Monday, January 19, 2009

सेंसर की कवायद : संपादक भी खुश, पीएम भी खुश

न्यूज चैनलों के संपादकों का एक समूह 16 जनवरी को जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलकर लौटा तो उनके चेहरों पर खुशी थी। न्यूज चैनलों पर शिकंजा कसने वाले नियम-कायदों को लागू न करने की सहमति पीएम ने दे दी थी। लेकिन पीएमओ के एक अधिकारी ने बताया कि संपादको से मुलाकात के बाद मनमोहन सिंह ज्यादा खुश थे। इस खुशी का खुलासा तो उस अधिकारी ने नहीं किया । लेकिन पीएमओ के कई अधिकारियो ने इसके कई संकेत जरुर दिये जो उसके बाद राजनीतिक गलियारों के खुसर-फुसर से मेल भी खाते गये।

कमोवेश सभी नेताओं को दिसंबर का पहला हफ्ता याद है। मुंबई हमलों के बाद दिसंबर में जिस तरह सरकार और नेताओं के खिलाफ मुंबई से लेकर दिल्ली और कोलकाता से लेकर हैदराबाद तक में लोगों का हुजूम सड़कों पर उतरा वह न्यूज चैनलों के जरिए करोड़ों घरों के ड्राइंग और बेड रुम में राजनीति और राजनेताओं के खिलाफ ज़हर उगलता रहा। दिसंबर भर देश भर के नेता और सरकार यही गुहार लगाते नजर आये कि चंद नेताओं के एवज में समूची राजनीति को कैसे खारिज किया जा सकता है। यहां तक की सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री बने उमर अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर की गद्दी संभालते ही जो पहला वाक्य कहा, वह यही था कि एक ही रंग में सभी राजनेताओं को जनता न रंगे और मीडिया न बताये।

दरअसल, उस वक्त न्यूज चैनलों से वो तमाम नेता गुहार लगा रहे थे कि आप इस तरह संसदीय लोकतंत्र को खारिज करने वाली सोच के बहाव में न बहें। लेकिन मामला करोड़ों लोगों की भावनाओं से जुड़ा था तो न्यूज चैनल कैसे चूकते। पत्रकारीय ईमानदारी और बिजनेस टीआरपी दोनो एकसाथ पहली बार उन्हीं न्यूज चैनलों को आम पब्लिक में मान्यता दिला रही थी जो इससे पहले भूत-प्रेत से लेकर बिना ड्राइवर के कार का खेल और भालू-बंदर के सर्कस समेत राखी सांवत और राजू श्रीवास्तव की हथेलियों में झूलते नजर आते थे। और उस समय इसी आम पब्लिक की प्रतिक्रिया खुलकर उभरती थी कि ऐसे चैनलों पर सरकार रोक लगाये।

जाहिर है मुंबई हमलों के बाद के माहौल ने देश को जिस सूत्र में पिरोया, उसमें चैनलों की भूमिका उन भावनाओं के जरिए बिजनेस दे रही थी, जो राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ जाती। असल में राजनीति का धंधा और न्यूज चैनलों का बिजनेस एकसरीखा है । लोगो की भावनाएं अगर नेता या सरकार के साथ है, तो सरकार डरती नहीं है और देखने वाले अगर न्यूज चैनलों को पंसद करते है या अपनी अभिव्यक्ति का आधार मानते है तो न्यूज चैनलों को डर नहीं रहता। लेकिन जिस दौर में न्यूज चैनल भटके अगर उस दौर को परखे तो सरकार भी भटकी हुई थी। सरकार की जो भी नीतियां बनीं उसमें बाजार अर्थव्यवस्था या आर्थिक सुधार का मुलम्मा इस तरह चढ़ा था कि देश के बहुसंख्य्क समाज से उसका कुछ लेना देना नहीं था। उस समय न्यूज चैनल हंसी-ठठ्ठे में इस तरह फंसे थे कि उन्हे चकाचौंध इंडिया में हर कोइ भरे पेट के साथ टीवी पर सपने और सर्कस देखने वाले ही लग रहे थे।

