Thursday, January 28, 2010

सवालों ने बेचैन किया तो जिंदगी की तंग गलियां छोड़ जवाब खोजने मओवादी बना एक इंजीनियर

चन्द्रपुर इंजीनियरिंग कॉलेज की दीवार पर चिपके पुलिसिया पोस्टर ने झटके में माओवादियों को लेकर सरकार के नजरिये और सरकारी सिस्टम को लेकर एक पूरी बहस मेरी आंखों के सामने ला कर खड़ी कर दी । पोस्टर में काले घेरे में एक युवक की तस्वीर छपी थी । जिसके ऊपर मोटे काले अक्षर में लिखा था-यह माओवादी है। इसने बाईस पुलिसकर्मियों को बारुदी सुरंग से उड़ाया है, जो इसे पकड़वाने में मदद देगा उसे पचास हजार रुपये ईनाम में दिये जायेंगे। तस्वीर के नीचे लिखा था माओवादी कामरेड मिलिन्द। यह कब से कामरेड हो गया ? चेहरा वही लेकिन नाम कुछ और था। इस लडके का नाम तो मिलिन्द नहीं था। अठारह साल पहले की वह शाम याद आ गयी, जिसमें प्रोफेशनलिज्म और एजुकेशन विषय पर जबरदस्त बहस हुई थी।


दिसंबर
1991 । चन्द्रपुर इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र महोत्सव में शामिल होने नागपुर से चन्द्रपुर पहुंचा था। सोच कर गया था कि नक्सलवाद तेजी से आंध्रप्रदेश से सटे विदर्भ के चन्द्रपुर जिले में भी घुस चुका है और चन्द्रपुर से सटे छत्तीसगढ़, जो उस वक्त मध्यप्रदेश का हिस्सा था, वहां भी दस्तक दे रहा था, तो उस पर अखबार के लिये रिपोर्ट भी तैयार हो जायेगी। साथ ही कालेज के छात्र नक्सलियों को लेकर क्या सोचते-समझते हैं, इस पर पर रिपोर्ट तैयार होगी। इंजीनियरिंग कॉलेज पहुचा तो खासा जोश छात्रों में था। गेट पर ही छात्रों का एक झुंड स्वागत में खड़ा मिल गया। अठारह से बाईस साल के बीच के ही सभी छात्र थे। सभी ने अपनी फैक्ल्टी बतायी। नाम बताया। फिर हम कार्यक्रम में शरीक होने कालेज के कान्फ्रेन्स हॉल में चल पड़े। कालेज के अंदर जाते वक्त अचानक एक छात्र पीछे से आया और मुझसे हाथ मिलाकर कर बोला भईया आप भी प्रोफेशनल नहीं हैं। छात्र महोत्सव में मैंने ही यह विषय रखवाया है, प्रोफेशनलिज्म और एजुकेशन। तुम्हारा नाम। वसंत तामतुम्डे। अच्छा विषय है। लेकिन कुछ उलझा हुआ सा लगता है क्योंकि एजुकेशन तो प्रोफेशनलिज्म की तरफ ही ले जाता है। चलिये भईया इसी पर तो चर्चा करनी है। मजा आयेगा। उसने मजा आयेगा कुछ इस तरह कहा जैसे उसे सब पता था कि क्या होगा।

छात्र महोत्सव के दौरान कालेज के प्रिंसिपल भी मौजूद थे और सभी शिक्षक भी। संयोग से चन्द्रपुर की डीएम को भी आमंत्रित किया गया था। लेकिन डीएम महोदय आखिर में पहुंचे जिसका मलाल उन्हें उस वक्त तो रहा ही मेरे ख्याल से आज भी होगा। खैर एजुकेशन के तौर तरीको को लेकर छात्रों के सवाल खुद ब खुद प्रोफेशनलिज्म से जुड़ते चले गये और जब समूची बहस इस दिशा में जा रही थी कि शिक्षा का मतलब ही छात्रों को प्रोफेशनली ढालना हो चुका है और जिसका मतलब अदद नौकरी पर जा टिका है तो मैंने देखा वसंत ताम्तुबडे ने मंच पर आकर सवाल किया कि प्रोफेशनलिज्म का जिन्दगी से कुछ भी लेना देना नहीं होता और शिक्षा का मतलब जिन्दगी है। और मुझे लगता है कि हम जीवन से अमानवीय परिस्थितियों की दिशा में बढ़ रहे है
, जिसे प्रोफेशनलिज्म कह कर हम साथी बेहद खुश हो रहे हैं। फिर उसने सीधे प्रिंसिपल को संबोधित करते हुये कहा कि आपने कालेज के हर फैक्ल्टी में एक डिजार्टेशन तैयार करने का प्रावधान कर रखा है, और खास बात यह है कि इस डिजार्टेशन को लेकर सिलेबस में साफ लिखा गया है कि विषय और शोध अगर आम जिन्दगी से जुड़ा हो और उसमें बदलते समाज के बिंब भी हो तो ज्यादा अच्छा रहेगा। मैंने विषय लिया चेंजिंग लाइफस्टाइल आफ ट्राइबल्स, विद् स्पेशल रेफरेन्स आफ प्रोबलम आफ नक्सलाइट [ आदिवासियों के जीने के बदलते तरीके, नक्सल समस्या के मद्देनजर ]। लेकिन मुझे कहा गया कि आदिवासी और नक्सल को एक साथ ना जोड़ें। डीएम साहब यहां आये नहीं हैं, अगर होते तो उनसे पूछंता कि नक्सल शब्द में इतना आतंक क्यों भर दिया गया है। क्यों इस मुद्दे पर कोई चर्चा करने तक से प्रोफेसर घबराते हैं। ऐसे में आदिवासियो के सवाल भी हाशिये पर होते जा रहे हैं। कोई आदिवासियों के मुश्किल जीवन को लेकर चर्चा नहीं करना चाहता। उन्होंने इतना नक्सलाइट के नाम पर आतंक क्यो पैदा कर दिया है कि हमारे प्रोफेसर भी इस विषय पर खामोश रहना चाहते हैं जबकि वह जानते है कि उनके इर्द-गिर्द की परिस्थितियां बदल रही हैं। मेरे ख्याल से डीएम से लेकर प्रोफेसर तक प्रोफेशनल हो चुके हैं। मै जानना चाहता हूं कि मुझे भी इन विषयों को छोडकर प्रोफेशनल होना है या फिर जिस समाज में हमें कालेज से निकलकर काम करना है, उस समाज को जानना भी एजुकेशन है।

वसंत के इस सवाल ने अचानक कुछ छात्रों के तेवर बदल दिये । मैकनिकल फैकल्टी के आलोक आर्य ने चन्द्रपुर के औघोगिक विकास और ह्यूमन इंडेक्स के घेरे में प्रोफेशनलिज्म और एजुकेशन का सवाल खड़ा किया। चन्द्पुर के दस टाप उघोगों के बारे में सिलसिलेवार तरीके उसने जानकारी दी। संयोग से सभी उघोगपति देश के भी टॉप टेन में थे । फिर उसने उन गावों के बारे में जानकारी रखी जहां उघोग लगे थे। ग्रामीण आदिवासियों के सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों का जिक्र कर आलोक ने विकास को प्रोफेसनलिज्म से जोड़ते हुये आखिर में यह साबित किया कि अंधी दौड में विकास का मतलब मुनाफा है और समूचा तंत्र इसी विकास को प्रोफेशनलिज्म मान रहा है जबकि करीब चालीस हजार से ज्यादा मुफलिस-पिछडे ग्रामीण आदिवासियों का सवाल
, जिनके पास दो जून की रोटी नहीं है वह शिक्षा के दायरे में भी नहीं हैं और उनके लिये कोई लकीर खिचने का मतलब है इंजीनियरिंग कालेज में तीन लाख रुपये फीस पर पानी फेरना। क्योंकि इससे कैंपस इंटरव्यू में नौकरी नहीं मिलेगी ।

उस दिन बहस में कुछ ज्यादा ही तीखे-तल्ख कमेंट प्रिंसिपल की तरफ से भी आये । जिन्होंने कालेज की बंदिशों को इशारों में समझाया । यह कालेज कांग्रेस के नेता का है। लेकिन छात्रों के सवालो ने इस दिशा में अंगुली उठा दी कि मुद्दों को ना प्रोफेशनल चादर से ढका जा सकता है और ना ही प्रशासन-पुलिस की मुश्किलों को आतंक का जामा पहना कर खामोश रहने से मुद्दे दब जाते हैं।

