वैकल्पिक धारा की लीक तलवार की नोंक पर चलने समान है। क्योंकि विकल्प किसी भी तरह का हो उसमें सवाल सिर्फ श्रम और विजन का नहीं होता बल्कि इसके साथ ही चली आ रही लीक से एक ऐसे संघर्ष का होता है जो विकल्प साधने वाले को भी खारिज करने की परिस्थितियां पैदा कर देती हैं । राजनीतिक तौर पर शायद इसीलिये अक्सर यही सवाल उठता है कि विकल्प सोचना नहीं है और मौजूदा परिस्थितियो में जो संसदीय राजनीति का बंदरबांट करे वही विकल्प है। चाहे यह रास्ते उसी सत्ता की तरफ जाते हैं, जहां से गड़बड़ी पैदा हो रही है। मीडिया या कहें न्यूज चैनलों को लेकर यह सवाल बार बार उठता है कि जो कुछ खबरों के नाम पर परोसा जा रहा है, उससे इतर पत्रकारिता की कोई सोचता क्यों नहीं है।
सवाल यह नहीं है कि राजनीति अगर आम-जन से कटी है तो पत्रकारिता भी कमरे में सिमटी है। बड़ा सवाल यह है कि एक ऐसी व्यवस्था न्यूज चैनलों को खड़ा करने के लिये बना दी गयी है, जिसमें पत्रकारिता शब्द बेमानी हो चला है और धंधा समूची पत्रकारिता के कंधे पर सवार होकर बाजार और मुनाफे के घालमेल में मीडिया को ही कटघरे में खड़ा कर मौज कर रहा है। और इसका दूसरा पहलू कहीं ज्यादा खतरनाक है कि हर रास्ता राजनीति के मुहाने पर जाकर खत्म हो रहा है, जहां से राजनीति उसे अपने गोद में लेती है। नया पक्ष यह भी है कि राजनीति ने अब पत्रकारिता को अपने कोख में ही बड़ा करना शुरु कर दिया है।
कोख की बात बाद में पहले गोद की बात। न्यूज चैनलों में राजनीति की गोद का मतलब संपादक के साथ साथ मालिक बनने की दिशा में कॉरपोरेट स्टाइल में कदम बढ़ाना है। यानी उस बाजार की मुश्किलात से न्यूज चैनल संपादक को रुबरु होना है जो राजनीतिक सत्ता के इशारे पर चलती है । यानी मीडिया हाउस का मुनाफा अपरोक्ष तौर पर उसी राजनीति से जुड़ता है, जिस राजनीतिक सत्ता पर मीडिया को बतौर चौथे खम्बे नज़र रखनी है । कोई संपादक कितनी क्रियेटिव है, उससे ज्यादा उस संपादक का महत्व है कि वह कितना मुनाफा बाजार से बटोर सकता है। और मुनाफा बटोरने में राजनीतिक सत्ता की कितनी चलती है या सत्ता जिसके करीब होती है उसके अनुरुप मुनाफा कैसे हो जाता है यह किसी भी राज्य या केन्द्र में सरकारो के आने जाने से ठीक पहले बाजार के रुख से समझा जा सकता है। बाजार कितना भी खुला हो और अंबानी से लेकर टाटा-बिरला तक आर्थिक सुधार के बाद जितना भी खुली अर्थव्यवनस्था में व्यवसाय अनुकूल व्यवस्था की बात कहे , लेकिन बड़ा सच अभी भी यही है कि जिसके साथ सत्ता खड़ी है वह सबसे ज्यादा मुनाफा बना सकता है और अपने पैर फैला सकता है। कमोवेश यही हालत मीडिया की भी की गयी है। लेकिन न्यूज चैनलों की लकीर दूसरे धंधों से कुछ अलग है। यहां प्रोडक्ट उसी आम-जन को तय करना होता है जो राजनीतिक सत्ता के उलट-फेर का माद्दा भी रखती है। इसलिये राजनीति सत्ता ने मीडिया हाउसों को अगर मुनाफे से लुभाया है तो संपादकों को पत्रकारिता से आगे राजनीति का पाठ बताने में भी गुरेज नहीं किया और