Wednesday, April 28, 2010

लाठी खालि, गुली खालि...

लाठी खालि,गुली खालि/ तेबू नाहि सोराज पालि / घरे नाथे अन किरे / कैसे बांची प्राण... है यह जिन्दगी का संघर्ष लेकिन अंधेरे में गूंजती महिलाओं की यह आवाज एकदम छोटे बच्चों के लिये लोरी का काम करती है और धीरे धीरे महिलायें जब आश्वस्त हो जाती हैं कि बच्चे सो गये तो वह अंधेरे में ही जंगल में निकलती हैं। गोंद, महुआ, मीठा जड़ और लकड़ी की छालों को बटोर रात के आखिरी पहर बीतने से पहले ही अपनी झोपडी में पहुंच जाती हैं। दर्द के जिस गीत को लोरी मान कर सोये बच्चे भी पौ फटते ही जागते हैं तो रात भर अगले दिन के भोजन का जुगाड़ कर लौटी यह आदिवासी महिलायें बच्चो को चावल-माड़ या फिर चावल-इमली का झोर खिलाती है। बूढ़े मां-बाप भी यही कुछ खाते हैं। और यह महिलायें सूरज चढ़ने से पहले ही रात में जंगल से बटोरे गये सामान को टोकरी में बांधकर बाजार जा कर गोंद, महुआ, मीठा जड के बदले चावल लेकर घर पहुंच जाती हैं।


समूचे दोपहर आराम करने के बाद गोधूली में गांव रक्षा दल की बैठक में शरीक हो कर गांव में तैनाती और लेवी वसूली के लिये निकलती हैं। साथ ही अगले दिन गांव या जंगल में कहां किस जगह पर पहरा करना है, उसके बारे में रक्षा दल की बैठक में जानकारी मिलते ही अपने घर के कामकाज की रूटिन तय करती हैं। हमला कभी भी हो सकता है और दिन में कभी भी जंगल में कुछ भी बटोरने नहीं जाना है
, यह आदेश गांव रक्षा दल प्रमुख का है। छत्तीसगढ़-उड़ीसा की सीमावर्ती के जंगल गांवों में रहने वाली महिला आदिवासियो का नया सच यही है। दिन के उजाले में वर्दीधारी हमला कर सकते हैं इसलिये गांव के गांव जो जंगलो के बीच हैं या फिर जंगलो से सटे हैं, वहां सूरज की रौशनी दिन के उजाले में कर्फ्यू है। गांव में कोई पुरुष आदिवासी नजर नहीं आता है। अधिकतर आदिवासी शहरों की तरफ चले गये हैं। शहर में काम भी है और जंगल गांव से दूर भी है। शहर का मतलब जिला मुख्यालय। क्योंकि जिला मुख्यालय में वर्दीधारी ट्रक में सामान बंद रखते हैं। उसके बाद जैसे ही वह जंगल और गांव की दिशा में कदम बढ़ाते हैं, वैसे ही उनके कंधों पर बड़े बड़े हथियार नजर आने लगते हैं। हर गांव रक्षा दल के प्रमुख ने निर्देश दिया है कि अगले आदेश तक महिलायें ही गांव को संभालेंगी। आदिवासी पुरुष और लड़के शहरो में बिना परिवार अकेले हैं। हाट-बाजार में माल ढुलायी से लेकर रिक्शा-ढेला खिंचने से लेकर किसी भी वैसे कामकाज में जहां शरीर काम दें...उन सभी कामो में अचानक आदिवासियों के नये चेहरे बढ़ गये हैं। गांव में क्या हो रहा है। या फिर गांव में घर वाले कैसे हैं। या अन्न का कोई थैला अगर गांव में घर पर भिजवाना है तो यह काम बस-ट्रक के वह ड्राइवर-कंडक्टर कर देते हैं, जिनका गांव की तरफ से गुजरना लगा रहा है।

समूचे दिन में एक ही सरकारी बस आती है जो इसीलिये सुरक्षित है क्योकि वहीं गांव के बाहर से गांव को जोडने का आसरा है। ऐसे में आदिवासी महिलाओ ने गांव से लेकर घर तक को संभाला है । जंगलों में भी महिलाओं की ही आवाज गूंजेगी। रात के अंधेरे में अपनी अपनी बोली में आदिवासी महिलाओं के बीच संवाद में एक ही ऐसा शब्द है जो बार बार दोहराया जाता है। वह है छेरेनी संग्राम यानी वर्ग संग्राम। गांव रक्षा प्रमुख ने आदिवासी महिलाओं को बताया है कि छेरनी संग्राम छिड चुका है। इसलिये जंगल में हर दूसरे गांव की महिलाओं से जब रात के अंधेरे में किसी दूसरे गांव की महिलायें मिलती हैं तो बातचीत में छेरनी संग्राम किसी कोड-वर्ड सरीखा होता है। और सारी बातचीत चाहे वह घर में अन्न के एक दाने के ना होने की हो या फिर बच्चो की बिगड़ती तबीयत की हो। या शहर की बस से अन्न की झोली के आने की खबर हो या फिर हर रविवार को लगने वाले हाट में महुआ या गोंद के बदले कितने कटोरी चावल मिलने के सौदे की बात हो। हर बात से पहले छेरनी संग्राम का जिक्र कर बात यहीं से शुरु होती है कि गांव रक्षा दल के सामने अब क्या मुश्किल है। हालात देखने पर साफ लगता कि गांव की रक्षा करते हुये अन्न का जुगाड़ करना ही पूरे इलाके का जीवन है।