लेकिन इस छात्र महोत्सव के करीब सवा साल बाद यानी
1993 में एक दिन अचानक एक छात्र नागपुर में मेरे अखबार के दफ्तर में पहुंचा और मिलते ही कहा आपने मुझसे पहचाना नहीं, मैं चन्द्रपुर इंजीनियरिंग कालेज का छात्र हूं। लेकिन उसे देखते ही मैंने कहा, मुझे आपके सवाल याद हैं, जो आपने उस महोत्सव के दौरान उठाये थे । हा भईया , मैकनिकल का आलोक आर्य। बताइये नागपुर में क्या काम है। मुझे आपसे कोई काम नहीं है। मैं सिर्फ एंटी नक्सल कमीश्नर से मिलना चाहता हूं। मुझे भी याद आया कि करीब एक साल पहले ही नागपुर में कमीश्नर रैंक के आईएएस अधिकारी की नियुक्ति नक्सल गतिविधियों को रोकने और इस मुद्दे के सामाजिक-आर्थिक तरीके से समझते हुये रिपोर्ट तैयार करने के लिये हुई है। मैंने पूछा काम क्या है। उसने कहा आज ही मिलवा दिजिये तो अच्छा होगा। नहीं तो कल कालेज में क्लास छूट जायेगा। अगले महीने फाइनल भी है । लेकिन मुझे भी जानकारी होनी चाहिये, मैं उन्हें क्या कहूंगा। मैं उन्हें चन्द्रपुर की परिस्थितियों से वाकिफ कराना चाहता हूं। हम कालेज के थर्ड ईयर के छात्रो ने चन्द्रपुर की तीन तहसीलों के सामाजिक-आर्थिक परिवेश का जो आंकलन अपने रिसर्च के लिये किया है, उसमें आदिवासियों की कल्याण योजनाओं की हकीकत मै बताना चाहता हूं। क्यों कल्याण योजनाओ को लेकर आपकी रिसर्च में क्या है। कुछ नहीं हमेशा की तरह कोई योजना लागू नहीं हुई है। करीब एक हजार करोड बीते छह साल में पुलिस-प्रशासन के पास चले गये। लेकिन नयी परिस्थितियां इसलिये ज्यादा खतरनाक हैं क्योंकि पचास से ज्यादा वह आदिवासी पुलिस फाइल में नक्सली करार दिये जा चुके हैं, जिनके गांव में हमने बकायदा दस दिनो तक काम किया। उनकी पूरी प्रोफाइल हमारे पास है। सवाल है जो हमारे डिजार्टेशन में ग्रामीण आदिवासी हैं, वह पुलिस फाइल में नक्सली हैं। मै कमीश्नर को बताना चाहता हूं कि यह परिस्थितियां किस खतरनाक समाज का निर्णाण कर रही हैं।

मुझे याद है सारी जानकारी एंटी नक्सल कमीश्नर को आलोक आर्य ने बतायी थी करीब तीन घंटे तक। आलोक ने अपना रिसर्च पेपर भी अधिकारियो को सौपा था। जिसके कुछ हिस्से और नक्सल बताकर बंद किये गये आदिवासियो की फेरहिस्त भी हमने अखबार में छापी। लेकिन ठीक
18 साल बाद जब उसी लडके की तस्वीर बतौर माओवादी उसी कालेज के दीवार पर चस्पां देखी तो इस बारे में और जानकारी के लिये स्थानीय अखबार देशोन्नती की फाइलों को देखा और आदिवासी और नक्सलियो की स्टोरी करने वाले रिपोर्टर सुरेश से बातचीत की। मिलिन्द के बारे जानकारी मिली कि फिलहाल वहीं एरिया कमांडर है और चन्द्रपुर से लेकर दांतेवाडा तक के दो दर्जन से ज्यादा दलम उसके साथ काम करते हैं। मिलिन्द के बारे में और जानकारी तो रिपोर्टर से नहीं मिली लेकिन चन्द्रपुर इंजीनियरिंग कालेज के प्रोफेसर ने इसकी जानकारी जरुर दी कि मिलिन्द और कोई नहीं आलोक ही है। 1994-95 में कैपंस इंटरव्यू में ही उसे लार्सन एंड ट्रूब्रो में नौकरी मिल गयी थी। लेकिन मिलिन्द ने यह नौकरी एक साल में ही छोड़ दी। उसके बाद चन्द्रपुर में होने वाली माईनिंग को लेकर उसने उस दौर में मजदूरों के सवालों को उठाया। उसी दौर में नक्सली संगठन पीपुल्सवार के संपर्क में आया और मजदूरों को लेकर महाराष्ट्र कामगार किसान-मजदूर संगठन के बैनर तले काम करना भी शुरु किया। लेकिन 1997 से लेकर 2007 तक यानी करीब दस साल तक आलोक क्या करता रहा इसकी जानकारी कभी किसी को मिली नहीं लेकिन आलोक से मिलिन्द बनने को लेकर चन्द्रपुर इंजीनियरिंग कालेज के परिसर में किस्सागोई जरुर जारी रही। जिस दौर में नंदीग्राम में माओवादियों की गतिविधियां सामने आयीं, उसी दौर में कई बडी बारुदी सुरंग से पुलिस पर हमले भी हुये और उनके पीछे मिलिन्द का नाम ही आया लेकिन सितंबर 2009 में जब 22 पुलिसकर्मियों की मौत चन्द्रपुर-गढचिरोली की सीमा पर हुई तो पहली बार पुलिस ने पोस्टर निकाला और मिलिन्द को पकड़ने वाले को 50 हजार रुपये ईनाम देने का एलान किया। जानकारी यह भी मिली कि आलोक के बैच के दो और छात्र भी मिलिन्द के साथ हैं। मेरे दिमाग में वसंत ताम्तुमडे का चेहरा रेंग गया । हालांकि उसकी किसी ने पुष्टी नहीं की लेकिन 1990-94 के बैच को लेकर कालेज के प्रोफेसरो ने भी माना उस वक्त छात्रो ने जो सवाल खडे किये थे, उसके जवाब तो आजतक नहीं मिले लेकिन वह समस्या इस रुप में बड़ी हो सकती है, इसका अंदेशा छात्रो ने जरुर दिया था। यह अलग सवाल है कि किसी ने यह नहीं सोचा था कि कालेज के छात्र ही निकल कर इस धारा में बह जायेंगे।

मैकनिकल का छात्र बतौर माओवादी किस तरह का आदिवासियों के मुद्दो को लेकर प्रयोग या हिंसा को अंजाम दे रहा है
, यह भी स्थानीय लोगों से बातचीत में सामने आया । खासकर आदिवासी युवक-युवतियों को बडी तादाद में इस पूरे इलाके में अपने साथ माओवादियो ने जोड़ा है। उसमें भी युवतियों को हाथ में अधिकतर दलम की कमान है। महाराष्ट्र पुलिस के मुताबिक महिलाओं की भूमिका महाराष्ट्र - छत्तीसगढ़ सीमा के दलमो में सबसे ज्यादा बढ़ी है । करीब अस्सी फीसदी दलम की कमान महिलाओं के हाथ में है। क्योंकि यहां धारणा यही है कि आदिवासी समुदायों में महिलाओ की जो स्थिति है उसमें उनके सामने संकट गांव में रहने के दौरान ज्यादा है क्योंकि नयी आदिवासी पीढी से लेकर क्षेत्र में तैनात पुलिस कास्टेबल से लेकर बडे अधिकारियो की हवस का शिकार आदिवासी लडकियां होती हैं। और माओवादियो ने उनके हाथ में बंदूक थमा दी है। ऐसे में करीब नौ सौ से लेकर दो हजार तक ऐसी लडकियां माओवादियों के साथ बंदूक थामे हुये हैं, जो अपनी सुरक्षा के साथ साथ अपने बुजुर्ग मां-बाप की सुरक्षा भी बंदूक तले देख रही हैं। इससे इन क्षेत्रों में अपराध भी कम हुए हैं । आदिवासी लडके भी माओवादियो ते साथ इसलिये जुड़ रहे हैं क्योकि उनके सामने जीने का कोई दूसरा चेहरा नहीं है। समूचे इलाके में रोजगार है नहीं। जो उघोग काम रहे हैं, चाहे वह पेपर मिल हो या सीमेंट फैक्टरी या कोयला खनन, सभी में मजदूरो को दूसरे क्षेत्रो से लाने की परंपरा शुरु हो चुकी है। क्योंकि अकुशल मजदूरों का काम ठेके पर नीलाम होता है। कमोवेश सारे ठेकेदार दूसरे प्रांतो के हैं तो मजदूर भी दूसरे प्रांतो से लाये जाते हैं। जिससे किसी तरह से मजदूरी को लेकर कोई कानूनी अड़चन ना आये या किसी तरह का कोई आंदोलन ना खड़ा हो जाये। हर नौ-दस महिनो के बाद मजदूरों को भी बदल दिया जाता है।

ऐसे वातावरण में आदिवासी युवकों को अपने साथ जोडने की पहल दो-तरफा हुई है । एक तो सीधे बंदूक उठाकर जंगल जाने को तैयार है और दूसरे गांव में रहकर ही स्वावलंबन की परिस्थितियों को आगे बढ़ाने में लगे हैं। खास कर खेती और बंबू के जरीये कुटीर उघोग का चलन इन क्षेत्रो में शुरु किया गया है। जिसका पैसा बैंको से नहीं तेंदू पत्ता को खरीदने वाले ठेकेदार देता है। क्योकि इन ठेकेदारो पर दलम की बंदूक सटी होती है। इसी तरह से आदिवासी जंगल पदार्थो से जो कुछ भी बाजार में बिकने लायक बनाते हैं, उसके लिये धन का मुहैया इसी स्तर पर उघोगों से लेकर ठेकेदारों तक से माओवादी ही करते हैं। चन्द्रपुर कालेज के प्रो रानाडे और एडवोकेट सालवे के मुताबिक करीब चलीस हजार अदिवासी ग्रामीणों की रोजी रोटी इसे से चलती है। चन्द्पुर के एडवोकेट सालवे के मुताबिक माओवादियों को लेकर पुलिस और अर्द्दसैनिक बलो की नयी पहल ने एक मुश्किल जरुर खडी कर दी है कि माओवादी अपने साथ किसी भी आदिवासी को साथ लेने से पहले जो स्थानीय मुद्दो से दो-चार करवाते थे और एक लंबी ट्रेनिग होती थी
, उस पर रोक लग गयी है क्योंकि पुलिस ऐसे किसी भी संगठन को अब काम करने की ना तो इजाजत देती है और कोई किसी भी स्तर पर मानवाधिकार से लेकर मजदूरी या रोजगार का सवाल उठाता भी है तो पहले ही राउंड में वह माओवादी करार देकर जेल में बंद कर दिया जाता है। ऐसे में बिना कोई ट्रेनिंग ही बंदूक उठाने की आदिवासी पहल ने बड़ी तादाद में हिंसा को भी बढ़ावा दिया है और खासे आदिवासी मारे भी जा रहे हैं। और यह पूरा इलाके उसी माओवादी कामरेड मिलिन्द के इलाके में आता है जहां उसे पकड़वाने का इनाम पचास हजार रुपये है।

