जवाहर लाल नेहरु से लेकर राजीव गांधी तक के दौर में यानी चीन युद्द से लेकर बाढ़ तक के दौर में अकसर तमाम प्रधानमंत्रियो ने सासंदो से यही गुहार लगायी है कि विपदा के वक्त सांसदों को अपने क्षेत्र में रहना चाहिए । इंदिरा गांधी ने 1975 में बिहार में आयी बाढ़ के वक्त कांग्रेसी सांसद को डपटा कि उन्हें दिल्ली में नहीं बिहार में होना चाहिये। आम जनता के बीच उनके दुख दर्द को समझते हुये उनकी जरुरत का इंतजाम देखना चाहिये।
लेकिन वक्त किस हद तक बदल चुका है, इसका अंदाजा संसद के मानसून सत्र को लेकर लगाया जा सकता है। एक तरफ मानसून की देरी ने सूखे की स्थिति देश में ला दी है, वहीं दूसरी तरफ संसद उसी दिल्ली में मानसून सत्र के लिये तैयार हैं, जहां 4 से बारह घंटे तक बिजली कटौती सरकारी आदेश पर की जा रही है। समूचे उत्तर भारत में बिजली-पानी के हाहाकार के बीच संसद के मानसून सत्र का मतलब दिल्ली के लिये क्या है, अगर इसे पहले समझें तो लुटियन की दिल्ली को रोशनी से जगमग और एसी से ठंडा करने के लिये दिल्लीवालो को कई स्तर पर कुर्बानी देनी होगी। फिलहाल, दिल्ली के पास सिर्फ 1575 मेगावाट बिजली है। केन्द्र के वितरण के जरीय भी दिल्ली को कमोवेश 1500 मेगावाट बिजली मिल जाती है । जबकि दिल्ली की जरुरत 4171 मेगावाट की है । लेकिन मानसून सत्र का मतलब है लुटियन की दिल्ली में करीब 175 मेगावाट की खपत। क्योंकि संसद और साढे सात सौ सांसदों में से कोई भी न तो अंधेरे में रह सकता है, न ही एसी बंद कर सकता है। इस 175 मेगावाट का मतलब है, दिल्ली में बिजली कटौती में कम से कम हर इलाके में दो से तीन घंटे की बढोतरी। वहीं जितना पानी समूचे दक्षिणी दिल्ली में लगता है, करीब उतना ही पानी संसद के मानसून सत्र को एक महीने तक चलाने के लिये चाहिये। तो पानी की किल्लत को भी दिल्ली को ही भुगतना है। लेकिन इस पर सवाल नहीं किया जा सकता क्योंकि यह सांसदों के विशेषाधिकार का मामला है। लेकिन मानसून सत्र है किसके लिये यह सवाल देश के मद्देनजर तो उठाया ही जा सकता है। सरकार खुद मान चुकी है कि उत्तर-पश्चिम भारत में इस बार औसत से 17 से 26 फीसदी कम बारिश होगी। औसत से कम बारिश के आंकडों में कुछ कम की स्थिति पूरे देश की है। यहां तक कि चेरापूंजी में भी औसत से कम बरसात होगी। यह संकेत सूखा के हैं। लेकिन सरकार सबकुछ कहते हुये भी सूखा शब्द से बच रही है । देश के हालात क्या है और सरकार वैकल्पिक नीतियों को लेकर कितनी सजग है, इसका अंदाजा हालात पर गौर करने से मिल सकता है। देश में कोई राज्य ऐसा नहीं है, जहां बिजली की सप्लाई और मांग एकसरीखी हो। औसतन हर राज्य में छह सौ मेगावाट बिजली की कमी है।
मानसून में देरी और आसमान चढ़ता पारा अगर एक हफ्ते यानी बजट के दिन यानी 6 जुलायी तक बरकरार रहा तो पानी से पैदा होने वाली बिजली में 45 फीसदी की और कमी आ जायेगी। मसलन भाखडा सरीखे डैम की स्थिति यह हो जायेगी कि जहां पिछले साल 44 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी था, वह करीब 5 बिलियन क्यूबिक मीटर पर आ जायेगा। यानी चार राज्यों को जिस भाखड़ा से पानी मिलता है, वहा बिसलरी की बोतल भर भी पानी देना मुश्किल हो जायेगा। यह स्थिति हिमाचल के पोंग से लेकर गुजरात के साबरमती और राजस्थान के राणा सागर से लेकर दक्षिण के नागार्जुना सागर तक की है। यहां पिछले साल की तुलना में 75 फिसदी कम पानी है।
