Monday, December 27, 2010
आज तक चैनल के दस साल : कहां से चले...कहां आ पहुंचे
दरअसल, इस हिम्मत के पीछे भी अरुण पुरी की ही पत्रकारीय समझ की ताकत थी, जिन्होंने न्यूज चैनल लांच करने से पहले बैठक में एक रिपोर्टर के सवाल पर यह कह कर चौकाया था कि खबर कभी रोकनी नहीं चाहिये और बिना किसी बाइट के अगर कोई रिपोर्टर खबर बताने की ताकत रखता है, तो वही उसकी विश्वनियता होती है। इस खुलेपन और ईमानदार माहौल के बीच आज तक की शुरुआत का हर पन्ना दस्तावेज है। लेकिन दस बरस बाद सिर्फ आज तक ही नहीं बल्कि न्यूज चैनलो में खुलापन या ईमानदार पहल के बीच पत्रकार की विश्वसनीयता का सवाल खोजने की बात होगी तो जाहिर है आखों के सामने खबरों से इतर रोचक या डराती तस्वीर आयेगी। हंसाती या त्रासदी को भी लोकप्रिय अंदाज में परोसी जाती जानकारी ही आती है। या फिर सूचना-दर-सूचना के आसरे सरकार के प्रवक्ता के तौर पर जानकारी को ही खबरों को मानने के सच के आलावे और कुछ आयेगा नहीं। और इस कड़ी में अगर पत्रकार की विश्वसनीयता का सवाल उछलेगा तो सत्ता से सबसे करीब का पत्रकार ही सबसे उंचे कद का खबरो को जानने समझने वाला माना जायेगा। यानी दस बरस का सबसे बड़ा यू टर्न पत्रकार की विश्वसनीयता से इतर सत्ताधारियों की गलबहियों के आसरे खुद में सत्ता की ताकत देखने-दिखाने की विश्नसनीयता है।
इसी घेरे में पेड न्यूज भी है और नीरा राडिया के टेप भी। चूंकि सत्ता का मतलब अब सरकार नहीं बल्कि वह पूंजी है जिसके आसरे सरकार अपनी मौजूदगी दर्ज कराती है। और सरकार की मौजूदगी मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक जब विकास दर का आंकडे और चकाचौंध की नीतियों तले हो, तब समझना यह भी होगा कि गवरनेंस का मतलब या तो नीतियों के आसरे पूंजी की उगाही के रास्ते बनाने हैं या फिर पूंजी के लिये मुनाफे का ऐसा तंत्र, जिसमें विकास का पैमाना नयी नयी थ्योरी गढ़े। यानी एक ऐसे समाज या देश की परिकल्पना उड़ान भरे, जिसमें लोकतंत्र का जाम कॉरपोरेट के गिलास में सिमटा रहे। पत्रकार की पहली मुश्किल यहीं से खड़ी हुई क्योकि पत्रकार पहले मीडियाकर्मी में बदला और फिर अखबार या न्यूज चैनल का दफ्तर मीडिया हाउस में।
जाहिर है मीडिया हाउस की जरुरत भी इसी दस बरस में अगर अपनी पहचान को लेकर बदली तो नयी पहचान को बनाये रखने की जद्दोजहद में पत्रकार का ट्रांसफारमेशन भी हुआ। खबरों पर विज्ञापन मिलने का दौर इस कदर बदला कि विज्ञापन के आसरे खबरो को लिखने और चलाने का दौर शुरु हो गया। यानी दस बरस पहले जो पत्रकारीय विश्वसनीयता जनता में प्रभाव जमाती थी और उसी जनता को अपना माल बेचने के लिये विज्ञापन के जरीये पैसा मीडिया तक पहुंचता था, उसे नई आर्थिक व्यवस्था ने उलट दिया। इसी के सामानांतर खबरों को जनता तक पहुंचाने की पटरी भी उसी राजनीति के भरोसे पर आ टिकी जो खुद कारपोरेट पूंजी के जरीये अपने होने या ना होने का आंकलन करने लगी थी। खबर बिना विज्ञापन मंजूर नहीं। और न्यूज चैनल जिन कैबल के आसरे लोगो के घर तक पहुंचे, उस पर उसी राजनीति ने कब्जा कर लिया जो पहले ही खुद को मुनाफे की पूंजी तले नीलाम कर चुकी है। यानी रिपोर्टर से लेकर संपादक तक की समूची ऊर्जा ही जब मिडिया हाउस के मुनाफे को बनाने पर टिकेगी तो इसका असर होगा क्या ।
यह दस बरस बाद अब की परिस्थितियों को देखने से साफ हो सकता है। जहां पेड न्यूज का मतलब अगर पैसा लेकर खबर छापना है तो इसका दूसरा मतलब उन लोगो से पैसा लेना है जो चुनाव लड़कर या जीतकर पैसा ही बनायेंगे। तो उनसे पैसा मांगने में परेशानी क्या है। वही जो सरकार खुद को कॉरपोरेट के जरीये उपलब्धियों के दायरे में रखें या फिर कारपोरेट के लिये ही इस भरोसे काम करें कि देश में एक व्यवस्था तो बनी ही हुई है, उस व्यवस्था के एक हिस्से को लूटकर अगर एक नया कारपोरेट समाज ही बनाया जा सकता है, तो फिर इस कारपोरेट समाज का हिस्सा बनने में कोई सवाल क्यों करेगा। उसी कारपोरेट समाज का हिस्सा अगर कोई संपादक खबर के लिये या खबर की सौदेबाजी के जरीये अपने मीडिया हाउस को लाभ पहुंचाता है तो फिर इसमें परेशानी क्या है। बल्कि कोई संपादक अगर अपने आप में कॉरपोरेट हो जाये तो किसी भी मीडिया हाउस के लिये इससे बडी उपलब्धि और क्या हो सकती है। यानी पत्रकारीय समझ के दोनो दायरे में जब महत्वपूर्ण पूंजी या मुनाफा ही है, तो फिर स्ट्रिंगरों से लेकर रिपोर्टर तक से पेड-न्यूज का खेल या फिर कारपोरेट संपादक से जरीये सत्ता के पूंजी बंटवारे में सेंध लगाने की हैसियत तले राडिया टेप सरीखे सवाल। 15 बरस पहले जब आजतक न्यूज चैनल के तौर पर नहीं था और महज बीस मिनट में देश भर की खबरो को समेटने का माद्दा एसपी सिंह रखते थे। तब सुखराम के घर से बोरियों से निकले नोटों को कैमरो पर देखकर उन्होंने आजतक की पत्रकारीय टीम की मीटिंग में यही कहा कि इन नोटों को आपने अगर भूसा नहीं माना तो फिर भ्रष्ट्राचार पर नकेल भी मीडिया नहीं कस पायेगा । और उसके बाद आजतक के कार्यक्रम में जब्त करोडो नोटों को दिखाकर एसपी ने देश की बदहाली में भ्रष्ट्र मंत्री का कच्चा-चिट्ठा दिखाया। लेकिन दस बरस बाद उसी बदहाल देश में साढ़े चार हजार करोड के मुकेश अंबानी के मकान का ग्लैमर तमाम न्यूज चैनलो में यह कह कर परोसा गया कि दुनिया का सबसे रईस शख्स भी हमारे पास है। और इसके लिये देखिये नायाब व्हाइट हाउस। दिल्ली को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिये 14 बरस पहले जब उद्योगों को हटाने का एलान हुआ तो एसपी सिंह ऐसी खबर को बनाने में जुटे जिसमें प्रदूषण का मारा मजदूर हो और उसी मजदूर के घर का चूल्हा भी उसी उद्योग से चलता हो, जिससे उसकी तबियत बिगड़ी हो । और उस वक्त लुटियन्स की दिल्ली पर एसपी सिंह ने सीधा हमला किया था।