जाहिर है एक खास तबके भर की जरुरत पूरा करती सरकार और खबरों को मनोरंजन के साये में लपेटकर न्यूज बताने का चैनलों का तरीका उस समझ को पारंपरिक मानकर खारिज करने से नहीं चूक रहा था, जिसमें चैनलों पर जनहित के मुद्दों को उठाना या सरकार के कल्याणकारी राज्य होने की दिशा में नीतियों को लागू करना उद्देश्य होता। इसलिये जब न्यूज चैनलों पर सेंसर का सवाल उठा तो उसने अचानक मनोरंजक और भटके चैनलों को लोकतंत्र के चौथे खम्भे होने का एहसास करा दिया। जिसका काम जनता के हित के लिये चैक-एंड बैलैस का होता है। सरकार के सेंसर में इस बात का कहीं जिक्र नहीं है कि अगर कोई न्यूज चैनल खबर के बदले नाच-गाना, अपराध का नाट्य मंचन,और रोमाच पैदा करने से लेकर मनोरंजन पैदा करने वाले प्रोग्राम को दिखायेगा तो सरकार क्या करेगी। इसके उलट सेंसर में उन तथ्यों का जिक्र था, जिसे चैनल दिखाना छोड़ चुके हैं। मसलन हाल के गोहाना सरीखे दंगे से लेकर गुजरात के दंगो को नहीं दिखाया जा सकता है। सांसदों की घूसखोरी हो या अस्पताल में मरीजों की दवाइयों को खुले बाजार में बेचेने का डाक्टरों का रैकेट, इसे नहीं दिखाया जा सकता है। एसईजेड के नाम पर किसानों की जमीन जिस तरह औने-पौने दाम में चंद हाथो को दी रही है, उसे नहीं दिखाया जा सकता है। किसी भी राज्य में पुलिस अगर डंडा बरसाती है या राज्य अपराधियों को ठिकाने लगाने के लिये फर्जी इनकाउंटर करती है तो उसे देशहित में नहीं दिखाया जा सकता है। किसी भी स्टिंग ऑपरेशन को करना या दिखाना देशहित में नहीं होगा यानी हॉकी फेडरेशन के जिस स्टिंग ऑपरेशन से केपीएस गिल का पत्ता कटा और हॉकी का भला हुआ वह भी नहीं दिखाया जा सकता है। एनएसजी के शहीद उन्नीकृष्णन के खिलाफ केरल के मुख्यमंत्री अच्युतानंदन की प्रतिक्रिया को दिखाने से पहल भी सरकार की इजाजत लेनी होगी। यानी वामपंथी सरकार के समर्थन से कहीं सरकार चलेगी तो इजाजत मुश्किल है और कही किसी क्षेत्रीय दल का समर्थन केन्द्र में हुआ तो राज्य में उसके खिलाफ की खबर देशहित से जुडी हो सकती है। यहां इस तरह की खबरों को नही दिखाने का मतलब है, दिखाने से पहले सरकार की इजाजत लेनी होगी। देशहित में क्या है, यह एक ऐसा नौकरशाह परिभाषित करेगा और पत्रकारों के खिलाफ एक ऐसे अधिकारी को कार्रवायी करने का अधिकार होगा जो सरकार पर किसी आंच की संभावना को भी अपराध मानते है।

यानी उस वक्त इस आंच का कैनवास ठीक उसी तरह खबरो को घेरे में लेगा जैसा करीब तेरह-चौदह साल पहले दूरदर्शन और मेट्रो पर बीस मिनट का "आजतक" , आधे घंटे का" द वर्ल्ड दिस वीक "और पैतालिस मिनट का "द फर्स्ट एडिशन" दिखाया जाता था । हर खबर और फुटेज की मॉनेटरिंग होती थी । एनओसी सर्टीफिकेट मिलने के बाद ही इन्हे प्रसारित किया जाता। लेकिन उस दौर और अभी में अंतर यह आया कि तब न्यूज विद व्यूज के मद्देनजर नौकरशाह न्यूज पर नजर रखते...कि कहीं न्यूज को तोड़-मरोड़ कर व्यूज के अनुकूल तो कोई नहीं कर रहा। सरकार से इतर विपक्ष या किसी दूसरे राजनीतिक दल को न्यूज कार्यक्रम के जरिए मदद तो नहीं दी जा रही । या सरकार के खिलाफ कुछ ऐसा तो नहीं जा रहा जो इसकी इमेज को खलनायक सरीखा बना दें।