गरीबों को चाहे छत्तीसगढ़ सरकार दो रुपये चावल देने की बात कहे और उड़ीसा में यह तीन रुपये मिले। लेकिन जंगल गांव में एक गिलास महुये का मतलब दो कटोरी चावल और एक गिलास गोंद का मतलब एक कटोरी चावल है। जबकि मीठे जड़ और लकड़ी की झाल अगर गठ्ठर भर है तो ढाई कटोरी चावल मिल सकता है। एक कटोरी चावल का मतलब एक वक्त में दो लोगो का खाना। जो बस से झोली भर अन्न आता है उससे दो-तीन दिन ही खाना चलता है। शहर में मजदूरी करता आदिवासी नोट या चिल्लर नहीं गिनता बल्कि बस के ड्राइवर-कंडक्टर को ही कमाई की रकम दे कर छोली भर अन्न ले जाने को कहता है। जो हमेशा झोली के अन्न से ज्यादा होती है लेकिन आदिवासी जानता है कि बस वाला सबसे ईमानदार है क्योकि छेरनी संग्राम छिड़ने पर उसकी जान तो कभी भी जा सकती है। वर्दीधारी उसे माओवादी मान कर मारेगा और माओवादी पर अगर हमला उसके गांव में हो गया तो माओवादी उसे पुलिस का जासूस समझ कर मारेगा। इसलिये गांव तो तभी खाली होने लगे जब सीआरपीएफ के ट्रक गांव जंगल में घूमने लगे और हर सरकारी इमारत में वर्दीधारी नजर आने लगे। प्राथमिक स्वास्थय केन्द्र और प्राथमिक स्कूल के अलावे पंचायत भवन ही बतौर इन जंगल गांव में नजर है। जो मिट्टी का नहीं बास और खपरैल का बना है। कहीं कहीं ईंट की दीवार भी है। और छेरनी संघर्ष शुरु होते ही इनजगहो पर सबकुछ बंद हो गया और वर्दीधारियों का खाना-पकाना
, रात गुजारना और हर आने जाने वाले आदिवासियों से बोझा उठवा कर कुछ अन्न देकर संपर्क बनाने का सिलसिला शुरु हुआ। और इसके शुरु होते ही आदिवासी गांव छोड़ खिसकने लगे। लेकिन गाव रक्षा दल की महिलायें नहीं डिगी। हर आठ गांव पर एक रक्षा दल कमांडर। जिसके अधीन करीब सौ से ज्यादा आदिवासी। और इन सौ में भी साठ से ज्यादा महिलायें, जो कहीं नहीं गयीं।

बीते साल भर में सबसे ज्यादा हिंसा या कहे छेरनी संग्राम इस इलाके में हुआ है। इसका असर यही हुआ कि पुरुष आदिवासियों का क्षेत्र तो बदलता रहा लेकिन महिलायें नही डिगी । नयी समझ जो इस पूरे इलाके में हुई है, वह गांवों को विकसित करने की है। यानी आदिवासियो की जरुरत के मुताबिक मुश्किल दौर में भी गांव रक्षा दल काम करता रहे। ऐसे में गांव की संख्या
8 से बढ़ाकर 15 से 20 की गयी है जो महिलाओं की निगरानी में ही गांव के हर परिवार की जरुरतों को जोड़ कर सामूहिक जरुरत में तब्दील करने की दिशा में उठाया गया कदम है। यानी घर-घर की जरुरतों को मिलाकर अगर बीस गांव के अन्न को एक साथ जोड़ा जाये तो गांव रक्षा दल उसी के मुताबिक तय करे कि कितने लोग जंगल से भोजन जुगाडेंगे और कितने लोग शहरी बाजार जा कर जंगल के कंद-मूल का सौदा करेंगे और बाकि के कितने लोग रक्षा दल के जरीये पहरेदारी को अंजाम देंगे।

छेरनी संग्राम छिडने के बाद सामूहिकता की जीवन जीने के इन तौर तरीको के बीच गांवों के आपसी संपर्क भी बढ़े हैं । साथ ही संग्राम की थ्योरी को सीधे जिन्दगी से जोड़ने की नायाब पहल भी इन इलाकों में शुरु हुई है।

मसलन
10 मार्च को बारुदी सुरंग में जर्जर हुई एक पुलिस जीप के पहिये को रक्षा दल ने एक ट्रक वाले को बेचा भी और उसकी एवज में दस किलो अनाज लाकर बताया भी कि जीप का एक पहिया चालीस आदमी का पेट भर सकता है। और इसी तरह संकट के दौर में हिसाब लगाकर जब एक ट्रक वाले को रक्षा दल ने रोका तो स्टेपनी का पहिया छीन लिया और लौटाया इसी शर्त पर की अगली खेप में वह बीस किलो चावल लेकर आये। जंगल गांवों से गुजरते अधिकतर ट्रको में अक्सर एक-दो बोरे चावल के जरुर रखे रहते हैं जो आवाजाही के लिये बतौर लेवी देने पर उन्हें रियायत हो जाती है । आदिवासियों के लिये सबसे सुकून तभी होता हैं, जब उन्हे चावल मिल जाये और जंगल से जमा किया गया महुआ वह खुद पीयें। यह दिन उनके जश्न का होता है। लेकिन महिलाये इस दौर में कितनी अनुशासित हैं। इसका अंदाज इसी से लग सकता है बीस गांव जब एकजुट होते हैं, तो उनकी कमांडर भी महिला होती है और हर ग्रुप की नेता भी महिला। और यह स्थिति दंत्तेवाडा के बाद की हो ऐसा भी नहीं है। लेकिन दंत्तेवाडा की घटना के बाद छेरनी संग्राम के तौर तरीके बदल जरुर गये हैं। कमोवेश हर गांव के रक्षा दल के सामने सबसे बडी चुनौती यही है कि वह अन्न के विकल्प को भी समझे। जैसे जंगल में कुछ पेड़ से निकलने वाले रस कितने फायदेमंद हैं। किन कंद-मूल से शरीर कमजोर नहीं होगा यानी कैलोरी बराबर मिलेगी और जंगल गांव से शहर को जोड़ने वाले वैकल्पिक रास्तों को बनाना भी रक्षा दलों के जिम्मे आ गया है। छेरनी संग्राम का लाभ माओवादियों को आदिवासियो के जरीये भी हो रहा है क्योंकि जो आदिवासी शहर यानी जिला मुख्यालयो में भी जा कर रह रहे है, उनके गांव लौटने पर गांववाले शहर की स्थिति भी समझ पा रहे हैं, जहां दो जून की रोटी का जुगाड करना शहरी लोगो के लिये भी मुश्किल है।

