सैनिक स्कूल में शिक्षा पाये डां आंबेडकर जीवनभर कहते रहे, बगैर शिक्षा के सारी लड़ाई बेमानी है। आंबेडकर को भी शिक्षा इसीलिये मिल गयी क्योंकि वह एक सैनिक के बेटे थे। और ईस्ट इंडिया कंपनी का यह नियम था कि सेना से जुड़ा कोई अधिकारी हो या कर्मचारी उनके बच्चों को अनिवार्य रुप से सैनिक स्कूल में शिक्षा दी जायेगी। आंबेडकर के पिता रामजी सकपाल सैनिक स्कूल में हेडमास्टर थे और रामजी सकपाल के पिता मालोंजी सकपाल सेना में थे। हालांकि 1892 में महारो के सेना में शामिल होने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। लेकिन इस कडी में आंबेडकर तो शिक्षा पा गये मगर दलित संघर्ष में शिक्षा प्रेम की यह लड़ाई मायावती तक पहुंचते पहुंचते कांशीराम के उस चमचा युग को ही जीने लगी है, जिसमें दलित ही सत्ता का चमचा हो जाये और दलित संघर्ष ही कमजोर हो।
आंबेडकर से मायावती वाया कांशीराम का यह रास्ता करीब सत्तर साल बाद दलित को उसी मीनार पर बैठाने पर आमादा है, जिस पर हिन्दुओं को बैठ देखकर आंबेडकर संघर्ष की राह पर चल पड़े थे। सत्ता कैसे चमचा बनाती है और कैसे किसे औजार बनाती है, इसे मायावती की सत्ता के अक्स में ही देखने से पहले औजार और चमचा की थ्योरी को समझना भी जरुरी है।
डा. आंबेडकर की पूना पैक्ट पर प्रतिक्रिया थी, यदि चिर-परिचित मुहावरों में कहना हो तो हिन्दुओं के लिहाज से संयुक्त निर्वाचक मंडल "एक सडा गला उपनगर" है, जिसमें हिन्दुओं को किसी अछूत को नामांकित करने का ऐसा अधिकार मिला हुआ है, जिसमें उसे अछूतों का प्रतिनिधि तो नाममात्र के लिये बनाये लेकिन असलियत में उसे हिन्दुओ का औजार बना सके। वहीं कांशीराम ने आंबेडकर की इसी प्रतिक्रिया को चमचा युग से जोड़ा । कांशीराम के मुताबिक , "चमचा एक देशी शब्द है जो ऐसे व्यक्ति के लिये प्रयुक्त किया जाता है जो अपने आप क्रियाशील नहीं हो पाता बल्कि उसे सक्रिय करने के लिये किसी अन्य व्यक्ति की आवश्यक्ता पड़ती है। वह अन्य व्यक्ति चमचे को सदैव अपने व्यक्तिगत उपयोग और हित में अथवा अपनी जाति की भलाई में इस्तेमाल करता है। जो स्वयं चमचे की जाति के लिये हमेशा नुकसानदेह होता है।"
मायावती इस सच को ना समझती हो ऐसा हो नही सकता । लेकिन बहुजन के संघर्ष से सर्वजन की सोशल इंजिनियरिंग का खेल मायावती की सत्ता कैसे औजार और चमचो में सिमटी है यह समझना जरुरी है । मायावती सत्ता चलाने में दक्ष है इसलिये अपने हर कदम को राज्य के निर्णय से जोड़कर चलती है । बुत या प्रतिमा प्रेम मायावती का नहीं राज्य का निर्णय है, इसलिये सुप्रीम कोर्ट भी मायावती की प्रतिमाओ को लगाने से नहीं रोक सकता । चूंकि आंबेडकर-कांशीराम-मायावती के बुत समूचे राज्य में अभी तक जितने लगे है, अगर उनकी जगहो पर आंबेडकर की शिक्षा पर जोर देने वाले सच के दलित उत्थान को पकड़ा जाता तो संयोग से राज्य में उच्च शिक्षा के लिये अंतर्राष्ट्रीय स्तर की तीन यूनिवर्सिटी और राज्य के हर गांव में एक प्राथमिक स्कूल खुल सकता था। लेकिन बुत लगाना कैबिनेट का निर्णय है और कैबिनेट राज्य की जरुरत को सबसे ज्यादा समझती है, क्योंकि जनता ने ही इस सरकार को चुना है, जिसकी कैबिनेट निर्णय ले रही है तो सुप्रीम कोर्ट क्या कर सकता है ।
