राष्ट्रपति भवन के अशोका हाल में उस शख्स के लिये कुर्सी नहीं थी, जिसने बीते तीन महिने के दौरान देश-दुनिया में हर माध्यम से इस बात का प्रचार किया कि भारत की सबसे महत्वपूर्ण और ऊंची कुर्सी के वही दावेदार हैं। पीएम-इन-वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी ने सोचा भी न होगा कि प्रधानमंत्री के शपथ लेते वक्त उनके लिये कोई प्रोटोकॉल अधिकारी कुर्सी उठाये हुये पहुंचेगा और पहले दूसरी फिर पहली कतार में लगाकर आग्रह करेगा कि आप इस कुर्सी पर बैठकर अपने कहे के मुताबिक देश के सबसे कमजोर प्रधानमंत्री को दोबारा प्रधानमंत्री बनते हुये देखिये।
जनादेश के बाद हर स्थिति कैसे बड़े बड़े नेताओं को खामोश कर देती है, यह उसका नजारा था। लेकिन जिस राजनीति का हवाला देकर मनमोहन सत्ता में लोटे या फिर जिस राजनीति के आसरे आडवाणी सत्ता चाहते थे, दोनों का रिश्ता आम आदमी से कितना जुड़ा हुआ था, यह बात कहने के लिये किसी तर्क-वितर्क की जरुरत नही है बल्कि देश के सामाजिक-आर्थिक हालात खुद ही सबकुछ बयान कर देते हैं। किसान-मजदूर-छोटे व्यापारी-नौकरी पेशा तबका, रोजगार की तालाश में भटकता युवा वर्ग, उच्च शिक्षा लेने के बाद भी बेरोजगारी का दर्द यानी किसी भी तबके के भीतर झांक कर कोई भी देख सकता है कि स्थिति बद से बदतर हुई है। हर तबके के भीतर यूरोप के कई देश समा सकते है जो न्यूनतम जरुरत की लड़ाई लगातार लड़ रहे हैं। लेकिन यह मनमोहन की इक्नॉमिक्स का ही खेल है कि भारत में सिर्फ एक ही तरह का यूरोप देखा गया, जो उपभोक्तावादी है। और उसी आसरे विकसित होने का सपना भी देश ने रचना शुरु किया। और नयी परिस्थितियों में तो नया मंत्र उभरा कि सरकार के बदले पूंजी पर टिक कर जीवन चलाया जा सकता है। यानी निजीकरण से उपजी मुनाफे की थ्योरी ने इस मंत्र को हर आम आदमी के कान में फूंक दिया कि सरकार का मतलब कुछ भी नहीं है अगर आपकी जेब और तिजोरी भरी हुई है।
असल में पैसे से पैसा बनाने के आर्थिक सुधार का जो खेल मनमोहन सिंह ने शुरु किया और पिछले पांच साल के दौरान इस खेल में जितनी पारदर्शिता लायी गयी उसने ही जनता को प्रेरित भी किया कि बिना प्रोटोकाल के पीएम की कुर्सी मनमोहन सिंह के लिये रख दे। आम चुनाव में कोई प्रोटोकाल नही होता इसलिये वह भावनाओ के आसरे चलता है। आडवाणी भी भावनाओ के आसरे चुनाव का खेल खेल रहे थे और मनमोहन सिंह भी भावनाओ को उभार रहे थे। अंतर सिर्फ इतना था कि आडवाणी की भावनाये मन और दिल के इर्द-गिर्द रची जा रही थी, जिसका भूख-रोटी-रोजगार से लेकर शिक्षा-स्वास्थ्य-पीने के पानी तक से कोई सरोकार नहीं था और मनमोहन सिंह सीधे भावनात्मक आर्थिक थ्योरी के जरीये नश्वर शरीर में ही भावना भरके उसे ही साधे हुये थे। जहां सबकुछ गंवाने का डर था, सुविधा का बंसी और मुनाफे का नगाड़ा खत्म होने का भय था। आर्थिक सुरक्षा के खतरे में पड़ने का भय था लेकिन यहां नैतिकता और कल्याणकारी राज्य कोई मायने नही रखते पा रहे थे।