उस सच को भी सामने रखा कि मीडिया हाउसों से झटके में बडा होने का एकमात्र मंत्र यही है कि राजनीति से दोस्ती करने हुये सत्ताधारियों की फेरहिस्त में शामिल हो जाइये। यह बेहद छोटी परिस्थिति है कि न्यूज चैनल राजनेताओं के साथ चुनाव में पैकेज डील कर के खबरों को छापते -दिखाते हों या राजनेता खुद ही प्रचार तत्व को खबरों में तब्दील करा कर न्यूज चैनलों को मुनाफा दिला दें। उससे आगे की फेरहिस्त में संपादक किसी राजनीतिक दल से चुनाव लड़ने के लिये टिकट अपने या अपनों के लिये मांगता है और बात आगे बढती हा तो राज्य सभा में जाने के लिेये पत्रकारिता को सौदेबाजी की भेंट चढा देता है।
असल में सत्ता के पास न्यूज चैनलों को कटघरे में खडा करने के इतने औजार होते हैं कि संपादक तभी संपादक रह सकता है जब पत्रकारिता को सत्ता से बडी सत्ता बना ले। लेकिन न्यूज चैनलों के मद्देनजर गोद से ज्यादा बडा सवाल कोख का हो गया है । क्योंकि यहां यह सवाल छोटा है कि ममता बनर्जी को सीपीएम प्रभावित न्यूज चैनल बर्दाश्त नहीं है और सीपीएम का मानना है कि न्यूज चैनलों ने नंदीग्राम से लेकर लालगढ तक को जिस तरह उठाया, वह उनकी पार्टी के खिलाफ इसलिये गया क्योकि दिल्ली में कांग्रेस की सत्ता है और राष्ट्रीय न्यूज चैनल कांग्रेस से प्रभावित होते हैं। बड़ा सवाल सरकार ही खड़ा कर रही है । मनमोहन सरकार अब यह कहने से नहीं चूकती कि न्यूज चैनल अब कोई ऐरा-गैरा नत्थु खैरा नहीं निकाल पायेंगे । लाइसेंस बांटने पर नकेल कसी जायेगी। यानी न्यूज चैनलों में राजनीति की दखल का यह एहसास पहली बार कुछ इस तरह सामने आ रहा है मसलन पत्रकारों के होने या ना होने का कोई मतलब नहीं है। और राजनीति की सुविधा-असुविधा से लेकर सही पत्रकारिता का समूचा ज्ञान भी राजनीति को ही है। और राजनीतिक सत्ता के आगे पत्रकार या पत्रकारिता पसंगा भर भी नहीं है।
असल में इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि तकनीकी विस्तार ने मीडिया को जो विस्तार दिया है उतना विस्तार पत्रकारों का नहीं हुआ है । और मीडिया का यही तकनीकी विस्तार ही असल में पत्रकारिता भी है और राजनीति को प्रभावित करने वाला चौथा खम्भा भी है । कह सकते है कि चौथे खम्भे की परिभाषा में पत्रकार या पत्रकारिता के मायने ही कोई मायने नहीं रखते है। लेकिन बिगड़े न्यूज चैनलों को सुधारने की जो भी बात राजनीति करती है, उसमें राजनीतिक धंधे के तहत न्यूज चैनल कैसे चलते है और चलकर सफल होने वाले न्यूज चैनल इस धंधे को बरकरार रखने में ही जुटे रहते है, समझना यह ज्यादा जरुरी है।
