जितने कैमरे, जितनी ओबी वैन, जितने रिपोर्टर और जितना वक्त सानिया-शोएब निकाह को राष्ट्रीय न्यूज चैनलों में दिया गया, उसका दसवां हिस्सा भी दंतेवाडा में हुये नक्सली हमले को नहीं दिया गया। 6 अप्रैल की सुबह हुये हमले की खबर ब्रेक होने के 48 घंटे के दौर में भी नक्सली हमलों पर केन्द्रित खबर से इतर आएशा और शेएब के तलाक को हिन्दी के राष्ट्रीय न्यूज चैनलों ने ज्यादा महत्व ही नहीं दिया बल्कि अगुवाई करने वाले टॉप के राष्ट्रीय न्यूज चैनलो ने यह भी जरुरी नहीं समझा कि दिल्ली से किसी रिपोर्टर को दंतेवाडा भेज ग्राउंड जीरो की वस्तुस्थिति को सामने लाया जाए। जबकि आएशा की शादी का जोड़ा कहां बना और निकाह के बाद कितनी रातें आएशा के साथ शोएब ने बितायी होंगी और बच्चा गिराने तक की हर अवस्था को पकड़ने में लगातार हर न्यूज चैनल के रिपोर्टर न सिर्फ लगे रहे बल्कि स्क्रीन पर भी ब्रेकिंग न्यूज की पट्टी के साथ यह तमाम किस्सागोई चलती रही।
दूसरी ओर नक्सली हमले के बाद हमले को लेकर न्यूज चैनलो के स्क्रीन पर जो दृश्य खबरों के रुप में उभरा, वह चिदंबरम का था। फिर मारे गये जवानो के परिजनों के दर्द का था। सीआरपीएफ जवानों की मौत से सूने हुये 76 आंगन की कहानियों का सिरा और अंत रोते-बिलखते परिवारो के शोर से ही उभरा। जिन परिस्थितियों में गांव में किसानी छोड़ सीआरपीएफ के हवलदार और कांस्टेबल बन कर एक नयी जिन्दगी मारे गये 76 जवानों में से 63 जवानो ने शुरु की थी, उनकी जिन्दगी के साथ बीते पांच सालो में कई जिन्दगियां जुड़ गयीं, उनके लिये सरकार के पास कोई योजना है भी या नहीं यह हकीकत सानिया-शोएब की किस्सागोई पर हल्की पड़ गयी। खेत खलिहानो में मेहनत कर किसी तरह दसवीं पास कर कन्याकुमारी का कांस्टेबल राजेश कुमार हो या राजस्थान का कांस्टेबल संपत लाल सभी का सच न्यूज चैनलों के पर्दे पर बच्चों, पत्नी, मां-बाप के रोने बिलखने में ही सिमटा। एक लाइन में रखे ताबूत, उन्हीं ताबूतों को सलामी देते गृह मंत्री पी चिदंबरम। चिदंबरम जहां गये कैमरे वहां पहुंचे। नक्सली समस्या में न्यूज चैनलों के लिये चिदंबरम ही ब्रांड हैं, इसलिये गृह मंत्री 76 ताबूत पर भी हावी थे।
न्यूज चैनलों के लिये चिदंबरम ने हर राह आसान की। चिदंबरम की बाइट और कट-वेज को ही नक्सली संकट बताना-दिखाना मान लिया गया। लेकिन सानिया-शोएब-आएशा की किस्सागोई पकड़ने के लिये रिपोर्टर कैमरे सिर्फ हैदराबाद में नहीं सिमटे बल्कि हैदराबाद के बंजारा हिल्स से लेकर दिल्ली में पाकिस्तानी दूतावास और लाहौर से कराची तक की दूरी पाट रहे थे। वैसे, न्यूज चैनल अगर चाहें तो एलओसी के आर-पार के सच को भी टीवी स्क्रीन पर उतार दें। लेकिन ऐसा क्या है कि देश के बीचोंबीच छत्तीसगढ में 76 सीआरपीएफ जवान मारे गये और न्यूज चैनलों की ओबी वैन या कैमरा टीम पहुंचने में भी दस घंटे से ज्यादा का वक्त लग गया ? पहले छह घंटो में घायल जवानों को राहत तक नहीं पहुंची ? पहले घायल को अस्पताल का सुख 12 घंटे बाद मिला। तो क्या खबर देने के लिये सरकार से लाइसेंस लेने वाले न्यूज चैनलों का यह फर्ज नहीं है कि वह उन परिस्थितियों को बताये, जिससे दोबारा ऐसी स्थितियां ना बने या फिर नक्सली प्रभावित इलाकों में आदिवासियों और सीआरपीएफ की जिन्दगी कैसे कटती है, उसे उभारे।