खासकर जिन कामों को शहर में आदिवासी करते हैं, उस काम से जुड़े लोगों के जरीये जब जिन्दगी की मुश्किलों की जानकारी उन्हें मिल रही है तो अपने जंगल गांव को लेकर भी वह कहीं ज्यादा उग्र भी हो रहे हैं। यानी विकास की जिस धारा को शहर से गांव पहुंचाने की बात बीडोओ से लेकर पंचायत के नेता तक करते हैं, उसके एवज में आदिवासी अब अपनी झोपड़ी को बचाने में ही असली सुकून मान रहे हैं। और वर्दीधारी की पहल आदिवासियों को उन्हीं परिस्थितियों के नजदीक ले कर जा रही है जिसे दिल्ली के हुक्ममरान माओवाद या आतंकवाद कहने से नहीं कतराते। मुश्किल यही है कि दिल्ली से इन जंगल गांव की दूरी है तो हजार से भी कम मील की लेकिन विकास के आइने में यह दूरी सदियों की हो गयी है। क्योंकि दिल्ली में बैठकर कोई सोच भी नही सकता कि आदिवासियों के दर्द का यह गीत...लाठी खालि
,गुली खालि / तेबू नाहि सोराज पालि / घरे नाथे अन किरे / कैसे बांची प्राण...उनके बच्चो के लिये लोरी है।

Thursday, April 15, 2010

..क्योंकि न्यूज चैनलों के लिए नक्सली ब्रांड नहीं हैं

जितने कैमरे, जितनी ओबी वैन, जितने रिपोर्टर और जितना वक्त सानिया-शोएब निकाह को राष्ट्रीय न्यूज चैनलों में दिया गया, उसका दसवां हिस्सा भी दंतेवाडा में हुये नक्सली हमले को नहीं दिया गया। 6 अप्रैल की सुबह हुये हमले की खबर ब्रेक होने के 48 घंटे के दौर में भी नक्सली हमलों पर केन्द्रित खबर से इतर आएशा और शेएब के तलाक को हिन्दी के राष्ट्रीय न्यूज चैनलों ने ज्यादा महत्व ही नहीं दिया बल्कि अगुवाई करने वाले टॉप के राष्ट्रीय न्यूज चैनलो ने यह भी जरुरी नहीं समझा कि दिल्ली से किसी रिपोर्टर को दंतेवाडा भेज ग्राउंड जीरो की वस्तुस्थिति को सामने लाया जाए। जबकि आएशा की शादी का जोड़ा कहां बना और निकाह के बाद कितनी रातें आएशा के साथ शोएब ने बितायी होंगी और बच्चा गिराने तक की हर अवस्था को पकड़ने में लगातार हर न्यूज चैनल के रिपोर्टर न सिर्फ लगे रहे बल्कि स्क्रीन पर भी ब्रेकिंग न्यूज की पट्टी के साथ यह तमाम किस्सागोई चलती रही।

दूसरी ओर नक्सली हमले के बाद हमले को लेकर न्यूज चैनलो के स्क्रीन पर जो दृश्य खबरों के रुप में उभरा, वह चिदंबरम का था। फिर मारे गये जवानो के परिजनों के दर्द का था। सीआरपीएफ जवानों की मौत से सूने हुये 76 आंगन की कहानियों का सिरा और अंत रोते-बिलखते परिवारो के शोर से ही उभरा। जिन परिस्थितियों में गांव में किसानी छोड़ सीआरपीएफ के हवलदार और कांस्टेबल बन कर एक नयी जिन्दगी मारे गये 76 जवानों में से 63 जवानो ने शुरु की थी, उनकी जिन्दगी के साथ बीते पांच सालो में कई जिन्दगियां जुड़ गयीं, उनके लिये सरकार के पास कोई योजना है भी या नहीं यह हकीकत सानिया-शोएब की किस्सागोई पर हल्की पड़ गयी। खेत खलिहानो में मेहनत कर किसी तरह दसवीं पास कर कन्याकुमारी का कांस्टेबल राजेश कुमार हो या राजस्थान का कांस्टेबल संपत लाल सभी का सच न्यूज चैनलों के पर्दे पर बच्चों, पत्नी, मां-बाप के रोने बिलखने में ही सिमटा। एक लाइन में रखे ताबूत, उन्हीं ताबूतों को सलामी देते गृह मंत्री पी चिदंबरम। चिदंबरम जहां गये कैमरे वहां पहुंचे। नक्सली समस्या में न्यूज चैनलों के लिये चिदंबरम ही ब्रांड हैं, इसलिये गृह मंत्री 76 ताबूत पर भी हावी थे।

न्यूज चैनलों के लिये चिदंबरम ने हर राह आसान की। चिदंबरम की बाइट और कट-वेज को ही नक्सली संकट बताना-दिखाना मान लिया गया। लेकिन सानिया-शोएब-आएशा की किस्सागोई पकड़ने के लिये रिपोर्टर कैमरे सिर्फ हैदराबाद में नहीं सिमटे बल्कि हैदराबाद के बंजारा हिल्स से लेकर दिल्ली में पाकिस्तानी दूतावास और लाहौर से कराची तक की दूरी पाट रहे थे। वैसे, न्यूज चैनल अगर चाहें तो एलओसी के आर-पार के सच को भी टीवी स्क्रीन पर उतार दें। लेकिन ऐसा क्या है कि देश के बीचोंबीच छत्तीसगढ में 76 सीआरपीएफ जवान मारे गये और न्यूज चैनलों की ओबी वैन या कैमरा टीम पहुंचने में भी दस घंटे से ज्यादा का वक्त लग गया ? पहले छह घंटो में घायल जवानों को राहत तक नहीं पहुंची ? पहले घायल को अस्पताल का सुख 12 घंटे बाद मिला। तो क्या खबर देने के लिये सरकार से लाइसेंस लेने वाले न्यूज चैनलों का यह फर्ज नहीं है कि वह उन परिस्थितियों को बताये, जिससे दोबारा ऐसी स्थितियां ना बने या फिर नक्सली प्रभावित इलाकों में आदिवासियों और सीआरपीएफ की जिन्दगी कैसे कटती है, उसे उभारे।