Monday, January 25, 2010

कामरेड बसु नहीं लाल सलाम की मौत

कामरेड ज्योति बसु...लाल सलाम । मुट्ठी भिची हुई और हाथ हवा में उठाकर लाल सलाम कहने की ताकत कितने वामपंथी नेताओ में है..लगातार टेलीविजन स्क्रीन पर इसे ही देखने के लिये बैठा रहा। फोन पर ज्योति बाबू के बारे में पहले दो घंटे कमेन्ट्री करते वक्त और बाद में एंकरिंग करते वक्त वामपंथियों की नयी पीढी को पढ़ने की कोशिश कर रहा था । नयी पीढ़ी...सीपीएम की नयी पीढ़ी...नेताओ की नयी पीढ़ी...जिसकी आंखें नम थी लेकिन जोश ढीला था। कोई पहला और आखिरी कामरेड नहीं मरा था। सीपीएम को बनाने वाली पहली पोलित ब्यूरो के नौ रत्नो में से आठ की मौत कामरेड ज्योति बसु के जीते जी हुई। हर को कामरेड बसु ने लाल सलाम कहा। कामरेड बसु की आंखें नम जरुर हुईं लेकिन कामरेड कभी टूटे हुये नहीं लगे। लेकिन कैमरे पर कामरेड ज्योति बसु को याद करते वक्त किसी वामपंथी नेता के मुंह से लाल सलाम नहीं निकला...क्यों?


सीपीएम के पहले पोलित ब्यूरो सदस्य ए के गोपालन की मौत
1977 में हुई । 1983 में कामरेड ज्योति बसु के सबसे करीबी पोलित ब्यूरो सदस्य प्रमोद दासगुप्ता की मौत हुई...लेकिन लाल सलाम कह कामरेड बसु जुटे रहे । फिर 1985 में पी सुदरय्यै, 1987 में पी रामामूर्त्ति, 1990 में बीटी रणदिवे, 1992 में एम वासवापुनैया, 1998 में ईएमएस नंबूदरीपाद और 2008 में कामरेड सुरजीत की मौत के बाद कामरेड बसु कितने अकेले हो गये होंगे...इसका अहसास 1964 में पहली पोलित ब्यूरो के उन सभी सदस्यों के निधन के बाद अकेले बचे कामरेड ज्योति बसु को जरुर हुई होगी। सीपीआई के कामरेड डांगे से वैचारिक तौर पर दो-दो हाथ करने के लिये जब कोई सोच भी नहीं सकता था तब कामरेड बसु एक नया राजनीतिक प्रयोग करना चाहते थे । सीपीआई नेशनल काउंसिल में शामिल होने के लिये दिल्ली से तेनाली यात्रा के दौरान, जो ट्रेन की तीसरे दर्जे में बैठकर कामरेड बसु ने अपने उन साथियो के साथ की थी, जो सीपीएम की पहली पोलित ब्यूरो के सदस्य बने....उनके सामने कामरेड डांगे की उस सोच को रखा जो भारतीय या कहे शायद बंगाल के परिपेक्ष्य में कामरेड बसु को ठीक नहीं लगी। डांगे जिस तरह वर्ग सहयोग की नीतियों को अपनाते और पैसे का इस्तेमाल कर अपनी राजनीतिक स्थिति को मजबूत करते...कामरेड बसु इसे 1962-63 में ही बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे और ट्रेड यूनियन के साथ साथ राजनीतिक तौर पर जनता को साथ लेने के सवाल को उन्होंने दिल्ली से तेनाली यात्रा के दौरान हर किसी को समझाया....असर यही हुआ कि 11 अप्रैल 1964 को सीपीआई नेशनल काउंसिल से 32 सदस्यों ने विद्रोह किया। और तीन महीने बाद ही सीपीएम बना कर पहली बार उस सरोकार को कामरेडशीप के साथ जोडने की कोशिश की जिसकी आग में तपकर ज्योति बसु कामरेड बने ।

40 के दशक में बंगाल और देश ने एक तरफ अगर हर मुश्किल हालात को देखा तो कामरेड बसु हर घटना से जुड़ते और लोगों को जोड़ते चले गये। चाहे वह महाअकाल हो या विभाजन और उससे पनपे दंगे या फिर शरणार्थियों के सवाल । हर परिस्थिति से कामरेड बसु ने खुद को जोड़ा और संयोग से उस दौर के वह सभी कामरेड जो ज्योति बसु को दिशा दे रहे थे या ज्यति बसु से जो जो दिशा ले रहे थे, 2010 में कोई बचा हुआ नहीं है । कामरेड ज्योति बसु ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1940 में उत्तर 24 परगना जिले में स्थित कांचरापाडा रेलवे वर्कशाप के गेट पर 30-35 मजदूरों के सामने भोंपू पर बोलते हुये की और आखिरी सलामी में समूचा बंगाल लाल सलाम कहने उमड़ा।

यह सवाल मुश्किल है कि मौजूदा सीपीएम की नयी पीढ़ी....
15 सदस्यीय पोलित ब्यूरो या 92 सदस्यीय सेन्ट्रल कमेटी , जो अपने को सबसे समझदार मानती समझती है, उससे पूछा जाये कि लाल सलाम की खामोशी के पीछे राज क्या है। सभी वामपंथी नेता श्रद्धांजलि देने कोलकत्ता पहुंचे थे। 18 जनवरी को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दिल्ली के सीपीएम मुख्यालय में कामरेज बसु को श्रद्धांजलि देने पहुंचे । उनके सामने मौजूदगी दिखाने के लिये सीपीएम पोलित ब्यूरो सदस्य सीतीराम येचुरी हवाई जहाज पकड़कर कोलकत्ता से दिल्ली आये । मनमोहन सिंह ने कामरेड बसु की तस्वीर के सामने गुलाब के फूल की पंखुडियों को डाला। किताब में लिखा...ज्योति बसु महान नेता थे । फिर सीताराम से गुफ्तुगू कर लौट गये। सीताराम येचुरी भी हवाई जहाज पकड़कर कोलकत्ता वापस लौट गये। कामरेड ज्योति बसु के जीवित रहते कई मौके आये जब किसी कामरेड की मौत उन्हें अंदर से हिला गयी और कामरेड बसु ने निर्णय लिया कि वक्त और धन की जरुरत देशवासियों को ज्यादा है तो कामरेड बसु ने कोलकत्ता नहीं छोड़ा।

असल में कामरेड बसु जब
1977 में पहली बार राइटर्स बिल्डिंग पहुंचे तो सामने पड़ी फाइलों में बंगाल की माली हालत का ही सरकारी आंकड़ा देखा । 18 में से 14 जिले देश के सबसे गरीब जिलों में से थे । और जो पहला निर्णय बतौर सीएम राइटर्स बिल्डिग में 21 जून 1977 को लिया गया वह राजनीतिक बंदियो की रिहायी का आदेश था। यह वही बंदी थे, जिन्हें नक्सलवादी कह कर कांग्रेस की सिद्धार्थ शंकर रे की सरकार ने जेलों में बंद किया था। नयी पीढ़ी...सीपीएम की नयी पीढ़ी जो माओवादियों से घबरायी हुई है...कामरेड बसु कभी घबराये नहीं । 1967 में जब कामरेड बसु डिप्टी सीएम बने तो तीन महीने बाद ही नक्सलबाडी कृषक संग्राम समिति का गठन किया गया तो कामरेड ने लाल सलाम ठोंका। लेकिन दिसबंर 1970 में जब यादवपुर विवि के उपकुलपति गोपाल सेन की हत्या नक्सलियों ने कर दी तो कामरेड बसु ने खुला विरोध किया। अगस्त 1976 में कांग्रेस सरकार ने स्टार थियेटर पर हमला करके उत्पल दत्त के दु:स्वप्नेर नगरी के नाटक के मंचन को रोका तो कामरेड बसु ने सरकार की खुली आलोचना की। नक्सलवाद के खिलाफ सरकार में आने के बाद बसु ने दो तरफा पहल की और चारु मजूमदार से लेकर कानू सन्याल की गिरफ्तारी हुई तो उस जनता के बीच भी कामरेड बसु पहुंचे जहा सबसे घना अंघेरा था । भूमि सुधार , पंचायती राज और ईमानदारी ने कामरेड बसु का रास्ता खुद ब खुद साफ कर दिया। बुद्धदेव की तरह कामरेड बसु को नक्सलियों के खिलाफ पुलिस या केन्द्र के अर्दद्सैनिक बलो की जरुरत कभी नहीं पड़ी। जनता कैडर बनी और कैडर सुरक्षाकर्मी। लेकिन कामरेड ज्योति बसु फिसले भी । 1962 में माओ की खुली तरफदारी कामरेड बसु ने ही की...फिर इंदिरा गांधी से करीबी कामरेड बसु की ही रही। यहां तक की साल्टलेक के जिस इंदिरा भवन में कामरेड बसु आकर बीस साल रहे, वह इंदिरा गांधी ने ही भेंट किया था। यह वही कांग्रेस थी, जो कामरेड बसु को प्रधानमंत्री बनता देखना नहीं चाहती थी। 1996 में जब संयुक्त मोर्चा सरकार बनाने की राह पर था तो सभी वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बनाने चाहते थे। वीपी सिंह ने ही उस समय कामरेड ज्योति बसु का नाम लिया था। उस दौर में संयुक्त मोर्चे की तरफ से असल पहल मेनस्ट्रीम के संपादक निखिल चक्रवर्ती कर रहे थे । और उपराष्ट्रपति एम के नारायणन के लगातार संपर्क में थे। लेकिन कांग्रेस की तरफ से उस समय कामरेड बसु के नाम पर चुप्पी साधी गयी थी और जो कहा गया था उसका मतलब यही था कि कामरेड बसु नहीं चलेंगे....क्योकि दक्षिण का एक ऐसा नेता कांग्रेस चाहती थी जो सीएम भी रहा हो। तभी देवगौडा का नाम सामने आया था।

