आर्थिक तौर पर कमजोर और राजनीतिक तौर पर मजबूत बजट को देश में संकट की परिस्थितियों से जोड़ कर कैसे दिखाया जाए, न्यूज चैनलों के सामने यह एक मुश्किल सवाल है। यह ठीक उसी तरह की मुश्किल है, जैसे देश में बीस फीसदी लोग समझ ही नहीं सकते कि प्रतिदिन 20 रुपये की कमाई से भी जिन्दगी चलती है और उनकी अपनी जेब में बीस रुपये का नोट कोई मायने नहीं रखता है। कह सकते हैं कि न्यूज चैनलों ने यह मान लिया है कि अगर वह बाजार से हटे तो उनकी अपनी इक्नॉमी ठीक वैसे ही गड़बड़ा सकती है, जैसे कोई राजनीतिक दल सत्ता में आने के बाद देश की समस्याओं को सुलझाने में लग जाये। और आखिर में सवाल उसी संसदीय राजनीति पर उठ जाये, जिसके भरोसे वह सत्ता तक पहुंचा है।
जाहिर है, ऐसे में न्यूज चैनल कई पैंतरे अपनाएंगे ही । जो खबर और मनोरंजन से लेकर मानसिक दिवालियेपन वाले तक को सुकुन देने का माध्यम बनता चले। सरकार का नजरिया भी इससे कुछ हटकर नहीं है। जनादेश मिलने के बाद पहला बजट इसका उदाहरण है। आम बजट में पहली बार उस मध्यम वर्ग को दरकिनार किया गया, जिसे आम आदमी मान कर आर्थिक सुधार के बाद से बजट बनाया जाता रहा । ऐसे में पहला सवाल यही उठा कि क्या वाकई आर्थिक सुधार का नया चेहरा गांव-किसान पर केंन्द्रित हो रहा है। क्योंकि बजट में ग्रामीण समाज को ज्यादा से ज्यादा धन देने की व्यवस्था की गयी।
जब बहस आर्थिक सुधार के नये नजरिये से बजट के जरिये शुरु होगी तो अखबार में आंकड़ों के जरिये ग्रामीण जीवन की जरुरत और बजट की खोखली स्थिति पर लिखा जा सकता है। लेकिन हिन्दी न्यूज चैनलो का संकट यह है, उसे देखने वालो की बड़ी तादाद अक्षर ज्ञान से भी वंचित है। यानी टीवी पढ़ने के लिये नहीं, देखने-सुनने के लिये होता है। बजट में किसान, मजदूर, पिछडा तबका, अल्पसंख्यक समुदाय के हालात को लेकर जिस तरह की चिंता व्यक्त की गयी, उसमें उनके विकास को उसी पूंजी पर टिका दिया गया, जिसके आसरे बाजार किसी भी तबके को समाधान का रास्ता नहीं मिलने नहीं दे रहा है। यानी उच्च या मध्यम वर्ग की कमाई या मुनाफा बढ़ भी जाये तो भी उसकी जरुरते पूरी हो जायेगी, यह सोचना रोमानीपन है। इतना ही नहीं सरकार मुश्किल हालात उसी आर्थिक सुधार के जरीय खड़ा कर रही है, जिस सुधार के आसरे ज्यादा मुनाफा देने की बात कर वह बाजारवाद को बढ़ाती है। यानी ज्यादा से ज्यादा पूंजी किसी भी तबके को इस व्यवस्था में थोडी राहत दे सकती है...बड़ा उपभोक्ता बना सकती है। लेकिन देश का विकास नहीं कर सकती क्योंकि उसका अपना इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है । और सरकार इस इन्फ्रास्ट्रक्चर को बनाने की दिशा में जा नहीं रही है।
न्यूज चैनलों का सबसे बडा संकट यही है कि वह सरकार की सोच और ग्रामीण भारत के माहौल को एक साथ पकड़ नहीं पा रहे हैं । साथ ही ग्रामीण जमीन के सच को बजट के सच से जोड़कर सरकार की मंशा को समझा भी नहीं पा रहे हैं। जबकि टीवी पर इस हकीकत को दिखाकर मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था के सतहीपन को उभारा जा सकता है। मसलन बजट को ही लें । बजट में ग्रामीण विकास के लिये अलग अलग क्षेत्र में इस बार खासा धन दिया गया। लेकिन पहला सवाल खडा होगा है कि जो धन बजट के जरीये निकला, वह गांव में आखिरी आदमी तो दूर की बात है, पहले व्यक्ति तक भी पहुंचेगा या नहीं और अगर पहुंचेगा तो कितना पहुंचेगा। यह सवाल इसलिये जरुरी है, क्योंकि कांग्रेस के नेता राजीव गांधी मानते थे और राहुल गांधी यह बात खुलकर मानते है कि केन्द्र से चला एक रुपया योजना तक पहुंचते पहुंचते दस से पन्द्रह पैसा ही बचता है। असल में बजट में अलग अलग योजना के मद में ही साठ फीसदी पूंजी इस बार बांटी गयी है। यानी राहुल गांधी के नजरिये को अगर सही माने तो साठ लाख करोड रुपया, जिसे विकास के लिये ग्रामीण जीवन को बेहतर बनाने के लिये प्रणव मुखर्जी ने दिया है, वह छह से नौ लाख करोड़ तक ही पहुंचेगा । बाकि पचास लाख करोड से ज्यादा की पूंजी दिल्ली से चलते हुये गांवों तक के रास्ते में बिचौलिये और दलालो द्वारा हडप ली जायेगी । इसमें नौकरशाह से लेकर राजनेता और राज्यो के तंत्र से लेकर पंचायत स्तर के बाबूओ का खेल ही रहेगा। सवाल यह है कि अगर सरकार भी इस पैसा हड़प तंत्र से वाकिफ है तो वह वैकल्पिक व्सवस्था क्यों नहीं करती है। और दूसरा सवाल है कि पूंजी के आसरे जब समाधान हो ही नहीं सकता है तो इन्फ्रास्ट्रक्चर पर ही सारा धन लगाने की बात सरकार क्यो नहीं करती है।
पहले सवाल का जबाब बेहद साफ है । पैसा हडपने वाले तंत्र में उसी व्यवस्था के लोग है, जिसके आसरे देश की सत्ता या राजनीति चलती है। क्योंकि महानगर से लेकर जिला और गांव स्तर पर राजनीति खुद को इसी आसरे टिकाये रखती है कि अगर उनके समर्थन वाली पार्टी सत्ता में आ जायेगी तो उन्हें सीधा लाभ मिल जायेगा । असल में पैसा हड़पने वाले तंत्र और राज्य के बीच का समझौता ही एक नयी व्यवस्था खडा करता है जो नीतियों के आसरे बिना रोजगार के भी बेरोजगारों को पार्टियो के जरीये रोजगार दे देती है। इसको सरलता से समझने के लिये बंगाल में वामपंथियो की राज्य चलाने की व्यवस्था देखी जा सकती है। वहा कैडर ही सबसे प्रभावशाली होता है। और कोलकत्ता से नीतियो के सहारे जो धन गांव और पंचायत स्तर तक जाते है वह पूरी तरह कैडर के दिशा निर्देश पर ही खर्च होते हैं। यानी कैडर विकास से जुडी पूंजी को भी व्यक्तिगत लाभ और पार्टी के संगठन से जोडकर पार्टी की तानाशाही को इस तरीके से परोसता है, जिससे विकास का मतलब ही पार्टी के कैडर पर आ टिके। लेकिन दिल्ली की राजनीति खुद को इतना पारदर्शी नहीं दिखलाती। क्योंकि उसके लिये कैडर तंत्र के तौर पर विकसित होता है। जो अलग अलग मुद्दों के आसरे अलग अलग संस्थाओ को भी लाभ पहुंचाता है, और संस्थाओं के जरीये अपने राजनीतिक हित भी साधता है। राजनीतिक हित भी अलग अलग राज्यो में या अलग अलग इलाको में अलग अलग तरीके से चलते हैं। जैसे नरेगा का ज्यादा लाभ उन्हीं राज्यो में होगा, जहां केन्द्र और राज्य की सरकार एक ही पार्टी की हो। हो सकता है जवाहर रोजगार योजना से लेकर इन्दिरा अवास योजना के तहत घर बनाने का काम या उसका लाभ भी उन्ही क्षेत्रों में उन्हीं लोगों को हो, जिसके जरीये राजनीति अपना हित साध सकने में सक्षम हो।
ऐसा नहीं है कि इस तंत्र को बनाने और अपने उपर निर्भर रखने में सिर्फ कांग्रेस ही सक्षम है । यह स्थिति भाजपा के साथ भी रही है । भाजपा की अगुवायी में एनडीए की सरकार के वक्त वित्त मंत्री यशंवत सिन्हा ने इस काम को बीजेपी के लिये बाखूबी इस्तेमाल किया । खासकर व्यापारियों को लाभ पहुंचाने की जो रणनीति नीतियो के आसरे भाजपा के दौर में अपनायी गयीं, उससे बिचौलिये और दलालो की भूमिका कई स्तर पर बढ़ी। वहीं, कांग्रेस ने उस मध्य वर्ग को अपने उपर आश्रित किया जो उच्च वर्ग में जाने के लिये लालायित रहता है। यह राजनीति का ऐसा चैक एंड बैलेंस का खेल है, जिसमें देश हमेशा संकट में रहेगा और और पार्टी का यह तंत्र इस बात का एहसास अपने अपने घेरे में हर जगह कराता है कि अगर उनके समर्थन वाली पार्टी सत्ता में रहती तो ज्यादा लाभ मिलता या फिर उनकी पार्टी सत्ता में आयी है तो लाभ मिलेगा ही।
यहीं से दूसरा सवाल खडा होता है कि आखिर इन्फ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने की दिशा में सरकार की नीतियां क्यों नहीं जा रही है । जबकि इस बार कांग्रेस को जनादेश भी ऐसा मिला है, जिसमें पांच साल सरकार चलाने के बीच में कोई समर्थन खींच कर सरकार पर संकट भी पैदा नहीं कर सकता है । किसानों के स्थायी समाधान की दिशा के बदले सरकार उन्हे तत्काल राहत देकर अगले संकट से निजात दिलाने के लिये अपनी मौजूदगी का एहसास हर चुनाव के मद्देनजर करती है । इस बार किसानों को लेकर बजट में सबसे ज्यादा पांच लाख करोड तक की सीधी व्सयस्था की गयी है। लेकिन सवाल है अगर मानसून नहीं आता है, तो किसान को सरकार के पैकेज पर ही निर्भर रहना पडेगा । जो विदर्भ से लेकर बुदेलखंड तक के किसानो की फितरत बन चुकी है।
सवाल है सरकार फसल बीमा की दिशा में आजतक नहीं सोच पायी है, लेकिन मुश्किल कहीं ज्यादा बड़ी यह है कि देश में खेती योग्य जमीन में से सिर्फ दस फीसदी जमीन ही ऐसी है, जिसके लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर की व्यवस्था है । यानी नब्बे फीसदी खेती के लिये सिंचाई तक की व्यवस्था भी देश में नहीं हो पायी है । यही स्थिति बीज और खाद को लेकर भी है। और सबसे खतरनाक स्थिति तो यही है कि अगर अपना पसीना बहाकर किसान अच्छी फसल पैदा कर भी लेता है तो भी फसल की कीमत का तीस से चालीस फीसदी ही उसके हिस्से में आता है, यानी बाकी साठ से सत्तर फिसदी बिचौलिये और दलालों के पास पहुंचता है। यानी बाजार से किसानों को जोड़ने तक की कोई सीधी व्यवस्था सरकार ने आज तक नहीं की है। जबकि खेती योग्य जमीन पर जो ढाई सौ से ज्यादा स्पेशल इकनामी जोन बनाने की तैयारी निजी क्षेत्र के जरीये सरकार कर रही है, और उसके लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर का पूरा ढांचा खिंचने के लिये तमाम राज्य सरकारे तैयार हैं। बैंक बिना दस्तावेज देखे लोन देने को तैयार है और बिचौलिये और दलालो का बडा तबका इसके शेयरो में पैसा लगाकर सीधे मुनाफा बनाने को तैयार है।
यह स्थिति हर उस क्षेत्र में है जो सामाजिक तौर पर तो मजबूत है लेकिन आर्थिक तौर पर सरकार के रहमो-करम पर टिका है । मसलन जो न्यूनतम जरुरत के सवाल किसी भी आम व्यक्ति से जुडते हैं, उन्हें भी पूरा ना कर सरकार की नीतियों के आसरे उस पूंजी पर टिका दिया गया है, जो सरकारो के बदलने से उनकी मानवीय-अमानवीय होने का तमगा पाती हैं। या कहे आर्थिक सुधार में बाजारवाद का नारा लगा कर खुद को विकसित बनाने का प्रोपोगेंडा करती हैं। शिक्षा के मद्देनजर सभी को मुफ्त शिक्षा देने की बात पर दिल्ली में सरकार मुहर लगा सकती है। लेकिन हर गांव में जब प्राथमिक स्कूल तक नहीं है, तो शिक्षा देगा कौन और लेगा कौन । फिर मुफ्त शिक्षा के नाम पर अगर आंकडे दिखाये जाये और उसके बदले ग्रांट मिल जाये तो एक ही बच्चे की नाम बदल कर छह स्कूलो में दिखाया भी जा सकता है और कोई फ्राड नाम बना कर भी रजिस्ट्र में डाला जा सकता है। इसकी फेहरिस्त कुछ भी हो सकती है। यानी कितने भी बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने का ढिढोरा पिटा जा सकता है । साथ ही चुनावी वायदे के तहत सरकारी टारगेट को पाया जा सकता है। यहां सवाल मोनिटरिंग का खड़ा हो सकता है । लेकिन राजनीतिक तौर पर जो तंत्र खड़ा किया गाया है, उसमें मोनिटरिंग करने वाला शख्स सबसे ज्यादा कमाई करने वाला बन जायेगा। और मोनेटिंग तंत्र एक रुपये में बचे दस पैसे को भी कम कर पांच पैसे ही आखिरी आदमी तक पहुंचने देगा । यह स्थिति शिक्षा के साथ स्वास्थय और पीने के पानी को लेकर भी है । देश का साठ फिसदी क्षेत्र अभी भी जब न्यूनतम की लड़ाई ही लड रहा है तो विकासशील और विकसित होने का कौन सा बजट देश को जहन में रखेगा।
जाहिर है देश का संघर्ष यहीं दम तोडता हुआ सा दिखता है । लेकिन यहीं से संसदीय राजनीति का ताना बाना शुरु होता है। संघर्ष का मतलब है हक की बात । अधिकार का सवाल। संसदीय राजनीति इस बात की इजाजत देती नहीं है, सत्ता में आने के लिये पचास फीसदी वोट चाहिये। बल्कि इजाजत इसकी भी नहीं है कि जो पचास फीसदी वोट डलते है, उसके भी पचास फीसदी वोट होने चाहिये तभी सत्ता मिलेगी। यानी देश के कुल वोटरों का पच्चीस फीसदी तो दूर पन्द्रह फीसदी तक भी वोट अपने बूते किसी एक राजनीतिक दल को नहीं मिलता। कांग्रेस जो सबसे पुरानी और राष्ट्रीय पार्टी है, अकेली पार्टी है जिसे देश में दस करोड़ से ज्यादा वोट मिले है। फिर सत्तर करोड़ वोटरों के देश में 35 करोड़ वोटर वोट ही नहीं डालते। फिर भी लोकतंत्र का तमगा उन्हीं राजनीतिक दलों के साथ जुड़ जाता है, जो सत्ता में होती है। लोकतंत्र का मतलब यहां दूसरों के अलोकतांत्रिक कहने का अधिकार है। यानी प्रणव मुखर्जी का बजट अगर देश के चालीस करोड आदिवासियों-किसान-मजदूरों के खाली पेट और न्यूनतम अधिकार की भी पूर्ति नहीं कर सकता है तो भी प्रणव मुखर्जी विशेषाधिकार प्राप्त सांसद मंत्री ही रहेंगे। और उनका बजट राष्ट्रीय बजट ही कहलायोगा। और जिन्हें बतौर नागरिक देश में स्वामिमान से जीने का हक है, अगर वह अपने अधिकारों के लिये संघर्ष का रास्ता अख्तियार करते है तो वह कानून व्यवस्था को तोड़ने वाले अलोकतांत्रिक लोग करार दिये जाते है। 1991 के आर्थिक सुधार के बाद से पिछले 18 साल में करीब पांच लाख से ज्यादा वैसे लोगो के खिलाफ समूचे देश के थानों में मामले दर्ज है, जिन्होंने रोजगार,घर, जमीन और न्यूनतम जरुरतो को लेकर संघर्ष किया। असल में आर्थिक सुधार की जो लकीर 1991 में खिंची, उसके 18 साल बाद यही लकीर इतनी मोटी हो गयी की देश के 20 करोड़ लोगों को विस्थापित उन्हीं योजनाओं से होना पड़ा, जिसे बजट और विकासपरख योजना का नाम देकर हर सत्ता ने हरी झंडी दिखायी।
खास बात तो यह है कि विकास की जो लकीर ग्रामीण-आदिवासियों के लिये बनायी जाती है, वही लकीर सबसे पहले ग्रामीण आदिवासी को ही खत्म करती है । यह ठीक उसी तरह है जैसे ग्लोबल वार्मिग या कहे पर्यावरण की मार से बचने के लिये जो एसी..फ्रिज इस्तेमाल किया जाता है, वही सबसे ज्यादा मौसम बिगाड़ते है । गांवो को खत्म कर सुविधाओं के लिये जिन नये शहरो को बनाया- बसाया जा रहा है, वहां वही न्यूनतम असुविधा खड़ी हो रही हैं, जो गांवो में थी । यानी सीमेंट की अट्टालिकायें गांव से शहर तो किसी भी ग्रामीण को ले आयेंगी, लेकिन जमीन के नीचे के पानी के सूखने से लेकर हर न्यूनतम जरुरत के लिये उसी बाजार के लिये उपभोक्ता बनना ही पड़ेगा, जो सरकार या प्रणव मुखर्जी का बजट बनाना चाहता है। जिसमें आर्थिक सुधार का मतलब धन को अलग अलग मदो में बांटना होता है । लेकिन सरकार की आर्थिक नीतिया कभी किसी को आतंकित नही करतीं। अगर आंतकवाद और नक्सलवाद के सामानातंर आर्थिक आंतक के आंकडो को ही रखें, तो भी बीते 18 वर्षो की स्थिति समझी जा सकती है। बीते इन 18 सालो में अगर आतंकवाद की स्थिति देखें तो करीब 950 घटनाओ में 15 हजार से ज्यादा लोग मारे गये। पांच लाख से ज्यादा लोग उससे प्रभावित हुये और करीब एक हजार करोड़ का सीधा नुकसान आतंकवादी हिंसा से हुआ। वहीं, नक्सलवाद और सांप्रदायिक हिंसा की 1500 से ज्यादा घटनाये हुईं। जिसमें 18 हजार से ज्यादा लोग मारे गये । जबकि प्रभावित लोगों की संख्या बीस करोड तक की है। वही सीधा आर्थिक नुकसान एक लाख करोड़ से ज्यादा का हुआ। वहीं, जिस आर्थिक नीतियों को ट्रेक वन - टू कह कर एनडीए और यूपीए ने चलाया । उसके अंतर्गत दो हजार से ज्यादा घपले-घोटाले देश में हुये । आर्थिक नीतियों की वजह से 65 हजार किसानों ने आत्महत्या कर ली । कुपोषण से सिर्फ विदर्भ में बीस हजार से ज्यादा बच्चे मर गये। जिनकी जमीन , रोजगार, घर छिन गया, उनकी संख्या चालीस करोड़ से ज्यादा की है । आर्थिक तौर पर 50 लाख करोड़ से ज्यादा का नुकसान उन करोडों लोगों को हुआ, जिनकी जीती जागती जिन्दगी खत्म हो गयी ।
