Saturday, October 31, 2009

पूंजी, पॉलिटिक्स और पत्रकारिता

वैकल्पिक धारा की लीक तलवार की नोंक पर चलने समान है। क्योंकि विकल्प किसी भी तरह का हो उसमें सवाल सिर्फ श्रम और विजन का नहीं होता बल्कि इसके साथ ही चली आ रही लीक से एक ऐसे संघर्ष का होता है जो विकल्प साधने वाले को भी खारिज करने की परिस्थितियां पैदा कर देती हैं । राजनीतिक तौर पर शायद इसीलिये अक्सर यही सवाल उठता है कि विकल्प सोचना नहीं है और मौजूदा परिस्थितियो में जो संसदीय राजनीति का बंदरबांट करे वही विकल्प है। चाहे यह रास्ते उसी सत्ता की तरफ जाते हैं, जहां से गड़बड़ी पैदा हो रही है। मीडिया या कहें न्यूज चैनलों को लेकर यह सवाल बार बार उठता है कि जो कुछ खबरों के नाम पर परोसा जा रहा है, उससे इतर पत्रकारिता की कोई सोचता क्यों नहीं है।

सवाल यह नहीं है कि राजनीति अगर आम-जन से कटी है तो पत्रकारिता भी कमरे में सिमटी है। बड़ा सवाल यह है कि एक ऐसी व्यवस्था न्यूज चैनलों को खड़ा करने के लिये बना दी गयी है, जिसमें पत्रकारिता शब्द बेमानी हो चला है और धंधा समूची पत्रकारिता के कंधे पर सवार होकर बाजार और मुनाफे के घालमेल में मीडिया को ही कटघरे में खड़ा कर मौज कर रहा है। और इसका दूसरा पहलू कहीं ज्यादा खतरनाक है कि हर रास्ता राजनीति के मुहाने पर जाकर खत्म हो रहा है, जहां से राजनीति उसे अपने गोद में लेती है। नया पक्ष यह भी है कि राजनीति ने अब पत्रकारिता को अपने कोख में ही बड़ा करना शुरु कर दिया है।

कोख की बात बाद में पहले गोद की बात। न्यूज चैनलों में राजनीति की गोद का मतलब संपादक के साथ साथ मालिक बनने की दिशा में कॉरपोरेट स्टाइल में कदम बढ़ाना है। यानी उस बाजार की मुश्किलात से न्यूज चैनल संपादक को रुबरु होना है जो राजनीतिक सत्ता के इशारे पर चलती है । यानी मीडिया हाउस का मुनाफा अपरोक्ष तौर पर उसी राजनीति से जुड़ता है, जिस राजनीतिक सत्ता पर मीडिया को बतौर चौथे खम्बे नज़र रखनी है । कोई संपादक कितनी क्रियेटिव है, उससे ज्यादा उस संपादक का महत्व है कि वह कितना मुनाफा बाजार से बटोर सकता है। और मुनाफा बटोरने में राजनीतिक सत्ता की कितनी चलती है या सत्ता जिसके करीब होती है उसके अनुरुप मुनाफा कैसे हो जाता है यह किसी भी राज्य या केन्द्र में सरकारो के आने जाने से ठीक पहले बाजार के रुख से समझा जा सकता है। बाजार कितना भी खुला हो और अंबानी से लेकर टाटा-बिरला तक आर्थिक सुधार के बाद जितना भी खुली अर्थव्यवनस्था में व्यवसाय अनुकूल व्यवस्था की बात कहे , लेकिन बड़ा सच अभी भी यही है कि जिसके साथ सत्ता खड़ी है वह सबसे ज्यादा मुनाफा बना सकता है और अपने पैर फैला सकता है। कमोवेश यही हालत मीडिया की भी की गयी है। लेकिन न्यूज चैनलों की लकीर दूसरे धंधों से कुछ अलग है। यहां प्रोडक्ट उसी आम-जन को तय करना होता है जो राजनीतिक सत्ता के उलट-फेर का माद्दा भी रखती है। इसलिये राजनीति सत्ता ने मीडिया हाउसों को अगर मुनाफे से लुभाया है तो संपादकों को पत्रकारिता से आगे राजनीति का पाठ बताने में भी गुरेज नहीं किया और उस सच को भी सामने रखा कि मीडिया हाउसों से झटके में बडा होने का एकमात्र मंत्र यही है कि राजनीति से दोस्ती करने हुये सत्ताधारियों की फेरहिस्त में शामिल हो जाइये। यह बेहद छोटी परिस्थिति है कि न्यूज चैनल राजनेताओं के साथ चुनाव में पैकेज डील कर के खबरों को छापते -दिखाते हों या राजनेता खुद ही प्रचार तत्व को खबरों में तब्दील करा कर न्यूज चैनलों को मुनाफा दिला दें। उससे आगे की फेरहिस्त में संपादक किसी राजनीतिक दल से चुनाव लड़ने के लिये टिकट अपने या अपनों के लिये मांगता है और बात आगे बढती हा तो राज्य सभा में जाने के लिेये पत्रकारिता को सौदेबाजी की भेंट चढा देता है।

असल में सत्ता के पास न्यूज चैनलों को कटघरे में खडा करने के इतने औजार होते हैं कि संपादक तभी संपादक रह सकता है जब पत्रकारिता को सत्ता से बडी सत्ता बना ले। लेकिन न्यूज चैनलों के मद्देनजर गोद से ज्यादा बडा सवाल कोख का हो गया है । क्योंकि यहां यह सवाल छोटा है कि ममता बनर्जी को सीपीएम प्रभावित न्यूज चैनल बर्दाश्त नहीं है और सीपीएम का मानना है कि न्यूज चैनलों ने नंदीग्राम से लेकर लालगढ तक को जिस तरह उठाया, वह उनकी पार्टी के खिलाफ इसलिये गया क्योकि दिल्ली में कांग्रेस की सत्ता है और राष्ट्रीय न्यूज चैनल कांग्रेस से प्रभावित होते हैं। बड़ा सवाल सरकार ही खड़ा कर रही है । मनमोहन सरकार अब यह कहने से नहीं चूकती कि न्यूज चैनल अब कोई ऐरा-गैरा नत्थु खैरा नहीं निकाल पायेंगे । लाइसेंस बांटने पर नकेल कसी जायेगी। यानी न्यूज चैनलों में राजनीति की दखल का यह एहसास पहली बार कुछ इस तरह सामने आ रहा है मसलन पत्रकारों के होने या ना होने का कोई मतलब नहीं है। और राजनीति की सुविधा-असुविधा से लेकर सही पत्रकारिता का समूचा ज्ञान भी राजनीति को ही है। और राजनीतिक सत्ता के आगे पत्रकार या पत्रकारिता पसंगा भर भी नहीं है।

असल में इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि तकनीकी विस्तार ने मीडिया को जो विस्तार दिया है उतना विस्तार पत्रकारों का नहीं हुआ है । और मीडिया का यही तकनीकी विस्तार ही असल में पत्रकारिता भी है और राजनीति को प्रभावित करने वाला चौथा खम्भा भी है । कह सकते है कि चौथे खम्भे की परिभाषा में पत्रकार या पत्रकारिता के मायने ही कोई मायने नहीं रखते है। लेकिन बिगड़े न्यूज चैनलों को सुधारने की जो भी बात राजनीति करती है, उसमें राजनीतिक धंधे के तहत न्यूज चैनल कैसे चलते है और चलकर सफल होने वाले न्यूज चैनल इस धंधे को बरकरार रखने में ही जुटे रहते है, समझना यह ज्यादा जरुरी है।


किसी भी राष्ट्रीय न्यूज चैनल को शुरु करने के लिये चालीस से पचास करोड़ से ज्यादा नहीं चाहिये। और फैलते बाजारवाद में विज्ञापन से कोई भी न्यूज चैनल साल में औसतन 20-25 करोड आसानी से कमा सकता है। जो न्यूज चैनल टॉप पर होगा उसकी सालाना कमाई सौ करोड पार होती है। मंदी में भी यह कमाइ सौ करोड से कम नही हुई। जाहिर है न्यूज चैनल चलाने के लिये कागज पर हर न्यूज चैनल वाले के लिय न्यूज चैनल का धंधा मुनाफे वाला है। क्योंकि एक साथ छह करोड घरों में कोई अखबार पहुंच नही सकता। किसी राजनेता की सार्वजनिक सभा में लोग जुट नही सकते लेकिन कोई बड़ी खबर अगर ब्रेक हो तो इतनी बडी तादाद में एक साथ लोग खबरो को देख सुन सकते हैं। जाहिर है बीते एक दशक के दौर में न्यूज चैनलों ने जो उडान भरी उसने उस राजनीतिक सत्ता की जड़े भी हिलायी जो बिना सरोकार देश को चलाने में गर्व महसूस करते। लेकिन राजनीतिक सत्ता के सामने न्यूज चैनलों की क्या औकात। इसलिये न्यूज चैनलों को कोख में ही राजनीति ने बांधने का फार्मूला अपनाया। चैनलों को दिखाने के लिये को केबल नेटवर्क है, उसपर राजनीति ने खुद को काबिज कर एक नया पिंजरा बनाया, जिसमें न्यूज चैनलों को कैद कर दिया । किसी भी राष्ट्रीय न्यूज चैनल को केबल से देश भर में जोडने के लिये सालाना 35 से 40 करोड रुपये लुटाने की ताकत चैनल के पास होनी चाहिये तभी कोई नया चैनल आ सकता है। क्योंकि हर राज्य में केबल नेटवर्क से तभी कोई चैनल जुड़ सकता है, जब वह फीस चुकता कर दे । यह रकम सफेद हो नहीं सकती क्योंकि इसका बंटवारा जिस राजनीति को प्रभावित करता है, वह राजनीतिक दल नही सत्ता देखती है और वह किसी की भी हो सकती है । सबसे ज्यादा फीस महाराष्ट्र में 8 करोड़ की है, फिर गुजरात के लिये 5 करोड़ तक देने ही होगे। बिहार-उत्तरप्रदेश-झरखंड-उत्तराखंड में मिलाकर 3 से 4 करोड में सालाना केबल नेटवर्क दिखाता है। मजेदार तथ्य यह है कि केबल नेटवर्क को ही चैनलों की टीआरपी से जोड़ा जाता है और टीआरपी के आधार पर ही चैनलों को विज्ञापन मिलता है । यहीं से ब्रांड और धंधे का खेल शुरु होता है । टीआरपी और विज्ञापन को इस तरह जोड़ा गया है कि जो केबल नेटवर्क में करोडो लुटा सकता है वही विज्ञापन के जरीये करोड़ों कमा सकता है। करोड़ों के वारे न्यारे का यह खेल ही उपभोक्ताओं के लिये एक ऐसा ब्रांड बनाता है, जिसमें किसी भी प्रोडक्ट की कोई भी कीमत देने के लिये एक तबका एक क्लास के तौर पर खड़ा हो जाता है।

आप कह सकते है कि इस क्लास में राजनेता और सत्ता से सटे पत्रकारो की भागेदारी बराबर की होती है क्योकि यह गठजोड़ संसदीय राजनीति तले लोकतंत्र का गीत गाता भी है और लोकतंत्र को बाजार के आइने में देखने-दिखाने को मजबूर करता भी है । लेकिन पत्रकारिता को कोख में रखने की राजनीति भी यहीं से शुरु होती है । कोई पत्रकार न्यूज चैनल ला तो सकता है लेकिन उसे केबल नेटवर्क के जरीये दिखाने के लिये फिर उसी राजनीति के सामने नतमस्तक होना पड़ता है, जिसपर नजर रखने के ख्याल से न्यूज चैनल का जन्म होता है। कमोवेश हर राज्य में सत्ताधारी राजनीतिक दल के बडे नेताओं ने ही केबल पर कब्जा कर लिया है । यानी जो राजनीति पहले न्यूज चैनलों के मालिक या संपादको से गुहार लगाती ती कि उनके खिलाफ की खबरों को ना दिखाया जाये अब वही राजनीति सीधे कहने से नहीं चूकती- आपको जो खबरे दिखानी हो दिखाइये लेकिन वह हमारे राज्य में नहीं दिखेंगी क्येकि केबल पर आपका चैनल हम आने ही नहीं देंगे। यानी केबल नेटवर्क पर सत्ता का कब्जा राजनीति का नया मंत्र है। इसका शुरुआती प्रयोग अगर छत्तीसगढ में अजित जोगी ने किया तो ताजा प्रयोग वाय एस आर रेड्डी के बेटे जगन ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने के लिये किया । आंध्र में केबल नेटवर्क पर जगन का ही कब्जा है। छत्तीसगढ में अब रमन सिंह का कब्जा है । पंजाब में बादल परिवार का कब्जा है। महाराष्ट् में एनसीपी-काग्रेस और शिवसेना के केबल नेटवर्क युद्द में राज ठाकरे ने सेंघ लगाना शुर कर दिया है । तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार की ही न्यूज चैनलों को दिखाने ना दिखवाने की तूती बोलती है। गुजरात में मोदी की हरी झंडी के बगैर मुश्किल है कि कोई चैनल स्मूथली दिखायी दे। बंगाल में वामपंथियों को अभी तक अपने कैडर पर भरोसा था लेकिन ममता के तेवरों ने सीपीएम को जिस तरह चुनौती दी है, उसमें केबल पर कब्जे की जगह कैबल अब ममता और सीपीएम को लेकर कैडर की तर्ज पर बंट जरुर गया है।