लेकिन यह सच भी सानिया की मुस्कुराहट और शोएब के तेवर में गायब हो गया। न्यूज चैनल देखते हुये खबरों का सच कोई कैसे जान सकता है, जब उसे पता ही नहीं होगा कि चिंतलनार गांव, जहां नक्सली हमला हुआ, वह इस पूरे इलाके का एकमात्र गांव है, जो छत्तीसगढ सरकार के सलावाजुडुम कार्यक्रम में शामिल नहीं हुआ। इसलिये इस गांव को सरकार ने भी ढेंगा दिखा दिया। यहां न पानी है न बिजली और न प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र है। स्कूल की इमारतें जरुर हैं लेकिन शिक्षक नहीं हैं। इसलिये स्कूल की इमारत में ही सीआरपीएफ जवान रुके। हमले के वक्त गांव वाले घरों में सिमट गये लेकिन ये वही गांववाले हैं, जिनके पास दो मील दूर से लाया पानी न होता तो जो सात जवान बच गये, वह भी ना बच पाते।
न्यूज चैनल के जरीये खबरों को जानने वाले यह भी कैसे जान सकते हैं कि सीआरपीएफ जवान रात दो बजे से लेकर सुबह दस बजे तक ही ऑपरेशन को ही अंजाम देते हैं क्योकि दस बजे के बाद इन जंगलों में तापमान चालीस डिग्री पार कर जाता है। पानी पूरे इलाके में नहीं है, इसलिये कैंपों में जमा पानी को ही बोतल में बंद कर गीले कपड़ों से लपेट कर चलते हैं। बुलेट प्रूफ जैकेट पहन नहीं सकते क्योंकि गर्मी और जंगल का रास्ता इसकी इजाजत नहीं देता। हर जवान करीब बीस किलोग्राम बोझ उठाये ही रहता है क्योंकि जंगलो में यह बोझ जीवन होता है। इस बोझ का मतलब है एसएलआर, राइफल, एके-47 या 56 , मोर्टार लांचर और ग्रेनेड।
वहीं इन न्यूज चैनलों को देखने वाला हर भारतीय जान चुका है कि आएशा ने शोएब के साथ निकाह के बाद की पहली रात के कपड़े आजतक सहेज कर रखे हैं। और जरुरत पड़ी तो कपड़ों का भी डीएनए टेस्ट हो सकता है। लेकिन सीआरपीएफ जवानों के पानी के बोतल और बूटों के लिये कोई टेस्ट नहीं है। आएशा का फोन-इन लगातार न्यूज चैनलो में चलता रहा। लेकिन सीआरपीएफ के जवानों पर जब संकट आया तो किसी जवान ने किसी चैनल को मोबाइल नहीं लगाया। मारे गये 76 जवानों में से 28 के पास मोबाइल उस वक्त जेब में थे। लेकिन हर जवान की उंगलियां बंदूक के ट्रिगर पर थी, न कि मोबाइल के बटन पर। अली हसन ने जरुर मोबाइल से अपने घर वालों को बताया कि उसकी जान जा रही है और बच्चों का ख्याल रखना। लेकिन यह सब न्यूज चैनल के स्क्रीन पर नहीं है।
दिल्ली से जगदलपुर-रायपुर और फिर दिल्ली तक न्यूज चैनलों का कैमरा अगर घूमा तो उसकी वजह चिदंबरम और रमन सिंह ही रहे, जो न्यूज चैनलों के लिये ब्रांड हैं। इसलिये जब एक ब्रांड ने इस्तीफे की बात कही तो दूसरे ब्रांड ने बिना देर किये इस्तीफे को बेकार करार दिया और जवानों के लिये मौत के बाद का जीवन का फिर यही चिदंबरम और रमन सिंह बन गये। क्योंकि जवान की मौत तब तक मायने नहीं रखती जब तक कोई मंत्री न पहुंचे। न्यूज चैनल के दर्शक कैसे जानेंगे कि जवानों की मौत इतनी सामान्य है कि चिंतलनार में नक्सली हमले की पहली जानकारी सुबह 6.10 पर दोरणापार के एसडीपीओ ओम प्रकाश शर्मा को मिली तो उन्होंने भी इसे सामान्य घटना माना। सामान्य का मतलब है बारुदी सुरंग का फटना और दस-बारह जवानों का मरना। और इतनी मौतों पर कोई विधायक भी नहीं आता है। हिन्दी