किसी भी राष्ट्रीय न्यूज चैनल को शुरु करने के लिये चालीस से पचास करोड़ से ज्यादा नहीं चाहिये। और फैलते बाजारवाद में विज्ञापन से कोई भी न्यूज चैनल साल में औसतन 20-25 करोड आसानी से कमा सकता है। जो न्यूज चैनल टॉप पर होगा उसकी सालाना कमाई सौ करोड पार होती है। मंदी में भी यह कमाइ सौ करोड से कम नही हुई। जाहिर है न्यूज चैनल चलाने के लिये कागज पर हर न्यूज चैनल वाले के लिय न्यूज चैनल का धंधा मुनाफे वाला है। क्योंकि एक साथ छह करोड घरों में कोई अखबार पहुंच नही सकता। किसी राजनेता की सार्वजनिक सभा में लोग जुट नही सकते लेकिन कोई बड़ी खबर अगर ब्रेक हो तो इतनी बडी तादाद में एक साथ लोग खबरो को देख सुन सकते हैं। जाहिर है बीते एक दशक के दौर में न्यूज चैनलों ने जो उडान भरी उसने उस राजनीतिक सत्ता की जड़े भी हिलायी जो बिना सरोकार देश को चलाने में गर्व महसूस करते। लेकिन राजनीतिक सत्ता के सामने न्यूज चैनलों की क्या औकात। इसलिये न्यूज चैनलों को कोख में ही राजनीति ने बांधने का फार्मूला अपनाया। चैनलों को दिखाने के लिये को केबल नेटवर्क है, उसपर राजनीति ने खुद को काबिज कर एक नया पिंजरा बनाया, जिसमें न्यूज चैनलों को कैद कर दिया । किसी भी राष्ट्रीय न्यूज चैनल को केबल से देश भर में जोडने के लिये सालाना 35 से 40 करोड रुपये लुटाने की ताकत चैनल के पास होनी चाहिये तभी कोई नया चैनल आ सकता है। क्योंकि हर राज्य में केबल नेटवर्क से तभी कोई चैनल जुड़ सकता है, जब वह फीस चुकता कर दे । यह रकम सफेद हो नहीं सकती क्योंकि इसका बंटवारा जिस राजनीति को प्रभावित करता है, वह राजनीतिक दल नही सत्ता देखती है और वह किसी की भी हो सकती है । सबसे ज्यादा फीस महाराष्ट्र में 8 करोड़ की है, फिर गुजरात के लिये 5 करोड़ तक देने ही होगे। बिहार-उत्तरप्रदेश-झरखंड-उत्तराखंड में मिलाकर 3 से 4 करोड में सालाना केबल नेटवर्क दिखाता है। मजेदार तथ्य यह है कि केबल नेटवर्क को ही चैनलों की टीआरपी से जोड़ा जाता है और टीआरपी के आधार पर ही चैनलों को विज्ञापन मिलता है । यहीं से ब्रांड और धंधे का खेल शुरु होता है । टीआरपी और विज्ञापन को इस तरह जोड़ा गया है कि जो केबल नेटवर्क में करोडो लुटा सकता है वही विज्ञापन के जरीये करोड़ों कमा सकता है। करोड़ों के वारे न्यारे का यह खेल ही उपभोक्ताओं के लिये एक ऐसा ब्रांड बनाता है, जिसमें किसी भी प्रोडक्ट की कोई भी कीमत देने के लिये एक तबका एक क्लास के तौर पर खड़ा हो जाता है।
आप कह सकते है कि इस क्लास में राजनेता और सत्ता से सटे पत्रकारो की भागेदारी बराबर की होती है क्योकि यह गठजोड़ संसदीय राजनीति तले लोकतंत्र का गीत गाता भी है और लोकतंत्र को बाजार के आइने में देखने-दिखाने को मजबूर करता भी है । लेकिन पत्रकारिता को कोख में रखने की राजनीति भी यहीं से शुरु होती है । कोई पत्रकार न्यूज चैनल ला तो सकता है लेकिन उसे केबल नेटवर्क के जरीये दिखाने के लिये फिर उसी राजनीति के सामने नतमस्तक होना पड़ता है, जिसपर नजर रखने के ख्याल से न्यूज चैनल का जन्म होता है। कमोवेश हर राज्य में सत्ताधारी राजनीतिक दल के बडे नेताओं ने ही केबल पर कब्जा कर लिया है । यानी जो राजनीति पहले न्यूज चैनलों के मालिक या संपादको से गुहार लगाती ती कि उनके खिलाफ की खबरों को ना दिखाया जाये अब वही राजनीति सीधे कहने से नहीं चूकती- आपको जो खबरे दिखानी हो दिखाइये लेकिन वह हमारे राज्य में नहीं