमबत्ती जलाकर ही अपने आक्रोष को शांत करना चाहती है। टेलीविजन स्क्रीन पर वाकई रंग-रोगन कर तीखी बहस के जरिए देश पर हमले का जबाब देने को उतारु है।
जाहिर है इन सभी के पेट भरे हुये है और सुरक्षित समाज में सत्ता के करीब रहने का सुकून हर किसी ने पाला है तो युद्दोन्माद की स्थिति बरकरार रख जीने का सुकून सभी चाहने लगे हैं। सरकार से इतर बाकि राजनीतिक दल क्या कर रहे हैं, यह कहीं ज्यादा त्रासदी का वक्त है। जो आरएसएस
1961 में चीन युद्द के दौरान जनता और सेना का मनोबल बढाने के लिये समाज के भीतर और सीमा पर सैनिकों के साथ खड़ा हो गया था, वह अब इस मौके पर आडवाणी की ताजपोशी की रणनीति बनाने में जुटा है। चीन युद्द के दौर में भारतीय सैनिकों के पास गर्म जुराबे तक नहीं थीं। हाथ में डंडे और दुनाली से आगे कोई हथियार नहीं था। उस वक्त आरएसएस गर्म कपड़े सैनिको में बांटा करता था। समाजवादी और लोहियावादी नेता नेहरु-मेनन की नीतियो के खिलाफ खुले रुप में खड़े हो गये थे। मेनन को तभी नेहरु ने हटाया भी। चीन को लेकर उस दौर में समाजवादी-लोहियावादी नेहरु की वैदेशिक नीति के खिलाफ थे। उसी विरोध के बाद लाल बहादुर शास्त्री ने वैदेशिक नीति में अंतर लाया। वहीं अब खुद को समाजवादी-लोहियावादी कहने वाले सरकार से राजनीतिक सौदेबाजी का हथियार भी राष्ट्रहित को बनाने से नही चूक रहे।
हां, अभी के वामपंथियो को लेकर अच्छा लग सकता है कि वह किसी भूमिका में नहीं है । क्योंकि चीन युद्द के दौरान वामपंथी सीमा पर रहने वाले लोगो को राहत देने के लिये पार्टी सदस्य बनाकर कार्ड होल्डर बना रहे थे और कह रहे थे जब चीनी सैनिक आयें तो उन्हे यह लाल कार्ड दिखा दें, जिससे वामपंथी होने के तमगे पर उन्हे कोई कुछ नही कहेगा। असल में पाकिस्तान को लेकर कौन सी कूटनीति अब अपनायी जा रही है, जिसमें अमेरिका के बगैर भारत कुछ कर नही सकता और जबतक चीन पाकिस्तान के साथ खडा है अमेरिका कुछ कह नहीं सकता ।
26 नबंबर 2008 यानी मुबंई हमलो के बाद के सवा महिनों में अमेरिका और चीन की सक्रियता भी गौर करने वाली है । हमलों के तुरंत बाद अमेरिकी विदेश मंत्री कोडलिजा राइस ने दिल्ली होते हुये इस्लामाबाद की यात्रा की । बचते-बचाते जिस तरह के बयान राइस ने दिये, उसमें दिल्ली यात्रा के दौरान भारत खुश हो सकता है और इस्लामाबाद यात्रा के दौरान पाकिस्तान को थर्ड पार्टी के होने की गांरटी मिल सकती है। यानी अमेरिकी हरी झंडी के बगैर भारत कुछ नहीं करेगा उसके संकेत राइस ने इस्लामाबाद यात्रा के दौरान ही दे दिया । लेकिन अमेरिकी कूटनीति की जरुरत पाकिस्तान है, इसलिये राइस के बाद अमेरिकी मंत्रियो और अधिकारियो की यात्राओं का सिलसिला थमा नहीं। जान मैकेन भी इस्लामाबाद पहुचे और सुरक्षा अधिकारियो के लाव-लश्कर के अलावा अमेरिकी रक्षा टीम ने पाकिस्तान का दौरा किया। हर यात्रा के बाद यही रिपोर्ट अमेरिकी मिडिया में निकल कर आयी कि भारत और पाकिस्तान के बीच सैनिक कार्रवाई की छोटी सी भी शुरुआत अमेरिका के 9-11 के बाद की पहल को खत्म कर देगी । जो अफगानिस्तान के भीतर और बाहर पाकिस्तान के सहयोग से नाटो फौजें कर रही हैं । पाकिस्तान के लिये भी कूटनीतिक सौदेबाजी में अमेरिका की कमजोरी से लाभ उठाना है। और उसने उठाया भी। भारत किसी तरह की सैनिक कार्रवाई नहीं करेगा । सिर्फ घुडकी देते रहेगा...