के राष्ट्रीय न्यूज चैनलों के जरिये कैसे दर्शक जान पायेगा कि चिंतलनार से 185 किलोमीटर दूर जगदलपुर में सीआरपीएफ की 62 वीं बटालियन के बचे जवानो में गुस्सा पनप रहा है कि राजनेता और दिल्ली के एसी कमरो में बैठे नौकरशाह बयान दे रहे हैं कि जवान गलत रास्ते पर निकल पड़े इसलिये नक्सली हमला हो गया। बचे जवानों में गुस्सा है कि उन्हें बताया गया है कि आपात जरुरत के लिये चौपर मौजूद है, लेकिन जब जवान खून से लथपथ हो गये तो उनकी सुध लेने के लिये चौपर नहीं था।
दर्शकों को कौन दिखायेगा कि जंगलों में सीआरपीएफ जवान जहां रुकते हैं, पहले उसे चंद घंटों के लिये आराम करने लायक बनाते हैं। बमुश्किल जगह मिलती है, और उसे रुकने लायक बनाते बनाते अगले पड़ाव के लिये निकलने का वक्त आ जाता है। क्योकि कमांडेंट को उपर से आदेश है....रिजल्ट चाहिये। लेकिन न्यूज चैनलो पर यह सच नहीं दिखाया जा सकता क्योंकि गृह मंत्रालय की एडवाइजरी है- नक्सल समस्या को सामाजिक-आर्थिक मुद्दों से न जोड़ें। मगर सानिया -शोएब के निकाह पर सरकार की कोई एडवाजरी नहीं है क्योंकि ये ब्रांड हैं।
क्योंकि नक्सलवादी और इन बलों के जवान दोनों ग़रीब के बेटे/बेटियां हैं…और विज्ञापन पेज़ 3 के लोगों से मिलता है…क्योंकि सानिया/शोएब/आयशा तक प्लेन/फोन और कार से पहुंचा जा सकता है…क्योंकि इनकी ख़बर सुनते समय व्हिस्की/स्काच की चुस्कियां ली जा सकती है…
ReplyDeleteभारत का गरीब आदमी टीवी के लिए कैसे ब्रांड हो सकता है? वह मरने के लिए सिपाही हो सकता है, सरकार का भी और नक्सलियों का भी।
ReplyDeleteसादर वन्दे !
ReplyDeleteबाजपेयी जी उसी तालाब में रहकर उस तालाब की गन्दगी को प्रस्तुत करना आज के समय में बड़ा काम है, मै आपके इस प्रयास की सराहना करता हूँ.
रत्नेश त्रिपाठी
अच्छा है पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर...आप कर सकते हैं गुरूजी...हां लेख ज़बर्दस्त है...सिरे कई हैं...उलझन कहीं नहीं...पर मीडिया कमाल की उलझन है...
ReplyDeleteसलाम करता हूं आपकी ईमानदार और बेबाक कलम को।
ReplyDeleteसरोकार की खबरों से दूर रहना मीिडया की हकीकत बनता जा रहा है। कल भी िबहार में आए तूफान आैर मौंतो को उतनी जगह नहीं िमली िजतनी थरूर,मोदी आैर सुनंदा को। जब सचमुच हम कहीं दूर दराज देशा के भीतरी िहस्सों की खबरें चाहते हैं राष्ट्रीय के बजाए क्षेत्रीय चैनल अपेक्षा पर ज्यादा खरे उतरते हैं।
ReplyDeleteगुरुदेव, दुख होता है...
ReplyDeleteदुख इस बात का कि हमारे 76 जवान शहीद हो गए...और हम अपने बॉस के इशारे पर...एक से एक चैप्टर, ग्रफिक्स और चटखारेदार खबरें लिखते-बनाते रहे...
दुख दोनों बातों का है...जवानों की शहादत भी दुखदायी रहा...और उस वक्त में सानिया की शादी में प्रुक्त होने वाले आइटम्स की सूची पर शोध करने में भी...(लेकिन एक समस्या है गुरूजी...
आपसे सादर अनुरोध है...प्रार्थना है, अगर वक्त मिले तो प्रतिसाद जरूर कीजिएगा...)
*** आपका लेख हमेशा की तरह लाजवाब रहा...लेकिन एक बात खटकी...(इसी पर आपका प्रतिसाद चाहता हूं), हम लोग अभी बच्चे और कच्चे हैं...पत्रकारिता का नामुराद कीड़ा आधे पेट खाकर भी पत्रकारिता करवाता है...तो दुख होता है...कि हम ऐसा क्यों कर रहे हैं...