वहीं तमिलनाडु के कृष्णराजा सागर में, जहा पिछले साल 41 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी था, इस वक्त समूचा डैम सूख चुका है। पानी की कमी और बढ़ती गर्मी के बीच बिजली की बढ़ती मांग ने अब यह सवाल भी खड़ा किया है कि सरकार के पास विकल्प है क्या। बिजली के निजीकरण को जिस तेजी से हरी झंडी दी गयी, उसके सात साल बाद अगर दिल्ली की ही हालत देख लें कि इस दौर में बिजली की मांग 1100 मेगावाट बढ़ गयी लेकिन निजी क्षेत्र से एक यूनिट बिजली नहीं आयी। 2010 तक बिजली आ जायेगी, यह कयास अब लगाये जा रहे हैं। कमोवेश यह हालात देश के बहुतेरे दूसरे राज्यों की भी है।लेकिन बिजली पानी का यह संकट देश के उन सत्तर फीसदी लोगों के लिये सीधे पेट से जुड़ा है,जिनकी जिन्दगी ही उस जमीन पर टिकी है, जो गर्मी और पानी न मिलने से फटी जा रही हैं।
सवाल उठेगे कि आर्थिक सुधार की जो लकीर 1991 में बतौर वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने खिंची उसमें फसल बीमा या मानसून बीमा क्यों लागू नहीं किया गया। बाजार अर्थव्यवस्था ने पूंजी के जरीये मध्यम वर्ग की हैसियत और जरुरत का दायरा तो बढा दिया । लेकिन खेत में जब कुछ उगेगा ही नहीं तो मुनाफे की थ्योरी तले जमा की गयी पूंजी का होगा क्या । क्या वित्त मंत्री से प्रमोट होते होते प्रधानमंत्री बने मनमोहन सिंह यह मान चुके है कि एक देश के भीतर बन चुके दो देश में वित्त मंत्री या प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी एक देश को सभांलने की है, जिसका बैरोमिटर मानसून नहीं शेयर बाजार और बाजार अर्थव्यवस्था का वह खाका है, जहा उपभोक्ता बनना ही नागरिकता का धर्म निभाना है। और दुसरे भारत का वित्त मंत्री मानसून है। जिसके भरोसे बाजार नहीं बढ़ाया जा सकता। जबकि दुनिया के तमाम देशों में मानसून के बिगड़ने पर किसानों को इन्फ्रास्ट्रक्चर मुहैया करा कर विकास की गति को बरकरार रखा जाता है, इसे मनमोहन सिंह या तो मानते नहीं या फिर लागू करा पाने में सक्षम नहीं हैं। सवाल है आर्थिक सुधार ने न्यूनतम की लडाई को पूंजी से खरीदने की हैसियत तो बाजार अर्थव्यवस्था ने दे दी लेकिन न्यूनतम का विकल्प यह अर्थव्यवस्था नहीं दे पायी। इसका दागदार चेहरा राज्यों में मुख्यमंत्रियो की पहल से समझा जा सकता है। विकास के मद्देनजर बीजेपी के सबसे काबिल गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और जमीन-किसान के दर्द को समझने वाले कांग्रेस के सबसे उम्दा आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री वाय एस आर रेड्डी ने भी मानसून की देरी में घुटने टेक कर मंदिर में पूजा पाठ का रास्ता अपना लिया। जबकि दोनों राज्यों में कृषि अर्थव्यवस्था को औघोगिक विकास से जोड़ने की बात दोनों ही नेताओ ने अपने पहले चुनाव को जीतने के साथ ही कही थी। यही हाल मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज शिंह चौहान और कर्नाटक के मुख्यमंत्री यदुरप्पा का हुआ । चौहान महाकाल के मंदिर पहुंच गये तो यदुरप्पा कुंभकोणम के मंदिर में। सभी ने इन्द्र देवता को खुश करने के लिये पूजा पाठ शुरु कर दी। किसी ने नहीं माना कि पर्यावरण से लगातार खिलवाड़ करने वाली आर्थिक नीतियो का विकल्प तैयार करने की जरुरत है। लेकिन देश का दर्द सांसद या मुख्यमंत्रियों के दरवाजे पर भी पहुंच पा रहा होगा, यह सोचना भी बेवकूफी होगी। क्योंकि आस्था के आसरे नेता खुद को आम जनता से जोड़ना तो चाहता है। लेकिन यही आस्था आम जनता के बीच सरकारों से भरोसा उठाकर निजी जद्दोजहद कैसे कराती है, इसका नजारा इलाहबाद में नजर आया, जहां रात में चांद की रोशनी में नग्न होकर महिलाये हल जोत रही हैं, जिससे इन्द्र देवता खुश हो जाये। यह परंपरा है इन्द्र को मनाने की है। जाहिर है यह दृश्य न न्यूज चैनल पकड़ सकते हैं, न ही सरकार की मुनाफे की अर्थव्यवस्था समझ सकती है । नग्न होकर हल चलाती महिलाओं की उस मानसिक स्थिति को भी वह सरकार कैसे समझ सकती हैं, जिसे न्यूक्लियर डील के आसरे हर समाधान का भरोसा है । जबकि यह महिलाये सबकुछ गंवाकर जीने की आखिरी