दिखेंगी क्येकि केबल पर आपका चैनल हम आने ही नहीं देंगे। यानी केबल नेटवर्क पर सत्ता का कब्जा राजनीति का नया मंत्र है। इसका शुरुआती प्रयोग अगर छत्तीसगढ में अजित जोगी ने किया तो ताजा प्रयोग वाय एस आर रेड्डी के बेटे जगन ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने के लिये किया । आंध्र में केबल नेटवर्क पर जगन का ही कब्जा है। छत्तीसगढ में अब रमन सिंह का कब्जा है । पंजाब में बादल परिवार का कब्जा है। महाराष्ट् में एनसीपी-काग्रेस और शिवसेना के केबल नेटवर्क युद्द में राज ठाकरे ने सेंघ लगाना शुर कर दिया है । तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार की ही न्यूज चैनलों को दिखाने ना दिखवाने की तूती बोलती है। गुजरात में मोदी की हरी झंडी के बगैर मुश्किल है कि कोई चैनल स्मूथली दिखायी दे। बंगाल में वामपंथियों को अभी तक अपने कैडर पर भरोसा था लेकिन ममता के तेवरों ने सीपीएम को जिस तरह चुनौती दी है, उसमें केबल पर कब्जे की जगह कैबल अब ममता और सीपीएम को लेकर कैडर की तर्ज पर बंट जरुर गया है।
इन हालात में न्यूज चैनल के सामने गाना-बजाना दिखाना या कहे खबरों से हटकर कुछ भी दिखाना ढाल भी है और मुनाफा बनाना भी। यह ठीक उसी तरह है जैसे सिनेमा देखने के लिये अब सौ रुपये जेब में होने चाहिये। यह बहुसंख्यक तबके के पास होते नहीं है, इसलिये पाइरेटेड का धंधा फलता फूलता है। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में सिनेमा की हत्या भी हुई। सिनेमा अब उसी तबके के लिये बनने लगा, जो दो घंटे में मनोरंजन की नयी व्याख्या करता करता है। ऐसे में सिनेमा भी सरोकार पैदा नहीं करता। उसी तरह खबरें भी सरोकार की भाषा नहीं समझती क्योंकि उसका मुनाफा जनता से नही सत्ता से जोड़ दिया गया है और इस दौड में डीटीएच कोई मायने नहीं रखता। क्योंकि डीटीएच से न्यूज चैनल घरों में दिखायी जरुर देता है मगर विज्ञापन की वह पूंजी नही जुगाड़ी जा सकती जो केबल के जरिए टीआरपी से होती हुई न्यूज चैनलों तक पहुंचती है।
किसी भी नये चैनल की मुश्किल यही होती है कि वह खुद को केबल और टीआरपी के बीच फिट कैसे करें । किस राज्य की किस सत्ता और किस राजनेता के जरीये न्यूज चैनल के मुनाफे की अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी करे । जबकि पुराने चैनलो की कैबल कनेक्टिविटी और टीआरपी में कभी बड़ा उलटफेर या परिवर्तन चार हफ्तों तक भी नहीं टिकता है, चाहे कोई न्यूज चैनल कुछ भी दिखाये । यह यथावत स्थिति हर किसी को बाजारवाद में बंदरबांट के लिये कथित स्पर्धा से जोड़े रखते हुये सभी की महत्ता बरकरार रखती है। भाजपा ने एनडीए की सरकार के दौर में इस गोरखधंधे को तोड़ने के लिये कैस लाने की सोची थी। लेकिन उसी दौर में जब यह पंडारा बाक्स खुला कि करोड़ों के वारे न्यारे से लेकर राजनीति के अनुकुल न्यूज चैनलो पर इसी माध्यम से नकेल कसी जा सकती है तो धीरे धीरे सबकुछ ठंडे बस्ते में डाला गया । लेकिन मुनाफे के धंधे को बरकरार रखने