जाहिर है, जितने लोग सरकार की नीतियो की हिंसा की मार से प्रभावित हुये या फिर आतंकवाद से लेकर सांप्रदायिक हिंसा में जिनका सबकुछ स्वाहा हो गया, उनसे ज्यादा वोट 15 वी लोकसभा के लिये भी नहीं पड़े । जो दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र को परतंत्र का आईना भी दिखाता है। लेकिन दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र होने का तमगा और सबसे बड़ा बाजार कहलाने का सुकून ही संसदीय राजनीति का असल सच है, इसलिये जनादेश के बाद बजट का चेहरा पूरी दुनिया को मानवीय लगेगा ही । लेकिन बडा सवाल हैं, घुप्प अंधेरे के दौर में अंधेंरे का ही गीत सरकार-मीडिया क्यों गाते हैं।
Thursday, July 30, 2009
Sunday, July 26, 2009
मीडिया, राजनीति और नौकरशाही का कॉकटेल
मीडिया को अपने होने पर संदेह है । उसकी मौजूदगी डराती है । उसका कहा-लिखा किसी भी कहे लिखे से आगे जाता नहीं। कोई भी मीडिया से उसी तरह डर जाता है जैसे नेता....गुंडे या बलवा करने वाले से कोई डरता हो। लेकिन राजनीति और मीडिया आमने-सामने हो तो मुश्किल हो जाता है कि किसे मान्यता दें या किसे खारिज करें। रोना-हंसना, दुत्काराना-पुचकारना, सहलाना-चिकोटी काटना ही मीडिया-राजनीति का नया सच है। मीडिया के भीतर राजनीति के चश्मे से या राजनीति के भीतर मीडिया के चश्मे से झांक कर देखने पर कोई अलग राग दोनो में नजर नहीं आयेगा। लेकिन दोनों प्रोडेक्ट का मिजाज अलग है, इसलिये बाजार में दोनों एक दूसरे की जरुरत बनाये रखने के लिये एक दूसरे को बेहतरीन प्रोडक्ट बताने से भी नहीं चूकते। यह यारी लोकतंत्र की धज्जिया उड़ाकर लोकतंत्र के कसीदे भी गढ़ती है और भष्ट्राचार में गोते लगाकर भष्ट्राचार को संस्थान में बदलने से भी नही हिचकती।
मौजूद राजनेताओं की फेरहिस्त में मीडिया से निकले लोगो की मौजूदगी कमोवेश हर राजनीतिक दलो में है । अस्सी के दशक तक नेता अपनी इमेज साफ करने के लिये एक बार पत्रकार होने की चादर को ओढ़ ही लेता था, जिससे नैतिक तौर पर उसे भी समाज का पहरुआ मान लिया जाये। जागरुक नेता के तौर पर ...बुद्दिजीवी होने का तमगा पाने के तौर पर, पढ़े-लिखों के बीच मान्यता मिलने के तौर पर नेता का पत्रकार होना उसके कैरियर का स्वर्णिम हथियार होता, जिसे बतौर नेता मीडिया के घेरे में फंसने पर बिना हिचक वह उसे भांजता हुआ निकल जाता।
नेहरु से लेकर वाजपेयी तक के दौर में कई प्रधानमंत्रियो और वरिष्ठ नेताओं ने खुलकर कहा कि वह पत्रकार भी रह चुके हैं। आई के गुजराल और वीपी सिंह भी कई मौकों पर कहते थे कि एक वक्त पत्रकार तो वह भी रहे हैं । लेकिन नया सवाल एकदम उलट है। एक पत्रकार की पुण्यतिथि पर कबिना मंत्री मंच से खुलकर कहता है कि उन्हें मीडिया की फ्रिक्र नहीं है कि वह क्या लिखते हैं क्योकि पत्रकार और पत्रकारिता अब मुनाफा बनाने के लिये किसी भी स्तर तक जा पहुंची है। अखबार के एक ही पन्ने पर एक ही व्यक्ति से जुड़ी दो खबरें छपती हैं, जो एक दूसरे को काटती हैं। राजनेता की यह सोच ख्याली कह कर टाली नहीं जा सकती है । हकीकत है कि इस तरह की पत्रकारिता हो रही है ।
लेकिन यहां सवाल उस राजनीति का है, जो खुद कटघरे में है। सत्ता तक पहुंचने के जिसके रास्ते में कई स्तर की पत्रकारिता की बलि भी वह खुद चढ़ाता है और जो खुद मुनाफे की अर्थव्यवस्था को ही लोकहित का बतलाती है। लेकिन लोकहित किस तरह राज्य ने हाशिये पर ढकेला है यह कोई दूर की गोटी नहीं है लेकिन यहां सवाल मीडिया का है। यानी उस पत्रकारिता का सवाल है, जिस पत्रकारिता को पहरुआ होना है, पर वह पहरुआ होने का कमीशन मांगने लगी है और जिस राजनीति को कल्य़ाणकारी होना है, वह मुनाफा कमा कर सत्ता पर बरकरार रहने की जोड़तोड़ को राष्ट्रीय नीति बनाने और बतलाने से नही चूक रही है। तो पत्रकार को याद करने के लिये मंच पर नेता चाहिये, यह सोच भी पत्रकारो की ही है और नेता अगर पत्रकारो के मंच से ही पत्रकारिता को जमीन दिखा दे तो यह भी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है।
लेकिन पत्रकारिता के घालमेल का असल खेल यहीं से शुरु होता है । मीडिया को लेकर पिछले एक दशक में जितनी बहस मीडिया में ही हुई उतनी आजादी के बाद से नहीं हुई है। पहली बार मीडिया को देखने, समझने या उसे परोसने को लेकर सही रास्ता बताने की होड मीडियाकर्मियों में ही जिस तेजी से बढ़ी है, उसका एक मतलब तो साफ है कि पत्रकारो में वर्तमान स्थिति को लेकर बैचैनी है। लेकिन बैचैनी किस तरह हर रास्ते को एक नये चौराहे पर ले जाकर ना सिर्फ छोड़ती है, बल्कि मीडिया का मूल कर्म ही बहस से गायब हो चला है, इसका एहसास उसी सभा में हुआ, जिसमें संपादक स्तर के पत्रकार जुटे थे।
उदयन शर्मा की पुण्यतिथि के मौके पर जो सवाल उस सभा में मंच या मंच के नीचे से उठे, वह गौर करने वाले इसलिये हैं, क्योंकि इससे हटकर व्यवसायिक मीडिया में कुछ होता नही और राजनीति भी कमोवेश अपने आत्ममंथन में इसी तरह के सवाल अपने घेरे में उठाती है और सत्ता मिलने के बाद उसी तरह खामोश हो जाती है, जैसे कोई पत्रकार संपादक का पद मिलने के बाद खुद को कॉरपोरेट का हिस्सा मान लेता है। मीडिया अगर प्रोडक्ट है तो पाठक उपभोक्ता हैं। और उपभोक्ता के भी कुछ अधिकार होते हैं। अगर वह माल खरीद रहा है तो उसे जो माल दिया जा रहा है उसकी क्वालिटी और माप में गड़बड़ी होने पर उपभोक्ता शिकायत कर भरपायी कर सकता है। लेकिन मीडिया अगर खबरों की जगहो पर मनोरंजन या सनसनाहट पैदा करने वाले तंत्र-मंत्र को दिखाये या छापे तो उपभोक्ता कहां शिकायत करें। यह मामला चारसौबीसी का बनता है । इस तरह के मापदंड मीडिया को पटरी पर लाने के लिये अपनाये जाने चाहिये। प्रिंट के पत्रकार की यह टिप्पणी खासी क्रांतिकारी लगती है।
लेकिन मीडिया को लेकर पत्रकारों के बीच की बहस बार बार इसका एहसास कराने से नहीं चूकती कि पत्रकारिता और प्रोडक्ट में अंतर कुछ भी नही है । असल में खबरों को किसी प्रोडक्ट की तरह परखें तो इसमें न्यूज चैनल के पत्रकार की टिप्पणी भी जोड़ी जा सकती है, जिनके मुताबिक देश की नब्ज न पकड़ पाने की वजह कमरे में बैठकर रिपोर्टिग करना है। और आर्थिक मंदी ने न्यूज चैनलों के पत्रकारो को कमरे में बंद कर दिया है, ऐसे में स्पॉट पर जाकर नब्ज पकडने के बदले जब रिपोर्टर दिल्ली में बैठकर समूचे देश के चुनावी तापमान को मांपना चाहेगा तो गलती तो होगी ही।
जाहिर है यह दो अलग अलग तथ्य मीडिया के उस सरोकार की तरफ अंगुली उठाते हैं जो प्रोडक्ट से हटकर पत्रकारिता को पैरों पर खड़ा करने की जद्दोजहद से निकली है । इसमें दो मत नहीं कि समाज की नब्ज पकड़ने के लिये समाज के बीच पत्रकार को रहना होगा लेकिन मीडिया में यह अपने तरह की अलग बहस है कि पत्रकारिता समाज से भी सरोकार तभी रखेगी, जब कोई घटना होगी या चुनाव होंगे या नब्ज पकडने की वास्तव में कोई जरुरत होगी। यानी मीडिया कोई प्रोडक्ट न होकर उसमें काम करने वाले पत्रकार प्रोडक्ट हो चुके हैं, जो किसी घटना को लेकर रिपोर्टिंग तभी कर पायेंगे जब मीडिया हाउस उसे भेजेगा।
अब सवाल पहले पत्रकार का जो उपभोक्ताओ को खबरें न परोस कर चारसौबीसी कर रहा है। तो पत्रकार के सामने तर्क है कि वह बताये कि आखिर शहर में दंगे के दिन वह किसी फिल्म का प्रीमियर देख रहा था तो खबर तो फिल्म की ही कवर करेगा । या फिर फिल्म करोड़ों लोगों तक पहुंचेगी और दंगे तो सिर्फ एक लाख लोगो को ही प्रभावित कर रहे हैं, तो वह अपना प्रोडक्ट ज्यादा बड़े बाजार के लिये बनायेगा। यानी देश में सांप्रदायिक दंगो को राजनीति हवा दे रही है और उसी दौर में फिल्म अवॉर्ड समारोह या कोई मनोरंजक बालीवुड का प्रोग्राम हो रहा है और कोई चैनल उसे ही दिखाये। य़ा फिर अवार्ड समारोह की ही खबर किसी अखबार के पन्ने पर चटकारे लेकर छपी रहे तो कोई उपभोक्ता क्या कर सकता है। जैसे ही पत्रकारिता प्रोडक्ट में तब्दील की जायेगी, उसे समाज की नहीं बाजार की जरुरत पड़ेगी। पत्रकारिता का संकट यह नहीं है कि वह खबरों से इतर चमकदमक को खबर बना कर परोसने लगी है।
मुश्किल है पत्रकारिता के बदलते परिवेश में मीडिया ने अपना पहला बाजार राजनीति को ही माना। संपादक से आगे क्या। यह सवाल पदों के आसरे पहचान बनाने वाले पत्रकारों से लेकर खांटी जमीन की पत्रकारिता करने वालो को भी राजनीति के उसी दायरे में ले गया, जिस पर पत्रकारिता को ही निगरानी रखते हुये जमीनी मुद्दों को उठाये रखना है। संयोग से उदयन की इस सभा में एनसीपी के नेता डीपी त्रिपाठी ने कहा कि राजनीति का यह सबसे मुश्किल भरा वक्त इसलिये है क्योकि वाम राजनीति इस लोकसभा चुनाव में चूक गयी। वाम राजनीति रहती तो सत्ता मनमानी नहीं कर सकती थी। वहीं कपिल सिब्बल ने कहा कि उदयन सरीखे पत्रकार होते तो पत्रकारिता चूकती नही, जो लगातार चूक रही है । लेकिन मंच के नीचे से यह सवाल भी उठा कि उदयन को भी आखिर राजनीति क्यों रास आयी । क्यो पत्रकारिता में इतना स्पेस नहीं है कि पत्रकार की जिजिविशा को जिलाये रख सके। उदयन जिस दौर में कांग्रेस में गये या कहें कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़े, उस दौर में देश में सांप्रदायिकता तेजी से सर उठा रही थी । और उदयन की पहचान सांप्रदायिकता के खिलाफ पत्रकारिता को धार देने वाली रिपोर्ट करने में ही थी। सवाल सिर्फ उदयन का ही नहीं है। अरुण शौरी जिस संस्थान से निकले, उसे चलाने वाले गोयनका राजनीति में अरुण शौरी से मीलो आगे रहे। लेकिन गोयनका ने कभी पिछले दरवाजे से संसद पहुचने की मंशा नहीं जतायी। चाहते तो कोई रुकावट उनके रास्ते में आती नहीं । गोयनका को पॉलिटिकल एक्टिविस्ट के तौर पर देखा समझा जा सकता है। लेकिन उसी इंडियन एक्सप्रेस में जब कुलदीप नैयर का सवाल आता है और इंदिरा गांधी के दबाब में कुलदीप नैयर से और कोई नहीं गोयनका ही इस्तीफा लेते है तो पत्रकारिता के उस घेरे को अब के संपादक समझ सकते है कि मीडिया की ताकत क्या हो सकती है, अगर उसे बनाया जाये तो।
लेकिन कमजोर पड़ते मीडिया में अच्छे पत्रकारो के सामने क्या सिर्फ राजनीति इसीलिये रास्ता हो सकती है क्योकि उनका पहला बाजार राजनीति ही रहा और खुद को बेचने वह दूसरी जगह कैसे जा सकते हैं। स्वप्न दास हो या पायोनियर के संपादक चंदन मित्रा या फिर एम जे अकबर । इनकी पत्रकारिता पर उस तरह सवाल उठ ही नहीं सकते हैं, जैसे अब के संपादक या पत्रकारो के राजनीति से रिश्ते को लेकर उठते हैं। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि राजनीति में गये इन पत्रकारों की हैसियत राजनीतिक मंच पर क्या हो सकती है या क्या है, जरा इस स्थिति को भी समझना चाहिये।
राजनीतिक गलियारे में माना जाता है कि उड़ीसा में नवीन पटनायक से बातचीत करने के लिये अगर चंदन मित्रा की जगह किसी भी नेता को भेजा जाता तो बीजू जनता दल और भाजपा में टूट नहीं होती। इसी तरह चुनाव के वक्त वरुण गांधी के समाज बांटने वाले तेवर को लेकर बलबीर पूंज ही भाजपा के लिये खेतवार बने। बलवीर पुंज भी एक वक्त पत्रकार ही थे । और वह गर्व भी करते है कि पत्रकारिता के बेहतरीन दौर में बतौर पत्रकार उन्होने काम किया है। लेकिन राजनीति के घेरे में इन पत्रकारो की हैसियत खुद को वाजपेयी-आडवाणी का हनुमान कहने वाले विनय कटियार से ज्यादा नहीं हो सकती है। तो क्या माना जा सकता है कि पत्रकारिय दौर में भी यह पत्रकार पत्रकारिता ना करके राजनीतिक मंशा को ही अंजाम देते रहे। और जैसे ही राजनीति में जाने की सौदेबाजी का मौका मिला यह तुरंत राजनीति के मैदान में कूद गये।
पत्रकार का नेता बनने का यह पिछले दरवाजे से घुसना कहा जा सकता है,क्योकि राजनीति जिस तरह का सार्वजनिक जीवन मांगती है, पत्रकार उसे चाहकर भी नहीं जी पाता। पॉलिटिक्स और मीडिया को लेकर यहां से एक समान लकीर भी खिंची जा सकती है। दोनों पेशे में समाज के बीच जीवन गुजरता है। यह अलग बात है कि पत्रकारों को राजनीतिज्ञो के बीच भी वक्त गुजारना पड़ता है और नेता भी मीडिया के जरीये समाज की नब्ज टटोलने की कोशिश करता रहता है। लेकिन संयोग से दोनो जिस संकट पर पहुचे है, उसका जबाब भी इन्ही दोनों पेशे की तरफ से उदयन को याद करने वाली सभा में उभरा।
राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक के एक ब्यूरो चीफ ने सभा में साफ कहा कि पत्रकारिता का सबसे बडा संकट तत्काल को जीना है। इसमें भी बडा संकट गहरा रहा है क्योकि आने वाली पीढ़ी तो उस गलती को भी नहीं समझ पा रही है, जिसे अभी के संपादक किये जा रहे हैं। यानी जो मीडिया में सत्तासीन हैं, उन्हे तमाम गलतियों के बावजूद पद छोडना नहीं है या उन्हे हटाने की बात करना सही नहीं है क्योकि उनके हटने के बाद जो पीढी आयेगी, वह तो और दिवालिया है।
जाहिर है यह समझ खुद को बचाने वाली भी हो सकती है और आने वाली पीढ़ी की हरकतो को देखकर वाकई का डर भी। लेकिन पत्रकारिता में संकट के दौर में यह एक अनूठी समझ भी है, जिसमें उस दौर को मान्यता दी जा रही है जो बाजार के जरीये मीडिया को पूरी तरह मुनाफापरस्त बना चुकी है। लेकिन इस मुनाफापरस्त वक्त की पीढी की पत्रकारिता को कोई बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है य़ा फिर उसके मिजाज को पत्रकारिय चिंतन से इतर देख रहा है। यह घालमेल राजनीति में किस हद तक समा चुका है, इसे सीपीएम नेता सीताराम येचुरी के ही वक्तव्य से समझा जा सकता है। संयोग से उदयन की सभा के दिन सीपीएम सेन्ट्रल कमेटी की बैठक भी दिल्ली में हो रही थी, जिसमें चुनाव में मिली हार की समीक्षा की जा रही थी। और सीताराम येचुरी दिये गये वादे के मुताबिक बैठक के बीच में उदयन की सभा में पहुंचे, जिसमें उन्होंने माना कि वामपंथियों की हार की बड़ी वजह उन आम वोटरों को अपनी भावनाओं से वाकिफ न करा पाना था, जिससे उन्हें वोट मिलते। यानी सीपीएम के दिमाग में जो राजनीति तमाम मुद्दों को लेकर चल रही थी, उसके उलट लोग सोच रहे होगे, इसलिये सीपीएम हार गयी। लेकिन क्या सिर्फ यही वजह रही होगी। हालाकि सीपीएम के मुखपत्र में कैडर में फैलते भष्ट्राचार से लेकर कैडर और आम वोटरो के बीच बढ़ती दूरियो का भी बच बचाकर जिक्र किया गया। लेकिन सीताराम येचुरी के कथन ने उस दिशा को हवा दी, जहा राजनीति अपने हिसाब से जोड़-तोड़ कर सत्ता में आने की रणनीति अपनाती है लेकिन जनता के दिमाग में कुछ और होता है।
यहां सवाल है कि राजनीति को जनता की जरुरतो को समझना है या फिर राजनीति अपने मुताबिक जनता को समझा कर जीत हासिल कर सकती है। भाजपा ने भी लोकसभा चुनाव में वहीं गलती कि जहां उसे लगा कि उसकी राजनीति को जनता समझ जायेगी और जो मुद्दे जनता से जुड़े हैं अगर उसमें आंतकवाद और सांप्रदायिकता का लेप चढ़ा दिया जाये तो भावनात्मक तौर पर उसके अनुकुल चुनावी परिणाम आ जायेगे। हालांकि भाजपा एक कदम और आगे बढ़ी और उसने हिन्दुत्व को भी मुद्दे सरीखा ही आडवाणी के चश्मे से देखना शुरु किया। हिन्दुत्व कांग्रेस के लिये मुद्दा हो सकता है लेकिन भाजपा की जो अपनी पूरी ट्रेनिंग है, उसमें हिन्दुत्व जीवनशैली होगी। चूंकि आरएसएस की यह पूरी समझ ही भाजपा के लिये एक वोट बैक बनाती है, इसलिये अपने आधार को खारिज कर भाजपा को कैसे चुनाव में जीत मिल सकती है, यह भाजपा को समझना है।
यही समझ वामपंथियो में भी आयी, जहां वह वाम राजनीति से इतर सामाजिक-आर्थिक इंजिनियरिंग का ऐसा लेप तैयार करने में जुट गयी जिसमें वह काग्रेस का विकल्प बनने को भी तैयार हो गयी और जातीय राजनीति से निकले क्षेत्रिय दलों की अगुवाई करते हुये भी खुद को वाम राजनीति करने वाला मानने लगी। इस बैकल्पिक राजनीति की उसकी समझ को उसी की ट्रेनिग वाले वाम प्रदेश में ही उसे सबसे घातक झटका लगा क्योकि उसने अपने उन्हीं आधारो को छोड़ा, जिसके जरीये उसे राजनीतिक मान्यता मिली थी।