तभी अल-कायदा और कट्टरपंथी कबिलायियों के खिलाफ पाकिस्तान की फौज नाटो को मदद जारी रख सकती है। लेकिन पाकिस्तान की रमनीति यहीं नहीं रुकी । जिन कबिलायी गुटों ने पिछले तीन महिनों से सीजफायर किया हुआ था, उन्होंने दुबारा युद्द का ऐलान कर दिया। पाकिस्तान के दौरे पर पहुंचे अमेरिकी सेक्रेटरी आफ स्टेट रिचर्ड बाउचर के सामने पाकिस्तान ने इससे पैदा होने वाली परेशानी को रखा।
बलूचिस्तान में सक्रिय विद्रोही कबिलाइयों को लेकर 2 दिंसबर को पहली बार पाकिस्तान के सेना प्रमुख असफाक कियानी ने यही कहा था कि कबिलाईयो के साथ तो बातचीत कर उन्हे समझाया जा सकता है लेकिन भारत ने किसी तरह की सैनिक पहल की तो पाकिस्तान की एक लाख फौज तत्काल एलओसी पर तैनात कर दी जायेगी । बाउचर ने पाकिस्तान की पीठ सहलायी और राष्ट्रपति जरदारी ने यह कहने में कोई देर नहीं लगायी कि रिचर्ड बाउचर की वजह से अमेरिका के साथ पाकिस्तान के द्दिपक्षीय संबंध खासे मजबूत और विकसित हुये है, इसलिये हिलाल-ए-कायदे-आजम सम्मान बाउचर को दिया जायेगा । महत्वपूर्ण है कि यह वही वाउचर हैं, जिन्हे अमेरिका के साथ भारत के परमाणु डील होने के बाद पाकिस्तान में ही यह कहते हुये लताडा गया था कि वह पाकिस्तान के हित को अनदेखा कर भारत के पक्ष में ही रिपोर्ट तैयार करते हैं। वहीं इस दौर में भारत और अमेरिका किस रुप में नजर आये इसका नजारा अबतक की सबसे बडी हथियारो की डील के जरीये सामने आया । नौसेना के लिये भारत ने अमेरिकी प्राइवेट कंपनी के साथ आठ मेरीटाइम एयरक्राफ्रट खरीदेने पर हस्ताक्षर किये । 600 नाउटीकल मील तक मार करने वाले इस एयरक्राफ्रट की पहली डिलीवरी चार साल बाद होगी और सभी एयरक्राफ्रट 2015-16 तक मिलेगे । लेकिन महत्वपूर्ण यह नही है , ज्यादा बड़ा मामला आर्थिक मंदी के दौर में इस सौदे की रकम है जो 2.1 बिलियन डालर की है । यानी दस हजार करोड़ की रकम का मामला है। ये रकम चार किस्तों में भारत देगा। अमेरिका के लिये कूटनीति का यही पैमाना भारत और पाकिस्तान को अलग करता है। पाकिस्तान दुनिया के पहले तीन देशो में आता है, जिनका सैनिक बजट सबसे ज्यादा है । जीडीपी का करीब साढे सात फिसदी । लेकिन पाकिस्तान के हथियारों की पूंजी उसके अपने विकास से नहीं जुड़ती बल्कि अमेरिका-चीन और अरब देशो के साथ कभी रणनीति तो कभी कूटनीतिक आधार पर पूंजी समेटने के आधार पर जुड़ती है। वहीं भारत का हथियारो पर खर्च उसके अपने विकसित होते पूंजीवादी परिवेश से निकलता है।