के बाजारवाद में पत्रकार किसी खूंटे से बांधा जाये यह सवाल सबसे बड़ा हो गया है । पत्रकार न्यूज चैनल के लिये मुनाफा जुगाड़ने से सीधे जुड़ जाये, पत्रकार राजनीतिक सत्ता के इशारे पर काम करने लगे , पत्रकार लोकसभा के टिकट लेने-दिलवाने से लेकर राज्यसभा तक पहुंचने के जुगाड़ को पत्रकारिता का आखिरी मिशन मान लें या फिर पत्रकार सत्ता की उस व्यवस्था के आगे घुटने टेक दें, जहां सत्ता परिवर्तन भी एक तानाशाह से दूसरे तानाशाह की ओर जाते दिखे और पत्रकारिता का मतलब इस सत्ता परिवर्तन में ही क्राति की लहर दिखला दें। इस दौर में विकल्प की पत्रकारिता करने की सोचना सबसे बड़ा अपराध तो माना ही जायेगा जैसे आज अधिकतर न्यूज चैनलो में यह कह कर ठहाका लगाया जाता है कि अरे यह तो पत्रकार है।
vajpyee jee
ReplyDeleteaapne cpm ka arop se prichit to kraya kya aap nishpaksh kam kar he hai
................kya apke news channle ne orisa me isaiyo dwara bam bnane ki ghatna ko dikhaya
...................jis parkar apne varun gandhi ko bar bar dikhaya kya usi parkar apne ncp ke mharashtra se muslim ummidwar ke uss lekh ko dikhaya jo usne apne postro benaro par likha tha........
badlav ki shuruat kha se hogi aap media ki kamiya to ujagar karte hai lekin kya aap koi pahal karte hai....................
media bhed bhav kar chal rha hai
मजबूरियों में की गई चीजें समझौता होती हैं, निर्णय नहीं।
ReplyDeleteऔर सत्ता का कोई भी स्तंभ जब समझौता करने लग जाये तो वह कब तक नहीं गिरेगा यह कहना मुश्िकल होता है।
"अंजामों का डर" इस गजल में हमने ये शेर इसी मजबूरी को अभिव्यक्त करने के लिए लिखा था।
ये मुझको आजादी थी कि, कुछ भी कहूं, किसी से भी कहूं, अंजामों के डर, दहशत से, अपनी जुबां नहीं खोली थी।
vajpayee jee ........uss lekh me ye sab likha hai abb btaiye ye kasi dharmnirpekshta hai पोस्टर के शीर्षक में लिखा गया है- "अमानुल्ला का जमाना फिर से लाना है, शिवसेना (हिन्दुओं) का शहर से नामोनिशान मिटाना है. अल्ला ने भेजा है मौलाना कदीर को, औरंग की जमीन पर फिर से चांद सितारा लहराना है." कदीर की ओर से जारी गयी अपील में कहा गया है कि "मेरे जैसे उम्मीदवार की सख्त जरूरत है जो मुसलमानों की हिफाजत करे और उनके हुकूक की रक्षा करे." इसके बाद कदीर की ओर से जारी अपील में कहा गया है कि "मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूं कि गैर मुसलमानों की ओर से जो मुसीबतें आ पड़ी हैं उसका मुकाबला करने के लिए और कौमी ताकत बढ़ाने के िलए मेरी गुजारिश का ख्याल करते हुए और किसी को वोट देने की गलती न करें."
ReplyDeleteमेरे लिए एक ज्ञानवर्धक लेख..प्रासंगिकता के हिसाब से एक जरूरी लेख...
ReplyDeleteएक ज्ञानवर्धक लेख
ReplyDeleteSir, I proud on you. Journalist like you is the hope of nation and voice of downtroddens. Keep this work going on.