लेकिन कैबिनेट का निर्णय अगर इतनी मोटी लकीर खिंचता है तो इसे मिटाने वाले के साथ सौदेबाजी का दायरा कितना बड़ा हो सकता है। मायावती की कैबिनेट ने ही राज्य के स्कूलो में फीस न बढ़ाने का निर्णय लेते हुये हर निजी स्कूल को चेताया की अगर उसने फीस बढ़ायी तो इसे लोकहित के खिलाफ और राज्य के निर्णय के खिलाफ उठाया गया कदम माना जायेगा। लेकिन देश के सबसे अव्वल निजी शिक्षा संस्थान होने का दावा करने वाले ऐमेटी इंटरनेशनल से लेकर करीब दर्जन भर निजी शिक्षा संस्थानों ने कैबिनेट के निर्णय को ताक पर रखकर ना सिर्फ फीस वसूलनी जारी रखी है, बल्कि उसमें वह एरियर भी जोड़ दिया जिसपर दिल्ली तक में रोक लगायी जा चुकी है।
सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट कैबिनेट के निर्णय पर हाथ खड़े कर देता है और निजी शिक्षा संस्थान कैबिनेट के निर्णय को ढेंगा दिखा देते है । असल में मायावती का यही सलिका कांशीराम के दलित संघर्ष के तौर तरीको को ढेंगा दिखाते हुये सत्ता के लिये राजनीतिक चमचो से होते हुये सत्ता चलाने के लिये नौकरशाही चमचे तक पर जा सिमटा है। कांशीराम कहते है, कोई औजार,दलाल,पिठ्टू अथवा चमचा इसलिये बनाया जाता है ताकि उससे वास्तविक और सच्चे संघर्षकर्ता का विरोध कराया जा सके । बीसवीं शताब्दी की शुरुआत से ही दलित वर्ग छुआछुत और अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़ा हुआ था। शुरुआत मे उनकी उपेक्षा की गयी किन्तु बाद में जब दलित वर्गो का सच्चा नेतृत्व प्रबल और शक्तिसंपन्न हो गया तो उनकी उपेक्षा नहीं की जी सकती थी। इस मुकाम पर उच्च जातीय हिन्दुओं को दलित वर्गो के विरुद्द चमचों को उभारने की जरुरत महसूस हुई। मायावती ने कांशीराम के इस थ्योरी को बहुजन से सर्वजन के तौर पर उभार कर अपने बूते सत्ता पा कर दिखाला दी। लेकिन यहां कांशीराम की गढी राजनीतिक मायावती भी बूत ही निकली। क्योंकि मायावती ने कांशीराम के चमचा थ्योरी को अपनाया तो जरुर लेकिन दलितों का भला करने के लिये नहीं बल्कि अपने राजनीतिक कद को चमचों के बीच ऊंचा करने के लिये, जिसमें बिना चमचों के कद मायने नहीं रखेगा इस एहसास को मायावती ने दिल - दिमाग दोनो में समा लिया । इसलिये राजनीतिक तौर पर अगर चमचा भी नेता और नेता भी चमचा लगने लगा तो मायावती ने इसे अपनी पहली जीत मान ली । लेकिन सत्ता चलाने के तौर तरीको में मायावती नेता की जगह व्यवस्था बन गयी । यानी जिस मायावती को सत्ता में आने व्यवस्था को एक राजनीतिक दिशा देनी थी वही मायावती चमचो के धालमेल की तरह व्यवस्था और नेता के घालमेल में भी जा उलझी ।
समझ यही बनी जब मायावती का निर्णय कैबिनेट का निर्णय है तो मायावती सरीखा निर्णय ही राज्य का निर्णय है। इसलिये फीस बढोतरी रोकने के लिये कैबिनेट के निर्णय को लागू कराने का अधिकार हर जिला अधिकारी को सौपा गया । लेकिन जिला अधिकारी के टालमटोल रवैये से यह भी झलका कि इस निर्णय का मतलब निजी स्कूलो से धन की उगाही है। तो उसने कैबिनेट के निर्णय को खाली पोटली को भरने वाला मान लिया जाये। हालांकि ‘कार्रवाई होनी चाहिये’ वाला भाव जिला अधिकारी का भी रहा । शिक्षा निदेशक ने इसे कैबिनेट का निर्णय बताकर खामोश रहना ही बेहतर समझा । लेकिन जब कैबिनेट का निर्णय लागू होना चाहिये का सवाल उभरा तो शिक्षा निदेशक ने मायावती का आदेश ना मानने की गुस्ताखी करने वाले के खिलाफ मायावती के ही दरवाजे पर दस्तक देने की अपील की। जब यही सवाल माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के मंत्री रंगनाथ मिश्रा से पूछा गया कि कैबिनेट के निर्णय का उल्लंघन कोई कैसे कर सकता है और उल्लंघन करने वाले के खिलाफ कार्रवाई कौन करेगा तो फिर सवाल उभरा कि यह तो मायावती का फैसला है । इसका उल्लघंन कोई कैसे कर सकता है। फिर जिलाधिकारी को तो तत्काल कार्रवाई करनी चाहिये। लेकिन आखिर में मंत्री के माध्यम से भी मामला बैठक और दिशा-निर्देश में ही खो गया।