जाहिर है यहां सवाल मीडिया का भी उभरा कि क्या उसने भी अपने उन आधारो को छोड़ दिया है, जिसके आसरे पत्रकारिता की बात होती थी । या फिर वाकई वक्त इतना आगे निकल चुका है कि पत्रकारिता के पुराने मापदंडों से अब के मीडिया को आंकना भारी भूल होगी । लेकिन इसके सामानांतर बड़ा सवाल भी इसी सभा में उठा कि मीडिया का तकनीकि विस्तार तो खासा हुआ है लेकिन पत्रकारो का विस्तार उतना नहीं हो पाया है, जितना एक दशक पहले तक पत्रकारो का होता था और उसमें उदयन-एसपी सिंह या फिर राजेन्द्र माथुर या सर्वेश्वरदयाल सक्सेना सरीखो का हुआ। मीडिया को लेकर नौकरशाह चुनाव आयुक्त एस एम कुरैशी ने भी अपनी लताड़ जानते समझते हुये लगा दी कि चुनाव को लेकर जीत-हार का सिलसिला रोक कर चुनाव आयोग ने कितने कमाल का काम किया है। एक तरफ कुरैशी साहब यह बोलने से नहीं चूके की मीडिया सर्वे के जरीये राजनीतिक दलों को लाभ पहुंचा देती है क्योंकि सर्वे का कोई बड़ा आधार नहीं होता। दूसरी तरफ राजनीति के प्रति लोगो में अविश्वास न जागे, इसके लिये मीडिया को भी मदद करने की अपील भी यह कहते हुये कि राजनेता लोकतंत्र की सबसे बड़ी पहचान है । कुरैशी साहब के मुताबिक चुनाव आयोग जिस तरह चुनावों को इतने बडे पैमाने पर सफल बनाता है, असल लोकतंत्र का रंग यही है । हालांकि मंच के नीचे से यह सवाल भी उठा कि सत्तर करोड़ मतदाताओं में से जब पैंतिस करोड़ वोट डालते ही नही तो लोकतंत्र का मतलब क्या होगा। 15 वीं लोकसभा चुनाव में भी तीस करोड से ज्यादा वोटरो ने वोट डालने में रुचि दिखायी ही नही । और वोट ना डालने वालो की यह तादाद राष्ट्रीय पार्टियो को मिले कुल वोट से भी ज्यादा है या कहे कांग्रेस की अगुवाई में जो सरकार बनी है, उससे दुगुना वोट पड़ा ही नहीं।
लेकिन मीडिया का संकट इतना भर नहीं है कि पत्रकार शब्द समाज में किसी को भी डरा दे। राजनीति या नौकरशाही इसके सामने ताल ठोंककर उसे खारिज कर निकल भी सकती है । उस सभा के अध्यक्ष जनता दल यूनाइटेड के अध्यक्ष शरद यादव ने आखिर में जब अभी के सभी पत्रकारो को खारिज कर पुराने पत्रकारो को याद किया तो भी पत्रकारो की इस सभा में खामोशी ही रही। शरद यादव ने बडे प्यार से प्रभाष जोशी को भी खारिज करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उन्होंने कहा कि अभी के पत्रकारो में एकमात्र प्रभाष जोशी हैं, जो सबसे ज्यादा लिखते है लेकिन वह भी रौ में बह जाते हैं। जबकि शरद यादव जी के तीस मिनट के भाषण के बाद मंच के नीचे बैठे हास्य कवि सुरेन्द्र शर्मा ने टिप्पणी की- कोई समझा दे कि शरद जी ने कहा क्या तो उसे एक करोड़ का इनाम मिलेगा। असल में मीडिया की गत पत्रकारों ने क्या बना दी है यह 11 जुलायी को उदयन की पुण्यतिथि पर रखी इस सभा में मंच पर बैठे एक मंत्री,चार नेता और एक नौकरशाह और मंच के नीचे बैठे पत्रकारो की फेरहिस्त में कुलदीप नैयर से लेकर एक दर्जन संपादको से भी समझी जा सकती है। दरअसल, इस सभा में जो भी बहस हुई, इससे इतर मंच और मंच के बैठे नीचे लोगें से भी अंदाज लगाया जा सकता है कि एतक पत्रकारों को याद करने के लिए पत्रकारों द्वारा आयोजित सभी में ही किसे ज्यादा तरजीह मिलेग।
मौजूद राजनेताओं की फेरहिस्त में मीडिया से निकले लोगो की मौजूदगी कमोवेश हर राजनीतिक दलो में है । अस्सी के दशक तक नेता अपनी इमेज साफ करने के लिये एक बार पत्रकार होने की चादर को ओढ़ ही लेता था, जिससे नैतिक तौर पर उसे भी समाज का पहरुआ मान लिया जाये। जागरुक नेता के तौर पर ...बुद्दिजीवी होने का तमगा पाने के तौर पर, पढ़े-लिखों के बीच मान्यता मिलने के तौर पर नेता का पत्रकार होना उसके कैरियर का स्वर्णिम हथियार होता, जिसे बतौर नेता मीडिया के घेरे में फंसने पर बिना हिचक वह उसे भांजता हुआ निकल जाता।
नेहरु से लेकर वाजपेयी तक के दौर में कई प्रधानमंत्रियो और वरिष्ठ नेताओं ने खुलकर कहा कि वह पत्रकार भी रह चुके हैं। आई के गुजराल और वीपी सिंह भी कई मौकों पर कहते थे कि एक वक्त पत्रकार तो वह भी रहे हैं । लेकिन नया सवाल एकदम उलट है। एक पत्रकार की पुण्यतिथि पर कबिना मंत्री मंच से खुलकर कहता है कि उन्हें मीडिया की फ्रिक्र नहीं है कि वह क्या लिखते हैं क्योकि पत्रकार और पत्रकारिता अब मुनाफा बनाने के लिये किसी भी स्तर तक जा पहुंची है। अखबार के एक ही पन्ने पर एक ही व्यक्ति से जुड़ी दो खबरें छपती हैं, जो एक दूसरे को काटती हैं। राजनेता की यह सोच ख्याली कह कर टाली नहीं जा सकती है । हकीकत है कि इस तरह की पत्रकारिता हो रही है ।
लेकिन यहां सवाल उस राजनीति का है, जो खुद कटघरे में है। सत्ता तक पहुंचने के जिसके रास्ते में कई स्तर की पत्रकारिता की बलि भी वह खुद चढ़ाता है और जो खुद मुनाफे की अर्थव्यवस्था को ही लोकहित का बतलाती है। लेकिन लोकहित किस तरह राज्य ने हाशिये पर ढकेला है यह कोई दूर की गोटी नहीं है लेकिन यहां सवाल मीडिया का है। यानी उस पत्रकारिता का सवाल है, जिस पत्रकारिता को पहरुआ होना है, पर वह पहरुआ होने का कमीशन मांगने लगी है और जिस राजनीति को कल्य़ाणकारी होना है, वह मुनाफा कमा कर सत्ता पर बरकरार रहने की जोड़तोड़ को राष्ट्रीय नीति बनाने और बतलाने से नही चूक रही है। तो पत्रकार को याद करने के लिये मंच पर नेता चाहिये, यह सोच भी पत्रकारो की ही है और नेता अगर पत्रकारो के मंच से ही पत्रकारिता को जमीन दिखा दे तो यह भी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है।
लेकिन पत्रकारिता के घालमेल का असल खेल यहीं से शुरु होता है । मीडिया को लेकर पिछले एक दशक में जितनी बहस मीडिया में ही हुई उतनी आजादी के बाद से नहीं हुई है। पहली बार मीडिया को देखने, समझने या उसे परोसने को लेकर सही रास्ता बताने की होड मीडियाकर्मियों में ही जिस तेजी से बढ़ी है, उसका एक मतलब तो साफ है कि पत्रकारो में वर्तमान स्थिति को लेकर बैचैनी है। लेकिन बैचैनी किस तरह हर रास्ते को एक नये चौराहे पर ले जाकर ना सिर्फ छोड़ती है, बल्कि मीडिया का मूल कर्म ही बहस से गायब हो चला है, इसका एहसास उसी सभा में हुआ, जिसमें संपादक स्तर के पत्रकार जुटे थे।
उदयन शर्मा की पुण्यतिथि के मौके पर जो सवाल उस सभा में मंच या मंच के नीचे से उठे, वह गौर करने वाले इसलिये हैं, क्योंकि इससे हटकर व्यवसायिक मीडिया में कुछ होता नही और राजनीति भी कमोवेश अपने आत्ममंथन में इसी तरह के सवाल अपने घेरे में उठाती है और सत्ता मिलने के बाद उसी तरह खामोश हो जाती है, जैसे कोई पत्रकार संपादक का पद मिलने के बाद खुद को कॉरपोरेट का हिस्सा मान लेता है। मीडिया अगर प्रोडक्ट है तो पाठक उपभोक्ता हैं। और उपभोक्ता के भी कुछ अधिकार होते हैं। अगर वह माल खरीद रहा है तो उसे जो माल दिया जा रहा है उसकी क्वालिटी और माप में गड़बड़ी होने पर उपभोक्ता शिकायत कर भरपायी कर सकता है। लेकिन मीडिया अगर खबरों की जगहो पर मनोरंजन या सनसनाहट पैदा करने वाले तंत्र-मंत्र को दिखाये या छापे तो उपभोक्ता कहां शिकायत करें। यह मामला चारसौबीसी का बनता है । इस तरह के मापदंड मीडिया को पटरी पर लाने के लिये अपनाये जाने चाहिये। प्रिंट के पत्रकार की यह टिप्पणी खासी क्रांतिकारी लगती है।
लेकिन मीडिया को लेकर पत्रकारों के बीच की बहस बार बार इसका एहसास कराने से नहीं चूकती कि पत्रकारिता और प्रोडक्ट में अंतर कुछ भी नही है । असल में खबरों को किसी प्रोडक्ट की तरह परखें तो इसमें न्यूज चैनल के पत्रकार की टिप्पणी भी जोड़ी जा सकती है, जिनके मुताबिक देश की नब्ज न पकड़ पाने की वजह कमरे में बैठकर रिपोर्टिग करना है। और आर्थिक मंदी ने न्यूज चैनलों के पत्रकारो को कमरे में बंद कर दिया है, ऐसे में स्पॉट पर जाकर नब्ज पकडने के बदले जब रिपोर्टर दिल्ली में बैठकर समूचे देश के चुनावी तापमान को मांपना चाहेगा तो गलती तो होगी ही।
जाहिर है यह दो अलग अलग तथ्य मीडिया के उस सरोकार की तरफ अंगुली उठाते हैं जो प्रोडक्ट से हटकर पत्रकारिता को पैरों पर खड़ा करने की जद्दोजहद से निकली है । इसमें दो मत नहीं कि समाज की नब्ज पकड़ने के लिये समाज के बीच पत्रकार को रहना होगा लेकिन मीडिया में यह अपने तरह की अलग बहस है कि पत्रकारिता समाज से भी सरोकार तभी रखेगी, जब कोई घटना होगी या चुनाव होंगे या नब्ज पकडने की वास्तव में कोई जरुरत होगी। यानी मीडिया कोई प्रोडक्ट न होकर उसमें काम करने वाले पत्रकार प्रोडक्ट हो चुके हैं, जो किसी घटना को लेकर रिपोर्टिंग तभी कर पायेंगे जब मीडिया हाउस उसे भेजेगा।
अब सवाल पहले पत्रकार का जो उपभोक्ताओ को खबरें न परोस कर चारसौबीसी कर रहा है। तो पत्रकार के सामने तर्क है कि वह बताये कि आखिर शहर में दंगे के दिन वह किसी फिल्म का प्रीमियर देख रहा था तो खबर तो फिल्म की ही कवर करेगा । या फिर फिल्म करोड़ों लोगों तक पहुंचेगी और दंगे तो सिर्फ एक लाख लोगो को ही प्रभावित कर रहे हैं, तो वह अपना प्रोडक्ट ज्यादा बड़े बाजार के लिये बनायेगा। यानी देश में सांप्रदायिक दंगो को राजनीति हवा दे रही है और उसी दौर में फिल्म अवॉर्ड समारोह या कोई मनोरंजक बालीवुड का प्रोग्राम हो रहा है और कोई चैनल उसे ही दिखाये। य़ा फिर अवार्ड समारोह की ही खबर किसी अखबार के पन्ने पर चटकारे लेकर छपी रहे तो कोई उपभोक्ता क्या कर सकता है। जैसे ही पत्रकारिता प्रोडक्ट में तब्दील की जायेगी, उसे समाज की नहीं बाजार की जरुरत पड़ेगी। पत्रकारिता का संकट यह नहीं है कि वह खबरों से इतर चमकदमक को खबर बना कर परोसने लगी है।
मुश्किल है पत्रकारिता के बदलते परिवेश में मीडिया ने अपना पहला बाजार राजनीति को ही माना। संपादक से आगे क्या। यह सवाल पदों के आसरे पहचान बनाने वाले पत्रकारों से लेकर खांटी जमीन की पत्रकारिता करने वालो को भी राजनीति के उसी दायरे में ले गया, जिस पर पत्रकारिता को ही निगरानी रखते हुये जमीनी मुद्दों को उठाये रखना है। संयोग से उदयन की इस सभा में एनसीपी के नेता डीपी त्रिपाठी ने कहा कि राजनीति का यह सबसे मुश्किल भरा वक्त इसलिये है क्योकि वाम राजनीति इस लोकसभा चुनाव में चूक गयी। वाम राजनीति रहती तो सत्ता मनमानी नहीं कर सकती थी। वहीं कपिल सिब्बल ने कहा कि उदयन सरीखे पत्रकार होते तो पत्रकारिता चूकती नही, जो लगातार चूक रही है । लेकिन मंच के नीचे से यह सवाल भी उठा कि उदयन को भी आखिर राजनीति क्यों रास आयी । क्यो पत्रकारिता में इतना स्पेस नहीं है कि पत्रकार की जिजिविशा को जिलाये रख सके। उदयन जिस दौर में कांग्रेस में गये या कहें कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़े, उस दौर में देश में सांप्रदायिकता तेजी से सर उठा रही थी । और उदयन की पहचान सांप्रदायिकता के खिलाफ पत्रकारिता को धार देने वाली रिपोर्ट करने में ही थी। सवाल सिर्फ उदयन का ही नहीं है। अरुण शौरी जिस संस्थान से निकले, उसे चलाने वाले गोयनका राजनीति में अरुण शौरी से मीलो आगे रहे। लेकिन गोयनका ने कभी पिछले दरवाजे से संसद पहुचने की मंशा नहीं जतायी। चाहते तो कोई रुकावट उनके रास्ते में आती नहीं । गोयनका को पॉलिटिकल एक्टिविस्ट के तौर पर देखा समझा जा सकता है। लेकिन उसी इंडियन एक्सप्रेस में जब कुलदीप नैयर का सवाल आता है और इंदिरा गांधी के दबाब में कुलदीप नैयर से और कोई नहीं गोयनका ही इस्तीफा लेते है तो पत्रकारिता के उस घेरे को अब के संपादक समझ सकते है कि मीडिया की ताकत क्या हो सकती है, अगर उसे बनाया जाये तो।
लेकिन कमजोर पड़ते मीडिया में अच्छे पत्रकारो के सामने क्या सिर्फ राजनीति इसीलिये रास्ता हो सकती है क्योकि उनका पहला बाजार राजनीति ही रहा और खुद को बेचने वह दूसरी जगह कैसे जा सकते हैं। स्वप्न दास हो या पायोनियर के संपादक चंदन मित्रा या फिर एम जे अकबर । इनकी पत्रकारिता पर उस तरह सवाल उठ ही नहीं सकते हैं, जैसे अब के संपादक या पत्रकारो के राजनीति से रिश्ते को लेकर उठते हैं। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि राजनीति में गये इन पत्रकारों की हैसियत राजनीतिक मंच पर क्या हो सकती है या क्या है, जरा इस स्थिति को भी समझना चाहिये।
राजनीतिक गलियारे में माना जाता है कि उड़ीसा में नवीन पटनायक से बातचीत करने के लिये अगर चंदन मित्रा की जगह किसी भी नेता को भेजा जाता तो बीजू जनता दल और भाजपा में टूट नहीं होती। इसी तरह चुनाव के वक्त वरुण गांधी के समाज बांटने वाले तेवर को लेकर बलबीर पूंज ही भाजपा के लिये खेतवार बने। बलवीर पुंज भी एक वक्त पत्रकार ही थे । और वह गर्व भी करते है कि पत्रकारिता के बेहतरीन दौर में बतौर पत्रकार उन्होने काम किया है। लेकिन राजनीति के घेरे में इन पत्रकारो की हैसियत खुद को वाजपेयी-आडवाणी का हनुमान कहने वाले विनय कटियार से ज्यादा नहीं हो सकती है। तो क्या माना जा सकता है कि पत्रकारिय दौर में भी यह पत्रकार पत्रकारिता ना करके राजनीतिक मंशा को ही अंजाम देते रहे। और जैसे ही राजनीति में जाने की सौदेबाजी का मौका मिला यह तुरंत राजनीति के मैदान में कूद गये।
पत्रकार का नेता बनने का यह पिछले दरवाजे से घुसना कहा जा सकता है,क्योकि राजनीति जिस तरह का सार्वजनिक जीवन मांगती है, पत्रकार उसे चाहकर भी नहीं जी पाता। पॉलिटिक्स और मीडिया को लेकर यहां से एक समान लकीर भी खिंची जा सकती है। दोनों पेशे में समाज के बीच जीवन गुजरता है। यह अलग बात है कि पत्रकारों को राजनीतिज्ञो के बीच भी वक्त गुजारना पड़ता है और नेता भी मीडिया के जरीये समाज की नब्ज टटोलने की कोशिश करता रहता है। लेकिन संयोग से दोनो जिस संकट पर पहुचे है, उसका जबाब भी इन्ही दोनों पेशे की तरफ से उदयन को याद करने वाली सभा में उभरा।
राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक के एक ब्यूरो चीफ ने सभा में साफ कहा कि पत्रकारिता का सबसे बडा संकट तत्काल को जीना है। इसमें भी बडा संकट गहरा रहा है क्योकि आने वाली पीढ़ी तो उस गलती को भी नहीं समझ पा रही है, जिसे अभी के संपादक किये जा रहे हैं। यानी जो मीडिया में सत्तासीन हैं, उन्हे तमाम गलतियों के बावजूद पद छोडना नहीं है या उन्हे हटाने की बात करना सही नहीं है क्योकि उनके हटने के बाद जो पीढी आयेगी, वह तो और दिवालिया है।
जाहिर है यह समझ खुद को बचाने वाली भी हो सकती है और आने वाली पीढ़ी की हरकतो को देखकर वाकई का डर भी। लेकिन पत्रकारिता में संकट के दौर में यह एक अनूठी समझ भी है, जिसमें उस दौर को मान्यता दी जा रही है जो बाजार के जरीये मीडिया को पूरी तरह मुनाफापरस्त बना चुकी है। लेकिन इस मुनाफापरस्त वक्त की पीढी की पत्रकारिता को कोई बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है य़ा फिर उसके मिजाज को पत्रकारिय चिंतन से इतर देख रहा है। यह घालमेल राजनीति में किस हद तक समा चुका है, इसे सीपीएम नेता सीताराम येचुरी के ही वक्तव्य से समझा जा सकता है। संयोग से उदयन की सभा के दिन सीपीएम सेन्ट्रल कमेटी की बैठक भी दिल्ली में हो रही थी, जिसमें चुनाव में मिली हार की समीक्षा की जा रही थी। और सीताराम येचुरी दिये गये वादे के मुताबिक बैठक के बीच में उदयन की सभा में पहुंचे, जिसमें उन्होंने माना कि वामपंथियों की हार की बड़ी वजह उन आम वोटरों को अपनी भावनाओं से वाकिफ न करा पाना था, जिससे उन्हें वोट मिलते। यानी सीपीएम के दिमाग में जो राजनीति तमाम मुद्दों को लेकर चल रही थी, उसके उलट लोग सोच रहे होगे, इसलिये सीपीएम हार गयी। लेकिन क्या सिर्फ यही वजह रही होगी। हालाकि सीपीएम के मुखपत्र में कैडर में फैलते भष्ट्राचार से लेकर कैडर और आम वोटरो के बीच बढ़ती दूरियो का भी बच बचाकर जिक्र किया गया। लेकिन सीताराम येचुरी के कथन ने उस दिशा को हवा दी, जहा राजनीति अपने हिसाब से जोड़-तोड़ कर सत्ता में आने की रणनीति अपनाती है लेकिन जनता के दिमाग में कुछ और होता है।