सवाल यह नही है कि अयोध्या की नगरी वाले राज्य में ही मंदिर की भावना ही चूक गयीं। सवाल यह भी नहीं है कि जातीय तौर पर सुरक्षा और सुविधा की राजनीति भी चूक गयी । बड़ा सवाल यह है कि जिस भावना को मनमोहन ने जगाया है और राहुल गांधी उसे नये तरीके से परिभाषित करने में लगे है अब वह रास्ता सिर्फ कांग्रेस की राजनीतिक लीक बनायेगा या फिर देश को नये सिरे से जोड़ेगा। यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि राहुल गांधी ने संसद में जिस कलावती का नाम लेकर चेताया था, उसी लोकसभा सीट पर कांग्रेस की नहीं चली। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह विदर्भ के जिस इलाके में जाकर खुदकुशी करते किसानो के लिये राहत पैकेज का ऐलान करते हैं, वहां भी कांग्रेस हार गयी। सोनिया गांधी खुदकुशी करते परिवार को सातंवना देने जिस बस्ती में गयीं, वहा भी कांग्रेस नहीं जीती। विदर्भ की दस में पांच सीटो पर कांग्रेस-एनसीपी हारी है। मनमोहन सिंह का पैकेज विदर्भ के जिन 31 ताल्लुका को केन्द्रित में रख कर बांटा गया, उसमें से 28 ताल्लुका में कांग्रेस को हार मिली है। यहां सवाल यह नहीं है कि इन सीटो पर बीजेपी या शिवसेना जीत गयी। आगे का रास्ता बिना प्रोटोकॉल के पीएम की उस कुर्सी की दिशा में ही जाता है, जो मनमोहन को मिली है। कुर्सी न मिलने से आडवाणी इतने निराश है कि वह राष्ट्पति भवन में प्रोटोकाल अधिकारी को डपट भी न सके, जो उनकी विपक्ष के नेता की कुर्सी से भी खेल खेल रहा था। ऐसे में आम आदमी अब आडवाणी से गुहार कैसे लगायेगा । लेकिन जनादेश लेकर सत्ता संभाले पीएम या गांधी परिवार की पहल अब क्या होगी । खासकर जब पीएम के सामने कोई कामन मिनिमम प्रोग्राम का डर नहीं है और गांधी परिवार के बच्चे भी अब लोकप्रिय हो चुके हैं। मनमोहन सिंह अभी तक टारगेट पूरा करने का ही शासन चलाते आये हैं। जाहिर है आंकडो की बाजीगरी टारगेट पूरा तो करा सकती है लेकिन पथरीली जमीन को उर्जावान नहीं बना सकती।
मनमोहन की इकनॉमी किसानों को एग्रेसिव फार्मिंग की दिशा में ले जा रही है। रोटी के लिये नगदी फसल की दिशा में बढ़ते किसानो को पता है कि उनका जीवन मौसम पर टिका है जो जरा सा इधर उधर हुआ तो सबकुछ तहस नहस हो जायेगा । क्या मनमोहन सिंह सादी खेती यानी अनाज की खेती को राहत दिलाने के पक्ष में है । क्या उन्हे बढ़ावा देने के लिये कोई व्यवस्था की जा सकती है। नाबार्ड के पास किसान की जरुरत मुताबिक बजट नही है । बैंक का कर्जा चुटकी भर काम कर रहा है । दो लाख का कर्ज चाहने वाले किसान को बैंक से बीस हजार से ज्यादा मिलते नहीं । बाकि एक लाख अस्सी हजार लेने वह किसी ना किसी बनिये के पास जाता ही है और खेती के लिये सरकारी इन्फ्रास्ट्रक्चर ऐसा है कि खेती बाजार तक पहुंचते पहुंचते उसे खुदकुशी की दिशा में ले जाती है। ग्रामीण रोजगार तो दूर की बात है खेती के लिये समुचित पानी और बिजली तक की व्यवस्था नही है। ग्रामीण इलाकों के शहरीकरण का रास्ता तो मनमोहनी व्यवस्था ने दिखाया है, लेकिन इन्हीं इलाकों में सबसे ज्यादा सामाजिक तनाव है। नरेन्द्र मोदी जिस गुजरात में सबसे ज्यादा शहरों को बनाने की बात कहते हैं, इन्हें वहीं चुनावी जीत नहीं मिल पाती। सबसे विकसित शहरो में अव्वल सूरत शहर में डायमंड वर्कर बेरोजगार होने पर आत्महत्या करता है तो अहमदाबाद से लेकर दिल्ली तक की कोई आर्थिक नीति उसे राहत नहीं दिला पाती। यानी आर्थिक नीतियो ने कहीं यह साबित नहीं किया है कि वह मंदी में रास्ता कैसे निकालेगी। वहीं मनमोहनी अर्थव्यवस्था की पीठ इसलिये भी ठोंकनी चाहिये कि उसने पांच साल तक जब खेती और किसानी को देखा ही नहीं तो मौसम और जमीन के बूते खडी कृर्षि अर्थव्यवस्था से जुडे करोडों लोगो भी जमीन से ही