वहीं दस बरस पहले जब सैनिक फार्म पर एससीडी का बुलडोजर चल रहा था तब आजतक के ही संपादक उदय शंकर इस बात पर तैयार हो गये थे कि छतरपुर के फार्म हाउसों के भीतर की दुनिया से भी देश को परिचय कराया जाये। जहां आज नीरा राडिया का आकाश-गंगा फार्म-हाउस है और जिसपर सीबीआई ने छापा मारा। दस बरस पहले फार्म हाउस समाज की बदहाली में मलमल का पैबंद संपादक को नजर आते थे और दस बरस बाद संपादको को नीरा राडिया के फार्म हाउस में ग्लैमर और देश के विकास की चकाचौंध नजर आती है। किस तेजी से मीडिया का चरित्र बदला इसका अंदाज अब खबरों को पकड़ने और उसे दिखाने से भी लगाया जा सकता है। महाराष्ट्र के औरंगाबाद में तीस फीसदी लोग गरीबी से नीचे हैं। अधिकतर बुनकर मौत के कगार पर हैं। कपास-गन्ने के किसान खुदकुशी कर रहे हैं। लेकिन इस दौर में औरगांबाद में सबसे ज्यादा मर्सीडिज गाड़ियां हैं इस पर राष्ट्रीय न्यूज चैनलो ने स्पेशल कार्यक्रम बनाये। डीएलएफ के मालिक के पास सिर्फ दो सौ करोड़ की कारों का काफिला ही है, उस पर स्पेशल रिपोर्ट न्यूज चैनलो में चली। क्योंकि दस बरस में मीडिया हाउस का मतलब कारपोरेट समाज का पिलर बनना हो चुका है और पत्रकार का मतलब भी कारपोरेट समाज में बतौर ब्रांड बनना। यानी कीमत अब ब्रांड की है। न्यूज चैनल भी ब्रांड है और कोई पत्रकार अगर ब्रांड बन गया तो उसके लिये पत्रकारिता मायने नहीं रखती बल्कि उसके जरीये पत्रकारिता चल सकती है। दस बरस पहले ब्रांड का मतलब खबरों को लेकर विश्वसनीयता थी। पत्रकारीय एथिक्स थे । दस बरस बाद आज की तारीख में ब्रांड का मतलब सत्ता और कारपोरेट के समाज में पत्रकारीय एथिक्स बेचकर उनके मुनाफे को विश्वसनीय बनाना है, और खुद चकाचौंध के लिये विश्वसनीय बनना है। यानी दस बरस पहले जो पत्रकारीय समझ आम आदमी के हक उसकी जरुरत तले लोकतंत्र की महक खोजते थे और संविधान के दायरे में वी द पीपुल, फार द पीपुल का सवाल खड़ा करने की ताकत दिखाते थे, वही सवाल दस बरस बाद आज लोकतंत्र को भी पूंजी-मुनाफे का गुलाम मानने से नहीं हिचकते। और मीडिया का यही चेहरा अब खुल्लम खुल्ला मान चुका है कि देश संसद से या संविधान के दायरे से नहीं बल्कि कारपोरेट समाज के जरीये चलता है। इसलिये दस बरस पहले मीडिया विकल्प के सवालों में देश की व्यवस्था को भी परखता था। लेकिन दस बरस बाद आज बदली हुई व्यवस्था और कारपोरेट समाज के लिये पत्रकारिता को ही विकल्प मान लिया गया है। यानी जिससे लड़ना था और जिस पर निगरानी करनी थी उसी की पूंछ बनकर सूंड होने का भ्रम नया पत्रकारीय मिशन हो चुका है।
Thursday, December 23, 2010
इंतजार कीजिये राजा आज (शुक्रवार) क्या कहेंगे !
जाहिर है ऐसे में सीबीआई उस सिरे को ही पकड़ना चाहेगी कि कहीं पूर्व टेलीकॉम मंत्री की भूमिका लाईसेंस के जरिये हवाला रैकेट में तो कुछ नहीं थी। क्योंकि यही सिरा राजा की गिरफ्तारी करवा सकता है और सीबीआई 90 दिनों में ऐसी चार्जशीट दाखिल कर सकती है जिसमें 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला प्रधानमंत्री के हद से बाहर निकल कर सीधे हवाला रैकेट से जुड़ता दिखायी दे। और समूची जांच की दिशा ही देशी-बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उस खेल को पकड़ने में लग जाये जो देश में आर्थिक सुधार के साथ मनमोहन इकनॉमिक्स के जरिये विदेशी पूंजी की आवाजाही से शुरू हुआ।
लेकिन ए.राजा अगर स्पेक्ट्रम घोटाले के तार कॉरपोरेट संघर्ष की मुनाफाखोरी से जोड़कर उसमें राजनीति का तडका लगा देते हैं, तब क्या होगा। क्या तब यह सवाल खड़ा होगा कि टाटा या मुकेश अंबानी के लिये जो रास्ता नीरा राडिया मंत्रालयो में घूम-घूम कर बना रही थी उसके सामानांतर सुनील मित्तल या अनिल अंबानी के लिये कोई रास्ता बन नहीं पा रहा था। इसलिये स्पेक्ट्रम का खेल बिगड़ा। और अगर स्पेक्ट्रम लाइसेंस के जरिये किसी कॉरपोरेट घराने को लाभ हुआ तो, जिसे घाटा हुआ उसने अदालत का दरवाजा क्यों नहीं खटखटाया। या फिर किसी भी कंपनी ने 2007-2009 के दौर में अदालत जाकर यह सवाल क्यों खड़ा नहीं किया कि जिन कंपनियों ने कभी टेलीकॉम के क्षेत्र में कोई काम नहीं किया उन्हें स्पेक्ट्रम का आबंटन क्यों किया गया। फिर कैसे लाख टके में कंपनी बना कर एक झटके में करोड़ों का वारे-न्यारे स्पेक्ट्रम लाइसेंस पाते ही कर लिया।
असल में अर्थव्यवस्था के सामने सरकार कैसे नतमस्तक होती चली गयी है। और कॉरपोरेट घरानों के मुनाफे में ही देश की चकाचौंध या देश की बदहाली सिमटती जा रही है। यह भी सरकार की आर्थिक नीतियों से ही समझा जा सकता है जिसके दायरे में राजा या राडिया महज प्यादे नजर आते हैं। अगर राडिया देश के लिये खतरनाक है जैसा कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दायर अपने बताया है , तो इसका जबाब कौन देगा कि जिन कंपनियों के लिये राडिया काम कर रही थी उनके मुनाफे के आधारों को क्या ईडी टोटलने की स्थिति में है। मुश्किल है। यह मुश्किल क्यों है इसे समझने से पहले जरा सरकार और कॉरपोरेट के संबंधों को समझना भी जरुरी है।
वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी खुद कहते है कि वह अंबानी बंधुओं को आज से नहीं बचपन से जानते हैं। यानी राजीव गांधी के दौर में जब धीरुभाई अंबानी मुश्किल में थे तब प्रणव मुखर्जी की कितनी करीबी धीरुभाई अंबानी से थी यह कांग्रेस की राजनीति का खुला पन्ना है। लेकिन नयी परिस्थिति में देश के तेल-गैस मंत्री मुरली देवडा मुकेश अंबानी के कितने करीबी हैं और देश के गृहमंत्री पी. चिदबरंम अनिल अंबानी से कितने करीबी हैं यह भी राजनीतिक गलियारे में किसी से छुपा नहीं है। 10 जनपथ से अनिल अंबानी की दूरी भी किसी से छुपी नहीं है और अनिल अंबानी के मुनाफे के लिये मुलायम सिंह ने समाजवादी राजनीति को कैसे हाशिये पर ढकेल दिया यह भी किसी से छुपा नहीं है। लेकिन मनमोहन की इकनॉमी में जब संसदीय राजनीति ही हाशिये पर है तो फिर सरकार से ऊपर कॉरपोरेट हो इससे इंकार कैसे किया जा सकता है।
