2004 में चंदौली में माओवादियो ने विस्फोट से एक ट्रक को उड़ा दिया था । उस वक्त उत्तर प्रदेश में चंदौली ,मिर्जापुर और सोनभद्र ही तीन जिले थे, जो माओवाद प्रभावित थे । लेकिन बीते छह साल में माओवाद प्रभावित जिलों की तादाद बढ़कर 30 पार कर गयी । यह अलग बात है कि चंदौली जैसी घटना दोबारा उत्तर प्रदेश में नहीं हुई । लेकिन माओवाद पर नकेल कसने के लिये सरकार ने इस दौर में करीब पचास हजार करोड़ रुपये खर्च किये । 2005-06 में विदर्भ के किसानों की खुदकुशी रोकने के लिये सरकार ने करीब पचास हजार करोड़ का पैकज दिया । लेकिन पैकेज के ऐलान के बाद भी हर साल विदर्भ के किसानों की खुदकुशी ना सिर्फ जारी रही बल्कि बढ़ गयी । हर महीने 57 की जगह 62 किसान आत्महत्या करने लगे । जो 2009 में बढ़कर हर महीने 67 तक जा पहुंची।
कमोवेश इसी तरह के आंकडे हर उस सामाजिक क्षेत्र के हैं, जिसको विकास की धारा से जोड़ने के लिये सरकार बैचैन है। और करोड़ों रुपये का बजट हर साल उसी तरह हर क्षेत्र के लिये सरकार देती है, जैसे 2010-11 के बजट के जरिए प्रणव मुखर्जी ने सामाजिक क्षेत्र के विकास के लिये 1,37,634 करोड़ दे दिये। बजट के जरिए इस बार भी माओवादियों को जड़ से खत्म करने और किसानों को राहत दिलाने से लेकर खेती योग्य जमीन को बचाने के लिये सरकार ने करोड़ों रुपये बांटे है। करोड़ों रुपया बांटने के बावजूद अगले एक साल में माओवाद और तेजी से फैलेगा। किसान की खुदकुशी में इजाफा ही होगा और खेती योग्य जमीन खत्म होगी, औघोगिक विकास के नाम पर खेती की जमीन हथियाई जायेगी । यह सब देश का हर वह नागरिक, जिसकी जड़ें जरा सी भी गांव से जुड़ी हैं और पंचायत स्तर पर राजनीति करने वाला भी इस सच को तुरंत मान लेगा।
सवाल हो सकता है कि इसे मनमोहन सरकार क्यों नहीं समझ पा रही। असल में नया सवाल देश के सामने कहीं ज्यादा इसीलिये गंभीर है क्योकि हर समस्या का समाधान रुपये में देखा ही जा रहा है और सरकार ने आर्थिक सुधार के दायरे को ही कुछ इस तरह रचा है, जिसमें वही शख्स फिट बैठ सकता है, जिसके पास पूंजी हो। यानी पूंजीवादी चश्मा पहन कर सभी के लिये एक सरीखा वातावरण बनाने की समाजवादी सोच का राग सरकार अपनाये हुये है। मनमोहन सिंह के बाद प्रणव मुखर्जी भी इसी थ्योरी पर आ गये हैं कि पूंजी ना हो तो देश चल ही नहीं सकता। इसलिये पूंजी का जुगाड़ और फिर उसका बंदरबांट करके पिछड़े सामाजिक क्षेत्र में बांट कर विकसित होते इंडिया के साथ खड़ा करने की अद्भभुत सोच विकसित हो चुकी है।
अभी तक यही माना जाता था कि चूंकि भ्रष्टाचार नौकरशाही का मूलमंत्र है और राजनीति की इमारत इसी जमीन पर खड़ी है, इसलिये सामाजिक क्षेत्र में जितनी पूंजी आंवटित की जाती है उतनी ही पंचायत स्तर के नेता से लेकर सांसद तक और बीडीओ से लेकर आईएस अफसर तक की जेब भरती है। ऐसे में सुशासन के नारे का मतलब खर्च की जा रही पूंजी से ज्यादा पूंजी का जुगाड़ बाजार से करने का होता है। लेकिन आर्थिक विकास का नये ढांचे में भ्रष्टाचार जैसा कोई शब्द है ही नहीं। क्योंकि नीतियो को लागू कराने से लेकर उसके परिणाम भी जब