सवाल है कि कैबिनेट का निर्णय भी मायावती का और लागू ना होने पर कार्रवाई भी मायावती ही करे...तो मायावती हैं कहां । मायावती ही व्यवस्था हैं,मायावती ही राज्य है । फिर राज्य चला कौन रहा है और कांशीराम ने जिस मायावती को गढ़ा वह मिशनरी है कांशीराम के चमचा युग की प्रतीक । क्योंकि दोनो का अंतर कांशीराम ने यह कहते हुये साफ किया था कि , " कुछ लोग मिशनरी व्यक्तियों को चमचा समझने की भूल कर बैठते हैं। जबकि दोनो विपरित ध्रुवों के होते है। किसी चमचे को उसके समुदाय के विरुद्द प्रयोग किया जाता है। जबकि किसी मिशनरी को उसके अपने समुदाय की भलाई के लिये प्रयोग किया जाता है। कह सकते है चमचा अपने समुदाय के सच्चे और वास्तविक नेता को कमजोर करता है और मिशनरी अपने समुदाय के सच्चे नेता को मजबूत करता है। "
जाहिर है कांशीराम के चमचा युग की थ्योरी तले मायावती का मिशन राजनीति की नयी विधा है यह सही है या गलत यह निर्णय उसी जनता को करना है जिसने मायावती को सत्ता तक पहुंचाया। क्योंकि सिर्फ दलित संघर्ष से जोडकर मायावती को देखने का मतलब है कैबिनेट का कोई ना कोई निर्णय जो कही हजारों करोडं रुपयों के बुत में उलझेगा या फिर करोडों रुपयों के जरीये कैबिनेट को ही खारिज करेगा ।
चूंकि आंबेडकर-कांशीराम-मायावती के बुत समूचे राज्य में अभी तक जितने लगे है, अगर उनकी जगहो पर आंबेडकर की शिक्षा पर जोर देने वाले सच के दलित उत्थान को पकड़ा जाता तो संयोग से राज्य में उच्च शिक्षा के लिये अंतर्राष्ट्रीय स्तर की तीन यूनिवर्सिटी और राज्य के हर गांव में एक प्राथमिक स्कूल खुल सकता था।
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आपने.......
असल में सत्ता सीन या सत्ता की राह पर रहे व्यक्ति का कोई जात पात या सिद्धांत नहीं होता.......वहां एक ही भाषा एक ही कोड चलता है और वह है...किसी भी कीमत पर कुर्सी पर बने रहना.....चाहे इसके लिए जो भी करना पड़े....
पुण्य प्रसूनजी
ReplyDeleteमायावती का बुत प्रेम एक पूरे आंदोलन को खत्म कर रहा है। मौका लगे तो इसे पढ़िएगा
http://batangad.blogspot.com/2009/06/blog-post_30.html
shayad mayawati ke bad ya fir mayawati ke dekhte hi dekhte dulit aandolan bikhar jayega....
ReplyDeleteanjuleshyam
http://muhurat.blogspot.com
दरअसल, जो काम कांसीराम या डॉ आंबेडकर न कर सके, वह मायावती ने कर दिखाया। कोई माने या न माने मायावती दलितों की मसीहा हैं। वे मसीहा बनी रहें इसीलिए प्रयासरत हैं कि अपनी मूर्तियां स्थापित करवाएं। दलितों को उन्हें पूजने को मजबूर करें। ताकि उनकी मसीहा होने-बनने की तमन्ना यूंही जीवित रह सके। मूर्तियों के सहारे राजनीति कैसे की जाती है यह मायावती ने हमें सिखाया है। अब उनके मूर्ति-प्रेम पर किसी को आपत्ति हो तो होए। कोर्ट भी उनके साथ है।
ReplyDeleteमेरा यह मानना है कि इसे सिर्फ मूर्ति स्थापित करने तक का खेल अथवा मात्र एक बचकानी हरकत समझने की भूल ना की जाए ! यह बात किसी से छिपी नहीं कि बाबा भीम राव आंबेडकर एक महान हस्ती थे लेकिन हमने अपने स्वार्थो की पूर्ती के लिए जिस तरह उनकी मूर्तिया पार्को और खाली पड़े प्लोटो में सिर्फ इसलिए स्थापित कर दी, ताकि उन पर अवैध कब्जा किया जा सके, उसके नतीजन पिछले ५०-६० सालो में अनेको खून-खराबे और सार्वजनिक संपत्ति को नुकशान की घटनाएं इस देश ने देखी! हम भले ही क्षणिक लाभ प्राप्त करने में सफल रहे हो मगर यह बात शायद खुद आंबेडकर भी जानते होंगे कि हमने ऐसा करके उनके कद को छोटा करने की ही कोशिश की उसे ऊँचा उठाने की नहीं !