सरल शब्दो में अपनी कमाई का हिस्सा भारत को हथियार पर लगाना है और पाकिस्तान को कमाई के लिये हथियार खरीदने की स्थिति बनानी है। अमेरिका के साथ चीन की सक्रियता भी मुबंई हमलो के बाद समझनी होगी । चीन के उप विदेश मंत्री हे याफी दिल्ली पहुंचने से पहले इस्लामाबाद में थे । दिल्ली में उन्होंने पाकिस्तान को सौंपे गये सबूतो को लेकर या आतंकवादी हिंसा को लेकर कुछ भी कहने से साफ इंकार कर दिया । सिर्फ आर्थिक सुधार के मद्देनजर दोनो देशो के संबंधो पर चर्चा की । लेकिन इस्लामाबाद पहुंचते ही याफी ने साफ कहा कि पाकिस्तान खुद दोहरे आतंकवाद से जुझ रहा है,अल-कायदा और कट्टरपंथियो की हिंसा से। इसलिये दुनिया को पहले पाकिस्तान को आतंकवाद से मुक्ति दिलाने का प्रयास करना चाहिये। जाहिर है चीन की कूटनीति भारत को उस दिशा में ले जाना चाहती है जहां पाकिस्तान अमेरिका के करीब आये और अमेरिक की कूटनीति भारत को चीन से दूर ले जाती है। इन परिस्थितयों में भारत आतंकवाद के घाव से कैसे बचेगा और आतंकवाद से सही ज्यादा खतरनाक जब देश की संसदीय व्यवस्था में सत्ता का जुगाड़ हो जाये तो पहले किस आतंकवाद से कैसे लड़ा जाये पाकिस्तानी आतंकवाद या देशी राजनीतिक आतंकवाद से ।
Friday, January 2, 2009
नये साल में फिर लगाएं नारा – लोकतंत्र ज़िंदाबाद
तो साल नया है। उम्मीदे चाहें जो हो लेकिन नज़रे सभी की आम चुनाव पर ही हैं। क्योंकि चुनाव का मतलब देश में रोजगार का सबसे बड़े धंधे का खेल है। जिसमें अरबों के वारे-न्यारे झटके में हो जाते है और देश नारा लगाता है चुनावी लोकतंत्र जिन्दाबाद। क्योंकि चुनावी राजनीति में जीत ही अगर देश के लोकतंत्र और संविधान की जीत है तो पांच राज्यों के चुनाव परिणाम में लोकतंत्र की राजनीतिक तानाशाही का अक्स छुपा है, यह भी अब खुलकर उभर रहा है। यह माना गया कि आतंकवाद को लेकर बीजेपी की राजनीति कांग्रेस के कुछ ना करने के सामने हार गयी। यह माना गया कि विकास का ढिढोरा न्यूनतम जरुरतों के सामने हार गया। यह माना गया कि महंगाई का दर्द नेताओ के लाभ भरे भरोसे के सामने हार गया। अगर यह सब हुआ है तो चुनावी लोकतंत्र को पूंछ से नही सूंड से पकड़ें।
छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा माना जाता है। लेकिन यहां विकास की परिभाषा की लकीर इतनी छोटी है कि तीन रुपये चावल उपलब्ध कराने का ऐलान कर जीत के लिये चावल वाले बाबा का शब्द ‘मुख्यमंत्री’ पर भारी पड़ गया । जिन इलाको में तीन रुपये चावल करीब चालीस लाख परिवारों को मिलने का दावा किया गया है वह इलाका खनिज संपदा से भरा पड़ा है। अगर विकास की लकीर यहां जनता के अनुकूल खींच दी जाये तो समूचे इलाके में यानी करीब सात जिलो में चावल दस रुपये किलो बेच कर राज्य के खजाने पर बिना कोई बोझ डाले हुये भी इन्हीं चालीस लाख परिवारो को रोजगार और पैसा दोनों दिलाया जा सकता है। यानी किसी भी राज्य को चलाने की जो आर्थिक व्यवस्था होती है, उसे लागू किया जा सकता है।
लेकिन यहां की बीस से पच्चीस हजार करोड़ से ज्यादा की खनिज संपदा कौडियों के मोल देशी विदेशी उधोगपतियों को दी गयी, जिसकी एवज में राजनीतिक सत्ता को मुनाफे के तौर पर दस से बारह फीसदी मिले और राज्य के खजाने में गये महज तीन फीसदी। अगर यहां विकास की सही लकीर मुनाफे की जगह कल्याणकारी राज्य की समझ के मुताबिक खींची जाये तो अनुमान के मुताबिक पचास हजार करोड़ से ज्यादा का मुनाफा राज्य के खजाने को सिर्फ प्रकृतिक संपदा के जरीये हो सकती है ।
