"पा" को सिर्फ प्रोजेरिया के अक्स में देखना भूल होगी। प्रोजेरिया का मतलब सिर्फ 15 साल की उम्र में अस्सी साल का शरीर लेकर मौत के मुंह में समाना भर नहीं है। असल में प्रोजेरिया का दर्द मां-बाप का दर्द है। जब जिन्दगी के हर घेरे में पन्द्रह साल के बच्चे को लेकर हर मां-बाप के सपने उड़ान भरना शुरु करते हैं, तब प्रोजेरिया से प्रभावित बच्चे के मां-बाप क्या सोचते होंगे....यह "पा" में नहीं है । किसी भी मां-बाप के लिये यह जानते हुये जीना कि उसके अपने बच्चे की उम्र सिर्फ 15 साल है लेकिन अपने बच्चे में उसे अपने भविष्य की छवि दिखायी दे जाये...यह भी " पा" में नहीं है।
असल में "पा " में मां-बाप नहीं सिर्फ औरो है। जिसके एहसास मां-बाप पर हावी है। और असल में यहीं से लगता है कि फिल्म में अमिताभ बच्चन हैं, जो नायक है। जिसके भीतर का आक्रोश पर्दे पर आने के लिये कसमसा रहा है। और "पा " का नायक "औरो " प्रोजेरिया से नहीं बल्कि व्यवस्था की विसगंति को अक्स दिखाकर मरता है। खासकर राजनीति और मीडिया को लेकर जो जहर अमिताभ के भीतर अस्सी के दशक से भरा हुआ है...उसका अंश बार बार इस फिल्म में नजर आता है।
फिल्म में "औरो" यानी अमिताभ अपने पिता अभिषेक बच्चन, जो कि युवा सांसद बने हैं, उनके सपनों के भारत पर कटाक्ष कर उस राजनीति को आईना दिखाने की कोशिश करते हैं, जिसे संकेत की भाषा में समझे तो राहुल गांधी की छवि से टकराती है। और अगर अमिताभ बच्चन के ही अक्स में देखें तो 1984 में राजीव गांधी के कहने पर राजनीति में सबकुछ छोडकर एक बेहतर समाज और देश का सपना पाले अमिताभ का राजनीतिक चक्रव्यू में फंसने की त्रासदी सरीखा लगता है। अमिताभ 1988-89 में राजनीति के चक्रव्यूह को तोड़कर फिल्मी नायक की तरह राजनीति छोड़ना चाहते थे। लेकिन उस दौर में मीडिया ने भी उनका साथ नहीं दिया। और शायद पहली बार अमिताभ उसी वक्त समझे कि मीडिया के ताल्लुक राजनीति से कितने करीबी के होते हैं। और सही-गलत का आकलन मीडिया नहीं करता। इसलिये "पा" में भी युवा सांसद की भूमिका निभाते अभिषेक पारंपरिक राजनीति को अपनाने की सीख देने वाले अपने पिता परेश रावल के सुझाव को नहीं मानते बल्कि मीडिया से उसी की भाषा में दो -दो हाथ करने से नहीं कतराते, जो वह बोफोर्स कांड के दौर में करना चाहते थे।
इतना ही नहीं इलाहबाद के सांसद के तौर पर इलाहबाद को लेकर विकास की जो सोच अमिताभ ने 1985-88 में पाली, उस पर वीपी सिंह ने जिस तरह रन्दा चला दिया। और इलाहबाद में बनाये जाने वाले पुल और झोडपपट्टी को लेकर विकास योजना में जिस तरह वीपी सिंह ने अंडगा लगाया, उस नैक्सेस को नये अंदाज में दिखाते हुये उसे तोड़ने की कोशिश अभिषेक के जरिए फिल्म में की गयी है । मीडिया और राजनीति को लेकर अमिताभ अपने आक्रोश को दिखाने की खासी जल्दबाजी में इस फिल्म में नजर आते हैं।