पूंजी के मुनाफे पर जा टिके हैं तो पूंजी का घपला भ्रष्टाचार नहीं कमीशन या बिचौलियो का हक बन जा रहा है। और इसमें यह मायने नहीं रहता कि देश का मतलब बाजार नहीं बाजार के लिये उत्पादन करने वाला माल होता। जो देश को मजबूत करता है। लेकिन अपनी उत्पादन प्रणाली को विकसित करने से ज्यादा जब मौजूद प्रणाली को भी मुनाफे के लिये दांव पर लगाया जा रहा हो और बाजार में उत्पादन से जुड़ना मूर्खता मानी जा रही हो तब क्या रास्ता बचता है। सिवाय इसके की पूंजी से पूंजी बनाने की सोच नीति का रुप ले लें । औघोगिक विकास के नाम पर देश का खनिज बेच कर लोगों को सरकारी मुआवजे और पैकेज पर टिकाना है या देश के खनिज को बेचने से ज्यादा खनिज के इस्तेमाल से लोगो का विकास करना है । सरकार पहला रास्ता चुन चुकी है।
नयी समझ में कौड़ियों के भाव पड़े खनिज की महत्ता तभी है जब वह अंतर्राष्ट्रीय बाजार से करोड़ों बना ले। उसका मुनाफा भी किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी को ही मिले। या फिर देश की ही कोई कंपनी खनिज संपदा बेच कर खुद को बहुराष्ट्रीय बना ले। देश में सरकार के पास सिर्फ कमीशन ही आये । विकास की समझ सिर्फ मुनाफा बनाने या कमाने भर की नहीं है बल्कि पूंजी के जरीये विकास की कोई भी लकीर खिंची जा सकती है , संयोग से इसका एहसास भी भ्रष्टाचार से जा जुड़ा है। क्योंकि इसी दौर में विकास के अवरुद्ध होने की वजह पूंजी के बहाव में रुकावट को मान लिया गया। यानी जो बात कभी राजीव गांधी ने कही और अब राहुल गांधी गाहे-बगाहे कहते रहते हैं कि दिल्ली से चला रुपया गांव तक पहुंचते पहुंचते दस पैसे में तब्दील हो जाता है और इसे अगर ठीक कर दिया जाये तो देश के वारे-न्यारे हो सकते हैं।
संभवत विकास की समूची थ्योरी भी इसी दिशा लग चुकी है। जिसमें सरकार मान बैठी है कि जो रुपया दिल्ली से चले अगर वह रुपये की शक्ल में ही गांव तक पहुंचे तो गरीबी छू मंतर हो जायेगी। कूपन के जरीये खाद-बीज अगर पहली पहल है तो दूसरी पहल यूनिक पहचान पत्र के बनते ही हो जायेगी। तब सरकार को बजट में एक मुश्त क्षेत्र विशेष के लिये धन आंवटित नहीं करना पड़ेगा। बल्कि बजट में यही ऐलान होगा कि हर किसान को सालाना बीस या पच्चीस हजार रुपये सरकार दे देगी। पहचान पत्र होगा तो उनके बैकं खाते भी ग्रामीण बैंको में बन जायेंगे। यूं भी बजट में सरकार ने ऐलान कर ही दिया है कि हर दो सौ लोगों के गांव में एक बैंक होगा। चाहे अभी भी पांच सौ गांववालों के बीच स्कूल ना हो। फिर बैंक में निजी कंपनियों को भी आने की हरी झंडी दे दी गयी है । मनमोहन सिंह की आंखों से विकास के इस चेहरे को देखे तो दिल्ली से रुपयों को बांटा जायेगा और बांटी गयी रकम भी सामाजिक क्षेत्र से जुडे हर व्यक्ति के पास सीधे पहुंच जायेगी । और उस रुपये से किसान मजदूर से लेकर पिछड़ा-गरीब सभी झटके में उपभोक्ता की श्रेणी में आ जायेंगे। और इस सीधी पहल से एक रुपये में से 80-85 पैसे बिचौलिये वाली राजनीति-नौकरशाही के खाने का सिलसिला भी खत्म हो जायेगा। और इसी एवज में निजीकरण से पूंजी का जुगाड़ सरकार करेगी । यानी