कांग्रेस के पास पूंजीवादी राज्य नहीं है और आदिवासी-ग्रामीणों को लेकर जो प्रेम सोनिया गांधी से लेकर राहुल गांधी दिखला रहे हैं, उसके पीछे खनिज संसाधनों से परिपूर्ण राज्यों की सत्ता पर काबिज होने का प्रयास है। कांग्रेस की रणनीति उड़ीसा, छत्तीसगढ,झारखंड,मध्यप्रदेश और कर्नाटक को लेकर है। चूंकि अब राज्यसत्ता का महत्व खनिज और उसके इर्द-गिर्द की जमीन पर कब्जा करना ही रह गया है, इसलिये कांग्रेस की राजनीति अब मनमोहन सरकार की नीतियों को ही खुली चुनौती दे रही है, जिससे इन तमाम राज्यों में बहुसंख्य ग्रामीण-आदिवासियों को यह महसूस हो सके कि भाजपा की सत्ता हो या मनमोहन की इकनॉमिक्स कांग्रेस यानी सोनिया-राहुल इससे इत्तेफाक नहीं रखते।" यह वक्तव्य किसी राजनीतिक पार्टी का नहीं बल्कि सीपीआई (माओवादी) का पॉलिटिकल ड्राफ्ट है।
माओवादियों की समूची पहल चाहे सामाजिक आर्थिक मुद्दों को लेकर हो लेकिन पहली बार हर मुद्दे का आंकलन राजनीतिक तौर पर किया गया है। जिसमें खासकर किसान और आदिवासियों के सवाल को अलग-अलग कर राजनीतिक समाधान का जोर ठीक उसी तरह दिया गया है जैसे संविधान में आदिवासियो के हक के सवाल दर्ज हैं। सरकार और राजनीतिक दलों की पहल पर यह कह कर सवालिया निशान लगाया गया है कि जब 5वीं अनुसूची के तहत आदिवासियों के अधिकारों का जिक्र संविधान में ही दर्ज है, तो कोई सत्ता इसे लागू करने से क्यों हिचकिचाती है। इतना ही नहीं किसानों की जमीन और आदिवासियों के जंगल-जमीन पर अलग-अलग नीति बनाते हुये माओवादी अब अपने संघर्ष में परिवर्तन लाने को भी तैयार हैं। और इसकी बडी वजह संसदीय राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों की नयी राजनीतिक प्राथमिकताओं को ही माना गया है ।
माओवादियों का पॉलिटिकल ड्रॉफ्ट इस मायने में कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है कि संसदीय राजनीति को खारिज करने के बावजूद संसदीय राजनीति के तौर तरीकों पर ही इसमें ज्यादा बहस की गयी है। ड्राफ्ट में माना गया है कि आर्थिक सुधार का जो पैटर्न 1991 में शुरू हुआ अब उसका अगला चरण पिछड़े क्षेत्रों की जमीन और खनिज संसाधनों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार से जोड़ने का है। और चूंकि इस दौर में चुनाव लड़ने से लेकर सत्ता बनाना भी खासा महंगा हो चला है तो हर राजनीतिक दल उन क्षेत्रों में अपनी सत्ता चाहता है जहां उसे सबसे ज्यादा मुनाफा हो सके। आदिवासियों का सवाल इसी वजह से हर राजनीतिक दल की प्राथमिकता बना हुआ है क्योंकि आदिवासी प्रभावित इलाकों में गैर आदिवासी नेताओं की घुसपैठ तभी हो सकती है जब वहां के प्रभावी आदिवासी या तो राजनीतिक दलों के सामने बिक जायें या फिर आदिवासियों को उनके हक दिलाने के लिये कोई पार्टी या नेता आगे आये।
माओवादियो का मानना है कि कांग्रेस अगर अभी आदिवासियों के हक का सवाल उठा रही है तो उसकी वजह वहां की सत्ता पर काबिज होने का प्रयास है। क्योंकि उड़ीसा के नियामगिरी के आदिवासियों की तरह वह महाराष्ट्र के आदिवासियों को हक नहीं दिलाती है क्योंकि महाराष्ट्र में उसकी सत्ता बरकरार है। माओवादियों का मानना है कि आर्थिक सुधार के इस दूसरे चरण में सत्ता से उनका टकराव इसलिये तेज हो रहा है क्योंकि राज्य को जो पूंजी अब मुनाफे के लिये चाहिये वह शहरों में नहीं ग्रामीण इलाकों में है। और माओवादियों का समूचा काम ही ग्रामीण इलाकों में है। इसलिये सवाल माओवादियों का सरकार पर हमले का नहीं है बल्कि सत्ता ही लगातार हमले कर रही है। लेकिन इस पॉलीटिकल ड्रॉफ्ट में अगर सरकार की प्राथमिकता ग्रामीण किसान आदिवासी बताये गये हैं तो दूसरी तरफ माओवादियों ने अपनी प्रथामिकता में भी परिवर्तन के संकेत दिये हैं। यानी देहाती क्षेत्रों से इतर शहरी और औद्योगिक क्षेत्रों में अपने प्रभाव को फैलाने की बात कही गयी है।