लेकिन यह सच भी सानिया की मुस्कुराहट और शोएब के तेवर में गायब हो गया। न्यूज चैनल देखते हुये खबरों का सच कोई कैसे जान सकता है, जब उसे पता ही नहीं होगा कि चिंतलनार गांव, जहां नक्सली हमला हुआ, वह इस पूरे इलाके का एकमात्र गांव है, जो छत्तीसगढ सरकार के सलावाजुडुम कार्यक्रम में शामिल नहीं हुआ। इसलिये इस गांव को सरकार ने भी ढेंगा दिखा दिया। यहां न पानी है न बिजली और न प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र है। स्कूल की इमारतें जरुर हैं लेकिन शिक्षक नहीं हैं। इसलिये स्कूल की इमारत में ही सीआरपीएफ जवान रुके। हमले के वक्त गांव वाले घरों में सिमट गये लेकिन ये वही गांववाले हैं, जिनके पास दो मील दूर से लाया पानी न होता तो जो सात जवान बच गये, वह भी ना बच पाते।

न्यूज चैनल के जरीये खबरों को जानने वाले यह भी कैसे जान सकते हैं कि सीआरपीएफ जवान रात दो बजे से लेकर सुबह दस बजे तक ही ऑपरेशन को ही अंजाम देते हैं क्योकि दस बजे के बाद इन जंगलों में तापमान चालीस डिग्री पार कर जाता है। पानी पूरे इलाके में नहीं है, इसलिये कैंपों में जमा पानी को ही बोतल में बंद कर गीले कपड़ों से लपेट कर चलते हैं। बुलेट प्रूफ जैकेट पहन नहीं सकते क्योंकि गर्मी और जंगल का रास्ता इसकी इजाजत नहीं देता। हर जवान करीब बीस किलोग्राम बोझ उठाये ही रहता है क्योंकि जंगलो में यह बोझ जीवन होता है। इस बोझ का मतलब है एसएलआर, राइफल, एके-47 या 56 , मोर्टार लांचर और ग्रेनेड।

वहीं इन न्यूज चैनलों को देखने वाला हर भारतीय जान चुका है कि आएशा ने शोएब के साथ निकाह के बाद की पहली रात के कपड़े आजतक सहेज कर रखे हैं। और जरुरत पड़ी तो कपड़ों का भी डीएनए टेस्ट हो सकता है। लेकिन सीआरपीएफ जवानों के पानी के बोतल और बूटों के लिये कोई टेस्ट नहीं है। आएशा का फोन-इन लगातार न्यूज चैनलो में चलता रहा। लेकिन सीआरपीएफ के जवानों पर जब संकट आया तो किसी जवान ने किसी चैनल को मोबाइल नहीं लगाया। मारे गये 76 जवानों में से 28 के पास मोबाइल उस वक्त जेब में थे। लेकिन हर जवान की उंगलियां बंदूक के ट्रिगर पर थी, न कि मोबाइल के बटन पर। अली हसन ने जरुर मोबाइल से अपने घर वालों को बताया कि उसकी जान जा रही है और बच्चों का ख्याल रखना। लेकिन यह सब न्यूज चैनल के स्क्रीन पर नहीं है।

दिल्ली से जगदलपुर-रायपुर और फिर दिल्ली तक न्यूज चैनलों का कैमरा अगर घूमा तो उसकी वजह चिदंबरम और रमन सिंह ही रहे, जो न्यूज चैनलों के लिये ब्रांड हैं। इसलिये जब एक ब्रांड ने इस्तीफे की बात कही तो दूसरे ब्रांड ने बिना देर किये इस्तीफे को बेकार करार दिया और जवानों के लिये मौत के बाद का जीवन का फिर यही चिदंबरम और रमन सिंह बन गये। क्योंकि जवान की मौत तब तक मायने नहीं रखती जब तक कोई मंत्री न पहुंचे। न्यूज चैनल के दर्शक कैसे जानेंगे कि जवानों की मौत इतनी सामान्य है कि चिंतलनार में नक्सली हमले की पहली जानकारी सुबह 6.10 पर दोरणापार के एसडीपीओ ओम प्रकाश शर्मा को मिली तो उन्होंने भी इसे सामान्य घटना माना। सामान्य का मतलब है बारुदी सुरंग का फटना और दस-बारह जवानों का मरना। और इतनी मौतों पर कोई विधायक भी नहीं आता है। हिन्दी के राष्ट्रीय न्यूज चैनलों के जरिये कैसे दर्शक जान पायेगा कि चिंतलनार से 185 किलोमीटर दूर जगदलपुर में सीआरपीएफ की 62 वीं बटालियन के बचे जवानो में गुस्सा पनप रहा है कि राजनेता और दिल्ली के एसी कमरो में बैठे नौकरशाह बयान दे रहे हैं कि जवान गलत रास्ते पर निकल पड़े इसलिये नक्सली हमला हो गया। बचे जवानों में गुस्सा है कि उन्हें बताया गया है कि आपात जरुरत के लिये चौपर मौजूद है, लेकिन जब जवान खून से लथपथ हो गये तो उनकी सुध लेने के लिये चौपर नहीं था।

दर्शकों को कौन दिखायेगा कि जंगलों में सीआरपीएफ जवान जहां रुकते हैं, पहले उसे चंद घंटों के लिये आराम करने लायक बनाते हैं। बमुश्किल जगह मिलती है, और उसे रुकने लायक बनाते बनाते अगले पड़ाव के लिये निकलने का वक्त आ जाता है। क्योकि कमांडेंट को उपर से आदेश है....रिजल्ट चाहिये। लेकिन न्यूज चैनलो पर यह सच नहीं दिखाया जा सकता क्योंकि गृह मंत्रालय की एडवाइजरी है- नक्सल समस्या को सामाजिक-आर्थिक मुद्दों से न जोड़ें। मगर सानिया -शोएब के निकाह पर सरकार की कोई एडवाजरी नहीं है क्योंकि ये ब्रांड हैं।

Wednesday, April 7, 2010

माओवादियों की समानांतर सरकार

छत्तीसगढ़ के दांतेवाड़ा में नक्सलियों ने 73 पुलिसकर्मियों को निशाना बनाया तो पहली बार ऑपरेशन ग्रीन हंट को करारा झटका लगा। लगा कि रेड कॉरीडोर में रेड हंट ही चलता है। इस घटना के बीच आपको एक गांव ले चल रहे हैं, जिसके हालात देखकर अंदाजा लग सकता है कि शायद कुछ इस तरह माओवादी रेड कॉरीडोर में अपनी समानांतर सरकार चलाते होंगे।