उस वक्त सवाल यह नहीं था कि सीपीएम की सेन्ट्रल कमेटी या पोलित ब्यूरो कामरेड बसु के नाम पर सहमति दिखा देती। बड़ा सवाल था कि कामरेड बसु के नाम पर सहमति के बाद जब कांग्रेस इस नाम को खरिज करती तो क्या असर होता। मुश्किल यह नहीं है कि सीपीएम की नयी पीढ़ी इन स्थितियों से वाकिफ नहीं है और वह ऐतिहासिक भूल का मतलब शायद देश के राजनीतिक हालात बेहतर बनाने से कामरेड बसु को जोडकर अपनी वर्तमान स्थिति बेहतर बनाने की जुगत में जुटे हैं। मुश्किल यह है कि आम बहुसंख्यक लोगों से जुड़ना और आम लोगों को पार्टी से जोड़ने का मिजाज पूरी तरह खत्म ही नहीं किया गया बल्कि उस सपने की भी हत्या कर दी गयी, जिसे अनजाने में ही हर युवा नब्बे के दशक तक लेफ्ट सोच के साथ विद्रोही तेवर लिये अपने कालेज से लेकर हर सड़क-चौराहे पर नजर आता था। वामपंथी होने के लिये पोलित ब्यूरो या सेन्ट्रल कमेटी या कैडर बनने की आवश्यकता नही है, यह तो बंगाल ने कामरेड ज्योति बसु को लाखों की तादाद में जमा होकर लाल सलाम कहकर जतला दिया कि वह अभी वामपंथी है....लेकिन लाल सलाम पर सीपीएम की खामोशी ने जरुर दिखला दिया कि वही वामपंथी नहीं रही। और यह उस सपने की मौत है जिसे जगाने में कामरेड ज्योति बसु ने जिन्दगी के साठ साल लगा दिये। इसलिये शहर में दिया गया वह आखिरी लाल सलाम था जो कामरेड बसु की मौत के साथ फुर्र हो गया...अब सवाल गांव और जंगल का है।

Saturday, January 23, 2010

क्यों मुंबई में है सभी की जान

दुनिया के नक्शे पर जिस शहर की पहचान सबसे बड़े वित्ताय शहर के तौर पर हो और जिस शहर में दुनिया के सबसे ज्यादा अरबपति हों, क्या उस शहर को सिर्फ मराठी मानुस के नाम पर अलग किया जा सकता है। असल में मराठी मानुस की राजनीति तले मुंबई का मतलब वह आर्थिक नीति भी है जिसके सरोकार आम मुंबईकर से नही हैं। मुंबई की भागीदारी देश के जीडीपी में 5 फीसदी है। यह वह शहर है, जहां वर्ल्ड ट्रेड सेंटर का दफ्तर भी है और फॉरच्यून ग्लोबल 500 कंपनियो में से कई के दफ्तर हैं। देश के टाप दस वित्तीय संस्थान आरबीआई,एसबीआई,एलआईसी,रिलायंस,गोदरेज टाटा ग्रुप,से लेकर एलएंडटी तक का मुख्यालय है।

इतना ही नहीं सिर्फ मुंबई से 33 फीसदी इनकम टैक्स बटोरा जाता है। 20 फीसदी सैन्ट्रल एक्साइज टैक्स, 40 फीसदी विदेशी व्यापार यही होता है और साठ फीसदी कस्टम ड्यूटी यहीं से वसूली जाती है । चालीस बिलियन रुपया कारपोरेट टैक्स के तौर पर मुबंई से ही आता है। और तो और बालीवुड से लेकर सैटेलाइट नेटवर्क और बडे पब्लिशिंग हाउस के हेडक्वाटर भी मुंबई में हैं। और इन सभी बड़े धंधों को चलाने में अधिकतर गैर महाराष्ट्रीयन ही जुड़े रहे हैं।

लेकिन यहीं से मुंबई को लेकर एक दूसरा सवाल भी खड़ा होता है कि जिन धंधों पर मराठी मानुस की राजनीति तले निशाना साधा जा रहा है, वह हमेशा से गैर-महाराष्ट्रीयन ही करते रहा है। टैक्सी चालन हो या ऑटोचालन या फिर हॉकर का धंधा हो या धोबी या दूध बेचने का, महाराष्ट्रीयन ने यह काम कभी किया नहीं। फिर क्या वजह है कि इन कामों को लेकर भी मराठी मानुस ठाकरे परिवार की राजनीति तले खड़ा हो जाता है। असल में मुंबई समेत समूचे महाराष्ट्र के रोजगार के हालातों की स्थिति बीते दो दशकों में सबसे बुरी हुई है। मराठी मानुस सबसे ज्यादा टैक्सटाइल मिलों में काम करता रहा है। लेकिन मुबंई की सभी और राज्य के नब्बे फिसद टैक्सटाइल मिले बंद हो चुकी हैं। सोलापुर सरीखा शहर जिसकी पहचान एकवक्त मनचेस्टर के तौर पर होती थी, आज वह शहर मजदूरों के लिये मरघट हो चुका है। मिलो की जमीन पर रियल स्टेट का कब्जा है। राज्य के 27 जिलों में एमआईडीसी यानी महाराष्ट्र औघोगिक विकास निगम बीमार है। करीब नौ लाख से ज्यादा मजदूर इस दौर में बेरोजगार हुये हैं। जो पीढ़ी मिलों में काम कर बड़ी हुई है, अब उनके बेटो के पास काम नहीं बच रहा तो ऐसे में पहली और आखिरी मंजिल मुंबई पलायन ही हो चली है। खासकर दलित, पिछडा और ओबीसी तबके का पास रोजगार के कोई साधन नहीं है। वहीं इन परिस्थितियो के बीच मंदी के दौर ने रोजगार के और लाले पैदा किये हैं। क्योकि मंदी में हीरे की सफाई से लेकर आईटी और हेल्थकेयर से जुडे महाराष्ट्रीयन कामगारो की सबसे ज्यादा नौकरी गयी है। जो मुंबई एक वक्त देश के कुल कामगारों में सबसे ज्यादा 15 फीसदी रोजगार देता था, अब वह घटकर 7 फीसदी पर आ पहुंचा है ।

जाहिर है इस तबके से जुड़ा कोई भी सवाल कोई भी राजनीतिक उठाये, उनकी नजरों में वह नायक सरीखा होगा ही । यहा याद करना होगा साठ के दशक में बाला साहेब ठाकरे की राजनीति । उस दौर में बाला साहेब ने लुंगी को पुंगी बनाने का नारा देकर दक्षिम भारतीयों पर निशाना साधा था। तब मोरारजी देसाई से लेकर मधु दंडवते और जार्ज से लेकर कांग्रेस के मुख्यमंत्री तक ने ठाकरे की राजनीति को लुंपन और प्रजातंत्र के खिलाफ करार दिया था। लेकिन 1968 के बीएमसी चुनाव में ही ठाकरे को सफलता मिली और शिवसेना की राजनीतिक जमीन बन गयी।

चालीस साल बाद कुछ इसी तरह राज ठाकरे ने भईया यानी उत्तर भारतियों पर निशाना साधा । जिसपर संसद से लेकर सुप्रीम कोर्ट ने इसे अलोकतांत्रिक करार दिया और राज्य सरकार ने भी इसे घातक करार दिया। लेकिन विधानसभा चुनाव में जिस तरह परिणामों को ही राज ठाकरे की राजनीति ने उलट-पुलट दिया, उससे राज की राजनीतिक जमीन बन कर खड़ी हो गयी। सवाल है सत्ताधारी कांग्रेस-एनसीपी ने पहली बार उसी लुंपन-अलोकतांत्रिक और गैर प्रजातंत्रिक सोच को राज्य की नीति का हिस्सा बनाने की पहल शुरु की तो इसका सीधा मतलब सत्ता पहली जरुरत का फार्मूला ही निकल कर आया। सवाल है बिहार-उत्तर प्रदेश से अगर महाराष्ट्र की इस राजनीति का विरोध होता है तो फिर इससे कैसे इंकार किया जा सकता है कि उनकी जरुरत तो विरोध की ही होगी। क्योंकि बिहार में अगर 54 फीसदी तो उत्तरप्रदेश में 77 फीसदी आबादी खेती पर टिकी है और बीते जिन 20 वर्षो में महाराष्ट्र के 30 लाख से ज्यादा औगोगिक मजदूरों के सामने रोजगार का संकट आया कमोवेश इतनी ही संख्या में बिहार-यूपी के खेत-मजदूर और किसान बेरोजगार और बेजमीन हो गया। जबकि ओधोगिक धंधे भी खत्म हुये मिलो में ताले लगे और जमीन की कीमत ही आखरी उपाय जीने का बचा।