इन हालात में न्यूज चैनल के सामने गाना-बजाना दिखाना या कहे खबरों से हटकर कुछ भी दिखाना ढाल भी है और मुनाफा बनाना भी। यह ठीक उसी तरह है जैसे सिनेमा देखने के लिये अब सौ रुपये जेब में होने चाहिये। यह बहुसंख्यक तबके के पास होते नहीं है, इसलिये पाइरेटेड का धंधा फलता फूलता है। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में सिनेमा की हत्या भी हुई। सिनेमा अब उसी तबके के लिये बनने लगा, जो दो घंटे में मनोरंजन की नयी व्याख्या करता करता है। ऐसे में सिनेमा भी सरोकार पैदा नहीं करता। उसी तरह खबरें भी सरोकार की भाषा नहीं समझती क्योंकि उसका मुनाफा जनता से नही सत्ता से जोड़ दिया गया है और इस दौड में डीटीएच कोई मायने नहीं रखता। क्योंकि डीटीएच से न्यूज चैनल घरों में दिखायी जरुर देता है मगर विज्ञापन की वह पूंजी नही जुगाड़ी जा सकती जो केबल के जरिए टीआरपी से होती हुई न्यूज चैनलों तक पहुंचती है।

किसी भी नये चैनल की मुश्किल यही होती है कि वह खुद को केबल और टीआरपी के बीच फिट कैसे करें । किस राज्य की किस सत्ता और किस राजनेता के जरीये न्यूज चैनल के मुनाफे की अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी करे । जबकि पुराने चैनलो की कैबल कनेक्टिविटी और टीआरपी में कभी बड़ा उलटफेर या परिवर्तन चार हफ्तों तक भी नहीं टिकता है, चाहे कोई न्यूज चैनल कुछ भी दिखाये । यह यथावत स्थिति हर किसी को बाजारवाद में बंदरबांट के लिये कथित स्पर्धा से जोड़े रखते हुये सभी की महत्ता बरकरार रखती है। भाजपा ने एनडीए की सरकार के दौर में इस गोरखधंधे को तोड़ने के लिये कैस लाने की सोची थी। लेकिन उसी दौर में जब यह पंडारा बाक्स खुला कि करोड़ों के वारे न्यारे से लेकर राजनीति के अनुकुल न्यूज चैनलो पर इसी माध्यम से नकेल कसी जा सकती है तो धीरे धीरे सबकुछ ठंडे बस्ते में डाला गया । लेकिन मुनाफे के धंधे को बरकरार रखने के बाजारवाद में पत्रकार किसी खूंटे से बांधा जाये यह सवाल सबसे बड़ा हो गया है । पत्रकार न्यूज चैनल के लिये मुनाफा जुगाड़ने से सीधे जुड़ जाये, पत्रकार राजनीतिक सत्ता के इशारे पर काम करने लगे , पत्रकार लोकसभा के टिकट लेने-दिलवाने से लेकर राज्यसभा तक पहुंचने के जुगाड़ को पत्रकारिता का आखिरी मिशन मान लें या फिर पत्रकार सत्ता की उस व्यवस्था के आगे घुटने टेक दें, जहां सत्ता परिवर्तन भी एक तानाशाह से दूसरे तानाशाह की ओर जाते दिखे और पत्रकारिता का मतलब इस सत्ता परिवर्तन में ही क्राति की लहर दिखला दें। इस दौर में विकल्प की पत्रकारिता करने की सोचना सबसे बड़ा अपराध तो माना ही जायेगा जैसे आज अधिकतर न्यूज चैनलो में यह कह कर ठहाका लगाया जाता है कि अरे यह तो पत्रकार है।

Thursday, October 29, 2009

राजधानी की योजनाओं से दूर जंगल में 'राजधानी' फंसने का मतलब

माओवादी संकट कहीं राजनीति के अतर्विरोध को उभार तो नहीं देगा ? माओवादी संकट कहीं विकास की लकीर पर ही सवाल तो खड़ा नहीं कर देगा ? माओवादी संकट कहीं राजनीतिक मुनाफे के आगे नपुंसक होते संस्थानों के दर्द को विस्फोटक तो नहीं बना देगा ? यह सवाल खासे तेजी से उठने लगे हैं। दिल्ली में चिदंबरम चाहे माओवाद के खिलाफ आखिरी लड़ाई का ऐलान करे लेकिन राजनीतिक सत्ता के मुनाफे का टकराव हर लड़ाई को हवा-हवाई बना देगा। राजधानी एक्सप्रेस को पांच घंटे अपने कब्जे में कर अगर माओवादियों ने छत्रघर महतो की रिहायी की मांग की तो उसका दूसरा हिस्सा कहीं ज्यादा खतरनाक है। जिस वक्त जंगल में राजधानी एक्सप्रेस फंसी तो राजनीतिक सत्ता की लड़ाई में राजधानी उलझ गयी, जब हजारों यात्रियों के जेहन में यह सवाल उठ रहा होगा कि सरकार और सुरक्षा बंदोबस्त हैं कहां तो दिल्ली में रेल मंत्री ममता बनर्जी सीपीम को घेरने में लगी रहीं। एक बार भी उन्होंने यह नहीं कहा कि बंगाल के मुख्यमंत्री से वह बात कर रही हैं, उनकी जुबान पर उड़ीसा के सीएम का नाम तो आया लेकिन बंगाल के सीएम का जिक्र करना तक उन्होंने सही नहीं समझा।

पॉलिटिकली करेक्ट रहने के लिये सीपीएम ने भी ममता बनर्जी को ही इस मौके पर घेरेने का प्रयास किया। हर कोई भूल गया कि राज्य की जिम्मेदारी क्या है और केन्द्रीय मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक की भूमिका संकट के वक्त क्या होनी चाहिये। जाहिर है पॉलिटिकली करेक्ट रहने की समझ हर राजनीतिक सत्ता की जरुरत है, इसलिये दिल्ली में अगर कभी माओवादियों के खिलाफ आखिरी लड़ाई पर दिल्ली में ठप्पा लग भी जाये तो भी राज्यों की भूमिका राज्यों की सीमा-दर-सीमा बदलगी क्योंकि सीमा बदलते ही राजनीतिक सत्ता भी बदलती है। पॉलिटिकली करेक्ट होने की होड़ पुलिस-सुरक्षाबलो को कैसे तोड़ सकती है इसका अंदाजा बंगाल के पुलिसकर्मियों के टूटते मनोबल से समझा जा सकता है। असल में जिस पुलिसकर्मी की रिहायी माओवादियों ने छाती पर युद्दबंदी का पोस्टर लगाकर मीडिया के हंगामे के बीच की। उस रिहायी के 14 घंटे पहले लालगढ़ में सुरक्षाबलों ने माओवादी किशनजी को घेर लिया था। किशनजी वही शख्स हैं, जो लालगढ की हर माओवादी कार्रवाई का अगुवा है। अपने घेरेबंदी की जानकारी किशनजी को भी थी। लेकिन उसी वक्त माओवादी नेता ने न्यूज चैनलों के जरिए सीधे कहा कि अगर तैनात फोर्स ने किसी भी तरह गोलिया चलायी या कार्रवाई की तो अपहर्त पुलिसकर्मी की हत्या कर दी जायेगी।

बुद्धदेव सरकार ने तत्काल फैसला किया कि लालगढ़ में तैनात सुरक्षाकर्मी कार्रवाई नहीं करेंगे। कार्रवाई रोकी गयी और उसके बाद देश में अपनी तरह का पहला युद्दबंदी रिहा हुआ। रिहा युद्धबंदी पुलिसकर्मी ने ना सिर्फ मीडिया के सामने इलाके में विकास का सवाल उठाकर माओवादियों को सही ठहराया बल्कि पुलिस को किस रुप में सत्ता देखती है और प्रचार प्रसार के जरीये उसे हर मामले में शहीद होने का तमगा लगा कर राजनीति पल्ला झाड लेती है, इसने रिहा युद्धबंदी पुलिसकर्मी के उस तर्क के सामने सबकुछ खारिज कर दिया जब रिहायी के बाद पुलिसकर्मी ने ड्यूटी संभालना तो दूर सीधे कह दिया कि नयी परिस्थियों में वह पहले अपने परिवार से बात करेंगे।

महत्वपूर्ण है इसी दौर में राज्य और केन्द्र सरकार सुरक्षाकर्मियों को माओवादियो के खिलाफ लड़ाई तेज करने के लिये लगातार जोर दे रही हैं। ऐसे में बंगाल के पुलिसकर्मियो के सामने एक साथ कई सवाल खड़े हुये हैं कि जिन माओवादियों ने एक पुलिसकर्मी को बंधक बनाया उन्हीं माओवादियों ने उससे ठीक पहले दो एएसआई दीपांकर भट्टाचार्य और साकोल राय की हत्या भी की। फिर रिहायी के वक्त बंधक पुलिसकर्मी, जिन माओवादियों से हाथ मिला रहे थे उन्हीं माओवादियो ने थाने पर हमलाकर दो पुलिसकर्मियों को मारा था ।

जाहिर है इसके बाद सुरक्षाकर्मियों ने जब माओवादियों को घेरा और ऊपरी निर्देश पर कार्रवायी रोक दी, उनके सामने सवाल है कि कल फिर राजनीतिक सत्ता की मजबूरी उन्हें ना रोके इसकी गारंटी कौन लेगा। वहीं तीसरा सवाल भी ‘राजधानी’ के जंगल में फंसने पर उठा। भुवनेश्वर से आने वाली राजधानी को रुकवाने के बाद वहां के ग्रामीण माओवादियो ने दो ही काम सबसे पहले किये। पहला तो रेलगाड़ी के डिब्बो पर छत्रघर महतो की रिहायी की मांग को लाल रंग से लिख डाला और उससे कहीं ज्यादा तेजी से पेन्ट्री कार और कंबल लूटने के लिये हमला किया। एक बांग्ला न्यूज चैनल के रिपोर्टर ने हिम्मत दिखाकर कुछ फर्लांग दूर वंशतोल और झारग्राम के बीच एक झोपडी में जाकर कैमरे से तस्वीरे लीं तो विकास के सवाल ने पाषाण काल की तस्वीर सामने ला दी। क्योंकि उस झोपड़ी में पेन्ट्री कार से लूटे गये खाने और उसकी चमकीली चिमनी के अलावा लूटा गया कंबल था, जो एक डोरी पर झूल रहा था। इसके अलावा कमरे में चटाई, बांस के डंडे, तेन्दू पत्तों की पोटली, मिट्टी का चूल्हा और लोहे की दो कड़ाई पड़ी थी। ओसारे पर मटमैली साड़ी,धोती और फटे हुये कुछ कपडे जरुर थे । इसके अलावा पूरी झोपड़ी में कुछ नहीं था। राजधानी मे यह सारे सामान फेंकने वाले होंगे, जिसकी कीमत लगाना बेमानी है लेकिन झारग्राम के इलाके का यही सच है। जाहिर है यह सारे सवाल उसी माओवाद से जा जुड़े हैं, जिनके प्रभावित इलाको में राजधानी की कोई योजना पहुंचती नहीं और राजधानी एक्सप्रेस फंस जाये तो राज्य और देश की राजधानी में राजनीतिक ब्रेक लग जाता है।

Tuesday, October 27, 2009

नक्सली, युद्धबंदी और सरकार

ये पहला मौका है जब माओवादी प्रभावित इलाकों में सरकार के खिलाफ लड़ेंगे और मरेंगे की तर्ज पर ग्रामीण आदिवासियों को तैयार किया जा रहा है। लड़ना सरकार से है और मरना सरकार के हाथों ही है। सरकार का मतलब पुलिस-सेना सबकुछ है। क्योंकि नैतिक तौर पर सरकार के किसी नुमाइन्दे में इतनी हिम्मत है नहीं कि वह ग्रामीण इलाकों में आकर ग्रामीण आदिवासियों के हालात देख सकें। जितनी सेना इन इलाको में भरी जा रही है, जितने आधुनिक हथियारों से लैस सुरक्षाकर्मियों की फौज लगातार क्षेत्र में घुल रही है, उसमें ग्रामीण आदिवासी क्या करें। वर्दीधारियों को आदिवासियों की भाषा समझ में आती नहीं है, उनके लिये सफलता का मतलब हर किसी को माओवादी ठहराकर या तो पकड़ना, मारना है या फिर गिरफ्तार करना है। यह समझने के लिये कोई तैयार नहीं है कि ग्रामीण आदिवासियों की रोजी रोटी कैसे चल रही होगी जब जमीन-जंगल सभी को रौंदा जा रहा है। प्राथमिक अस्पतालों में इलाज कराने गये लोगों को माओवादी बताकर अस्पताल के बदले सीधे थाने और जेल भेजा जा रहा है। यह परिस्थितियां युद्ध सरीखी नहीं है तो क्या हैं ?