हो सकता है ए. राजा सीबीआई को खुल्लम-खुल्ला यही कह दें कि सुनील मित्तल और अनिल आंबानी की लॉबी स्पेक्ट्रम लाईसेंस में नहीं चली इसलिये उन्हें बली का बकरा बनाया जा रहा है। या फिर सरकार में जब कामकाज का तरीका ही जब यही बना दिया गया है कि लॉबिस्टों के जरिये कॉरपोरेट काम करें और लॉबिस्टों को कॉरपोरेट का नुमाइंदा मानकर सरकार नीतियों को अमल में लाये, क्योंकि हर कॉरपोरेट से मंत्रियों के तार जुड़े हैं तो सीबीआई क्या करेगी। क्योंकि मनमोहन इकनॉमिक्स में तो नीरा राडिया सरीखे लॉबिस्टो को भी बकायदा मंत्रालयों में काम करने का लाइसेंस दिया जाता है। और 2008 में जब पहली बार नीरा राडिया को ब्लैकलिस्ट में डाला गया तो उस वक्त कुल 74 लॉबिस्ट काम कर रहे थे जिसमें ब्लैक लिस्ट के नाम में सिर्फ नीरा राडिया नहीं बल्कि 28 दूसरे लॉबिस्टो के भी नाम थे।
यह भी हो सकता है राजा सरकार के अलग अलग मंत्रालयों की उस पूरी भूमिका को लेकर चर्चा छेड़ दें कि कैसे मुंबई एयरपोर्ट के लिये अनिल अंबानी का नाम भी शॉर्टलिस्ट किया गया था, लेकिन आखिरी प्रक्रिया में इसे सुब्बीरामी रेड्डे के बेटे जीवीके रेड्डी को दे दिया गया। हो सकता है ए. राजा ऊर्जा मंत्रालय के जरिये बांटे जा रहे थर्मल पावर प्रोजेक्ट का कच्चा-चिट्टा देकर सवाल खडा करें कि लाइसेंस देने के लिये घूसखोरी तो एक कानूनी प्रक्रिया है। जैसे एनटीपीसी ने बीएचईएल को छत्तीसगढ़ में कितनी रकम लेकर पावर प्रोजेक्ट लगाने की इजाजत दी। और जो सवाल सुप्रीम कोर्ट ने यह कह कर उठाये हैं कि आखिर राष्ट्रीयकृत बैंकों ने भी कैसे स्पेक्ट्रम लाईसेंस के नाम पर टटपूंजिया कंपनियों को 10-10 हजार करोड़ रुपये लोन दे दिये। तो, हो सकता है ए.राजा सीबीआई को वह पूरी प्रक्रिया ही समझाने लगें कि कैसे विकास के नाम पर देश में अब कॉरपोरेट घराने ऐसे-ऐसे प्रोजेक्ट पर सरकार से हरी झंडी ले चुके हैं जिनका कोई बेंच मार्क ही किसी को पता नहीं है। जैसे दस साल पहले पावर प्रोजेक्ट लगाने के नाम पर सरकार से लाईसेंस लेकर बैकों से कितनी भी उधारी ले ली जाती थी और पावर प्रोजेक्ट का लाईसेंस पाने वाली कंपनी का अपना टर्नओवर चंद लाख का होता था।
लेकिन देश में बिजली चाहिये और बिना उसके विकास अधूरा है तो ऊर्जा मंत्री की उपलब्धि भी जब यह होती कि उसके जरिये कितने पावर प्रोजेक्ट आ सकते है तो फिर लेन-देन कितने का हो रहा है। बैंक कितना लोन किस एवज में दे रहा है, इसकी ठौर तो आज भी नहीं ली जाती है। अब सरकार की तरफ से सिर्फ इतना ही किया गया है कि पावर प्रोजेक्ट लगाने वाली कंपनी से पूछा जा रहा है कि वह प्रति यूनिट बिजली बेचेगी कितने में। जिसका आश्वासन आज भी कोई पावर प्रोजेक्ट कंपनी नहीं दे रही है। हो सकता है राजा स्पेक्ट्रम लाइसेंस के बंटवारे के दौर में एसईजेड के लाइसेंस के बंदर बांट का किस्सा भी छेड़ दें और बताने लगें कि कैसे राडिया एसईजेड को लेकर भी किस-किस कॉरपोरट के लिये किस-किस मंत्रालय में घूम-घूम कर लॉबिग कर रही थी। और कैसे निखिल गांधी जब सबसे पहले एसईजेड के प्रपोजल के साथ सरकार के दरवाजे पर पहुंचे थे, तो मुकेश अंबानी ने उस प्रपोजल को ही रुकवा कर सात सौ करोड़ में निखिल गांधी से एसईजेड का ब्लू-प्रिंट ही खरीद लिया था। यानी कब, कैसे किस-किस कॉरपोरेट घराने की तूती सरकार और मंत्री से गठजोड कर चलती रही है और विकास के नाम पर कॉरपोरेट को मुनाफा पहुंचा कर मंत्रालय की उपलब्धि बताने के अलावे कोई दूसरा रास्ता भी मनमोहन इकनॉमिक्स में नहीं है। क्योंकि नार्थ-साउथ ब्लॉक के बीच दुनिया की सबसे खूबसूरत रायसीना हिल्स पर अगर रेड कारपेट किसी के लिये बिछी है तो वह कॉरपोरेट के लिये। तो आज ए. राजा सीबीआई से पूछताछ में क्या कहेंगे जानना सभी यही चाहेगें। लेकिन हो सकता है कि सरकार ना चाहे कि राजा बहकें और पिर सीबीआई राजा को पूछताछ के साथ गिरफ्तार कर फिलहाल 90 दिनो के लिये स्पेक्ट्रम घोटाले का केस लाक कर दें। तो इंतजार कीजिये।
Thursday, December 16, 2010
भ्रष्ट नौकरशाहों के जरिये राडिया ने खेला खेल
दरअसल प्रदीप बैजल ने 2008 में रिटायर होने के बाद नीरा राडिया के जिस कंपनी नोएसीस में काम करना शुरु किया उसका मुख्य काम ही मुकेश गैस के जरिये रिलायंस को फायदा पहुंचाना था। और सीबीआई को जिन दस्तावेजों की तलाश है उसमें मामला 2जी स्पेक्ट्रम का नहीं बल्कि देश भर में गैस लाईन बिछाने की ग्रिड के लिये बने सरकारी पाइपलाईन रेगुलेटरी एंजेसी में रिलायंस के लोगों को नियुक्त कराना था। खास बात यह भी है कि सीबीआई, प्रदीप बैजल के जरिये एनडीए सरकार के दौर में बने डिसइन्वेस्टमेंट नीतियों के तहत जिन सरकारी कंपनियों या इमारतों को बेचा गया उसकी नब्ज भी पकडना चाह रही है। क्योंंकि 1966 बैच के प्रदीप बैजल ही पहले ड्सइनेवेस्टमेंट सचिव थे जिनके उपर उस वक्त कांग्रेस ने यह आरोप लगाया था कि सरकारी कंपनियों या होटल तक को कौडियों के मोल बेचकर खास निजी कंपनियों के लाभ पहुंचाया जा रहा है। चूंकि नीरा राडिया की चार कंपनियां चार क्षेत्रों में देश के बडे औद्योगिक घरानों के लिये फिक्सर का काम कर रही थीं, तो उन चारों क्षेत्र टेलीकॉम एविएशन, इन्फ्रस्ट्रचर और एनर्जी के मद्देनजर इन्ही से जुड़े नौकरशाहों पर सीबीआई नकेल भी कस रही है। राडिया के टेलीफोन टैपिंग में ये सारे मामले सामने भी आ रहे हैं। खासकर गैस की लड़ाई में पर्यावरण को लेकर कोई परेशानी रिलायंस को ना हो इसके लिये नीरा राडिया ने जिन रिटायर नौकरशाहों को काम पर लगाया था वह टेलीफोन टैप के जरिये अब सामने आ रहा है, कि किस तरह सुविधायें रिलायंस के जरिये बांटी जा रही थीं।