मेरी शादी 2004 में हुई। पटना में झारखंड के चतरा जिले के टटरा गांव से बारात आयी। शादी के अगले दिन सुबह 5 बजे ही विदाई हो गयी। रास्ते में पति से पूछा इतनी सुबह विदाई की जरुरत क्यों थी। 8 बजे भी निकल सकते थे। तब हमें रात बाहर ही बितानी पड़ती। क्यों ? क्योंकि हमारे गांव में शाम 4 बजे के बाद किसी भी नये व्यक्ति की इंट्री नहीं हो सकती। ऐसा क्यों ? बस यूं ही । पहुंचोगी तो समझ जाओगी। पटना से गया। गया से चतरा। और चतरा से करीब बीस-पच्चीस किलोमीटर अंदर जंगल के बीच टटरा। दोपहर करीब तीन बजे चतरा पहुंचे। और पौने चार बजे टटरा। गांव के बाहर ही आदिवासियों ने भाड़े की एम्बेसेडर गाड़ी रोक ली। शादी के जोड़े में ही घर की चौखट पर उतरने से पहले गांव के चौखट पर मुझे उतारा गया। उसके बाद पांच आदिवासी महिलाओं ने मुझे घेर लिया। पांचों महिलाओं के कंधे पर बंदूक लटक रही थी। पेट पर गोलियों की लड़ी बंधी थी। दो मेरे आगे, दो मेरे पीछे और एक साथ में खड़ी होकर मुझे चंद फर्लांग दूर एक पेड़ की ओट में ले गयी। मेरे सभी गहने उतारवाकर पहले मेरे शरीर में कुछ छुपा हुआ तो नहीं है...उसकी जांच की गयी और फिर सवाल-दर सवालों के जरीये मेरे पूरे खानदान के बारे में जानकारी ली गयी। पिता क्या काम करते हैं से लेकर घर में कौन कौन हैं और खुद मैं कितना पढ़ी हूं।

संतुष्ट होने के बाद एक बुजुर्ग सरीखे आदिवासी ने मेरे सारे गहने मुझे लौटाये और उसके बाद मैं अपने घर में घुस पायी। और मुझे जानकारी दी गयी कि अब मै इस गांव की नागरिक हूं। मैंने सोचा बिहार से झारखंड घुसने के दौरान भी किसी पुलिस ने हमारी गाड़ी नहीं रोकी लेकिन गांव में आदिवासियों ने जिस तरह सब कुछ खंगाल डाला, उसकी वजह की जानकारी मुझे अगले दिन से ही मिलने लगी। मायके आने की अगली सुबह ही 25 हजार रुपये वसूलने कुछ युवा आदिवासी लड़के आये । पता चला यह लेवी है। गांव की रक्षा करने वाले आदिवासियों का नियम है कि गांव में जिस लड़के की शादी बाहर होगी, उसे बतौर लेवी 25 हजार रुपये देने होंगे और लड़की की शादी होने पर 10 हजार रुपये देने होंगे। लेकिन आदिवासी हैं कौन और जिस तरह आदिवासी लड़कियां बंदूक टांगे घूमती हैं, इन्हें रोकने वाला कोई नहीं है।

लेकिन हर सुबह और अगले दिन के साथ साथ मुझे नयी जानकारी मिलती। पहली बार देर शाम पटना यानी घर से मोबाइल पर फोन आया तो बात करने छत पर गयी और जोर जोर से बात कर रही थी तो अचानक फोन बंद करने का निर्देश हो गया। घर के बाहर से आदिवासियों ने इशारा किया और घर के लोगों ने फोन बंद करवा दिया। पता चला देर शाम इस तरह फोन पर बात भी नहीं की जा सकती है। क्योंकि खामोशी के बीच आवाज दूर तक गूंजती है और बाहरी किसी भी व्यक्ति को इसका एहसास हो सकता है कि यहां लोग रहते हैं, जिनके संबंध बाहर भी हैं। खासकर गोधूली बेला यानी करीब चार-साढे चार के वक्त न तो बात की जा सकती है न ही कोई घर से निकल सकता है। क्योंकि उस वक्त पुलिस पेट्रोलिंग की गाड़ियां गाहे-बगाहे गांव के करीब से निकलती हैं। फिर फसल अच्छी होने पर लेवी के लिये दो बोरा चावल लेने के तीन आदिवासी लड़के एक दिन फिर घर पर आये। पता चला चावल-गेंहू से लेकर सब्जी तक बतौर लेवी हर घर से लिया जाता है और यह सब आदिवासियों समेत गांव की रक्षा के लिये नियुक्त टीम के लिये होता है, जो सीधे माओवादियों के दिशा-निर्देश पर चलते हैं।

माओवादी शब्द भी मेरे लिये नया था। लेकिन धीरे धीरे पता चला कि चतरा से लेकर पांकी तक करीब सवा सौ गांव में इसी तरह माओवादियों की ही सरकार है और उन्हीं का दिशा निर्देश चलता है । हर घर से साल में दस हजार रुपये बतौर सुरक्षा लेवी लिये जाते हैं। टटरा में सिर्फ पच्चीस से तीस घर हैं और घने जंगल के बीचों बीच बसे इस गांव की हर जरुरत के लिये उन्हीं आदिवासियों को कहना पड़ता है जो माओवादियों के नियम कायदों को पूरा करने में जी जीन से लगे रहते हैं। उसकी एवज में गांव के लोग लेवी देते हैं। गाव में कुंआ खुदवाने से लेकर स्वास्थ्य केन्द्र और स्कूली शिक्षा की जरुरत, जो सरकार से पूरी होने चाहिये, उस पर भी इन्ही माओवादियो की निगरानी में काम होता है। गांववालों को कोई असुविधा ना हो इसकी जानकारी हमेशा यह आदिवासी लेते रहते हैं। मसलन मेरा भाई जब पटना से मिलने पहली बार गांव आया तो मेरे पति ने पहले ही उनके आने की जानकारी इस गांव रक्षक कमेटी को दे दी। चतरा से पांकी जाने वाली बस जब गांव के बस स्टैड पर रुकी और मेरा भाई बस से उतरा तो उसके साथ ही समूची बस के यात्रियो को बंदूकों से लैस आदिवासियो की एक पूरी टीम ने उतारा। सभी की जांच की गयी। बस के भीतर भी खोजबीन हुई। पुरुषों को आदिवासी लड़को ने तो महिलाओं को आदिवासी लड़कियों जांचा परखा और फिर बस को रवाना किया। उसके बाद मेरे भाई के समूचे सामान को खुलवाकर देखा गया और घर में आने से पहले मैंने घर के चौखट से ही देखा तो लगातार उनसे पूछताछ की जा रही थी और वह हाथ ऊपर किये हर सवाल का जबाब दे रहे थे। फिर सारी जानकारी जब पहले से दी गयी जानकारी से मेल खा गया तो ही भाई को घर जाने की इजाजत दी गयी। और भाई ने घुसते ही कहा-तुम्हारे घर तो आना बड़ा मुश्किल काम है। ऐसी जांच तो देश में कहीं नहीं होती। दो दिन भाई रहा। लेकिन उस दौरान उसे कोई परेशानी नहीं हुई सिवाय शाम के बाद घर में कैद हो जाने के।