(आपको पढ़-सुनकर बड़ा हुआ हूं...इसीलिए कहने की हिम्मत जुटा पा रहा हूं...)सबसे दुखद तो यह है कि आपको भी दुख होता है...क्यों होता है, वजह पता नहीं...अखबार का सब एडिटर दुखी हो सकता है...एडिटर को दुखी होने का हक नहीं...
आपलोगों की खबरें पढ़-देखकर बड़ा हुआ... को
कोई दूसरी नौकरी ढूंढ ली है क्या....
ReplyDeleteगुरूजी, ये आपकी रुदाली लगातार कई सालों से सुनता पढता रहा हूँ ..किशोर अजवानी ने भी अपने ताज़ा ब्लॉग में ठीक आपके उलट इस मुद्दे पर अपनी व्याख्या प्रस्तुत की है..रवीश कुमार भी गाहे बगाहे ऐसे मुद्दों पर अपना मर्सिया पढ़ते रहते हैं..कुल दो तरह के लोग इलेक्ट्रोनिक मीडिया की मंडी से निकल कर आये हैं..एक जो वर्तमान मीडिया की अवस्था और प्राथमिकताओं को जनता की इच्छा से जोड़ कर इसे जायज़ ठहरा रहे हैं और दुसरे आप जैसे लोग जो संपादकों और output के मानसिक दीवालियापनको आलोकित कर रहे हैं..हालाँकि आपके दरबारी लोग आपकी इच्छाशक्ति और साहस को लेकर प्रसून चालीसा लिखने के मूड में दिख रहे हैं लेकिन अगर ये लडाई गंभीरता से लडनी है तो व्यवस्था से बहार आकर, सिक्स डिजिट सैलरी का मोह छोड़ कर लड़िये...जनसत्ता में छपे लेख पुरूस्कार दिला दें और गंभीर पत्रकार का लेबेल दे दें और बाकी सुविधाओं के लिए टीवी चैनल हैं ही..मुझे इसमें दोगलापन साफ़ दिखाई देता है..विचार व्यक्तिगत हैं और चूँकि आप लोकतान्त्रिक व्यक्ति हैं इसलिए आप तक पहुंचा रहा हूँ और कोई मंशा इस टिपण्णी के पीछे नहीं है....
ReplyDeleteसबसे पहले क्षमा मांगता हूँ के बाटला काण्ड पर आपके लेख पर मैंने एक बड़ी लम्बी टिपण्णी की थी जो असमति की थी .....क्षमा असहमति के लिए नहीं है ....क्षमा उन तथ्यों के ज्ञात होने पर है जिसमे जांच कमिटी ने कहा है के ये रिपोर्ट फर्जी है ......कभी कभी भावनाए तथ्यों के आड़े आती है .....
ReplyDeleteविचार है, अच्छा है। आज के दौर में विचारों में भी ईमानदारी बनी रहे यही बहुत है।
ReplyDeleteबृजेश सिंह
'गृह मंत्रालय की एडवाइजरी है- नक्सल समस्या को सामाजिक-आर्थिक मुद्दों से न जोड़ें। मगर सानिया -शोएब के निकाह पर सरकार की कोई एडवाजरी नहीं है क्योंकि ये ब्रांड हैं।'
ReplyDeletesahi farmaya
इस दौर में सबसे बड़ा परिवर्तन में मीडिया में होना चाहिए. क्यूंकि यह बहक चूका है
ReplyDeleteगुरूजी, करीब दो साल पहले की बात है। जगदलपुर में बारूदी सुरंग विस्फोट में तीन जवान घायल हुए थे। घायल जवानों को तुरंत अस्पताल भेजना ज़रूरी था उस वक्त पास के ही एक इलाके में बृजमोहन अग्रवाल(तत्कालीन वन एवं राजस्व मंत्री) हेलिकॉप्टर से पहुंचे हुए थे उनसे घायल जवानों को रायपुर भेजने के लिए हेलिकॉप्टर की सहायता की गुज़ारिश की गई और उन्होने इंकार कर दिया था। मुझे रफ फुटेज तक याद है। इतना ही नहीं दो बुरी तरह से घायल जवानों को हेलीपैड से वापस कर दिया गया था। बाद में इन दोनों की ही मौत हो गई। पर हां शायद छोटे चैनल्स में 'तकनीकी' दिक्कतें या पेंच इतने नहीं लगते ... छोटे चैनल ने खबर को ब्रेक किया छीला और बृजमोहन साहब के पेशानी पर पसीने की बूंद उभरते देखा भी। क्या आपको लगता है कि छोटे चैनल्स में सही में तंत्र ज्यादा स्वतंत्र है?