राष्ट्रपति भवन जाने के लिये औरो की बैचैनी की वजह तो फिल्म नहीं बताती लेकिन राष्ट्रपति भवन पहुंचकर भी राष्ट्रपति भवन देखने से ज्यादा बाथरुम जाने की जरुरत यानी शिट के प्रेशर के आगे राष्ट्रपति भवन ना देखने का अद्भुत तरीका अमिताभ ने निकाला, जो झटके में अमिताभ के उस निजपन को उभारता है जो राजनीतिक व्यवस्था से घृणा करता है। सत्ता जिस तर्ज पर सुरक्षा घेरे में रहती है, उस पर भी सीधा हमला करने से औरो यानी अमिताभ कोई मौका नहीं चूकते। सुरक्षाकर्मियों को नेता किस तरह रोबोट बना देते हैं और अमिताभ उसके मानवीय पक्ष में जिन्दगी की न्यूनतम जरुरतों को जिस तरह टटोलते हैं, उसे देख बरबस 1984 में राजनेता बने अमिताभ बच्चन याद आ जाते हैं जो नार्थ-साउथ ब्लाक से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय और घर के सुरक्षा घेरे से उस दौर में हैरान परेशान रहते थे। अक्सर राजीव गांधी से मिलने जाते वक्त अमिताभ को इसी बात की खासी कोफ्त होती थी कि सुरक्षा घेरे का मतलब है क्या । खासकर तब जब इंदिरा गांधी की हत्या सुरक्षा घेरे में सुरक्षाकर्मियों ने ही कर दी। इसलिये फिल्म का नायक ओरो यानी अमिताभ बार बार सांसद बने अभिषेक बच्चन के सुरक्षार्मियों की जरुरत या उनकी मौजूदगी पर ही सवालिया निशान लगाने से नहीं चूकता।
वैसे, यह कहा जा सकता है कि जब समूची फिल्म में ना तो अमिताभ बच्चन का चेहरा नजर आता है और ना ही उनकी भारी आवाज सुनायी देती है तो अमिताभ की जगह एक उम्दा कलाकार का अक्स इसे क्यों ना माना जाये। यह तर्क उन्हे समझाने के लिये सही लग सकती है, जिन्होंने फिल्म देखी ना हो । असल में समूची फिल्म में प्रोजेरिया से ग्रसित औरो को अमिताभमयी छवि में इतना भिगो दिया गया है कि ना सिर्फ मां-बाप की छवि फिल्म से गायब हो जाती है बल्कि फिल्म के अंत में "औरो " की मौत भी अपने मां-बाप को मिलाकर कर कुछ इस तरह होती है जैसे "औरो" का नायकत्व व्यवस्था के खांचे को नकार कर अपने ही मां-बाप को प्रेम और सहयोग का एक ऐसा पाठ पढाता है, जिसका मूलमंत्र यही है कि जो गलती करता है उसे ही ज्यादा आत्मग्लानी होती है। इसलिये गलती करने वाले को माफ कर देना चाहिये।
प्रोजेरिया से ग्रसित औरो के बहाने यह अमिताभ की ही फिल्म है जिसमें उनका चेहरा और आवाज तो नहीं है लेकिन हर डायलॉग में छवि उसी अमिताभ की है, जिसके भीतर व्यवस्था से आक्रोश है और सभी को पाठ पढाने का जज्बा है । जाहिर है फिल्म खत्म होने के बाद अमिताभ की हर फिल्म की तरह "पा" में भी सिर्फ अमिताभ ही दिमाग में रेंगते है।
प्रसून जी,
ReplyDeleteयही है अमिताभ और आमिर की संवेदनशीलता का फ़र्क...तारे ज़मीं पर के आमिर की
तरह ही अमिताभ ने अपने बैनर एबी कॉर्प के तले पा का निर्माण किया है...आमिर
खुद को सिर्फ सपोर्ट रखते हुए फिल्म के असली मुद्दे डिस्लेक्सिया के तौर पर दर्शील
सफारी को छा जाने का मौका देता है...वही पॉ का अमिताभ सर्वश्रेष्ठ किरदार को अपने लिए रिज़र्व रखते हुए राजनीति की चाशनी में फिल्म को घोल कर बॉक्स ऑफिस पर सफलता की गारंटी सुनिश्चित
कर लेना चाहता है...और इस आपाधापी में प्रोजेरिया का मूल मुद्दा कहीं पीछे छूट
जाता है... यही वजह है कि जब ब्लैक के बाद अमिताभ की संवेदनशीलता पर आमिर ने
सवाल उठाया था तो अमिताभ के तिलमिलाने की...
जय हिंद...
चलो इसी बहाने सही अमिताभ बच्चन जी ने कुछ सराहनीय प्रयास तो किया !