यह जबाब लालगढ़ में माओवादियों की कमान संभाले कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी का है। जिनसे मैंने सीधा सवाल किया था कि अपहर्त सब-इन्सपेक्टर की रिहायी के वक्त उसकी छाती पर पीओडब्ल्यू यानी प्रिजनर आफ वार यानी युद्दबंदी क्यों लिखकर टांगा गया। 26 महिलाओं की रिहायी के बाद क्या यह माओवादियों की रणनीति का हिस्सा बन गया है। नहीं, ऐसा हमने कभी नहीं कहा। लेकिन आपको यह भी समझना होगा कि बुद्ददेव सरकार ने 26 महिलाओं को क्यों छोड़ा।

महिलाओं पर सिर्फ पेड़ काट कर रास्ते पर डालने और गड्डा खोदने का आरोप है। लेकिन इस आरोप के साथ माओवादियों को मदद देने और पुलिस कार्रवाई में बाधा पहुचाने का भी आरोप है। अगर आप सत्ता में है तो आरोप किसी भी स्तर पर लगा सकते है, बड़ी बात है कि अगर आदिवासी महिलायें सरकार के लिये इतनी ही घातक होती तो सरकार कभी उन्हें रिहा नहीं करती। अगर आप पुलिसवाले का अपहरण कर उसका सर तलवार की नोंक पर रखते है तो सरकार के पास विकल्प क्या बचेगा। ऐसा होता तो अभी तक सरकार का ध्यान अपनी पुलिस के बचाने में जाता । लेकिन नंदीग्राम से लालगढ़ तक पुलिसवालो को जनता के सामने सरकार ने झोंक दिया। दो दर्जन से ज्यादा पुलिस वाल मारे गये हैं। यहा सवाल युद्धबंदी पुलिसकर्मी का नही था बल्कि बुद्ददेव सरकार समझ रही थी कि अगर महिलाओं को माओवादी करार देकर जेल में बंद रखा गया तो ग्रामीण आदिवासियो में और अंसतोष आ जायेगा। सवाल है इससे पहले भी कई मौको पर नक्सली संगठनों ने पुलिसकर्मियों का अपहरण कर स्थानीय तौर पर प्रशासन-सरकार से सौदेबाजी की है , लेकिन यह पहला मौका है कि युद्धबंदी शब्द का प्रयोग किया गया। अस्सी के दशक में जब पीपुल्स वार के महासचिव सीतीरमैया ने आंध्रप्रदेश के सात विधायकों का अपहरण भी किया था तो उस दौर में भी रिहायी के लिये शर्त्ते रखी गयीं, जो पूरी हुई तो विधायकों को छोड़ दिया गया। उस वक्त सीतीरमैया ने कहा था कि अगर जरुरत हुई तो राजीव गांधी का अपहरण भी कर सकते हैं। उस दौर में पीपुल्स वार ग्रुप आंध्रप्रदेश में सिमटा था। लेकिन अपहरण राजनीतिक तौर पर नक्सलियो की रणनीति का हिस्सा हो सकता है, ऐसा बीते दो दशक में सामने आया नहीं। वहीं बिहार में एमसीसी ने भी कभी किसी का अपहऱण कर सरकार से किसी सौदेबाजी को अपनी रणनीति का हिस्सा नहीं बनाया। दोनों नक्सली संगठन अब एक साथ है और साथ होने के पांच साल पूरे होने के बाद झारखंड में जिस तरह एक पुलिसवाले का सर कलम किया गया और बंगाल में युद्दबंदी बता कर रिहायी की गयी उसने सरकार के सामने बडा सवाल खड़ा किया है कि अगर वाकई युद्द सरीखी कार्रवाई करनी पडी तो रेड कारीडोर का सच भी सामने आयेगा और जो विकास की उस जरजर जमीन को ही सामने रखेगा, जहा अभी भी पाषण काल है । तो क्या माओवादी रणनीति के तहत युद्ध की स्थिति पैदा कर रहे हैं। कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी के मुताबिक युद्द का मतलब किसी आखरी लड़ाई से नहीं है, बल्कि उन परिस्थितियों को दुनिया के सामने लाना है, जिसके तले ग्रामीण आदिवासी जी रहे हैं। लालगढ़ को ही लें। वहां के बत्तीस गांव और उसके अगल-बगल के करीब पचास से ज्यादा गांव में एक भी स्कूल नहीं है। तीन प्राथमिक स्वास्थय केन्द्र हैं। पीने का साफ पानी तो दूर रोजी रोटी के लिये सरकार की कोई योजना इऩ गांवों तक नहीं पहुंची है। वह संयुक्त फोर्स की आवाजाही ने उस जमीन को भी बूटों तले रौंदना शुरु कर दिया है जिसके आसरे थोडी बहुत खेती होती थी । साथ ही मजदूरी के लिये कही भी आवाजाही गांववालो को बंद करनी पड़ी है क्योंकि गांव के भीतर पहुचने के लिये इन्हीं गांववालों को पुलिस हथियार बनाती है ।

लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में वामपंथी सरकार ने गांव-गांव का रसद-पानी जिस तरह बंद कर दिया है उसमें माड़-भात और आलू ही जब जीने का एकमात्र जरिया हो और अब उसके भी लाले पड़ने लगे हों , तो यह स्थिति उन शहरी लोगों को देखनी चाहिये जो सबकुछ कानून-व्यवस्था के जरिये ही सुलझाना चाहते हैं। असल में सरकार का संकट यही से शुरु होता क्योंकि एक तरफ गृहमंत्री पी चिदबंरम माओवादियों से आखिरी लडाई के मूड़ में हैं, वहीं राहुल गांधी एक देश में बनते दो देश का जिक्र कर माओवादी प्रभावित इलाको में गवरर्मेंस का संकट उभारते हैं। लेकिन सवाल है 12 राज्यों के 127 जिलों के रेडकारीडोर में कमोवेश हर राजनीतिक जल की सरकारें हैं। मसलन, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार तो कर्नाटक,मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ में भाजपा की सरकार है।

वहीं बिहार में जदयू के साथ बीजेपी सत्ता में है तो उड़ीसा में बीजू जनता दल और बंगाल में वामपंथियों की सरकार है । यानी सरकारों के काम अगर वाकई लाल गलियारे तक नहीं पहुंची है तो इसके लिये किसी एक राजनीतिक दल को दोषी ठहराया भी नहीं जा सकता है। झारखंड में तो राष्ट्रपति शासन है यानी सीधे केन्द्र सरकार की निगरानी में है , लेकिन माओवादियो की सबसे बर्बर स्थिति झारखंड में ही उभर रही है । असल में राहुल गांधी की सोच गलत है भी नहीं कि गवर्मेंस फेल हो रहा है । सत्ता शहरों में सिमट गयी है । गरीब या ग्रामीणों को मौका नही मिलता है। लेकिन यह सोच अगर सही है तो सवाल मनमोहन सरकार पर उठेंगे। तब उनकी सोच को लागू करने निकले चिदबंरम की आखिरी लड़ाई भी बेमानी लग सकती है । यूं भी अगर सामाजिक आर्थिक नजरिये से अगर माओवादी प्रभावित इलाकों को देखे तो मुख्यधारा से कितनी दूर है यह , इसका अंदाज प्रतिव्यक्ति आय से भी लग सकता है । देस में प्रतिव्यक्ति आय 2800 रुपये प्रतिमाह है लेकिन लाल गलियारे में औसतन प्रतिव्यक्ति आय 1200 रुपये प्रतिमाह है । करीब तीन करोड़ ग्रामीणों का पलायन बीते एक दशक में इन क्षेत्रों में काम ना मिलने की वजह से हुआ है। यानी रोजी रोटी की तालाश में इतनी बडी तादाद जिला मुख्यालयों या शहरों में चली गयी। तो सरकारी योजनाओ की वजह से करीब दो करोड़ से ज्यादा लोग विस्थापित हो गये। माओवादी प्रभावित क्षेत्र में सरकार की जितनी परियोजनाये निर्धारित है अगर सभी पर काम शुरु हो जाये तो कम से कम 55 जिलों में एक लाख एकड़ से ज्यादा की खेती योग्य भूमि पूरी तरह खत्म हो जायेगी । इन जमीनो पर टिके कितने किसान-मजदूरों के सामने रोजी रोटी के लाले कैसे पड़ जायेंगे इसका अंदाजा भी सरकारी योजनाओ से मिने वाली नौकरियो की तादाद से समझा जा सकता है। औसतन इन 55 जिलों में प्रति सौ एकड खेती की जमीन पर पांच हजार परिवारो का पेट भरता है, वहीं औघोगिक योजनाओ के आने के बाद प्रति सौ एकड़ 40 से 50 परिवार को ही रोजगार मिलेगा ।

असल में रेडकारिडोर का सवाल सिर्फ विकास होने या करने से ही नहीं जुडा है । जो नयी राजनीतिक परिस्थितियां बन रही हैं, उसमें युद्धबंदी की राजनीति का मतलब एक ऐसे टकराव का पैदा होना है, जिसमें करोड़ों ग्रामीण आदिवासियों को झोंकना होगा। युद्धबंदी का सवाल सिर्फ विकास की सही स्थिति भर की नक्सली रणनीति भर से नहीं जुड़ा है। इसका दूसरा सच यह भी है कि देश के भीतर दो देश के आगे एक दूसरे के खिलाफ खड़े होने की स्थिति भी युद्ध की तर्ज पर की जा रही है ।

Friday, October 23, 2009

आतंरिक सुरक्षा को खतरे का मतलब ?

