यह सोचना वाकई मुश्किल होगा कि राम मनोहर लोहिया की कोई लीक अब के दौर की राजनीति में बची है। मुश्किल इसलिये क्योकि संसदीय व्यवस्था में सत्ता की राजनीति से जो भी समाजवादी- लोहियावादी दो-दो हाथ कर रहे हैं, वह लोहिया को अपनी राजनीतिक जरुरतों के मुताबिक परिभषित कर रहे हैं। हो सकता है कि तुरंत में महिला आरक्षण को लेकर लोकसभा के अंदर बाहर अपने तर्कों को रखते मुलायम-लालू-शरद यादव की तिकड़ी ज़ेहन में घूमने लगे और यह सवाल जेहन में आये कि लोहिया तो कभी भी महिला आरक्षण को लेकर उस तरह के सवाल खड़े नहीं करते जो यादव तिकडी ने कर दी।
मसलन लोहिया की राय समानता को लेकर बेहद साफ थी कि जब तक समाज में महिलाओं को बराबरी का अधिकार नहीं मिलता तब तक किसी भी हिस्से में समानता की बात सोचना रोमानी होगा । जो बात अब की राजनीति कर रही है, उसमें लोहियावादियों को फिट करना भी मूर्खता होगी। लोहिया समाज में महिलाओं की स्थिति पर साफ कहते थे कि झोपडी में महिला रहे या फिर पांच सितारा घर में- दोनो की स्थिति अपने अपने घेरे में एक सरीखी ही होगी। हर जगह महिला को भोजन तक सबसे आखिरी में ही करना होता है। पहले बड़े-बुजुर्ग, फिर बच्चे। और अगर कोई मेहमान आ गयातो फिर और आखिर में कोई भी महिला खाना खाती है। अधिकतर परिवारों में पूरा भोजन अंत में रहता भी नहीं है। और पानी पी कर ही पेट भरने नब्बे फीसदी महिलाओं की हकीकत है। शायद यही वह परिस्थितियां हैं, जहां लोहिया यह कहने से नहीं चूकते थे कि भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति दलित सरीखी है। इसलिये महिलाओ को जातियों में बांटना भी सही नहीं होगा। सत्ता से होड़ लेते अब के लोहियावादी अक्सर जातीय मजबूरी को लोहिया से जोड़ कर हर मुद्दे को जातीय परिधि में लाने से भी नहीं चूकते।
असल में लोहियावाद की अब की परिभाषा संसदीय चुनावी व्यवस्था में जा सिमटी है। इसलिये लोहिया को समझने के लिये पहले संसदीय खांचे को भी चुनौती देना सीखना होगा। लोहिया ने राज्य की उन परिस्तथतियों को भी चुनौती दी, जो चुनी हुई सरकारों के नाम पर कुछ भी करने को आमादा हो जाते हैं। लोहिया ने जब यह कहा कि राज्य जब अपनी ताकत परदेसियों को नहीं दिखा पाता तब देसियो पर ही आजमाता है। तो इसका मतलब वह तमाम नीतियां थीं, जो आम आदमी के हक को दबाते हुये एक विशिष्ट तबके को लाभ पहुंचाने वाली होती। इसमें लोहिया की तीन आने की बहस अगर एक प्रतीक थी तो अर्थव्यवस्था को लेकर उठाये गये सवाल उस समाज व्यवस्था पर सवालिया निशान थे, जिसे उस दौर में कांग्रेस हर तबके के भीतर मथ रही थी और आज हर राजनीतिक दल की पहचान ही वही सोच बन गयी है।
अंग्रेजों से भारत को पूर्ण स्वतंत्रता कभी मिली नहीं। इसका मतलब प्रशासनिक और आर्थिक आजादी नहीं था। बल्कि अंग्रेजों की वह नीति थी जो उसके सामाज्यवादी शासन में कब्जे वाले देशों की कीमत लगाकार उसकी महत्ता को मान्यता देना था। यानी जिस देश से सबसे धन की उगाही करने में अंग्रेज सक्षम होते उस देश को अपनी महत्ता में सबसे उपर रखते । संयोग से शुरुआती दौर में कांग्रेस ने राजनीतिक पार्टी के भीतर और समाज के अलग अलग तबकों के भीतर इस समझ को लागू करना शुरु