बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने चार साल के शासन के दौरान अपने सुशासन के प्रचार-प्रसार में सौ करोड़ रुपये फूंक दिये। हरियाणा के सीएम ने पिछले साल चुनाव के ऐलान से ऐन पहले के ढाई महीने में अपनी सफलता के गीत गाने में अस्सी करोड़ रुपये फूंके थे। महाराष्ट्र सरकार ने चुनावी साल यानी 2009 में करीब दो सौ करोड़ रुपये प्रचार प्रसार में फूंक कर बताया कि उसने कितने कमाल का काम महाराष्ट्र के लिये किया है। केन्द्र सरकार के डीएवीपी ने पिछले साल जुलाई-अगस्त में यानी सिर्फ दो महीने में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के महिमागान में दो करोड़ 97 लाख 70 हजार 498 रुपये फूंक दिए। बीते साल मायावती ने सवा सौ करोड़ तो नरेन्द्र मोदी ने डेढ़ सौ करोड़ रुपये प्रचार प्रसार में खर्च कर यह बताया कि उनके कामकाज से राज्य कितना खुशहाल हुआ है और आगे भी कैसी तरक्की करेगा।
औसतन हर राज्य में 75-80 करोड़ रुपए सालाना प्रचार-प्रसार में फूंके ही जाते हैं। यह काला धन नहीं होता। सफेद और जनता का पैसा होता है। यानी तीस हजार करोड़ से ज्यादा की पूंजी हर साल खुल्लम-खुल्ला मीडिया के जरीये प्रचार प्रसार में फूंकी ही जाती है। जी, यह पूंजी मीडिया में जाती है। उसी मीडिया में, जिसे लेकर नया सवाल पेड न्यूज का खड़ा हुआ है, यानी खबरों को भी छापने और दिखाने के लिये खबर से जुड़ी पार्टी से पैसे लिये जाये। खासकर चुनाव के वक्त चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों से नोटों की गड्डियां लेकर खबर को प्रचार प्रसार में तब्दील कर दिया जाये। पेड न्यूज का यह धंधा काला होता है क्योंकि सफेद धन इस तरह दिखाया नहीं जा सकता। लेकिन नोट छापने वाली कोई मशीन तो काले-सफेद का भेद करती नहीं इसलिये नेताओ का यह पैसा उसी आम जनता को किसी न किसी तरह चूना लगाकर ही बनाया जाता है, जिसके लिये चुनाव लोकतंत्र का प्रतीक और मीडिया लोकतंत्र का चौथा खम्भा है, जिसका काम निगरानी का है।
अब सवाल है कि सत्ता में आ कर अपनी कमजोरियों को छुपाकर उसे उपलब्धियों में बदलकर करोड़ों रुपये निगरानी करने वालों को बांट कर जब लोकतंत्र को बचाने का प्रचार प्रसार हो रहा हो तो कौन सही है और कौन गलत इसका पता कैसे चलेगा? नयी मुश्किल यहीं से शुरु होती है। मीडिया पर सरकार नकेल कसे और बताये खबरों की कीमत लगाने का खेल वह बंद करे या फिर मीडिया सरकार पर नकेल कसे और बताये कि आप आम जनता के धन को अपने प्रचार-प्रसार में उड़ाएं नहीं, उससे लोकहितकारी नीतियों को अमल में लायें। और काला धन बांटने वाले नेताओं के बारे में जानकारी देने लगे कि फलां नेता ने कहां से कितनी काली पूंजी बनायी है। क्या यह संभव है ? लेकिन सवाल उठे हैं और उसकी जांच को लेकर भी सरकार और मीडिया दोनों सक्रिय हैं। लेकिन कोतवाली करने वही सस्थान सक्रिय हैं, जिनके कर्ता-धर्ता ही करोड़ों के वारे-न्यारे में हमेशा सक्रिय रहे। आहत पत्रकारों ने चुनाव आयोग का दरवाजा खटखटकाया तो आयोग ने भी प्रेस काउंसिल से पूछा कि वह ‘पेड न्यूज’ को परिभाषित करे। प्रेस काउंसिल ने एडिटर्स गिल्ड का दरवाजा खटखटाया। आम धारणा यही बनी कि एडिटर्स गिल्ड निर्णय ले तो पेड न्यूज का धंधा बंद हो सकता है और मीडिया पत्रकारिता पर लौट सकती है। लेकिन समझ यह भी आया कि अब एडिटर नामक जीव पत्रकारिता नहीं मीडिया चलाता है तो उसकी जरुरत उस पूंजी पर जा टिकी है, जिसके आसरे उसकी मौजूदगी एडिटर के रुप में भी रहे और उसका संस्थान मुनाफे के आसरे भी चलता रहे। वहीं सरकार ने भी अपनी नीतियों के आसरे ऐसी व्यवस्था कर दी है कि जिससे बिना पूंजी कोई मीडिया के बाजार में टिक ना सके और पूंजी के लिये सरकार के सामने घुटने टेककर खड़ा भी रहे। मसलन अखबारी कागज की कीमत इसी आर्थिक सुधार के दौर में कई सौ फीसदी तक बढ़ गई। आज बीस पेज के अखबार की लागत पन्द्रह रुपये होगी ही। लेकिन, अखबार की कीमत तीन रुपये से ज्यादा हो नहीं सकती। जिसमें हॉकर और आवाजाही में डेढ़ रुपये तक जायेंगे। 