हाइड्रोकार्बन के डायेरेक्टर जनरल वीके सिब्बल के लिये बंगला खरीदने का जिक्र राडिया के साथ रिलायंस अधिकारियों के बीच बातचीत में दर्ज है। इसके लिये आरकॉम के जिन चार अधिकारियों को लगाया था उसकी फाइल सीवीसी दफ्तर में भी मौजूद है। लेकिन सीबीआई अब पर्यावरण प्रबंधन के नाम पर रिलायंस को लाभ पहुंचाने वाले नौकरशाहों की सूची भी बना रही है। इतना ही नही वित्त मंत्रालय के दो अधिकारियों ने उस दौर में कैसे रिलायंस को टैक्स माफ कराया जिसका आंकडा करीब 40 हजार करोड बताया जा रहा है उसकी फाइल भी अब सीबीआई ने अपने कब्जे में ले ली है। नीरा राडिया के फोन टैप से इंडियन एयरलाइंस के पूर्व सीएमडी सुनील अरोड़ा के जरिये सीबीआई बीजेपी को भी घेरने की तैयारी में है। क्योंयकि एयरलाइंस को लेकर जो भी गफलत सुनील अरोड़ा ने की वह तो राडिया फोन टैपिंग में सामने आया ही है आखिर कैसे सुनील अरोड़ा नीरा राडिया की पहुंच का इस्तेमाल कर एंडियन एयरलाइन्स के मैनेजिंग डायरेक्टर बनना चाहते थे। लेकिन सीबीआई की नजर सुनील अरोड़ा के जरिये राजस्थान में करोड़ों की जमीन को कुछ खास लोगों को दिलाने में कितनी भूमिका थी, इस पर है। क्यों कि सुनील अरोड़ा राजस्थान में तत्काखलीन मुख्यमंत्री के निजी सचिव थे। और तब सत्ता बीजेपी के पास थी। और बतौर निजी सचिव बिना सीएम के हरी झंडी के जमीनों को कौडियों के मोल खरीद कर बांटने की कोई सोच भी नही सकता है। उसी दौर में राजस्थान की कई जमीने कुछ खास नौकरशाहों को नीरा राडिया के जरिये मुफ्त या कौडियों के मोल बांटी गयी...यह भी टेलीफोन टैपिंग में सामने आ गय़ी है । खासकर गैस पर कब्जे को लेकर उस दौर में जमीन गिफ्ट में दी गयी और उसमें आरआईएल और एडीएजी में कौन नौकरशाह किस तरफ था इसे भी सीबीआई अब खंगाल रही है। क्योंीकि नीरा राडिया की चारों कंपनी में 16 ऐसे रिटायर्ड नौकरशाह काम कर रहे थे जो कि नौकरी के दौरान पहले भारत सरकार के लिय़े उन्हीं क्षेत्र में नीतियों को अमली जामा पहनाने में लगे थे जिसमें नीरा राडिया की रुचि थी, या कहें नीरा राडिया के जरिये कुछ खास कारपोरेट घराने अपना लाभ बनाना चाहते थे।
असल में दस्तावेजों के जरिये अब यह भी सामने आ रहा है कि नौकरशाहों की फेरहिस्त में नीरा राडिया ने अपनी कंपनी से रिटायर्ड आईएएस नौकशाहो के साथ साथ राज्यो के नौकरशाहों को भी जोड़ा जिससे किसी भी काम को अमली जामा पहनाने में कोई परेशानी ना हो। दिल्ली के अलावा मुंबई, बेगलुरु, चेन्नई, कोलकत्ता, हैदराबाद और अहमदाबाद में अगर कंपनियों का टारगेट टाटा के हर 31 प्रोडक्ट को लाभ पहुंचाना था तो मुकेश अंबानी के रिलांयस के साथ साथ छह से ज्यादा उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भी भारत में घुसाना था जो यहां के खनिज संस्थानो के खनन में रुचि रखते थे। और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के काम में कोई रुकावट ना आये उसके लिये सहायक कंपनियां कोच्चि, लखनऊ, रांची और भुवनेश्वर में खोली गयीं। जिसमें राज्यों के रिटायर्ड उन प्रभावी नौकरशाहों को काम सौंपा गया जिनकी पहुंच राज्यों के मुख्यमंत्री तक या फिर मुख्यमंत्री कार्यालय में तैनात अपने पुराने साथी नौकरशाह के साथ थी।
असल में राडिया टैप के जरिये जो नजारा सीबीआई के सामने आ रहा है उसमें पहली बार बडा सवाल यह भी उभरा है कि अगर देश के लिये काम करने वाला कोई नौकरशाह रिटायर्ड होते ही या फिर रिटायरमेंट लेकर किसी निजी कंपनी को लाभ पहुंचाने में जुट जाये तो सरकार के पास क्या उपाय होगा। दूसरा बड़ा सवाल राजनीति के मद्दनजर उभरा है कि सरकार बदलने पर जैसे एनडीए के बाद यूपीए की सरकार केन्द्र में आयी या फिर झारखंड जैसे राज्य में मधु कोड़ा सरीखा एक निर्दलीय राजनीतिज्ञ के अंतर्विरोध की वजह से मुख्यमंत्री बन गया अगर वह किसी निजी कंपनी को लाभ पहुंचाने में जुट जाये तो उससे देश के राज्स्व को जो चूना लगेगा उसकी भरपाई कौन करेगा। यह खेल टाटा के लिये अगर झारखंड में हुआ तो वेदांत ग्रुप के लिये उड़ीसा में नवीन पटनायक ने भी किया। और केन्द्र में बडी मुश्किल यह हे कि एनडीए के बाद जब गठबंधन के दौर में मंत्रालय ऐसे-ऐसे क्षेत्रीय दलों के नेताओं के हिस्से में गये जिनके लिये मंत्रालय का मतलब ही पैसा उगाही था तो फिर नीरा राडिया सरीखे कारपोरेट फिक्सर को कौन कैसे रोकता।
जाहिर है यह सारे सवाल सीबीआई के पास दस्तावेजों में तो मौजूद हैं, लेकिन इन दस्तावेजों के जरिये कोई भी सरकार इस पहल को रोकने की दिशा में कदम उठयेगी या फिर इसे भी अपनी राजनीतिक सौदेबाजी का हिस्सा बना लेगी। अब देखना यही है क्योंकि पहली बार सत्ता ही एक कशमकश में नजर आ रही है, जहा दांव पर देश का लोकतंत्र है।
Saturday, December 11, 2010
बदलते दौर में कांग्रेस की मुश्किल
कांग्रेस की सबसे बड़ी मुसीबत क्या है। स्पेक्ट्रम घोटाला। कारपोरेट घरानों का फंसना। सीवीसी की नियुक्ति पर अंगुली उठना। कॉमनवेल्थ से लेकर आदर्श सोसायटी का घपला, कांग्रेसी नेताओं की अगुवाई में होना। आंध्र प्रदेश में जगन रेड्डी का बगावत करना। करुणानिधि का चेताना कि गठबंधन का टूटना दोनों के लिये घातक होगा। या फिर शरद पवार का सरकार को धमकाना कि कारपोरेट जगत के खिलाफ भ्रष्टाचार के नाम पर कार्रवाई सही नहीं है। या फिर मुश्किलों के इस दौर में कांग्रेस पार्टी में ही वह एकजुटता ना होना जैसा अक्सर इससे पहले के मुश्किल भरे मौके पर नजर आती थी। जाहिर है सोनिया गांधी ने सोचा भी ऐसा ना होगा कि 2004 के जनादेश से कहीं ज्यादा मजबूत होकर जब 2009 का जनादेश कांग्रेस के पक्ष में आने के बाद एक साल में संकट कुछ इस तरह आयेगा कि मनमोहन की मि. क्लीन छवि हो या "काग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ' का नारा भी टूटता सा दिखने लगेगा।
असल में कांग्रेस की मुश्किलों या देश के सामने आये भ्रष्टाचार के संकट को समझने के लिये जरुरी है कि इस दौर में सरकार के कामकाज के तरीके और राजनीतिक दलों के संगठन के तौर-तरीकों को समझा जाये। अब सवाल सिर्फ जनता के बीच से निकले नेता के प्रधानमंत्री बनने की जगह सीईओ सरीखे एक नौकरशाह के प्रधानमंत्री बनने का नहीं है। बल्कि हर मंत्री की अपनी सत्ता है। और हर मंत्रालय के जरिये कोई भी मंत्री अरबों-खरबों का खेल जिस आसानी से विकास के नाम पर कर सकता है, उसमें किसी भी मंत्री के लिये राजनीतिक दल की जरूरत एक तमगे से अलग नहीं होती है। और यह सच केन्द्र से लेकर राज्य सरकारों का है। यानी इस दौर में खुले बाजार को जिस माल की जरूरत है और वह उपभोक्ता से लेकर खनिज संसधानों और सस्ते मजदूर से लेकर सस्ते इन्फ्रास्ट्रचर में सिमटा हुआ है, और यह सब पूरा करने में भारत सक्षम है तो फिर हर सत्ताधारी की अपनी सत्ता हो ही जायेगी इससे इंकार नहीं किया जा सकता।