माओवाद के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई की बात गृह मंत्रालय की रिपोर्ट कर रही है और प्रधानमंत्री माओवाद को देश के आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा बता रहे हैं। सरकार के लिये आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़े खतरे का मतलब देश के बीस से तीस करोड़ लोगों के लिये खींची जाने वाली विकास की लकीर के रास्ते में रुकावट का आना है। जाहिर है ऐसे में सत्तर करोड़ लोगों की न्यूनतम जरुरत तो दूर सत्तर करोड लोग भी सरकार के लिये कोई मायने नहीं रखते इसका अंदाज देश के उन्ही राज्यों के भीतर की तस्वीर को देख समझा जा सकता है, जहां ग्रामीण-आदिवासियों की बहुतायत है। अभी भी गांव विकास के घेरे में आकर शहर नहीं बने है। जहां अभी भी समाज बसता है , उपभोक्ता और बाजार नहीं पहुचा है । इसलिये साफ पानी, प्राथमिक स्कूल, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र से ज्यादा जरुरी गांव को शहर बनाना, शहर में बाजार लाना और ग्रामीण समाज को खत्म कर बाजार के लिये उपभोक्ताओ की कतार खडी कर देना।

हकीकत में रायपुर,रांची और भुवनेश्वर से आगे छत्तीसगढ, झारखंड और उड़ीसा की अंदरुनी तस्वीर कितनी भयावह है इसका अंदाज इसी बात से लग सकता है कि जिस आर्थिक विकास की स्वर्णिम समझ को बतौर वित्त मंत्री मनमोहन सिंह से लेकर पी चिंदबरम 1991 से 2009 में खींच रहे हैं, उसमें यह तीनो राज्य अव्वल दर्जे के पिछड़े हैं। यहां बाजार पर टिका समाज महज नौ फीसदी है। और सरकार पर टिका है 15 से 20 बीस फीसदी समाज बाकि ना तो बाजार पर टिका है ना ही सरकार पर । यानी सरकार की नीतियां भी ऐसी नहीं है कि वह सत्तर फीसदी लोगों को इसका एहसास कराये की सरकार है जो आपका हित-अहित देखती है ।

यह बात वित्त मंत्री से गृह मंत्री बने चिदबंरम तो कह नहीं सकते लेकिन राहुल गांधी समझ रहे है कि उन्हें असल राजनीतिक पारी शुरु करने से पहले उस लकीर पर सवालिया निशान उठाना ही होगा जो आंतरिक सुरक्षा को लेकर सरकार के माथे पर खींची जा रही है । राहुल बेखौफ हो कर कह सकते हैं कि माओवाद प्रभावित इलाको में सरकार बहुसख्यक आम ग्रामीण तक पहुंचती ही नहीं है । राज्यों की राजधानी में ही या फिर शहरों में ही सरकारी नीतिया भ्रष्ट्राचार तले दम तोड़ देती है या फिर जमीनी सच से दूर नीतियों की ऐसी लकीर खींची जाती है जो गांव में पहुंचते पहुंचते एक नये अर्थ में दिखायी देती है। मसलन झारखंड के खूंटी में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र नहीं है लेकिन वहां दवाई फैक्टरी को जगह दे दी गयी। बस्तर में पीने का पानी नहीं है लेकिन वहा बोतल बंद पानी की फैक्ट्री खोली जा सकती है। और बालासोर में बारुद और कैमिकल से लोग मर रहे है लेकिन वहां विशेष आर्थिक क्षेत्र की बात कही जा सकती है।

हालांकि राहुल गांधी राजनीति के मर्म को समझते हैं इसलिये वह केन्द्र सरकार को नहीं राज्यों की सरकारों को इसके लिये घेरते है । लेकिन फिर सवाल शुरु होता है कि जो आंखें राहुल गांधी के पास है वह मनमोहन सिंह के पास क्यों नहीं है । यह कैसे संभव है कि राहुल की राजनीतिक जमीन उस उपभोक्ता समाज से हटकर होगी, जिसे अथक मेहनत के साथ मनमोहन सिंह ने बनाया है, या फिर राहुल कोई ऐसी राजनीतिक लकीर खिंचना चाहते है, जिसके बाद केन्द्र और हर राज्य में सिर्फ कांग्रेस की ही सरकार हो । और उस स्थिति में राहुल राज हो तो कोई दूसरा राहुल देशाटन कर देश की उथली और पोपली जमीन को बता कर लोगो की भावनाओं से जुड़ कर उस दौर में राहुल को ही मनमोहन सरीखा ना बना दें।

असल में माओवादी प्रभावित रेड कारीडोर का बड़ा सच यही है कि वहा सेना या देश तो छोड़िये राज्यो की पुलिस की तुलना में भी माओवादियो की संख्या एक फीसदी से भी कम है । अगर छत्तीसगढ, झारखंड और उड़ीसा की पुलिस संख्या दो से ढाई लाख है तो इन क्षेत्रों में हथियारबंद माओवादी ढाई से तीन हजार है। इसलिये सवाल माओवाद को नेस्तानाबूद करने के लिये किसी ठोस रणनीति का नहीं है । रणनीति का सवाल यहां के लोगों से जुड़ा है, जिनकी तादाद के आगे ढाई लाख सुरक्षाकर्मी पंसगा भर है। इन क्षेत्रों में उन ग्रामीण-आदिवासियो की तादाद तीन से चार करोड की है जिनके लिये कोई नीतिया सरकार के पास नहीं है और जो नीतिया सरकार के होने का एहसास कराती है, वह सुरक्षाकर्मियो की बंदूक या डंडा है । उनसे कौन कैसे लड़ सकता है, खासकर जब सवाल विकास की अंधी लकीर खिंचने का हो। इन इलाको में ना तो जवाहर रोजगार योजना पहुंचा। ना इंदिरा आवास योजना ओर ना ही नरेगा। जंगल जीवन है और जीवन जंगल है। ऐसे में अगर जंगल और प्रकृतिक संसधानों पर किसी की नजर हो तो करोड़ों लोगो का क्या होगा यह सवाल आंतरिक सुरक्षा का है।

लेकिन आंतरिक सुरक्षा को लेकर देखने का नजरिया कैसे बदलता है, यह गृह मंत्रालय की ही उस रिपोर्ट से समझा जा सकता है जिसमें विकास को माओवादी रोक रहे है । इसमें दो मत नही कि सरकारी संपत्ति को सबसे ज्यादा सीधा नुकसान माओवादी ने सीदे तौर पर किया है । झारखंड में चतरा से लेकर डालटेनगंज जाने के दो रास्ते है । एक लातेहार हो कर और दूसरा पांकी होकर । अगर पांकी होकर डालटेनगंज जाया जाये तो रास्ते में हर सरकारी इमारत डायनामाइट से उडायी हुई मिलेगी । और वहां किसी भी ग्रामीण आदिवासी से पूछने पर सीधा जबाब भी मिलता है कि यह इमारते माओवादियों ने उड़ायी हैं ।

लेकिन इस इलाके का दूसरा सच भी है । इस रास्ते में प्रकृति पूरी छटा के साथ रहती है। प्राकृतिक संसाधनो की भरमार आपको रास्ते भर मिलेंगे। जंगल गांव रास्ते में मिलेंगे । पलामू को बांटती कोयलकारो नदी आपको यहीं मिलेगी। रास्ते में करीब तीस-चालीस गांव के डेढ-दो लाख ग्रामीणों का जीवन पूरी तरह जंगल पर ही कैसे निर्भर है, इस हकीकत को कोई भी नंगी आंखों से देख सकता है । सरकार की कोई नीति अगर यहा पहुंचती है तो सारे गांव वाले सहम जाते हैं क्योकि हर नीति का मतलब उनकी जिन्दगी के खत्म होने के साथ जुड़ा होता है । सरकार चाहते है नदी पर पुल बन जाये। सरकार चाहती है पलामू के जंगल क्षेत्र को पर्यटन के लिये विकसित किया जाये। सरकार चाहती है यहा के अभ्रख-बाक्साइट को यही के यही सफाय़ी कर दुनिया भर के बाजार में धाक जमा ली जाये क्योकि यहा का अभ्रख दुनिया का सबसे बेहतरीन अभ्रख है । इसके लिये खनन करना चाहती है । छह फैक्ट्रियां लगाना चाहती है। करीब 80 किलोमीटर की इस पट्टी पर एक भी स्कूल, अस्पताल या जंगल गांवों में जिन्दगी चलाने में मदद के लिये सरकार की कोई योजना नहीं पहुंची है ।

हां, सरकारी बाबू है उनके लिये वहीं इमारते थीं, जहा से दफ्तर या बाबूओं के रहने के लिये खड़ी की गयी थी। जिन्हे माओवादियो ने उडा दिया और क्षेत्र के आदिवासी सरकार के आतंकवाद निरोधक कानून के दायरे में आने से बिना डरे बताते है कि उन्होंने इस इमारत की इंटे अपनी झोपडियो में लगा ली है। यहां एक हजार स्कावयर फुट की जमीन पर पक्का घर बनाने की कीमत महज बारह से पन्द्रह हजार है। वहीं इतनी ही जमीन में जो आदिवासी अपना घर बांस और जंगली साजो समान से बनाते है उसमें कुल खर्चा 700-800 रुपये का आता है । क्योंकि जंगल से बांस लेने पर क्षेत्र का बाबू तीन सौ- चार सौ रुपये वसूलता लेता है। बाकी खपरैल में खर्च होता है । तो इस क्षेत्र में अब बाबू की नही माओवादियो की चलती है तो घर का खर्च घट कर आधा हो गया है। वहीं बाबू के लिये पक्का मकान बनाने में जो मजदूरी यहां के ग्रामीण आदिवासियों ने नब्बे के दशक में की, उस वक्त उन्हें दिनभर काम करने के 12 से 15 रुपये मिलते थे, जो अब किसी सरकारी काम को करने में 18 से 20 रुपये तक पहुंचे हैं।

लेकिन आंतरिक सुरक्षा का खतरा इससे आगे का है । क्योंकि छत्तीसगढ,झारखंड और उड़ीसा में जो खनिज मौजूद है अगर उसकी कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजर से जोड़ी जाये तो तीनों राज्यों का वर्तमान बजट और पंचवर्षिय योजना के धन से औसतन दस गुना ज्यादा का है । तो क्या यह माना जाये कि असल में आंतरिक सुरक्षा की चुनौती देशी जमीन की पूंजी की बोली अंतर्रष्ट्रीय बाजार में लगवाने की है । यहा की अर्थव्यवस्था का गणित कितना घालमेल वाला है इसका अंदाज कई स्तरों पर लग सकता है । जैसे माओवादियों से निपटने के लिये सुरक्षा बंदोबस्त पर यहा कश्मीर के बाद सबसे ज्या खर्च किया जा रहा है। हर दिन का सरकारी खर्चा जो सुरक्षा के आधुनिकीकरण से लेकर खाने पीने तक पर होता है वह तीनों राज्यों के माओवाद प्रभावित पैंतालिस जिलों के महिने के बजट पर भारी पडता है। पुलिस, सडक,इमारत,हथियार और सूचनातंत्र पर पांच हजार करोड खर्च सितंबर से दिसंबर तक हो जायेंगे।

इतने धन में चार करोड़ ग्रामीण आदिवासियो का जीवन कई पुश्तो तक ना सिर्फ संभल सकता है बल्कि माओवाद को यही आदिवासी भगा देगे अगर यह माना जाये कि माओवादी यहा कब्जा किये बैठे हैं तो। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि चार महिनो के दौरान माओवादियो के खिलाफ जिस निर्णायक लड़ाई का अंदेशा सरकार दे रही है, उस पर कुल खर्चा अगर बीस से पच्चीस हजार करोड़ तक सीधे होगा तो अपरोक्ष तौर पर इस क्षेत्र में सरकार खनन के जरीये पचास लाख करोड़ से ज्यादा की खनिज को अपने हाथ में भी ले सकती है। जिसका मूल्य अंतरराष्ट्रीय बाजार में कितना होगा यह फिलहाल सोचा जा सकता है क्योकि मंदी की गिरफ्त में आये अमेरिकी अर्थशाश्त्रियो की माने तो भारत ही तीसरी दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण देश है जो अपने खनिज संसाधनों से एक बार फिर उस बाजार को जगा सकता है जो फिलहाल सोया हुआ है।

चूंकि भारत और अंतरराष्ष्ट्रीय बाजार के बीच खनिज संसाधनो को लेकर करीब बीस गुने का अंतर है । यानी भारत में मजदूरी और खनिज दोनो की कीमत विश्व बाजार की तुलना में बीस गुना कम है । वहीं छत्तीसगढ , झारखंड और उड़ीसा ऐसे राज्य है जहां मजदूरी और खनिज भारत के भीतर ही ना सिरफ सबसे सस्ता है बल्कि महानगरों की तुलना में करीब बीस गुना से ज्यादा यह सस्ता है । ऐसे में विश्व बाजार अगर भारत के जरीये जागता है तो यह देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की सबसे बडी वित्तीय जीत हो सकती है जिन्हे आर्थिक सुधार पर गर्व है और बीते दो दशको में देश के भीतर सबसे बडी क्रांति नई अर्थव्यवस्था का आगमन ही है, जिससे मंदी के दौर में भी भारतीय विकास दर समूची दुनिया में श्रेष्ठ है। तो सवाल है इस अर्थव्यवस्था से छत्तीसगढ,झारखंड और उड़ीसा कैसे वंचित रह सकता है, जो इसे रोकेगा वह आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा तो होगा ही।

Saturday, October 17, 2009

इस रात की सुबह है....बस पत्रकार रहिये और एकजुट होइये

सवाल पत्रकारिता और पत्रकार का था और प्रतिक्रिया में मीडिया संस्थानों पर बात होने लगी। आलोक नंदन जी, आपसे यही आग्रह है कि एक बार पत्रकार हो जाइये तो समझ जायेंगे कि खबरों को पकड़ने की कुलबुलाहट क्या होती है? सवाल ममता बनर्जी का नहीं है। सवाल है उस सत्ता का जिसे ममता चुनौती दे भी रही है और खुद भी उसी सत्ता सरीखा व्यवहार करने लगी हैं। यहां ममता के बदले कोई और होता तो भी किसी पत्रकार के लिये फर्क नहीं पड़ता। और जहां तक रेप शब्द में आपको फिल्मी तत्व दिख रहा है तो यह आपका मानसिक दिवालियापन है। आपको एक बार शोमा और कोमलिका से बात करनी चाहिये......कि हकीकत में और क्या क्या कहा गया...और उन पर भरोसा करना तो सीखना ही होगा।