साल दर साल बीतते गये तो मैं भी पूरी तरह गांव की हो चुकी थी तो एक दिन मैंने स्कूल में बच्चों को पढ़ाने का जिक्र पति से किया। उसके बाद गांव के उन बच्चों को पढ़ाने लगी जो दिनभर यूं ही भटकते। फिर उन आदिवासियों के बच्चो को पढ़ाया जिनके मां-बाप बंदूक लटकाये घूमते थे। एक दिन मुझे पता चला कि गांव की तरफ से मेरा नाम ग्राम शिक्षक के लिये भेजा गया है। जैसे ही सरकार की तरफ से शिक्षकों की नियुक्ती होगी, वैसे ही मेरी नियुक्ति भी ग्राम शिक्षक के तौर पर हो जायेगी। उसकी एवज में मुझे साढ़े तीन-चार हजार मिलेंगे । लेकिन सरकारी नियुक्ति के बाद पैसे तो सरकार देती है, ऐसे में माओवादी कैसे मेरी तनख्वाह देंगे। तो पति ने बताया कि गांव के लिये जो भी पैसा आता है, बीडीओ का काम है कि समूचा पैसा वह हर गांव की रक्षा में लगे इन माओवादियों को दे दे। उसके बाद जरुरत मुताबिक सरकारी रकम को ग्रामीणो में बांटा जाता है। ऐसे में ग्राम शिक्षक के तौर पर अगर मेरी तनख्वाह करीब चार हजार साढ़े तीन सौ रुपये तक आयेगी तो हर महिने उसमें से पांच सौ से सात सौ रुपये बच्चो की किताब और सलेट और बाकि जरुरतों पर खर्च किया जायेगा।

जो आदिवासी पहले दिन मेरी जांच कर रहे थे, अब उन्हीं आदिवासी महिलाओं ने मुझसे आ कर कहा कि बच्चों को पढ़ाने के बाद मैं उन्हे भी हफ्ते में एक दिन पढ़ा दूं। गांव से करीब आधे किलोमीटर दूर उन आदिवासियों की क्लास लगती जो दिन भर कंधे पर बंदूक उठाये गांव-दर गांव रक्षा में जुटी रहती। और लेवी वसूली से लेकर समूची व्यवस्था में जुटी रहती। इन सब से मैं भी खुश हुई कि कुछ दिनो बाद से मैं भी घर के खर्चो में हाथ बंटा सकूंगी। गांव की ही कुछ महिलाएं प्रौढ शिक्षा कार्यक्रम के तहत कई वर्षो से पढ़ाती रही है । देर रात प्रौढ शिक्षा कार्यक्रम के तहत चलने वाली पढ़ाई में अक्सर हथियारों को छोड कापी-कलम लेकर वही आदिवासी पढ़ने पहुंचते, जो दिन के उजाले में हथियारों के साथ गांव में घूमते नजर आते।

लेकिन पिछले साल गांव की दो घटनाओ ने मुझे अंदर से हिला दिया। पहली घटना यह कि गांव के एक लड़के की शादी तय हुई तो उसने
25 हजार लेवी देने से मना कर दिया। चूकि गांव में कभी कोई बारात नहीं आती तो लड़के ने इसका विरोध कर कहा कि अगर बारात को आने नहीं दिया जायेगा तो तो वह लेवी भी नहीं देगा। माओवादी गांव में बारात आने नहीं देते क्योंकि उनका मानना है कि पुलिस बारात के बहाने गांव में घुस सकती है। ऐसे में शादी करके जिस दिन वह लड़का अपनी पत्नी के साथ घर पर आया वैसे ही उस लड़के की हत्या माओवादियों ने कर दी। लडकी पहले दिन ही विधवा हो गयी। वहीं उस लडकी को लेने जब उसके घरवाले अपनी गाड़ी से आ रहे थे तो अचानक गाड़ी गांव की उस सड़क पर चली गयी जिस पर माओवादियों ने विस्फोटक बिछा रखा था। चूंकि लड़की ने अपने घर वालों के बारे में पूरी जानकारी उनके आने से पहले माओवादियो को दे दी थी तो गाड़ी को बचाने के लिये विस्फोटक को उठाने एक आदिवासी लड़का गाड़ी के आगे खड़ा हो गया और दूसरा जैसे ही विस्फोटक के करीब से गाड़ी को निकलवाने का प्रयास कर रहा था तो विस्फोटक पर उस माओवादी आदिवासी लड़के का ही पांव पडा और उसकी जान चली गयी। लेकिन गाडी को आंच भी नहीं आयी। सब कुछ समूचे गांव के सामने हुआ। और उस लड़की ने भी अपने घर की चौखट से देखा कि उसके परिवार वाले कैसे बाल बाल बचे और आदिवासी लड़को ने कैसे बचाया।