यहां सवाल है कि राजनीति को जनता की जरुरतो को समझना है या फिर राजनीति अपने मुताबिक जनता को समझा कर जीत हासिल कर सकती है। भाजपा ने भी लोकसभा चुनाव में वहीं गलती कि जहां उसे लगा कि उसकी राजनीति को जनता समझ जायेगी और जो मुद्दे जनता से जुड़े हैं अगर उसमें आंतकवाद और सांप्रदायिकता का लेप चढ़ा दिया जाये तो भावनात्मक तौर पर उसके अनुकुल चुनावी परिणाम आ जायेगे। हालांकि भाजपा एक कदम और आगे बढ़ी और उसने हिन्दुत्व को भी मुद्दे सरीखा ही आडवाणी के चश्मे से देखना शुरु किया। हिन्दुत्व कांग्रेस के लिये मुद्दा हो सकता है लेकिन भाजपा की जो अपनी पूरी ट्रेनिंग है, उसमें हिन्दुत्व जीवनशैली होगी। चूंकि आरएसएस की यह पूरी समझ ही भाजपा के लिये एक वोट बैक बनाती है, इसलिये अपने आधार को खारिज कर भाजपा को कैसे चुनाव में जीत मिल सकती है, यह भाजपा को समझना है।
यही समझ वामपंथियो में भी आयी, जहां वह वाम राजनीति से इतर सामाजिक-आर्थिक इंजिनियरिंग का ऐसा लेप तैयार करने में जुट गयी जिसमें वह काग्रेस का विकल्प बनने को भी तैयार हो गयी और जातीय राजनीति से निकले क्षेत्रिय दलों की अगुवाई करते हुये भी खुद को वाम राजनीति करने वाला मानने लगी। इस बैकल्पिक राजनीति की उसकी समझ को उसी की ट्रेनिग वाले वाम प्रदेश में ही उसे सबसे घातक झटका लगा क्योकि उसने अपने उन्हीं आधारो को छोड़ा, जिसके जरीये उसे राजनीतिक मान्यता मिली थी।
जाहिर है यहां सवाल मीडिया का भी उभरा कि क्या उसने भी अपने उन आधारो को छोड़ दिया है, जिसके आसरे पत्रकारिता की बात होती थी । या फिर वाकई वक्त इतना आगे निकल चुका है कि पत्रकारिता के पुराने मापदंडों से अब के मीडिया को आंकना भारी भूल होगी । लेकिन इसके सामानांतर बड़ा सवाल भी इसी सभा में उठा कि मीडिया का तकनीकि विस्तार तो खासा हुआ है लेकिन पत्रकारो का विस्तार उतना नहीं हो पाया है, जितना एक दशक पहले तक पत्रकारो का होता था और उसमें उदयन-एसपी सिंह या फिर राजेन्द्र माथुर या सर्वेश्वरदयाल सक्सेना सरीखो का हुआ। मीडिया को लेकर नौकरशाह चुनाव आयुक्त एस एम कुरैशी ने भी अपनी लताड़ जानते समझते हुये लगा दी कि चुनाव को लेकर जीत-हार का सिलसिला रोक कर चुनाव आयोग ने कितने कमाल का काम किया है। एक तरफ कुरैशी साहब यह बोलने से नहीं चूके की मीडिया सर्वे के जरीये राजनीतिक दलों को लाभ पहुंचा देती है क्योंकि सर्वे का कोई बड़ा आधार नहीं होता। दूसरी तरफ राजनीति के प्रति लोगो में अविश्वास न जागे, इसके लिये मीडिया को भी मदद करने की अपील भी यह कहते हुये कि राजनेता लोकतंत्र की सबसे बड़ी पहचान है । कुरैशी साहब के मुताबिक चुनाव आयोग जिस तरह चुनावों को इतने बडे पैमाने पर सफल बनाता है, असल लोकतंत्र का रंग यही है । हालांकि मंच के नीचे से यह सवाल भी उठा कि सत्तर करोड़ मतदाताओं में से जब पैंतिस करोड़ वोट डालते ही नही तो लोकतंत्र का मतलब क्या होगा। 15 वीं लोकसभा चुनाव में भी तीस करोड से ज्यादा वोटरो ने वोट डालने में रुचि दिखायी ही नही । और वोट ना डालने वालो की यह तादाद राष्ट्रीय पार्टियो को मिले कुल वोट से भी ज्यादा है या कहे कांग्रेस की अगुवाई में जो सरकार बनी है, उससे दुगुना वोट पड़ा ही नहीं।
लेकिन मीडिया का संकट इतना भर नहीं है कि पत्रकार शब्द समाज में किसी को भी डरा दे। राजनीति या नौकरशाही इसके सामने ताल ठोंककर उसे खारिज कर निकल भी सकती है । उस सभा के अध्यक्ष जनता दल यूनाइटेड के अध्यक्ष शरद यादव ने आखिर में जब अभी के सभी पत्रकारो को खारिज कर पुराने पत्रकारो को याद किया तो भी पत्रकारो की इस सभा में खामोशी ही रही। शरद यादव ने बडे प्यार से प्रभाष जोशी को भी खारिज करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उन्होंने कहा कि अभी के पत्रकारो में एकमात्र प्रभाष जोशी हैं, जो सबसे ज्यादा लिखते है लेकिन वह भी रौ में बह जाते हैं। जबकि शरद यादव जी के तीस मिनट के भाषण के बाद मंच के नीचे बैठे हास्य कवि सुरेन्द्र शर्मा ने टिप्पणी की- कोई समझा दे कि शरद जी ने कहा क्या तो उसे एक करोड़ का इनाम मिलेगा। असल में मीडिया की गत पत्रकारों ने क्या बना दी है यह 11 जुलायी को उदयन की पुण्यतिथि पर रखी इस सभा में मंच पर बैठे एक मंत्री,चार नेता और एक नौकरशाह और मंच के नीचे बैठे पत्रकारो की फेरहिस्त में कुलदीप नैयर से लेकर एक दर्जन संपादको से भी समझी जा सकती है। दरअसल, इस सभा में जो भी बहस हुई, इससे इतर मंच और मंच के बैठे नीचे लोगें से भी अंदाज लगाया जा सकता है कि एतक पत्रकारों को याद करने के लिए पत्रकारों द्वारा आयोजित सभी में ही किसे ज्यादा तरजीह मिलेग।
Thursday, July 23, 2009
कितना खतरनाक है किसान का सच
मेरे पास पन्द्रह एकड़ जमीन है । मैं छतरपुर से चालीस किलोमॉीटर दूर विजावर में जसगुआं खुर्द गाव का जमींदार हूं । मैं आपसे पांच रुपये ज्यादा लेकर क्या करुंगा । मामला सिर्फ आम की सूखी लकड़ियों के मोल भाव का था । उसने पैंतीस रुपये मांगे और मैं तीस रुपये देने की बात कर रहा था। बस इसी बात पर वह बुजुर्ग व्यक्ति फूट पड़ा। इस तरह फूटा की उसकी आवाज में आक्रोष था, लेकिन आंखों में आंसू भी थे । आंसुओं में लाचारी कहीं ज्यादा थी। मानसून आया नहीं तो गांव में रह कर क्या करता। जमीन फट रही है। सोयाबिन की फसल जो अब तक जवान हो जाती है, इस बार बुआई तक नहीं हुई। पिछले साल 15 मई तक बुआई का काम पूरा हो गया था लेकिन अब तो जुलाई शुरु हो गया। गांव में जमींदार बनकर ऐसे ही कोई कैसे रह सकता है। खुद का पेट खाली होगा तो गांववालों के हक के लिये आवाज भी नहीं निकलती।
सबकुछ एक सांस में जिस तरह लकड़ी बेचेने वाला वह शख्स महज पांच रुपये के सवाल पर कहता चला गया, उसने मुझे एक झटके में अंदर से हिला दिया। मैं आम की लकड़ी लेने निकला था । दिल्ली से सटे गाजियाबाद के वसुंधरा इलाके में पूजा -हवन के लिये आम की लकड़ी खोज रहा था। सड़क किनारे लगे पानवाले से लेकर कबाड़ी और फूल वाले सभी के ठेलो पर गया और पूछा कि आम की लकड़ी कहां मिलेगी। कोई नहीं बता पाया । भटकते भटकते इंदिरापुरम थाने के सामने पहुंच गया तो खाकी वर्दी को देख कर दिमाग में आया कि इसे जरुर पता होगा। पूछा तो एक पुलिस वाले ने अंगुली उठाकर इशारे से बताये कि वह सामने झोपड़ी में चले जाओ....और यही वह बुजुर्ग लकड़ी का कोयला और आम की लकड़ी बेचते मिल गए ।
मुझे तीन चार किलोग्राम लकड़ी की जरुरत थी सो उन्होंने तौल दी ...मुझसे कहा पैंतीस रुपये हुये, मैंने तीस रुपये की बात कही तो यह शख्स फूट पड़ा। मै खुद को रोक नहीं पाया और झोपडी में बिछी चारपाई पर ही बैठ गया। बुजुर्ग के हाथ में चालीस रुपये रखते हुये कहा कि मुझे लगा कि खुले पैंतीस रुपये मेरे पास नहीं थे...मुझे लगा आपके पास भी नहीं होगे इसलिये तीस रुपये की बात कह दी। मेरे चारपाई पर बैठते ही उस बुजुर्ग का आक्रोष थमा...लोकिन सख्त तेवर में बोला पांच रुपये का मतलब शहर में नहीं होता लेकिन गांव में पांच रुपये आज भी बड़ी रकम है । लेकिन आपने बताया आप जमींदार हैं..तो इस तरह यहा आकर लकड़ी बेच कर क्या कमाई हो जाती होगी.....
सवाल कमाई का नहीं पेट पालने का है । कमाई मुनाफे को कहते हैं। हम यहां मुनाफा बनाने नहीं आये हैं। बस अपना पेट पाल रहे हैं । सूखे ने पूरे परिवार को ही अलग थलग कर दिया है । मेरे चार बेटे हैं । पानी होता तो सभी किसानी करते । लेकिन सूखा है तो चारो बेटे भी रोजगार की तालाश में कही ना कही निकल पड़े । क्या बेटों के बारे में कोई जानकारी नहीं कि कौन कहां है । कैसे जानकारी होगी । हमी यहां लक्कड़ बेच रहे हैं, इसकी जानकारी गांव में किसे होगी । अब चारों बेटे कहा क्या कर रहे हैं, यह तो दशहरा में गांव लौटने पर ही पता चलेगा । लेकिन गांव में तो सरकार की भी कई योजना हैं। वहां रह कर भी तो कमाया खाया जा सकता है । बड़ी मुश्किल है । जैसे दिये में तेल ना डालो तो बुझ जाता है, वैसा ही सरकार की योजना का है। बाबुओं को तेल चाहिये। अब समूचे गांव में किसान के पास कुछ नगद है ही नहीं तो वह बाबुओ को दे क्या ।
लेकिन सरपंच व्यवस्था के जरीये भी तो काम हो रहा है । सरपंच का मतलब है पैसे के बंटवारे का पंच। कोई योजना में कितना भी पैसा आये लेकिन सरपंच तभी केस बनाता है, जब उसे पचास फीसदी कमीशन मिल जाये । हमारे यहां नरेगा भी आया था। हर परिवार में एक व्यक्ति को काम मिलेगा, यह पोस्टर गांव गांव में चिपकाया गया। हमने भी सोचा कि छोटा बेटा, जिसकी शादी नहीं हुई है, वह गांव में ही रहे इसलिये उसी का नाम नरेगा के लिये दिया। लेकिन सरपंच को उसमे केस बनाने के लिये पचास फीसदी चाहिये। और बाबू को पन्द्रह फीसदी अलग। अब दिन भर मेहनत करके सौ रुपये के बदले पैतीस रुपया कमाने से क्या होगा। रजिस्ट्रर पर दस्खख्त कराता है सौ रुपया का और मिलता है पैतीस रुपया। कुछ गांव में तो पन्द्रह रुपया में भी गांव वालों ने काम किया है । क्योकि सरपंच तक पहुंच कर केस बनवाने में ही बीस-तीस रुपया खर्च हो जाता है।
केस बनवाने का मतलब क्या है । केस का मतलब है, जिसको सरकार की योजना का लाभ मिल सकता है। इसपर सरपंच और बाबू बैठा रहता है । वह नाम लिखेगा ही नहीं तो काम मिलेगा ही नहीं। हां , अगर केस बना देगा कि इसको काम मिलना चाहिये तो मिल जायेगा। तो क्या आपको किसान राहत का भी कोई पैसा नहीं मिला । एक बार हल्ला हुआ था कि बैंक से जो पैसा लिये थे, वह भी माफ हो गया और बैक बिना कमीशन खेती के लिये कर्ज देगा। लेकिन पिछले साल तीन महीने बैंक का चक्कर जब गांव का जमींदार होकर हमीं लगाते रहे तो गांव वालों का क्या हाल हुआ होगा जरा सोचिये। हमनें बैंक से 18 हजार रुपया लिया था, लेकिन यहां आने से पहले बैंक को पूरा इक्कीस हजार लौटाये। कौन सा बैक था । ग्रामीण विकास बैंक । तीन बाबू बैठता है वहां । लेकिन कर्ज माफी तो दूर राहत सिर्फ इतना दिया कि कमीशन नहीं लिया । नहीं तो कई गांव में तो सरपंच के जरीये ही कर्ज लिये किसानों को धमकाया जाता कि अगर कर्ज का पैसा नहीं लौटाया तो कानूनी कार्रवाई होगी और जमीन जब्त हो जायेगी । इसीलिये वहा महाजनी जोर-शोर से चलता है। जिसके पास पैसा है, वह राजा है, जो किसान है, वह रंक है ।
तो क्या खेती सिर्फ बारिश पर टिकी है । बारिश पर या कहें पैसे पर । क्योकि सिचाई की कोई व्यवस्था है नहीं। बिजली रहती नहीं है । जो मोटर पंप लगा रखे हैं उन्हें चलाने के लिये डीजल चाहिये । अगर पंप के भरोसे ही खेती करनी है तो हर महिने कम से कम दो हजार रुपया पास में रहना चाहिये। फिर बीज और खाद की जो व्यवस्था सरकार ने कम दाम पर कर रखी है, वह तभी मिल सकता है, जब पास में चार पांच सौ रुपये कमीशन देने या केस बनाने के हो। यहां भी केस बनता है। हां, अगर एकदम गरीब किसान है तो सरपंच के लिखने पर बीज बहुत ही कम कीमत पर भी मिल सकता है। तो बीज कम कीमत में तो मिल जाता है, लेकिन उसकी एवज पर आधा बीज मुफ्त में सरपंच अपने पास में रख लेता है। यह सिर्फ आपके इलाके में है या समूचे क्षेत्र में। यह न तो इलाके में है, न क्षेत्र में बल्कि पूरे राज्य में या कहे पूरे देश में ग्रामीण इलाको का यही हाल है ।
मध्य प्रदेश से सटा विदर्भ का इलाका है । पहले यह मध्य भारत का ही हिस्सा था । हमारे बड़े बेटे की शादी वहीं हुई है । अकोला में । वहां भी हमारा जाना अक्सर होता । बेटा तो जाता ही रहता है । वहां के किसानों के सामने भी सबसे बडा संकट यही है कि बीज-खाद और डीजल का पैसा किसी के पास है नहीं । ग्रामीण बैक किसानों को उनका हक देता नहीं। वहां भी महाजनी ही किसानो को चलाती है। इतनी लंबी बहस के बाद जब मैने उन बुजुर्ग का नाम पूछा तो उल्टे हंसते हुये मुझी से मेरा नाम पूछ लिया। फिर कहा, हम ब्राह्ममण हैं। मेरा नाम जगदीश प्रसाद तिवारी है। इसलिये हम आम की लकड़ी यहां बेच रहे हैं। क्योंकि इस उम्र में कोई दूसरा काम कर नहीं सकते और धर्म कोई दूसरा काम करने का मन बनने नहीं देता। किसान शुरु से ही थे । कई पीढियों से किसानी चली आ रही है । लेकिन यह कभी नहीं सोचे थे कि जमीन रहने के बाद भी किसानी नहीं कर पायेगे। और जमीन रहने के बाद भी परिवार बिखर जायेगा।
मेरे लिये कल्पना से परे था कि लकड़ी बेचता यह शख्स परिवार के बारे में बताते बताते रो पड़ेगा और कहने लगा कि मुझे पता ही नहीं है कि मेरा छोटा बेटा कहा कमाने खाने निकला। मैं तो यहां लकड़ी बेचने इसलिये पहुंच गया कि गांव के रामप्रसाद का बेटा यहां हवलदार है। मैंने उसके घर में तब पूजा करायी थी, जब उसके बेटे को नौकरी लगी थी । उसने मेरी व्यवस्था तो यहां करा दी । लेकिन छोटका होगा कहां........मैंने कहा मै आपसे इसीलिये बात कर रहा थी कि पत्रकार हूं । आपकी बात अखबार में लिखूंगा । मैंने उनके कंधे पर हाथ रखा तो उस बुजुर्ग ने मुझे ही संभालते हुये कहा...घर में पूजा है क्या । हां.....तो जाओ पंडित जी इंतजार कर रहे होंगे फिर मुझे पांच रुपये लौटाते हुये कहा कि पैतीस रुपये हुये ...यह आपके पांच रुपये । मैं पांच रुपये जेब में डालने के लिये उठा तो वह बुजुर्ग कह उठा इस पांच रुपये को कम ना आंको। गांव में कईयो की जिन्दगी इसी में चलती है। और देश में शहर से ज्यादा गांव हैं। मुझे लगा मनमोहन सिंह हर गांव में शहर देखना चाहते है और राहुल गांधी हर गांव को अपने सपने से जोड़ना चाहते है । ऐसे में किसान का सच कितना खतरनाक है ।
सबकुछ एक सांस में जिस तरह लकड़ी बेचेने वाला वह शख्स महज पांच रुपये के सवाल पर कहता चला गया, उसने मुझे एक झटके में अंदर से हिला दिया। मैं आम की लकड़ी लेने निकला था । दिल्ली से सटे गाजियाबाद के वसुंधरा इलाके में पूजा -हवन के लिये आम की लकड़ी खोज रहा था। सड़क किनारे लगे पानवाले से लेकर कबाड़ी और फूल वाले सभी के ठेलो पर गया और पूछा कि आम की लकड़ी कहां मिलेगी। कोई नहीं बता पाया । भटकते भटकते इंदिरापुरम थाने के सामने पहुंच गया तो खाकी वर्दी को देख कर दिमाग में आया कि इसे जरुर पता होगा। पूछा तो एक पुलिस वाले ने अंगुली उठाकर इशारे से बताये कि वह सामने झोपड़ी में चले जाओ....और यही वह बुजुर्ग लकड़ी का कोयला और आम की लकड़ी बेचते मिल गए ।
मुझे तीन चार किलोग्राम लकड़ी की जरुरत थी सो उन्होंने तौल दी ...मुझसे कहा पैंतीस रुपये हुये, मैंने तीस रुपये की बात कही तो यह शख्स फूट पड़ा। मै खुद को रोक नहीं पाया और झोपडी में बिछी चारपाई पर ही बैठ गया। बुजुर्ग के हाथ में चालीस रुपये रखते हुये कहा कि मुझे लगा कि खुले पैंतीस रुपये मेरे पास नहीं थे...मुझे लगा आपके पास भी नहीं होगे इसलिये तीस रुपये की बात कह दी। मेरे चारपाई पर बैठते ही उस बुजुर्ग का आक्रोष थमा...लोकिन सख्त तेवर में बोला पांच रुपये का मतलब शहर में नहीं होता लेकिन गांव में पांच रुपये आज भी बड़ी रकम है । लेकिन आपने बताया आप जमींदार हैं..तो इस तरह यहा आकर लकड़ी बेच कर क्या कमाई हो जाती होगी.....