जहां तक व्यक्तिगत सीमा का सवाल है तो मुझे नहीं लगता कि किसी पत्रकार के लिये कोई खबर पकड़ने में कोई सीमा होती है। यहां महिला-पुरुष का अंतर भी नहीं करना चाहिये ...पत्रकार पत्रकार होता है । जो बात प्रभाकर मणि तिवारी जी कहते कहते रुक रहे हैं....असल में उस सवाल को बड़े कैनवास पर उठाने की जरुरत है। कहीं मीडिया को पार्टियो में बांट कर पत्रकारिता पर अंकुश लगाने का खेल तो नहीं हो रहा है। तिवारी जी मीडिया सिर्फ बंगाल में ही नहीं बंटी है बल्कि दिल्ली और मुंबई में भी बंटी है....लेकिन वह बंटना संस्थानो या कहें मीडिया हाउसों की जरुरत है..कोई भी दिल्ली के किसी भी राष्ट्रीय न्यूज चैनलों को देखते हुये कह सकता है कि फलां न्यूज चैनल फलां राजनीतिक दल के लिये काम कर रहा है।

यह बंटना अंग्रेजी-हिन्दी दोनों में है। सवाल है कि पत्रकार भी बंटने लगे हैं जो पत्रकारिता के लिये खतरा है। लेकिन आपको यह मानना होगा कि कि न्यूज चैनलों से ज्यादा क्रेडिबिलिटी या विशवसनीयता कुछ एक पत्रकारों की है । ओर यह पत्रकार किसी भी न्यूज चैनलों की जरुरत हैं। मुद्दा यही है कि पत्रकार रहकर क्या किसी न्यूज चैनल में काम नहीं किया जा सकता है। मुझे लगता है कि किया जा सकता है....हां, मुश्किलें आयेंगी जरुर और यह भी तय हे कि आपके साथ पद का नहीं पत्रकार होने का तमगा जुड़ता चले जाये। लेकिन यह कह बचना कि फलां सीपीएम का है और फलां कांग्रेस या बीजेपी का है तो उसमें काम करने वाले सभी पत्रकार उसी सोच में ढले है...यह कहना बेमानी होगी।

यहां बात शोमा दास और कोमलिका से आगे निकल रही है। राजनीतिक दल और राजनेताओं के अपने अपने तरीके होते है खुद के फ्रस्ट्रेशन को लेकर । नंदीग्राम के दौर में मैंने कानू सन्याल का इंटरव्यू दिखलाया और वामपंथी सोच के दिवालियेपन पर हमला किया तो सीपीएम माओवादी प्रभावित राजनीति को बल देने का आरोप पत्रकारो पर खुल्लमखुल्ला लगाने लगी और जब सिंगूर को लेकर ममता के विकास पर सवाल लगे तो वह बीजेपी के हाथो बिके होने का आरोप पत्रकारो पर लगाने लगी।

एनडीटीवी की मोनादीपा से ममता ने कहा कि टाटा ने किसे कितने पैसे दिये हैं। यह अलग बात है कि जब सिंगूर से टाटा ने बोरिया बस्ता समेटा तो एनडीटीवी पर मोनादीपा की रिपोर्ट देखकर ममता खुश भी हुई होगी। लेकिन यहां सवाल उस राजनीति की है जो पहले संस्थानो को मुनाफे या धंधे के आधार पर बांटती है और उसके बाद उसमें काम करने वाला पत्रकार अपनी सारी क्रियटीविटी इसी में लगाना चाहता है कि वह भी संस्थान या मालिक से साथ खड़ा है । और अगर उसने सस्थान की लीक से हटकर स्टोरी कर दी तो या तो उसकी नौकरी चली जायेगी या फिर काम करने को नहीं मिलेगा। मुझे याद नहीं आता कि किसी पत्रकार को किसी संस्थान से बीते एक दशक में जब से न्यूज चैनल आये है , इसलिये निकाल दिया गया हो कि उसने मीडिया हाउस के राजनीतिक लाभ वाली सोच के खिलाफ स्टोरी की हो । जबकि राजनीतिक तौर पर जुडे मीडिया हाउसों में उनकी राजनीति सोच के उलट खबर करने वाले पत्रकारों को मैंने आगे बढ़ते और ज्यादा मान्यता पाते अक्सर देखा है ।

हां, दिनेश राय द्बिवेदी ने जो टिप्पणी कि की जो सत्ता में होता है वही तानाशाह हो जाता है.... इस दौर का यह सच जरुर है इसलिये ममता को अगर लग रहा है कि बंगाल की कुर्सी उस मिल सकती है तो वह भी उसी तानाशाही रुख को अख्तियार कर रही है जो सीपीएम ने कर रखी है । लेकिन इस तानाशाही में पत्रकार अगर एकजुट रहे और ना बंटे तो मुझे नहीं लगता कि सत्ता की मद किसी में इतना गुमान भर दें कि वह जो चाहे सो कहे या कर लें ।

Thursday, October 15, 2009

पत्रकारिता कैसे की जाये?

शोमा दास की उम्र सिर्फ 25 साल की है। पत्रकारिता का पहला पाठ ही कुछ ऐसा पढ़ने को मिला कि हत्या करने का आरोप उसके खिलाफ दर्ज हो गया। हत्या करने का आरोप जिस शख्स ने लगाया संयोग से उसी के तेवरों को देखकर और उसी के आंदोलन को कवर करने वाले पत्रकारों को देखकर ही शोमा ने पत्रकारिता में आने की सोची। या कहें न्यूज चैनल में बतौर रिपोर्टर बनकर कुछ नायाब पत्रकारिता की सोच शोमा ने पाल रखी थी। बंगाल के आंदोलनो को बेहद करीब से देखने-भोगने वाले परिवार की शोमा को जब बंगला न्यूज चैनल में नौकरी मिली तो समूचे घर में खुशी थी कि शोमा जो सोचती है वह अब करेगी। बंगला न्यूज चैनल 24 घंटा की सबसे जूनियर रिपोर्टर शोमा को नौकरी करते वक्त रिपोर्टिग का कोई मौका भी मिलता तो वह रात में कहीं कोई सड़क दुर्घटना या फिर किसी आपराधिक खबर को कवर करने भर का। जूनियर होने की वजह से रात की ड्यूटी लगती और रात को खबर कवर करने से ज्यादा खबर के इंतजार में ही वक्त बीतता।

13 अक्तूबर की रात भी खबर कवर करने के इंतजार में ही शोमा आफिस में बैठी थी। लेकिन अचानक शिफ्ट इंचार्ज ने कहा ममता बनर्जी को देख आओ। बुद्धिजीवियों की एक बैठक में ममता पहुची हैं। शोमा कैमरा टीम के साथ निकल गयी। कवर करने पहुची तो उसे गेट पर ही रोक दिया गया। ममता बनर्जी की हर सभा में गीत गाने वाली डोला सेन ने शोमा दास से कहा 24 घंटा बुद्धदेव के बाप का चैनल है इसलिये ममता से वह मिल नहीं सकती। लोकिन शोमा को लगा कोई बाईट मिल जाये तो उसकी पत्रकारिता की भी शुरुआत हो जाये। खासकर बुद्धिजीवियों की बैठक में अल्ट्रा लेफ्ट विचारधारा के लोगों की मौजूदगी से शोमा का उत्साह और बढ़ा।

क्योंकि घर में अपनी माँ-पिताजी से अक्सर उसने नक्सलबाड़ी के दौर के किस्से सुने थे। उसे ममता में आंदोलन नजर आता। इसलिये शोमा को लगा कि एक बार ममता दीदी सामने आ जाये तो वह इस मुद्दे पर बाइट तो जरुर ले लेगी। लेकिन गेट पर ममता का इंतजार कर रही शोमा दास का खड़ा रहना भी तृणमूल के कार्यकर्ताओं को इतना बुरा लगा कि पहले धकेला फिर डोला सेन ने ही कहा - तुम्हारा रेप करा देगें, किसी को पता भी नहीं चलेगा। भागो यहाँ से। लेकिन शोमा को लगा शायदा ममता बनर्जी को यह सब पता नहीं है, इसलिये वह ममता की बाईट का इंतजार कर खड़ी रही और ममता जब निकली तो उत्साह में शोमा ने भी अपनी ऑफिस की गाड़ी को भी ममता के कैनवाय के पिछे चलने को कहा। लेकिन कुछ फर्लांग बाद ही तृणमूल के कार्यकर्ताओं ने गाड़ी रोकी और शोमा पर ममता की हत्या का आरोप दर्ज कराते हुये पुलिस के हवाले कर दिया। यह सब ममता बनर्जी की जानकारी और केन्द्र में तृणमूल के राज्य-मंत्री मुकुल राय की मौजूदगी में हुआ। शोमा को जब पुलिस ने थाने में बैठा कर पूछताछ में बताया कि ममता बनर्जी का कहना है कि तुम उनकी हत्या करना चाहती थीं तो शोमा के पांव तले जमीन खिसक गयी। उसने तत्काल अपने ऑफिस को इसकी जानकारी थी। लेकिन ममता बनर्जी ऐसा कैसे सोच भी सकती हैं, यह उसे अभी भी समझ नहीं आ रहा है।

लेकिन इसका दूसरा अध्याय 14 अक्टूबर को तृणमूल भवन में हुआ। जहाँ आकाश चैनल की कोमलिका ममता बनर्जी की प्रेस कान्फ्रेन्स कवर करने पहुची। कोमलिका मान्यता प्राप्त पत्रकार है। लेकिन इस सभा में तृणमूल के निशाने पर कोमलिका आ गयी। कोमलिका को तृणमूल भवन के बाहरी बरामदे में ही रोक दिया गया। कहा गया आकाश न्यूज चैनल सीपीएम से जुड़ा है, इसलिये प्रेस कान्फ्रेन्स कवर करने की इजाजत नहीं है। कोमलिका को भी झटका लगा, क्योंकि कोमलिका वही पत्रकार है जिसने नंदीग्राम के दौर में समय न्यूज चैनल में रहते हुये हर उस खबर से दुनिया को वाकिफ कराया था, जब सीपीएम का कैडर नंदीग्राम में नंगा नाच कर रहा था। जब सीपीएम के कैडर ने नंदीग्राम को चारों तरफ से बंद कर दिया था जिससे कोई पत्रकार अंदर ना घुस सके, तब भी कोमलिका और उसकी उस दौर की वरिष्ठ सहयोगी सादिया ने नंदीग्राम में घुस कर बलात्कार पीड़ितों से लेकर हर उस परिवार की कहानी को कैमरे में कैद किया जिसके सामने आने के बाद बंगाल के राज्यपाल ने सीपीएम को कटघरे में खड़ा कर दिया था। उसी दौर में ममता बनर्जी किसी नायक की भूमिका में थीं।

कोमलिका-सादिया की रिपोर्टिग का ही असर था कि सार्वजनिक मंचो से एक तरफ सीपीएम कहने लगी कि समय न्यूज चैनल जानबूझ कर सीपीएम के खिलाफ काम कर रहा है, तो दूसरी तरफ ममता दिल्ली आयीं तो इंटरव्यू के लिये वक्त मांगने पर बिना हिचक आधे घंटे तक लाइव शो में ममता मेरे ही साथ यह कह कर बैठीं कि आपकी रिपोर्टर बंगाल में अच्छा काम कर रही है। कोमलिका को लेकर ममता बनर्जी की ममता इतनी ज्यादा थी कि ममता ने कोमलिका को सलवार कमीज तक भेंट की और साल भर पहले जब कोमलिका ने शादी की तो ममता इस बात पर कोमलिका से रुठीं कि उसने शादी में उसे क्यों नहीं आमंत्रित किया।

लेकिन 14 अक्टूबर को इसी कोमलिका को समझ नहीं आया कि वह पत्रकार है और अपना काम करने के लिये प्रेस कान्फ्रेन्स कवर करने पहुँची है, तो उसे कोई यह कह कर कैसे रोक सकता है कि वह जिस चैनल में काम करती है, वह सीपीएम से प्रभावित है। नंदीग्राम और सिंगूर के आंदोलन के दौर में कोमलिका ने जो भी रिपोर्टिंग की, कभी सीपीएम ने किसी न्यूज चैनल को यह कह नहीं रोका कि आप हमारे खिलाफ हैं, आपको कवर करने नहीं दिया जायेगा। कोमलिका के पिता रितविक घटक के साथ फिल्म बनाने में काम कर चुके हैं और नक्सलबाड़ी के उस दौर को ना सिर्फ बारीकी से महसूस किया है, बल्कि झेला भी जिसके बाद कांग्रेस का पतन बंगाल में हुआ और सीपीएम सत्ता पर काबिज हुई। नंदीग्राम से लालगढ़ तक के दौरान सीपीएम की कार्यशैली को लेकर शोमा दास और कोमलिका के माता-पिता की पीढ़ी में यह बहस गहरायी कि क्या वाकई ममता सीपीएम का विकल्प बनेगी और अक्सर कोमलिका ने कहा - लोगों को सीपीएम से गुस्सा है, इसका लाभ ममता को मिल रहा है।

लेकिन नया सवाल है कि अब ममता से भी गुस्सा है तो किस तानाशाही को शोमा या कोमलिका पंसद करें। यह संकट बंगाल के सामने भी है और पत्रकारों के सामने भी। क्योंकि अगर दोनों नापंसद हैं, तो वैकल्पिक धारा की लीक तलवार की नोंक पर चलने के समान है। तो सवाल है, पत्रकारिता कैसे की जाये?