ReplyDeleteअब इस नए मूर्ती एपिसोड से जो बात निकली है वह भी बहुत दूर तक जायेगी ! इन मूर्तियों के माध्यम से इस देश में जाने, अनजाने विघटन, हिंसा और साम्प्रदायिकता के कुछ और बीज बो दिए गए है, जो आगे चलकर वक्त आने पर पेड़ बनकर उन्नत फल देंगे और जिन्हें चखने के लिए हमारी भावी पीढियों को वाध्य होना पडेगा !
अफ़सोस है कि जो दलित आन्दोलन मायावती जी ने मान्यवर कांशीराम का आशीर्वाद लेकर चलाया वह आज सत्ता की रोटी सेंकने के अतिरिक्त कुछ नहीं रह गया है। इस पार्टी में भी वे सभी बुराइयां कई गुना होकर आ गयी हैं जिनका विरोध करते हुए इस आन्दोलन का जन्म हुआ। सत्ता का दुरुपयोग, व्यक्ति पूजा, भ्रष्टाचार और समाज में विघटनकारी शक्तियों को प्रश्रय देने का कार्य जिस बड़े पैमाने पर हो रहा है वह पिछले सभी रिकार्ड तोड़ रहा है।
ReplyDeleteपुण्य भाई,
ReplyDeleteइति चनचोध्याय: संपूर्णम् या कुछ औऱ भी द्वितीय अध्याय की प्रतिक्षा रहेगी। कहीं पहले पढ़ा था
चमचा एक्कम चमचा, चमचा दूनी चापलूसी, चमचा तीयां देश हताश, चमचा चौके सत्यानाश
ग्लोबलाइज़ेशन के बाद अब तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर की चमचागिरी हो रही है। मन को मोहने वाले लोग भी तो पश्चिम को अपने इसी फन से कायल कर रहे हैं। बाई द वे 'चमचा'शब्द की उत्पत्ति के बारे में भी कुछ प्रकाश डालें कहां से और कैसे आया ये शब्द। अस्तु
भाई साहब ये पुण्न प्रसून का ब्लाग है ही नहीं. झूठ बोल रहे हैं आप अगर प्रसून जी का ब्लाग है तो वो अपनी परिचय हूं करके लगायेगें हैं करके नहीं समझे झूठ बोल रहे है
ReplyDeleteदलित को भुना कर सत्ता पाना और बात है, 'दलित' को पहचान पाना और भी अलग। सबसे बड़ी विसंगति तो हमारे देश में यही है कि दलित नाम एक जाति से जोड़ दिया गया है जहाँ छूआ छूत और सामाजिक भेदभाव को प्रोत्साहन मिलता है। लोग बुत बनाने को प्राथमिकता दे रहे हैं और 'दलित' का नकाब पहन कर बहुत से 'मक्कार' लोग शोहरत पा गये हैं लेकिन दलित का अर्थ शब्दकोश से नहीं अतीत के पन्नों से ही लिया जा रहा है। यही तो रूढ़ी है। दलित का अर्थ अगर शब्दकोष से लिया जाए तो दूसरी जातियों में दलित अधिक मिलेंगे,रोटी खाने के लाले होते हुए भी ऐसे लोग इसलिए दलित नहीं हैं कि वो उस जाति विशेष के नहीं है। पुण्य प्रसून भाई, बुत बनते रहेंगे और बुत सता भी चलाते रहेंगे लेकिन हम भी तो बुत बनकर तमाशा देखने के सिवा कुछ नहीं कर सकते! आपके लेख ने मरे भीतर कई तहों को कुरेदा है। मेरा कमैंट लम्बा हो गया है क्षमा करें!
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