सवाल कमाई का नहीं पेट पालने का है । कमाई मुनाफे को कहते हैं। हम यहां मुनाफा बनाने नहीं आये हैं। बस अपना पेट पाल रहे हैं । सूखे ने पूरे परिवार को ही अलग थलग कर दिया है । मेरे चार बेटे हैं । पानी होता तो सभी किसानी करते । लेकिन सूखा है तो चारो बेटे भी रोजगार की तालाश में कही ना कही निकल पड़े । क्या बेटों के बारे में कोई जानकारी नहीं कि कौन कहां है । कैसे जानकारी होगी । हमी यहां लक्कड़ बेच रहे हैं, इसकी जानकारी गांव में किसे होगी । अब चारों बेटे कहा क्या कर रहे हैं, यह तो दशहरा में गांव लौटने पर ही पता चलेगा । लेकिन गांव में तो सरकार की भी कई योजना हैं। वहां रह कर भी तो कमाया खाया जा सकता है । बड़ी मुश्किल है । जैसे दिये में तेल ना डालो तो बुझ जाता है, वैसा ही सरकार की योजना का है। बाबुओं को तेल चाहिये। अब समूचे गांव में किसान के पास कुछ नगद है ही नहीं तो वह बाबुओ को दे क्या ।
लेकिन सरपंच व्यवस्था के जरीये भी तो काम हो रहा है । सरपंच का मतलब है पैसे के बंटवारे का पंच। कोई योजना में कितना भी पैसा आये लेकिन सरपंच तभी केस बनाता है, जब उसे पचास फीसदी कमीशन मिल जाये । हमारे यहां नरेगा भी आया था। हर परिवार में एक व्यक्ति को काम मिलेगा, यह पोस्टर गांव गांव में चिपकाया गया। हमने भी सोचा कि छोटा बेटा, जिसकी शादी नहीं हुई है, वह गांव में ही रहे इसलिये उसी का नाम नरेगा के लिये दिया। लेकिन सरपंच को उसमे केस बनाने के लिये पचास फीसदी चाहिये। और बाबू को पन्द्रह फीसदी अलग। अब दिन भर मेहनत करके सौ रुपये के बदले पैतीस रुपया कमाने से क्या होगा। रजिस्ट्रर पर दस्खख्त कराता है सौ रुपया का और मिलता है पैतीस रुपया। कुछ गांव में तो पन्द्रह रुपया में भी गांव वालों ने काम किया है । क्योकि सरपंच तक पहुंच कर केस बनवाने में ही बीस-तीस रुपया खर्च हो जाता है।
केस बनवाने का मतलब क्या है । केस का मतलब है, जिसको सरकार की योजना का लाभ मिल सकता है। इसपर सरपंच और बाबू बैठा रहता है । वह नाम लिखेगा ही नहीं तो काम मिलेगा ही नहीं। हां , अगर केस बना देगा कि इसको काम मिलना चाहिये तो मिल जायेगा। तो क्या आपको किसान राहत का भी कोई पैसा नहीं मिला । एक बार हल्ला हुआ था कि बैंक से जो पैसा लिये थे, वह भी माफ हो गया और बैक बिना कमीशन खेती के लिये कर्ज देगा। लेकिन पिछले साल तीन महीने बैंक का चक्कर जब गांव का जमींदार होकर हमीं लगाते रहे तो गांव वालों का क्या हाल हुआ होगा जरा सोचिये। हमनें बैंक से 18 हजार रुपया लिया था, लेकिन यहां आने से पहले बैंक को पूरा इक्कीस हजार लौटाये। कौन सा बैक था । ग्रामीण विकास बैंक । तीन बाबू बैठता है वहां । लेकिन कर्ज माफी तो दूर राहत सिर्फ इतना दिया कि कमीशन नहीं लिया । नहीं तो कई गांव में तो सरपंच के जरीये ही कर्ज लिये किसानों को धमकाया जाता कि अगर कर्ज का पैसा नहीं लौटाया तो कानूनी कार्रवाई होगी और जमीन जब्त हो जायेगी । इसीलिये वहा महाजनी जोर-शोर से चलता है। जिसके पास पैसा है, वह राजा है, जो किसान है, वह रंक है ।
तो क्या खेती सिर्फ बारिश पर टिकी है । बारिश पर या कहें पैसे पर । क्योकि सिचाई की कोई व्यवस्था है नहीं। बिजली रहती नहीं है । जो मोटर पंप लगा रखे हैं उन्हें चलाने के लिये डीजल चाहिये । अगर पंप के भरोसे ही खेती करनी है तो हर महिने कम से कम दो हजार रुपया पास में रहना चाहिये। फिर बीज और खाद की जो व्यवस्था सरकार ने कम दाम पर कर रखी है, वह तभी मिल सकता है, जब पास में चार पांच सौ रुपये कमीशन देने या केस बनाने के हो। यहां भी केस बनता है। हां, अगर एकदम गरीब किसान है तो सरपंच के लिखने पर बीज बहुत ही कम कीमत पर भी मिल सकता है। तो बीज कम कीमत में तो मिल जाता है, लेकिन उसकी एवज पर आधा बीज मुफ्त में सरपंच अपने पास में रख लेता है। यह सिर्फ आपके इलाके में है या समूचे क्षेत्र में। यह न तो इलाके में है, न क्षेत्र में बल्कि पूरे राज्य में या कहे पूरे देश में ग्रामीण इलाको का यही हाल है ।
मध्य प्रदेश से सटा विदर्भ का इलाका है । पहले यह मध्य भारत का ही हिस्सा था । हमारे बड़े बेटे की शादी वहीं हुई है । अकोला में । वहां भी हमारा जाना अक्सर होता । बेटा तो जाता ही रहता है । वहां के किसानों के सामने भी सबसे बडा संकट यही है कि बीज-खाद और डीजल का पैसा किसी के पास है नहीं । ग्रामीण बैक किसानों को उनका हक देता नहीं। वहां भी महाजनी ही किसानो को चलाती है। इतनी लंबी बहस के बाद जब मैने उन बुजुर्ग का नाम पूछा तो उल्टे हंसते हुये मुझी से मेरा नाम पूछ लिया। फिर कहा, हम ब्राह्ममण हैं। मेरा नाम जगदीश प्रसाद तिवारी है। इसलिये हम आम की लकड़ी यहां बेच रहे हैं। क्योंकि इस उम्र में कोई दूसरा काम कर नहीं सकते और धर्म कोई दूसरा काम करने का मन बनने नहीं देता। किसान शुरु से ही थे । कई पीढियों से किसानी चली आ रही है । लेकिन यह कभी नहीं सोचे थे कि जमीन रहने के बाद भी किसानी नहीं कर पायेगे। और जमीन रहने के बाद भी परिवार बिखर जायेगा।
मेरे लिये कल्पना से परे था कि लकड़ी बेचता यह शख्स परिवार के बारे में बताते बताते रो पड़ेगा और कहने लगा कि मुझे पता ही नहीं है कि मेरा छोटा बेटा कहा कमाने खाने निकला। मैं तो यहां लकड़ी बेचने इसलिये पहुंच गया कि गांव के रामप्रसाद का बेटा यहां हवलदार है। मैंने उसके घर में तब पूजा करायी थी, जब उसके बेटे को नौकरी लगी थी । उसने मेरी व्यवस्था तो यहां करा दी । लेकिन छोटका होगा कहां........मैंने कहा मै आपसे इसीलिये बात कर रहा थी कि पत्रकार हूं । आपकी बात अखबार में लिखूंगा । मैंने उनके कंधे पर हाथ रखा तो उस बुजुर्ग ने मुझे ही संभालते हुये कहा...घर में पूजा है क्या । हां.....तो जाओ पंडित जी इंतजार कर रहे होंगे फिर मुझे पांच रुपये लौटाते हुये कहा कि पैतीस रुपये हुये ...यह आपके पांच रुपये । मैं पांच रुपये जेब में डालने के लिये उठा तो वह बुजुर्ग कह उठा इस पांच रुपये को कम ना आंको। गांव में कईयो की जिन्दगी इसी में चलती है। और देश में शहर से ज्यादा गांव हैं। मुझे लगा मनमोहन सिंह हर गांव में शहर देखना चाहते है और राहुल गांधी हर गांव को अपने सपने से जोड़ना चाहते है । ऐसे में किसान का सच कितना खतरनाक है ।
Monday, July 13, 2009
कांशीराम का चमचा युग और मायावती का मिशन
सैनिक स्कूल में शिक्षा पाये डां आंबेडकर जीवनभर कहते रहे, बगैर शिक्षा के सारी लड़ाई बेमानी है। आंबेडकर को भी शिक्षा इसीलिये मिल गयी क्योंकि वह एक सैनिक के बेटे थे। और ईस्ट इंडिया कंपनी का यह नियम था कि सेना से जुड़ा कोई अधिकारी हो या कर्मचारी उनके बच्चों को अनिवार्य रुप से सैनिक स्कूल में शिक्षा दी जायेगी। आंबेडकर के पिता रामजी सकपाल सैनिक स्कूल में हेडमास्टर थे और रामजी सकपाल के पिता मालोंजी सकपाल सेना में थे। हालांकि 1892 में महारो के सेना में शामिल होने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। लेकिन इस कडी में आंबेडकर तो शिक्षा पा गये मगर दलित संघर्ष में शिक्षा प्रेम की यह लड़ाई मायावती तक पहुंचते पहुंचते कांशीराम के उस चमचा युग को ही जीने लगी है, जिसमें दलित ही सत्ता का चमचा हो जाये और दलित संघर्ष ही कमजोर हो।
आंबेडकर से मायावती वाया कांशीराम का यह रास्ता करीब सत्तर साल बाद दलित को उसी मीनार पर बैठाने पर आमादा है, जिस पर हिन्दुओं को बैठ देखकर आंबेडकर संघर्ष की राह पर चल पड़े थे। सत्ता कैसे चमचा बनाती है और कैसे किसे औजार बनाती है, इसे मायावती की सत्ता के अक्स में ही देखने से पहले औजार और चमचा की थ्योरी को समझना भी जरुरी है।
डा. आंबेडकर की पूना पैक्ट पर प्रतिक्रिया थी, यदि चिर-परिचित मुहावरों में कहना हो तो हिन्दुओं के लिहाज से संयुक्त निर्वाचक मंडल "एक सडा गला उपनगर" है, जिसमें हिन्दुओं को किसी अछूत को नामांकित करने का ऐसा अधिकार मिला हुआ है, जिसमें उसे अछूतों का प्रतिनिधि तो नाममात्र के लिये बनाये लेकिन असलियत में उसे हिन्दुओ का औजार बना सके। वहीं कांशीराम ने आंबेडकर की इसी प्रतिक्रिया को चमचा युग से जोड़ा । कांशीराम के मुताबिक , "चमचा एक देशी शब्द है जो ऐसे व्यक्ति के लिये प्रयुक्त किया जाता है जो अपने आप क्रियाशील नहीं हो पाता बल्कि उसे सक्रिय करने के लिये किसी अन्य व्यक्ति की आवश्यक्ता पड़ती है। वह अन्य व्यक्ति चमचे को सदैव अपने व्यक्तिगत उपयोग और हित में अथवा अपनी जाति की भलाई में इस्तेमाल करता है। जो स्वयं चमचे की जाति के लिये हमेशा नुकसानदेह होता है।"
मायावती इस सच को ना समझती हो ऐसा हो नही सकता । लेकिन बहुजन के संघर्ष से सर्वजन की सोशल इंजिनियरिंग का खेल मायावती की सत्ता कैसे औजार और चमचो में सिमटी है यह समझना जरुरी है । मायावती सत्ता चलाने में दक्ष है इसलिये अपने हर कदम को राज्य के निर्णय से जोड़कर चलती है । बुत या प्रतिमा प्रेम मायावती का नहीं राज्य का निर्णय है, इसलिये सुप्रीम कोर्ट भी मायावती की प्रतिमाओ को लगाने से नहीं रोक सकता । चूंकि आंबेडकर-कांशीराम-मायावती के बुत समूचे राज्य में अभी तक जितने लगे है, अगर उनकी जगहो पर आंबेडकर की शिक्षा पर जोर देने वाले सच के दलित उत्थान को पकड़ा जाता तो संयोग से राज्य में उच्च शिक्षा के लिये अंतर्राष्ट्रीय स्तर की तीन यूनिवर्सिटी और राज्य के हर गांव में एक प्राथमिक स्कूल खुल सकता था। लेकिन बुत लगाना कैबिनेट का निर्णय है और कैबिनेट राज्य की जरुरत को सबसे ज्यादा समझती है, क्योंकि जनता ने ही इस सरकार को चुना है, जिसकी कैबिनेट निर्णय ले रही है तो सुप्रीम कोर्ट क्या कर सकता है ।
लेकिन कैबिनेट का निर्णय अगर इतनी मोटी लकीर खिंचता है तो इसे मिटाने वाले के साथ सौदेबाजी का दायरा कितना बड़ा हो सकता है। मायावती की कैबिनेट ने ही राज्य के स्कूलो में फीस न बढ़ाने का निर्णय लेते हुये हर निजी स्कूल को चेताया की अगर उसने फीस बढ़ायी तो इसे लोकहित के खिलाफ और राज्य के निर्णय के खिलाफ उठाया गया कदम माना जायेगा। लेकिन देश के सबसे अव्वल निजी शिक्षा संस्थान होने का दावा करने वाले ऐमेटी इंटरनेशनल से लेकर करीब दर्जन भर निजी शिक्षा संस्थानों ने कैबिनेट के निर्णय को ताक पर रखकर ना सिर्फ फीस वसूलनी जारी रखी है, बल्कि उसमें वह एरियर भी जोड़ दिया जिसपर दिल्ली तक में रोक लगायी जा चुकी है।
सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट कैबिनेट के निर्णय पर हाथ खड़े कर देता है और निजी शिक्षा संस्थान कैबिनेट के निर्णय को ढेंगा दिखा देते है । असल में मायावती का यही सलिका कांशीराम के दलित संघर्ष के तौर तरीको को ढेंगा दिखाते हुये सत्ता के लिये राजनीतिक चमचो से होते हुये सत्ता चलाने के लिये नौकरशाही चमचे तक पर जा सिमटा है। कांशीराम कहते है, कोई औजार,दलाल,पिठ्टू अथवा चमचा इसलिये बनाया जाता है ताकि उससे वास्तविक और सच्चे संघर्षकर्ता का विरोध कराया जा सके । बीसवीं शताब्दी की शुरुआत से ही दलित वर्ग छुआछुत और अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़ा हुआ था। शुरुआत मे उनकी उपेक्षा की गयी किन्तु बाद में जब दलित वर्गो का सच्चा नेतृत्व प्रबल और शक्तिसंपन्न हो गया तो उनकी उपेक्षा नहीं की जी सकती थी। इस मुकाम पर उच्च जातीय हिन्दुओं को दलित वर्गो के विरुद्द चमचों को उभारने की जरुरत महसूस हुई। मायावती ने कांशीराम के इस थ्योरी को बहुजन से सर्वजन के तौर पर उभार कर अपने बूते सत्ता पा कर दिखाला दी। लेकिन यहां कांशीराम की गढी राजनीतिक मायावती भी बूत ही निकली। क्योंकि मायावती ने कांशीराम के चमचा थ्योरी को अपनाया तो जरुर लेकिन दलितों का भला करने के लिये नहीं बल्कि अपने राजनीतिक कद को चमचों के बीच ऊंचा करने के लिये, जिसमें बिना चमचों के कद मायने नहीं रखेगा इस एहसास को मायावती ने दिल - दिमाग दोनो में समा लिया । इसलिये राजनीतिक तौर पर अगर चमचा भी नेता और नेता भी चमचा लगने लगा तो मायावती ने इसे अपनी पहली जीत मान ली । लेकिन सत्ता चलाने के तौर तरीको में मायावती नेता की जगह व्यवस्था बन गयी । यानी जिस मायावती को सत्ता में आने व्यवस्था को एक राजनीतिक दिशा देनी थी वही मायावती चमचो के धालमेल की तरह व्यवस्था और नेता के घालमेल में भी जा उलझी ।
समझ यही बनी जब मायावती का निर्णय कैबिनेट का निर्णय है तो मायावती सरीखा निर्णय ही राज्य का निर्णय है। इसलिये फीस बढोतरी रोकने के लिये कैबिनेट के निर्णय को लागू कराने का अधिकार हर जिला अधिकारी को सौपा गया । लेकिन जिला अधिकारी के टालमटोल रवैये से यह भी झलका कि इस निर्णय का मतलब निजी स्कूलो से धन की उगाही है। तो उसने कैबिनेट के निर्णय को खाली पोटली को भरने वाला मान लिया जाये। हालांकि ‘कार्रवाई होनी चाहिये’ वाला भाव जिला अधिकारी का भी रहा । शिक्षा निदेशक ने इसे कैबिनेट का निर्णय बताकर खामोश रहना ही बेहतर समझा । लेकिन जब कैबिनेट का निर्णय लागू होना चाहिये का सवाल उभरा तो शिक्षा निदेशक ने मायावती का आदेश ना मानने की गुस्ताखी करने वाले के खिलाफ मायावती के ही दरवाजे पर दस्तक देने की अपील की। जब यही सवाल माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के मंत्री रंगनाथ मिश्रा से पूछा गया कि कैबिनेट के निर्णय का उल्लंघन कोई कैसे कर सकता है और उल्लंघन करने वाले के खिलाफ कार्रवाई कौन करेगा तो फिर सवाल उभरा कि यह तो मायावती का फैसला है । इसका उल्लघंन कोई कैसे कर सकता है। फिर जिलाधिकारी को तो तत्काल कार्रवाई करनी चाहिये। लेकिन आखिर में मंत्री के माध्यम से भी मामला बैठक और दिशा-निर्देश में ही खो गया।
सवाल है कि कैबिनेट का निर्णय भी मायावती का और लागू ना होने पर कार्रवाई भी मायावती ही करे...तो मायावती हैं कहां । मायावती ही व्यवस्था हैं,मायावती ही राज्य है । फिर राज्य चला कौन रहा है और कांशीराम ने जिस मायावती को गढ़ा वह मिशनरी है कांशीराम के चमचा युग की प्रतीक । क्योंकि दोनो का अंतर कांशीराम ने यह कहते हुये साफ किया था कि , " कुछ लोग मिशनरी व्यक्तियों को चमचा समझने की भूल कर बैठते हैं। जबकि दोनो विपरित ध्रुवों के होते है। किसी चमचे को उसके समुदाय के विरुद्द प्रयोग किया जाता है। जबकि किसी मिशनरी को उसके अपने समुदाय की भलाई के लिये प्रयोग किया जाता है। कह सकते है चमचा अपने समुदाय के सच्चे और वास्तविक नेता को कमजोर करता है और मिशनरी अपने समुदाय के सच्चे नेता को मजबूत करता है। "
जाहिर है कांशीराम के चमचा युग की थ्योरी तले मायावती का मिशन राजनीति की नयी विधा है यह सही है या गलत यह निर्णय उसी जनता को करना है जिसने मायावती को सत्ता तक पहुंचाया। क्योंकि सिर्फ दलित संघर्ष से जोडकर मायावती को देखने का मतलब है कैबिनेट का कोई ना कोई निर्णय जो कही हजारों करोडं रुपयों के बुत में उलझेगा या फिर करोडों रुपयों के जरीये कैबिनेट को ही खारिज करेगा ।
आंबेडकर से मायावती वाया कांशीराम का यह रास्ता करीब सत्तर साल बाद दलित को उसी मीनार पर बैठाने पर आमादा है, जिस पर हिन्दुओं को बैठ देखकर आंबेडकर संघर्ष की राह पर चल पड़े थे। सत्ता कैसे चमचा बनाती है और कैसे किसे औजार बनाती है, इसे मायावती की सत्ता के अक्स में ही देखने से पहले औजार और चमचा की थ्योरी को समझना भी जरुरी है।
डा. आंबेडकर की पूना पैक्ट पर प्रतिक्रिया थी, यदि चिर-परिचित मुहावरों में कहना हो तो हिन्दुओं के लिहाज से संयुक्त निर्वाचक मंडल "एक सडा गला उपनगर" है, जिसमें हिन्दुओं को किसी अछूत को नामांकित करने का ऐसा अधिकार मिला हुआ है, जिसमें उसे अछूतों का प्रतिनिधि तो नाममात्र के लिये बनाये लेकिन असलियत में उसे हिन्दुओ का औजार बना सके। वहीं कांशीराम ने आंबेडकर की इसी प्रतिक्रिया को चमचा युग से जोड़ा । कांशीराम के मुताबिक , "चमचा एक देशी शब्द है जो ऐसे व्यक्ति के लिये प्रयुक्त किया जाता है जो अपने आप क्रियाशील नहीं हो पाता बल्कि उसे सक्रिय करने के लिये किसी अन्य व्यक्ति की आवश्यक्ता पड़ती है। वह अन्य व्यक्ति चमचे को सदैव अपने व्यक्तिगत उपयोग और हित में अथवा अपनी जाति की भलाई में इस्तेमाल करता है। जो स्वयं चमचे की जाति के लिये हमेशा नुकसानदेह होता है।"
मायावती इस सच को ना समझती हो ऐसा हो नही सकता । लेकिन बहुजन के संघर्ष से सर्वजन की सोशल इंजिनियरिंग का खेल मायावती की सत्ता कैसे औजार और चमचो में सिमटी है यह समझना जरुरी है । मायावती सत्ता चलाने में दक्ष है इसलिये अपने हर कदम को राज्य के निर्णय से जोड़कर चलती है । बुत या प्रतिमा प्रेम मायावती का नहीं राज्य का निर्णय है, इसलिये सुप्रीम कोर्ट भी मायावती की प्रतिमाओ को लगाने से नहीं रोक सकता । चूंकि आंबेडकर-कांशीराम-मायावती के बुत समूचे राज्य में अभी तक जितने लगे है, अगर उनकी जगहो पर आंबेडकर की शिक्षा पर जोर देने वाले सच के दलित उत्थान को पकड़ा जाता तो संयोग से राज्य में उच्च शिक्षा के लिये अंतर्राष्ट्रीय स्तर की तीन यूनिवर्सिटी और राज्य के हर गांव में एक प्राथमिक स्कूल खुल सकता था। लेकिन बुत लगाना कैबिनेट का निर्णय है और कैबिनेट राज्य की जरुरत को सबसे ज्यादा समझती है, क्योंकि जनता ने ही इस सरकार को चुना है, जिसकी कैबिनेट निर्णय ले रही है तो सुप्रीम कोर्ट क्या कर सकता है ।
लेकिन कैबिनेट का निर्णय अगर इतनी मोटी लकीर खिंचता है तो इसे मिटाने वाले के साथ सौदेबाजी का दायरा कितना बड़ा हो सकता है। मायावती की कैबिनेट ने ही राज्य के स्कूलो में फीस न बढ़ाने का निर्णय लेते हुये हर निजी स्कूल को चेताया की अगर उसने फीस बढ़ायी तो इसे लोकहित के खिलाफ और राज्य के निर्णय के खिलाफ उठाया गया कदम माना जायेगा। लेकिन देश के सबसे अव्वल निजी शिक्षा संस्थान होने का दावा करने वाले ऐमेटी इंटरनेशनल से लेकर करीब दर्जन भर निजी शिक्षा संस्थानों ने कैबिनेट के निर्णय को ताक पर रखकर ना सिर्फ फीस वसूलनी जारी रखी है, बल्कि उसमें वह एरियर भी जोड़ दिया जिसपर दिल्ली तक में रोक लगायी जा चुकी है।
सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट कैबिनेट के निर्णय पर हाथ खड़े कर देता है और निजी शिक्षा संस्थान कैबिनेट के निर्णय को ढेंगा दिखा देते है । असल में मायावती का यही सलिका कांशीराम के दलित संघर्ष के तौर तरीको को ढेंगा दिखाते हुये सत्ता के लिये राजनीतिक चमचो से होते हुये सत्ता चलाने के लिये नौकरशाही चमचे तक पर जा सिमटा है। कांशीराम कहते है, कोई औजार,दलाल,पिठ्टू अथवा चमचा इसलिये बनाया जाता है ताकि उससे वास्तविक और सच्चे संघर्षकर्ता का विरोध कराया जा सके । बीसवीं शताब्दी की शुरुआत से ही दलित वर्ग छुआछुत और अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़ा हुआ था। शुरुआत मे उनकी उपेक्षा की गयी किन्तु बाद में जब दलित वर्गो का सच्चा नेतृत्व प्रबल और शक्तिसंपन्न हो गया तो उनकी उपेक्षा नहीं की जी सकती थी। इस मुकाम पर उच्च जातीय हिन्दुओं को दलित वर्गो के विरुद्द चमचों को उभारने की जरुरत महसूस हुई। मायावती ने कांशीराम के इस थ्योरी को बहुजन से सर्वजन के तौर पर उभार कर अपने बूते सत्ता पा कर दिखाला दी। लेकिन यहां कांशीराम की गढी राजनीतिक मायावती भी बूत ही निकली। क्योंकि मायावती ने कांशीराम के चमचा थ्योरी को अपनाया तो जरुर लेकिन दलितों का भला करने के लिये नहीं बल्कि अपने राजनीतिक कद को चमचों के बीच ऊंचा करने के लिये, जिसमें बिना चमचों के कद मायने नहीं रखेगा इस एहसास को मायावती ने दिल - दिमाग दोनो में समा लिया । इसलिये राजनीतिक तौर पर अगर चमचा भी नेता और नेता भी चमचा लगने लगा तो मायावती ने इसे अपनी पहली जीत मान ली । लेकिन सत्ता चलाने के तौर तरीको में मायावती नेता की जगह व्यवस्था बन गयी । यानी जिस मायावती को सत्ता में आने व्यवस्था को एक राजनीतिक दिशा देनी थी वही मायावती चमचो के धालमेल की तरह व्यवस्था और नेता के घालमेल में भी जा उलझी ।
समझ यही बनी जब मायावती का निर्णय कैबिनेट का निर्णय है तो मायावती सरीखा निर्णय ही राज्य का निर्णय है। इसलिये फीस बढोतरी रोकने के लिये कैबिनेट के निर्णय को लागू कराने का अधिकार हर जिला अधिकारी को सौपा गया । लेकिन जिला अधिकारी के टालमटोल रवैये से यह भी झलका कि इस निर्णय का मतलब निजी स्कूलो से धन की उगाही है। तो उसने कैबिनेट के निर्णय को खाली पोटली को भरने वाला मान लिया जाये। हालांकि ‘कार्रवाई होनी चाहिये’ वाला भाव जिला अधिकारी का भी रहा । शिक्षा निदेशक ने इसे कैबिनेट का निर्णय बताकर खामोश रहना ही बेहतर समझा । लेकिन जब कैबिनेट का निर्णय लागू होना चाहिये का सवाल उभरा तो शिक्षा निदेशक ने मायावती का आदेश ना मानने की गुस्ताखी करने वाले के खिलाफ मायावती के ही दरवाजे पर दस्तक देने की अपील की। जब यही सवाल माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के मंत्री रंगनाथ मिश्रा से पूछा गया कि कैबिनेट के निर्णय का उल्लंघन कोई कैसे कर सकता है और उल्लंघन करने वाले के खिलाफ कार्रवाई कौन करेगा तो फिर सवाल उभरा कि यह तो मायावती का फैसला है । इसका उल्लघंन कोई कैसे कर सकता है। फिर जिलाधिकारी को तो तत्काल कार्रवाई करनी चाहिये। लेकिन आखिर में मंत्री के माध्यम से भी मामला बैठक और दिशा-निर्देश में ही खो गया।
सवाल है कि कैबिनेट का निर्णय भी मायावती का और लागू ना होने पर कार्रवाई भी मायावती ही करे...तो मायावती हैं कहां । मायावती ही व्यवस्था हैं,मायावती ही राज्य है । फिर राज्य चला कौन रहा है और कांशीराम ने जिस मायावती को गढ़ा वह मिशनरी है कांशीराम के चमचा युग की प्रतीक । क्योंकि दोनो का अंतर कांशीराम ने यह कहते हुये साफ किया था कि , " कुछ लोग मिशनरी व्यक्तियों को चमचा समझने की भूल कर बैठते हैं। जबकि दोनो विपरित ध्रुवों के होते है। किसी चमचे को उसके समुदाय के विरुद्द प्रयोग किया जाता है। जबकि किसी मिशनरी को उसके अपने समुदाय की भलाई के लिये प्रयोग किया जाता है। कह सकते है चमचा अपने समुदाय के सच्चे और वास्तविक नेता को कमजोर करता है और मिशनरी अपने समुदाय के सच्चे नेता को मजबूत करता है। "
जाहिर है कांशीराम के चमचा युग की थ्योरी तले मायावती का मिशन राजनीति की नयी विधा है यह सही है या गलत यह निर्णय उसी जनता को करना है जिसने मायावती को सत्ता तक पहुंचाया। क्योंकि सिर्फ दलित संघर्ष से जोडकर मायावती को देखने का मतलब है कैबिनेट का कोई ना कोई निर्णय जो कही हजारों करोडं रुपयों के बुत में उलझेगा या फिर करोडों रुपयों के जरीये कैबिनेट को ही खारिज करेगा ।
Wednesday, July 8, 2009
वैकल्पिक राजनीति को खड़ा करता ममता का रेल बजट
माओवादियों को केन्द्र सरकार आतंकवादी करार दे चुकी है। जिन माओवादी प्रभावित इलाको में चार राज्यों में चार अलग अलग राजनीतिक दलों की सरकारें पहुंच नहीं पाती हैं और चारों सरकारें माओवादियों को विकास विरोधी करार दे रही हैं, वहां ममता बनर्जी के रेल बजट में पावर प्रोजेक्ट से लेकर रेलवे लाईन बिछाने और आदर्श रेलवे स्टेशन बनाने के ऐलान का मतलब क्या है?