इन परिस्थितियों में समाधान के लिये अगर महाराष्ट्र की राजनीति पर निशाना साध कर कोई समाधान चाह रहा है तो मुश्किल है। क्योकि रास्ता उस अर्थव्यवस्था से होकर ही गुजरता है, जिसने आर्थिक सुधार के बाद आम आदमी से सरोकार खत्म कर लिये हैं। यह मनमोहन इक्नामिक्स का ही खेल है कि जिस मुबंई में दुनिया के सबसे ज्यादा अरबपति रहते हैं, उसी मुंबई शहर में सबसे ज्यादा गरीब भी रहते है । इतना ही नहीं जिस महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा पलायन हुआ है वहां दुनिया के सबसे ज्यादा शहरी गरीब रहते हैं। आंकड़ों के लिहाज से मुंबई में कुल 68 हजार 459 टैक्सी चालकों में से 24 हजार उत्तर भारतीय है और सवा लाख ऑटो चालक में से 54 हजार उत्तर भारतीय हैं। वहीं उत्तर भारत में करीब तीन लाख मराठी रोजगार कर रहे हैं। इसलिये सवाल राजनीति से आगे का है। राजनीति का सच तो देश के सामने है और ठाकरे की राजनीति हो या मायावती की या फिर लालू की वह तो हमेशा पारदर्शी ही रहेगी। लेकिन सवाल है जो आथिक नीतियां अपनायी जा रही हैं, उसमें समाज के भीतर ही खाई इतनी चौड़ी होती चली जा रही है कि एक तबका यह मान चुका है कि दूसरा तबका उसके जीने में खलल डालता है। विकास की यह सोच मराठी मानुस की राजनीति से कही आगे का फलसफा है। इसे रोक सकते हैं तो रोकें।

Wednesday, January 20, 2010

राष्ट्रपति के मायके का हाल : वेलकम टू मिहान, शेतकारी चे श्मशान

विदर्भ की बहू प्रतिभाताई पाटिल जब राष्ट्रपति बनी तो तुलसाबाई गायकवाड ने सर मुंडा लिया। उसे भरोसा हुआ कि उसकी हालत देखकर राष्ट्रपति उनसे जरुर पूछेगी ऐसा क्यो किया और जब जानकारी मिलेगी तो प्रतिभा ताई जरुर कोई पहल करेंगी । हुआ भी यही राष्ट्रपति बनने के बाद जब पहली बार नागपुर हवाईअड्डे पर राष्ट्पति उतरी तो तुलसाबाई समेत सर मुंडाकर दर्जनों महिलाओं को उन्होंने हवाईअड्डे के बाहर प्रदर्शन करते देखा। हाथों में तख्तियां थीं, जिस पर लिखा था-गांव नहीं, खेती नहीं, आदमी भी नहीं....तो फिर मिहान-सेज भी नहीं । किसी तरह राष्ट्रपति तक एक पर्चा पहुंचाने में तुलसाबाई सफल हो गयीं। पर्चा लेकर राष्ट्रपति अपने ससुराल अमरावती चली गयीं। तुलसाबाई को लगा कि उनकी फरियाद जरुर सुनी जायेगी। और कोई ना कोई आदेश दिल्ली से जरुर आयेगा, जिसमें उनकी जमीन को उनको वापस देने का फरमान होगा। लेकिन तुलसाबाई का यह सपना राष्ट्रपति की अगली ससुराल यात्रा के साथ टूट गया जब नागपुर हवाईअड्डे पर शेतकारी समिति को खड़े देखकर राष्ट्रपति के सहायक ने उनसे जाकर कहा," आप सभी इतनी बडी योजना का विरोध क्यों कर रहे हैं। योजना पूरी होने दें । मुआवजा तो सभी को मिल ही रहा है। " तुलसाबाई को जब इसकी जानकारी मिली कि योजना को बनता हुआ देखना तो राष्ट्रपति भी चाहती हैं तो तुलसाबाई ने कीटनाशक दवाई खा ली। गांववालों को पता चला तो किसी तरह अस्पताल ले गये। और तुलसाबाई की जान बच गयी।


29 दिसंबर 2009 को सुबह आठ-साढे आठ बजे के करीब मैं भी नागपुर हवाईअड्डे से सटे तुलसाबाई के गांव शिवणगांव पहुचा। गांव में घुसते ही सामने बडे से ब्लैक बोर्ड पर नजर पड़ी , वेलकम टू मिहान, शेतकारी श्मशान । यह आप लोगों ने लिखा है । शिवणगांव के द्वार पर पंचायत सरीखे घेरे में बैठे लोगो से जब मैंने यह सवाल पूछा तो ठेठ मराठी अंदाज में सत्तर पार एक महिला ने कहा..मि ळिखतो । ऐसा क्यो,....ई श्मशान ऩाही-तर काय ? आपका नाम, तुलसाबाई गायकवाड । तुलसाबाई के चेहरे पर आक्रोष की लकीरे साफ दिखायी दे रही थी लेकिन अपनी बात कहते हुये वह जिस साफगोई से सरकार और विकास के धंधे पर अंगुली उठा रही थी उसने एक साथ कई सवाल खडे किये। सत्तर पार तुलसाबाई सत्तर के दशक में भू-दान के लिये विनोबा भावे के साथ मध्य भारत के कई हिस्सो में महीनो घूमी। यह जानकारी जब गांववालों ने दी तो तुलसाबाई से मैने सीधा सवाल किया विनोबा बावे खुदकुशी के खिलाफ थे....आपने खुदकुशी करने का प्रयास भी क्यों किया। तब सरकार भूमिहिनों के साथ थी। किसानो की फिक्र सरकार को थी। तब भूमिहिनों के लिये जमीदारों से विनोबा जमीन दान करवा रहे थे, तो अब सरकार ही जमींदार बनना चाहती है। जिनके पास सबकुछ है, उन्हें आराम से हवाई सफर करवाना चाहती है और इसके लिये हमारी जमीन जबरदस्ती लेना चाहती है। तभी मेरी नजर इंडियनएयरलाइन्स के विमान पर पडी जो नागपुर हवाई अड्डे पर उतर रहा था । एकदम बगल से जहाज को उतरता हुआ हर गांववाले तो हर वक्त ऐसे ही देखते होंगे तो उनके दिल पर क्या बीतती होगी क्योकि शेतकारी समिति आंदोलन की कमान संभाले बाबा डेउरे ने बताया कि गांववालों की अधिकतर जमीन नागपुर में तीसरी हवाई पट्टी बनाने की योजना के घेरे में ही आ रही है और तुलसाबाई की जमीन भी।

शिवणगाव की जिस
590 हेक्टेयर जमीन पर सरकार आंखे गढाये बैठी है उसपर सीधे बीस हजार किसानों-मजदूर परिवारों की रोजी रोटी टिकी है। और यह अपनी तरह की पहली योजना है जिसमें शहर के हद में आने वाली जमीन को भी कौडियो का मुआवजा देकर परियोजना की बलि चढाया जा रहा है। तुलसाबाई की माने तो नागपुर शहर की सीमा के भीतर आने वाले शेवनगांव का यह नया सच है, गांव नहीं श्मशान है। असल में 1952 से नागपुर म्यूनिसिपल कारपोरेशन की हद में आने वाले शेवनगांव को बीते पचास साल में कभी इसका अहसास नहीं हुआ कि समूचा गांव ही विकास की लकीर तले खत्म हो जायेगा । 21 दिसबंर 2001 को महाराष्ट्र कैबिनेट ने मिहान और एसइजेड पर जैसे ही मुहर लगायी वैसे ही दर्जन भर गांव के आस्तित्व पर सवालिया निशान लग गया और दर्जनों बहुराष्ट्रीय कंपनियों की कमाई के वारे-न्यारे होते नजर आये। शिवनगांव और चिंचभुवन गांव अगर नागपुर शहर की हद में तो खापरी,तेलहरा, दहेगांव,कलकुट्टी और इसासनी गांव नागपुर सीमा से सटे ग्रामीण इलाके हैं। संकट दो लाख से ज्यादा लोगों पर है और सरकार के पास इन दो लाख से ज्यादा लोगों को संकट से उबारने के लिये डेढ़ लाख रुपये प्रति एकड़ का मुआवजा है। सवाल है कि नागपुर में 6397 हेक्टेयर बंजर जमीन कहां से आयेगी। क्योंकि मिहान परियोजना के लिये 4311 हेक्टेयर तो एसईजेड के लिये 2086 हेक्टेयर जमीन चाहिये। मिहान का मतलब है मल्टी माडल इंटरनेशनल हब एयरपोर्ट। और चूंकि नागपुर हवाईअड्डा नागपुर शहर में है तो मिहान इससे अलग कैसे हो सकता है । और जब नागपुर शहर की शुमारी देश के दस सबसे तेजी से विकसित होते शहरो में हो तब डेढ़ लाख रुपये मुआवजे का मतलब विकास तले जमीन के गरीब मालिकों को चिटियों की तरह रौदंना भी है।