लेकिन चुनावी लोकतंत्र में पांच सौ करोड़ का चावल सब पर भारी पड़ जाता है । चुनावी जीत का मतलब सलवा जुडुम को ना सिर्फ मान्यता मिलना है बल्कि नक्सली हिंसा से प्रभावित आदिवासियों के हाथो में हथियार थमाना भी सही है। चुनावी लोकतंत्र में सुरक्षा के लिये खुद ही हथियार लेने की थ्योरी उस राज्य व्यवस्था को ही खारिज कर रही है, जो बताती है कि कानून के दायरे में हथियार से मुकाबला करना राज्य पुलिस और सुरक्षाकर्मियो का काम है।
जाहिर है कोई सत्ता सुरक्षा न देने के नाम पर खुद सुरक्षा के लिये हथियार उठाने का नायाब प्रयोग कर अपना वोटबैक बनाकर चुनाव जीत सकती है। यह चुनावी लोकतंत्र की जीत है। दुनिया भर के पच्चीस नोबल विजेताओं की नक्सलियो के हिमायती विनायक सेन को जेल से बाहर निकालने की मांग भी चुनावी लोकतंत्र के आगे हार गयी। राजनीति का पाठ तो यही कहता है कि विनायक मानवाधिकार कार्यकर्त्ता होते तो सत्ताधारियों को हार मिलती। तब तो संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को फांसी देने की मांग बेमानी है । दिल्ली में जब चुनाव प्रचार का आखरी दिन था, उस वक्त मुंबई आंतकवादी हमलों से लहूलुहान थी। 27 नबंवर को दिल्ली के तमाम अखबारो में बीजेपी ने कांग्रेस पर आतंकवाद के सामने नतमस्तक होने का आरोप जड़ा और अफजल गुरु को फांसी तक न दे पाने की सोच को कांग्रेस का राजनीतिक परिहास करार दिया। दिल्ली की हर बड़ी सभा में बीजेपी के तमाम बड़े नेताओं ने अफजल का मामला उठाया। मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार वीके मल्होत्रा ने तो हर सभा में अफजल को लेकर ही बात शुरु की। लेकिन चुनावी लोकतंत्र के आगे संसद पर हमले के दोषी की फांसी की मांग हार गयी।
तो क्या अब बीजेपी यह मांग नहीं करेगी। रौशनी की चकाचौंध और फ्लाई-ओवर से लेकर पांच सितारा होटलों की जिंदगी को राहत देती दिल्ली में यमुनापार का नरकीय जीवन हार गया तो क्या पूर्वी दिल्ली की सात सीटों के छह लाख परिवार की न्यूनतम की जुगाड़ की मांग मायने नहीं रखेगी। बटला हाउस एनकाउंटर को लेकर कांग्रेस की कसमसाहट और शहीद पुलिसकर्मी को लेकर सवालो का घेरा सही है, तो क्या मान लिया जाये कि डेक्कन मुजाहिद्दिन का जुमला पुलिस ने गढ़ा। आजमगढ़ के सेक्यूलरवाद को घायल करने का काम एक सोची समझी रणनीति के तहत किया गया। बीजेपी ने समाज के ताने बाने को तार तार करने के लिये चुनाव के ठीक पहले राजनीतिक जुमले गढ़े। जिसकी हार हुई । दक्षिण दिल्ली में गाड़ीवालो की रफ्तार कम कर बीआरटी कारिडोर के जरिये आमलोगो की सार्वजनिक सवारी बस की रफ्तार को बढाने की जो थ्योरी शीली दीक्षित ने परोसी, क्या वह सही है। एक तरफ दिल्ली का मतलब रफ्तार और दूसरी तरफ न्यूनतम की लड़ाई । चुनावी लोकतंत्र का यह कौन सा समाजवाद है, जिसमें बीजेपी कॉरिडोर का विरोध करती है और