कितना सरल होगा गरीबी और दर्द पर मरहम लगाना। पूंजी पर टिके इस समाजवादी तंत्र का दूसरा हिस्सा भी संयोग से इसी बजट के दौरान उभरा है जो पूंजी से पूंजी बनाने के खेल को सार्वभौम मान्यता दे रहा है। आवारा पूंजी के जरीये शेयर बाजार से पूंजी बनाने का सिलसिला हो या देश के पिछड़े राज्यों में बहुउद्देशीय परियोजनाएं लाने का तमगा दिखा कर खनिज संसाधनो की लूट हो, इसे सरकार की नीतियों ने सर्वमान्य बना दिया है। नयी पहल पूंजी के जरीये बाजार को ही पूंजी में तब्दील करने की हो चली है। मसलन स्पेक्ट्रम बेचने से सरकार के बजट का घाटा पूरा हो जायेगा और वह मुनाफे में जा जायेगी। यह थ्योरी किसी भी अर्थशास्त्री को ठीक लगती है। कहा भी जा सकता है कि हर वह ऐसा चीज जो खुले बाजार के लिये खोली जाये और उससे सरकार को कमाई हो रही है तो वह बुरी क्या है।
लेकिन यही से सवाल देश का पैदा होता है। क्या इस देश में हर क्षेत्र से जुडा हर तबका इतना सक्षम है कि वह स्पेक्ट्रम से लेकर हिमालय तक की बोली लगने के दौरान अपनी उपस्थिति दर्ज करा सके । जाहिर है अंगुलियों पर गिने जा सकते है देश के महानतम पचास औघोगपति-व्यापारी जो कारपोरेट जगत के माहिर खिलाडी हैं और जिनके लिये देश की सीमा कोई मायने नहीं रखती। क्योंकि धंधा देश को नहीं बाजार और उससे जुडे मुनाफे को देखता है। और पूंजी से पूंजी बनाने के हर खेल में यही पचास खिलाड़ी सरकार से कांधा मिलाकर पूंजी को समाजवादी विकास से जोडने की नयी थ्योरी को परिभाषित कर रहे हैं। इसीलिये प्रणव मुखर्जी का बजट अगर सामाजिक क्षेत्र को विकास से जोड़ने के लिये करीब डेढ़ लाख करोड की पूंजी बांटता है तो इसी सामाजिक क्षेत्र से जुडी खेती और खनिज संपदा से लेकर औघोगिक विकास और कंक्रीट इन्फ्रास्ट्रक्चर का ऐसा ढांचा खड़ा करने का न्यौता भी दे रहा है, जहां लोगों से जुडे संसाधनों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बेचकर दस लाख करोड़ से ज्यादा बनाये भी जा सकते हैं। और करीब दो करोड़ लोगों को जमीन से उजाड़कर मजदूर में तब्दील किया जा सकता है। और यही मजदूर चंद वर्षों बाद गरीब और फिर बीपीएल यानी गरीबी की रेखा से नीचे के परिवारो में शामिल हो जायेंगे । फिर यह सामाजिक मुद्दो के दायरे में आयेंगे और इनके विकास के लिये कभी बजट में पूंजी आंवटित किया जायेगा तो कभी पैकेज के जरीये राहत देकर सामाजवादी होने का राग अलापा जायेगा।
आर्थिक सुधार का यह दायरा यही नहीं रुक रहा। यह थ्योरी आज अगर आंतर्राष्ट्रीय बाजार से मुनाफा कमा रही है तो कल उसी अंतर्राष्ट्रीय बाजार के मुताबिक न्यूनतम जरुरत की वस्तुओं का मूल्य भी निर्धारित करेंगी। महंगाई को लेकर सरकार चीनी, दाल और चावल को लेकर अगर आज यह कह रही है कि अंतर्ऱाष्ट्रीय बाजर में इनकी कीमतें बढ़ी इसीलिये उनके पास कोई रास्ता नहीं है। तो समझना यह भी होगा कि कल नमक, गेहूं से लेकर आलू और हरी मिर्च तक की कीमत पर भी यही तर्क आ सकते है कि अंतर्रष्ट्रीय बाजार में उनकी कीमतें बढ़ी हैं इसलिये मंहगाई को वह रोक नहीं सकते। हो सकता है उस दौर में भी सरकार की यही