यहां सवाल सिर्फ ए.राजा का नहीं है जिन्होंने स्पेक्ट्रम के जरिये देश को चूना लगाया लेकिन पूंजी का जुगाड़ कर डीएमके में अपना कद बढाया और राजनीतिक तौर पर अपने भविष्य को भी सुरक्षित कर लिया। बल्कि कांग्रेस के नेता जो भी मंत्री है या फिर पहले किसी ना किसी रूप में सत्ता संभाल चुके है, उनकी हैसियत पार्टी में कैसी है यह विलासराव देशमुख या गुलाम नबी आजाद या फिर दिग्विजय सिंह सरीखे नेताओं को देखकर समझा जा सकता है। क्या कोई यह सोच भी सकता कि महाराष्ट्र में शिवसेना की ही सत्ता क्यों ना आ जाये और मध्यप्रदेश में भाजपा की ही सत्ता क्यों ना हो लेकिन विलासराव देशमुख या दिग्विजय सिंह का काम उनके राज्यों में पूरा नहीं होगा। असल में सत्ता जिस तेजी से मंत्री या मुख्यमंत्री के लिये पूंजी की उगाही करती है और कारपोरेट के साथ नेटवर्किंग कराती हैं उसमें सत्ता जाने के बाद भी निजी सत्ता हर पूर्व मंत्री की बरकरार रहती है। यह सत्ता से आगे स्थायी सत्ता होती है।और बीते दस साल का सच यही है कि हर राजनीतिक दल ने सत्ता भोगी है। यानी सत्ताधारियों को लेकर विपक्ष के किसी नेता को देखकर यह सोचना भी बेमानी है कि विपक्षी नेता का काम आज की तारीख में हो नहीं सकता, क्योंकि वह सत्ता में नहीं है।
राजनीतिक गलियारे में हर कोई जानता है कि लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज अपने किसी भी काम को लेकर और किसी का नहीं बल्कि सुपर पीएम सोनिया गांधी या राहुल गांधी से बात करने की ताकत रखती है। साथ ही काम पूरा कराने की ताकत भी। इसी राजनीतिक गलियारे में हर काग्रेसी भी जानते है कि पी.चिदंबरम का बेटा अब राजनीतिक मैदान में कूदने के लिये तैयार है और चिदंबरम भी इस तैयारी में है कि तमिलनाडु में अब कांग्रेस उनके हिसाब से चले। और पूंजी की कमी है नहीं। यह ठीक वैसे ही है जैसे कर्नाटक में येदियुरप्पा आरएसएस से निकलकर सीएम बनने के बाद भाजपा की दिल्ली चौकड़ी को भी चेताने से नहीं घबराते कि उन्हें बेदखल किया तो वह भाजपा को ही बेदखल कर देंगे।
असल में यहीं से जगन रेड्डी का सवाल भी खड़ा होता है और 10 जनपथ की कोटरी का भी। जगन रेड्डी अगर आंध्र प्रदेश में अब कांग्रेस के लिये एक चेतावनी है तो फिर इसी तरीके से भविष्य में हरियाणा या पंजाब में भी कोई चेतावनी खडी हो सकती है, क्योंकि आंध्रप्रदेश में जब वायएसआर ने अपने बूते कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचा दिया तो वायएसआर सिर्फ सीएम नहीं थे बल्कि आंध्र प्रदेश में काग्रेस के संगठन भी वही थे। यानी काग्रेस ने कभी इसकी तैयारी नहीं कि संगठन भी साथ-साथ खडा होना चाहिये । लेकिन कांग्रेस इस हकीकत को भी जानती समझती है कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी ही असल में पार्टी-सरकार-संगठन है, इसलिये सोनिया की खामोशी के वक्त सीताराम केसरी ने कैसे कांग्रेस का बंटाधार किया यह भी किसी से छुपा नहीं है। और सोनिया के खड़े होते ही कैसे झटके में बिखरी कांग्रेस एक लगने लगी यह भी कांग्रेसियो ने ही देखा है। मगर सरकार के कारपोरेटिकरण के दौर में पार्टी जनता से जुडे रहे और मंत्री-सीएम भी इसकी काट किसी के पास है नहीं, इसलिये राज्यो में सीएम का मतलब सिर्फ सरकार नहीं होता बल्कि बल्कि पार्टी-संगठन भी होता है। इसकी सबसे बड़ी वजह राज्य की आकूत संपत्ति पर सीएम का बैठना होता है और राज्य के लिये पूंजी प्रवाह ही कैडर को नेता से जोड़ता है। यह वैसे ही है जैसे हरियाणा में फिलहाल भूपिन्दर सिंह हुड्डा सर्वोसर्वा है और पंजाब में अमरिन्दर सिंह। वही पार्टी के नेता भी हैं और संगठन भी। यानी कल कोई संकट यहां खडा होगा तो सत्ता ना मिलने पर कांग्रेस के सामानांतर इन्हीं का कोई दूसरा खड़ा हो जायेगा।
वहीं मुश्किल यह है कि सोनिया गांधी की कटोरी में कोई ऐसा है नहीं जिसने राज्य संभाला हो। इसलिये किचन कैबिनेट के सर्वेसर्वा अहमद पटेल के लिये किसी भी राज्य को कांग्रेस के लिये चैक एंड बैलेस करने का मतलब चंद चेहरों पर निगरानी रखना या सौदेबाजी करना ही होता है। ऐसे में जब चेहरे ही सत्ता और 10 जनपथ के प्रतीक बन जाये तो फिर संगठन गायब हो जाता है और टकराव की स्थिति में इन चेहरों के लिये बगावत का मतलब सिर्फ अपने चेहरों को बनाये रखना भर ही होता है क्योंकि उनके पीछे समर्थकों की ऐसी फौज होती है जो उसी नेता के पूंजी प्रवाह पर टिकी होती है। और इस भीड़ को गंवाने का मोह कोई नेता छोडना नहीं चाहता है। क्योंकि उसे पता होता है कि उसका चेहरा बना रहा तो पिर पार्टी खुद ब खुद उससे सौदेबाजी कर लेंगी। और जब तक टकराव नहीं होता इन्हीं समर्थकों को संगठन और कैडर माना जाता है। टकराव हुआ तो शरद पवार या ममता बनर्जी का उदाहरण तो सामने हैं ही। यानी राजनीतिक पार्टी जो पहले संगठन के बल पर खडी होती थी अब वह सत्ता और नेता को महत्व देने लगी हैं। जबकि इन परिस्थितियों के बीच मनमोहन सिंह के इक्नॉमिक्स के असर को भी समझना होगा जिसके जरिये हर मंत्रालय को संभालने वाले मंत्री की एक अपना इम्फ्रास्ट्क्चर खुद-ब-खुद उसके पद संभालते ही बन जाता है। और जनता के बीच से निकल कर लुटियन्स की दिल्ली में पहुंचते ही उसके मंत्रालय की कीमत किस योजना को लेकर कितनी है यह बाहरी ताकतें तय करने लगती हैं।