किया। इसलिये कांग्रेस के भीतर उसी की सत्ता हमेशा रही जो प्रभावी तबका रहा । और जातीय आधार पर विकास का सवाल जब कांग्रेस ने उठाया तो सत्ता से जुडा हर तबके का नुमाइन्दी करने वाला झटके में अपने ही तबके के बाहर विशिष्ट वर्ग में तब्दील हो गया। अहं के दौर में यह मलाईदार तबके के तौर पर अनुसूचित जाति-जनजाति से लेकर पिछड़े तबके और अल्पसंख्यक तबके में भी देखा जा सकता है। यानी पहले दौर में सत्ता पर काबिज वर्ग को अगर समाज से काटा गया तो दूसरी प्रक्रिया आर्थिक तौर पर उसी तरह शुरु हुई जैसा अंग्रेजों के दौर में हुआ था। अंग्रेज भारत की कीमत उसके खनिज संसाधनों के आधार पर लगाकर विकास की लकीर धन उगाही के लिये कर रहे थे और न्यू इकनॉमी यानी आर्थिक सुधार के दौर में कुछ इसी तर्ज पर विकास की लकीर खिंची जा रही है। लोहिया ने इस न्यू इकनॉमी का सवाल साठ के दशक में ही यह कह कर उठाया था कि ग्रामीण इलाके की जो कीमत शहर लगाता है अगर उसकी कोई कीमत गांववालों के लिये नहीं है तो राज्य की भूमिका होनी चाहिये कि वह बराबरी के हक में गांव और शहर दोनो की अर्थव्यवस्था लेकर आये।
इसी के मद्देनजर संसद में नुमाइंदगी का सवाल भी हर तबके को लेकर राजनीतिक दलों के भीतर उन्होंने उठाया। अब के संदर्भ में अगर इन परिस्थितियो को देखे तो आरक्षण के जरीये नुमाइन्दगी का सवाल हर तबके को संसद से जोड़ने का उठाया जा सकता है। लेकिन संसद के भीतर के विशेषाधिकार जिस तरह से संसद और आम आदमी को झटके में अलग-थलग कर देते हैं, वैसे में नुमाइन्दगी सत्ता के लिये होती है ना कि तबकों को लेकर। फिर राज्य की भूमिका भी इस दौर में बदल चुकी है। लोहिया जिस दौर में गरीब-गुरबो का सवाल उठाकर सत्ता पर निशाना साधने से नहीं चूकते थे, उस वक्त समूचे देश की जनसंख्या करीब चालीस करोड़ थी, जिसमें से आधी आबादी गरीबी के रेखा से नीचे थी। वहीं आज करीब चालीस करोड गरीबी की रेखा से नीचे है और लोहिया के दौर में अगर देश की नीतियां महज पन्द्रह करोड़ लोगों के लिये थी तो आज भी विकास की समूची लीक महज पन्द्रह से बीस करोड़ से ज्यादा के लिये नहीं है।
लेकिन आज के दौर में करीब चालीस करोड़ लोगो की जिन्दगी इस त्रासदी में कट रही है कि वह आज नहीं तो कल बीपीएल परिवारो में शरिक हो ही जायेंगे । और करीब बीस से पच्चीस करोड़ इस भ्रम में आर्थिक सुधार से दो दो हाथ कर रहे हैं कि उनकी परिस्थितियां भी सत्ता प्रभावित तबके में समाहित हो जायेंगी। लेकिन इस दौर में राज्य की भूमिका कितनी क्रूर है और संसदीय व्यवस्था किस तरह लोकतंत्र के नाम पर कानूनी सैनिक शासन सरीखी व्यवस्था समाज पर लाद रही है। यह समझना जरुरी है। जिन गांव को विकास की लकीर से जोड़ने के लिये राज्य की नीतियां बनायी जा रही है, उन ग्रामीण परिस्थितियों में सबसे ज्यादा काम पुलिस या सेना ही कर रही है। और देश की पन्द्रह फीसदी जनसंख्या यानी करीब बीस करोड़ ग्रामीण आदिवासी और शहरी गरीबों की अपनी जमीन खत्म हो चुकी है। यानी जो खेती की जमीन पीढ़ियों से करोड़ों परिवारों को खाना खिलाती आ रही थी अब राज्य की नीतियो की वजह से वह चंद हाथों में मुनाफे की नीति के तहत जा चुकी है और राज्य इसपर गर्व कर रहा है कि उसके विकास की लकीर को बाजार से जोड़ कर देश की सीमा खत्म कर दी है।