हालांकि जब प्रसार बारती के सीइओ केपीएस गिल बने तो उन्होंने एक मीटिंगं में सिर्फ इतना कहा कि यह कैसे परिभाषित होगा कि मैं आजतक बनाने वाले अरुण पुरी से ज्यादा बडा देशभक्त हूं। या उनकी देश भक्ति पर उंगली उठाने वाला मैं कौन होता हूं। बस उस दिन से एनओसी सर्ट्रिफेकेट का सिलसिला खत्म हो गया। उस समय दूरदर्शन समय बेचा करता था और न्यूज प्रोग्राम बनाने वाले अपने खर्चे विज्ञापन जुगाड़ कर पूरा करते। यानी कार्यक्रम बनाने वाले पर सरकार की नजर रहती और सरकार कहीं ज्यादा तो नहीं मांग रही इसपर मीडिया की नजर रहती।

लेकिन आर्थिक सुधार ने जब मुनाफे को ही समूची नीतियों का मूलमंत्र बना दिया । तो न्यूज चैनल क्या दिखाये और कैसे दिखाये इसपर कोई मॉनेटरिग नहीं हुई क्योकि सरकार की नीतियों ने भी इस दौर में कल्याणकारी राज्य की जगह एक तबके को मुनाफा देने और खुद पूंजी बटोरने की नीतियो को ही अमल किया। नागरिकों को लेकर कोई जिम्मेदारी राज्य की बची तो वह गरीबी की रेखा से नीचे वालो को दो जून की रोटी का जुगाड़ करवाना या राशन कार्ड-टैक्स कार्ड या वीजा देना था। सरकार ने शिक्षा-स्वास्थ्य-साफ पानी-नौकरी-घर-सुरक्षा सभी कुछ निजी हाथो में सौपकर मुक्ति पा ली।

तो जाहिर है आम लोगों की रुचि भी सरकार और नेताओं में खत्म होती गयी। इस मर्म को न्यूज चैनलों ने पकड़ा। बिजनेस के लिये दिखाया वही जा सकता है जिसे लोग-बाग देखना चाहते है। खबरों का मतलब कहीं ना कहीं जिम्मेदारी को निभाना है....लेकिन जब राज्य नीति ही किसी भी जिम्मेदारी से मुक्ति पा कर मुनाफा कमाने की थ्योरी को विकास माने तो न्यूज चैनलों की क्या बिसात की वह मिशन पत्रकारिता करने लगे। आम लोगो के दर्द को समझने लगे।

ऐसे में यह बात भी उभरी कि अगर सेंसर लग जाये तो ज्योतिषशास्त्र से लेकर भूत-प्रेत दिखाने की चांदी हो सकती है। बंदर और कुत्ते की यारी से लेकर अंडरवर्ल्ड का नाम लेकर कोई भी दशको पुराना टेप हो या सनसनाहट पैदा करता अपराध हो या फिर प्रेम के सपनीले किस्से का नाट्य रुपातरंण सबकुछ खबरों के नाम पर दिखाया जा सकता है, इसके लिये सरकार की इजाजत की जरुरत नहीं होगी क्योंकि यह देशहित के खिलाफ नहीं है।