यमुनापार के दर्द को उबारती है। वहीं कांग्रेस बीआरटी के साथ खड़ी होती है और मगज बीस लाख लोगों के लिये दिल्ली को पांच सितारा में बदलने का ख्वाब भी परोसती है। दिल्ली में लोगो की सुरक्षा दिल्ली सरकार नही कर सकती है इसलिये पूर्ण राज्य का दर्जा की मांग ही बेमानी है। इसे दस साल से सत्ता में बैठी शीला दीक्षित ने माना और लोगों ने हाथो हाथ ले लिया। जबकि, बीजेपी ने उलट राग दिया कि जो केन्द्र किसी को सुरक्षा नहीं दे सकता उसके पास दिल्लीवालो की सुरक्षा कैसे छोड़ी जा सकती है। बीजेपी ने पूर्ण राज्य की मांग चुनावी मैनिफेस्टो में रखा। वह चुनाव हार गयी। तो सुरक्षा केन्द्र ही देगा। लेकिन जहां राज्य ने सुरक्षा के बदले गोली दी उसका क्या होगा ।
राजस्थान में गुर्जरो पर आरक्षण की मांग को लेकर नौ बार गोलियां चलीं। सौ से ज्यादा परिवारों में मातम मना। किसी का बच्चा मरा, किसी का पति । लेकिन चुनावी लोकतंत्र के सामने गोली का दर्द मलहम में बदल गया। गुर्जर बहुल इलाकों में अस्सी फीसदी सीटों पर उसी महारानी को जीत मिली जो आंदोलन के दौर में बातचीत करने तक से तकराती रही। आंदोलन की हिंसा में रेलवे को सौ करोड़ से ज्यादा का चूना लगा और देश को दो हजार करोड़ से ज्यादा का । हांलाकि महारानी गद्दी गंवा बैठी लेकिन उसकी वजह कांग्रेस का लोकहित का नारा या खालीपेट को भरने के लिये कोई शिगूफा काम नही किया बल्कि चुनावी लोकतंत्र में जीत के लिये संगठन और साथी-प्रभावी नेता का दगा देना ही रहा। भैरोसिंह शेखावत से लेकर महेशप्रसाद तक और आरएसएस के संगठन का रुठना ज्यादा मायने रहा। राज्य के करीब छह दर्जन योजनाओ को पांच साल के दौर में अमली जामा पहनाने का जिम्मा महारानी ने उठाया। पूरा कोई नहीं हुआ । इन पर पचास लाख करोड़ का खर्च आंका गया। कितना खर्च हुआ वह तो पांच साल के बजट में भी उभर नहीं पाया लेकिन कांग्रेस की माने तो पांच हजार करोड़ से ज्यादा का घपला हुआ। यानी अलग अलग योजनाओं में भ्रष्टाचार की यह कीमत कांग्रेस ने लगायी। लेकिन यहां समझना ये भी होगा कि पांच साल पहले हुये चुनाव में कांग्रेस की सरकार पर बीजेपी ने कमोवेश इतने ही रुपये का घपला करने का आरोप उसके शासनकाल में लगाया था । तब सत्ता बदली और अब भी सत्ता बदली। इस इधर उधर के खेल में तीन साल पहले आयी बाढ़ का मुद्दा चुनावी लोकतंत्र तले दब गया। रेत के टीलो पर जिन्दगी बचाने वाले हजारों राजस्थानी परिवार यह समझ ही नही पाये कि अगर फिर पानी आ जाये तो बचने का उपाय क्या है।
राजनीतिक सहमति की डोर कैसे जिन्दगी लीलती है, यह जैसलमेर सरीखे जगहों पर बीजेपी-कांग्रेस के भाषणो में दिखा जो बताने को तैयार नही थे कि फिर बाढ आयेगी तो उससे बचने के उपाय वह पहले से कर देंगे। दोनो ने कहा भगवान ही जमीन पर आ जाये तो कोई क्या करे। रेगिस्तान की सरलता चुनावी लोकतंत्र तले कैसे हारी यह रोजगार मुहैया ना करा पाने और सत्ता में लौटने पर भी ना कर पाने की डोर में बीते दो दशक में बार बार उभरा । जातियो का दर्द कैसे लोगों को जुटा देता है और सबसे बडी सुरक्षा जातीय सुरक्षा होती है, जिसपर सत्ता का लेप चढ़ जाये तो मुनाफे के वारे-न्यारे किये जा सकते हैं, यह पाठ राजस्थान के चुनावी लोकतंत्र ने जतला दिया। लेकिन जातीय राजनीति का पाठ धर्म के आगे नतमस्तक हो तो क्या भी चुनावी लोकतंत्र की जीत होगी।