ऐसे में सरकार दस चेहरे वाले रावण की तर्ज पर खुद को गांववालों के सामने रखे हुये है। हर चेहरा सरकार से जुडा है लेकिन हर चेहरे का धंधा अलग है और हर चेहरा गंववालों को बरगला रहा है कि जमीन दे दो....इतने में नहीं तो इतने में बस फायदे में रहेंगे। ज्यादातर जमीन खेती योग्य है, जिसमें तीन-चार फसली होती है। सरकार समझ रही है कि खेती योग्य जमीन को परियोजना के घेरे में लाने पर सवाल उठेंगे ही। इसलिये सरकार की तरफ से ही नेताओ ने जमीन के लिये घन की पोटली खोल रखी है। कमोवेश हर राजनीतिक दल का नेता यहा की जमीन पर कब्जा चाहता है, जिससे वह महाराष्ट्र के सबसे विकसित होते इलाके में अपने मुनाफे के अनुकूल होटल से लेकर कालेज या इंडस्ट्री बना ले। जो नेता चेहरा छुपाना चाहते है वह अपने करीबी धंधेवालों के जरीये मैदान में हैं। एक तरफ सरकारी मुआवजा डेढ लाख रुपये प्रति एकड़ है तो दूसरी तरफ यहा की जमीन ढाई करोड प्रति एकड़ तक बिकी है। किसी भी विकसित शहर में जो हो सकता है वह सब कुछ इन खेत खलिहानों के बीच अभी से मौजूद नजर आने लगा है। क्रिकेट स्टेडियम भी बनाकर बीसीसीआई ने यहा मैच कराना शुरु कर दिया क्योंकि बीसीसीआई के अध्यक्ष शंशाक मनोहर नागपुर के ही हैं। परियोजना के पचास फीसदी हिस्से के पुनर्वास का काम रिटोरक्स कंपनी को मिला है, जिसके सर्वेसर्वा शिरोडकर है और शिरोडकर के ताल्लुकात बीजेपी के नये अध्यक्ष नितिन गडकरी से कितने करीबी के हैं, यह महाराष्ट्र की राजनीति में किसी से छुपा हुआ नहीं है क्योंकि सडक और पुल से लेकर पुणे-मुबंई एक्सप्रेस वे के जरीये बतैर पीडब्लूडी मेंत्री के तौर पर गडकरी को पहचान दिलाने में शिरोडकर की खास भूमिका भी रही। शहर के जीरो माइल से बीस किलोमीटर दूर खेत खलिहाने के बीच कंक्रीट का जो हौवा सरकार की परियोजनाओ से खड़ा किया गया है, इसमें किसानों के सामने संकट कुछ इस तरह खड़ा कर दिया गया है कि जैसे यहा रहते हुये खेती करना महापाप होगा और पांच सितारा संस्कृति के बीच किसानों की मौजूदगी सिस्टम को सडाद ही देगी इसलिये डेढ लाख प्रति एकड़ के मुआवजे और ढाई करोड प्रति एकड़ के बाजार रेट के बीच किसानों के पास जमीन बेचने के अलावे कोई दूसरा रास्ता नहीं है। और जो किसानों की जमीन खरीदता भी है वह सरकारी परियोजना के घेरे में आयी जमीन का वारंट दिखाकर ढाई लाख रुपये से ज्यादा प्रति एकड़ लगाता नहीं। और किसान भी सरकारी डेढ़ लाख के बदले किसी निजी पार्टी के ढाई लाख रुपये ज्यादा पंसद करता है। लेकिन यही ढाई लाख प्रति एकड़ की जमीन प्राईवेट पार्टी के हाथ में आते ही रंग बदलने लगती है और पचास लाख से अस्सी लाख के बीच खर्च करने के बाद जमीन खुद-ब-खुद सरकारी परियोजना या मिहान या एसईजेड से बाहर हो जाती है और झटके में जमीन की कीमत ढाई करोड रुपये प्रति एकड़ छूने लगती है।

यह गणित कितनी सरलता से किसानों के गांव के गांव को मरघट में बदलता है और मरघट को कैसे धंधेबाज किसी पांच सितारा जमीन में बदल देते है इस सब नंगी आंखों से राज्य की नीतियों को बनाने वाले ना सिर्फ देख रहे हैं बल्कि संयोग से इसमें शरीक भी है ।
21 दिनो के अन्नत्याग के बाद जिन्दगी त्यागने वाले नारायण बारहाते के पास बीस एकड़ जमीन थी । जमीन अब भी है लेकिन नारायण के तीन बेटे और इन तीन बेटों के आठ बेटों में जमीन के इतने टुकडे हो चुके हैं कि दो एकड़ भी किसी एक के हिस्से में नहीं आयेगी। तो जमीन जस की तस है जो बिना खेती बंजर हो रही है और मुआवजे को लेकर सरकारी अधिकारी सीधे कह रहे हैं डेढ लाख रुपये से ज्यादा मुआवजा बिलकुल नहीं। लेकिन बिलकुल नहीं का विचार बाजार को कैसे आगे कर सरकार की धंधेबाज नीति का विचार बन चुका है इसकी शिकायत सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची। लेकिन विकास की मोटी लकीर के आगे सभी खामोश ही है और यह खेल कैसे चलता है यह शिवणगांव और चिचभुवन गांव के जरीये भी समझा जा सकता है। नागपुर शहर की हद में आने वाले दो गांव शिवनगांव और चिचंभुवन गांव की खेती की जमीन एक दूसरे से सटी हुई है। शिवनगांव में श्रीरामजी गिरे की 25 एकड़ खेती की जमीन पर खड़े होकर कोई कह ही नहीं सकता कि उसके खेत से सटे 41.14 एकड़ जमीन चिंचभुवन की है। दो अलग अलग गांव तो बंटते ही है परियोजना की नजर भी जमीन के मालिक को देखकर कैसे बदल जाती है यह श्रीरामजी गिरे की 25 एकड़ पर गाढे जा रहे पिलर और उससे सटे 41.14 एकड़ जमीन को कंटीले तार से घेर कर सुरक्षित जमीन के बोर्ड से भी समझा जा सकता है। यानी 25 एकड़ जमीन तो परियोजना का हिस्सा है लेकिन उससे सटी 41.14 एकड़ जमीन परियोजना से अलग है । यह 41.14 एकड़ जमीन मुबंई हाईकोर्ट के जस्टिस जयनारायण पटेल की थी । 2002 में जब कारगो हब के लिये जमीन रेखागिंत की जा रही थी तो चिंचभुवन की यह 41.14 एकड़ जमीन भी परियोजना का हिस्सा बनी लेकिन छह महीने के भीतर ही यह जमीन परियोजना से अलग हो गयी और जस्टिस पटेल के परिवार के सदस्यो के नाम इस जमीन को 2.55 प्रति एकड़ के हिसाब से बेच दी। 41.14 एकड़ जमीन की कीमत 105 करोड रुपये लगी। वहीं इस जमीन से सटे श्रीराम गिरे की जमीन जो शिवनगांव में आती है । उस 25 एकड़ जमीन की एवज में सरकार की तरफ से महज साढे सैंतीस लाख रुपये मिले। इन साढे सैतीस लाख रुपये को लेकर गिरे परिवार ने क्या पाया क्या गंवाया इसका अंदाजा इसी से मिल जाता है कि श्रीरामजी गिरे के दो छोटे भाई संतोष और धनराज के अलावे की तीन बहनें आनंदा, अनुषा और अंधाना भी है। परिवार में तीनो भाइयों के नौ लड़के और पांच लड़कियां हैं। बैंक में रखे साढ़े सौंतीस लाख रुपये बीते छह साल में घटकर 18 लाख रुपये पर पहुंच चुके हैं । रोजी रोटी का एकमात्र जरिया बैंक में जमा यही बचे 18 लाख रुपये हैं। तीन बहनों की शादी के लिये अलग से कोई पूंजी परिवार के पास है नहीं। जब मुआवजा मिला था तब तीनो नाबालिक थीं अब शादी कैसे होगी यह परिवार में हर किसी की समझ से बाहर है। पहले खेती समेत एक एकड़ जमीन में अच्छा लडका गांव में मिल जाता था। वहीं अब छह लाख रुपये भी अच्छे लडके के लिये कम हैं। असल में जमीन का निर्धारण भी परियोजना के लिये जिस तर्ज पर हुआ है, उसमें हर गांववाला मारा गया और हर नेता या प्रभावी शख्स बच गया। कांग्रेस के पूर्व मंत्री सतीश चतुर्वेदी के कालेज परिसर की खाली जमीन शिवनगांव से सटी है लेकिन इस जमीन को परियोजना में नहीं लिया गया। अशोक चव्हाण मंत्रीमंडल में मंत्री विजय वहेट्टीवार के कालेज का निर्माणकार्य जारी है। उनकी जमीन परियोजना में नहीं आयी जबकि इसके आगे पीछे की जमीन परियोजना में आ गयी। पूर्व मंत्री रमेश बंग और वर्तमान मंत्री अनिल देशमुख की खेती की जमीन भी परियोजना के घेरे में नहीं आयी। मिहान परियोजना के बीच में सन एंड सैंड होटल की जमीन भी है लेकिन इस होटल की जमीन को परियोजना से बचाया भी गया और होटल ने अपनी बिल्डिग भी इस बीच खडी कर ली । खेत और परियोजना के उबड खाबड के बीच सन एंड सैंड होटल की सफेद इमारत किसके लिये बन कर खड़ी है यह अपने आप में बडा सवाल है। शानदार होटल सन एड सैंड जंगल में मंगल की तरह बन चुका....यह अलग बात है कि कोई सीधी सडक अभी भी होटल तक नहीं जाती।