माओवादियों ने माना है कि शहरी क्षेत्रों में मजदूर आंदोलन में उनकी शिरकत नहीं के बराबर है। इसी तरह शहरी मध्य वर्ग की मुश्किलों से भी उसका कोई वास्ता नहीं है। जबकि संसदीय राजनीति के बोझ तले सबसे ज्यादा प्रभावित शहरी मध्य वर्ग ही है। खुद की जमीन को व्यापक बनाने के लिये माओवादी अगर एक तरफ किसान-आदिवासी के सवाल को अलग कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ किसानों से शहरी मजदूरों को जोड़ने पर भी जोर दे रहे हैं। यानी माओवादियों की नजर गांव से पलायन कर रहे उन किसानों पर कहीं ज्यादा है जो जमीन से बेदखल होने के बाद शहरों में बतौर मजदूर जी रहे हैं। महत्वपूर्ण है कि खुद सरकार के आंकड़े बताते हैं कि बीते दस वर्षों में 5 करोड़ से ज्यादा किसान अपनी जमीन से बेदखल हुये हैं। और रेड कोरिडोर के इलाके में जितनी योजनाओं को मंजूरी दी गयी है अगर उन पर काम शुरू हो गया तो 5 करोड़ से ज्यादा ग्रामीण-किसान-आदिवासी अपनी पुश्तैनी जमीन से बेदखल हो जायेंगे । जाहिर है माओवादियों का ड्राफ्ट इन आंकडों के दायरे में सामाजिक-आर्थिक समस्या को भी समझ रहा होगा और राजनीतिक दल भी इस नये शहरी मजदूरों के दायरे में अपनी राजनीतिक नीतियों को भी तौल रहे होंगे । लेकिन, माओवादियों के पॉलीटिकल ड्राफ्ट और राज्य सरकारों की विकास नीतियों के बीच कितनी महीन रेखा है इसका अंदाजा भी शहरीकरण की सोच और शहरी गरीबों की बढ़ती तादाद से समझा जा सकता है।
कांग्रेस और भाजपा के मुताबिक महाराष्ट्र, गुजरात दो ऐसे राज्य हैं जहा सबसे ज्यादा नये शहर बने। यानी विकास की असल धारा इन दो राज्यो में दिखायी दी। जबकि बाकी राज्यों में भी बीते एक दशक के दौरान गांवो को शहरों में बदलने की कवायद हर राजनीतिक दल ने की। लेकिन माओवादियों की राजनीतिक थ्योरी इसमें गरीबो की बढ़ती संख्या को माप रही है। माओवादियों के मुताबिक गांव की अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर जिस तरीके से शहरी विकास का खांचा खींचा जा रहा है , उसमें मुनाफा ना सिर्फ चंद हाथो में सिमट रहा है बल्कि इन चंद हाथों के जरिये ही राज्यों में सत्ता निर्धारित हो रही है जिससे गरीबी और मुफलिसी का कारण भी राजनीतिकरण बन चुका है। माओवादियों के इस ड्राफ्ट में बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं पर टिकी येदुरप्पा सरकार का जिक्र उदाहरण दे कर किया गया है। यूं भी संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट भी मानती है कि दुनिया में सबसे ज्यादा शहरी गरीब महाराष्ट्र में है, जिसे कांग्रेस शहरीकरण के दौर में सबसे उपलब्धि भरा राज्य मानती है। खास बात यह है कि माओवादियों के इस पॉलिटिकल ड्राफ्ट में कही भी हिंसा का जिक्र नही किया गया है। उसकी जगह क्रांतिकारी आंदोलन शब्द का जिक्र यह कह कर किया गया है कि साम्राज्यवाद के खिलाफ संशोधनवादी पार्टियां या एनजीओ जो कुछ कर रहे है, वह धोखाधड़़ी के सिवाय और कुछ नहीं है। ऐसे में माओवादी अगर मजदूर-किसान मैत्री की स्थापना पर बल देते हुये धैर्यपूर्वक अपने क्रांतिकारी जन आधार को मजबूत बना पाने में सक्षम हो पायेंगे तो साम्राज्यवाद-फासीवाद दोनों के खिलाफ वास्तविक आंदोलन सही दिशा में चल पायेगा ।
in ''swarthi'' netao se bhagwan bachaye.......
ReplyDeleteक्या कहें पूरी सरकार दलाल बन चुकी है ,व्यवस्था लूटेरों और भ्रष्टाचारियों के रहमों करम पे है ऐसे में किसी सार्थक और इमानदार गठजोड़ का निर्माण इस देश में चमत्कार से कम नहीं होगा ...
ReplyDeleteसर आपके पत्रकारिता के ताप से ही हम नवोदित गर्माहट पाते है। आपको पढ़ने ओर रात में देखने के बाद क्या कहूं पूरी व्यवस्था के प्रति नजरिया ही बदल गया है!