माओवादियो की वजह से विधवा हुई लड़की अगले दिन जाने के बजाये उस आदिवासी लड़के के अंतिम संस्कार के लिये गांव में ही रुकी। और तीन दिन बाद ही अपने घरवालो के साथ अपने मायके रांची रवाना हुई। माओवादियो की तरफ से उस लड़की को आश्वासन दिया गया कि अगर वह गांव वापस अपने पति के घर पर रहने आयेगी तो उसके लिये भी कोई नौकरी गांव के स्तर पर ही ग्राम पंचायत के जरीये वह कराने का प्रयास करेंगे। बीते छह महिनो से वह लड़की गांव नहीं लौटी लेकिन इस दौर में उस लडके के घर से पहली बार सालाना
10 हजार की लेवी के अलावा और कोई लेवी नहीं ली गयी।

मैं ग्रेजुएट हूं और पटना जैसे शहर में पली बढी हूं। लेकिन पहली बार टटरा गांव में रहते हुये मैं यह महसूस ही नहीं कर पाती कि देश में ऐसी जगह भी है, जहां पुलिस प्रशासन
, व्यवस्था सबकुछ अलग है। लेकिन गांव में कभी बिजली नहीं जाती। पीने के पानी के लिये हैड पंप और कुंआ तो पहले से था लेकिन बीते दो साल से गांव में नल भी लग गया। और जो पाइप लाइन बिछी, उसे बीडीओ ने उन्हीं आदिवासियो के सहयोग से बिछवाया, जो पूरे गांव में बंदूक उठाये घूमते हैं और लेवी लेते हैं। नरेगा का पैसा भी माओवादियो के पास बीडीओ के जरीये आ जाता है। माओवादी सिर्फ गांववालों के नाम या उन आदिवासियो का नाम, अंगूठे के निशान के साथ बीडीओ को दे देते हैं, जिससे लगे कि नरेगा का काम हो रहा है। माओवादी जो भी काम कराते हैं, उसके एवज में इसी पैसे से रकम बांट देते हैं। नरेगा में सौ रुपया मिलता है तो माओवादी 45 रुपये देते हैं। लेकिन गांव में जो भी काम होता है, उसे वहीं के लोग काम करते है। काम सभी के पास है। गांव में भूखों मरने जैसा स्थिति नही है। छह साल से रहते हुये मेरी सोच इतनी ही बदली है कि 2004 में जब शादी होके टटरा पहुंची थी,तब लगता था कि गांववालो के बीच माओवादी है, अब लगता है कि माओवादियो के बीच हम हैं।

Friday, April 2, 2010

सरकार की पार्टनर मीडिया?

बॉलीवुड फिल्म रणसे लेकर माय नेम इज खानऔर गजनीसे लेकर थ्री इंडियट्स। कोई भी चर्चित फिल्म, जो बीते तीन-चार वर्षो में लोकप्रिय और हिट रही हो या फिर आने वाली हो, वो बिना मीडिया पार्टनर के आपको नजर नहीं आयेगी। पार्टनर बनने को लेकर होड़ भी कुछ इस तरह है कि राष्ट्रीय न्यूज चैनल चाहे वह हिन्दी के हो या अंग्रेजी के सभी पार्टनर बनना भी चाहते है। फिल्म वाले बनाना भी चाहते हैं। निश्चित तौर पर जब कोई न्यूज चैनल पार्टनर हो जायेगा तो फिल्म के बारे में बताने का उसका नजरिया भी बदल जायेगा और न्यूज चैनल के स्क्रीन पर फिल्म के कार्यक्रम से लेकर नायक-नायिका का इंटरव्यू भी फिल्म को हिट बनाने की दिशा में ही उठेगा।

जाहिर है न्यूज चैनल को पार्टनर बना कर अपने माल को बेचने का मतलब सीधा सा है कि उत्पाद की क्रेडेबिलिटी बने। वहीं इंफोटेनमेंट में बदलते न्यूज चैनलों के लिये आपसी प्रतिद्वन्दिता में बाजी मार लेने का खेल भी है। चैनल की इस पार्ट्नरशीप का विस्तार इतना हो चुका है कि देश में कोई भी कार्यक्रम हो या नया प्रोजेक्ट सभी के साथ मीडिया का कोई ना कोई समूह बतौर पार्टनर नजर आ सकता है। मीडिया की यह पार्टनरशीप किसी राजनीतिक दल से जुड़े किसी संगठन के कार्यक्रम से लेकर किसी बड़ी कंपनी के किसी नये उत्पाद को लांच करते वक्त भी नजर आ सकती है। यह वह परिस्थितियां हैं, जो मीडिया को लेकर समाज के भीतर चौथे खम्भे के होने का एहसास खत्म करती हैं। अगर हर जगह कोई न कोई न्यूज चैनल किसी ना किसी का पार्टनर होगा तो चौथे खम्भे को लेकर यह भ्रम तो टूटेगा ही कि मीडिया की निगरानी में सभी हैं। या फिर मीडिया का काम निगरानी का है। और अगर मीडिया समाज के भीतर धंधा करने वालों के साथ ही खड़ा है तो फिर धंधे की विश्वसनीयता चाहे मीडिया के आसरे बन जाये लेकिन मीडिया की अपनी विश्वसनीयता तो दांव पर लगेगी ही।

असल में चौथा खम्भा बने रहकर न्यूज चैनल चलाना यहीं से मुश्किल होता नजर आता है। बिकने और खरीदने का साथ मुनाफे का कोई भी रुप अपना लेने में न्यूज चैनलों को कोई परेशानी होती नहीं । क्योंकि आखिरी मापदंड जब मुनाफे की रकम का जुगाड़ होती है तो चाहे न्यूज चैनलों की कनैक्टिविटी का सवाल हो या विज्ञापन लाने का या फिर टीआरपी के जरीये चैनल को आगे बढ़ाने की होड़ का। पहले यह एकदूसरे के सहयोग पर टिकता है। फिर सभी एक सरीखा लगने लगता है। और आखिर में न्यूज चैनल के भीतर मास्टरवॉयस उसी की मानी जाती है जो सबसे ज्यादा खांटी नोटों के तौर पर मुनाफा दिलवा रहा हो।