Wednesday, October 7, 2009

कहीं सावरकर की लीक पर तो नहीं हैं भागवत !

भोंसले मिलिट्री स्कूल से उठते सवालों के बीच..

नासिक के भोंसले मिलिट्री स्कूल में घुसते ही यह एहसास किसी को भी हो सकता है कि चुनावी राजनीति से देश का भला नहीं हो सकता । चुनाव भ्रष्टाचार करने और अनुशासन तोड़ने वालों के लिये है। मिलिट्री और अनुशासन का पर्याय राजनीति हो नहीं सकती और राजनीति के लिये मिलिट्री और अनुशासन महज एक सुविधा का तंत्र है। यह विचार स्कूल की किसी दीवार पर नहीं लिखे बल्कि राजनीति और मिलिट्री को लेकर यह परिभाषा इसी स्कूल के तीसरे दर्जै के एक छात्र की है। सुबह दस बजे स्कूल की एसेम्बली खत्म होने के बाद स्कूल के मैदान से भागते दौड़ते बच्चों का झुंड जब कैरिडोर में आया तो एक तरफ सरस्वती की प्रतिमा और दीवार की दूसरी तरफ डा. बी.एस.मुंजे की तस्वीर को प्रणाम कर ही हर छात्र को क्लास में जाते हुये देखा। सरस्वती की प्रतिमा नीचे थी तो छोटे छात्र छू कर प्रणाम कर रहे थे तो डा. मुंजे की तस्वीर दीवार पर खासी ऊंची थी तो उन्हें देख कर हाथ जोड़कर छोटे-छोटे छात्र क्लास रुम की तरफ भाग रहे थे।

उन्हीं भागते दौड़ते छात्र में तीसरी कक्षा के एक छात्र ने जब रुककर पूछा-आप टेलीविजन पर आते हो न ! और बातचीत में मैने पूछा अब महाराष्ट्र में चुनाव होने वाले है , आपको पता है। इस पर राजनीति को लेकर छात्र की उक्त सटीक टिप्पणी ने मुझे एक साथ कई झटके दे दिये। सबसे पहले तो यही समझा की मिलिट्री स्कूल की ट्रेनिग राजनीति को खारिज करती है। फिर जेहन में आया कि यह वही मिलिट्री स्कूल है, जिसका नाम मालेगांव और नांदेड ब्लास्ट में सामने आया। कट्टर हिन्दुवादी संगठन अभिनव भारत से लेकर आरोपी लें. कर्नल प्रसाद पुरोहित के तार भोंसले मिलिट्री स्कूल से ही शुरुआती दौर में जोड़े गये थे । फिर नासिक के सामाजिक-आर्थिक विकास में राजनीति के हस्तक्षेप और जाति से ज्यादा धर्म के आधार पर टकराव और धर्म की धाराओं को लेकर भी टकराव को इसी नासिक ने राजनीतिक तौर पर भोगा है, यह भी समझा ।

स्कूल की दीवार पर डां मुंजे की तस्वीर के नीचे धर्मवीर डां बीएसमुंजे लिखे था । धर्मवीर की पदवी आरएसएस ने डां मुंजे को जीते जी दे दी थी । लेकिन संघ के मुखिया गुरु गोलवरकर के दौर में लिखा जाना शुरु हुआ। असल में डां मुंजे वही शख्स हैं, जिन्होंने हेडगेवार के साथ मिलकर आरएसएस की नींव डाली थी। लेकिन हेडगेवार से ज्यादा डां मुंजे सावरकर से प्रभावित थे। सावरकर का घर भी नासिक शहर से सिर्फ 12 किलोमीटर दूर भगूर में है । इसलिये नासिक सावरकर का पहली प्रयोगशाला रही। लेकिन सावरकर जिस तरह सीधे राजनीति के जरिए हिन्दुत्व और हिन्दू राष्ट्र का सवाल खड़े करते रहे डां मुंजे उससे थोड़े हटकर थे । वह राजनीति को महज रणनीति भर ही मानते और हिन्दू राष्ट्र के लिये हर तरह से अनुशासनबद्ध समाज की परिकल्पना उनके जेहन में थी। इसीलिये आरएसएस बनाने के बाद अगर हेडगेवार देश के भीतर संघ की जड़ों को मजबूत करने में लगे तो सावरकर ने उस दौर में दुनिया के कई देशो समेत इटली की यात्रा कर यह भी देखने का प्रयास किया की मुसोलेनी अपनी सेना को वैचारिक तौर पर राजनीति से आगे कैसे ले जाते हैं।

माना जाता है कि मुसोलेनी के वैचारिक प्रयोग से प्रभावित होकर ही डां मुंजे ने 1937 में नासिक में भोंसले मिलिट्री स्कूल की स्थापना की। भगूर में सावरकर की लीक पर चलने वालों की मानें तो आज भी सब यही मानते हैं कि मिलिट्री स्कूल का सपना सावरकर का था। और हेडगेवार सामाजिक शुद्दीकरण के जरिए हिन्दू राष्ट्र की ट्रेनिंग समाज को देना चाहते थे और इन दोनों के बीच पुल की तरह डां मुंजे और उनका यह मिलिट्री स्कूल था। यानी उस दौर में नासिक में यह भावना बेहद प्रबल थी कि हिन्दू महासभा के अनुकूल जब देश निर्माण का स्थिति आ जायेगी तो मिलिट्री स्कूल के जरिए वैचारिक सेना का नायाब प्रयोग भी होगा। जिसमें संघ के स्वयंसेवक सहायक की भूमिका निभायेंगे ।

लेकिन मिलिट्री स्कूल बनने के 72 साल बाद भी नासिक की जमीन पर राजनीति के जरिए राष्ट्र निर्माण एक वीभत्स सोच है, यह तीसरे दर्जे के छात्र के कथन से ही नही उभरता बल्कि नये दौर में भी जो राजनीति पसर रही है, उसकी जमीन भी कमोवेश वैसी है। आरएसएस के स्वयंसेवकों में ठीक वैसा ही अंतर्द्वन्द 2009 में भी है जो 1937 में था । अभिनव भारत के गठन को लेकर पहली बैठक नासिक में ही हुई । उसमें हिन्दू महासभा से ज्यादा संघ के स्वयंसेवक इकठ्ठा हुये । नादेंड ब्लास्ट को लेकर जिन दस लोगों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गयी, उसमें आठ के संबंध संघ के संगठन से ही है। लक्ष्मण राजकोंडवार संघ का कार्यकर्ता माना जाता है। उनके दोनों बेटे नरेश और हिमांशु जो बम बनाते वक्त मारे गये, वीएचपी से जुडे थे। महेश पांडे और गुन्नीराज ठाकुर बंजरंग दल से जुड़े थे । मालेगांव और नांदेड ब्लास्ट में आरोपी लें कर्नल प्रसाद पुरोहित को भी बनाया गया । प्रज्ञा ठाकुर को भी शिकंजे में लिया गया। यानी साधु-संत से लेकर संघ और सेना। इसी दौर में भोंसले मिलिट्री स्कूल की भूमिका को लेकर राजनीति में सवाल उठे। लेकिन मालेगांव विस्फोट के बाद नासिक के सामाजिक मिजाज में बडा अंतर भी आ गया । नासिक जिले में ही मालेगांव भी आता है । लेकिन दोनों दो अलग अलग संसदीय सीट भी है । दोनों ही सीटों पर वोट बैंक का ध्रुवीकरण जिस तरीके से होता रहा है, उसमें हिन्दुत्व शैली का राष्ट्रवाद और मुस्लिम तुष्टीकरण का सेक्यूलरवाद कुछ इस तरह घुमड़ता है कि जीत-हार में वोटों का अंतर कभी ज्यादा नहीं हो पाता। यहां सिर्फ वोट हिन्दु और मुस्लिम के नाम पर ही नहीं बंटता बल्कि अभी भी हिन्दुत्व की कौन सी शैली सही है, उसको लेकर बहस होती है।

लेकिन यह बहस हिन्दुत्व को लेकर एक बार फिर आजादी से पहले की स्थिति को जिला रही है, यह सावरकर और गोलवरकर के जरिए अभी के सरसंघचालक को घेर रही है। अचानक ऐसी दो किताबे नासिक में दिखायी देने लगी हैं, जिसे संघ ने खारिज कर दिया था । 1920 में सावरकर की लिखी किताब "हिन्दुत्व" अचानक दिखायी देने लगी है । इस किताब को संघ ने कभी मान्यता नहीं दी। क्योंकि हेडगेवार उस दौर में कांग्रेस से जुड़े थे और सावरकर ने किताब में साफ लिखा था कि जिनकी पुण्यभूमि भारत नहीं है, वह हिन्दुत्व के साथ नहीं चल सकते और राष्ट्रीय नहीं हो सकते। यानी हिन्दुओं को छोड़ कर हर किसी की राष्ट्रीयता पर सीधा सवाल उठाया। यह किताब नासिक में हिन्दुत्व मिजाज को अचानक भा रही है। वहीं सावरकर के बड़े भाई बाबा राव सावरकर ने भी एक किताब "वी" लिखी थी, जिसका मराठी,हिन्दी और अंग्रेजी अनुवाद और किसी ने नहीं बल्कि गुरु गोलवरकर ने किया था। गोलवलकर ने 1963 में इस किताब को यह कह कर खारिज किया कि भारतीय समाज अब नये परिवेश में है, इसलिये इस किताब के दोबारा प्रकाशन की जरुरत नही है ।

लेकिन जबसे मोहनराव भागवत सरसंघचालक बने है और अपने पहले भाषण से उन्होंने हिन्दु राष्ट्र का नारा लगाना शुरु किया है, उसमें अचानक 46 साल बाद दुबारा यह "वी "नामक किताब भी सतह पर आ गयी है । खास बात यह हा कि "वी" नामक किताब को लेकर दोबारा वही बात कही जा रही है जो 1939 से 1963 तक कही गयी । यानी उस दौर में संघ के स्वयंसेवक मानते थे कि यह किताब गुरु गोलवरकर ने ही लिखी है। जबकि 2005 में गोलवरकर के शताब्दी समारोह में शेषाद्री ने इस किताब को गोलवरकर से अलग करते हुये किताब के मूल लेखक बाबाराव सावरकर के बारे में जानकारी दी थी। असल में मालेगांव और नादेड में हुये विस्फोट के बाद जिस तर्ज पर पुलिस प्रशासन ने कार्रवाई शुरु की और घेरे में कट्टर हिन्दुवादी संगठनों को लिया, उसमें अचानक सावरकर की सोच को संघ की धारा में लपेटकर वर्तमान राजनीति की कमजोरियो को जिस तरह उठाया जा रहा है, उसमें यह बहस भी शुरु हुई है कि भाजपा को भी भविष्य में उसी दिशा को पकड़ना होगा । यह धारा आरएसएस को भी अंदर से कैसे हिला रही है, इसका अंदाज सरसंघचालक को लेकर भी नये सवालो के जरिए उभरा है। सरसंघचालक मोहनराव भागवत छठे नहीं सातवें सरसंघचालक है। यानी पहली बार नासिक,पुणे से होते हुये नागपुर में भी डां परांजपे को याद किया जा रहा है। डां परांजपे एक साल के लिये 1930 में सरसंघचालक बने थे। उस साल डा. हेडगेवार नमक सत्याग्रह की तर्ज पर जंगल सत्याग्रह के आरोप में जेल में बंद थे। हेडगेवार के जेल में होने की वजह से डा. परांजपे को सरसंघचालक बनाया गया था । लेकिन डा. परांजपे हिन्दु महासभा के भी नेता थे और 1937 में संघ और हिन्दु महासभा में खटास इतनी बढ़ी कि इस साल हुये चुनाव में हिन्दु महासभा के खिलाफ आरएसएस ने कांग्रेस का साथ दिया। और इसी के बाद से डा. परांजपे का नाम भी संघ में हर कोई भूल गया । ले्किन 79 साल बाद संघ के भीतर ही अगर डा. पराजंपे को याद कर हिन्दुत्व की उस धारा की तर्ज पर मोहनराव भागवत को देखा जा रहा है, जो धारा सावरकर ने खींची थी तो इसका मतलब सिर्फ इतना नहीं है कि संघ बदल रहा है या फिर संघ के भीतर संघ को लेकर ही नये सवाल खड़े हो रहे हैं।