ReplyDeleteसर प्रणाम, टीवी पत्रकारिता शायद इसी का नाम है... मैंने जब इससे जुड़ने का सोचा था तो आपलोग को टीवी पर देखने के बाद ही सोचा था... लेकिन इसकी सच्चाई शायद अब जाकर पता चली है... ये टीवी ब्रांडों को भी उन्ही लोगों ने जन्म दिया है जो टीवी पत्रकारिता के शुरुआत से ही इसके साथ हैं... लोगों को टीवी का आज वो स्वाद पसंद है जो उन्हें दस साल से चटाया जा रहा है... अब न तो कंटेंट बदला जा सकता है और न ही पत्रकारिता के कंटेनर में जमे हुए पत्रकार को... बाकी अभी तो सानिया के पहले बच्चे की सालगिरह भी मनाना बाकी है...
ReplyDeleteन्यूज चैनलो पर यह सच नहीं दिखाया जा सकता क्योंकि गृह मंत्रालय की एडवाइजरी है- नक्सल समस्या को सामाजिक-आर्थिक मुद्दों से न जोड़ें। ...............govt +media gathbandan
ReplyDeletemurdabad
sab TRP ka khel hai...sach ka kahan yahan mel hai..!
ReplyDeletesir bhale kisi ne na kiya ho lekin ndtv ne wo sab kiya. Sudhir ranjan ne ground zero se reporting kar darshakon ko us dard se roobroo karaya jo hamare veer jawan jhelte hain aur uf bhi nahi karte, haan baki channels ke liye to shoania jada important hai
ReplyDeleteSab to thik par ye thik nahi.
ReplyDeleteAisa kya ho gaya ki sashi tharoor aik jhtake me jamin par aa gaye, yaha tak ki modi ko bhi jamin dikhane ki taiyari ho rahi hai,mere khyal se sabhi neta aik swar me is mudde par apni sahmati jatla rahe hai, bhala aisa kya ho gay? Huaa ye ki media ne kuchh bhi bachaw ke liye choda hi nahi,kuch aisa kiaa ki Mahmohan sigh file maga rahe hai to phir ye kahana :-लेकिन न्यूज चैनलो पर यह सच नहीं दिखाया जा सकता क्योंकि गृह मंत्रालय की एडवाइजरी है- नक्सल समस्या को सामाजिक-आर्थिक मुद्दों से न जोड़ें।
Ye media ke liye kaise execuse ho sakta hai. Media ko gheriye kyoki wo deserve karti hai par sarkar ko samne laa kar use bebas nahi bata sakte.Kyoki media ko jo suit karta hai wo wahi karta hai. Jis tarah se IPL chaya hai kya kabhi Kisano ki Atmhatya ne wo jagah banai.Media kitani asardar ho sakti hai aur nirnay kaise badal sakte hai, pichle aise kai udahran pade hai .Media ki bebasi ya uski awsarwadita dono uski upjaai hui chije hai, Sarkar ko is ghere me lane ka sawal hi nahi uthta.Aap khud ke News Channels ko dekhiye, yaha tak ki apne programme ko lijiye,plz khud saamne aaiye, uske baad dekhiye phir ye sawal uthega hi nahi kyoki tab uttar aap de rahe hoge.
guru ji ko saadar parnaam....pta nahi ku aapse sahmat hokar bhi kush nahi hu,ati atyaadhunik patrkaaritaa ke daur me patrkaar kitanaa vivash hai ye pataa chal raha hai.....
ReplyDeletesocheye kya halat hai.. Ek shooter jise gold medal kitne par ek karor ka inam diya gaya ... lakin 75 se jayda shoter mare gaye unke kiye kewal ek- ek lakih ka inam...
ReplyDeleteक्या करेगे सर जी आज के समय मे पैसा ही ब्रांड बन गया है हम खबर करने के पहले ये देखते है ये शबर संबंधित किससे हैं।
ReplyDeleteप्रसून भैया,
ReplyDeleteदर-असल आज कल के दौर में जहां बाज़ारवाद ही सब अर्थों पर हावी हो रहा है, वैसे में जो बिकता है वह ही चलता है की तर्ज पर मीडिया भी काम करता है। ऐसा जान पडता है मानों सूचना तंत्र कभी किसी वर्ग विशेष और किसी व्यक्ति विशेष के हितार्थ अधिक काम करता है।
भले कडवा हो मगर कम से कम आज की स्थिति तो यही है...
आपकी बातें तीखी सच्चाइयाँ हैं. मिडिया की प्राथमिकताएं इसलिए बदलीं हैं ना कि आज ये मिशन नहीं, प्रोफेशन है.
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