15 रुपये का अखबार डेढ़ रुपये में बेचकर कोई कैसे लागत भी निकालेगा। अगर जनता के पैसे पर सरकारी प्रचार प्रसार को जायज ठहरा दिया जाये तो भी औसतन अखबारों को प्रति अखबार चार से पांच रुपये से ज्यादा मिल नहीं सकता, वह भी उन्हें जिनकी प्रसार संख्या लाख से ज्यादा हो। बाकी की पूंजी कहां से आयेगी। जो विज्ञापन निजी कंपनियों के हैं, वह भी प्रति अखबार दो-तीन रुपये से ज्यादा होते नहीं। तो बाकी बचे प्रति अखबार पांच रुपये के लिये कौन सहारा होगा। यह स्थिति टॉप के तीन अखबारो से इतर है क्योंकि उनका बजट निजी-सरकारी विज्ञापनों से चल सकता है।
लेकिन मुनाफे की होड़ में कौन किसका किस रुप में सहारा बनेगा यह सवाल अलसुलझा नहीं है। जिले स्तर पर विधायक-सांसद तो राज्य स्तर पर मुख्यमंत्री या मंत्रालय संभालने वाले मंत्री और राष्ट्रीय स्तर पर सरकार सबसे बडी पार्टी होती है। यानी निजी राजनीति को साधने से लेकर पार्टी लाइन और विचारधारा को साधना भी पूंजी कमाने का धंधा मीडिया के लिये हो सकता है। लेकिन इसे कोई पेड न्यूज के घेरे में नहीं रखता। कमोवेश यही स्थिति न्यूज चैनलों की है। लेकिन,यहां विज्ञापनो का अंतर उस टीआरपी से होता है, जिसके घेरे में पहले नंबर पर रहने वाला चैनल तो ढाई सौ करोड़ रुपये सालाना तक कमा सकता है और दसवे नंबर के न्यूज चैनल को साल भर में पच्चीस लाख जुटाने में पसीने छूट जाते हैं। पर खर्च में एक-दो करोड़ से अधिक अंतर नहीं होता। यहीं लगता है कि सरकार की निगरानी होनी चाहिये । लेकिन सरकार निगरानी की जगह सौदेबाजी की पार्टी बन जाती है। यह सरकार की ही कमजोर नीति है कि डीटीएच यानी डायरेक्ट टू होम विज्ञापन का कोई आधार नहीं है और केबल सिस्टम जिस पर टीआरपी टिकी है, उस पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। इसलिये न्यूज चैनल अपने प्रचार प्रसार के लिये केबल संचालित करने वालों को सालाना 30 से 40 करोड़ रुपये देते है ताकि वह राष्ट्रीय स्तर पर दिखायी दे सकें। यह 30 से 40 करोड़ कोई सफेद धन नही होता। फिर केबल ही जब टीआरपी का आधार हो तो न्यूज चैनल की जान खबरों से ज्यादा केबल और उसके बाद टीआरपी में रहती है। इसलिये हर राज्य में केबल पर उसी राजनीति का कब्जा है, जिसकी सरकार है। तो केबल पर दिखने के लिये कोई न्यूज चैनल कैसे उस राज्य की सत्ता से खिलवाड़ कर सकता है, चाहे वहां का नेता सरकार चलाये या जनता के धन को प्रचार प्रसार में उड़ाये। भागेदारी जब मीडिया-सरकार की एक सरीखी है, तो जनता के बीच सवाल सिर्फ विश्वसनीयता का ही बचेगा। शायद इसलिये न मीडिया की विश्वसनीयता बच रही है और न ही राजनीति और नेताओं की। क्योंकि इस देश में जिनकी विश्वसनीयता है, उनके प्रचार-प्रसार की जरुरत नहीं पड़ती। जय जवान-जय किसान का नारा लगाने वाले लाल बहादुर शास्त्री के प्रचार में बीस साल का खर्च सिर्फ सवा करोड़ है और सरदार पटेल पर बीस साल में सिर्फ डेढ़ करोड़ रुपए खर्च किये गये। लेकिन 1991 यानी आर्थिक सुधार के बाद से केन्द्र सरकार ने सिर्फ प्रचार प्रसार में नब्बे लाख करोड़ से ज्यादा फूंक डाले। मीडिया भी उसी से फला-बढ़ा। ये भी एक सच है।
necessary observation but you all media barons are not showing any way to come out from these problems.