ReplyDeletebahut sahi baat kahi aapne. mai bhi ek patrakar hoon aur in baaton se roj mera sabka padta hai. mujhe lagata hai rajniti ke baad agar sabse jyada rajniti kahi hooti hai, to wah hai patrakarita. yahan par jis tarah ki khemabandi hai, jatiwad hai aur bhed bhav hai dekh kar man pagal ho jata hai. maine dekha hai kaise patrakarita main achche logon ko aage badhane se roka jata hai. kaise unhe kaha jata hai ki tum ayogya ho. kya aapko nahi lagta hai ki pahle media ko apne andar ki gandagi ko saaf karna chahiye.
ReplyDeleteवैकल्पिक धारा की पत्रकारिता..दबे कुचलों की बात ...लीक से हटकर स्टोरी..सिस्टम के खिलाफ खबरें....ये पहाड इतना बडा है कि आप बस इसपर चढ कर विश्राम कर सकते हैं..इसे उठाने की जिम्मेदारी लेने वालों को इसके नीचे दबने के खतरे के लिए भी तैयार रहना होगा..। सवाल सीर्फ खारिज किए जाने का हीं नहीं है..। खत्म हो जाने का भी है..क्योंकि कई लोगों के लिए उद्देश्य का मर जाना खुद के खत्म हो जाने से कम नहीं होता...। वैकल्पिक धारा की पत्रकारिता करने की चाह रखने वाले कई लोगों को अपनी दुकान समेटनी पडी है..। या फिर मुख्य धारा की नाली को हीं गंगाजल समझकर उसे माथे से लगाना पडा है। आपका सवाल लाजमी है कि “जो कुछ खबरों के नाम पर परोसा जा रहा है, उससे इतर पत्रकारिता की कोई सोचता क्यों नहीं है।“
ReplyDeleteलेकिन अगर किसी ने सोचा भी तो वो क्या कर पाएगा...देश की एक तिहाई आबादी गांवों में रहती है। लेकिन उनके सरोकारों से जुडी खबरें मीडिया में शायद पांच प्रतिशत से भी कम होंगा..शायद आज हम देश की आबादी को सही ढंग से रिप्रजेंट हीं नहीं करते। किसान... मजदूर..रिक्शे वाले,,ठेले वाले झुग्गी वाले...आटो वाले...खोमचे वाले...सब कम से कम टीवी के पर्दे से गायब हैं.....शायद इसीलिए टीवी देख कर ये खुशफहमी होती रहती है कि देश बदल गया है...चारो और तरक्की बरस रही है...। शायद ये भी बाजार का असर है।
..अक्सर न्युज रूम में ये आवाज सुनाई देती है..” ये किसकी बाइट लाए हो..कोई ढंग का आदमी नहीं मिला क्या...।“ कई बार महानगरों में छेडखानी की घटना ...ग्रामीण इलाकों .में..फैली किसी रहस्यमय बिमारी की घटना पर भारी पडती है। ...शायद बाजार ये सब करवा रहा है....खबरों की दुकाने सजी हैं और पत्रकार.... सेल्समैन की तर्ज पर खबरें बेचने में लगा है....।
कई बार फिल्ड में कोई अनजान शख्स मीडियावाला जान कर बोल देता है...अरे साहब सब बिके हैं....किस पर भरोसा करें....खीझ होती है...लेकिन सच हीं तो है बाजार में हीं तो खडे हैं हम...। और बाजार हम पर हावी है....। बडा भयावह दृश्य है.... ।
दरअसल मीडिया का डीएन हीं ऐसा है....वो भ्रस्ट नेता , पुलिस ..सिस्टम से तो लड सकता है बाजार से नहीं लड सकता ...हलांकि इस लडाई में हार और जीत चाहे जिसकी भी हो....फायदा मीडिया का है.....दरअसल धन की ताकत अक्सर मन की ताकत पर भारी पडती है.....सदीयों से ऐसा हीं होता आया है....। और अब भी वही हो रहा है...। शायद इसीलिए पत्रकारिता शब्द बेमानी हो चला है और धंधा समूची पत्रकारिता के कंधे पर सवार होकर बाजार और मुनाफे के घालमेल में मीडिया को ही कटघरे में खड़ा कर मौज कर रहा है।