यह पहली बाहर हो रहा है कि देश के भीतर हर वस्तु की कीमत लगायी जा रही है । खनिज-संसाधन से लेकर सभ्यता और संस्कृति भी खरीदने की तैयारी की जा रही है। अगर गौंड आदिवासी की जमीन पर उधोगपति सरकार से एनओसी लेकर पहुंचे है तो अगली खेप उन्हीं गौंड आदिवासियो की संस्कृति को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बेचने की होगी। संबंध से लेकर सरोकार में भी अगर मुनाफा और खरीद-फरोख्त देखी जा रही है तो समझना उसी संसदीय व्यवस्था को होगा, जिसपर लोहिया ने सीधा हमला किया था।
लोहिया का मानना था कि संसद अल्टीमेट नहीं हो सकता। और अल्टीमेट की व्यख्या कभी भी कानूनी दायरे में नहीं हो सकती। खासकर तब जब सवाल राज्य में रहने वाले लोगों का हो। लोहिया ने संसद को उस वक्त आईना दिखाया था जब देश में प्रति व्यक्ति आय नौ आने थी और संसद में चार फीसदी सांसद ही करोड़पति थे। और खुद प्रधानमंत्री नेहरु पर प्रतिदिन का खर्चा 25 हजार रुपये का था। संयोग से आज वह संसद देश को आईना दिखा रही है, जब संसद के भीतर साठ फिसदी सांसद करोड़पति हैं और सत्तर करोड से ज्यादा लोग बीस रुपये प्रतिदिन पर टिके हैं। जबकि प्रधानमंत्री कार्यालय का प्रतिदिन का खर्चा सिर्फ दो करोड़ से ज्यादा का है। और संयोग से लोहिया से लेकर समाजवाद का नारा लगाने दो दर्जन से ज्यादा सांसद और अनुसूचित जाति-जनजाति से लेकर पिछड़े और महिलाओं की नुमाइन्दगी के साथ साथ अल्पसंख्यक समुदाय की नुमाइन्दगी करने वाले भी संसद में मौजूद है और इनमें से नब्बे फीसदी करोड़पति हैं।
जबकि यह सभी जानते है कि लोहिया जब दिल्ली के विल्गटन हॉस्पीटल में भर्त्ती हुय़े थे तो उनका अपना कोई पता नहीं था और जब मरे तो उनका कोई बैंक एकाउंट तक नहीं था। यह दोनों चीजे अभी भी देश के सत्तर करोड़ लोगों के पास नहीं है । लेकिन उनकी बात कहने वाला कोई लोहिया नहीं है। जिससे मनमोहन सिंह भी घबराएं। जैसे नेहरु घबराया करते थे।
।कहां कोई इस पर सोचता है। जेपी से लेकर लोहीया तक नेताओं की दुकान की एक प्रोडक्ट बन कर रह गए है और वे लोग इसे बेचने में भी माहीर हो गए है और खरीदने वालों की कमी तो है नहीं।
ReplyDeleteवाद" दरअसल समय के साथ बदल जाते है .....लोहियावाद हो या समाजवाद हो....या गाँधी वाद......अब ये सिर्फ बैनर है ....पीछे सबकी कहानी एक सी है ....कोई उम्मीद रखना खामखाँ मुगालते में रहना है ....मै तो सोचता हूँ एक ऐसा बिल भी लाया जाए जिसमे प्रत्येक परिवार से सिर्फ दो व्यक्ति के चुनाव लड़ने की अनुमति दी जाए फिर देखते है समाजवाद ..लोहियावाद .फलानावाद .ढिमकाना वाद क्या कहता है
ReplyDeletefully agree with anuraag ji!
ReplyDeleteबिल्कुल ऐसा बिल आना चाहिय ....
ReplyDeleteमुझे तो लगता है कि लोहिया हों या जेपी ये खुद कशमकश में रहे.कहीं ये वामपंथी दिखाई देते हैं तो कहीं दक्षिण पंथी!
ReplyDeleteसंभव है मेरी समझ इतनी पुख्ता न हो कि मैं उन्हें समग्रता में समझ पाने में कासिर हों,
या
सियासत ने उन्हें ऐसा करने दिया हो.समय की दरकार भी हो सकती है.
आज लोग सभी को भुना रहे हैं.इतना तो निश्चित है.