ReplyDeleteमै आप से पूरी तरह सहमत हूँ।
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ReplyDeleteमीडिया बिकने की बातें ज़रूर झूठी रही होंगी
ReplyDeleteमीडिया बिकने की बातें ज़रूर झूठी रही होंगी
ReplyDeleteभले ही देर से हुआ मगर इस सच का एहसास तो हुआ।
ReplyDeletevishvasniyta ko kisi pramaan ki darkar nahi..aur is sach ko bakhoobhi bata diya aapne..
ReplyDeletejankari ke liye dhnywad
ReplyDeleteआप ने इस व्यवस्था की नब्ज पर हाथ रख दिया है।
ReplyDeleteजब जब मीडिया पर प्रश्न चिन्ह लगाए जाते हैं यदि तब तब आप जैसे मीडिया कर्मी पूरी बात को यूं तथ्यों और आंकडों के साथ रख कर उन्हें तर्कों के सहारे हमारे जैसे आम लोगों के सामने रखें तो मीडिया को लेकर जो भ्रम जनता के बीच पनपता या पनपाया जाता है वो खत्म हो जाए । अच्छा लगा सामयिक विषय पर आपने अपना मत रखा और सब कुछ स्पष्ट किया
ReplyDeleteअजय कुमार झा
सच,खुद के गिरेबान में झांकने की हिम्मत कोई आपसे सीखे...ट्विटर पर भी अपने विचार व्यक्त करें तो हम हिंदीबाज़ों को एक मंच मिलेगा।
ReplyDeleteधन्यवाद!
निशांत प्रतिहस्त
वाकई बहुत हिम्मत है आपमे.....सच्च और वो भी बिल्कुकल साफ साफ श्ब्दों में.
ReplyDeleteकमाल का पोस्ट है.
सर सवाल काफी गहरे स्तर पर जुड़ा है..जो मीडीया संघर्ष और स्वाभिमान के आधार पर खड़ा था, वो क्या खुद गिरा..कई स्तर पर समाज में जो गिरावट है, उस का असर नहीं पड़ा. सहज ज्ञान के धनी लोगो की जगह अब आईएएस की परीक्षा में फेल रटंत विद्या के महारथियों ने नहीं ले ली है....सरकार से अखबार के विज्ञापन लेने में छोटे अखबार की क्या हालत होती है..वो क्या छिपी है..
ReplyDeleteऔर खुद कहीं समाज भी दोषी नहीं है....100 का पत्ता एक दिन में सिगरेट पर फुंकते लोग 2 रुपये में भी अखबार खरीदना पसंद नहीं करते, कई अच्छे पर छोटे अखबार को बंद होते देखा है..सरकार जब चाहे किसी पत्रकार को उठा कर जेल में डाल सकती है..समाज चूं तक नहीं करता....अपने दर्द को सब समझते हैं. पर कभी सोचा है उनकी ल़ड़ाई लड़ते-लड़ते ये योद्धा हार क्यों रहा है....कई पुराने पत्रकार किस हाल में रहे ये क्या इस समाज को पता चल पाया कभी..पैसे के लिए आज का पत्रकार का का करता है, होता है..पर जिन्होने समाज के लिए अपने को होम किया उन पत्रकारों के नाम भी याद हैं समाज को....सर सीमा पर गोली खा कर सिपाही तो मर कर शहीद तो कहला जाता है..पर कलम का ये सिपाही तो कोमा में है....फिर भी किसी को परवाह नहीं....