जुड़े रहे और बाजार में उपभोक्ता नहीं बन पाये । और मंदी में जब इसी खेती ने देश का पेट भरे रखा और अराजकता को देश में आने से रोका तो यूरोपीय अर्थशास्त्रियों ने भारतीय अर्थ-गणित की पीठ ठोंकी । लेकिन इस दौर में खेती को खत्म करने की अर्थव्यवस्था ने खेती पर टिके व्यापारियो की भी कमर तोड़ी और खेती पर टिके सौहार्दपूर्ण समाज में भी पहले तनाव फिर हिंसा पैदा की । महाराष्ट्र एक अच्छा उदाहरण है, जहां ग्रामीण इलाकों का शहरीकरण हो रहा है। शहरों को बनाने के लिये खेती की जमीन पर कंक्रीट के जंगल बिछ रहे हैं। विकास का खांचा औघोगिक नगरो को बनाना चाह रहा है तो बैंक से लेकर हर सरकारी संस्थान के लिये चक्कर लगाती अर्थनीति में शरीक होना महत्वपूर्ण हो गया है। क्षेत्रों का असमान विकास बिजली और पानी की धोखाधडी से नहीं चूक रहे हैं। विदर्भ की बिजली पिंपरी-पूना चली जा रही है तो मराठवाडा का पानी पशिचमी इलाकों को तर कर रहा है । सरकार की तमाम योजनाएं अधूरी हैं। कागजों पर खानापूर्ती का खेल खुला है। इसलिये जांच और इनक्वायरी कमेटियां भी बैठी हुई हैं। इंदिरा आवास योजना से लेकर अंत्योदय योजनाओं तक में घपला है और राजनीतिक पटल पर यह राजनीति का औजार बना हुआ है। पूरी व्यवस्था में मॉनिटरिंग ही गायब है। यानी सरकार देश में योजनाओ के जरीये हर तबके को रोजी-रोटी और घर देने के लिये प्रतिबद्द है, यह संवाद पीएमओ या दस जनपथ से कुछ इस तरह स्वच्छंद होकर निकलता है कि योजना का नाम है..बस यही काफी है । पूरा हो रहा है या नहीं इसे देखनेवाला या इसकी फिक्र किसे है। प्रियंका के तेवर इंदिरा गांधी सरीखे हैं या सोनिया गांधी ने भी इंदिरा की तर्ज पर लगातार दो चुनाव जीत लिये, यह सच बार बार कहा तो जा सकता है लेकिन इंदिरा ने जिस तरह कभी बैंको को हड़काया था । या फिर योजनाओं के पूरा न होने पर नौकरशाही की नकेल कसी थी, यहा तक की मुख्यमंत्रियों को भी सीधे योजनाओ के क्रियान्वयन से जोड़ा था। वह तेवर फिलहाल गांधी परिवार में नदारद है।
इसकी वजह सरकार में परोक्ष हस्तक्षेप का ना होना भी हो सकता है लेकिन दस जनपथ का प्रेम और राहुल की रणनीति जब एरे-गैरे को मंत्री बना सकती है तो योजनाओं और नीतिगत कार्यक्रम के पूरा न होने पर किसी मंत्री को डपट क्यो नहीं सकती । राहुल गांधी के तरीके युवाओ को भा सकते है लेकिन पथरीली जमीन पर वह कितने तार तार हैं, इसका एहसास तो आंध्र प्रदेश के चुनावी नतीजो में ही छुपा है । राहुल गांधी जिस चन्द्रबाबू नायडू को बेहतर बताते हैं, उसी नायडू को कांग्रेस के ही वाय एस आर रेड्डी चुनाव में पछाड़ कर दोबारा सत्ता में लौट आते है । नायडू ने सीमित दायरे में जो भी काम किया हो, लेकिन वाय एस आर अपने दौर में खेत-खलिहान की पगडंडियो पर नंगे पांव चले और समूचा आंध्र नापा । इस वजह से 2004 में उन्होंने अगर नायडू को पटखनी दी तो 2009 में वही वाय एस आर गरीबी की रेखा से नीचे खड़े लोगो की हर योजना को पूरा करते दिखे। इंदिरा आवास योजना का टारगेट ही पूरा नहीं किया बल्कि टारगेट से आगे जाकर उन लोगों को भी घर दिलवाया जिनके नाम बीपीएल में नहीं थे । मॉनिटरिंग खुद की और हर जिला अधिकारी को जिम्मेदारी दी । यही काम चन्द्रबाबू नायडू टेलीकान्फ्रन्सिंग के जरीये किये करते थे और वाहवाही या जिक्र काम का नही तकनीक का होता था।