ReplyDeleteखैर ...
ReplyDeleteAchchi lagi, aapki cheer-faaD. Ye baat hai hi nazariye ki. I quite agree with you. Amitabh does have 'all this' burried somewhere deep with-in him. And what a way to get this 'off' his chest. Auro is the most innocent 'tool' to deliver this "dil mien aise sambhlate hain gum, jaise zevar sambhalata hai koi - Sanchit PiDa" part of Amitabh's life. Jai ho!
ReplyDeleteएक आम आदमी की हैसियत से हमने ये फ़िल्म देखी। हमसे कहा गया था कि दो दो रुमाल ले कर जाना, लेकिन अफ़्सोस कि हमें तो एक भी रुमाल की जरुरत नहीं पड़ी। मीडिया और राजनीती पर भड़ास निकाली हो भले अमिताभ ने लेकिन फ़िर भी ये फ़िल्म हमें कुछ अलग लगी हांलाकि हिन्दी फ़िल्म के इतिहास में मील का पत्थर कहना जरा ज्यादा हो जायेगा
ReplyDeleteबाजपेई जी फिल्म इतनी भी बुरी नहीं है और न ही मीडिया पर अपनी खीझ निकालने के लिए अमिताभ बच्चन १५ करोड़ खर्च करेंगे ( एक अनुमान के अनुसार). आर बाल्की एक सुलझे हुए निर्देशक हैं और उन्होंने एक संवेदना शील विषय को चुना है. और सबसे महत्व पूर्ण बात यह है कि आज तक के हिंदी फिल्म के इतिहास में एक ६७ वर्षीय अभिनेता ने इस तरह की भूमिका नहीं की है. रही दूसरी बात अमिताभ बच्चन की वह एक ऐसे व्यक्तित्व हैं जिन्हें कोई भी मीडिया में प्रचार पाने के लिए "गरिया" सकता है...और मीडिया को इससे अच्छा और क्या चाहिए......कुल मिला कर लब्बो लाबाव यह है कि "पा" एक अच्छी फिल्म है इसकी पसंदगी और नापसंदगी साधारण दर्शकों पर ही छोड़ दी जाये तो अच्छा है क्यों कि मीडिया की नजर में न तो अमिताभ शायद दूध के धुले होंगे और दुनिया की नजर में मीडिया तो शायद बिलकुल भी नहीं
ReplyDeleteअभी उनकी फिल्म "रन" आने वाली है जिसमें वह स्वयं एक समाचार संस्थान के मालिक बने हैं .....देखना है कि आपकी टिप्पणी क्या होगी
बाजपाई,
ReplyDeleteआपका लेख पड़कर लगा आप अमिता बच्चन से जयदा इतफाक नहीं रखते , में भी नहीं रखता पर एक बात हे की जिस बीमारी का बारे में उसमे दिखाया हे उस के बारे में शायद ही अभी तक किसी ने जिक्र किया हो ,यह तो मानना पडेगा की इस फिल्म के बाद से इस बीमारी का पता चला और उस पैर गोर किया गया ,सरकार ने भी इस पर ध्यान दिया,और बहुत सरे केस सामने आए, .आप बहुत दिनों से पत्रकारिता में हे पर आपका और आपके चानेल ने भी कभी इस बीमारी का जिक्र और ध्यान सरकार भी नहीं कराया तो बेचारे अमिताभ पर इतना जोर क्यों हे ये बात अची नहीं लगी और समझ आई ,तरकी से जलना नहीं कुछ सीखना चाहीये, उस आदमी का अब कुछ नहीं हो सकता या बिगाड़ा जा सकता सब की पहुच से बहार हे.आपसे निवेदन हे की आगे के लिए इस बीमारी का जिक्र आप कराये और उसमे सयोग करे. धन्यबाद
प्रसून भाई
ReplyDeleteपुराने पोस्ट पर कमेंट का कोई तुक तो नहीं बनता लेकिन फ़िल्म थ्री इडियटस पर आपके कई पोस्टस की सीरीज़ में से एक जिसमें आपने नागपूर का तजरिबा बयान किया है बमुताबिक़ उसके फिल्म सिर्फ़ अपने निदेशक की होती है फ़िर ये 'पा' तो बाल्की की हुई न, इसका अमिताभ के निजत्व से क्या संबंध?