सर फिल्म पार्टनर के अंत में सलमान का एक डॉयलग है..जो वो कैटरिना कैफ से कहता है....की तुम ल़ड़कियां किसी फ्लर्ट करने वाले को आसानी से दिल दे देती हो. पर भास्कर जैसे सच्चे और अच्छे लोगो को कभी नहीं...(कुछ शब्द इधर-उधर हो सकते हैं.)
क्या यही हाल समाज का नहीं है....
काफी दमदार मुद्दा उठाया है आपने...मैं भी कई सालों से इलेक्ट्रानिक मीडिया से जुड़ा हुआ है..लिहाजा जनसम्पर्क विभाग से निकलने वाले लोकलुभावन विज्ञापन और इसे आम लोगों तक पहुँचाने वाले संस्थान का क्या मकसद होता है..यह छिपा नहीं है...
ReplyDeleteमहात्मा गुरजिएफ ने Beelzebub's Tales to His Grandson ( An Objectively Impartial Criticism of the Life of Man ) में मीडिया के बारे में लिखा हे की आजकल साहित्य का ये नया प्रकार का जो उदय हुआ हे, ये बहुत ही खतरनाक सिध्ध होगा. उसमे एक पतिव्रता स्त्री और उसके पति को मीडिया की वजह से आत्महत्या करनी पड़ी. क्योकि वो स्त्री को एक धनिक भोगना चाहता था. तो उसने अखबार में उस महिला के चरित्र के बारेमे पैसा दे के गलत खबर छपवाई. जिसका अंजाम आया स्त्री और उनके पतिकी मोत.
ReplyDeleteअच्छी और जरूरी पोस्ट।
ReplyDeleteप्रसून जी जब आप सहारा समय में थे तो 'एक तपते हुए दरख़्त' की कहानी पढ़ी होगी..
ReplyDeleteहर मौसम में तपता है दरख़्त,
फिर भी कह्मोशी से सब कुछ कहता है दरख़्त,
ये मेरी या आपकी कहानी नहीं है..
धुप-छांव पतझड़ और बहार तो आनी-जानी है..
अबोध बालक से जब हम युवा होते हैं..
बंद हुई मुट्ठी और जिंदगी के सारे भेद खुल जाते हैं..
अन्दर के तुफानो को भेदते हुए फिर भी हम अपनी कश्ती चलते हैं..
कुछ तो पार निकल जाते हैं तो कुछ डूब जातें हैं..
साहिल पर होता है तो फिर भी तपता है दरख़्त,
पहले भी तपता था दरख़्त..
आगे भी तपता रहेगा दरख़्त,
क्यूंकि हर मौसम में तपता है दरख़्त..
ये दरख़्त अगर मीडिया का स्वरुप हो तो बात गलत नहीं होगी..प्रेस या मीडिया पहले भी तूफ़ान से गुजरता था और आज भी गुजर ही रहा है..अब बात पूंजी की करते हैं..पहले देश हित के लिए लोग ४ रोटी की जगह २ रोटी भी खाना पसंद करते थे..जिनके पास शायद तन ढंकने के लिए कपडे भी नहीं होते थे..आज आप किसी से येही बात कीजिये तो वो भड़क उठेगा..खुद आप भी..क्या करे कोई सरकार के पास साधन सिमित है और प्राइवेट नौकरी से पैसा बचाना भी है और परिवार या अपना खर्च निकलना भी है..वोह कहते हैं ना सारी समस्या इंसानों के साथ ही है ..तो क्यूँ ना जानवर बन जाया जाये..आधे से ज्यादा जानवर खराब तंत्र की वजह से ही बनते हैं..ये इल्म तो आपको भी होगा ही..मैं भी मंदी की वजह से बेरोजगार हो चुकी हु और मेरे पास कोई साधन भी नहीं है..पापा retire हैं और उन्हें बेटी की शादी करनी है..तो बेटी क्या करे..एक बन्दूक ले और या तो खुद को उड़ा दे या फिर तंत्र के ठेकेदारों को..
is it another example of my experiment with truth? अच्छा है साफगोई की इस तरह की उम्मीद आपसे ही की जा सकती है।
ReplyDeletevery good
ReplyDeleteवाजपेजी साहब के क्या कहने
ReplyDeleteवाजपेजी साहब के क्या कहने
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