सावरकर ने 1937 में कर्णावती अधिवेशन में पहली बार द्वि-राष्ट्र की बात कही थी और कहीं ज्यादा जोर देकर हिन्दू राष्ट्र की वकालत यह कहते हुये कही थी कि जो यहां है वह खुद को हिन्दू राष्ट्र का हिस्सा माने। अगर मोहनराव भागवत के हर सार्वजनिक भाषण को उनके सरसंघचालक बनने के बाद से सुनें तो सभी में इसी हिन्दू राष्ट्र की प्रतिध्वनि सुनायी देगी । लेकिन दशहरा के दिन अपने नागपुर भाषण में उन्होंने हिन्दू राष्ट्र शब्द का भी प्रयोग नहीं किया । असल में जो आग आरएसएस के भीतर सुलग रही है, उसकी सबसे बड़ी वजह वैचारिक और राजनीतिक तौर पर शून्यता का आ जाना है। इसलिये सवाल भोंसले मिलिट्री स्कूल से निकल रहे हैं और रास्ता भाजपा के बदले आरएसएस के जरिए देखने की कश्मकश हो रही है । मिलिट्री स्कूल के जिस कारिडोर में डा. मुंजे की तस्वीर लगी है, उसके ठीक समानांतर पांच तस्वीरे और भी है । जो इसी स्कूल के छात्र रहे है। इसमें पहली तस्वीर कांग्रेस के नेता वसंत साठे की है। उसके बाद रिटा. मेजर प्रकाश किटकुले, रिटा. लेफ्टि. जनरल वाय डी शहस्त्रबुद्दे, रिटां लेफ्टि.जनरल एस सी सरदेशपांडे और रिटां लेफ्टि. जनरल एम एल छिब्बर की है । यानी चार फौजी और एक नेता, वह भी कांग्रेसी । लेकिन भोंसले मिलिट्री स्कूल से लेकर मालेगांव तक राजनीति की जो महीन लकीर विचारधारा के आधार पर राष्ट्र की परिकल्पना किये हुये है, उसमें बंटा हुआ हर तबका इस बात पर एकमत जरुर है कि राजनीति उन्हें चला रही है। उनकी राजनीति में कोई हिस्सेदारी नहीं है। मालेगांव धमाके के बाद इलाके के तीस फीसदी मुसलमानों का अगर ध्रुवीकरण हुआ है तो खानदेशी, मराठा, दलित, माली से लेकर उत्तर भारतीयो की बड़ी तादाद का भी ध्रुवीकरण हो गया है। यानी जो ज्यादा उग्र है, उसके लिये राजनीति के रास्ते दोनों तरफ से खुले हैं। यही हाल नासिक का भी है । इसलिये सवाल सिर्फ भोंसले मिलिट्री स्कूल के तीसरी कक्षा के छात्र का नहीं है जो राजनीतिक पर टिप्पणी कर राजनीति से आगे का रास्ता चाहता है। राजनीति के पारंपरिक सारे सवाल नासिक की युवा पीढ़ी के सामने किस रुप में बेमानी है, इसका अंदाज इसी से मिल सकता है कि सावरकर के मोहल्ले का नीतिन मोरघडे बीएससी का छात्र है लेकिन वह साधु-संत से लेकर संघ-अभिनव भारत और सेना को भी एक ही तश्तरी में रखकर इतना ही कहता है कि यह सभी राजनीति के मोहरे भर हैं। इससे आगे सोच कर राजनीति को जो मोहरा बनायेगा असल बदलाव यहीं होगा। नयी परिस्थितियों में इस पूरे इलाके में यह समझ राजनीतिक तौर पर भी दलों में आयी है। इसलिये शिवसेना से आगे बढ़ते महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के उग्र तेवर युवा पीढ़ी को भा रहे हैं राजनीति में पूंजी का लेप उस पुरानी धारा को भा रहा है जो अभी तक कांग्रेस और भाजपा में अपना अक्स देखते थे। लेकिन मालेगांव विस्फोट के बाद हिन्दुत्व की जिस लड़ी को आरएसएस के भीतर स्वयंसेवक ही सुलगाना चाह रहे है, अगर वह सुलगी तो राष्ट्रीय राजनीति में हिन्दुत्व का तत्व अयोध्या से कहीं आगे का होगा ।

Monday, October 5, 2009

अमिताभ से राज ठाकरे...असल ‘बिग बॉस’ कौन ?

मुंबई की सड़कों पर रफ्तार से दौड़ती कार के बाहर नज़रे अचानक कहीं टिकी तो दिखा-जरा सोचिये पर। एक लाइन में लगातार में छह होर्डिंग्स और हर की शुरुआत में खासे बड़े अक्षरों में लिखा-जरा सोचिये......और उसके नीचे कुछ छोटे अक्षरो में....अगर 24 घंटे कोई लगातार आपको देख रहा है। और हर क्षण रंग बदल रहा है । तो......जी गिरगिट की फोटो जो रंग बदलने का एहसास भी कराती है। लेकिन, इस होर्डिंग्स के एक किनारे करीब पच्चीस फीसदी हिस्से में अमिताभ बच्चन की लगी तस्वीर...जो बिग बॉस का इंतजार खत्म होने और कुछ नायाब होने का अंदेशा दे रही थी।

वर्ली से लेकर चर्च गेट तक एक दर्जन से ज्यादा बिग बॉस की इन होर्डिंग्स को देखते देखते अचानक दिमाग में यही सवाल उभरा कि.... क्या बाजार के आगे महानायक हार चुका है। जो महानायक कल तक एक पूरी पीढ़ी की रगों में दौड़ता था । जिसके आसरे बाजार अपने आस्तित्व को महसूस करता था, जिसके कंधो पर सवार होकर मंदे पड़ते धंधों में चमक लायी जाती थी। जिसके जमीन तले संघर्ष की लौ का एहसास होता था। यानी अब रगों में महानायक नहीं बाजार दौड़ता है, जिसमें बाजार का महज एक हिस्सा भर ही हैं महानायक। बडे पर्दै का महानायक छोटे पर्दै पर इतना छोटा हो जायेगा, जहां उसका अतीत ही उसकी पहचान को ढोता हुआ सा लगेगा...यह किसने सोचा था।

लेकिन बिग बॉस की तस्वीर ने कुछ ऐसे एहसास को जगाया है। बहुत अर्सा नहीं हुआ है, कौन बनेगा करोड़पति के उस पहले खेल को, जिसके जरिए अमिताभ बच्चन की छोटे पर्दे पर एन्ट्री हुई थी । उस दौर की पीढी बूढ़ी हो चली हो और नयी पीढ़ी सामने खड़ी हो...ऐसा भी नहीं है । लेकिन याद कीजिये कौन बनेगा करोडपति की शुरुआत से पहले के प्रचार को। या कहें विज्ञापनों को । सिर्फ अमिताभ और कुछ नहीं। महानगरो में लगे बड़े बड़े होर्डिग्स में सिर्फ अमिताभ बच्चन नजर आते। यहां तक की चैनल का नाम और कार्यक्रम का वक्त भी अमिताभ की छाया में छिप जाता । अमिताभ की छवि में ही करोड़पति गुम हो चुका था । कौन बनेगा करोड़पति के दौर में हर घर का में यह छवि कुछ इस तरह रेंगती मानो रात नौ घर ड्राइंग रुम में अमिताभ बच्चन अतिथि हों। टीवी सेट से ही अमिताभ का सीधा संवाद ड्राइंग रुम में बैठे चार साल के चुनमुन से लेकर सत्तर साल के दादा जी से होता। लेकिन बिग बॉस में अमिताभ की छवि को भी शब्द चाहिये। कहें तो कन्टेन्ट चाहिये। जो तत्काल ही पढ़ने वालों को बिग बॉस के घर के भीतर के रहस्य को देखने-समझने के लिये अमिताभ से जोड़ दे।

तो क्या महानायक कमजोर पड़ गया है। यकीनन....महानायक की छवि खासी कमजोर पड़ गयी है....यह बात बिग बॉस के मुंबई के सडक किनारे लगे होर्डिग्स में अमिताभ की मौजूदगी भरी गैर मौजूदगी से जागी तो इस कार्यक्रम के पहले ही दिन मेहमानो की फेरहिस्त और महानायक के नॉस्टेलजिया से छलका भी और झलका भी । बिग बॉस की शुरुआत ने ही इस एहसास को जगा दिया कि बाजार कितनी सतही जमीन पर ग्लैमर का राग खड़ा कर पूंजी बनाना चाहता है और महानायक की छवि से घबराते हुये उसे भी अपने मिजाज में रंगने की अधूरी चाहत संजोना चाहता है । फिल्म ‘दीवार’ से लेकर ‘अग्निपथ’ के हर उस डायलॉग की गूंज बिग बॉस की शुरुआत में फुसफुसाहट से साथ उभरी जो 70 से नब्बे के दशक तक दर्शको को जीने का माद्दा देती थी । और सिल्वर स्क्रीन पर यह डायलॉग भी खुसफुसाहट भरे अंदाज में नहीं उभरे बल्कि हंगामे के साथ देखने वालो के सीने को पार कर आक्रोष और जोश की हदों को पार कर अकेले अपने बूते ही सबकुछ बदलने की एक हवा तैरा देते थे ।

लेकिन वक्त कितना बदल चुका है या महानायक के दौर ने कितना छला है और अब बाजार दौर को हवाई जहाज के शोर तले कैसे दबाना चाहता है ....इसे दिखाने में कोई परहेज बिग बॉस में नहीं हुई । संघर्ष और विद्रोह की परिकल्पना में रचे 70 और 80 के दशक के डायलॉग, जो जिन्दगी की पथरीली जमीन पर रेंगते....उनके बीच हवाई जहाज से उतरते अमिताभ यानी बिग बॉस । महानायक का बिग बॉस में ट्रांसफॉरमेशन । यह मिजाज बिग बॉस से ज्यादा वक्त का है और बिग बॉस को महानायक पर नहीं अपने प्रचार तत्व पर ही ज्यादा भरोसा है, जहा पैसे वालो के बीच पैसे का खेल खेला जा रहा है । सवाल यह नहीं है कि बिग बॉस का हर मेहमान महानायक की गढ़ी छवि से कोसों दूर है । या यह कहे किसी भी मेहमान ने महानायक की उस छवि में कभी अपना अक्स देखा भी नहीं है जिसे सलीम जावेद रचते चले गये।

सवाल है कि खुद महानायक को यह क्यों लगने लगा कि बिग बॉस के घर में उन्हीं मेहमानो का स्वागत किया जाये, जिनकी जमीन महानायक की छवि को तोड़ती है या पूजती है। हर मेहमान अमिताभ का प्रशंसक निकला । लेकिन हर किसी को वही 70-80 के दशक का अमिताभ ही याद आया, जो नंगे पांव संघर्ष के रास्ते रंग-रोगन की उसी दुनिया के खिलाफ खड़ा होता, जिसके साथ बिग बॉस में महानायक खड़ा था । यानी जिन चरित्रो ने अमिताभ को महानायक बनाया...वही महानायक अब असल चरित्र को जीते हुये बिग बॉस बना है। ऐसा नही है बिग बॉस के दौर में जमीन का खुरदुरापन खत्म हो गया है या चरित्र गढ़ने और बनने का सिलसिला खत्म हो चुका है । मुंबई की सड़क पर तेज रफ्तार से दौड़ती कार के बाहर झांकने पर एक होर्डिग्स पर और नजर खिंचती है .....जिसमें कुछ राजनीतिक स्लोगन लिखे है लेकिन एक तस्वीर के आगे सब कुछ मौन है । और यह तस्वीर राज ठाकरे की है । सिर्फ चेहरा । आंखों पर पुराने या कहे किसी बुजुर्ग सरीखे की पसंद का चश्मा । लेकिन उस पुराने स्टाइल के चश्मे के पीछे से मुंबई को भेदती आंखें। इस होर्डिग के आगे पीछे खान बंधुओं सेलेकर रितिक रोशन तक किसी खास ब्रांड का उत्पाद बेचते नजर आते है । लेकिन राज ठाकरे का पुरातनपंथी चेहरा सब पर भारी पड़ता है । यह खुरदुरी जमीन का बिग बॉस है जो मेहमानो को आमंत्रित नही करता ।