लड़ाई में भी सरकार पर भरोसा नहीं कर पा रही हैं। इस दर्द को न तो मायावती का बुत समझ पायेगा, न ही राहुल का विकास मॉडल। क्योंकि राजनीतिक जमीन सींचने के लिये एक रात ग्वालिन या दलित के यहां बितायी जा सकती है। लेकिन हर रात दर्द से कराहते समाज के दर्द में शरीक नहीं हुआ जा सकता। दलित की बेटी का राजकुमारी हो जाना और राजकुमार का दलित के घर रात बिता देने में तब कोई फर्क नहीं आयेगा, जब तक घाव से रिसते मवाद को न देखा जाये । मानसून की देरी और गर्म हवा के थपेडो का दर्द गांव और छोटे शहरों में बिजली पानी के हाहाकार से कहीं आगे का है। जहां मवेशियों के लिये चारा नहीं है और दूधमुंहे बच्चों के लिये दूध नहीं है। गरीबी की रेखा से नीचे परिवारों के पास अन्न नहीं है, और सरकारी गोदामों में अन्न सड़ रहा है। सांसद विपदा की परिस्थितियों में ही हकीकत से रुबरु हो सकता है, इसका जिक्र कई बार इंदिरा गांधी ने किया। लेकिन नयी परिस्तितियो में विपदा से उभरे घाव से ज्यादा गहरा घाव तो सरकारी नीतियों के फेल होने का है। दिल्ली में फूड सिक्यूरटी का मामला सोनिया गांधी उठाती हैं। दिल्ली में नौकरशाह टारगेट से ज्यादा खादान्न दिखा भी देता है । लेकिन अन्न का वितरण कैसे हो और उसे सुरक्षित भंडारों में कैसे रखा जा सके, इसकी कोई व्यवस्था आजतक सरकार नहीं कर पायी है।
अर्थव्यवस्था के जरीये देश के साथ कैसा मजाक होता है, इसका नजारा मुद्रास्फीती की दर की शून्य के नीचे पहुंचने के दौर में ही मंहगाई के चरम पर पहुंचने से भी प्रधानमंत्री नहीं समझ पाते कि कही तो गडबडी है। असल में गड़बड़ी को विपदा के दौर में ही सांसद अपने अपने इलाको में रहते हुये महसूस कर सकते हैं। राहुल गांधी की कलावती से मुलाकात करने अगर आज कोई यवतमाल जिले के जालका गांव सडक के रास्ते जाये तो वह समझ जायेगा कि विदर्भ में किसान खुदकुशी क्यों करता है। पूरे इलाके में महाजनी सौ रुपये में जमीन-जोरु दोनो को अपने नाम करने से नहीं कतरा रही हैं। और जिन्दगी बचाने के लिये इससे कम या ज्यादा देने की हैसियत यहां के किसानों में बची नहीं है। आप कह सकते हैं मानसून सत्र का खास महत्व है, जिसमें बजट पेश किया जाना है। तो तकनीकी तौर पर इस बार बजट को स्टेडिंग कमेटी के पास तो जाना नहीं है और मानवीय तौर पर उस बजट से देश को क्या लेना देना है, जिसमें रुपया बनाने और खर्च करने की बाजीगरी होगी।
जनसामान्य की समस्या को लेकर लिखा गया यह आलेख बहुत संतुलित है .. अब समय आ गया है कि पूरे भारतवर्ष की नदियों को जोडने और जलसंरक्षण के कार्यक्रम को लागू करने पर सरकार ध्यान दे ।
ReplyDeleteसर, आपसे नाइत्तेफाकी के लिए माफ़ी चाहता हूँ.. लेकिन अभी तो बजट का दौर है. फिर मानसून में देरी पर भी तो हमारे सांसदों को मिलकर चर्चा करनी होगी...
ReplyDeleteजब देश का पॉलिटिकल सिस्टम ही सही नहीं है तो बाकी बातों पर चर्चा करने का कोई लाभ नहीं।
ReplyDeleteपिछले 5-7 सालो में भारत का हर इंसान आर्थिक सुधारो में ही अपना भविष्य देख रहा है , जो कि मनमोहन सरकार कि दें है |
ReplyDeleteसरकार 85 हज़ार करोड़ तो किसानो के क़र्ज़ को माफ़ करने में व्यर्थ कर देती है अगर यही पैसा उन किसानो के लिए infrastructure में खर्च किया होता तो आज वो अपना क़र्ज़ भी चूका देते और उत्पादन भी ज्यादा कर देते ||
कांग्रेस ने पिछले ६० सालो में देश को यही दिया है , और आगे भी मुझे कोई उम्मीद नहीं है |
aapne sahi likha hai . ye wahi neta ji lig hai jo kaaju khane me paisa barbaad kar dete hai . ye janta kie vote ke liye unake ghar to jate hai lekin jab unke hit ki baat aati hai ti chup ho jaate hai .
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