ममता ने रेल बजट के जरीये माओवादी प्रभावित इलाको को लेकर एक ऐसा तुरुप का पत्ता फेंका है जो सफल हो गया तो संसदीय राजनीति की उस सत्ता को आईना दिखा सकता है जो विकास और बाजार अर्थव्यवस्था के नाम पर लाल गलियारे को लगातार आतंक का पर्याय बनाये हुये है। राजनीतिक तौर पर आंध्रप्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड और पं बंगाल में राजनीतिक दलों ने सत्ता के लिये माओवादियों से चुनावी समझौते किये लेकिन माओवाद प्रभावित इलाको में न्यूनतम के जुगाड़ को भी बेहद मुश्किल करार दिया। और इसको लिये माओवादियो को विकास विरोधी करार देने से सरकारें नहीं चूकीं।
झारखंड में माओवादियों से चुनावी समझौते करने के आरोप कांग्रेस-भाजपा और झमुमो विधायकों पर लगा । उसी का नया चेहरा इस बार लोकसभा में नजर आया जब माओवादी नेता बैठा चुनाव लड़कर सांसद बन गये। लेकिन नया सवाल ममता की उस राजनीति का है, जो सिंगुर से निकली है और वाममोर्चा को उसी की राजनीति तले सत्ता से बाहर करने की रणनीति को लगातार आगे बढ़ा रही है। वहीं कांग्रेस ममता को थामकर इस अंतर्विरोध का लाभ उठाकर विकास के अपने अंतर्विरोध को छुपाना चाह रही है। ममता के सिंगुर में टाटा की नैनो को बोरिया-बिस्तर समेटने के लिये मजबूर करने के आंदोलन और नंदीग्राम में इंडोनेशिया के कैमिकल हब को ना लगने देने के संघर्ष को बुद्ददेव सरकार ने कभी एक सरीखा नहीं माना।
वाम मोर्चा सरकार ने सिंगूर को विकास विरोधी तो नंदीग्राम को माओवादियो की बंदूक का आंतक बताकर खारिज भी किया। लेकिन ममता बनर्जी ने सिंगूर से लेकर नंदीग्राम और फिर लालगढ़ को भी उसी कडी का हिस्सा उस रेल बजट के जरीये बना दिया, जिसको लेकर कयास लगाये जा रहे थे कि बंगाल की राजनीति को ममता बतौर रेलमंत्री कैसे साध पायेगी। रेल बजट में ममता ने न सिर्फ सिंगूर से नंदीग्राम तक रेल लाइन बिछाने का ऐलान किया बल्कि लालगढ़ के उन इलाकों में जहां सेना को अभी भी जाने में मुश्किल का सामना करना पड़ रहा है, वहां भी रेल लाइन बिछाने का ऐलान किया। यानी अपनी राजनीतिक जमीन को पटरी दे दी है। रेल बजट में सालबोनी,झारग्राम और उस बेलपहाडी को भी रेलवे से जोड़ने का ऐलान किया गया जो झारखंड और बंगाल की सीमा पर माओवादियो का गढ़ माना जाता है और बुद्ददेव भट्टाचार्य मानते है कि माओवादियों की वहा सामानातंर सरकार चलती है। यह वही इलाका है, जहा बुद्ददेव को बारुदी सुरंग से उडाने की कोशिश इसी साल माओवादियों ने की थी। बंगाल की राजनीति को बिलकुल नये मुद्दे के आसरे अपनी राजनीतिक जमीन बनाने की जो पहल ममता बनर्जी कर रही है, उसमें राज्य के बारह जिलो के वह ग्रामीण पिछडे इलाके हैं, जहां विकास का मतलब आज भी सीपीएम कैडर से लाभ की दो रोटी का मिलना है। ममता इस हकीकत को समझ रही है कि राज्य के चालीस फिसदी इलाके ऐसे है, जहां वाम मोर्च्रा के तीन दशक के शासन के बाद भी जिन्दगी का मतलब दो जून की रोटी से आगे बढ़ नहीं पाया है इसलिये रेल बजट में इन चालीस फिसदी क्षेत्रों को रेलवे स्टेसनो के जरीये घेरने में ममता जुटी है। बजट में देश के जिन 309 रेलवे स्टेशन को आदर्श रेलवे स्टेशन बनाने की बता कही गयी है उसमें 142 सिर्फ बंगाल के है । आदर्श रेलवे स्टेशन का मतलब है, एक ऐसा इन्फ्रास्ट्रक्चर स्टेशन पर मौजूद रहना जो किसी भी इलाके के लोगों की जिन्दगी को संभाल सके। यानी रोजगार से लेकर न्यूनतम जरुरत का ढांचा रेलवे स्टेशन पर जरुर मौजूद रहेगा। इस कड़ी में ममता ने लालगढ़ स्टेशन को भी आदर्श स्टेशन बनाने के साथ इस इलाके में पावर प्लांट लगाने का ऐलान कर सीपीएम की उस कर उस रणनीति को सिर्फ पशिचमी मिदनापुर ही नहीं बल्कि बांकुडा, पुरुलिया, बीरभूम समेत आठ जिलों के उन ग्रामीण इलाकों को खुली हवा का एहसास कराया है, जिन्हें आज भी लगता है कि कैडर के साथ खडे हुये बगैर कुछ भी मिल नहीं सकता है।
असल में ममता जिस राह पर है वह एक वैकल्पिक राजनीति की दिशा भी है। क्योंकि सवाल सिर्फ बंगाल का नहीं है। छत्तीसगढ़ में जहां राज्य सरकार माओवादियों को आतंकवादी मानकर ग्रामीण आदिवासियो के जरीये ग्रामीण समाज का नया चेहरा बनाने में लगी है, वहां अभी भी विकास तो दूर न्यूनतम के लिये भी पहले माओवादियों के खिलाफ नारा लगाना पडता है। खासकर दांतेवाडा और मलकानगिरी के इलाके में पीने का पानी, प्राथमिक शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थय केन्द्र से लेकर आवाजाही के लिये परिवहन व्यवस्था का कोई खांका आज तक खडा नहीं किया गया है । पूरा इलाका प्रकृतिक संसाधनो पर निर्भर है। यहां तक कि जल के स्रोत भी प्राकृतिक है। भाजपा की रमन सरकार के मुताबिक इस इलाके में सुरक्षा बल भी जब जाने से घबराते है तो विकास का कौन सा काम यहा जा सकता है। लेकिन ममता ने इस इलाके में रेलवे लाइन बिछाने का निर्णय लिया है। वहीं उड़ीसा का सम्बलपुर-बेहरामपुर और तेलागंना का मेडक-अक्कानापेट वह इलाका है, जहां माओवादियों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियो के खिलाफ आंदोलन भी शुरु किया है और एक दौर में नक्सलियों का गढ़ भी रहा है।
आंध्रप्रदेश का अक्कानापेट में ही पहली बार एनटीआर ने अपनी राजनीतिक सभा में नक्सलियों को अन्ना यानी बड़ा भाई कहा था, जिसके बाद एनटीआर को समूचे तेलागंना के नक्सल प्रभावित इलाकों में दो तिहाइ सीटों पर जीत मिली थी। लेकिन उस इलाके में विकास की लकीर खिंचने की हिम्मत ना एनटीआर ने की न ही चन्द्रबाबू नायडू कर पाये, न ही अभी के कांग्रेसी मुख्यमंत्री वाय एसआर कर पा रहे हैं ।
हालांकि तेलागंना राष्ट्रवादी ने यहां के विकास का मुद्दा जरुर उठाया। लेकिन पहली बार वहा रेलवे लाइन बिछगी तो इसका असर यहा किस रुप में पड़ सकता है, इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि इस पूरे इलाके में जंगल झांड, तेंदू पत्ता , और गड्डे खोदने वाली जवाहर रोजगार योजना ही जीने का आधार है । जबकि पूरा इलाका साल के जंगल से भरा पड़ा है। वहीं उड़ीसा के जिन इलाको में रेल लाइन बिछेगी वहां के प्रकृतिक संसाधनो पर बहुराष्ट्रीय कंपनियां दोहने के लिये सरकार से नो आब्जेक्शन सर्टीफिकेट ले चुकी है। यानी करीब पचास हजार करोड डॉलर से ज्यादा की परियोजनाओ को लेकर इन इलाको में सौदा सरकारी तौर पर किया जा चुका है। इन इलाकों के आदिवासियो ने अपने पारंपरिक हथियार उठाकर आंदोलन की शुरुआत यहां इसलिये कि क्योकि प्रकृति से हटकर उनके जीने का कोई दूसरा साधन पूरे इलाके में है नहीं। पहली बार किसी रेल मंत्री ने इस इलाके को भी मुख्यधारा से सीधे जोड़ने की सोची है। वहीं झांरखंड के संथाल परगना इलाके में माओवादियों ने खासी तेजी से दस्तक दी है। बंगाल की सीमा से सटे होने की वजह से भी यहा माओवादियो ने खुद को खड़ा किया है। जबकि दूसरी वजह यहां खादान और प्रकृतिक संसाधनों का होना है, जिसपर मुंडा की नजर मुख्यमंत्री रहने के दौरान सबसे ज्यादा लगी रहीं। संथाल आदिवासियो की बहुतायत वाल इस इलाके मे विकास का कोई सवाल राज्य बनने के बाद किसी भी मुख्यमंत्री ने नहीं किया । बाबूलाल मंराडी ने जबतक सड़के ठीक करायीं, उनकी गद्दी चली गयी । अर्जुन मुंडा ने देशी टाटा से लेकर कोरियाई कंपनी समेत एक दर्जन देशी विदेशी कंपनियो के साथ अलग अलग परियोजनाओ को लेकर की शुरुआती सौदेबाजी भी की । करीब पांच लाख करोड़ के जरीये पचास लाख करोड़ के प्रकृतिक संसाधनो की लूट का लाइसेंस भी इन कंपनियो को दे दिया । नंदीग्राम के आंदोलन के दौर में यहां के आदिवासी खुद खड़े हुये और सरकारी धंधे का खुला विरोध झंरखंड के नंदीग्राम से करने से नहीं चूके।
ममता इस इलाके में भी रेलवे के जरीये विकास की पहली रेखा खिंचने को तैयार है । ऐसे में सवाल यह नहीं है कि ममता माओवादी प्रभावित इलाको में रेलवे लाइन बिछाकर या फिर परियोजनाओ के जरीये ग्रामीण आदिवासियो को विकास के ढांचे से जोडते हुये वाम राजनीति का विकल्प बनना चाह रही है।
बड़ा सवाल यह है कि तमाम राजनीतिक दलो ने जिस तरह माओवाद को कानून व्यवस्था का सवाल मान लिया है, और उसके घेरे में करोड़ों ग्रामीण आदिवासियों को माओवादियों का हिमायती मानकर उनके खिलाफ कार्रवायी के जरीये अपनी सफलता दिखा रही है । ऐसे में आदिवासी जीवन बद से बदतर किया जा रहा है । सास्कृतिक आधारों को खत्म किया जा रहा है । गांवों को शहर बनाने के लिये विकास को चंद हाथों के मुनाफे के जरीये लुटाया जा रहा है। बाजार और सत्ता का संतुलन बनाने के लिये विकास और आंतक को अपने अनुकूल परिभाषित करने से ना राष्ट्रीय राजनीतिक दल कतरा रहे है, न ही क्षेत्रिय दल। जबकि अर्थव्यवस्था की हकीकत यही है कि जिन इलाको में ममता का रेल बजट असर दिखाने वाला है, अगर वहां माओवादियो पर नकेल कसने के नाम पर खर्च की गयी पूंजी को क्षेत्र के ग्रामीण-आदिवासियों के नाम मनीआर्डर भी कर दिया जाता तो हर आदिवासी परिवार दिल्ली में घर खरीद कर सहूलियत से रह सकता था । इतनी बड़ी तादाद में माओवाद प्रभावित इलाकों में केन्द्र और राज्य सरकारो ने खर्च किया है। वहीं ममता बनर्जी जब लालगढ़ में सुरक्षा बलो की जगह भोजन-पानी भिजवाने का सवाल खड़ा करती है तो कांग्रेस-वाम दोनो इसे ममता की नादानी बताते है । जाहिर है माओवाद प्रभावित रेड कारिडोर को लेकर राइट-लेफ्ट दोनो की राजनीति से इतर ममता का रेलबजट है । अगर यह सिर्फ बजट है तो इसका लाभ आखिरकार उसी राजनीति को मिलेगा जो विकास को बाजार से जोड़ रही है और अगर यह ममता की राजनीति है, तो यकीनन वैकल्पिक राजनीति की पहली मोटी लकीर है जो भविष्य का रास्ता तैयार कर रही है, बस इंतजार करना होगा ।
ममता ने रेल बजट के जरीये माओवादी प्रभावित इलाको को लेकर एक ऐसा तुरुप का पत्ता फेंका है जो सफल हो गया तो संसदीय राजनीति की उस सत्ता को आईना दिखा सकता है जो विकास और बाजार अर्थव्यवस्था के नाम पर लाल गलियारे को लगातार आतंक का पर्याय बनाये हुये है। राजनीतिक तौर पर आंध्रप्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड और पं बंगाल में राजनीतिक दलों ने सत्ता के लिये माओवादियों से चुनावी समझौते किये लेकिन माओवाद प्रभावित इलाको में न्यूनतम के जुगाड़ को भी बेहद मुश्किल करार दिया। और इसको लिये माओवादियो को विकास विरोधी करार देने से सरकारें नहीं चूकीं।
झारखंड में माओवादियों से चुनावी समझौते करने के आरोप कांग्रेस-भाजपा और झमुमो विधायकों पर लगा । उसी का नया चेहरा इस बार लोकसभा में नजर आया जब माओवादी नेता बैठा चुनाव लड़कर सांसद बन गये। लेकिन नया सवाल ममता की उस राजनीति का है, जो सिंगुर से निकली है और वाममोर्चा को उसी की राजनीति तले सत्ता से बाहर करने की रणनीति को लगातार आगे बढ़ा रही है। वहीं कांग्रेस ममता को थामकर इस अंतर्विरोध का लाभ उठाकर विकास के अपने अंतर्विरोध को छुपाना चाह रही है। ममता के सिंगुर में टाटा की नैनो को बोरिया-बिस्तर समेटने के लिये मजबूर करने के आंदोलन और नंदीग्राम में इंडोनेशिया के कैमिकल हब को ना लगने देने के संघर्ष को बुद्ददेव सरकार ने कभी एक सरीखा नहीं माना।
वाम मोर्चा सरकार ने सिंगूर को विकास विरोधी तो नंदीग्राम को माओवादियो की बंदूक का आंतक बताकर खारिज भी किया। लेकिन ममता बनर्जी ने सिंगूर से लेकर नंदीग्राम और फिर लालगढ़ को भी उसी कडी का हिस्सा उस रेल बजट के जरीये बना दिया, जिसको लेकर कयास लगाये जा रहे थे कि बंगाल की राजनीति को ममता बतौर रेलमंत्री कैसे साध पायेगी। रेल बजट में ममता ने न सिर्फ सिंगूर से नंदीग्राम तक रेल लाइन बिछाने का ऐलान किया बल्कि लालगढ़ के उन इलाकों में जहां सेना को अभी भी जाने में मुश्किल का सामना करना पड़ रहा है, वहां भी रेल लाइन बिछाने का ऐलान किया। यानी अपनी राजनीतिक जमीन को पटरी दे दी है। रेल बजट में सालबोनी,झारग्राम और उस बेलपहाडी को भी रेलवे से जोड़ने का ऐलान किया गया जो झारखंड और बंगाल की सीमा पर माओवादियो का गढ़ माना जाता है और बुद्ददेव भट्टाचार्य मानते है कि माओवादियों की वहा सामानातंर सरकार चलती है। यह वही इलाका है, जहा बुद्ददेव को बारुदी सुरंग से उडाने की कोशिश इसी साल माओवादियों ने की थी। बंगाल की राजनीति को बिलकुल नये मुद्दे के आसरे अपनी राजनीतिक जमीन बनाने की जो पहल ममता बनर्जी कर रही है, उसमें राज्य के बारह जिलो के वह ग्रामीण पिछडे इलाके हैं, जहां विकास का मतलब आज भी सीपीएम कैडर से लाभ की दो रोटी का मिलना है। ममता इस हकीकत को समझ रही है कि राज्य के चालीस फिसदी इलाके ऐसे है, जहां वाम मोर्च्रा के तीन दशक के शासन के बाद भी जिन्दगी का मतलब दो जून की रोटी से आगे बढ़ नहीं पाया है इसलिये रेल बजट में इन चालीस फिसदी क्षेत्रों को रेलवे स्टेसनो के जरीये घेरने में ममता जुटी है। बजट में देश के जिन 309 रेलवे स्टेशन को आदर्श रेलवे स्टेशन बनाने की बता कही गयी है उसमें 142 सिर्फ बंगाल के है । आदर्श रेलवे स्टेशन का मतलब है, एक ऐसा इन्फ्रास्ट्रक्चर स्टेशन पर मौजूद रहना जो किसी भी इलाके के लोगों की जिन्दगी को संभाल सके। यानी रोजगार से लेकर न्यूनतम जरुरत का ढांचा रेलवे स्टेशन पर जरुर मौजूद रहेगा। इस कड़ी में ममता ने लालगढ़ स्टेशन को भी आदर्श स्टेशन बनाने के साथ इस इलाके में पावर प्लांट लगाने का ऐलान कर सीपीएम की उस कर उस रणनीति को सिर्फ पशिचमी मिदनापुर ही नहीं बल्कि बांकुडा, पुरुलिया, बीरभूम समेत आठ जिलों के उन ग्रामीण इलाकों को खुली हवा का एहसास कराया है, जिन्हें आज भी लगता है कि कैडर के साथ खडे हुये बगैर कुछ भी मिल नहीं सकता है।
असल में ममता जिस राह पर है वह एक वैकल्पिक राजनीति की दिशा भी है। क्योंकि सवाल सिर्फ बंगाल का नहीं है। छत्तीसगढ़ में जहां राज्य सरकार माओवादियों को आतंकवादी मानकर ग्रामीण आदिवासियो के जरीये ग्रामीण समाज का नया चेहरा बनाने में लगी है, वहां अभी भी विकास तो दूर न्यूनतम के लिये भी पहले माओवादियों के खिलाफ नारा लगाना पडता है। खासकर दांतेवाडा और मलकानगिरी के इलाके में पीने का पानी, प्राथमिक शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थय केन्द्र से लेकर आवाजाही के लिये परिवहन व्यवस्था का कोई खांका आज तक खडा नहीं किया गया है । पूरा इलाका प्रकृतिक संसाधनो पर निर्भर है। यहां तक कि जल के स्रोत भी प्राकृतिक है। भाजपा की रमन सरकार के मुताबिक इस इलाके में सुरक्षा बल भी जब जाने से घबराते है तो विकास का कौन सा काम यहा जा सकता है। लेकिन ममता ने इस इलाके में रेलवे लाइन बिछाने का निर्णय लिया है। वहीं उड़ीसा का सम्बलपुर-बेहरामपुर और तेलागंना का मेडक-अक्कानापेट वह इलाका है, जहां माओवादियों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियो के खिलाफ आंदोलन भी शुरु किया है और एक दौर में नक्सलियों का गढ़ भी रहा है।