आपके दिमाग में भी यहां सवाल यही उभरेगा कि अगर सेंसर इन स्थितियों पर रोक नहीं लगाता तो न्यूज चैनलों को दर्द किस बात का था । क्योकि सेंसर यह तो कह नहीं रहा कि आप खबर ही दिखाये। इसका पहला जबाव तो यही है कि जिस तरह सभी राजनेताओं को एक रंग में नहीं रंगा जा सकता, ठीक उसी तरह सभी न्यूज चैनलों को भी एक तरह नहीं देखा जा सकता । और दूसरा जबाब यह है कि जो संसदीय राजनीति आर्थिक सुधार की गलियों में खोकर देश के बहुसख्यक तबके का भरोसा खो चुकी हैं और राजनेता जनता के निशाने पर है , उसी तरह मुनाफे के मंत्र में मीडिया भी लोकतंत्र के चौथे खम्भे होने का भरोसा न खो दे और जनता के निशाने पर संपादक ना आ जाये। और अगर मीडिया पर से जनता का भरोसा टूटा तो राजनीति किस माध्यम से खुद को लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण औजार कह पायेगी । जाहिर है 16 जनवरी की मुलाकात के बाद संपादकों की खुशी और प्रधानमंत्री की कहीं ज्यादा खुशी के पीछे का सच यही लगा कि सेंसर के बहाने ही सही अगर चैनलों के संपादको को लगा कि वह पत्रकार है तो मनमोहन सिंह को भी लगा कि वह भी पॉलिटीशियन हैं। इसीलिये दोनो खुश हैं।

9 comments:

  1. सेंसर के बहाने ही सही अगर चैनलों के संपादको को लगा कि वह पत्रकार है तो मनमोहन सिंह को भी लगा कि वह भी पॉलिटीशियन हैं। इसीलिये दोनो खुश हैं।
    सब कुछ कह दिया हैं आपने इन शब्दों में।

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  2. चलिए ये तो आपने माना कि दोनों ही तबकों को लगा कि वे वो हैं जो वो वास्तव में हैं ही नहीं । अपने को पत्रकार मानने या नेता मानने की खुशफ़हमी पाले ये लोग क्या कर पाएंगे ये कहना बडा ही मुश्किल है । लेकिन आपकी साफ़गोई की दाद तो देना ही होगी ,आपने हकीकत से पर्दा जो उठा दिया । सरेआम आखिर ये तो मान ही लिया कि न्यूज़ चैनल के खबरचियों को भी इस मीटिंग से पहले तक अपने पत्रकार होने का भरोसा नहीं था । जय हे ,जय हे ,जय -जय- जय हे .....!

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  3. AB TO KAHNA HI MUSKIL HAI KI...MEDIA KUCH ALAG BHI SOCHTI HAI..SARKAR KO AGAR JANTA SE WASTA NAHI TO MEDIA BHI APNE DHANDE ME HI VYST HAI JAHA SIRF MUNAFE KI BAAT HOTI HAI....CHAUTHA ISTAMBH AB SIRF NAAM KA HAI KYOKI BADLTE PARIWES ME USE SIRF BUSINESS DIKHTA HAI...PATRKARITA HOTI KYA HAI..USKE UDDESYA KYA HAI..SHAYAD IS PAR GAUR KARNA GAIR JAROORI HO GAYA HAI..PAISE KI DUNIYA ME SHAYAD SABKUCH KHO GAYA HAI..KYA RAJNITIGYA KYA PATRKAR...?

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  4. Respected Prasoon ji,
    Yah theek hai ki..hamare desh kya duniya bhar men abhivyakti kee svatantrata har vyakti ka maulik adhikar hai.lekin hamare desh men to ye ajadee aur adhik hai aur pahle bhee thee .ab ye bat deegar hai ki is azadee ka kitana sadupayog hota hai kitna durupayog.
    Theek yahee bat meediya ke sath bhee lagoo hotee hai.hamare desh men jab electronik madhyamon ka itana vistar naheen tha tab ke aur aj kee patrakarita,lekhan sabhee kuchh badal chuka hai.Pahle ke sampadak,patrakar kee eemandar,nirbheek valee image ab khatm ho chukee hai.ab to akhbaron ke sampadakon ko apna sarkulation badhane,chainal valon ko apna t r p badhane kee chinta jyada hai.isaka unhen koi ilm naheen ki unke samacharon se,unke footage se desh,samaj, par kya asar padega.Aise men yadi sarkar kee or se chainalon ke liye yadi koi neeti banatee hai to usaka to svagat hona chahiye.
    Kyon ki lagam lag jane par bina paron vale ghode to khud hee gir padenge.vo bhala lambee res men kahan daud sakenge.
    Ab ap hee bataiye subah se sham tak jo chinal sirf apna nam air par banaye rakhane ke liye..balatkar,hatya,tantra mantra ,tone totke,kee khabren mirch masala laga kar parosate rahte hain.vo bhala desh,samaj,ko kya de rahe hain.
    fir bhee apko achchhe vishya ko uthane ke liye dhanyavad.
    Hemant Kumar