राहुल गांधी केन्द्र से चले जिस पैसे को निचली पायदान तक पहुंचाने की बात करते है , वह दूर की गोटी है । क्योंकि सरकार का नजरिया उसी ग्लोबलाइजेशन की इकनॉमी में देश का सार टटोल रहा है जो मनमोहन ने समझायी है या फिर जनादेश की सफलता का पैमाना उसे ही बनाया गया। हो सकता है कि कांग्रेस इस बार जनादेश से डरी हुई भी हो क्योंकि मनमोहन सिंह ने पहले दिन से यह संकेत दिये है कि इसबार उनकी जिम्मदारी कहीं बड़ी है । लेकिन मंत्री पद संभालने के बाद देश के वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी जब मंदी से लेकर ग्लोबल इकनॉमी में देश का अक्स खोजने की बात कह रहे हो फिर बड़ा सवाल यही होगा राहुल को आने वाले पांच सालो में या हर रात किसी झोपडी में गुजार कर सरकार पर दबाब बनाना होगा या फिर मनमोहन अपनी इकनॉमी को 180 डिग्री में उलट कर सीधे देश के उस खाद्दान्न और न्यूनतम जरुरत पर केन्द्रित कर दे, जहां रोटी और घर का फलसफा अभी भी अटका पड़ा है । या फिर उस भरोसे को अपनी पहल से जीवित कर दे कि देश के सत्तर करोड लोगों को लगे कि देश में सरकार है । क्योंकि पहली बार यह देश यह भी महसूस करने लगा है कि सार्वजनिक जीवन में रहते हुये जो राजनेता कभी आदर्श हो जाया करते थे अब वही खलनायक बन रहे हैं। इसलिये मनमोहन की पहली चुनौती मंदी से निपटना नहीं भरोसे को पैदा करना है, जिसके लिये दिल में देश को बसाना होगा। अन्यथा राष्ट्रपति भवन में आडवाणी की कुर्सी से खेलते प्रोटोकाल अधिकारी की तरह जनता भी कुर्सी खींच कर कोई नया खेल शुरु कर देगी।
prasun ji namaskar! behatarin vishleshan hai. desh ki nabz ko jitna badhiya aap jaise patrakar samajh pate hain kash neta bhi aisi soch rakhate..apka lekh padhkar kafi kuchh sikhane aur samjhane ko mil raha hai. DHANYABAD
ReplyDeleteaapne jo likha hai,wo bhartiya rajniti ki badli tasveer hai...
ReplyDeleteबडा गम्भीर विवेचन है। पर इस समय सिर में दर्द हो रहा है, इसलिए चाह कर भी आपका आलेख नहीं पढ पा रहा हूं। फिर कभी आउंगा।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
abhi lag raha hai ki manmohan singh strong PM hain. Advani ko baithne ke liye nahin puchh kar. Very good Mr. PM. Aise hi strong bane rahiye.
ReplyDeletejeetani baar aap charcha kiye hain kursi ka oosase lag raha hai ki manmohan singh ki strongness ko bata rahe hain. Finally we have strong PM who doesn't care for all Tom Dik and Harry. :)
अरे क्या भाई साहब ! इंट्रो शुरू हुआ शपथग्रहण में आडवाणी को कुर्सी न मिलने से, फिर बात आ गई मनमोहन की इकनामिक्स पर । हम तो समझे थे कि राजनीति में तिरोहित होते संस्कारों और तहजीब को लेकर कुछ रोचक सा पढ़ने को मिलेगा । आपने तो माक्र्सवादी गंभीरता और बोझिलता में लिपटा आर्थिक विश्लेषण पेश कर दिया । विषय और व्याख्या दोनों ही निःसंदेह गहरे और गंभीर हैं पर पेशकश को थोड़ी रोचकता में डुबोकर हम जैसे अल्पबुद्धियों की भी लेख मेें रुचि जगाई जा सकती है। हालांकि आलेख की पठनीयता और प्रसारोन्मुखी स्वरूप होना ब्लाग लेखन की जरूरी शर्तों में शुमार नहीं है । ब्लाग तो लिखने वाला अपने हिसाब से भी लिख सकता था । बहरहाल हमारे मन में आई तो अपना समझ कर कह दिया । बुरा न मानो, होली नहीं है फिर भी ।
ReplyDeleteकोलाहल से कौस्तुभ