आंध्रप्रदेश का अक्कानापेट में ही पहली बार एनटीआर ने अपनी राजनीतिक सभा में नक्सलियों को अन्ना यानी बड़ा भाई कहा था, जिसके बाद एनटीआर को समूचे तेलागंना के नक्सल प्रभावित इलाकों में दो तिहाइ सीटों पर जीत मिली थी। लेकिन उस इलाके में विकास की लकीर खिंचने की हिम्मत ना एनटीआर ने की न ही चन्द्रबाबू नायडू कर पाये, न ही अभी के कांग्रेसी मुख्यमंत्री वाय एसआर कर पा रहे हैं ।
हालांकि तेलागंना राष्ट्रवादी ने यहां के विकास का मुद्दा जरुर उठाया। लेकिन पहली बार वहा रेलवे लाइन बिछगी तो इसका असर यहा किस रुप में पड़ सकता है, इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि इस पूरे इलाके में जंगल झांड, तेंदू पत्ता , और गड्डे खोदने वाली जवाहर रोजगार योजना ही जीने का आधार है । जबकि पूरा इलाका साल के जंगल से भरा पड़ा है। वहीं उड़ीसा के जिन इलाको में रेल लाइन बिछेगी वहां के प्रकृतिक संसाधनो पर बहुराष्ट्रीय कंपनियां दोहने के लिये सरकार से नो आब्जेक्शन सर्टीफिकेट ले चुकी है। यानी करीब पचास हजार करोड डॉलर से ज्यादा की परियोजनाओ को लेकर इन इलाको में सौदा सरकारी तौर पर किया जा चुका है। इन इलाकों के आदिवासियो ने अपने पारंपरिक हथियार उठाकर आंदोलन की शुरुआत यहां इसलिये कि क्योकि प्रकृति से हटकर उनके जीने का कोई दूसरा साधन पूरे इलाके में है नहीं। पहली बार किसी रेल मंत्री ने इस इलाके को भी मुख्यधारा से सीधे जोड़ने की सोची है। वहीं झांरखंड के संथाल परगना इलाके में माओवादियों ने खासी तेजी से दस्तक दी है। बंगाल की सीमा से सटे होने की वजह से भी यहा माओवादियो ने खुद को खड़ा किया है। जबकि दूसरी वजह यहां खादान और प्रकृतिक संसाधनों का होना है, जिसपर मुंडा की नजर मुख्यमंत्री रहने के दौरान सबसे ज्यादा लगी रहीं। संथाल आदिवासियो की बहुतायत वाल इस इलाके मे विकास का कोई सवाल राज्य बनने के बाद किसी भी मुख्यमंत्री ने नहीं किया । बाबूलाल मंराडी ने जबतक सड़के ठीक करायीं, उनकी गद्दी चली गयी । अर्जुन मुंडा ने देशी टाटा से लेकर कोरियाई कंपनी समेत एक दर्जन देशी विदेशी कंपनियो के साथ अलग अलग परियोजनाओ को लेकर की शुरुआती सौदेबाजी भी की । करीब पांच लाख करोड़ के जरीये पचास लाख करोड़ के प्रकृतिक संसाधनो की लूट का लाइसेंस भी इन कंपनियो को दे दिया । नंदीग्राम के आंदोलन के दौर में यहां के आदिवासी खुद खड़े हुये और सरकारी धंधे का खुला विरोध झंरखंड के नंदीग्राम से करने से नहीं चूके।
ममता इस इलाके में भी रेलवे के जरीये विकास की पहली रेखा खिंचने को तैयार है । ऐसे में सवाल यह नहीं है कि ममता माओवादी प्रभावित इलाको में रेलवे लाइन बिछाकर या फिर परियोजनाओ के जरीये ग्रामीण आदिवासियो को विकास के ढांचे से जोडते हुये वाम राजनीति का विकल्प बनना चाह रही है।
बड़ा सवाल यह है कि तमाम राजनीतिक दलो ने जिस तरह माओवाद को कानून व्यवस्था का सवाल मान लिया है, और उसके घेरे में करोड़ों ग्रामीण आदिवासियों को माओवादियों का हिमायती मानकर उनके खिलाफ कार्रवायी के जरीये अपनी सफलता दिखा रही है । ऐसे में आदिवासी जीवन बद से बदतर किया जा रहा है । सास्कृतिक आधारों को खत्म किया जा रहा है । गांवों को शहर बनाने के लिये विकास को चंद हाथों के मुनाफे के जरीये लुटाया जा रहा है। बाजार और सत्ता का संतुलन बनाने के लिये विकास और आंतक को अपने अनुकूल परिभाषित करने से ना राष्ट्रीय राजनीतिक दल कतरा रहे है, न ही क्षेत्रिय दल। जबकि अर्थव्यवस्था की हकीकत यही है कि जिन इलाको में ममता का रेल बजट असर दिखाने वाला है, अगर वहां माओवादियो पर नकेल कसने के नाम पर खर्च की गयी पूंजी को क्षेत्र के ग्रामीण-आदिवासियों के नाम मनीआर्डर भी कर दिया जाता तो हर आदिवासी परिवार दिल्ली में घर खरीद कर सहूलियत से रह सकता था । इतनी बड़ी तादाद में माओवाद प्रभावित इलाकों में केन्द्र और राज्य सरकारो ने खर्च किया है। वहीं ममता बनर्जी जब लालगढ़ में सुरक्षा बलो की जगह भोजन-पानी भिजवाने का सवाल खड़ा करती है तो कांग्रेस-वाम दोनो इसे ममता की नादानी बताते है । जाहिर है माओवाद प्रभावित रेड कारिडोर को लेकर राइट-लेफ्ट दोनो की राजनीति से इतर ममता का रेलबजट है । अगर यह सिर्फ बजट है तो इसका लाभ आखिरकार उसी राजनीति को मिलेगा जो विकास को बाजार से जोड़ रही है और अगर यह ममता की राजनीति है, तो यकीनन वैकल्पिक राजनीति की पहली मोटी लकीर है जो भविष्य का रास्ता तैयार कर रही है, बस इंतजार करना होगा ।
Monday, July 6, 2009
फिल्म "न्यूयॉर्क" से रेड-कॉरिडोर तक
अमेरिका में 9/11 के बाद करीब तीन हजार लोगों को संदेह के आधार पर एफबीआई ने पकड़ा। जिसमें अस्सी फीसदी से ज्यादा मुस्लिम थे। इनमें से किसी के भी खिलाफ आंतकवादी होने का कोई सबूत एफबीआई को नहीं मिला। लेकिन जिन्हें भी पकड़ कर पूछताछ की गयी, रिहायी के बाद अधिकतर मानसिक तौर पर विक्षप्त सरीखे हो गये। ओबामा ने सत्ता में आने के बाद पहला काम यही किया कि यातना गृह ग्वातामालो को बंद करा दिया। फिल्म न्यूयार्क के आखरी सीन में जब स्क्रीन पर यह बयान छपे हुये उभरते हैं तो लगता है फिल्मकार जार्ज बुश के दौर की काली यादों को ओबामा के जनादेश से भुलाना चाह रहा है।
ओबामा जिस तरह मुस्लिम समाज के घावों पर मरहम लगा रहे हैं और दोस्ती का हाथ बढ़ा रहे हैं, उससे यह सवाल फिल्म न्यूयार्क के अंत को देखकर लगता है कि 9/11 के बाद आंतकवाद के खिलाफ जार्ज बुश की हर पहल आंतकवाद पर नकेल कसने की जगह आंतकवादियो की एक नयी खेप तैयार कर रही थी। जिनके जहन में अमेरिका की दादागिरी का आक्रोष इस हद तक बढ़ा कि बदले की भावना में वह आंतकवाद के हाथ में खिलौना होना ज्यादा पंसद करने लगे। यातना गृह से निकलने के बाद इनकी जिन्दगी का मकसद सिर्फ अपने खिलाफ हुये अत्याचार को याद रखना भर नहीं था बल्कि परेशानी का सबब यही था कि जिस राज्य के भरोसे उन्हें अपने होने का गुमान था उसी राज्य के आंतक के सामने वो अपाहिज हो गये।
जाहिर है ऐसे में जीने का कौन सा रास्ता चुना जाये, यह सवाल अगर 9/11 के बाद कोई मुस्लिम अमेरिकी नागरिक भी महसूस कर रहा था, तो यही सवाल भारत में माओवादी प्रभावित इलाकों में ग्रामीण-आदिवासियों के सामने हैं। सौ से ज्यादा जिलों के एक करोड से ज्यादा ग्रामीण आदिवासियों के सामने सबसे बडा संकट यही है कि उनकी भाषा, सस्कृति और जरुरतो को सरकार समझती नहीं है। जबकि उनकी जमीन पर पूंजी के माध्यम से कब्जा करने वालो के साथ सरकार की नीतिया खड़ी है। यह ग्रामीण अपने हक के लिये और जीने के लिये भी विरोध करते हैं तो इन्हे माओवादी मान लिया जाता है । वहीं माओवादी अपनी विचारधारा को जिस रुप में इन ग्रामीणों के सामने रखते है, उसमें ग्रामीणो के हक की बात होती है। शुरुआती दौर में माओवादी या तो बाहर से आते हैं या फिर ग्रामीणो के विरोध की क्षमता उन्हें बनी बनायी जमीन दे देती है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन धीरे धीरे यह ग्रामीण और फिर इलाके ही माओवादी करार देने में सरकार भी देर नही लगाती। क्योंकि यहीं से नीतियों के आंतक को ढक कर राज्य मानवीय चेहरा देना शुरु करते है। नीतियों का आंतक माओवादियों के आंतक तले ना सिर्फ दब सकता है बल्कि सभ्य समाज में बंदूक की थ्योरी के सामने हर नीति विकासपरख लगेगी, इससे कोई इंकार भी नहीं कर सकता है। लेकिन माओवादी प्रभावित इलाको में ग्रामीण आदिवासियो के नजरिये से अगर सामाजिक-आर्थिक हालात पर गौर पर करे तो राहुल गांधी के दो देश का नजरिया सामने आ सकता है। आंध्रप्रदेश के तेलागंना से लेकर बंगाल के मिदनापुर,बांकुडा,पुरुलिया तक के बीच महाराष्ट्र का विदर्भ,छत्तीसगढ का बस्तर,मध्यप्रदेश और उडिसा के बारह सीमायी जिलो में प्रतिव्यक्ति आय तीन हजार रुपये सालाना भी नहीं है जबकि देश के प्रतिव्यक्ति आय का आंकडा सरकारी तौर पर करीब तीन हजार रुपये महिने का है।
माओवादी प्रभावित इलाको में न्यूनतम जरुरत की लड़ाई कितनी पैनी है, इसका अंदाजा विकास की लकीर तो दूर जीने की पहली जरुरत की उपलब्धता से समझा जा सकता है। इन इलाकों में पीने का साफ पानी महज चार फीसदी उपलब्ध हैं। जबकि सरकारी तौर पर देश में यह आंकडा 35 फीसदी का है। शिक्षा के मद्देनजर प्राथमिक शिक्षा की स्थिति उन इलाकों में 17 फीसदी है, जो राष्ट्रीय तौर पर 58 फीसदी है । वहीं उच्च शिक्षा इन इलाको में सिर्फ 2 फीसदी है, जबकि पूरे देश का सरकारी आंकडा 41 फीसदी का है। हालात स्वास्थय सेवा को लेकर क्या है यह इस बात से समझा जा सकता है कि माओवादी प्रभावित इलाको में अगर एनजीओ का कामकाज को हटा दिया जाये तो सरकारी स्वास्थ्य सेवा दशमलव में आ जायेगी यानी एक फिसदी से भी कम।
लेकिन मुश्किल यह नहीं है कि न्यूनतम भी मुहैया अभी तक सरकार इन इलाकों में नहीं कर पायी है । मुश्किल सरकार का अपना नागरिकों को लेकर जीने देने के नजरिये का है । सरकार विकास की जो लकीर इन इलाको में खींचने को तैयार हो उससे न तो वह उसी जंगल-जमीन को खत्म कर देने पर आमादा है, जिसके भरोसे ग्रामीण-आदिवासी न्यूनतम न मिलने के बावजूद जीये जा रहे है । लेकिन माओवादी प्रभावित रेड-कारिडोर को लेकर पिछले दो दशको में यानी 1991 में आर्थिक सुधार की लकीर देश में खिंचने के बाद से नब्बे लाख करोड डॉलर से ज्यादा की पूंजी कई योजनाओ के जरीये लगाने के लिये बेताब है। जिसमें से सत्तर लाख करोड डॉलर का मामला निजी क्षेत्र का है । लेकिन इन योजनाओ का मतलब प्रकृतिक संपदा की ऐसी लूट है जिससे जंगल खत्म होगे । प्रकृतिक पानी के स्रोत सूख जायेगे । खेती से लेकर हर वह आधार खत्म हो जायेगे जो रोजगार ना मिलने के बाबजूद करोडों ग्रामिण-आदिवासियो को पीढियों से जिलाये हुये है । लेकिन सरकार की योजनाओं को अर्थव्यवस्था के जरीये राष्ट्हीत के नजरिये से भी परखे तो वह राष्ट्रविरोधी ही लगता है । क्योंकि एक आंकलन के मुताबिक नब्बे लाख करोड डॉलर की योजनाये जो पावर प्लांट से लेकर स्टील,सिमेंट, माइनिंग लेकर एसइजेड का खाका तैयार करेगी उसमें इन इलाको में मौजूद जो प्रकृतिक संसाधन लगेगे या नष्ट्र होगे , अंतर्राष्ट्रीय बाजार में उसकी कीमत कम से कम नब्बे लाख करोड डालर से दुगुनी होगी । वही यह माल योजनाओ के लिये कौडियो के मोल यानी 40 से 50 लाख डालर ही आंकी जा रही है । चूंकि रेड-कारिडोर को लेकर सरकारे पार्टियो से लेकर मंत्रालयो तक में बंटी हुई है इसलिये नीजि कंपनियो को सरकार को चूना लगाने में कोई दिक्कत भी नहीं आती । छत्तिसगढ,मध्यप्रदेश,बिहार,बंगाल में जिन पार्टियो की सरकारे हैं, वह केन्द्र सरकार से मेल नही खाती हैं। फिर केन्द्र के ही छह मंत्रालय जो रेड कारिडोर में विकास का खंचा खिंचने के लिये किसी को भी लाइसेंस देगे उनमें तालमेल नहीं है। पर्यावरण, खनन, उघोग, वाणिज्य, आदिवासी कल्याण मंत्रालय की समझ ही जब रेड-कारीडोर को लेकर अलग-अलग है नीतियों के लागू ना हो पाने का अंत कानून-व्यवस्था के दायरे में ही होगा । और आखिरी में गृह मंत्रालय की नीतिया यही से योजनाओ को मानवीय जामा पहनाने की पहल शुरु करती है । जिसमें रेड-कारीडोर में रहने वाला कोइ भी शख्स अगर अपने हक का सवाल खड़ा करता है तो वह पहले माओवादी करार दिया जाता था और अब आंतकवादी करार दिया जायेगा।
चूंकि गृह मंत्रालय की समझ रेड-कारीडोर को लेकर माओवाद और सत्ता बंदूक की नली से निकलती है कि थ्योरी को ही समझते हुये शुरु होती है तो इन इलाको में किसी भी योजना को अमली जामा पहनाने की पहली और आखरी पहल अर्धसैनिक बल से लेकर सेना के फ्लैग मार्च तक पर ही जा कर टिकती है । इसलिये सरकार योजनाओ के पूरा ना होने को ही रेड-कारीडोर के पिछडेपन से जोडती है । जबकि गौर करने वाली बात यह भी है कि बारह राज्यो से लेकर केन्द्र सरकार ने 1991 के बाद से लेकर अभी तक माओवादियो पर नकेल कसने के लिये सत्रह लाख करोड से ज्यादा का सीधा खर्च कर चुकी है । जो सुरक्षाबलो के आधुनिकी करण से जुडी है । लेकिन इसी दौर में गृहमंत्रालय की ही रिपोर्ट कहती है कि माओवादियों के प्रभावित उलाके में पचास फीसदी तक की बढोतरी हुई और तीस फीसदी ग्रमीण आदिवासियों ने हथियार उठाये। आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ की सीमा से सटे महाराष्ट्र के माओवादी प्रभावित चन्द्रपुर,गढचिरोली जिले को लेकर सरकार का नजरिया देखने लायक है। नक्सलियों पर नकेल कसने के लिये 80 और नब्बे के दशक में यहां के पांच सौ से ज्यादा आदिवासियो पर आंतकवादी कानून टाडा लगा दिया गया। इन्हें नक्सलियों का हिमायती बताया गया। जिनपर टाडा लगाया गया उसमें 7 साल की बच्ची से लेकर 80 साल तक के बुजुर्ग आदिवासी तक भी शामिल थे । 1995 में टाडा कानून निरस्त होने का बाद जब इन आदिवासियों के केस अदालतो में पहुंचे तो किसी में कोई सबूत पुलिस विशेष अदालतो में नहीं रख पायी।
हालांकि 69 आदिवासियो पर अब भी टाडा के 80 केस चल रहे हैं, लेकिन पांच से पन्द्रह साल तक जेल में गुजारने के बाद जब यह आदिवासी जेल से निकले तो माओवादी प्रभाव पूरे इलाके में इस कदर बढ चुका था कि नक्सल निरोधी अभियान के तहत कोई भी पुलिसवाला इस इलाके में आया तो उसने सबसे पहले नक्सलियो की मुखबिरी करने के लिये उन्ही आदिवासियो को फुसलाया जो पुलिस की ही गलत पहल की वजह से सालो साल जेल में रह चुके थे । नक्सलियो की मुखबरी ना करने पर दोबारा माओवादी करार देकर ठीक उसी तरह जेल में बंद करने की घमकी जी जाती है जैसे फिल्म न्यूयार्क में नील मुकेश को आंतकवादी जान अब्राहम के बारे में जानकारी हासिल करने के लिये यह कहते हुये धमकाया जाता है कि ना करने पर उसे आंतकवादी करार दिया जायेगा । और सारी जिन्दगी उसे जेल के अंधेरे बंद कमरे में यातना सहते हुये काटनी होगी ।
छत्तीसगढ में सलवा-जुडुम आंतक के खिलाफ आंतक की एक नयी परिभाषा भी है । लेकिन वहा भी संकट उसी ग्रामीण आदिवासी का है कि अगर वह सलवा-जुडुम का हिस्सा बनने से इंकार कर दे तो वह माओवादी करार दिया जायोगा और उसे एनकाउंटर में मरना ही होगा । अपनी कमजोरियों की वजह से सरकार आदिवासियों की जिन्दगी से किस तरह खिलवाड़ कर रही है, यह आदिवासी इलाकों में माओवादियों से निपटने के नाम पर आदिवासियो की पूरा जिन्दगी चक्र बदलना भी है । यूं ग्रामीण आदिवासियों को माओवादियों की मुखबरी अब सरकारी तौर पर आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ में सुविधा की पोटली दे कर भी उकसाया जाता है तो छत्तीसगढ,महाराष्ट्र,मध्यप्रदेश,उडिसा और झारखंड में आदिवासियो को बंदूक की नोंक पर रखकर माओवादियों के बारे में जानकारी लेने जबरदस्ती की जाती है। अगर बहुत पहले की स्थिति को छोड़ भी दे, तो नंदीग्राम और लालगढ़ का प्रयोग सामने है। शुरुआती दौर में नंदीग्राम को पुलिस और सुरक्षाबलों ने जिस तरह यातना गृह में तब्दील किया उसका असर लालगढ़ में आदिवासियों के हथियार उठाने से तो दिखा ही । वहीं नंदीग्राम में बलात्कार की शिकार महिलाओं ने लालगढ़ में जाकर महिलाओं को नंदीग्राम में जो हुआ जब उसे बताना शुरु किया तो वहां की महिलाओं के सामने संघर्ष के अलावे कोई दुसरा रास्ता नहीं बचा।