थ्योरी चले कि बजट में पूंजी बढ़ा दो। डेढ़ लाख करोड़ की जगह दस लाख करोड़ सामाजिक क्षेत्र में दे दो या फिर किसानों को पचास लाख करोड़ की जगह एक अरब करोड़ का पैकेज दे दिया जाये। आज तो संसद में मंहगाई को लेकर हंगामा बी मच रहा है। लेकिन उस दौर में संसद की बहस भी करोड़ों में बिना बहस बिक जायेगी। जो राजनीतिक दल जितना मजबूत होगा यानी जिसकी संख्या जितनी ज्यादा होगी वह पूंजी को लेकर उतनी ज्यादा सौदेबाजी करेगा। विकसित होते भारत में आर्थिक सुधार की यह धारा पानी के सामान हो चली है जो जगह मिलते ही हर सूखी जमीन को गीली कर देती है और इस जमीन की हद में आये हर भारतीय को या तो मजदूर बनाती है या फिर बीपीएल। क्योंकि आर्थिक सुधार ने खुल्लम-खुल्ला यह ऐलान तो कर ही दिया है कि देश की हर वस्तु की एक कीमत है, जिसे बेचा-खरीदा जा सकता है। जिसके पास पूंजी है वह खरीद लें और मुनाफे के लिये ज्यादा में बेच दे। सरकार का काम निगरानी का है, जिसमें वह सिर्फ यह देखेगी कि खरीद-फरोख्त के लिये बने नियमो को कोई बिना कमीशन तोड़े नहीं। और इस प्रक्रिया में सासंदों के फंड से लेकर विकास को लेकर बनने वाली नीतियों को अमली जामा पहनाने के लिये कारपोरेट जगत की सीधी पहल होगी क्योकि तब पूंजी के आसरे पूंजी बनाना ही राष्ट्रीय नीति हो जायेगी। क्योंकि आखिरकार देश को पूंजी ही चलायेगी, संसद नहीं ।
Jab desh ka pardhamantri yah kahega ki mahangaie badhh gaie lekin berojgari nahi badhhne diya,han ye sach bhi hai kyoki padhi likhi larkiyan babaon ke sath milkar deh byapar kar rahi hai,padhe likhe noujawan thhgi aur charsou bisi ke byapar ke oor agrsar hai to kaise kahen ki desh main berojgari hai.Aisa hi aalam raha to wah din door nahi jab desh ko sansad aur paisa nahi balki deh byopar chlane wale bharua chlayenge.
ReplyDeleteआर्थिक विकास का नये ढांचे में भ्रष्टाचार जैसा कोई शब्द है ही नहीं। क्योंकि नीतियो को लागू कराने से लेकर उसके परिणाम भी जब पूंजी के मुनाफे पर जा टिके हैं तो पूंजी का घपला भ्रष्टाचार नहीं कमीशन या बिचौलियो का हक बन जा रहा है।
ReplyDeleteaakhar-aakhar saty!!
aapne itnaa baareek aur tah dar tah vishleshan kar diya hai ki ham sab comment kya karen..
har pankti sochne par vivash kar rahi hai ki bhaiya ab kya hoga!!
प्रसून जी, लेख पर मेरी संक्षिप्त टिप्पणी इतनी भर है कि इसे sansadji.com (सांसदजी डॉट कॉम) पर साभार प्रकाशित करने का लोभ संवरण नहीं कर सका।
ReplyDeleteदेश को अब भी पूंजी ही चला रही है। अधिकांश सांसद उस की कठपुतलियाँ नहीं हैं क्या?
ReplyDeleteprasoon ji desh ke halat tabtak nahi badal sakte jab tak aam admi apne ke bajaye desh ke bare me nahi soche ga.kyo ki aaj ke yug me har aadmi doosre ki chati pe laat rakh kar aage badh raha hai. neta kursi ke liye, officer pramosion ke liye, yaha tak ki padosi bhi apne bagal vale se is liye nahi bolta hai kyo ki vo usse jayada kamata hai.....