अब तय आप कीजिए कि किस बिग बॉस को पसंद करेंगे आप। एक बिग बॉस अपने घर में 13 मेहमानों को आमंत्रित करता है और उसमें आपको शामिल करने के लिए टेलीफोन की लाइन खोल देता है। नंबर बताता है। और अगले छह दिनों में चैनल से तकरीबन 50 से 100 करोड़ का धंधा करने का अनकहा वायदा कर देता है। वहीं दूसरे बिग बॉस के घर की लाइनें खुली हुई है। आप जब चाहें तब फोन कर सकते हैं। टीवी के बिग बॉस के घर जाकर आप मिल नहीं सकते। सड़क का बिग बॉस घर खोलकर इंतजार कर रहा है कि कोई तो आए। मिलने या दो दो हाथ करने। वक्त बदल चुका है। महानायक की छवि बिग बॉस में बिकने को तैयार है। और सड़क का बिग बॉस खुद को बेचने के लिए तैयार है। मै अपने ड्राइंग रुम में तो बिग बॉस को जगह दे नहीं सकता लेकिन मुंबई की सडक के बिग बॉस से दो-दो हाथ करने की सोच जरुर सकता हूं। क्योंकि मुझे सड़क का बिग बॉस पंसद है।

Thursday, October 1, 2009

60 साल का पीपुल्स रिपब्लिक : किसी के लिए चेतावनी, किसी के लिए अवसर

इन 60 साल में माओ-डेंग से बहुत आगे निकल गया चीन

माओ के किसान संघर्ष से डेंग के श्रमिक कारखानों तक। एक लाइन में 60 साल के पीपुल्स रिपब्लिक की यही पहचान है। और यही पहचान दुनिया के सामने चीन को किसी सपने की तरह संजोती है। क्योंकि 1949 में माओ ने जो सपना कम्युनिस्ट पार्टी के जरिए पीपुल्स रिपब्लिक को संजोने का रखा, उसमें चीन के तीस करोड़ अशिक्षित लोग भी थे और करीब इतने ही गरीबी रेखा से नीचे के भी थे। और 1979 के बाद डेंग जियोपिंग ने कम्युनिस्ट पार्टी के जरीये पीपुल्स रिपब्लिक को संवारने का जो सपना देखा, उसमें दुनिया के लिये चीन को सबसे बडे कारखाने में बदलना था और इसमें चीन के ऐसे नये तीस करोड़ मजदूर थे जो खेती से दूर उत्पादन के जरीये विश्व बाजार को अपने कब्जे में करना चाहते थे। उत्पादन से सीधे जुड़े इतनी बड़ी तादाद के सामने दुनिया का कोई देश टिक नहीं सकता, इस नब्ज को अलग अलग तरीके से माओ ने भी पकड़ा और डेंग ने भी।

वजह भी यही रही कि सोवियत रुस के खिलाफ जब अमेरिका और नाटो एक गठबंधन की दिशा में बढ़ रहे थे तो माओ ने इसमें शामिल होने से सीधा मना कर दिया। यह चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की एकजुटता और माओ की समूचे देश को कम्यूनिस्ट धारा के साथ जोड़ने की पहल थी कि जिसमें देश के भीतर और बाहर हर निर्णय को अमली जामा पहनाने में माओ जुटे थे। अगर इन साठ बरस को टुकड़ों में बांटा जाये तो सांस्कृतिक क्रांति के ठीक बाद माओ के पहले चार साल क्रांति विरोधियो को ठिकाने लगाने में गये। उसके बाद दो साल पार्टी के भीतर पार्टी विरोधियो के खात्मे में गये और इस दौर में दक्षिण पंथियो के सर उठाने को लेकर भी 1958-59 में माओ को खासी मशक्कत करनी पड़ी।लेकिन इस दौर में पीपुल्स रिपब्लिक दुनिया के सामने आर्थिक तौर पर खासा कमजोर भी रहा। गरीबी-भुखमरी का आलम इसी चीन में ऐसा भी आया जब अंतर्राष्ट्रीय मापदंडो के तहत न्यूनतम भोजन भी चीन की एक तिहाई आबादी को नहीं मिल रहा था और चीन की जनसंख्या में औसत कैलोरी भी सभी को नसीब नहीं थी ।

1959-62 के दौर में चीन की भुखमरी में तीन करोड़ लोग मर गये लेकिन माओ ने पीपुल्स रिपब्लिक की उस इच्छा शक्ति को कभी कमजोर नहीं पड़ने दिया जो सांस्कृतिक क्रांति के जरीये जगायी थी। यही वजह है कि भुखमरी के बाद माओ ने 1966 में उस महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति की नींव रखी, जिसने अगले दस सालो में चीन की विकास दर को 9 फीसदी तक पहुंचाया। पढ़े लिखे युवाओं को सीधे खेती और ग्रामीण समाज से जोडने की नायाब पहल इसी दौर में की गयी। नतीजा उसी दौर का है जो आज भी चीन में खेती का उत्पादन भारत की तुलना में एक बराबर जमीन में पांच गुना ज्यादा होता है।

लेकिन औधोगिक मसलों पर माओ की रणनीति कारगर नहीं हुई और अक्सर इस सवाल को कम्युनिस्ट पार्टी में भी उठाया गया कि 90 करोड़ की जनसंख्या में सिर्फ 6 करोड ही श्रमिक है और समूची विकास दर इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती है। इसलिये माओ का चीन गरीब है। असल में विकास की इस कमजोर नब्ज को डेग झियाओपिंग ने पकड़ा। 1979 के बाद जहां किसानो की आर्थिक स्थिति में ,सुधार के लिये कानूनी तौर पर ऐसी पहल की, जिसमें खेती के उत्पादन का एक हिस्सा, जो औसत काम के बाद कोई किसान करता है, उसका लाभ उसी किसान के पास रहे। इससे अचानक ना सिर्फ खेत में उत्पादन बढ़ा बल्कि किसान बतौर उपभोक्ता भी सामने आया। वहीं इसके सामानांतर औघोगिक विकास की जो रुप रेखा डेंग जियोपिंग ने खिंची उसमें पश्चिमी देशो की तरह पूंजीवाद को अपनाया जरुर लेकिन माओ की क्रांति के उस तत्व को कमजोर नहीं पड़ने दिया, जिसके आसरे देश की बहुसंख्य जनसंख्या की भी भागेदारी हो। शहरी विकास का मॉडल विशेष आर्थिक क्षेत्र यानी एसईजेड के जरीये ही तैयार हुआ । विदेशी निवेश के लिये रास्ते इतने सरल कर दिये और उघोग लगाने में नियमों को इतना लचीला बना दिया गया कि 2002 में ही अमेरिका से ज्यादा विदेशी निवेश चीन में हो गया।

आज की तारीख में निवेश 80 बिलियन डालर पार कर चुका है। यानी विदेशी व्यापार को अगर माओ के दौर से डेंग के दौर में देखे तो चीन में इन तीस साल यानी 1979 से 2009 के बीच 125 गुना वृद्धि हुई है । माओ के दौर में जहां 6 करोड श्रमिक थे, वही अब इनकी तादाद तीस करोड़ तक पहुंच गयी है । आलम यह है कि चीन जिस माल को बनाकर दुनिया के बाजार में निर्यात करता है, उस माल का नब्बे फीसदी उत्पादन चीनी श्रमिक ही करता है। इतनी बडी तादाद में दुनिया के किसी देश में मजदूर नहीं है इसलिये दुनिया के लिये पीपुल्स रिपब्लिक एक कारखाना भी है। लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है। जहां सुविधाओं की फेरहिस्त चीनियो के लिये राज्य ने ही बढ़ाई। आरामपसंद जिन्दगी के लिये चीन कितना सुकूनदायक है, इसका अंदाज इस बात से लग सकता है कि अमेरिकियो की तुलना में प्रति चीनी पर पावर की खपत चार गुना ज्यादा है। यानी बाजारवाद की थ्योरी में चीनी उपभोक्ता भी शामिल हुआ। वजह भी यही है कि दुनियाभर में आई मंदी का असर चीन में नहीं पड़ा और पीपुल्स रिपब्लिक की तरफ से मंदी के दौर में भी चीनियों से कहा गया कि वह बाजार से अपनी खरीदारी जारी रखे और इसका असर भी यही हुआ कि मंदी के दौर में चीन एकमात्र देश है, जहां नियुक्तियों का दौर जारी रहा। इसीलिये विश्व आर्थिक विकास में चीन एक मॉडल की तरह उभरा।

लेकिन यहां यह सोचना बेमानी होगा कि यह स्थिति समूचे चीन की है । असल में बाजारवाद ने सामाजिक असमानता को बढ़ावा दिया । माओ के दौर में चीनी समाज में कभी असमानता को लेकर आक्रोष नहीं फूटा लेकीन डेंग के विकास में आर्थिक खाई के साथ साथ असमानता का चरित्र चकाचौंध और डपिंग ग्राउंड के तौर पर भी हुआ। यानी एक तरफ उपभोक्ताओं के लिये रेड कारपेट वाली नीतियां बनीं तो दूसरी तरफ तीस करोड़ श्रमिको से इतर मजदूरो के लिये कोई ठोस पहल नहीं हो पायी। उत्पादन और बाजार का तालमेल जब विश्व बाजार हुआ तो उत्पाद के लिये डंपिंग ग्राउड भी चीन में बना। खासकर मंदी के दौर में निर्यात में आयी कमी ने पीपुल्स परिपब्लिक के सामने यह संकट भी खड़ा किया कि वह श्रमिको को किस तरह लगातार उत्पादन से जोड़े रखे। इसका असर विकास दर पर भी पड़ा। मगर बाजार की थ्योरी का सबसे बुरा असर चीन के पर्यावरण पर पड़ा। जिसने कई क्षेत्रों में अगर पर्यावरण का विनाश दिखाया तो दूसरी तरफ उर्वर जमीन पर असर डाला। यानी किसान भी इस पर्यावरण के साथ खिलवाड़ से प्रभावित हुआ है । दक्षिण के बाद अब पूर्वी कोस्ट को जिस तरह आधुनिक औधोगिक विकास से जोड़ने की पहल शुरु की गयी है, उसमें पहली बार चीन में ही किसानों के विरोध के स्वर भी उठ रहे है और कम्युनिस्ट पार्टी में भी इस बात को लेकर बहस शुरु हुई है कि विकास का जो खांचा अपनाया जा रहा है, उसमें कहीं एक धारा को जगाने के लिये पुरानी धारा को बंद तो नहीं करना पड़ रहा है।

कम्युनिस्ट पार्टी के सामने सबसे बड़ी चिन्ता इसी बात को लेकर है कि सामाजिक असमानता कहीं कम्युनिस्ट पार्टी से उस युवा पीढ़ी का मोह भंग ना कर दे, जिसने सुविधा में जीना सिखा है और अपने मां-बाप को क्रांति के सपनों को पूरा करते हुये मशक्कत करते हुये देखा है । यह तालमेल कैसे बैठेगा चीन के सामने ही नहीं कम्युनिस्ट पार्टी के सामने भी यह परेशानी का सबब है। लेकिन दुनिया के सामने अपनी स्थिति को नये तरीके से परिभाषित करने करवाने की जो नयी पहल पीपुल्स रिपब्लिक की तरफ से हुई है, उसमें यह कहा जा सकता है कि पहले माओ फिर डेग जियोपिंग के बाद अब चीन उस सोच से भी आगे बढ़ना चाहता है, जहा दुनिया "चीमेरिका " कह कर उसकी ताकत को अमेरिका के समकक्ष मान्यता दे रही है। शायद दुनिया के सामने चीन इसीलिये एक अनसुलझी पहेली है क्योकि उसके सपने अभी जिंदा है और इन्हीं सपनो को पूरा करने की दिशा में बढ़ता चीन किसी के लिये चेतावनी है तो किसी के लिये अवसर।