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  5. हमारे पिता ने सरकारी स्कूल से पढाइ की ..अफसर बनें ..विद्वान भी है । आजकल सरकारी स्कूलों में अगर दिल्ली को छोड दें ..तो वहीं बच्चे वहां जाते है जो विल्कुल ही साधनहीन और विपन्न है । सरकारी अस्पतालों से लोगों का विश्वास जानबूझकर तोडा गया है । आर्थिक सुधारो के दौर में हर चीज बिकने के लिये तैयार है फिर तो दूकानदार हर वो नुक्स अपनायेगा जिसमें उसे फायदा हो । कभी पढा था कि अखबार पूंजीपतियों के द्वारा पाला गया शौक है । खैर मुझे लगता है कि बिकने विकाने के दौर में अगर कोइ चैनल कुत्ता बिल्ली ..आदि दिखा रहा है तो हमें भी विक्रेता की मजबूरी पर तरस खानी चाहिये । वैसे आपके द्वार दी गयी जानकारी सूचनाप्रद है । धन्यवाद ..

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  6. बाजपेयी जी मुंबई की घटना के बाद जिस मोमवति जुलुस और मानव श्रृख्ला को आधार बनाकर आप इतनी बङी बाते लिख डाली इस संदर्भ में मुझे दो बाते कहनी हैं।आप जरा गम्भीरता से पता लगाये इस कार्यक्रम के आयोजन में मीडिया वालों की भूमिका कितनी थी और दुसरी बाते लिपिस्तिक लगा कर यह हमला मुबंई पर नही पूरे देश पर हैं।उनसे जरा पुछियें आज तक कभी किसी मतदान में मताधिकार का प्रयोग किया हैं।देश में मंबई से भी बङी आतंकी घटनाये घटी हैं लेकिन मीडिया इतनी हाय तौव कभी नही मचायी।आप अपने लेख के माध्यम से इस पर आप अपनी बात रख चुके हैं और चुनाव परिणाम से जुङे विशलेषण में आप पूरे मामले को खोल दिया हैं।आप तो कर्म से धर्म से और प्रोफेशन से पूरी तौर पर पत्रकार हैं।सेंसर को लेकर दर्द स्वभाविक हैं लेकिन इसको कब तक रोका जा सकता हैं।सारा तंत्र लोकतंत्र को खत्म करने में लगा हैं आप इस आंधी को कब तक रोक पायेगे।जनता को जगाये और खुब लिखे जनता के बीच में जाये और अपनी बातो को ऱखे जिसे रोकने के लिए सारा सिस्तम लगा हैं।इस मुहिम में देश की जनता आप के साथ हैं इसका कतई मतलव ये नही हैं कि आप से लोग चुनाव लङने की उम्मीद कर रहे हैं।

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  7. prasoon bhai,
    sumtimes its very very humourous n funny to c news chanels presenting bulletins based on "bharatiya nari" rakhi & raju & its nt all.... mother in law sneezing hairs of her daughter in law and that even LIVE. then we r shocked...oh its a national news chanel.
    actually fresher "braeking news" journalist's crew is trying to get screen as much as possible its all dat.
    today's so called journalists dont knw the meaning of true journalism its all dat.
    once i met u on the set of jugaad with manoj bhaiya.
    m d writer of jugaad n huge fan f urs.
    keep doing well.

    priyank dubey

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  8. प्रसून जी
    आपने अपने लेख में कई सारगर्भित बातें रखी हैं। देश की जनता को मूर्ख समझने की मीडिया और सरकार दोनों की मंशा को आपने उजागर किया है। ऐसे विचार के लिए साधुवाद स्वीकारें।
    अरविन्द गुप्ता, प्रधान संपादक, साक्षी भारत, नई दिल्ली।

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