14 से 16 जून को लालगढ की कई सार्वजनिक सभाओ में नंदीग्राम की सकीना और नसीफा {नाम बदला हुआ } 6-7 नबंबर 2008 को उनके साथ जो हुआ उसे मंच से खुलकर कहा । नसीफा के ने जो कहा,वह इस तरह था , ''मै उन लोगो को अच्छा तरह पहचान सकती हूं,..वो लोग सीपीआईएम के हौरमण वाहिणी के लोग थे । और इसी गांव के लड़के है । मैं नाम भी बता सकती हूं...उनके नाम बच्चू, कानू है । मुझे रेप किया बच्चू ने और मेरी मझली बेटी को रेप किया कानू ने...और दूसरी बेटी को रेप किया कोनाबारी ने ..अब्दुल भी साथ था । '' कुछ इसी तरह से अपने साथ हुये हादसे को सकीना ने भी बताया । लेकिन हर सभा में यही सवाल उठा कि बलात्कार और लूटपाट की अधिकतर घटना पुलिस की मौजूदगी में हुई और सात महिने बाद भी सजा किसी को नहीं हुई है तो न्याय कैसे मिलेगा । वहीं नंदीग्राम के सीपीएम समर्थक ग्रामीणो को पुलिस कैडर और पुलिस दोनो ने उकसाया कि लह लालगढ जाकर वहा की मुखबरी करे । असल सवाल राज्य को लेकर यही से खडा होता है । माओवाद के नाम पर करोडो लोगो के अपने तरीके से जीने के हक को कैसे छिना जा सकता है । और राज्य की भूमिका ही जब माओवादियो के खिलाफ ग्रामिण-आदिवासियो को अपना प्यादा बनाकर आंशाका पैदा करने वाली हो तब आम ग्रामिण-आदिवासी क्या करें । सबसे बडी मुश्किल यही हो चली है कि रेड कारीडोर में रहने वालो को ढकेलते ढकेलते उस दीवार से सटा दिया गया है, जहां से और पीछे जाया नहीं जा सकता है और आगे बढने पर पहले उसे माओवादी कहा जाता अब आंतकवादी माना जायेगा । ऐसे में किस रास्ते इस ग्रामिण आदिवासी को जाना चाहिये जहां वह सम्मान के साथ जिन्दा रह सके । इसका रास्ता ना तो सरकार बता रही है ना ही माओवादियो का संघर्ष रास्ता बना पा रहा है ।
फिल्म न्यूयार्क के आखिरी डायलाग जब नील मुकेश एफबीआई अधिकारी को जब यह कहता है कि जान अब्राहम गलत नहीं था । तो एफबीआई अधिकारी कहता है , सभी सही थे...शायद वक्त गलत था । जिसमें मुल्क ने भी गलत रास्ता चुना । लेकिन अब हालात बदल चुके है । वहां बदले हालात से मतलब ओबामा के सत्ता में आने का था । तो क्या भारतीय परिस्थितयो में भी रेड-कारिडोर फिल्म तभी बन पायेगी, जब यहां भी कोई ओबामा सत्ता में आ जायेगा। और फिल्म में नायक यह कहने की हिम्मत जुटा पायेगा कि शायद वह वक्त गलत था, जिसमें मुल्क भी गलत रास्ते पर था।
ओबामा जिस तरह मुस्लिम समाज के घावों पर मरहम लगा रहे हैं और दोस्ती का हाथ बढ़ा रहे हैं, उससे यह सवाल फिल्म न्यूयार्क के अंत को देखकर लगता है कि 9/11 के बाद आंतकवाद के खिलाफ जार्ज बुश की हर पहल आंतकवाद पर नकेल कसने की जगह आंतकवादियो की एक नयी खेप तैयार कर रही थी। जिनके जहन में अमेरिका की दादागिरी का आक्रोष इस हद तक बढ़ा कि बदले की भावना में वह आंतकवाद के हाथ में खिलौना होना ज्यादा पंसद करने लगे। यातना गृह से निकलने के बाद इनकी जिन्दगी का मकसद सिर्फ अपने खिलाफ हुये अत्याचार को याद रखना भर नहीं था बल्कि परेशानी का सबब यही था कि जिस राज्य के भरोसे उन्हें अपने होने का गुमान था उसी राज्य के आंतक के सामने वो अपाहिज हो गये।
जाहिर है ऐसे में जीने का कौन सा रास्ता चुना जाये, यह सवाल अगर 9/11 के बाद कोई मुस्लिम अमेरिकी नागरिक भी महसूस कर रहा था, तो यही सवाल भारत में माओवादी प्रभावित इलाकों में ग्रामीण-आदिवासियों के सामने हैं। सौ से ज्यादा जिलों के एक करोड से ज्यादा ग्रामीण आदिवासियों के सामने सबसे बडा संकट यही है कि उनकी भाषा, सस्कृति और जरुरतो को सरकार समझती नहीं है। जबकि उनकी जमीन पर पूंजी के माध्यम से कब्जा करने वालो के साथ सरकार की नीतिया खड़ी है। यह ग्रामीण अपने हक के लिये और जीने के लिये भी विरोध करते हैं तो इन्हे माओवादी मान लिया जाता है । वहीं माओवादी अपनी विचारधारा को जिस रुप में इन ग्रामीणों के सामने रखते है, उसमें ग्रामीणो के हक की बात होती है। शुरुआती दौर में माओवादी या तो बाहर से आते हैं या फिर ग्रामीणो के विरोध की क्षमता उन्हें बनी बनायी जमीन दे देती है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन धीरे धीरे यह ग्रामीण और फिर इलाके ही माओवादी करार देने में सरकार भी देर नही लगाती। क्योंकि यहीं से नीतियों के आंतक को ढक कर राज्य मानवीय चेहरा देना शुरु करते है। नीतियों का आंतक माओवादियों के आंतक तले ना सिर्फ दब सकता है बल्कि सभ्य समाज में बंदूक की थ्योरी के सामने हर नीति विकासपरख लगेगी, इससे कोई इंकार भी नहीं कर सकता है। लेकिन माओवादी प्रभावित इलाको में ग्रामीण आदिवासियो के नजरिये से अगर सामाजिक-आर्थिक हालात पर गौर पर करे तो राहुल गांधी के दो देश का नजरिया सामने आ सकता है। आंध्रप्रदेश के तेलागंना से लेकर बंगाल के मिदनापुर,बांकुडा,पुरुलिया तक के बीच महाराष्ट्र का विदर्भ,छत्तीसगढ का बस्तर,मध्यप्रदेश और उडिसा के बारह सीमायी जिलो में प्रतिव्यक्ति आय तीन हजार रुपये सालाना भी नहीं है जबकि देश के प्रतिव्यक्ति आय का आंकडा सरकारी तौर पर करीब तीन हजार रुपये महिने का है।
माओवादी प्रभावित इलाको में न्यूनतम जरुरत की लड़ाई कितनी पैनी है, इसका अंदाजा विकास की लकीर तो दूर जीने की पहली जरुरत की उपलब्धता से समझा जा सकता है। इन इलाकों में पीने का साफ पानी महज चार फीसदी उपलब्ध हैं। जबकि सरकारी तौर पर देश में यह आंकडा 35 फीसदी का है। शिक्षा के मद्देनजर प्राथमिक शिक्षा की स्थिति उन इलाकों में 17 फीसदी है, जो राष्ट्रीय तौर पर 58 फीसदी है । वहीं उच्च शिक्षा इन इलाको में सिर्फ 2 फीसदी है, जबकि पूरे देश का सरकारी आंकडा 41 फीसदी का है। हालात स्वास्थय सेवा को लेकर क्या है यह इस बात से समझा जा सकता है कि माओवादी प्रभावित इलाको में अगर एनजीओ का कामकाज को हटा दिया जाये तो सरकारी स्वास्थ्य सेवा दशमलव में आ जायेगी यानी एक फिसदी से भी कम।
लेकिन मुश्किल यह नहीं है कि न्यूनतम भी मुहैया अभी तक सरकार इन इलाकों में नहीं कर पायी है । मुश्किल सरकार का अपना नागरिकों को लेकर जीने देने के नजरिये का है । सरकार विकास की जो लकीर इन इलाको में खींचने को तैयार हो उससे न तो वह उसी जंगल-जमीन को खत्म कर देने पर आमादा है, जिसके भरोसे ग्रामीण-आदिवासी न्यूनतम न मिलने के बावजूद जीये जा रहे है । लेकिन माओवादी प्रभावित रेड-कारिडोर को लेकर पिछले दो दशको में यानी 1991 में आर्थिक सुधार की लकीर देश में खिंचने के बाद से नब्बे लाख करोड डॉलर से ज्यादा की पूंजी कई योजनाओ के जरीये लगाने के लिये बेताब है। जिसमें से सत्तर लाख करोड डॉलर का मामला निजी क्षेत्र का है । लेकिन इन योजनाओ का मतलब प्रकृतिक संपदा की ऐसी लूट है जिससे जंगल खत्म होगे । प्रकृतिक पानी के स्रोत सूख जायेगे । खेती से लेकर हर वह आधार खत्म हो जायेगे जो रोजगार ना मिलने के बाबजूद करोडों ग्रामिण-आदिवासियो को पीढियों से जिलाये हुये है । लेकिन सरकार की योजनाओं को अर्थव्यवस्था के जरीये राष्ट्हीत के नजरिये से भी परखे तो वह राष्ट्रविरोधी ही लगता है । क्योंकि एक आंकलन के मुताबिक नब्बे लाख करोड डॉलर की योजनाये जो पावर प्लांट से लेकर स्टील,सिमेंट, माइनिंग लेकर एसइजेड का खाका तैयार करेगी उसमें इन इलाको में मौजूद जो प्रकृतिक संसाधन लगेगे या नष्ट्र होगे , अंतर्राष्ट्रीय बाजार में उसकी कीमत कम से कम नब्बे लाख करोड डालर से दुगुनी होगी । वही यह माल योजनाओ के लिये कौडियो के मोल यानी 40 से 50 लाख डालर ही आंकी जा रही है । चूंकि रेड-कारिडोर को लेकर सरकारे पार्टियो से लेकर मंत्रालयो तक में बंटी हुई है इसलिये नीजि कंपनियो को सरकार को चूना लगाने में कोई दिक्कत भी नहीं आती । छत्तिसगढ,मध्यप्रदेश,बिहार,बंगाल में जिन पार्टियो की सरकारे हैं, वह केन्द्र सरकार से मेल नही खाती हैं। फिर केन्द्र के ही छह मंत्रालय जो रेड कारिडोर में विकास का खंचा खिंचने के लिये किसी को भी लाइसेंस देगे उनमें तालमेल नहीं है। पर्यावरण, खनन, उघोग, वाणिज्य, आदिवासी कल्याण मंत्रालय की समझ ही जब रेड-कारीडोर को लेकर अलग-अलग है नीतियों के लागू ना हो पाने का अंत कानून-व्यवस्था के दायरे में ही होगा । और आखिरी में गृह मंत्रालय की नीतिया यही से योजनाओ को मानवीय जामा पहनाने की पहल शुरु करती है । जिसमें रेड-कारीडोर में रहने वाला कोइ भी शख्स अगर अपने हक का सवाल खड़ा करता है तो वह पहले माओवादी करार दिया जाता था और अब आंतकवादी करार दिया जायेगा।
चूंकि गृह मंत्रालय की समझ रेड-कारीडोर को लेकर माओवाद और सत्ता बंदूक की नली से निकलती है कि थ्योरी को ही समझते हुये शुरु होती है तो इन इलाको में किसी भी योजना को अमली जामा पहनाने की पहली और आखरी पहल अर्धसैनिक बल से लेकर सेना के फ्लैग मार्च तक पर ही जा कर टिकती है । इसलिये सरकार योजनाओ के पूरा ना होने को ही रेड-कारीडोर के पिछडेपन से जोडती है । जबकि गौर करने वाली बात यह भी है कि बारह राज्यो से लेकर केन्द्र सरकार ने 1991 के बाद से लेकर अभी तक माओवादियो पर नकेल कसने के लिये सत्रह लाख करोड से ज्यादा का सीधा खर्च कर चुकी है । जो सुरक्षाबलो के आधुनिकी करण से जुडी है । लेकिन इसी दौर में गृहमंत्रालय की ही रिपोर्ट कहती है कि माओवादियों के प्रभावित उलाके में पचास फीसदी तक की बढोतरी हुई और तीस फीसदी ग्रमीण आदिवासियों ने हथियार उठाये। आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ की सीमा से सटे महाराष्ट्र के माओवादी प्रभावित चन्द्रपुर,गढचिरोली जिले को लेकर सरकार का नजरिया देखने लायक है। नक्सलियों पर नकेल कसने के लिये 80 और नब्बे के दशक में यहां के पांच सौ से ज्यादा आदिवासियो पर आंतकवादी कानून टाडा लगा दिया गया। इन्हें नक्सलियों का हिमायती बताया गया। जिनपर टाडा लगाया गया उसमें 7 साल की बच्ची से लेकर 80 साल तक के बुजुर्ग आदिवासी तक भी शामिल थे । 1995 में टाडा कानून निरस्त होने का बाद जब इन आदिवासियों के केस अदालतो में पहुंचे तो किसी में कोई सबूत पुलिस विशेष अदालतो में नहीं रख पायी।
हालांकि 69 आदिवासियो पर अब भी टाडा के 80 केस चल रहे हैं, लेकिन पांच से पन्द्रह साल तक जेल में गुजारने के बाद जब यह आदिवासी जेल से निकले तो माओवादी प्रभाव पूरे इलाके में इस कदर बढ चुका था कि नक्सल निरोधी अभियान के तहत कोई भी पुलिसवाला इस इलाके में आया तो उसने सबसे पहले नक्सलियो की मुखबिरी करने के लिये उन्ही आदिवासियो को फुसलाया जो पुलिस की ही गलत पहल की वजह से सालो साल जेल में रह चुके थे । नक्सलियो की मुखबरी ना करने पर दोबारा माओवादी करार देकर ठीक उसी तरह जेल में बंद करने की घमकी जी जाती है जैसे फिल्म न्यूयार्क में नील मुकेश को आंतकवादी जान अब्राहम के बारे में जानकारी हासिल करने के लिये यह कहते हुये धमकाया जाता है कि ना करने पर उसे आंतकवादी करार दिया जायेगा । और सारी जिन्दगी उसे जेल के अंधेरे बंद कमरे में यातना सहते हुये काटनी होगी ।
छत्तीसगढ में सलवा-जुडुम आंतक के खिलाफ आंतक की एक नयी परिभाषा भी है । लेकिन वहा भी संकट उसी ग्रामीण आदिवासी का है कि अगर वह सलवा-जुडुम का हिस्सा बनने से इंकार कर दे तो वह माओवादी करार दिया जायोगा और उसे एनकाउंटर में मरना ही होगा । अपनी कमजोरियों की वजह से सरकार आदिवासियों की जिन्दगी से किस तरह खिलवाड़ कर रही है, यह आदिवासी इलाकों में माओवादियों से निपटने के नाम पर आदिवासियो की पूरा जिन्दगी चक्र बदलना भी है । यूं ग्रामीण आदिवासियों को माओवादियों की मुखबरी अब सरकारी तौर पर आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ में सुविधा की पोटली दे कर भी उकसाया जाता है तो छत्तीसगढ,महाराष्ट्र,मध्यप्रदेश,उडिसा और झारखंड में आदिवासियो को बंदूक की नोंक पर रखकर माओवादियों के बारे में जानकारी लेने जबरदस्ती की जाती है। अगर बहुत पहले की स्थिति को छोड़ भी दे, तो नंदीग्राम और लालगढ़ का प्रयोग सामने है। शुरुआती दौर में नंदीग्राम को पुलिस और सुरक्षाबलों ने जिस तरह यातना गृह में तब्दील किया उसका असर लालगढ़ में आदिवासियों के हथियार उठाने से तो दिखा ही । वहीं नंदीग्राम में बलात्कार की शिकार महिलाओं ने लालगढ़ में जाकर महिलाओं को नंदीग्राम में जो हुआ जब उसे बताना शुरु किया तो वहां की महिलाओं के सामने संघर्ष के अलावे कोई दुसरा रास्ता नहीं बचा।
14 से 16 जून को लालगढ की कई सार्वजनिक सभाओ में नंदीग्राम की सकीना और नसीफा {नाम बदला हुआ } 6-7 नबंबर 2008 को उनके साथ जो हुआ उसे मंच से खुलकर कहा । नसीफा के ने जो कहा,वह इस तरह था , ''मै उन लोगो को अच्छा तरह पहचान सकती हूं,..वो लोग सीपीआईएम के हौरमण वाहिणी के लोग थे । और इसी गांव के लड़के है । मैं नाम भी बता सकती हूं...उनके नाम बच्चू, कानू है । मुझे रेप किया बच्चू ने और मेरी मझली बेटी को रेप किया कानू ने...और दूसरी बेटी को रेप किया कोनाबारी ने ..अब्दुल भी साथ था । '' कुछ इसी तरह से अपने साथ हुये हादसे को सकीना ने भी बताया । लेकिन हर सभा में यही सवाल उठा कि बलात्कार और लूटपाट की अधिकतर घटना पुलिस की मौजूदगी में हुई और सात महिने बाद भी सजा किसी को नहीं हुई है तो न्याय कैसे मिलेगा । वहीं नंदीग्राम के सीपीएम समर्थक ग्रामीणो को पुलिस कैडर और पुलिस दोनो ने उकसाया कि लह लालगढ जाकर वहा की मुखबरी करे । असल सवाल राज्य को लेकर यही से खडा होता है । माओवाद के नाम पर करोडो लोगो के अपने तरीके से जीने के हक को कैसे छिना जा सकता है । और राज्य की भूमिका ही जब माओवादियो के खिलाफ ग्रामिण-आदिवासियो को अपना प्यादा बनाकर आंशाका पैदा करने वाली हो तब आम ग्रामिण-आदिवासी क्या करें । सबसे बडी मुश्किल यही हो चली है कि रेड कारीडोर में रहने वालो को ढकेलते ढकेलते उस दीवार से सटा दिया गया है, जहां से और पीछे जाया नहीं जा सकता है और आगे बढने पर पहले उसे माओवादी कहा जाता अब आंतकवादी माना जायेगा । ऐसे में किस रास्ते इस ग्रामिण आदिवासी को जाना चाहिये जहां वह सम्मान के साथ जिन्दा रह सके । इसका रास्ता ना तो सरकार बता रही है ना ही माओवादियो का संघर्ष रास्ता बना पा रहा है ।
फिल्म न्यूयार्क के आखिरी डायलाग जब नील मुकेश एफबीआई अधिकारी को जब यह कहता है कि जान अब्राहम गलत नहीं था । तो एफबीआई अधिकारी कहता है , सभी सही थे...शायद वक्त गलत था । जिसमें मुल्क ने भी गलत रास्ता चुना । लेकिन अब हालात बदल चुके है । वहां बदले हालात से मतलब ओबामा के सत्ता में आने का था । तो क्या भारतीय परिस्थितयो में भी रेड-कारिडोर फिल्म तभी बन पायेगी, जब यहां भी कोई ओबामा सत्ता में आ जायेगा। और फिल्म में नायक यह कहने की हिम्मत जुटा पायेगा कि शायद वह वक्त गलत था, जिसमें मुल्क भी गलत रास्ते पर था।