विकास की लकीर में किस तरह से प्रभावितों को मुनाफा बनाने के लिये लकीर खिंची जाती है, इसका एहसास तेलहरा डैम को देखकर लगाया जा सकता है। करीब
230 एकड़ के इस डैम के चारो तरफ की सौ एकड़ जमीन सत्यम कंपनी के रियल एस्टेट कंपनी मायटस के अध्यक्ष आरसी सिन्हा को बेच दी गयी। सरकारी अधिकारी कहते है हमने तालाब तो बेचा नहीं है लेकिन गांववालों का सवाल है कि जब तालाब के चारो तरफ की जमीन ही बेच दी तो तालाब तक कोई पहुंचेगा कैसे। यानी सौ एकड़ जमीन के साथ तालाब की 230 एकड़ जमीन भी खरीदने वाले को मुफ्त मिल गयी। महत्वपूर्ण है कि मायटास के अध्यक्ष रहे आर सी सिन्हा ही मिहान परियोजना के भी मैनेजिंग डायरेक्टर हैं। लेकिन परियोजना से मुनाफा बनाने का धंधा यही नही रुकता। हर प्रभावी नेता का कोई ना कोई करीबी मिहान या एसईजेड से जुडा है। मुनाफे को लेकर लाललियत नेताओ की लंबी कतार और विकास के नाम पर परियोजना तले अपने धंधे को चमकाने में लगे देश के तमाम बड़ी औघोगिक कंपनियों की मौजूदगी के बीच उन दो लाख किसान-मजदूरो की हैसियत ही क्या हो सकती है जो अभी भी अपने संघर्ष से सिस्टम को डिगाना चाहते हैं। क्योंकि शिवणगांव के देवराव महादेवराव वैघ ने जमीन छिनने पर जब खुदकुशी की तो गांव के ही नारायण बारहाते और दत्तूजी बोडे ने इसे कमजोर पहल बताया । महात्मा गांधी के सत्याग्रह के हिमायती नारायण बारहाते ने देवराव वैघ की मौत पर गांववालों को समझाया की खुदकुशी के बदले अन्नत्याग का रास्ता ज्यादा सही है। क्योंकि इससे संघर्ष करने की क्षमता बढ़ती है। सरकार पर दबाब पडता है और लोग एकजुट होते हैं। नारायण बारहाते ने अन्नत्याग किया। इक्कीस दिनों के बाद नारायण बारहोते की मौत हो गयी। संघर्ष की इस लकीर को दत्तूजी बोडे ने संभाला। अठाहरवें दिन दत्तूजी की भी मौत हो गयी और अन्नत्याग की इस कडी में शामराव चंभारे, जीवलंग चौधरी और भीवाजी गायकवाड की मौत भी सोलह से बत्तीस दिनों के अन्नत्याग के बाद हो गयी। संघर्ष का कोई नतीजा नहीं निकला तो अन्नत्याग का रास्ता छोड लक्ष्मण वायरे और बापूराव आंभोरे ने कीटनाशक दवाई खा ली। दोनो की मौत तत्काल हो गयी। मरघट में तब्दील होते गांव के सामने बड़ा सवाल यही आया कि खुद को बचाने के लिये खुद को मारने के बाद भी जब कोई रास्ता नहीं निकल रहा तो संघर्ष को किस दिशा में ले जाया जाये। किसी को कुछ नहीं सुझा तो कभी विनोबा भावे के साथ भू-दान यात्रा कर चुकी तुलसाबाई गायकवाड गांव के द्वार पर काला ब्लैक बोर्ड लगा कर लिख दिया-वेलकम टू मिहान, शेतकारी श्मशान ।

Wednesday, January 6, 2010

फिल्म और राजनीति में सरोकार का धंधा

चंदेरी के बुनकरों का सवाल आमिर खान जब थ्री इडियट्स के प्रचार के दौरान उठा रहे रहे थे, उस वक्त लोकसभा में मंहगाई को लेकर सांसद हंसते-मुस्कुराते चर्चा करते हुये चर्चा से बचना चाह रहे थे । आमिर खान सामाजिक सरोकार को प्रचार का हथकंडा बनाकर अपने धंधे में मुनाफा बढ़ाने की तरकीब अपनाये हुये थे तो लोकसभा में सांसद सामाजिक सरोकार को ही हाशिये पर ढकेल कर अपने मुनाफे को अमली जामा पहनाने में जुटे रहे। संसद ने आखरी दिन सासंदों को मिलने वाली हवाई यात्रा में बढोत्तरी पर सहमति का ठप्पा बिना चर्चा के लगा दिया और कृषि मंत्री मंत्री शरद पवार ने जले पर नमक यह कह कर छिड़क दिया की महंगाई से निजात तुरंत मिलना मुश्किल है।

वहीं थ्री इडियट्स में मुनाफे का आखिरी ठप्पा आमिर खान ने पांच हिन्दी राष्ट्रीय न्यूज चैनलों के संपादकों को इंटरव्यू के लिये चेन्नई आने का आमंत्रण दे कर लगाया और इडियट बाक्स भी थ्री इडियट्स के धंधे को आगे बढाने में जुट गया । एक तरफ सामाजिक सरोकार की संवेदनाओं को धंधे में बदलकर मुनाफा बनाने की पहल तो दूसरी तरफ सरोकार को हाशिये पर ढकेलकर एक नयी आर्थिक लीक खींचने की कोशिश। देश के जो सामाजिक-आर्थिक हालात हो चले हैं, उसमें पहली बार यह नया सवाल उभर रहा है कि सांसद सिल्वर स्क्रीन के नायक सरीखे हो चले हैं और सिल्वर स्क्रीन के नायक सांसदों की तर्ज पर मुद्दों को उठाकर जिस तरह मुनाफा बनाने में जुटे हैं, उसमें मिस्टर परफेक्शनिस्ट वही है, जो सलीके से समाज को धोखा देना जानता हो। क्योंकि सौ करोड़ से ज्यादा का मुनाफा थ्री इडियट्स के जरीये आमिर खान बना लेंगे और सांसदों की बढ़ी हवाई उडान से देश के खजाने पर सौ करोड़ से ज्यादा का भार पड़ेगा।

असल में आम आदमी की जरुरत और उसकी त्रासदी को फिल्मी तर्ज पर रखने का अनूठा प्रयास ही इस दौर में शुरु हुआ है और राजनीति इसे मापदंड बनाकर लोकतंत्र का राग अलापने से नहीं कतरा रही। अगर बीते पांच साल में संसद
, सिल्वर स्क्रीन और आम आदमी को एक तराजू में रखे तो एक साथ कई सवाल खड़े होते हैं। मसलन 2004 में लोकसभा के 156 सांसद करोड़पति थे और औसतन 545 सांसदों की संपत्ति ढाई करोड से ज्यादा की थी। वहीं 2004 में गरीबी की रेखा से नीचे वालों की तादाद 31 फीसदी थी। और साठ फिसदी से ज्यादा की आय बीस रुपये प्रतिदिन थी। वहीं 2009 में लोकसभा के 315 सांसद करोड़पति हो गये और औसतन 545 सांसदों की संपत्ति चार करोड़ अस्सी लाख हो गयी। जबकि 2009 में गरीबी की रेखा से नीचे वालों की तादाद बढ़कर 37 फीसदी हो गयी और बीस रुपये प्रतिदिन कमाने वाले बढ़कर 77 फीसदी तक जा पहुंचे। जबकि इसी दौर में सिल्वर स्क्रीन ने कमाल का उछाल मारा। 2004 में जहां बालीवुड सालाना नौ हजार करोड़ का धंधा कर रहा था, वह पांच साल में बढकर यानी 2009 में तीस हजार करोड़ पार कर गया। ऐसे में आमिर खान अगर यह कहें कि वह चंदेरी ना जाते तो बुनकरो की बदहाली सामने नहीं आती या फिर राहुल गांधी का यह कहना कि दलितों की त्रासदी का समूचा सच सामने नहीं आ पाता अगर वह किसी दलित के घर रात नहीं गुजारते। और सब कुछ दलित राजनीति के अंधेरे में खो जाता यानी मायावती के। यहीं से दूसरा सवाल खड़ा होता है कि दलित या ग्रामीणों की हालत से सरकार वाकिफ हैं। सारे आंकडे उसके पास हैं। जो नीतियां दिल्ली या राज्यों की राजधानियों में बनती है, वह गांव तक नहीं पहुंच पाती, इसे मंत्री और नौकरशाह दोनों जानते समझते हैं। लेकिन इसके बावजूद राहुल गांधी भारत भ्रमण आमिर खान की तर्ज पर करते हैं। वहीं, आमिर खान भी राहुल गांधी की तर्ज पर चंदेरी से लेकर बनारस की गलियो में और पंजाब से लेकर चेन्नई तक में अपनी इमेज बचाकर घूमते हैं। बनारस में आमिर खान नकली गंदे दांत और मुचराये कपड़ों के साथ कांख में किसी बाबू की तरह बैग दबाये दबे पांव ही पहुंचते हैं। लेकिन थ्री इडियट्स का धंधा उन्हें आमिर खान की इमेज को मीडिया में परोसकर ही आगे बढ़ता दिखता है।