मध्य प्रदेश ने यह पाठ नये तरीके से पढ़ाया । पांच साल पहले बीजेपी की जो नेता भगवा पहन कर बीजेपी को सत्ता में लेकर आयी, पांच साल बाद वही उमा भारती खुद हार गयी। तो क्या पार्टी से बड़ा कोई नही होता है । अगर ऐसा हो तो इस चुनाव में दर्जनो निर्दलीय कैसे जीत गये। या फिर जिस राजधर्म का पाठ उमा भारती पढ़ा रही थीं, उसमें पांच साल में ही जंग लग गयी। इतना ही नही, उमा भारती के दौर में जो सीटें बीजेपी ने जीती थीं, उसमें से तीन दर्जन सीट शिवराज सिंह चौहान गंवा बैठे । लेकिन डेढ़ दर्जन कांग्रेस से उस दौर की झटक लीं, जो भगवा चादर ओढ कर उमा के साथ पांच साल जाने को बिलकुल तैयार नही थे। अब अगर चुनावी लोकतंत्र में नेता मायने रखता है तो मध्यप्रदेश में कभी दस साल तक कांग्रेस की कमान संभालने वाले दिग्गिविजय सिंह रायगढ की छह सीटे भी कांग्रेस की झोली में ना डलवा सके । कमलनाथ-सिंधिया-पचौरी का भी यही हाल अपने अपने जिले छिंदवाडा-ग्वालियर-भोपाल में हुआ। अर्जुन सिंह सरीखा शख्स भी अपने जिले की सिर्फ तीन सीटों पर ही कांग्रेस को जितवा सका। मध्यप्रदेश में पिछले पांच साल के दौर में ना सिर्फ प्रतिव्यकित आय में कमी आयी बल्कि देश के उन पिछड़े राज्यों की फेरहिस्त में आ गया, जहां पूरा भोजन सभी को नहीं मिलता। रोजगार के साधनों में बारह फीसदी तक की कमी आयी। आदिवासी बहुल छह जिलो में साफ पानी,पूरा खाना और काम तीनो से राज्य सरकार मुंह मोड़े हुये है। कुल बारह योजनाये इन इलाको के लिये बनी लेकिन पूरा होना तो दूर किसी योजना का असर आदिवासियों के जीवन पर नहीं है। उल्टे रोजमर्रा का जीवन और कमजोर हुआ है लेकिन वहां शिवराज ने चुनावी जीत हासिल की।
जाहिर है यह सवाल मिजोरम को लेकर भी उठ सकता है कि क्षेत्रिय समझ को खारिज कर कांग्रेस को जिता कर मिजोरम मुख्यधारा से जुड़ना चाहता है। आंदोलन के जरीये समाधान मुश्किल है। चुनावी लोकतंत्र के आगे मिजो आंदोलन बेमानी साबित हो गया है तो अब आंदोलन खत्म हो जाना चाहिये। जाहिर है चुनावी लोकतंत्र में जीत का मतलब सत्ता है और हार का मतलब कुछ भी नहीं। तो कुछ भी नहीं के सामने विकल्प क्या होंगे और सत्ता को कुछ भी करने की जरुरत क्या है। यह सवाल इसलिये जरुरी है कि महज नब्बे दिनो के बाद इसी तरह के मुद्दे समूचे देश के सामने तमाम राजनीतिक दल फिर उठा रहे होंगे। आम चुनाव लोकतंत्र का फाइनल होता है । तो नेता और मुद्दे भी आखिरी लड़ाई लड़ रहे होते हैं। यह माना जाता है कि उस वक्त की जीत देश की धारा तय करती है, लेकिन जब चुनावी लोकतंत्र ही देश की धारा से न जुड़ी हो तो क्या हम नारा लगा सकते है लोकतंत्र जिंदाबाद। लेकिन नये साल में सिर्फ और सिर्फ आपको यही कहना होगा चुनावी लोकतंत्र जिन्दाबाद।