ReplyDeleteबाजपायी जी आत ने जिस विषय पर चिन्ता ाहिर की हैं वह समस्या कम राजनैतिक व्याभिचार की भाषा ज्यादा लगती हैं , दरअसल मायोवादी अगर देश के नीतिगत सवालो के प्रति इतने विचारशील व गंभीर हैं तो उन्हे अपने विचारो की प्रजातांत्रिक बुनियाद मजबूत करते हुऐ आम चुनावो में हिस्सा लेकर ताकत दिखानी चाहिये......सतीश कुमार चौहान , भिलाई
ReplyDeletePunya jee ,
ReplyDeleteYe YUWAON ka desh hai aur neta sirf ek hai- RAHUL GANDHI ! Isi ko kahte hain EKAADHIKAAR !
Main ye baat is liye kah raha hun kyonki Congress ka media management itna badhiya hai ki Itne saalon mein uski (Congress ki ) NAAKAAMIYON ki taraf aaj tak kisi ka dhyaan nahi gaya ! Maharashtra ki baat bilkul sahi hai , kyonki maine khud (Bataur Patrakaar) Nagpur se lekar akola, pune, mumbai , amravati jaise Ilaakon ka daura kiya , paaya ki wakayee Maharshtra mein shahri Aabaadi garib hai .
Sawaal vikaas ka nahi balki SAAMUHIK VIKAAS ka hai . par Congress ne Sirf khanij sansaadhanon par kabza kar ek varg vishesh ko laabhanwit kiya hai ! yahi kaaran hai ki aaj amiree aur garibee ke beech ka antar SURSA KE MUH KEE TARAH failta ja raha hai . sathi taur par vikaas ki gaatha ka propaganda , congress ne bakhubee kiya par buniyaadi vikaas ke maddenazar uski naakaamiyion ko Media chah kar bhi Saam ne nahi la paaya ! **Taqatwar ko saath rakho aur Garibon ke maseeha bane raho** - isi bina par congress Rajnitee kartee aayee hai aur bhavishya mein bhi karegi , kyonki BHARAT mein UDAARIKARAN ka istemaal ameeron ko ameer banane ke liye kiya gaya ! Udaaharan ke taur par - US , CHINA, EUROPE ne udaarikaran ke tahat apnee bunyaadee vyavasthaaon (MASLAN:- Government education institute, government hospital, road, water, electricity, corruption, etc.) ko mazbut kiya aur phir so-called LIBERLIZATION policy ko apnaaya . par humare yahan Buniyaadee vikaas ko chod kar satahi vikaas par zor diya gaya .
Parinaam ? maaowaad ka badhta daayara ! Ameeri-Gareebi ke beech ki badhti khai !
Congress ka Media Management is kadar taaqatwar hai ki yuwaaon ka ghoshit hua desh BHARAT sirf ek yuwa neta ke sahare baitha hua dikhaaye deta hai ! Galat neetiyon ke virodh ke liye ek taaqatwar manch chaaiye hota hai , Par media RAHUL GANDHI ke alaawa ye mach Dusare yuwaaon ko dene ko Taiyaar nahi . Aise mein Munaasib ho jaata hai ki hum likh kar chup-chaap baith jaayein ! kyonki maaowaad ke tariqon ka main samarthan kattayee nahi karta - ! HA ! Aadiwasiyon kee durdasha ke liye man mein peeda bahut hai , kyonki patrakaarita ke dauraan unhe qareeb se dekha hai .
Punya jee ,
ReplyDeleteYe YUWAON ka desh hai aur neta sirf ek hai- RAHUL GANDHI ! Isi ko kahte hain EKAADHIKAAR !
Main ye baat is liye kah raha hun kyonki Congress ka media management itna badhiya hai ki Itne saalon mein uski (Congress ki ) NAAKAAMIYON ki taraf aaj tak kisi ka dhyaan nahi gaya ! Maharashtra ki baat bilkul sahi hai , kyonki maine khud (Bataur Patrakaar) Nagpur se lekar akola, pune, mumbai , amravati jaise Ilaakon ka daura kiya , paaya ki wakayee Maharshtra mein shahri Aabaadi garib hai .
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पूँजीवाद, साम्यवाद, माओवाद या कोई भी वाद हो..आज विचारधारा सिर्फ नाम मैं बचा है. मकसद तो सिर्फ राजनीतिक सत्ता हथियाना रह गया है.
ReplyDeleteआपकी पत्रकारिता मुझे औरों से बहुत हट के लगती है. आप सुनने वालों के साथ त्वरित ही एक संवाद स्थापित कर लेते हैं.
एक नज़र इस blog par भी...
http://talk2anupamsingh.blogspot.com/
आपकी पोस्ट और नीरज़ जी के कमैंट नें पूरा परिपेक्ष खोल कर रख दिया!
ReplyDeleteयदि समय हो तो "राहुल गांधी की दाढ़ी और पा (पायाति)प(पर्सुएशन इंडस्ट्री)" ज़रूर पढें ( http://www.samvedanakeswar.blogspot.com/)