दूसरा खतरनाक पहलू है राजनीति का....जिस तरह से काटना चींटी का चरीत्र है..वैसे हीं..जोडना और तोडना राजनीति का चरीत्र है .....वो अपने हीसाब से सही हो सकते हैं....लेकिन पत्रकारिता का चेहरा क्या हो....इस पर सस्पेंस है....अपने सुविधा के हीसाब से सोच अलग -अलग है.....लेकिन ..आज कई बार राजनीति और पत्रकारिता एक साथ खडे लगते हैं। एक होड सी लगती है...राजनीतिज्ञ पत्रकारों को शिल्ड देते नजर आते हैं...मीडिया हाउस राजनेताओं को कप देते स्टेज पर खडे होते हैं...। देश की जनता इसे किस तरह देखती है..क्या सोचती है........... फिक्र किसे है। .कहीं ऐसा तो नहीं कि जितनी तैयार राजनीति हमें गोद में बैठाने को है...उससे ज्यादा आतूर हम है.....आपने सही कहा है जिसके साथ सत्ता खड़ी है वह सबसे ज्यादा मुनाफा बना सकता है
ReplyDeleteलेकिन मुनाफा तभी कमाएंगे जब तक हमारा वजूद रहेगा...और वजूद बनाए रखने के लिए..हमें अपनी जमीन तलाशनी होगी....आज ज्यादातर लोग टीवी की पत्रकारिता करना चाहते हैं....यहां केबल वालों का लफडा है...अखबार और इंटरनेट तो है....लेकिन टीवी के मुकाबले इनका प्रभाव कम है....ऐसे में क्या रास्ता निकाला जाए......ये सबसे बडा सवाल होना चाहीए..और इसपर बहस होनी चाहीए.....लेकिन कई लोग ऐसी भी पत्रकारिता कर रहे हैं...जिसने पास पत्रकारिया के जज्बे और कलम के अलावा कुछ भी नहीं है....। आईबीएन-7 की वेब साइट पर मौजूद एक खबर प्रेरणा देने वाली है.....
गौरीशंकर रजक का हाथ से लिखा अखबार
आईबीएन-7
Mon, Jun 16, 2008 at 16:19
दुमका, झारखंड। मन में अगर जज्बा हो तो कोई भी काम मुश्किल नहीं। झारखंड के गौरीशंकर रजक एक ऐसे पत्रकार हैं जो पिछले 22 सालों से अपने हाथों से लिखकर एक अखबार निकाल रहे हैं।
‘दीन दलित’ नाम का उनका ये अखबार एक साप्ताहिक अखबार है और इसमें वो स्थानीय मुद्दों के बारे में खुद ही लिखते हैं।
झारखण्ड के दुमका के 65 वर्षीय गौरीशंकर रजक पिछले 22 सालों से लोगों को उनका हक दिलाने की लड़ाई लड़ रहे हैं।
यह लड़ाई न तो ताक़त के बल पर और न ही पैसों के बल पर लड़ी जा रही है। दरअसल यह लड़ाई लड़ी जा रही है कागज और कलम के बल पर।
पिछले 22 साल से 4 पेज का "दिन दलीत" नाम का साप्ताहिक अख़बार रजक का एकमात्र हथियार है।
पेशे से लोगों का कपड़ा धोने वाले रजक अपनी सारी मेहनत इसी अख़बार में लगा देते हैं। ऐसी पत्रकारिता करने वाले रजक का कहना है की करीब 22 साल पहले जब इंदिरा गांधी आवासीय योजना के तहत उन्होंने अपनी अर्जी डाली तो सरकारी बाबुओं ने उनकी अर्जी खारिज कर दी, इस घटना के बाद रजक ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने की सोची और बन गए गरीबों के सच्चे हमदर्द।...........