मसलन, पहली बार जब 2004 में टीआरएस के चंद्रशेखर राव मंत्री बने तो वह अपने मंत्रालय को समझ भी पाते उससे पहले ही गुजरात के अलग पोर्ट को लेकर उनसे सौदे करने कारपोरेट की एक टीम हैदराबाद पहुंच गयी और डेढ हजार करोड का खुला ऑफर भी दे आयी। सौदा हुआ या नहीं यह तो सामने नहीं आया लेकिन मंत्री पर छोड जब दोबारा चन्ध्रशेखर राव अपनी पार्टी को बिखरने से रोकने के लिये संघर्ष में उतरे तो उनके पास जनाधार से ज्यादा पूंजी थी। यह स्थिति देश के किसी भी मंत्री या मुख्यमंत्री को लेकर कैसे हो सकती है यह राजा, येदियुरुप्पा, जगन से लेकर सीएम पहकर शिवसेना छोड़ने वाले नारायण राणे तक से समझा जा सकता है। लेकिन नेता और मंत्री पद के पूंजी प्रवाह से कही ज्यादा ताकतवर इस दौर में कारपोरेट घराने हुये है, जो असल में देश को "बनाना रिपब्लिक" की तरफ ले जा रहे है, इससे कांग्रेस या सरकार कैसे निपटेंगी बड़ा सवाल यहीं पैदा हो गया है। यह तो संयोग है कि नीरा राडिया के टेप एक ऐसे दौर में सामने आये जब देश में भ्रष्टाचार को लेकर संघर्ष तूल पकड रहा है और लोकतंत्र का हर खम्भा दागदार भी नजर आ रहा है और अब भ्रष्टाचार के खिलाफ मैदान में हौले-हौले उतरने की कोशिश भी कर रहा है । इसमें सफलता कहां तक मिलेगी यह तो दूर की गोटी है, लेकिन कांग्रेस की अब बड़ी मुश्किल यह है कि जिस मनमोहन इक्नामिक्स ने कारोपरेट घरानों के लिये रेड कारपेट बिछायी वही कारपोरेट सत्ता-सरकार से लेकर पार्टी और संगठन तक में घुन की तरह जा मिला है। नौकरशाह की नियुक्ति से लेकर मंत्री बनाने और पार्टी में ओहदा दिलाने से लेकर संगठन खडा करने में चंदा देने तक में कारपोरेट शामिल हो चुका है।
सोनिया गांधी के लिये यह मुश्किल घड़ी इसलिये ज्यादा है क्योंकि उन्हें राजीव गांधी का वह दौर याद आ रहा होगा जब धीरुभाई अंबानी और नुस्ली वाडिया के संघर्ष में सरकार और जांच एंजेसी भी भागीदार बन गयी थी। तब के वित्त मंत्री वीपी सिंह से लेकर इन्वोस्मेंट टायरेक्ट्रोरेट के भुरेलाल की भी एक भूमिका थी और उस दौर में कैसे कारपोरेट युद्ध में दो तिहाई बहुमत वाली राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार पांच साल पूरे नहीं कर पायी और चुनाव हुये तो देश ने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक नया नायक गढ दिया था। बाईस साल बाद कमोवेश वही स्थिति फिर फिर से खड़ी हो रही है क्योंकि कांग्रेस के सबसे कट्टर सहयोगी दुश्मन शरद पवार ही अब सरकार को पाठ पढा रहे है कि कारपोरेट घरानो को शक की बिला पर ना घेरें इससे गठबंधन की स्थायीतत्वता पर असर पड सकता है। यानी भ्रष्टाचार में फंसा कारपोरेट ही अब सियासत को ही अपनी बिसात बनाने की दिशा में ऐसे वक्त जा रहे हैं जब सोनिया गांधी या कहें काग्रेस राहुल गांधी को ताजपोशी के लिये तैयार कर रहा है। कारपोरेट अर्थव्यवस्था, चंदे पर टिका संगठन और चेहरों पर टिकी जो कांग्रेस कल तक मजबूत थी अब यही सब वजहें उसे को खोखला बना रही हैं।
Thursday, December 9, 2010
साल भर पहले यही भ्रष्ट्राचार ताकत थी
गृहमंत्री चिदबंरम ने पिछले दिनों दिल्ली में शीपिंग कारपोरेशन ऑफ इंडिया के एक कार्यक्रम में पत्रकारों से कहा आप राडिया मीडिया के हैं। फिर कहा अगर आप राडिया के टेप नहीं है तो फिर मीडिया में कैसे हैं। जाहिर है पी.चिदंबरम ने यह बात मजाक में कही थी।
..लेकिन क्या चिदबरंम इस हकीकत से इंकार कर सकते हैं कि जिस 2जी स्पेक्ट्रम और ए. राजा को लेकर राडिया टेप बना, उस पर बतौर वित्त मंत्री पी.चिदबंरम ने 2008 में ही चार पन्नों की टिपप्णी लिखी थी। अपनी टिप्पणी में उन्होंने टेलीकॉम् मंत्री ए.राजा के 2जी स्पेक्ट्रम के खेल पर सीधे अंगुली उठाते हुये देश को लगते चूने की बात कही थी। और गृह सचिव मधुकर गुप्ता ने 24 सिंतबर 2008 में उस फाइल पर से आंख मूंद लीं जिसमें पद्मभूषण से सम्मानित पत्रकार के राडिया से बातचीत का जिक्र भी था। असल में इन दो सवालों के जरिये समझना जरुरी है कि जो घपला-घोटाला या भ्रष्ट्राचार आज नजर आ रहा है वह एक-दो साल पहले क्यों अलग नजरिये से देखा जा रहा था। या फिर उस वक्त भ्रष्ट्राचार की परिभाषा में यह सब "पावर" का प्रतीक था।
तो पहले बात गृह मंत्री की। 15 नवबंर 2008 में पहली बार मुख्य सतर्कता आयुक्त ने संचार मंत्री ए.राजा को स्पेक्ट्रम घपले पर कारण बताओ नोटिस दिया और उसके तुरंत बाद अपनी जांच के आधार पर प्रधानमंत्री को विस्तृत रिपोर्ट भेजकर अभियोजन प्रक्रिया शुरू करने की मांग की। उस रिपोर्ट में वित्त मंत्री चिदबरंम की वह चार पेजी टिप्पणी भी नत्थी थी, जिसे वित्त मंत्री ने 2जी स्पेक्ट्रम में पहले आओ, पहले पाओ की पॉलिसी अपनाकर देश के राजस्व को चूना लगाना शुरु किया था। और वित्त मंत्रालय देश के बजट में जहां-जहां से देश के खजाने में कमाई आने का अंदेशा लगाये हुये था इसका भी बंटाधार होते हुये चिदबंरम देख भी रहे थे और गठबंधन के धर्म तले टिपण्णी से आगे जाने की हिम्मत भी नहीं दिखा पा रहे थे। क्योकि अगर याद कीजिये तो जब 3जी स्पेक्ट्रम से देश को कमाई हुई तो वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने पहली टिपण्णी यही की थी कि इस कमाई से मनरेगा से लेकर तमाम सामाजिक कार्यक्रमो को पूरा करने में सरकार का धाटा पूरा हो जायेगा।
लेकिन उस वक्त वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने 2जी स्पेक्ट्रम की कम कमाई पर कोई टिपण्णी नहीं की। यानी इस साल 27 फरवरी को बजट वाले दिन भी सरकार को यह नहीं लगा कि 2जी स्पेक्ट्रम को कौडि़यों के मोल बेचकर भारी घपला किया गया है। जबकि वित्त मंत्रालय ने ही 2008 में इस मामले में पहली टिप्पणी भेजी थी। यानी चिदंबरम 2008 में सिर्फ टिप्पणी कर सकते थे और 2010 में प्रणव मुखर्जी सिर्फ खामोशी बरत सकते हैं। लेकिन अब जब सीबीआई को 2जी स्पेक्ट्रम घपले पर ए.राजा की कार्रवाईयो को लेकर चार्जशीट दाखिल करनी है तो सीबीआई को ज्यादा मेहनत की जरुरत इसलिये नहीं है क्योकि तत्कालिन वित्तमंत्री की चार पेजी टिपण्णी ही सीबीआई के लिये काफी है। तो क्या इसीलिये चिदंबरम या प्रणव मुखर्जी अब स्पेक्ट्रम घोटाले पर जेपीसी की मांग आते ही तुरंत खारिज करते है क्योंकि जेपीसी में इसकी जानकारी भी सभी के सामने आ जा जायेगी कि कैसे वित्त मंत्री को तो हर घपले की जानकारी थी। क्योंकि अक्टूबर 2009 में सीबीआई के केस दर्ज करने के अगले ही दिन 22 अक्टूबर 2009 को टेलीकॉम मंत्रालय में छापे मारने के बाद जब ए. राजा के खिलाफ सीबीआई ने कानूनी कार्रवाई करने की सोची तो वह सारे दस्तावेज सीबीआई के प्रोसीक्यूशन विंग को भेजे और उसमें वित्त मंत्रालय यानी तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम की चार पेजी टिप्पणी भी नत्थी थी। लेकिन प्रसीक्यूशन विंग चूंकि कानून मंत्रालय के अधीन आता है तो फिर सारी फाइलें भी सीबीआई के प्रसिक्यूशन विंग से कानून मंत्रालय और वहा से पीएमओ चली गयी।