तो क्या यह माना जाये कि आमिर अपने रंग-ढंग से बनारस
, कोलकाता से लेकर लुधियाना और चेन्नई तक में रंग भेद का खेल नहीं खेलते । और राहुल गांधी जिन्हें मनमोहन सिंह का खुला आफर है कि वह जब चाहे सरकार में शामिल हो जाये और राहुल खुद चाहे तो मनमोहन को हटाकर पीएम की कुर्सी पर भी बैठकर गरीब-दलितों के घरो में रोशनी दिला सकते है तो भी सिर्फ राजकुमार की छवि के साथ वह आमिर खान जैसे अपनी इमेज से बचते क्यों हैं। और आमिर के चंदेरी के बुनकर और राहुल के बुंदेलखंड में अंतर क्या रखना चाहिये इसे कौन बतायेगा ।

आमिर की नजरों से देखें तो फिल्मों का नायक यूं ही नहीं होता

.....और अगर सिल्वर स्क्रीन से देश का सवाल जोड़ दिया जाये तो प्रधानमंत्री किसी नायक सरीखा लग सकता है। वहीं दूसरी तरफ आमिर के प्रचार की पहल राज्य को भाती है क्योंकि इससे बाजारवाद का नारा भी बुलंद रहता है और सामाजिक सरोकार भी जागे रहते हैं। और मनमोहन सिंह की इकनामिक्स को भी एक आधार मिलता है, जहा मुनाफा सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को टटोल कर चलती हैं। आमिर खान का मानना है कि फिल्मी कलाकार अगर देश के मुद्दों को उठाये तो सरकार और सत्ता की नजर कहीं तेजी से इस पर पडती है । सरकार मानती है कि लोकप्रिय संस्थान अगर आम जनता के मुद्दों के साथ खुद को जोड़े तो आम आदमी ज्यादा जानकारी हासिल करता है। असल में कुछ इसी तरह का सवाल दो बीघा जमीन के नायक बलराज साहनी से पूछा गया था कि उनकी फिल्म के बाद क्या सरकार छोटे किसानो की त्रासदी पर ध्यान देगी। तो बलराज साहनी जबाब था कि फिल्म उसी व्यवस्था के लिये गुदगुदी का काम करती है जो इस तरह की त्रासदी को पैदा करती है। इसलिये फिल्मों को समाधान ना माने। यह महज मनोरंजन है। और मुझे चरित्र के दर्द को उभारने पर सुकून मिलता है। क्योंकि हम जिन सुविधाओं में रहते हैं उसके तले किसी दर्द से कराहते चरित्र को उसी दर्द के साथ जी लेना अदाकारी के साथ मानवीयता भी है।

सवाल है तब यह बात कलाकार भी समझते थे और अब मीडियाकर्मी भी नहीं समझ पाते। दरअसल
, आमिर के प्रचार की जिस रणनीति को अंग्रेजी के बिजनेस अखबार बेहतरीन मार्केटिंग करार दे रहे हैं, वो सीधे सीधे लोगों की भावनाओं के साथ खेलना है। फिल्म के प्रचार के लिए लोगों की भावनाओं की संवेदनीशीलता को धंधे में बदलकर मुनाफा कमाते हुए अलग राह पकड़ लेना नया शगल हो गया है। लेकिन, यहीं एक सवाल फिर उठता है कि यहां एक लकीर से ऊपर पहुचते ही सब एक समान कैसे हो जाते हैं। चाहे वह फिल्म का नायक हो या किसी अखबार या न्यूज चैनल का संपादक या फिर प्रचार में आमिर के साथ खड़े सचिन तेंदुलकर। या फिर लोकसभा के हंसी ठठ्ठे में खोता मंहगाई का मुद्दा ।

बलराज साहनी से इतर अगर उत्पल दत्त की माने को मुबंई में वैसी ही फिल्म बनती हैं जैसे किसी जूते की फैक्ट्री में जूते । फिल्मकार और उसकी मार्केटिंग से जुडे लोग कहते रहते है लोग ऐसी ही फिल्म चाहते है, जबकि हकीकत में लोगों को सांस्कृतिक पराभव के लिये परिचालित किया जाता है । कह सकते हैं कभी जो जगह साम्राज्यवादियों ने छोडी सत्ताधारियो ने उस जगह को भरने का ही काम किया और फिल्मों के जरीये भी मुनाफे के उस खाली पडे तंत्र का सहारा फिल्मकारों ने ले लिया, जिसे राज्य ने खाली छोड़ दिया । यानी सरोकार की परिभाषा झटके में बदल दी गयी। और धुआंधार प्रचारतंत्र ने जनता को सांसकृतिक दिवालियेपन तक पहुंचा दिया। आमिर खान के तौर तरीके इस मायने में अलग हो सकते हैं कि वह फिल्म के प्रचार में ही सरोकार को मुनाफे में बदलना चाहते हैं । असल में फिल्मों से जुडा हर कलाकार हो या फिल्मकार, बॉलीवुड शब्द की जगह फिल्म इंडस्ट्री शब्द का प्रयोग करना चाहता है.....इसकी वजह सिर्फ यह नही है कि बालीवुड को उद्योग का दर्जा मिल जाये। बल्कि उस क्रिएटिविटी का चोला बाजार के सामने उतार फेंकना भी है जो सामाजिक सरोकार के जरीये सेंसर का ट्रिगर थामे रहता है। असल में तकनीक ने फिल्मों को सहारा सिर्फ फटाफट धंधा कर खुद को उघोग में बदलने भर का नहीं दिया है, बल्कि न्यूज चैनलो से लेकर रेडियो जॉकी और इंटरनेट का एक ऐसा साम्राज्य भी दे दिया है, जिसके आसरे धंधा चोखा भी हो जाये और मुनाफे का बंदरबांट कर हर कोई एक दूसरे की उपयोगिता से लेकर उसे जायज ठहराने में भी लगा रहे। यह आमिर खान के इंटरव्यू के आमंत्रण से आगे का रास्ता है। यह रास्ता आपको रामगोपाल वर्मा की फिल्म रण में नजर आ सकता है। फिल्म का नायक अमिताभ बच्चन न्यूज चैनलों के धंधे को समझता-समझाता दोनो है, लेकिन इस दौर में खुद भी धंधा कर निकल जाता है। मुश्किल यह है कि आमिर खान जिन सवालों को उठाते हुये अपनी फिल्म थ्री इडियट का प्रचार करते हैं। रामगोपाल वर्मा उन्हीं सवालो को उठाते हुये अमिताभ बच्चन के जरीये फिल्म ही बनाकर सीधे धंधा करने से नहीं चूकते। सरकार कह सकती है कि खुले बाजार की थ्योरी तो यही कहती है कि जिसे चाह अपना माल बेच लें...तरीका कोई भी अपना लें ।

लेकिन इसे महीन तरीके से समझने के लिये फिल्मों के बदलते रंग को समझना होगा जो वाकई सत्ताधारियों का अक्स है। नाचगानो और फंतासियों के बीच नायक जब विलेन की जमकर मरम्मत करता है तो यह सिर्फ अच्छाई पर बुराई या पोयटिक जस्टिस भर का मसला नहीं होता बल्कि जीवन के लिये रोजमर्रा की समस्या पर पर्दा डालने तथा जनता को उसी परिलोक में झोंक देने की चाल भी होती है, जिसमें सारे अन्याय का इलाज है हीरो का मुक्का । जिसके लगते ही खलनायक का ह्रदय परिवर्तन होता है और वह गरीब-गुरबा की मदद करने लगता है । यहीं सवाल उठता है कि न्यूज चैनलों के धंधे को भी फिल्म रण बताती है और थ्री इडियट का आमिर का प्रचार भी बुनकरों के सवाल को उठाता है। जबकि बुनकर का हुनर नायिका की गोरी चमड़ी पर भी ठहर नहीं पाता। सामधान क्या है, यह रास्ता तुरंत बताना मुश्किल जरुर है
,लेकिन मामला माध्यम को चुनना भी है । इसलिये रास्ता यही है कि जनता को जीत कर वापस लाना जरुरी है। व्यवसायिक रुप से भ्रष्ट उन लोगों के विरुद्ध मानव मस्तिष्क के लिये अनवरत संघर्ष जरुरी है, जो पूरे मीडिया को नियत्रित करते हैं और अखबारों, रेडियो तथा टीवी के माध्यम से लगातार झूठ और धोखे की बमबारी करते रहते हैं। इन सबके उपर है सरकार , जिसके सदस्य खुलेआम मध्ययुगीन अंधविश्वासों का प्रसार करते हैं और आम जनता के बीच विकास की अनूठी लीक बनाने के लिये सबकुछ पने ही हाथ में रखने में जुटे रहते हैं। जिसे लोकतंत्र का नाम भी दिया जाता है। इसे तोड़ने में संघर्ष तीखा और लगातार का है। जिसके लिये जरुरी है फिल्मों को फैशनेबुल समझ कर देखने वाले दिवालिया मध्यमवर्गीय बुद्दिजिवियों के कोटरो में निवृत होने के बजाय वास्तविक जनता के पास जाया जाये। लेकिन तरीका थ्री इडियट या रण का ना हो। और शायद ना ही करोड़पतियो की लोकसभा का।