इस परिस्थिति में खुद को बनाये या टिकाये रखने के लिये न्यूज चैनलों के भीतर बिना पार्टनर लिखे या बिना पार्टनर बताये पार्टनर बनने की शुरुआत होती है। और चूंकि राजनीति सबसे पावरफुल सत्ता है तो उसके साथ मूक सहमति की पार्टनरशीप की शुरुआत होती है। लेकिन मीडिया के मंचो से मुनाफा कमाने-बनाने के आगे सरकार के साथ पार्टनरशीप की भी शुरुआत हो चुकी है। यह सिर्फ चुनाव के वक्त पेड न्यूज से ही नहीं उभरा बल्कि कौन सी खबर कवर की जाये और कौन सी नहीं इससे भी उभरने लगा है। जिस तरह राष्ट्रीय और क्षेत्रीय न्यूज चैनलों का अपना अलग वजूद होता है वैसे ही राष्ट्रीय न्यूज चैनलों और क्षेत्रीय स्तर के मीडिया की पार्टनरशीप अलग अलग तरह से कहीं भी देखी समझी जा सकती है। मसलन शरद पवार को निशाना बनाने की मुहिम जब सरकार के भीतर शुरु हुई और कांग्रेस खुल कर महंगाई के लिये कृषि मंत्री को घेरने निकली तो जो बात राष्ट्रीय न्यूज चैनल कह रहे थे या कहें कि दिखा रहे थे वह महाराष्ट्र के न्यूज चैनलो में न तो दिखाया जा रहा था न बताया जा रहा था। पवार की राजनीति को महाराष्ट्र में टक्कर देना कांग्रेस के बूते अभी तक नहीं है और पवार के मुनाफे के घेरे में महाराष्ट्र के न्यूज चैनलों की समूची फेरहिस्त आती है। ऐसे में वहां की रिपोर्टिंग में कृषि मंत्री के साथ साथ समूची कैबिनेट और पीएम का जिक्र हर कोई कर रहा था लेकिन दिल्ली के न्यूज चैनलों में महंगाई को लेकर समूचा ठीकरा पवार पर ही फोड़ा गया।

वहीं इस दौर में महंगाई की असल वजह पर कोई रिपोर्टिंग किसी न्यूज चैनल ने नहीं की। पहली बार गन्ने को लेकर मायावती ने उत्तर प्रदेश में महाराष्ट्र में पवार की लॉबी से बडी लॉबी बना ली और चीनी के दामों पर अपनी नकेल कस डाली लेकिन इस पर कोई रिपोर्टिंग नजर नहीं आयी कि मुनाफाखोरी-जमाखोरी के साथ साथ उत्पादों पर कब्जा करने के लिये व्यापारियों का राजनीतिक वर्ग बनाने की भी नयी पहल सत्ता ने ही शुरु कर दी है। जो शेयर बाजार की तरह न सिर्फ कीमतो को अपने अनुसार ऊपर-नीचे कर सकते हैं बल्कि शेयर दलाल की तर्ज पर समूचे बाजार को भी राजनीतिक हित साधने से जोड़ सकते है। मीडिया की यह पार्टनरशीप खबरों को भी राजनीतिक सत्ता के मुताबिक परिभाषित कर सकती है। महिला आरक्षण से लेकर नरेन्द्र मोदी की एसआईटी के सामने पेशी इसका एक छोटा सा उदाहरण है। महिला आरक्षण राज्यसभा में तो लागू होना नहीं है और लोकसभा में सांसदो के सामने संकट आना है तो ऊपरी सदन में जल्दबाजी में पास होना और निचले सदन में अनिश्चितकाल के लिये रोकने की वजह के पीछे की कहानी कभी मीडिया में नहीं आयेगी। जबकि हर कोई जानता है कि आरक्षण के समर्थन में राजनीतिक दलों के सांसदों की संख्या दो तिहाई है। वहीं मोदी एसआईटी दफ्तर के बाहर जमा तमाम न्यूज चैनलों के लिये चाय नाश्ते की व्यवस्था भी कराते हैं और पूछताछ के बाद मीडिया से मजे भी लेते है कि कोई मसाला उन्हें मिला या नहीं। जबकि किसी न्यूज चैनल पर यह सवाल नहीं रेंगता कि गुलबर्ग कांड के 24 धंटे बाद भी एक भी पुलिसकर्मी या सुरक्षाकर्मी वहां क्यो नहीं पहुंचा और मोदी जब एसआईटी के दप्तर पहुंचे तो उनके निवास से एसआईटी दफ्तर के डेढ़ किलोमीटर की दूरी के बीच में सुरक्षा के लिये करीब नौ सौ पुलिस वालों की तैनाती की जरुरत क्यों थी।

असल में राजनीति या सरकार से यह पार्टनरशीप कोई सीधा लाभ किसी न्यूज चैनल को पहुंचाती हो ऐसा भी नहीं है। और ऐसा भी नहीं है कि सरकार या राजनीति के रुठने पर किसी न्यूज चैनल के सामने संकट के बादल मंडराने लगे। लेकिन पार्टनर होकर जिस तरह से सत्ता के भीतर सत्ता का घेरा हर संस्थान बना रहा है और उसमें शरीक होने के लिये मीडिया समूहो से जुड़ा उच्च तबका बैचेन है, उससे कई सवाल खुद-ब-खुद निकल पड़े हैं। क्या व्यवस्था का खाका ही संस्थानो की सहमति के आधार पर बन रहा है। सहमति और पार्टनर होकर मुश्किलों को ना सिर्फ टाला जा सकता है बल्कि ज्यादा बड़ी सत्ता के लिये कॉकस भी बनाया जा सकता है। सबसे बड़ी बात तो यही है कि क्या पदों पर बैठे लोगों को इसका एहसास हो चुका है कि जिस तेजी से देश की अर्थव्यवस्था कुलाचे मार रही है अगर उसमें मुनाफा बनाते हुये टिके रहना है तो पार्टनर बन कर जीया जा सकता है। जिसके लिये लोकतंत्र के सारे खम्भे ढहा ही क्यों ना दिये जायें। क्योंकि नया लोकतंत्र जनता या सरोकार में नहीं बाजार और मुनाफे पर टिका है, और फिलहाल उसका पार्टनर मीडिया है। तो आवाज कौन उठायेगा?