इस पूरे दौर में वित्त मंत्रालय की तरफ आज तक इसका जिक्र नहीं जा रहा है कि 2008 में वित्त मंत्री चिदंबरम ने जो सवाल खडे किये थे उनका जवाब ना कानून मंत्रालय ने दिया ना ही पीएमओ ने। लेकिन महत्वपूर्ण है कि राडिया का टेलीफोन टैप करने के लिये सबसे पहले आयकर निदेशालय ने ही गृह सचिव से इजाजत मांगी थी। और तब सवाल टीडीएस का था। यानी टैक्स चोरी का। और राडिया फोन टैप की जानकारी तब भी वित्त मंत्रालय को थी। क्योंकि इन्कम टैक्स की फाइल तो वित्त मंत्रालय के जरिये ही गृहमंत्रालय पहुंची और उसी के बाद राडिया के फोन टेप हुये। चिदंबरम अब देश के गृहमंत्री हैं। अब दूसरा सवाल। पिछले साल जिस वक्त सरकार देश के महान विभूतियों को छांट कर उन्हे पद्मभूषण, पद्म विभूषण या पद्मश्री सरीखे सम्मान से सम्मानित करने का सोच रही थी उनके नाम किसी भ्रष्ट्राचार या अपराध में नहीं है इसके लिये समूची लिस्ट अलग-अलग जांच एंजेसियों को भी भेजी गयी। और सीबीआई ने अपनी रिपोर्ट में तब भी नीरा राडिया के साथ जिनकी बात फोन पर हो रही थी उनके नाम को सम्मानित किये जाने वाले नामो का मिलान किया था। और उस वक्त भी उन पत्रकारो के नाम सीबीआई ने गृहमंत्रालय को भेजकर यह टिप्पणी की थी कि सीबीआई 2जी स्पेक्ट्रम मामले में जो जांच कर रही है और नीरा राडिया के फोन टेप से जो नाम निकल कर आ रहे है उनमे से कुछ नाम सरकार की सम्मानित सूची में भी हैं। इस मोस्ट अरजेंट फाइल पर गृह सचिव की नजर नहीं गई होगी ऐसा हो नही सकता है। क्योंकि राडिया का फोन टैप करने की इजाजत तत्तकालिन गृह सचिव मधुकर गुप्ता ने दी थी और पहले छह महीने के फोन टैप करने के बाद जब उसकी समय सीमा बढाने की बात आयी तो फिर से गृह मंत्रालय का दरवाजा खटखटाया गया। क्योंकि पोस्ट एंड टेलीग्राफ एक्ट के तहत हर छह महीने में इजाजत दोबारा लेनी जरुरी होती है। ऐसे में गृह मंत्रालय को यह जानकारी थी कि भ्रष्ट्राचार के मामले में ही नीरा राडिया का फोन टैप हो रहा है। बावजूद इसके मधुकर गुप्ता ने उस फाइल की अनदेखी की जिसमें नीरा राडिया से जुडे उघोगपतियो, नेताओ, नौकरशाह और पत्रकारों के नाम टेप में सामने आये थे। फिलहाल पत्रकारों में जो नाम खुलकर सामने आया है और जिन्हे पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया वह बरखा दत्त का है। जबकि सीबीआई ने इस फाइल में कई नाम का जिक्र किया है। कहा जा सकता है कि बाकियों के नाम अभी सामने नहीं आये हैं।
लेकिन बडा सवाल तो यह भी है कि गृह सचिव ने तब भ्रष्ट्राचार की नीरा राडिया फाइल पर आंख मूंदी थी या उस दौर में यह सोचना भी गुनाह था कि पद्मश्री, पद्मभूषण या पद्मविभूषण से सम्मानित लोगो की सरकारी सूची में किसी नाम को ब्लैक लिस्टेट करना अपराध माना जायेगा। या सरकार को आईना दिखाने वाले नौकरशाह अब बचे नहीं हैं। इसलिये राडिया टेप सामने आने के बाद या कहें देश में भ्रष्ट्राचार के खिलाफ माहौल बनने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी जिस तरह प्रधानमंत्री से लेकर सीवीसी तक को कटघरे में खडा करने में देर नहीं लगायी उसके अक्स में अगर 2008-09 के दौर को देखें तो मंदी से निपटते मनमोहन सिंह, चिदंबरम और प्रणव मुखर्जी की तिगड़ी खासी महत्वपूर्ण लगती थी। विकास दर के आंकडे दुनिया के सामने मनमोहन इक्नामिक्स को ही श्रेष्ठ माने हुये थे। लेकिन, अर्से बाद जब मनमोहन इक्नामिक्स तले भ्रष्टाचार की परते उघाड़ी जा रही हैं तो कौन इसके दायरे में है और कौन दायरे में आयेगा, यही सवाल जेपीसी तक जाने से हिचक रहा है। कयोंकि तब हर दल के नुमाइन्दे के पास कारपोरेट, राजनीति, मीडिया और बिचौलियों के सत्ताधारियों का कच्चा-चिट्टा होगा और बोफोर्स में तो एक कागज ने सत्ता पलट दी थी यहां तो पूरी फाइल होगी।
Friday, December 3, 2010
एक रुका हुआ फैसला
दो साल पहले गृह सचिव, आयकर निदेशालय और सीबीआई को इसका एहसास तक नहीं था कि जिस नीरा राडिया का वह टेलिफोन टैप करने जा रहे हैं, उस टेलिफोन पर लोकतंत्र का जनाजा हर दिन निकलता हुआ सुनायी देगा। मामला भ्रष्टाचार और आर्थिक अपराध के तहत हवाला और एफडीआई का था । यानी फोन कॉल्स एक ऐसे आरोपी के टैप किये जा रहे थे, जो कई मंत्रालयो के जरिये देश के राजस्व को चूना लगा रहा था और आयकर महानिदेशालय पता यही लगाना चाहता था कि नीरा राडिया के तार कहां-कहां किस-किस से जुड़े हुये हैं।
लेकिन जब 5851 फोन कॉल्स को आठ हजार पन्नों में समेटा गया तो पहला सवाल हर के सामने यही् आया क्या जिन्होंने नीरा राडिया से फोन पर बातचीत की वह सभी देश को चूना लगाने में लगे थे-इसे माना जाये या नहीं। क्योंकि हर बात करने वाले का अपना अपना लाभ उसके अपने घेरे में था। लेकिन लोकतांत्रिक देश में विकास के यह चेहरे नीरा राडिया से कुछ निजी और बहुत सारी सार्वजनिक बातें जिस तर्ज पर कर रहे थे, उसमें यह सवाल उठना जायज ही था कि निजी संवाद को सार्वजनिक क्यों किया जाये और सार्वजनिक संवाद को क्यों छुपाया जाये । लेकिन सीबीआई,आईडी,एन्कम टैक्स अगर किसी को आरोपी मान रहा है तो फिर निजपन क्या हो सकता है। और लोकतंत्र के जो चेहरे अपराधी से निजपन रखते हैं, उनको किस रुप में देखा जाये।