ReplyDeleteदेश को माओवादी नही चला रहे है क्या? नेपाल के माओवादी तथाकथित जनयुद्ध के काल मे भारत की शरण मे नही थे क्या? क्या माओवादीयो को नेपाल की सत्ता तक पहुंचाने का रास्ता दिल्ली सरकार ने नही निर्माण किया था क्या? आप अपने कैनेवास को बडा करे । एक छोटी सी घटना के आधार पर भविष्य का आकलन गलत हो सकता है मित्र.....
ReplyDeleteprasoon ji,sahi keha aapne!
ReplyDeleteयदि सरकार धृतराष्ट्र नहीं , तो शायद अब तक देश में इसे लेकर विवाद छिड़ गया होता। आपकी लेखनी ने मुझे कबीर दास की पंक्तियां याद दिला दी... करत-करत अभ्यास के जड़ मति होत सुजान, रसरी आवत जात है, सिल पर पड़त निशान...
ReplyDeleteविकास के लिये पक्का इरादा मायने रखता है। लेकिन मुश्किल भ्रष्टाचार है। क्योंकि संसद से पास को होकर चलने वाले रुपये ज़रुरतमंदों तक पहुचते पहुचते पैसों में तब्दील हो जाते है। क्या करें विकट स्थिति है। कैसे होगा विकास, कितना भी पैसा लगा लो, अब तो लगता है कि जो पैसा किसानों के लिये संसद में पास होता वो दरअसल नौकरशाहों के लिये होता है न कि परेशानियों से घिरे किसानों या गरीबों के लिये
ReplyDeleteDalit aage nahi aa pa rahe hai, aarachad de do.Paschim Bangal me Musalman aage nahi bade to bhi Aarachad de diaa gaya. Ab aurate aage aa sake isliye unke liye bhi arachan ki vakalat ho rahi hai,jise Rajyshabha ne to man hi liya.Kisano ka kya kiya jaye? Paisa fheko aur sabko chup kar do. Mawowadio se kaise nijat mile? Salwa Joodoom ka aasara liya gaya>Chidambarm ji Paschim Bangal Sarkar ke sath milkar unhi ki Dandwahini sena ka sath dene ko taiyar hai.Laaso ko jaelo me sada rahe hai par gharwalo ko nahi de rahe hai ye Mawowad ko khatm karne ka Sarkar ka apna tarika hai.Des me 350 se bhi jyada Aadarsh Mahavidyala khule ki prakriya me hai par sarkar ke pas jawab nahi ki teacher kaha hai? Research ke liye dhanrashi ka prastaw manjoor kiya gaya hai par UGC ke confirmation ke baad bhi sarkar paise dene ki isthti me nahi hai.Sima par sabse bade Dushma China ne Niryat me kamal dikhaya hai aur aik ham hai to dugne daam par usi saman ka aayat kar rahe hai jise kam kimat par niryat kiaa ja raha hai. Aakhir in nitiwo ke sahare ham kaha khade hoge. Koi vikalp nahi.Narega ko Doordarshan par aise dikhya jata hai jaise Vardan ho Deswasio ke liye par ye bhi des ko appahij hi karega aarchad ke tarj par.Aik Putin hai jo Russia ki Dubti Arthvywastha ko ubbar laya, agar unse bhi kuchh Manmohan sikh lete to kya baat thi.Kewal 2009 me hi Bharat me 1 karorr se jyada log garib ho gaye.Krishi ka gdp me yogdan aur bhi kam ho gaya.Kisan aatmhatya karne se baaj aa nahi rahe hai, Naksali hamalo ruk nahi raha, aur Mantri aise jo khule aap Garibo se dusmani nibha rahe hai.Ye wahi sarkar hai jisne khuleaap racha masle par dalali ko biwasata mani.Aakir jawab kaun dega. Sarkar udyog gharano ki jyada lagti hai. Sansad me kaun hai jo garibi ko samjhe, sabhi to karorpati hai.Waise me ye bilkul wajib hai ki des ko is samay punji hi cala rahi hai.
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