क्या नीरा राडिया के अपराधी करार देने तक टेप पर पांबदी लग जाये और अपराधी साबित होने के बाद हर बातचीत करने वालों को भी देशद्रोही मानें। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे अंडरवर्ल्ड डॉन दाउद इब्राहिम का फोन टैप करने पर उनसे बात करने वालों के खिलाफ सरकार क्या कदम उठाये। हाल में चिदंबरम ने इसके संकेत भी दिये कि आंतकवादियों से बात करने वाले पत्रकारों के खिलाफ भी कार्रवाई होगी। मीडिया में भी इसकी सहमति बनी और भाजपा ने तो इसका खुला समर्थन किया कि चिदंबरम कुछ गलत नहीं सोच रहे। अब सवाल है कि अगर दाउद से कोई उद्योगपति या संपादक बात करता है या फिर दाउद से किसी मंत्री के रिश्ते की बात सामने आती है तो फिर उसके खिलाफ कार्रवाई होगी या सरकार खामोशी ओढ लेगी। ठीक इसी तरह अगर हवाला या अन्य माध्यमों से देश को राजस्व का चूना बकायदा मंत्रालयों के नौकरशाहो और मंत्रियों के जरीये लगाया जा रहा है और इसमें मीडिया के कुछ नामचीन चेहरे भी अपने अपने राजनीतिक प्यादों का खेल खेल रहे हों, तब कार्रवाई होगी या नहीं। इतना ही नहीं दाउद से बातचीत के टेप कोई पत्रकार सामने ले आये तो उसकी वाहवाही समूचा देश या सरकार या गृहमंत्री चिदबरंम या फिर देश का कारपोरेट जगत भी कैसे करेंगे, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है । और उस वक्त क्या कोई उघोगपति,संपादक या मंत्री जिसने दाउद से बाचतीच की हो यह कहने की हिम्मत भी रखेगा कि बातचीत तो निजी थी उसे सार्वजनिक नहीं करना चाहिये।
इस आइने में अगर सबसे पहले रतन टाटा और राडिया की बातचीत के सामने आने के बाद टाटा के उठाये सवाल पर गौर करें तो उन्होंने बातचीत को निहायत निजी माना। और यह भी कहा कि बातचीत के टेप लीक करने वालो के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिये। अब सवाल है कि अगर मीडिया इस तरह के दस्तावेजों को सामने ना लाये या फिर कोई भी अधिकारी इस डर से हर उस सच को छुपा लें जो देश के लिये खतरनाक हो तो फिर लोकतंत्र का पैमाना क्या होगा। क्योकि एक तरफ आरटीआई के जरीये पारदर्शिता की बात सरकार कर रही है तो दूसरी तरफ मीडिया पर लगातार यह आरोप लग रहे हैं कि वह सरकार के साथ ही जा खड़ी हुई है। फिर मीडिया भी जब कारपोरेट सेक्टर में तब्दिल हो रही है तो किसी मीडिया संस्थान से यह उम्मीद कैसे रखी जा सकती है कि वह पत्रकारिता के आचरण में एथिक्स की बात करें।
असल में राडिया के फोन टैप से सामने आये सच ने पहली बार बडा सवाल यही खड़ा किया है कि अपराध का पैमाना देश में होना क्या चाहिये। लोकतंत्र का चौथा खम्भा, जिसकी पहचान ही ईमानदारी और भरोसे पर टिकी है उसके एथिक्स क्या बदल चुके हैं। या फिर विकास की जो अर्थव्यवस्था कल तक करोड़ों का सवाल खड़ा करती थी अगर अब वह सूचना तकनालाजी , खनन या स्पेक्ट्रम के जरीये अरबो-खरबो का खेल सिर्फ एक कागज के एनओसी के जरीये हो जाता है तो क्या लाईसेंस से आगे महालाइसेंस का यह दौर है। लेकिन इन सबसे बड़ा सवाल यही है कि इस तमाम सवालो पर फैसला लेगा कौन। लोकतंत्र के आइने में यह कहा जा सकता है कि न्यायपालिका और संसद दोनो को मिलकर कर यह फैसला लेना होगा। लेकिन इसी दौर में जरा भ्रष्टाचार के सवाल पर न्यायापालिका और संसद की स्थिति देखें। देश के सीवीसी पर सुप्रीम कोर्ट ने यह सवाल उठाया कि भ्रष्टाचार का कोई आरोपी भ्रष्टाचार पर नकेल कसने वाले पद सीवीसी पर कैसे नियुक्त हो सकता है। तब एटार्नी जनरल का जबाव यही आया कि ऐसे में तो न्यायधिशो की नियुक्ति पर भी सवाल उठ सकते हैं। क्योकि ऐसे किसी को खोजना मुश्किल है जिसका दामन पूरी तरह पाक-साफ हो। वही संसद में 198 सांसद ऐसे हैं, जिनपर भ्रष्टाचार के आरोप बकायदा दर्ज हैं और देश के विधानसभाओ में 2198 विधायक ऐसे हैं, जो भ्रष्टाचार के आरोपी हैं। जबकि छह राज्यो के मुख्यमंत्री और तीन प्रमुख पार्टियो के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और मायावती ऐसी हैं, जिन पर आय से ज्यादा संपत्ति का मामला चल रहा है। वहीं लोकतंत्र के आईने में इन सब पर फैसला लेने में मदद एक भूमिका मीडिया की भी है। लेकिन मीडिया निगरानी की जगह अगर सत्ता और कारपोरेट के बीच फिक्सर की भूमिका में आ जाये या फिर अपनी अपनी जरुरत के मुताबिक अपना अपना लाभ बनाने में लग जाये तो सवाल खड़ा कहां होगा कि निगरानी भी कही सौदेबाजी के दायरे में नहीं आ गई। यानी लोकतंत्र के खम्भे ही अपनी भूमिका की सौदेबाजी करने में जुट जाये और इस सौदेबाजी को ही मुख्यधारा मान लिया जाये तो क्या होगा। असल में सबसे बड़ा सच इस दौर का यही है कि देश के लिये जिसे आरोपियों का कटघरा माना जाता है, उसी कटघरे में खड़े आरोपी ही देश का भविष्य बना सकते हैं यही माना जा रहा है । यानी देश में मान्यता उसी तबके की है जो सौदेबाजी के जरीये लोकतंत्र का जनाजा नीरा राडिया से फोन पर हर वक्त निकालता रहा। इसलिये मुश्किल यह है कारपोरेट ने नीरा राडिया को आगे रखा। नीरा राडिया ने मीडिया को । मीडिया ने राजनीति को। राजनति ने पीएम को और पीएम कारपोरेट को देश का सर्वोसर्वा बनाने पर तुले हैं। तो इस गोलचक्कर में रास्ता कहां से निकलेगा।
नीरा राडिया एक ऐसे औजार के तौर पर इस दौर में सत्ता के सामने आयीं, जब देश में लाईसेंस राज के बदले महालाईसेंस का दौर शुरु हो चुका है। और खेल अब करोड़ों का नही अरबो-खरबो का होता हैं। खासकर खनन और सूचना तकनीक ऐसे क्षेत्र हैं, जहां सिर्फ कागज पर एक नो ऑब्जेकशन सर्टीफिकेट या एनओसी के लाइसेंस का मतलब ही होता है अरबो के मुनाफे का खेल। और कोई भी नेता जो जनता के रास्ते संसद तक पहुंचता है, मंत्री बनने के बाद उसे भी नीरा राडिया सरीखे फिक्सर की जरुरत अपने मंत्रालय की बोली लगाने के लिये बडे कैनवास में झाकने की जरुरत होती है। वहीं कारपोरेट जगत का रास्ता देश के बाहर के बाजार की कीमत से शुरु होता है जो देश में मंत्रियो को मुनाफे में साझीदार बनाने के लिये उस मीडिया को घेरते हैं, जिनके आसरे संसदीय लोकतंत्र की पताका फहराती रहती है। और मीडिया की इमारत भी अब विश्वनियता या ईमानदारी की जगह पूंजी के ऐसे ढांचे तले खडी हो रही है, जहां से आम आदमी की भूख की जगह उसका मनोरंजन और सत्ता-कारपोरेट की लूट की जगह विकास का रेड कारपेट ही मुनाफा देता नजर आता है। इसलिये पत्रकार अब जनता की राजनीति के लिये नहीं मुनाफे वाले कारपोरेट के लिये काम करना चाहते हैं और कारपोरेट नीरा राडिया के टेप से भी अपना निज बचाना चाहता है। इसलिये यह फैसला रुका है कि अपराधी सिर्फ दाउद है या घोटालेबाज और देश को अरबों के राजस्व का चूना लगाने वाले भी।